फागुन, फाग, राग और कवि ईसुरी : शिवचरण चौहान

Phaagun, Phaag, Rag Aur Kavi Isuri : Shivcharan Chauhan

ऋतुओं में ऋतु वसंत और वसंत में भी फागुन माह के क्या कहने! इसी फागुन में रंगों का पर्व होली मनाया जाता है। वैसे तो माघ की पंचमी (वसंत पंचमी) ये लेकर फागुन की पूर्णिमा, यानी होली जलने तक व पूरी वसंत ऋतु में प्रकृति की छटा अनुपम, अद्वितीय, दर्शनीय होती है।

ऐसी मदिर और मादक ऋतु में कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है। फागुन के फाग, राग-रंग में हर कोई डूब जाता है। चाहे कृष्ण हो या रसखान। पूरे उत्तर व मध्य भारत में फागुन में फागें गाई जाती हैं। अवधी, बृज, भोजपुरी के कवियों में शृंगारकाल से लेकर अब तक हजारों फागें लिखी हैं, गाई हैं।

बुंदेलखंड में बुंदेली फागें गाई जाती हैं। इनमें अधिकांश फागें कवि ईश्वरी की रची, यानी लिखी हुई और उन्हीं की गाई हुई हैं। ईश्वरी की चौकड़ियाँ फागें बुंदेली में रस बरसाती हैं। उनकी फागों में शृंगार, आनंद व अध्यात्म भरा है। जिस तरह कवि घनानंद ने अपनी प्रेयसी नृत्यांगना सुजान के लिए प्रेम के छंद, कवि केशवदास ने ओरछा की नृत्यांगना व अपनी प्रेयसी राय प्रवीन के लिए छंद-सवैए लिखे हैं, उसी तरह ईश्वरी ने अपनी प्रेयसी (प्रेमिका) के लिए यानी रजऊ के लिए 360 फागें बुंदेली बोली में लिखी हैं—

कहीं तीन सौ साठ ईश्वरी, रजऊ, रजऊ की फागें!

इन फागों में नायिका रजऊ के रूप, सुंदरता, लावण्य, शृंगार का अद्भुत वर्णन है।

इनमें एक लालित्य है, रस है। इन्हें जितनी भी बार पढ़ो, गाओ, मन नहीं भरता। बुंदेलखंड में उनकी फागें जन-जन में रची-बसी हैं।

ईश्वरी का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले में मऊरानीपुर कस्बे के पास मेढकी गाँव में हुआ। लालन-पालन नाना के घर हुआ। वह तिवारी ब्राह्मण थे और चैत्र माह में सन् 1898 में उनका जन्म हुआ था। बचपन से ही वह काव्य प्रेमी थे। वह शृंगार काल का उत्तरार्द्ध था और ईश्वरी की फागें जब लोकप्रिय होने लगीं तो छतरपुर के महाराज विश्वनाथ सिंह जूदेव ने उन्हें अपने आश्रय में आने का आग्रह किया, पर ईश्वरी को यह आग्रह स्वीकार नहीं हुआ।

एक समय ऐसा आया कि ईश्वरी की फागों पर दो नृत्यांगनाएँ सुंदरिया व गंगिया नृत्य करती थीं। ईश्वरी के शिष्य गाँव-गाँव फागें गाते थे। उनके शिष्यों में धीरपंडा इतने मधुर स्वर में झूम-झूमकर फागें गाते थे कि समा बँध जाता था। राई नृत्य बुंदेली का प्रसिद्ध नृत्य है और ईश्वरी की फागें राई नृत्य में गाई जाती थीं।

कहते हैं, ईसुरी की फागें कवियों, साहित्यकारों, राजनेताओं को भी पसंद आती रही हैं। पिछड़े क्षेत्र का होने के कारण ईश्वरी की फागों पर कोई बड़ा शोध तो नहीं हो पाया, पर सागर विश्वविद्यालय में काफी काम हुआ। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के करीब २०-२५ जिलों में बुंदेली बोली बोली जाती है और आकाशवाणी का छतरपुर व उत्तर प्रदेश का लखनऊ आकाशवाणी केंद्र, इलाहाबाद केंद्र बुंदेली बोली-भाषा के विकास व उन्नयन के लिए कार्य कर रहे हैं। कवि हरिवंशराय बच्चन, शतदल, वीके सोनकिया तथा अनेकानेक हिंदी के पुराने-नए कवियों को ईश्वरी का सौंदर्य-बोध प्रभावित करता रहा है।

ईश्वरी की नायिका दुबली-पतली कमर वाली, बेहद सुंदर सर्वगुण संपन्न चित्त को सहज चुराने वाली है। रजऊ के रूप की दुनिया दीवानी है। भगवान् ने रजऊ को फुरसत में गढ़-गढ़कर बनाया है—

रब ने रूप दओ तुम खइयाँ,
मुलक निरोना गुइयाँ।
गोरी नारी और पंछीली
है ललछौहीं मुइयाँ।।
गाल फूल गेंदा से फूलें, लेबै लाक बलैयाँ।।
गोरे बदन, लाल धोतियाँ में, कनक लता सी बइयाँ।।
ईसुर फिर मिलने के लाने, लिवा रई ललचइयाँ।।

बनाने वाले ने रजऊ तुम्हें ऐसा रूप दिया है, जिसे देख सभी खिंचे चले आते हैं। तुम्हारा मुख लंबा, गेंदा के फूल जैसे गाल, गोरे शरीर पर लाल धोती और स्वर्ण सी चमकीली सुंदर बाँहें देखकर मन बार-बार मिलने को ललचा रहा है।

ईसुरी ने नायिका रजऊ का नख-शिख वर्णन बिल्कुल अनोखे अंदाज में किया है। उनकी फागें आज के नवगीत हैं—

हमको बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हसन तुम्हारी।
जुबन विशाल, चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी।।
भौंह कमान बना के तानें, बान तिरोछौ मारी।
ईसुर कात हमारी कोदी, तनक हेर लो प्यारी।।

नायिका रजऊ को तिरछी नजर से देखकर मुसकराना भूल ही नहीं रहा है। उस पर उसका नवयौवन, मतवाली चाल, पतली कमर, भौंहों के धनुष से तिरछे बाण मारकर घायल करना मन को वश में कर लेता है। ईसुरी कहते हैं कि हे सुंदरी! एक बार हमारी ओर भी नजर उठाकर तनिक देख लो।

गायन तत्त्व ईसुरी की फागों की विशेषता है। रस-अलंकार शब्द बोध ईसुरी की फागों में भरा पड़ा है। उनकी फागों से बुंदेली भाषा-बोली का सौंदर्य निखर उठा है।

ईसुरी की फागों के अध्येयता व लेखक अयोध्या प्रसाद कुमुद ने ‘बुंदेलखंड की फागें’ नामक ग्रंथ में ईसुरी की फागों का वर्णन किया है। और माना है कि ईसुरी ने तीन सौ साठ फागें रची-लिखीं, जिन्हें उनके शिष्यों से लेकर अब तक गायक गा रहे हैं। उनकी फागों के कैसेट, सीडी भी बनी हैं। यूट्यूब में उनकी फागें मिलती हैं।

बसंत फागुन होली के अवसर पर ईसुरी की फागों की धूम मचती थी—

फागै सुन आए सुख होई. देत देवतन मोई।
इन फागून में फाग न आवै, कइयन करी अनोई।।
और भखन को उगलन को गओं, कली-कली कैं गोई।।
बस भर ईसुर एक बची न, सब रस लओ निचाई।।

कवि ईसुरी कहते हैं कि ईसुरी की फागें सुनकर सुख मिलता है। ईश्वर मुझे वही सुख देता रहे। ईसुरी जैसे फागें प्रयास करके भी अन्य कवि नहीं रच पाए। जैसे भ्रमर कलियों का रस चूसकर जूठन छोड़ देता है। इसी तरह ईसुरी ने फाग गीतों का सारा रस निचोड़ लिया

अब आई रितु बसंत बहारन।
पान, फूल, फल डारन।।
द्रमत और अंबर के ऊपर, लगे भौंर गुंजारन।।
तपसी तपत कदरन भीतर, है बैराग, बिगारन।।
फेल परे रितुराज इसुरी, परे बादसा बागन।।

बसंत ऋतु के आते ही ऋतुराज ने राज्य विस्तार कर लिया है। आमों पर मंजरी आ गई है और भौंरे गाने लगे हैं। तपस्वियों का मन डगमगाने लगा है—

सुन कै फाग ईसुरी तेरी, पाडूं तिरियाँ हेरौं।
झिन्ना झिरत काम को आवे, बिरिया तकत अबेरी।।
लगत काऊ को फीकी नइयाँ, नीकी लगी सबैरी।
चाहन लगी मर्द से मिलिबो, आउन लगीं घनेरी।।
पतिवरता परमान छाड़ दए, मद-मारण में घेरी।
चाय जहाँ ले जाओ ईसुर, कान धरी भई छेरी।।

ईसुरी की रस भरी फागें सुनकर स्त्रियों में रस सृवित होने लगा उनमें मिलन की आकांक्षा जाग गई। स्त्रियों ने पातिव्रत धर्म त्याग दिया, वे ऐसी उन्मत्त हो गईं कि वे बकरी की तरह कान पकड़कर कहीं भी जाने के लिए तैयार हो गईं।

रसखान भी लिखते हैं—“एहि पाख पतिव्रत ताख धरयो जू।” फागुन में तो पतिव्रताओं का भी धर्म डोल जाता है। तुलसीदास लिखते हैं—

सबके हृदय मदन अभिलाषा।
लता निहारि झुकहि तरु साखा।।

ईसुरी की फागें इतनी सम्मोहक है कि फागें शुरू होते ही शाम को नर-नारी, बाल, अबाल, पशु सभी खिंचे चले आते हैं—

उनको चलो देखिए फिर कें, भर के एक नजर में।
देखों नई आज लौं हमने कोऊ तुमरी सानी को।
बरकत राज रोज हम तुमसे डर है रजधानी को।।

ईसुरी कहते हैं कि हे रजऊ, हम तुम्हें बचा-बचाकर रखते हैं कि तुम्हारी सुंदरता के किस्से राजधानी तक न पहुँच जाएँ और राज दरबार में तुम्हें बुला न लिया जाए। जैसे कवियों की नायिकाएँ दरबारों में बुलाई जाती हैं।

ईसुरी ने रजऊ की आँखों की सुंदरता का बड़ा मनोहारी चित्रण किया है—

बाँकी रजऊ तुम्हारी आँखें, रओ घूँघट में ढाकें।
हमने लखीं, दूर से देखीं पानी कैसी पाँखें।।
जिनकों चोट लगी नैनन की, डरें हजारन काँखें।
जैसी राखें रई ईसुरी, उसई रइयो राखें।।

यहाँ ईसुरी ने आँखों को पानी के पंख जैसी कहा है, जो नया प्रयोग है। पानीदार, चमकीली आँखें। रहीम, बिहारी, घनानंद जैसे न जाने कवियों ने नायिकाओं की आँखों की सुंदरता के गुण गाए और उपमा तथा उपमान के सारे बंधन तोड़ दिए हैं। तो ईसुरी ने पानी जैसी पाँखें लिखकर अपनी कविता की श्रेष्ठता का परिचय दिया है।

हींसा पर आगले मेरे, रजउ नयन दोउ तेरे।
जां हम होय तां मइया हेरों, अंत जाए न फेरे।।
जब देखो, तब हमकां देखो, दिन मां साझा-सवेरे।
ईसुर चित्त चलन न परवे, कबऊँ दाँयने डेरे।।

ऐसा लगता है रजऊ, तुम्हारे दोनों नेत्र हमें हर जगह दिखाई देते हैं। हम जहाँ भी देखते हैं, तुम दिखाई देती हो। लगता है, सुबह-शाम तुम हमें ही देखती रहती हो। तुम्हारी आँखें हर ओर हमें दिखाई देती है।

अखियाँ पिस्तौले-सी भरकें, मारत जात समर कें।
दारू दरद लाज की गोली-गज भर देत नजर के।।
देत लगाय सैन की सूजन, पल की टोपी धरकें।
ईसुर फेर होत फुरती में, कोऊ कहाँ लौ बर कें।।

ईसुरी ने चंचल आँखों की तुलना पिस्तौल से की है, जिसकी मार से कोई नहीं बच पाता है।

डारो रूप, नयन की फाँसी, दै काजर विस्वासी।

कृष्ण की रस बोरी होली—

तक के भर मारी पिचकारी। तिन्नी तर गिरधारी।।
सराबोर हो गई रंग में बृज बनिता बेचारी।।

या फिर

पानी भरन यार के लानें, हर-हर बेरा जानें।
भरो भराओ लुढ़का देवें, चाय होय न चानें।।

या फिर

हमने परखी उड़त चिरैया। कछू अनारी नैंया।
पहले से हिरदे की जानत, का हौं आप करैया।।

ईसुरी की इन फागों को पढ़-सुनकर लगता है कि वह असाधारण कवि हैं। रूपक, बिंब, सौंदर्य, नख, शिख वर्णन उनका किसी रीति कवि आज के कवियों से कम नहीं है। वह कहते हैं—

ऐंगा बैठ लेओ, कछुकानें। काम जनम भर रानें।
बिना काम के कोऊ नइयां, कामै सबकौ जानें।।
जी जंजाल जगत को ईसुर, करत-करत मर जानें।।
इक दिन होत सबई को गौनों, होनों उर ऊन होनों।
ईसुर विदा हुए जौ दिन ना, पिय के संग चलोनों।।

या फिर—

बखरी रइयत हैं भारे की, दई पिया प्यारे की।
कच्ची भीत उठी माटी की, छाई फूस चारे की।।

इन फागों में ईसुरी ने शरीर की नश्वरता के सत्य को बड़ी कुशलता से वर्णित किया है। चाहो न चाहो, एक दिन ईश्वर (पिया) के घर जाना है। यह तो भाड़े का मकान है। ईश्वरी की प्रसिद्ध फागों में—

जो कहुं छैल छला हुई जाते।
परे अंगुरियन राते।
मौ पोछन, गालन मा लगते, कजरा देख दिखाते।।
ईसुर दूर दरस के लाने, काए को तरसाते।।
महुआ मानस पालन।
ईकर देत नई सी ईसुर मरी मराई खालन।।

तथा—

यारी सदा निभाए रइयो, करके जिन बिसरइयों।।

आदि प्रमुख हैं। ईसुरी फागों के बेजोड़ लोककवि हैं। उनके काव्य में अश्लीलता नहीं, बल्कि फागुन-बसंत की मस्ती, शृंगार रस, सौंदर्य की मादकता है। उनकी फागें नायिका रजऊ को समर्पित हैं। उनमें लौकिक से पारलौकिक प्रेम के दर्शन होते हैं। यदि घनानंद ने अपने काव्य से सुजान, केशवदास ने रायप्रवीन को अमर कर दिया है तो ईसुरी ने भी रजऊ को अमर नायिका बना दिया है। ईसुरी का समुचित मूल्यांकन नहीं हुआ है। फिल्मी गीतों के आगे बुंदेलखंड में ही नई पीढ़ी उन्हें और उनकी फागों को भूलती जा रही है।

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