निरुत्तर (दस भावनाओं का संकलन) : राजगोपाल
Niruttar (Answerless) : Rajagopal


आज मैं...

क्यों जग मे हुआ अकेला आज मैं संघर्ष से जूझता हुआ प्रणय को सुख से छुआ पुरुषार्थ से जीत लिया जीवन आज मैं क्यों जग मे हुआ अकेला आज मैं छिपी है प्रेयसी मन मे बहती है वह नित क्रंदन मे कुछ न चाहिये मुझे, मौन हुआ आज मैं क्यों जग मे हुआ अकेला आज मैं मन ढूंढ रहा खोया उल्लास अब नहीं रहा प्रणय पर विश्वास सर्वस्व खो कर भी अधम हुआ आज मैं क्यों जग मे हुआ अकेला आज मैं

अपनापन

न मांगूंगा अब तुमसे अपनापन तुम पर कितना स्नेह लुटाया छूने मन को न कोई यत्न जुटाया रातों मे उलझा करता हूँ स्वप्नों से रण न मांगूंगा अब तुमसे अपनापन व्यर्थ हुआ बरसों का प्रणय समय निगल गया परिणय उड़ा मनोरथ बादलों सा, घिर गया सूनापन न मांगूंगा अब तुमसे अपनापन अपने मे सिमटा ही मर जाऊंगा तुमसे न कभी कह पाऊँगा नहीं लौटेगा समय तुम तक, लिये वह टूटा मन न मांगूंगा अब तुमसे अपनापन

आह...

बरगद पर टंगी है मेरी आह कल का उन्माद मौन हुआ इस कोलाहल मे अपना कौन हुआ नहीं कोई यहां जो छोड़ आता मुझे उस राह बरगद पर टंगी है मेरी आह अंधेरे ही कहीं प्रणय छूटा हाथ से मधु का घट फूटा वेताल बना मन अब किस की है चाह बरगद पर टंगी है मेरी आह खो गयी है आज वह प्रेयसी छोड़ कर तन माया भी चल बसी मर कर भी रुकता नहीं है मन का प्रवाह बरगद पर टंगी है मेरी आह रोता है दिन-रात यह भारी बरगद आह लादे कब तक बना रहेगा अंगद मन भटकता है घाट-घाट ढूँढता प्रणय की थाह बरगद पर टंगी है मेरी आह

निरुत्तर

यह जीवन है रोने की बात नहीं सिर पर अगणित प्रश्नों की ढेरी ढोती है इन्हे प्रतिदिन भुजायें मेरी चलते-फ़िरते सभी ने मेरी कथा कही यह जीवन है रोने की बात नहीं ढूंढते उत्तर जगती मे कितने छल गये पानी समझ पाँव काई पर फिसल गये स्नेह-सगाई आज तक केवल एक पहेली रही यह जीवन है रोने की बात नहीं बीते दिनो कभी प्रणय से था नाता समय को भी आज सुख नहीं है भाता पृथा कुरेदती बस यही कथा अब मेरे साथ रही यह जीवन है रोने की बात नहीं

संसार मिला है...

झूम ले तुझे भी संसार मिला है मित्रता कर ले माया से जगती मे चलते कभी यथार्थ सहते, कभी छल मे हाथ मलते यह जीवन नहीं तेरा ही विश्व-रूप खिला है झूम ले तुझे भी संसार मिला है कभी कोलाहल, कभी सूनेपन के अंदर झांक ले कनखियों से छिपा सत्य भयंकर जोड़ ले कितनी राहों के कितने बार प्यार मिला है झूम ले तुझे भी संसार मिला है कब दूसरों से मुझे दुख कम मिला है क्या इस उर मे सुख कम खिला है इस अंतर को मापते-मापते धरा से गगन मिला है झूम ले तुझे भी संसार मिला है

नीलकंठ

आज भीतर का नीलकंठ जाग उठा है विष ढंका था बरसों मधु-घट से फिसला पाँव उस पर प्रणय के पट से इसे पी कर तृषित के मुंह से कैसा झाग उठा है आज भीतर का नीलकंठ जाग उठा है कभी प्रेम था तन-मन भर कर कटु-कटाक्ष खरोंच गयी अंबर फिर भी जगती मे कैसे रंगों का फाग उठा है आज भीतर का नीलकंठ जाग उठा है दबा कर दुख मन ही मन तोड़ देता है अंश-अंश तन शत-क्रंदनों मे कहीं सिसकियों से राग उठा है आज भीतर का नीलकंठ जाग उठा है

पिंजर

बूढ़े पिंजर पर है आज गगन का भार कभी था मन चाशनी मे ढला सूख कर है आज धूप मे जला छांव मे बसा था कभी प्यार पुचकारता संसार बूढ़े पिंजर पर है आज गगन का भार आँसू की हर बूंद तन गलाती है मूक है जग, मौन ही रात सुलाती है अकेला ही ढूँढता रहता है मन इतिहास मे प्यार बूढ़े पिंजर पर है आज गगन का भार जगती मे कोई विकल नहीं है प्रणय-परिणय केवल प्रश्न ही है निराकार मे साकार का छलना ही है जीवन का सार बूढ़े पिंजर पर है आज गगन का भार

बरस लो...

आज मन घन-सघन बरस लो द्रवित मन से कुछ भी न कहो उस पत्थर से कुछ दूर ही रहो अंजलि भर खारा जल निष्ठुर समय को परस दो आज मन घन-सघन बरस लो किस ने पूछा क्यों दुखी है मन अटकलों ने ही तोड़ दिया तन मर्यादा समझ जगती की आंसुओं मे ही हँस लो आज मन घन-सघन बरस लो कहते हैं घर है यह तुम्हारा बाँट लो शून्य मे अपना जग सारा नियम-संयम धर कर उड़ती माया मे तरस लो आज मन घन-सघन बरस लो

अवसान

जान ले अगला पाँव पड़ा अवसान छूट गया दूर वह स्वर्ग सुंदर हुआ आज वह घर खंडहर ठंडी हुयी ज्वाला, क्या मिलेगा प्रणय की राख़ छान जान ले अगला पाँव पड़ा अवसान पग परस दिया सारा धन-मन लौट कर जला जीवन छन-छन जल कर स्वर्ग की राख़ भी हुयी गोधूलि के समान जान ले अगला पाँव पड़ा अवसान आज भस्म ही पृथा पर रख पाया मिटती लकीरें न समेट कर लाया आँसू और आशा के अपने हैं अलग-अलग स्थान जान ले अगला पाँव पड़ा अवसान

व्यंग्य

अब और व्यंग्य नहीं सहा जाता प्रणय-परिणय सिर-आँखों पर न ढूंढा कभी टेढ़े प्रश्नों के उत्तर समय ही नहीं मिला, आँसू किस पर बहा पाता अब और व्यंग्य नहीं सहा जाता दोनों अपनी अस्मिता मे सम जीने की जिजुत्सा न किसी मे कम उसे देख कर जीवन, हारा रण भी नित जीत जाता अब और व्यंग्य नहीं सहा जाता आज शिथिल जीवन स्तब्ध है बात-बात पर कोसता प्रारब्ध है ढूंढ कर दुर्बलतायें क्यों टेढ़ा प्रश्न है वार कर जाता अब और व्यंग्य नहीं सहा जाता

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