निष्कर्ष : राजगोपाल
Nishkarsha : Rajagopal


आज मुझे तुमसे कुछ भी नहीं चाहिये बुझा दो रात जलते प्रेम के सारे सौ दिये चलूँगा अँधियारे ही मैं उर पर बोझ लिये क्या कहूँ मूक हुआ है कंठ मन भर शब्द लिये हार गया मैं, यह जीवन पुनः नहीं बना पाया क्यों तुम तक आकर फिर यह मन घबराया जान कर भी यहाँ अपनी लज्जा गवां आया आज मैं तुमसे नहीं, स्वयं के पृथा की मार खाया न दोबारा इन सम्बन्धों का निर्माण करो अपने मिट्टी से टूटते मान का ध्यान करो प्रणय ताकते स्वयं को श्वान सा मत हैरान करो अब और न अपनी अस्मिता का अपमान करो उसी बात पर नित खाते हो कितने चक्कर कह-सुन कर भी हाय! प्राण नहीं हुआ जर्जर अब न कहीं मन दिखता है न ही अस्थि-पंजर बतलाओ धरा से किसने देखा है स्वर्ग के अंदर उसकी आँखों मे कहीं उन्माद देख नहीं सकते मिल बैठ कर तन-मन की बात नहीं कर सकते मौन हुये हम, जो कभी थे यहाँ मद भरे चहकते आज अकेले हम केवल रहते हैं दीवारों से उलझते अकेलेपन की आज आदत सी हो गयी है हाथ पकड़ साथ चलने की दिशा खो गयी है उर मे मधुबाला की छवि निष्प्राण सो गयी है स्मृतियाँ पग-पग न जाने कितने कांटे बो गयी है अब लुप्त हुआ घर-जगती पर मेरा भी वश चुभता है जीवन जैसे हो ज्येष्ठ का सूखा कुश किन्तु बुझती नहीं है मन मे लगी निर्लज्ज तरश नहीं चाहिये, मिट्टी है घर और जगती का सारा यश अब कडुआ लगता है प्यार भरा मीठा व्यंजन पहले दिखता था इन आँखों मे मिट्टी भी कंचन झोंक गया धूल बदलते सम्बन्धों का वह प्रभंजन बधिर हुआ मैं कैसे सुनता वसंत का किलकता गुंजन इस जगती मे कहाँ जाऊंगा स्वयं से डर कर कभी रोता हूँ, हँसता हूँ, उर पर पत्थर धर कर कौन रखेगा कब तक प्रणय आँखों मे भर कर नहीं लौटूँगा यहाँ देबारा, इस पीड़ा से उभर कर हे प्रभु ! तुम मेरा थोड़ा सा दुख हर दो इस मन की खाली जगहो को भर दो सम्बन्धों की उदासीनता को क़तर दो या फिर मुझे शिव की गंगा मे लय कर दो क्या मूल्य दूँ तुम्हारे उन युग्म क्षणों का क्या यही है जगती मे निष्कर्ष चिर-बंधनों का बतलाओ कितना सूद हुआ मेरे शत क्रंदनों का आज समझ सका हूँ मैं, ऋण तुम्हारे मधु-कणों का सोचा था संसृति मे बहता मैं यूं ही सो जाता प्रणय को थामे पृथा से चिर निद्रा मे सो जाता दूर चलते यह जीवन निश्छल ही अमर हो जाता पुनर्मिलन की प्रतीक्षा मे मैं क्षितिज भी छू जाता दूर जाकर बिखर गये अब कुछ बचे हुये पल यहाँ नित झरता है मन-आँखों से खारा जल कोई संवाद नहीं, केवल है मन मे है हालाहल ऐसे ही बढ़ता जा रहा है इस जीवन मे दलदल यूं ही जी लेते हम महाप्रयाण तक प्यार लिये किन्तु पहचाना नहीं आँखों ने, बुझ गये दिये चल कर आगे हमने उसी नीड़ मे दो द्वार किये अब रात गयी, बात गयी, किसे मालूम कैसे जिये कौन कहता है यहाँ आशाओं का बाग लगा है परिणय का अटूट शपथ भी आज हँसता ठगा है धर्म-पुण्य की गठरी बांधे केवल सोया स्वार्थ जगा है आज कोई और नहीं, देखो एक विक्षिप्त अंग लगा है कभी पहले यही बावला ही तन-मन को भाया वही प्रणय पंक्तियाँ लिखता-कहता मन बहलाया आज उसकी ही रचनाओं पर अधम प्रभंजन ढाया कलम लिये वह हाथों मे अपने ही मुंह की खाया सुनता था मैं जीवन भर सुख-दुख का ताना-बाना किसे पता था प्रणय का ऐसे दामिनी सा आना-जाना उसने क्यों मुझे पशु सा जगती मे अस्तित्वहीन माना मैंने केवल प्यार मांगा था, उसका निष्कर्ष आज है जाना कुछ भी हो जगती मे हम देते थे साथ-साथ दिखलाई झूठी मुस्कान को सभी समझते थे लंबी स्नेह-सगाई पता किसे था उर के अंदर किसने कितनी चोटें खायीं असली तो फूट गईं, इन आँखों पर ऐनक उधार की पायीं बरसों से आज तक उसे था उर से लगाया क्यों उसने ही मन-मस्तिष्क से मलिन कर रुलाया रोते हुये भी मैंने भरे कंठ से उसे बार-बार बुलाया किन्तु मुझे रात ने अपरिचित सा देहरी पर ही सुलाया हे बाला! पहले ही मधु घट मे थोड़ा विष ले आती अपने गोद मे सुला कर सुधा सा एक घूंट पिलाती मन मे पुनर्जन्म का फिर कुछ मीठा सा आस दिलाती इन हाथों से फिर शांत शिथिल होती यह काया सहलाती बातों की गहमा-गहमी मे वह पैर पटकती चली गयी उसकी निष्ठुरता मे मेरी कविता चींटी सी मसली गयी झरे निर्झर नीर पर मची शब्दों मे अब खलबली नयी पृथक पड़े थे देह कहीं, बज रहे थे कानों मे कंकड़ कई क्या मुझ जैसा ही है जगती मे सभी का जीवन प्रणय की किलकारियों तले दबा है रोदन-गायन न जाने कब तक संसृति मे ऋतुएँ होती हैं मनभावन दम घुटता है, क्यों कि मिलता नहीं है कभी यहाँ वातायन प्रेयसी के अंतःस्थल मे प्रतिपल उगते-झरते हैं प्रणय के पल्लव-दल समझूँ उसे क्या मेरी क्षीणता या जीवन का संबल अकेला हूँ, मेरी ही सृष्टि मे रोता-हँसता हूँ कलकल अब और कितनी अपनी कथा सुनाऊँ अंत जानता हूँ, तब क्यों रोऊँ-चिल्लाऊँ व्यर्थ झूठी आशाओं मे क्यों पहेलियाँ बुझाऊँ पर मन करता है एक बार पुनः वही जीवन जी पाऊँ बार-बार दिन-रात बहकता है मन मेरा चाहा कर दूँ विक्षिप्त सा चीख कर सवेरा कभी मृत्यु ने कभी जीवन ने मुझे आकर घेरा निष्कर्ष यही जीवन है, ईश्वर भी नहीं सुनता है मेरा

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