रूसी कविताएँ हिन्दी में : अलेक्सांद्र पूश्किन

Russian Poetry in Hindi : Alexander Pushkin


प्रेमपत्र को विदाई

विदा, प्रिय प्रेमपत्र, विदा, यह उसका आदेश था तुम्हें जला दूँ मैं तुरन्त ही यह उसका संदेश था कितना मैंने रोका ख़ुद को कितनी देर न चाहा पर उसके अनुरोध ने, कोई शेष न छोड़ी राह हाथों ने मेरे झोंक दिया मेरी ख़ुशी को आग में प्रेमपत्र वह लील लिया सुर्ख़ लपटों के राग ने अब समय आ गया जलने का, जल प्रेमपत्र जल है समय यह हाथ मलने का, मन है बहुत विकल भूखी ज्वाला जीम रही है तेरे पन्ने एक-एक कर मेरे दिल की घबराहट भी धीरे से रही है बिखर क्षण भर को बिजली-सी चमकी, उठने लगा धुँआ वह तैर रहा था हवा में, मैं कर रहा था दुआ लिफ़ाफ़े पर मोहर लगी थी तुम्हारी अंगूठी की लाख पिघल रही थी ऐसे मानो हो वह रूठी-सी फिर ख़त्म हो गया सब कुछ, पन्ने पड़ गए काले बदल गए थे हल्की राख में शब्द प्रेम के मतवाले पीड़ा तीखी उठी हृदय में औ' उदास हो गया मन जीवन भर अब बसा रहेगा मेरे भीतर यह क्षण ।। 1825 मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय

गायक

(येकातिरिना बाकूनिना के लिए) सुनी क्या तुमने जंगल से आती आवाज़ वो प्यारी गीत प्रेम के, गीत रंज के, गाता है वह न्यारे सुबह - सवेरे शान्त पड़े जब खेत और जंगल सारे पड़ी सुनाई आवाज़ दुखभरी कान में हमारे यह आवाज़ कभी सुनी क्या तुमने ? मिले कभी क्या घुप्प अंधेरे जंगल में तुम उससे गाए सदा जो बड़े रंज से अपने प्रेम के किस्से बहे कभी क्या आँसू तुम्हारे मुस्कान कभी देखी क्या भरी हुई हो जो वियोग में ऎसी दृष्टि लेखी क्या मिले कभी क्या तुम उससे ? साँस भरी क्या दुख से कभी आँखों की वीरानी देख गीत वो गाए बड़े रंज से दे अपने दुख के संदेश घूम रहा इस किशोर वय में जंगल में प्रेमी उदास बुझी हुई आँखों में उसकी अब ख़त्म हो चुकी आस साँस भरी दुख से क्या कभी तुमने ? 1816 मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय

सब ख़त्म हो गया

(ओदेस्साई कन्या अमालिया रीज़निच के लिए) सब ख़त्म हो गया अब हममें कोई सम्बन्ध नहीं है हम दोनों के बीच प्रेम का अब कोई बन्ध नहीं है अन्तिम बार तुझे बाहों में लेकर मैंने गाए गीत तेरी बातें सुनकर लगा ऐसा, ज्यों सुना उदास संगीत । अब ख़ुद को न दूँगा धोखा, यह तय कर लिया मैंने डूब वियोग में न करूँगा पीछा तय कर लिया मैंने गुज़र गया जो भूल जाऊँगा, तय कर लिया है मैंने पर तुझे न भूल पाऊँगा, यह तय किया समय ने शायद प्रेम अभी मेरा चुका नहीं है, ख़त्म नहीं हुआ है सुन्दर है, आत्मीय है तू, प्रिया मेरी अभी बहुत युवा है अभी इस जीवन में तुझ से न जाने कितने प्रेम करेंगे जाने कितने अभी मर मिटेंगे और तुझे देख आहें भरेंगे । 1824 मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय

कात्या उषाकोवा के लिए

पहले, बहुत पहले, प्राचीन काल में कभी ऐसा होता था आ जाती थी डायन किसी पर या कोई भूत को ढोता था इन शैतानों को भगाने के लिए लोग यह मन्त्र-सा पढ़ते थे ’आमीन! आमीन! तू हो जा चूरा!’ इस तरह भूतों से लड़ते थे मगर अब इन दिनों में बन्द हो गए आने सब भूत-शैतान कहाँ चले गए सारे के सारे, बात यह जाने, बस, भगवान पर तुम ओ सुन्दरी ! मेरी चुड़ैल हो, मेधावी हो, प्रतिभावान आती हो जब मेरे सामने, अपना सुन्दर चेहरा लिए ललाम देखूँ तेरी जब कजरी आँखें और लहराते वो घुँघराले बाल सुनूँ ध्यान से तेरी सब बातें, मधुर वाणी, मीठा सुर-ताल तेरा सम्भाषण प्रफुल्लित, जीवन्त, हँसमुख, तेरी बोलचाल मंत्रमुग्ध हूँ विमोहित तुझसे, देख, दहल रहा है मेरा भाल थरथरा रहा हूँ, काँप रहा हूँ, दहक रहा है मन मेरा हदय में उत्कट स्वप्न है, सम्मोहित तेरे रूप से पूरा कैसे बचूँ मैं तुझ चुड़ैल से, तू जादूगरनी, ओ पिशाचिनी यही कह पाऊँ बचाव में आमीन ! आमीन ! तू हो जा चूरा ! मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस-उजाला

धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस उजाला, सांध्य कुहासा छाया है नीले सागर पर, आए आए पवन झकोरा, लहर उछाला मेरे नीचे लहराओ तुम विह्वल सागर। दूर कहीं पर साहिल नज़र मुझे है आता, मुझ पर जादू करने वाली दक्षिण धरती, मैं अनमन बेचैन उधर ही बढ़ता जाता, स्मृतियों की सुख-लहर हृदय को व्याकुल करती। अनुभव होता मुझे - भरी हैं आँखें फिर से हृदय डूबता और हर्ष से कभी उछलता, मधुर कल्पना चिर-परिचित फिर आई घिर के वह उन्मादी प्यार पुराना पुनः मचलता, आती याद व्यथाएँ, मैंने जो सुख पाला, इच्छा आशाओं की छलना, पीड़ित अन्तर ... आए आए पवन झकोरा, लहर उछाला, मेरे नीचे लहराओ तुम विह्वल सागर। उड़ते जाते पोत, दूर तुम मुझको ले जाना इन कपटी, सनकी लहरों को चीर भयंकर, किन्तु न केवल करुण तटों पर तुम पहुँचाना मातृभूमि है जहाँ, जहाँ हैं धुंध निरन्तर, वहीं कभी तो धधक उठी थी मेरे मन में प्यार-प्रणय, भावावेशों की पहली ज्वाला, कला-देवियाँ छिप-छिप मुस्काईं आँगन में था यौवन को मार गया तूफ़ानी पाला, जहाँ ख़ुशी तो लुप्त हुई थी कुछ ही क्षण में हृदय-चोट ने दर्द सदा को ही दे डाला। तभी-तभी तो मातृभूमि तुमसे भागा था नए-नए अनुभूति-जगत का मैं दीवाना, भागा तुमसे दूर हर्ष-सुख का अनुगामी यौवन, मित्रों से था जिनको कुछ क्षण जाना, जिनकी ख़ुशियों, रंग-रलियों के चक्कर में पड़ अपना सब-कुछ, प्यार, हृदय का चैन लुटाया, खोई अपनी आज़ादी, यश, मान गँवाया छला गया जिन रूपसियों से उन्हें भुलाया, मेरे स्वर्णिम यौवन में जो लुक-छिप आईं उन सखियों की स्मृतियों का भी चिह्न मिटाया ... किन्तु हृदय तो अब भी पहले सा घायल है मिला न कोई मुझको दर्द मिटाने वाला, मरहम नहीं किसी ने रखा इन घावों पर आए आए पवन झकोरा, लहर उछाला मेरे नीचे लहराओ तुम विह्वल सागर। रचनाकाल : 1820 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

उड़ते हुए जलद, दल-बादल बिखरे जाते सारे

उड़ते हुए जलद, दल-बादल बिखरे जाते सारे ओ संतप्त, उदास सितारे, ओ संध्या के तारे! रजत-रुपहले मैदानों को किरण तुम्हारी करती काले शृंगों में, खाड़ी में रंग रुपहला भरती। ऊँचे नभ में तेरी मद्धिम लौ है मुझे सुहाती सोए हुए हृदय में मेरे चिन्तन, भाव जगाती, याद उदय-क्षण मुझे तुम्हारा, नभ दीपक पहचाने उस धरती पर जहाँ हृदय बस, सुख-सुषमा ही जाने, जहाँ घाटियों में अति सुन्दर, सुघड़ चिनार खड़े हैं जहाँ ऊँघती कोमल मेहंदी, ऊँचे सरो बड़े हैं जहाँ दुपहरी में लहरों का मन्द, मधुर कोलाहल वहीं, कभी पर्वत पर अपना हृदय लिए अति आकुल, भारी मन से मैं सागर के ऊपर रहा टहलता नीचे, घाटी के प्रकाश को तम जब रहा निगलता, तुम्हें ढूँढ़ने को उस तम में युवती दृष्टि घुमाए तुम उसके हमनाम यही वह सखियों को बतलाए। रचनाकाल : 1820 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

जाड़े की शाम

नभ को ढकता धुंध, तिमिर से बर्फ़ उड़ाता, अंधड़ आता, शिशु-सा कभी मचलता, रोता कभी दरिन्दे-सा चिल्लाता, टूटे-फूटे छप्पर का वह सहसा सूखा फूस हिलाता, और कभी भटके पंथी-सा आ खिड़की का पट खटकाता। जर्जर, टूटा हुआ झोंपड़ा सूना, जहाँ अन्धेरा छाया, बैठी हुई निकट खिड़की के क्यों तुम चुप हो बूढ़ी आया? क्या इस अन्धड़, कोलाहल ने मेरी प्यारी तुम्हें थकाया? या चरखे की घूँ-घूँ ने ही लोरी देकर तुम्हें सुलाया? मेरे इस सूने यौवन की मात्र संगिनी, लाओ प्याला, सब दुख-दर्द डुबोएँ उसमें और हृदय हर्षाए हाला, सागर पार चैन से चिड़िया रहती थी, यह गीत सुनाओ, कैसे प्रातः पानी लाने जाती थी युवती यह गाओ। नभ को ढकता धुंध, तिमिर से बर्फ़ उड़ाता, अंधड़ आता, शिशु-सा कभी मचलता, रोता कभी दरिन्दे-सा चिल्लाता, मेरे इस सूने यौवन की मात्र संगिनी, लाओ प्याला, सब दुख-दर्द डुबोएँ उसमें और हृदय हर्षाए हाला। रचनाकाल : 1825 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

जार्ज़िया के गिरी-टीलों को रात्रि-तिमिर ने घेरा है

जार्जिया के गिरी-टीलों को रात्रि-तिमिर ने घेरा है औ’ अरागवा नदी सामने कल-छल शोर मचाती है, बेशक दुख में डूबा-डूबा, पर हल्का मन मेरा है क्योंकि तुम्हारी याद उदासी लाती, मन तड़पाती है। एक तुम्हारे, सिर्फ़ तुम्हारे कारण व्यथा उदासी है और न कोई पीड़ा मुझको, चिन्ता नहीं सताती है, फिर से मेरी तप्त आत्मा पुनः प्यार की प्यासी है क्योंकि प्यार के बिना रह सके, हाय, न यह कर पाती है। रचनाकाल : 1829 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

जाड़े की सुबह

पाला भी है, धूप खिली है, अद्भुत्त दिन है! पर तू मेरी रानी अब तक नींद मगन है - जागो, जागो, मधुरे अब तो जाग उठो तुम निद्रा सुख में डूबे अपने नयन उघारो, स्वयं उत्तरी तारे-सी बन ज्योति अनूठी जाग, उत्तरी विभा-प्रभा की छटा निहारो! याद तुम्हें, कल कैसा था तूफ़ान भयंकर घुप्प अन्धेरा-सा छाया था धुँधले नभ पर, पीला-पीला धब्बा-सा बन चाँद गगन में झाँक रहा था धूमिल-धूसर मेघ सघन से, तुम उदास-सी बैठी थीं, आकुल-व्याकुल हो किन्तु आज ... प्रिय झाँको तो तुम वातायन से : कैसा निर्मल, कैसा नीला-नीला अम्बर उसके नीचे ज्यों क़ालीन बिछाकर सुन्दर सुख से लेटी बर्फ़ चमकती रवि-किरणों में काली-सी छाया दिखती झलमले वनों में, ओढ़े पाले की चादर फ़र वृक्ष हरा है और बर्फ़ के नीचे नाला चमक रहा है। पीत-स्वर्ण कहरुबा चमक कमरे में छाई चट-चट जलती लकड़ी, अंगीठी सुखदायी, बैठ इसी के निकट और कुछ चिन्तन करना भला लगेगा स्वप्न-जगत में मुक्त विचरना, किन्तु न क्या ये अच्छा, स्लेज इधर मँगवाएँ भूरी घोड़ी उसमें हम अपनी जुतवाएँ? और सुबह की इसी बर्फ़ पर स्लेज बढ़ाएँ मेरी प्यारी, ख़ूब तेज़ घोड़ी दौड़ाएँ जाएँ हम सूने खेतों में, मैदानों में कुछ पहले जो बहुत घने थे, उन्हीं वनों में, पहुँचें ऐसे वहाँ, जहाँ है नदी किनारा मेरे मन की ललक, मुझे जो बेहद प्यारा। रचनाकाल : 1829 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

बादल

वात-बवंडर बिखर चुका है, गगन हुआ निर्मल, नीले नभ में दौड़ रहे अब एक तुम्हीं बादल, हर्षमगन हो उजला-उजला दिन है मुस्काया, उस पर केवल डाल रहे हो, तुम ही दुख-छाया। कुछ पहले नभ ओर-छोर तक, तुम ही थे छाए कड़क, कौंध बिजली की तेरी तुमको धमकाए, थी रहस्य से भरी हुई तब तेरी घन-वानी तप्त धरा की प्यास बुझाई, बरसाकर पानी। बस काफ़ी है, अब तुम जाओ! वह क्षण बीत गया धरती सरस हुई, झंझा का, अब बल रीत गया, और पवन जो मन्द-मन्द, तरू, पत्ते सहलाए शान्त गगन से तुझे उड़ा निश्चय ही ले जाए। रचनाकाल : 1835 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

रात

तेरे लिए प्यार में डूबी और व्यथित वाणी मेरी अर्ध-रात्रि का मौन, निशा जो भेदे अंधेरी, निकट पलंग के मोम गल रहा, जलती है बाती झर-झर झर-झर निर्झर-सी कविता उमड़ी आती, डूबी हुई प्रणय में तेरे, बहती सरिताएँ चमक लिए तम में दो आँखें सम्मुख आ जाएँ, वे मुस्काएँ, और चेतना सुनती यह मेरी मेरे मीत, मीत प्यारे तुम... प्यार करूँ... मैं हूँ तेरी ...हूँ तेरी! रचनाकाल : 1823 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

...के नाम

मुझे याद है वह अद्भुत्त क्षण जब तुम मेरे सम्मुख आईं, निर्मल, निश्छल रूप छटा-सी जैसे उड़ती-सी परछाईं। घोर उदासी, गहन निराशा जब जीवन में कुहरा छाया, मन्द, मृदुल तेरा स्वर गूँजा मधुर रूप सपनों में आया। बीते वर्ष, बवण्डर आए हुए तिरोहित स्वप्न सुहाने, किसी परी-सा रूप तुम्हारा भूला वाणी, स्वर पहचाने। सूनेपन, एकान्त-तिमिर में बीते, बोझिल, दिन निस्सार बिना आस्था, बिना प्रेरणा रहे न आँसू, जीवन, प्यार। पलक आत्मा ने फिर खोली फिर तुम मेरे सम्मुख आईं, निर्मल, निश्छल रूप छटा-सी मानो उड़ती-सी परछाईं। हृदय हर्ष से फिर स्पन्दित है फिर से झंकृत अन्तर-तार, उसे आस्था, मिली प्रेरणा फिर से आँसू, जीवन, प्यार। रचनाकाल : 1825 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

आया के प्रति

मेरे बुरे दिनों कि साथी, मधुर संगिनी बुढ़िया प्यारी, जीर्ण-जरा! सूने चीड़ वनों में तुम्हीं राह देखतीं कब से मेरी, नज़र टिका। पास बैठकर खिड़की के भारी मन से तुम पहरेदारी करतीं। और सिलाइयाँ दुर्बल हाथों में तेरे, कुछ क्षण को धीमी पड़तीं। टूटे-फूटे फाटक से अँधियारे पर दॄष्टि तुम्हारी जम जाती, और किसी बेचैनी, चिन्ता, शंका से हर पल धड़क उठे छाती, कभी तुम्हें लगता है जैसे छाया-सी सहसा है सम्मुख आती... रचनाकाल : 1826 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

अरी रूपसी, मेरे सम्मुख मत गाओ

अरी रूपसी, मेरे सम्मुख मत गाओ करुण जार्ज़िया गीत, किसी दूसरे तट, जीवन की याद दिलाएँ भूला हुआ अतीत। क्रूर तराने उफ़ वे तेरे, ज़ुल्म करें मुझको स्मरण कराएँ, रात चाँदनी, स्तेप, दुखी-सी वह युवती स्मृतियाँ घिर-घिर आएँ। देख तुझे उस प्यारी, दुख की छाया को भूल तनिक मैं जाता, लेकिन जब तुम गाती हो, उसको फिर से बरबस सम्मुख पाता। अरी रूपसी, मेरे सम्मुख मत गाओ करुण जार्ज़िया गीत, किसी दूसरे तट जीवन की याद दिलाएँ भूला हुआ अतीत। रचनाकाल : 1828 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

मैंने प्यार किया था तुमको

मैंने प्यार किया था तुमको और बहुत सम्भव है अब भी मेरे दिल में उसी प्यार की सुलग रही हो चिंगारी, किन्तु प्यार यह मेरा तुमको और न अब बेचैन करेगा नहीं चाहता इस कारण ही अब तुम पर गुज़रे भारी। मैंने प्यार किया था तुमको, मूक-मौन रह, आस बिना हिचक, झिझक तो कभी जलन भी मेरे मन को दहकाए, जैसे प्यार किया था मैंने सच्चे मन, कोमलता से हे भगवान, दूसरा कोई, प्यार तुम्हें यों कर पाए! रचनाकाल : 1829 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

क्या रखता है अर्थ तुम्हारे लिए नाम मेरा

क्या रखता है अर्थ तुम्हारे लिए नाम मेरा? डूबा हुआ उदासी में लहरों का विह्वल स्वर कहीं दूर के तट पर जैसे जाता हहर, बिखर, सूने वन में रात्रि समय ध्वनि खो जाती जैसे मेरा नाम तुम्हारी स्मृति में मिटे कभी वैसे। लिखें गए हों स्मृति के पट पर कुछ अक्षर उस भाषा में जिसे समझना, पढ़ना हो दुष्कर, उसी तरह से मुड़े-मुड़ाए, जर्जर काग़ज़ पर चिन्ह नाम छोड़ेगा मेरा धुँधला-सा नश्वर। क्या रखा है उसमें? जिसको विस्मृति ने निगला नई भावना, नए प्यार का जब हो कुसुम खिला, ला न सकेगा तेरे मन में वह स्मृतियाँ प्यारी जल न सकेगी उससे कोमल, निर्मल चिंगारी। किन्तु उदासी और व्यथा जब मन को आ घेरे नाम याद कर लेना मेरा तुम धीरे-धीरे, कहना ख़ुद से- याद किसी को मैं अब भी आती किसी हृदय में मैं बसती हूँ, याद न मिट पाती। रचनाकाल : 1830 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

मन ही मन दुलरा लूँ मैं प्रिय बिम्ब तुम्हारा

मन ही मन दुलरा लूँ मैं प्रिय बिम्ब तुम्हारा ऐसा साहस करता हूँ मैं अन्तिम बार, हृदय-शक्ति से मैं अपनी कल्पना जगाकर सहमे, बुझे-बुझे वे सुख के क्षण लौटाकर, मधुरे, मैं करता हूँ याद तुम्हारा प्यार। वर्ष हमारे भागे जाते, बदल रहे हैं बदल रहे वे हमको, सब कुछ बदल रहा, अपने कवि के लिए प्रिये तुम तो ऐसे मानो किसी क़ब्र का ओढ़े तम जैसे, और तुम्हारा मीत तमस में लिप्त हुआ। तुम अतीत की मित्र करो, स्वीकार करो मेरे मन की कर लो अंगीकार विदा, विदा जिस तरह से हम विधवा को करते, बाँहों में चुपचाप मित्र को ज्यों भरते, निर्वासन से पहले लेते गले लगा। रचनाकाल : 1830 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

मेरी प्यारी, वह क्षण आया

मेरी प्यारी वह क्षण आया, चैन चाहता मेरा मन, बीत रहे घण्टों पर घण्टे, सतत उड़े जाते हैं दिन, और इन्हीं के साथ हमारा, ख़त्म हो रहा है जीवन, हम दोनों जीने को उत्सुक, किन्तु आ रहा निकट निधन, इस जग में सुख-ख़ुशी नहीं है, किन्तु चैन है, चाह यहाँ, एक ज़माने से मन मेरा, मुझे खींचता दूर, वहाँ- जहाँ बैठकर सृजन करूँ मैं और चैन मन का पाऊँ, दास सरीखा थका हुआ मैं, सोचूँ, भाग कहीं जाऊँ। रचनाकाल : 1834 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

चदाएव के नाम

बहला सके न बहुत समय तक प्यार, ख्याति के भ्रम औ’ आशा, ये यौवन के रंग लुटे यों जैसा सपना, भोर-कुहासा। किन्तु निठुर-निर्मम सत्ता के जुए तले भी हृदय धधकता, उत्कट चाह, लिए विह्वलता वह आह्वान राष्ट्र का सुनता। बेचैनी से राह देखते आज़ादी के पावन क्षण की, जैसे करे प्रतीक्षा प्रेमी प्रिय से निश्चित मधुर मिलन की। हममें जब तक मुक्ति-ज्वाल है मन में गौरव का स्पन्दन है, मेरे मित्र, कहें अर्पित सब राष्ट्र, तुम्हें, जीवन, तन-मन है! साथी, तुम विश्वास करो यह चमक उठेगा सुखद सितारा, रूस नींद से जागेगा ही, खंडहर पर तानाशाही के लोग लिखेंगे नाम हमारा। रचनाकाल : 1818 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

बन्दी

बन्द सीखचों के पीछे हूँ जहाँ तमस, सीलन बन्दी घर में बड़ा हुआ मैं, हुआ यहीं पालन, औ’ उदास वह साथी मेरा डैने फैलाता खिड़की के नीचे शिकार को नोच-नोच खाता। तनिक नोचकर, उसे छोड़ फिर, खिड़की में झाँके मानो मेरे ही भावों को वह मन में आँके, चीत्कार भी, उसकी नज़रें जैसे यही कहें वह अनुरोध कर रहा, "आओ, आओ संग उड़ें! हम तुम तो आज़ाद विहग, आया वह क्षण आया उड़ें, जहाँ मेघों के पीछे धवल शृंग-छाया, वहाँ, जहाँ पर नीला-नीला सागर लहराता वहाँ, जहाँ पर पवन और बस, मैं ही मँडराता!" रचनाकाल : 1822 (अनुवाद : मदनलाल मधु)

अनक्रिओन की क़ब्र

(अनक्रिओन : पाँचवी शताब्दी ईसा पूर्व के प्रसिद्ध यूनानी कवि-गायक) हर चीज़ छिपी है रहस्यभरी ख़ामोशी में, पर्वत पर छा गया है अन्धकार, निकल आया है युवा अर्द्धचन्द्रमा बादलों की चमक से घिरा हुआ । एक वीणा दिखाई दे रही है क़ब्र के ऊपर, सोई हुई मीठी नींद में, सुनाई देती है कभी एक उदास ध्वनि जैसे यह प्यार भरी अलसाई आवाज़ हो , दिखाई देती है वीणा पर बैठी एक फ़ाख़्ता, एक फूलदान गुलाबों से भरा और एक घर... मित्रो, देखो विलासिता का यह विद्वान किस तरह रह रहा है अमन - चैन में, देखो, स्फटिक शिला पर किस तरह जीवित हो उठी है एक छोटी - सी छेनी, यहाँ दर्पण में देखते हुए वह कहता है — 'मैं बूढ़ा हो गया हूँ अब', आनन्द लेने दो शेष जीवन का मुझे आख़िर जीवन प्रकृति का अक्षय उपहार तो नहीं । यहाँ वीणा पर से उँगलियाँ उठाते हुए भौहें सिकोड़ते हुए बड़प्पन के साथ वह ईश निन्दा के गीत गाना चाहता है पर कण्ठ से निकलते हैं केवल प्रेम के गीत । तैयारी कर रहा है वह प्रकृति को अपना अन्तिम ऋण चुकाने की : नृत्यमण्डली में नाचने लगा है बूढ़ा चाहता है कोई तो बुझाए उसकी प्यास गा रही हैं, नाच रही हैं युवतियाँ बूढ़े प्रेमी के चारों ओर, देखना, यह बूढ़ा अवश्य चुरा लाएगा कृपण काल से दो -चार और पल । कला की देवियाँ और परियाँ क़ब्र की ओर ले गईं अपने प्रेमी को, फूलों से लदी नर्तक मण्डलियाँ चुपचाप चल पड़ीं उसके पीछे... आनन्द के क्षणों की तरह विलुप्त हो गया वह विलुप्त हो गया सुबह के सपनों की तरह । ओ मर्त्य प्राणी, मात्र छाया है तेरा यह जीवन, यों ही न जाने दे इन चंचल ख़ुशियों को, आनन्द ले तू जी भर बार - बार भरता चल ख़ुशियों का प्याला, थक जाने तक बुझाता रह अपनी प्यास और पड़ा रह आराम से प्यालों के बाद भी । 1825 मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह

तीन झरने

इस संसार के सीमाहीन दुखभरे निर्जन प्रान्तर में प्रकट हुए हैं रहस्यमय तीन झरने : यौवन का झरना — फुर्तीला और बेचैन तेज़ी से बह रहा है उफनता, चमकता । दूसरा झरना भरा है काव्य-प्रेरणाओं से निर्जन प्रान्तर में प्यास बुझाता है निर्वासितों की, और तीसरा अन्तिम झरना — विस्मृति का सबसे ज़्यादा मीठा, वही बुझाता है आग हृदय की । मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह

भूल चुका हूँ

मित्र, मैं भूल चुका हूँ बीते वर्षों के सब निशान, भूल चुका हूँ यौवन के सारे उपद्रव। पूछो नहीं मुझसे जिसका अब अस्तित्व रहा नहीं, पूछो नहीं जिसे प्राप्त किया था दुख और सुख के क्षणों में, जिसे मैंने प्रेम किया था, धोखा दिया था जिसने मुझे, भले ही सुख मुझे पूरी तरह भोगने को मिले नहीं तुम तो निर्दोष हो, संसार में सुख पाने के लिए आई हो, आश्वस्त रहो, निश्चिन्त रहो, यों ही न जाने दो इन पलों को: प्रेम और मित्रता के लिए इतना जीवन्त है हृदय आज, जीवन्त है मधुर चुम्बनों भरे आनन्द के लिए, निष्कलुष है तुम्हारा हृदय, अपरिचित है वह दुखों से, निर्मल दिवस-सा उज्ज्वल है तुम्हारा शिशु अन्तःकरण। क्यों सुननी पड़े तुम्हें कामुकता और उन्माद की नीरस कथा ? चाहो या न, वह आन्दोलित करती रहेगी तुम्हारे शान्त हृदय को, आँसू बहेंगे तुम्हारी आँखों से, काँप उठेगा तुम्हारा हृदय, ग़ायब हो जाएगी सहज विश्वास करते तुम्हारे हृदय की निश्चितता, संभव है तुम्हें मेरे प्रेम से डर लगता होगा, लगता रहेगा सदा। प्रिय, डर रहा हूँ कहीं वंचित न रहूँ अन्तिम आनन्द से, मुझसे माँग न करो किन्हीं ख़तरनाक नई बातों की, सुखी हूँ, प्रसन्न हूँ कि आज मैं प्रेम कर रहा हूँ तुम्हें। मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह

क्या रखा है मेरे नाम में

क्या रखा है मेरे नाम में तुम्हारे लिए ? मर जाएगा वह शोकाकुल उस लहर के शोर की तरह छलकती-टकराती है जो दूर तटों पर, मर जाएगा वह ख़ामोश जंगल में रात की ध्वनियों की तरह । स्मृतियों के पृष्ठों पर वह छोड़ जाएगा इस तरह के बेजान चिह्न जैसे क़ब्रों में ऐसी भाषा में लिखे शिलालेख जिन्हें कोई भी समझ नहीं पाएगा कभी । क्या रखा है नाम में ? भुलाया जा चुका है उसे नई-नई बग़ावतों और नए-नए आन्दोलनों में, छोड़ नहीं सकेगा यह नाम तुम्हारे हृदय में निष्कलंक, स्नेहपूर्ण स्मृतियाँ किसी भी तरह की । पर दुख के क्षणों में, एकान्त ख़ामोशी में मुझे याद करते हुए तुम नाम लेना मेरा, बताना, अभी शेष है मेरी याद, शेष है एक हृदय जिसमें जीवित हूँ मैं । 1830 मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह

दूर अपने घर जातीं तुम

दूर अपने घर जातीं तुम एक अपरिचित देश जा रही थीं सबसे कठिन असह्य उस पल में मैंने तुम्हारी हथेलियों को अपने आँसुओं से भिगोया था अपने ठण्डी सुन्न पड़ती उँगलियों से पकड़कर रोकना चाहा था तुम्हें और तब मेरे दिल ने कहा था -- सदा रहेगा यह दर्द अब तो तुम्हारे पास तुमने अपना मुँह घुमा लिया था हटा लिए थे होंठ कठिन क्रूर चुम्बन से कभी स्वप्न जगाया था तुमने मेरे भीतर और निष्काषित भी कर दिया था उसी पल तुमने कहा था -- अगली बार जब हम मिलेंगे घने औलिव की छाँव में, खुली उजली धूप में हमारे चुम्बन से यह पीड़ा जा चुकी होगी आज जहाँ नीला स्वच्छ आकाश है और घने पेड़ों की छाँव कलकल बहती नदी पर नृत्य करती है खो गया है सब वक़्त की अनन्त धारा में वह रूप, वह पीड़ा पर यादों में बसा है वह मधुर चुम्बन आज भी इन्तज़ार है मुझे, एक वादा था तुम्हारा... अँग्रेज़ी से अनुवाद : शैल अग्रवाल

एक जादुई पल

वो एक जादुई पल ज्यों का त्यों आँखों में आज भी तुम मेरे साथ, तुम मेरे सामने... माना आज धुँधला और अस्पष्ट पर मेरे लिए तो अति सुन्दर, अति दुर्लभ इन दूरियों और वर्जनाओं से विनती करता हूँ रहम खाओ मुझपर युग बीते तुम्हारी सींचती आवाज़ सुने युग बीते तुम्हें सपने तक में आए युग बीते जब क्रूर वक़्त के हाथों छिन गई थीं तुम मुझसे तुम जो मेरा एकान्त, मेरी साधना हो ! धुँधली पड़ती जा रही हैं तुम्हारी मधुर आवाज़ की सरगम अलौकिक नाकनक्श, इन सूने उदास, अलस पलों में खोया रहता हूँ मैं काले उमड़ते बादलों में कोई कल्पना नहीं, प्रेरणा नहीं न कोई रोने, मचलने या प्यार करने को न कोई बहाना जीने को... दुख में डूबी पलकें पुनः देखतीं उमड़ते बादल को और तब अचानक फिर वही जादुई पल आ जाता है तुम मेरे सामने तुम मेरे साथ... अति सुन्दर, अति दुर्लभ !! अँग्रेज़ी से अनुवाद : शैल अग्रवाल

सलामत रखना मुझे, ऐ मेरे ताबीज़

सलामत रखना मुझे, ऐ मेरे ताबीज़, ज़ुल्म के साये से पश्चाताप की आग से, बचाकर रखना तनहाई के अंगारों से, यूँ ही नहीं मिला था उन पलों में ताबीज़ । जब सागर बनाए भयानक तस्वीर लहरें समुद्र की मुझ पर उमड़ पड़ें, जब खूँखार बादल गरजें दहाड़ें, सलामत रखना मुझे, ऐ मेरे ताबीज़ । परदेस में तनहाई के पल में नाचीज़, उस खामोशी में उस उदासी में, ख़ुद से ख़ुद की मेरी लड़ाई में, सलामत रखना मुझे, ऐ मेरे ताबीज़ । नायब पाकीज़ा धोखा है लजीज़, रूह का जादुई सा झरोखा है... बदल गया है वो छिप गया है... सलामत रखना मुझे, ऐ मेरे ताबीज़ । काश दिल के ये घाव अजीज़ मेरे फिर कहीं से हरे न हों जाएँ । उम्मीद, चैन, नींद न कहीं खो जाएँ; सलामत रखना मुझे, ऐ मेरे ताबीज़ । 1825 मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सोनू सैनी

मेरा स्मारक

एक स्मारक जो मैंने बनाया नहीं हाथों से, जहाँ लोग हमेशा-हमेशा आते रहेंगे जहाँ वह गर्वोन्नत खड़ा है सिकन्दर की मीनार से भी ऊँचा। मैं मरूँगा नहीं पूरी तरह — क्योंकि मेरे पवित्र साज में, मेरी आत्मा मेरी मिट्टी के कर्मों से अधिक जिएगी — और मेरा मान रहेगा, जब तक इस धरा पर कविता की पवित्र लौ कहीं एक भी जलती होगी! मेरी कहानी मेरे विशाल देश में घर-घर कही जाएगी, मेरे देश की हर ज़ुबान पर मेरा नाम होगा। अभिमानी स्लावों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी, फिर, और — अभी भी अनपढ़ — तुंगूस, और स्तेपी से प्यार करने वाले कल्मीक भी। और लम्बे काल तक लोग मुझे याद करेंगे क्योंकि मेरा साज प्रेम और दया से भरा था और, एक निर्मम युग में, मैंने स्वाधीनता के गीत गाए थे और न्याय की अन्धी देवी से करुणा की पुकार की थी। प्रशंसा और निन्दा से परे ओ कला की देवी ! पर उस अलौकिक स्वर पर ध्यान देना जो आघातों से नहीं डरती, न यश की चाह रखती है, न मूर्खों के सामने मोती बिखेरती है। 1836 अँग्रेज़ी से अनुवाद : शंकर शरण

जाड़े की राह

मद्धिम चाँद, छाया के आलिंगन में निशा-बादलों की पहाड़ी पर चढ़ता है और उदास वन-प्रान्तर में अपना धूसर प्रकाश फैलाता है। सफ़ेद सूनी सड़कों पर जाड़े के अनन्त विस्तार में मेरी त्रोइका भागी जाती है, और उसकी घण्टियाँ उनीन्दी, थकी-थकी बजती चलती हैं। कोचवान अपने असमाप्य गीतों में बहुत कुछ मुझसे कहता है, कभी एक शिकायत, कभी एक तड़प, कभी एक अलमस्त तरंग... सब ओर बर्फ़ और कुछ भी नहीं, कोई रोशनी नहीं जो आँखों को सुख दे, मील के खम्भे भागते आते हैं मुझसे मिलने, अभिवादन कर बेपरवाह बगल से गुज़र जाते हैं पर, मेरी नीना, कल आतिशदान की सुखद लपटों के पास मैं अपनी उदासी, अपना दुख, अपनी थकन तुम्हारी आँखों में भुला दूंगा। घड़ी अपना समय-पथ पार करती रहेगी — पर अर्द्धरात्रि की उसकी पुकार से तुम और मैं अलग नहीं होंगे। अभी तो, पर उदास हूँ मैं... रात्रि खेत, जंगल को अपने आगोश में ले रही है... चाँद धूमिल हो रहा है... अपनी जगह पर लोचवान ऊँघ रहा है, और बर्फ़ में राह लम्बी और लम्बी खिंचती जा रही है। त्रोइका : तीन घोड़ों वाली रूसी गाड़ी 1826 अँग्रेज़ी से अनुवाद : शंकर शरण

शोकगीत

मेरे उन्मादी वर्षों की वह लुप्त हँसी और आनन्द मुझे घेरता है जैसे सुबह के बाद धुआँ भरा-सा। वह बीता दुख उतना नहीं जितना मेरी मदिरा है, जो समय के साथ और नशीली होती जाती है। अब सामने की राह कितनी उदास है, सुबह के समुद्र-पथ पर परिश्रम और पीड़ा छाई जाती है। और फिर भी मृत्यु के विचार से, मेरे दोस्त, मैं घबराता हूँ, मैं जीना चाहता हूँ — दुख उठाना और सोचना चाहता हूँ स्वाद चाहता हूँ नेह, शोक और उथल-पुथल का, आनन्दातिरेक और मधुर आलोड़न का, मस्ती में डूब, कल्पनाओं पर सवार और उसकी छवियों पर जी भर रोना चाहता हूँ... और प्रेम का अन्तिम आवेग, विदा वेला में उसकी कोमल मुस्कान, मेरे उदास अन्त को फिर भी कम शोकपूर्ण बना देगी। 1830 अँग्रेज़ी से अनुवाद : शंकर शरण

बैखस की स्तुति में

(’बैखस’ सुरा के देवता का नाम है) शान्त क्यों उत्सव आनन्द के स्वर? हमारे देवता बैखस के गान गाओ ! जुग-जुग जियो, कुवाँरियो और महिलाओ, ओ प्यारी सुन्दरियो, जिनने पूरे मन से अपना प्यार लुटाया ! पियो दोस्तो, पियो ख़ूब तबीयत से और स्वाद ले ले ! जैसे मैं करता हूँ तुम भी, मदिरा प्याले के संग, छककर प्यार करो जो तुम कब से चाहते हो! आओ अपने प्याले खनकाएँ और जाम ऊँचे उठाएँ कला की देवी की जय ! बुद्धि की देवी की जय! उनकी प्रशंसा के गीत गाओ! तुम प्रतिभा के सूर्य, चमकते रहो— जैसे इस प्राचीन दीये की आभा मन्द हो जाती भोर के आगमन से, मिथ्या बुद्धि का रंग वैसे ही फीका पड़ जाता सद्विवेक के अमर प्रकाश में... जियो चमकते दिन ! ख़त्म, अन्धेरी रात! 1825 अँग्रेज़ी से अनुवाद : शंकर शरण

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