निष्कृति : राजगोपाल

Nishkriti : Rajagopal


अकेले न सुखमय हुआ यह मन का सूनापन तोड़ता रहा हृदय दूर शून्य मे भी बिसुरा अपनापन धूप मे भी आज तक न सूखा इन आँखों का गीलापन पीठ पर दिन लिये उसी प्रणय तले टूटता रहा यह तन-मन जिसका श्रृंगार देवी सा हो शत सुमनों से मुखरित जिसकी ऊर्जा हो कण-कण मे दामिनी सी वितरित वह सत्य है, सनातन है, नहीं है कोई छल या कल्पित फिर क्यों उड़ता है यह मन दिशाहीन विहग सा विचलित सच यह भी है कि निष्कासित प्रणय आज फूट रहा है जगती के चाक पर मिट्टी सा मन बार-बार टूट रहा है यह जीवन शत क्रंदनों का सुख अकेले ही लूट रहा है कोई उसे बतला दो धीरे-धीरे यह साथ भी छूट रहा है न जाने उजाले मे भी प्रणय क्यों चला है तम की ओर रतजगे ढूँढता रहता है यह मन चुपचाप तिमिर का छोर कौंधती है दामिनी जब उर मे चीर कर तृष्णा घन-घोर आँखों से रिसती है उसकी सुधा छूती सावन के हिलोर इतनी शांति मे लगता है यह जागता मन भी खोखला है मौन ही दीवारों पर मूक चित्र देखता यह कितना बावला है कदाचित, लौट कर तुम तक बार-बार प्रणय हाथ ही मला है जगती मे कभी चाँदनी, कभी अँधियारा, यही इस जीने की कला है पोंछते आँसू जगती मे अकेले अनेकों की विरह कथा सुनी हुये अश्रु पुराने, आह पुरानी, किन्तु किसने मेरी व्यथा सुनी धीरे-धीरे अपनी पीड़ा, अपना पथ यह जगती की प्रथा बनी हैं सभी पथिक जगती मे पर किस ने भाग्य से भरी पृथा चुनी अपने ही तपन मे हुआ यह मन किसी सूखे पत्ते सा मरमर उस सन्नाटे मे उर बजता, जैसे किसी घाट से गूँजती है हरहर आज पुरानी दीवार से नहीं, आँखों से बहता है पानी झर-झर पी जाता था स्वयं उसे हर सुबह यह एकाकी अंजलि मे भरकर कल स्नेह सींचा आज बिसार दिया यह कैसी मनमानी है जीवन के बहुरंग, किन्तु त्रिधा ऐसी भी कब किसने जानी है लगा जैसे प्रणय, प्रेयसी, परिणय यह सब नीरव बहता पानी है मिट्टी मे जो घुली, घुलती गई, किसने इसके नव-निर्माण की ठानी है देख दुर्गति इस जीवन की हिल उठा पाषाण का हृदय भी संबंध तो सिधारे पहले ही अब बातें भी उमड़ी प्रलय सी चाहें नाच लें जगती मे साथ-साथ खिंचती दूरियाँ तो तय थी सारे बरस छूट गए पीछे, अब स्वप्नों मे ही आँखें तन्मय थी सूखे सुमन, उड़े भ्रमर, इन दृगों मे है अब कोई बाग नहीं उठा प्रभंजन, कड़की दामिनी, कहीं मिलन का है राग नहीं निष्प्राण प्रणय का उत्सव कैसा जब तन-मन मे है कोई आग नहीं उसी मोड पर बैठा हूँ अकेला, हर रात कहती है अब तू जाग यहीं मैं जागता अँधियारे अपनी कथा तारों से कहता हूँ हँसता-रोता निष्कृत स्मृतियों के रेलों मे बहता हूँ गीली मिट्टी सा प्रणय-मोह मे जुड़ता-टूटता ढहता हूँ विश्व भर कर आँखों मे अकेले अपनी पीड़ा सहता हूँ मन करता है स्पर्श कर लूँ प्रथम-प्रणय जब तक है भुजबल लौट कर मर जायेगा यह मन देहरी पर ही लज्जा से जल-जल आज भी गूँजती है कानों मे अब नहीं की प्रतिध्वनियाँ अविरल किन्तु अधिवास की खिड़की से यह मन फिर भी झाँकता है प्रतिपल बहुतों ने खाई है जागती मे विरह की चोट मोटी आभास हुआ तो अश्रु बहे या लंबी आह भी लगी छोटी जब काया देहरी के पार हुयी इस मन की हर बात लगी खोटी अब कैसा आश्वासन, प्रणय सिधारा बांध कर वेताल सिर की चोटी मन कहता है अस्मिता लिए मत देख गगन, यह कोहरा नहीं छंटेगा मत कह जिव्हा से कुछ भी, निकल कर शब्द-शब्द से वाक्य बनेगा जब खिचेंगे बिसुरे बरस, यह वर्तमान और कल भविष्य भी तनेगा जान लो, सत्ता नहीं है संबंध, जिनसे यहाँ कल कोई साम्राज्य बनेगा आँखों मे श्रावण हो या ज्येष्ठ जी तपन, सारी मन को सभी भाती है रिक्त हृदय मे इस सूने घर मे, वह छाया हर बार पास चली आती है दबी भावनाओं को समेट कर सिरहाने रात मीठे प्रणय गीत गाती है सच! दुख की समाधि पर जगती मे सुख ऐसे ही खिलखिलाती है मधु घट सूखा, बरसों से सूख गयी है गीली प्याली दिन डूबा-मन डूबा, मिट गयी है मधु-अधरों की लाली न महकी कस्तूरी, न ही उन्माद उठा, गुम हुई प्रेयसी निराली मन कहता जाने कब होगा प्रभात, लांघ कर यह सोती रात काली दे आया हूँ उसे सुख-स्नेह से गूँथा जीवन का कण-कण दिया मिट्टी सभी आशाओं को, नहीं है शेष कोई और समर्पण टूट गया प्रणय, अब न देख सकेंगे उन गहरी आँखों का दर्पण थक कर प्रणय-पुष्कर मे कर दिया है कल ही इस जीवन का तर्पण फिर भी उसकी प्रतिमा मन-आँखों मे लिये न मर सकूँगा टूटे हुये मधु-कलश मे कैसे शरद की चाँदनी भर सकूँगा प्रणय के खंडहर से सूखे काई सा जाने कब झर सकूँगा चारों ओर छाई उसकी सुरभि के आभास से कब उभर सकूँगा इन छलकते नयनो मे होता नित नई आशाओं का सृजन है खुली युग-बाहों मे, जगती के लय मे, रम रहा यह जीवन है चाहे जितने हों अधिवास, बसता स्नेह का एक ही भुवन है हर आवास बना रति से, बिन उसके सारा विश्व भी विजन है उसी जगह मैं हूँ , उसी जगह ठहरा है यह मायावी जग बैठता है उर जब अश्रु छलक कर जीवंत करते हैं रग-रग मन तो बावला है, रात ही नहीं, दिवास्वप्न भी उसे जाते हैं ठग किन्तु, हारता नहीं है मन, कहता है निर्लज्ज, जा फिर से यत्नों मे लग

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