नेत्रभंग (खण्ड काव्य) : रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

Netrabhang : Rameshwar Nath Mishra 'Anurodh'



प्रथम सर्ग-नेत्रभंग (खण्ड काव्य)

विविध लता - तरुओं से गुम्फित, चित्रकूट पर्वत सुंदर । मेरुदण्ड की तरह धरा पर पड़ा हुआ छवि-निधि मंदर।। मन्दाकिनी नदी मनहरनी जिसके तल में बहती है । 'जीवन है गतिशील' निरन्तर कलकल ध्वनी में कहती है ।। सती - शिरोमणि अनुसूया का तपःपूत स्नेह सरल । मन्दाकिनी नदी बन बहता शांत,कांत,अति दुग्ध धवल ।। किन्नरियों के अंगराग से, शीतल सलिल गमकता है । सूर्य किरण से प्रतिबिम्बित हो, दर्पण सदृस दमकता है ।। जगह - जगह रमणीय मनोहर, सुंदर घाट सपाट बने । अगल-बगल कुसुमित वृक्षों के मानों हरित कपाट बने ।। कर्दम - रहित किनारों पर ये सुन्दर घाट सुहाते हैं । 'आओ बैठो यहाँ शांति से' मानो मौन बुलाते हैं ।। विविध वर्ण के पुष्प तीर पर हँसते मंद, लहरते-से । पयस्विनी की दुग्धधार में बहते और झहरते- से ।। चम्पक, बेंत, कदम्ब, मौलश्री, पाकर, जम्बु, रसालों के, पंक्तिबद्ध हैं खड़े वृक्ष वट, पीपल और तमालों के ।। कहीं बाँस की बँसवारी है, कहीं बेल तरु बेल मढ़े। कहीं प्रियाल, आँवला, कटहल के तरुवर सौन्दर्य जड़े।। कहीं मधुपटल से रिस-रिसकर टप-टप शहद टपकता है। कहीं गगनचुम्बी शिखरों पर माणिक पड़ा चमकता है ।। तट पर उगे प्रचुर पेड़ों की छाया जल में नाच रही। स्वच्छ सलिल में चपल मछलियाँ रह-रह खूब कुलाँच रही।। जटा, अजिन, वल्कल धारण कर ऋषिगण तट पर आते हैं। प्रातः - सायं शांत सलिल में जी भर नित्य नहाते हैं।। दूर तलक वृक्षों की छाया शीतल, शांत सुखद गहरी। भोजपत्र का बिछा बिछावन जहाँ विरमती दोपहरी।। गन्धर्वों के सरस गान से वातावरण सरसता है । चित्रकूट में सुधा सुधाकर आकर रोज बरसता है।। लता-पत्र, द्रुम-दल छाया में घूम जीव तृण को खाते । सिंह-स्यार, मृग-बाघ एक ही साथ वारि पीने आते ।। यहाँ नहीं कुछ बैर - भाव है, यहाँ नहीं प्रतिहिंसा है । बसे जहाँ पर राम, वहाँ पर हिंसा कहाँ ? अहिंसा है ।। स्वतः उगे इन वृक्षों पर शुक-पिक करते रहते कूजन । कमल वनों का मृदु प्राग पीकर करते मधुकर गुंजन।। नित्य सुसौरभ लिए पवन जब दक्षिण दिशि से आता है। कुड्मल - बेला वेणु - वनों में भारी धूम मचाता है ।। सारस तट पर, चक्रवाक के जोड़े धारा में तिरते । इधर-उधर उन्मुक्त भाव से हैं सारे वनचर फिरते। । कहीं गुलाबी आँख लिए मोरों का झुण्ड सुहाता है। कहीं आम के पत्तों में छिपकर पुंकोकिल गता है ।। विचर रहें हैं हरिण, आ रही मस्त गयन्दों की टोली । किंचित् नहीं भीत कोई है सुनकर सिंहों की बोली ।। लटक रहे लंगूर दूर से बन्दर उन्हें खिझाते हैं । कहीं बाघ को नाच दिखाकर भालू-रीछ रिझाते हैं।। देखो गिरी से निकल मिल रहे सरिता में शीतल झरने। मसृण लताएँ खड़ी ऐंठती पहन तुहिन कण के गहने।। विपुल तड़ागों की श्री-शोभा सुर-नर का मन हरती है। यहाँ इंद्र - नन्दनवन की सुन्दरता पानी भरती है ।। कितना स्वच्छ और निर्मल है पानी रुचिर तड़ागों का। कितना सौरभ बिखर रहा है हरित-शुभ्र वन-बागों का।। मन्द-मन्द मारुत झोकों से सिहर रहा निर्मल जल है । मनो विहंसती प्रकृति परी का लहराता-सा अंचल है ।। कलकल निनाद छिड़ रहा प्रचुर पर्वत के रम्य प्रपातों से। स्वच्छ चांदनी छिटक रही छन-छनकर द्रुमदल-छातों से।। मन्दाकिनी नदी की आभायुक्त चमकती रेती है । कहीं लताएँ झुके सुतरुओं को गलबाहीं देती हैं ।। कहीं भूमि ऊँची - नीची है कहीं सुसमतल खेत बने । कहीं खड़े प्रहरी-से तरुवर, कहीं लतादि वितान तने।। खेतों में गोधूम शस्य की लटक रही कैसी बाली ? अहा ! चकित हो जिसे निरखता बेसुध मन मरीचिमाली।। जहाँ - तहाँ ऋषि - मुनि के आश्रम आश्रय वर विद्याओं के । विलस रहे हैं समाधान बन शंकाओं - चिन्ताओं के ।। वटुकवृन्द स्वाध्याय-निरत, कुलपति रत संध्या-वन्दन में। तपःतेज - सम्पूरित जैसे आग छिपी हो चन्दन में ।। प्रकृति नटी ने चित्रपटी पर चित्रकूट-सा चित्र धरा । चित्रकूट के कूट कूट में कूट - कूट सौन्दर्य भरा ।। जग भर की साड़ी मनोज्ञता यहाँ सिमट कर आयी है। इसीलिए श्री रामचन्द्र ने कुटी यहीं पर छायी है।। दिवा-रात्रि रवि-शशि की किरणें क्षितिज लाँघ भू पर आतीं। एक अतीन्द्रिय दिव्य लोक की विभा यहाँ छिटका जातीं ।। कितनी मनोहर कितनी शीतल, गिरी की हरित् वनाली है। मनो करुण स्निग्ध प्रेम की बिछी यहाँ हरियाली है।। अहा ! परम रमणीय क्षेत्र यह इसकी छटा निराली है। फूली-पहली बोझ से अवनत वृक्षों की हर डाली है ।। यहाँ वसन्त सदा बसता है, पतझड़ कभी न होती है । रत्नाकर से खड़े वृक्ष सब, कौन खोजता मोती है ।। यहाँ व्रती हैं, धर्मनिष्ठ, खोजते 'परम' को फिरते हैं। मोह-द्रोह-माया-मत्सर के यहाँ नहीं घन घिरते हैं ।। परोपकार में लीन, दयामय, शक्तियुक्त, सब हैं दानी। धरा-धर्म के मेरु, धुरन्धर, सत्य-ज्ञान के सम्मानी ।। प्रमदाओं के पुष्ट पयोधर से न यहाँ मदिरा ढलती । कलित कटाक्षों से न किसी भी साधक की छाती छिलती।। यहाँ नारियाँ तपोधनों की सच्ची सरस सहायक हैं । ऋध्दि-सिद्धि-सी प्रकट, प्रेरणा से सक्षम, सब लायक हैं।। स्वर्गोपम है चित्रकूट, स्वर्गंगा - सी मंदा बहती । कुछ अनमिल निर्वेद भाव से यह किसकी गाथा कहती।। किसका शास्वत मन्द धीर स्वर गूँज रहा इसके जल में ? कौन शक्ति है बसी बता दो चिति स्वरुप नीले तल में ? किसकी चर्चा सदा कर रहे ये ऋषिगण तट पर बैठे ? किसके मधु से भीग वृक्ष, ये खग कुल नित फिरते ऐंठे? आज तनिक बतला दे मन्दा! उस अनन्त की मौन कथा । कुछ पल के ही लिए शांत हो पगली फिरती ह्रदय व्यथा।। निर्झर चारण सदृस कर रहा है बोलो किसका गायन ? किसके रवि-शशि नेत्र? हो रहा अगजग किससे मनसायन? कौन सृष्टि के बाहर-भीतर? किसका विश्व विवर्तन है ? किसके कारण यहाँ हो रहा आवर्तन-परिवर्तन है ? हम कहते हैं जगत मात्र मिथ्या, प्रपंच माया-भ्रम है । यहाँ राग-विद्वेष, भोग-लिप्सा, प्रतारणा का तम है ।। किन्तु ब्रह्म को पाने का संसार सुलभ सुन्दर क्रम है। 'जगत व्यर्थ है' कहना निश्चय पागलपन है, विभ्रम है।। दनुज सताते मनुज जाति को क्या इसको मिथ्या जाने? सर्व सुहृद नयनाभिराम क्या राघव को कल्पित जानें ? नहीं, नही ये युगल सत्य हैं ब्रह्म और ब्रह्माण्ड निलय। जल है लहर, लहर ही जल है ; यही सत्य-ऋत निःसंशय।। नृत्य और नर्तक क्या दोनों कभी भिन्न होने वाले ? कंठ और स्वर, राग-ताल क्या कभी छिन्न होने वाले? सूर्य और उसका प्रकाश दोनों ही सत्य सुहाने हैं । ब्रह्म और ब्रह्माण्ड सत्य, संसृति के ताने-बाने हैं।। रहकर जग से अलग मगर हम अलग नहीं हैं रह पाते। इसके बिना नहीं हम अपने मनोभाव को कह पाते।। जगत हमारा कार्यक्षेत्र है, पौरुष ही तो जीवन है । उसी महाचिति से आलोकित निखिल विश्व का कण-कण है।। अरे! अरे! मैं कहाँ आ गया बातों में बहते-बहते? क्या से क्या कह गया न जाने क्या से क्या कहते-कहते ? गूढ़ तत्व दर्शन के प्रायः निभृत प्रान्त में जगते हैं । आत्मा को अध्यात्म-ज्योति की प्रखर किरण से रँगते हैं।। सखे! सुदर्शन हेतु राम के इधर नहीं, उस ओर चलो । जिन्हें देखने को व्याकुल हैं मेरे नयन-चकोर चलो ।। जहाँ कुटज से घिरे उटज में महावीर ने वास किया । जिनके बल ने आर्य-संस्कृति को नूतन उल्लास दिया ।। जिनमें नहीं विलास-वासना, नहीं स्वर्ग-सुख की ईप्सा। नहीं विभव-संग्रह का आग्रह, नहीं कर्म फल की लिप्सा ।। जिनके संग में अनुज लक्ष्मण और सिया सी नारी है । जीनके कारण आर्य-सभ्यता आज जगत में भारी है ।। सागर से गंभीर, हिमालय से महान धीरज धारी । बल में विष्णु समान युद्ध में रुद्रदेव-से संहारी ।। दक्षिण कर में कर्म, सफलता जिनके बायें कर में है। जिनकी चर्चा आज विश्व के हर कोने, हर घर में है।। त्याग-तपस्या, सत्य-अहिंसा, शम-दमादि का रूप नवल। दीप्तमान है दिव्य देह में द्वन्द्वातीत, अभीत, अमल।। सात्विक संकल्पों का संचय निश्चय जिनके मन में है । मानो प्रकट हुआ प्रिय सतयुग राम रूप इस वन में हैं ।। जिनका दुष्ट राक्षसों से मानव-विकास हित वैर ठना। जो वाग्मी हैं, धीर धनुर्धर, शील-शिष्ट, निर्भीक मना।। जिनके यश की धवल चाँदनी आज धरा पर फैली है । जिनके सम्मुख दुष्ट शक्तियाँ फीकी हैं, मटमैली हैं ।। गुह-निषाद को सखा बनाकर उन्हें अनोखा मान दिया। छली गयी मुनि-पत्नी को फिर से नव जीवन दान दिया।। दुष्ट ताड़का औ' सुबाहु को जिसने मार गिराया है । वही सूर्यकुल-केतु धर्म के हेतु स्वयं वन आया है ।। जिनने शिव का धनुर्भंग कर मान वीरता का रक्खा। दुर्लभ सुधा-स्वाद के संग-संग स्वाद हलाहल का चक्खा।। धर्म स्थापना हेतु यहाँ जो आये रघुकुल-नन्दन हैं । उनका चित्रकूट में शतशः वन्दन है, अभिनन्दन है।। पयस्वनी के सुघर किनारे से कुछ दूर उधर हटकर। एक पर्ण की कुटी बनी है चित्रकूट गिरी से सटकर।। अरे, मालती-कुञ्ज-बीच यह कुटी बनी कैसी सुन्दर। जिसे सींचता ठीक बगल में बहता है पावन निर्झर।। चारु दारु दीवार और यह पत्तों की सुंदर छाजन । खींच रही है ध्यान, सादगी का कैसा आजन-गाजन।।!! वातायन से झाँक, सदय हो शीतल सुरभि थिरकती है। वास्तु-कला इस पर्णकुटी पर सौ-सौ जान छिरकती है ।। आस-पास हैं फूल उगे कुटिया के चारो ओर विपुल। आवेष्ठित वीरुध-वितान से लतर चढ़ी उस पर मंजुल।। मह-मह करती रंग-बिरंगे नैसर्गिक वन-फूलों से । आँख-मिचौनी खेल रही मानो मलयानिल झूलों से ।। तनिक दूर कुटिया से शोभित एक पवित्र यजनशाला। दिव्य हवन से दीप्तमान है शिखामयी जिसमें ज्वाला।। ओम और स्वस्तिक चिन्हांकित उसके निकट शिवाला है। जहाँ धर्म, आचार, भक्ति ने आकर डेरा डाला है।। रत्न-जटित जगमग करते-से यहाँ धनुष दो-चार पड़े । तीक्ष्ण तिग्म बाणों से मण्डित त्रोंण कई कलधौत जड़े।। कमठपीठ-सी कड़ी कठिन दो धरी हुई सुन्दर ढालें । तडिल्लता-सी चम-चम करती, दीख रही हैं करवाले।। शस्त्र-शास्त्र का पावन संगम, योग-भोग की यह लीला! वल्कल वसन पहनकर रहती यहाँ वीरता बलशीला।। कौन कह रहा योग-भोग का मेल नहीं हो सकता है ? कौन कह रहा धर्म-क्रांति के बीज नहीं बो सकता है? देखो, प्रभु की यही कुटी है, छोटी, रम्य, सुखद, पावन। रमें यहीं पर अनुज प्रिया के संग पूण्य-निधि, मन-भावन।। तीन लोक के त्राता-रक्षक स्वयं राम ही आये हैं । तभी विपिन के जीव-जन्तुओं के मृदु स्वर लहराये हैं।। करते छाया मेघ, वृक्ष फूलों की डाली भर लाते । एक साथ ही रामचन्द्र पर सुधा-सुमन हैं बरसाते।। पत्ते उनके यशोगान में मर्मर-मर्मर करते हैं । केकी-शुक-पिक-हंस मोड़ से अपने मृदु स्वर भरते हैं।। पितु की आज्ञा मान विपिन में आये हैं रघुकुल-भूषण । साथ साथ उनके आये हैं लखन लाल जग-अघ-दूषण।। ब्रह्म-जीव के बेच प्र विद्या जैसे मुस्काती है । उसी तरह श्री राम-लखन के बीच जानकी भाती हैं।। अहा ! देख लो, कामधेनु-सी यह प्रभुवर की गाय खड़ी। रोमन्थन करती बछड़े के संग द्वार पर आन खड़ी।। इसे स्वयं सीताजी अपने हाथों से नहलाती हैं । घास खिलाती और प्रेम से इसका तन सहलाती हैं।। कुटी-द्वार के ठीक सामने महा विटप बट के नीचे। बनी हुई वेदिका एक जो समतल धरती से ऊँचे।। अगल-बगल नित वहाँ बैठ वनवासी प्रवचन सुनते हैं। रामचन्द्र के मधुर वचन सुनक्र मन-ही-मन गुनते हैं ।। छोटे हैं पर बड़े यशस्वी ज्ञानी हैं गुण के आकर । जगा हमारा पुण्य पूर्व का सुखी हुए इनको पाकर।। सत्यव्रती ये विनत भाव से सबका आदर करते हैं । अस्पृश्य अन्त्यज जन को भी आसन सादर धरते हैं।। इनमें वर्णश्रेष्ठता के मिथ्याभिमान का नाम नहीं । छुआछूत-सी निम्न भावना से इनका कुछ काम नहीं ।। सब मनुष्य में परम ब्रह्म की छाया इन्हें दिखाती है। 'भेद-दृष्टि को दूर भगाओ' मानो हमें सिखाती है ।। हम ऋषियों की चरण-वन्दना करते हैं ये वीरव्रती। सेवा में सदैव तत्पर रहतीं विदेहजा पुण्यवती। गो-ब्राह्मण-पूजन, प्रतिपालन इनका धर्म सनातन है। इनका दर्शन एक साथ ही नूतन और पुरातन है ।। अहा ! देखकर इन्हें वासना-माया पास नहीं आती। इन्हें देखकर तपोनिष्ठ ये छाती नित्य जुड़ा जाती ।। सुर या किन्नर या कि सृष्टि के परम ब्रह्म वपु धारे हैं। नर-नारायण, काम या कि ये नील व्योम के तारे हैं ।। रामचन्द्र साक्षात् ज्ञान हैं, कर्म अनुज सौमित्र सबल। जनकनन्दिनी उपासना-सी भास रहीं भास्वर उज्जवल।। या कि त्याग, वैराग, भक्ति श्री राम, लक्ष्मण, सीता हैं । या कि वीररस और रौद्र संग करुणा पुण्य पुनीता हैं ।। नील शैल या मरकत मणि-सा है शुचि स्वस्थ शरीर सबल। पद्मगर्भ से नयन अरुण हैं, अधर अरण ज्यों रक्तकमल।। स्वच्छ, शांत, पावन, प्रशांत, सरसिज-सा प्रभु का आनन है। अहा ! अवध-सा आज लग रहा चित्रकूट जी कानन है ।। पुष्परेणु से मण्डित आनन पर जिनके आभा अनुपम । तप्त स्वर्ण-सा वर्ण देह का जिसमें है शोभा-संयम ।। विश्ववंदनी, शक्ति रूपिणी वही मैथिली सीता हैं । जगदम्बा-सी सती शिरोमणि, सावित्री सुपुनीता हैं।। स्वर्ण शैल संकाश या कि पीताभ जलज तन चन्दन सा। सौभाग्य नमन करता जिनका, पौरुष करता अभिनन्दन सा।। वे ही हैं श्री सौमित्र विश्व में जिनकी आज बडाई है । धराधाम पर आज लखन-सा कहाँ दूसरा भाई है ।। अहा ! सुवल्कल वसन पहनकर बैठे हैं रघुकुल-नन्दन। नहीं यहाँ पर राज-पाट है, नहीं यहाँ घोड़े-स्यन्दन।। आप खुशी से रहते वन में श्रमकर जीवन जीते हैं । लखन और सीता नित पौधों में पानी दे, पीते हैं ।। पर्णकुटी के आस-पास जो लगी हुई है फुलवारी। उसे लगाया करकमलों से स्वयं जनकजा सुकुमारी।। राम और लक्ष्मण घट भर भर पानी खुद ही लाते हैं । कितनी शोभा, कितना गौरव, तभी रोज वो पाते हैं ।। कर्मशील, कर्तव्यनिष्ठ, इनके पास आलस आती । वर्षा, आतप, शीत झेलने में समर्थ इनकी छाती।। ऋध्दि-सिद्धि, नव निधि से इनको नहीं कभी अनुराग हुआ। कैसे इन्हें मधुर यौवन में ऐसा विषय-विराग हुआ ? कभी परिश्रम करते इनको तनिक नहीं ब्रीड़ा होती। मेहनत इनके लिए वास्तव में केवल क्रीड़ा होती।। जिन्हें काम से घृणा-जुगुप्सा वे परजीवी भोगी हैं । सृजन-धर्म के चिर प्रतिरोधी, जीवन्मृत हैं, रोगी हैं।। श्रम करना अधिकार मनुज का, इसमें है कैसी लज्जा? इसके द्वारा परिपोषित जन, इससे बढती है सज्जा।। श्रम को तजकर कभी नहीं हम सुख से यों जी सकते। हैं बस प्रमाद, विद्वेष, अनादर का विष ही पी सकते हैं ।। भला कौन है ऐसा जग में जो न श्रमिक हो उत्साही ? कौन कामना रहित बता दो, कौन कष्ट-पथ का राही? कौन निरादर सहकर जग में जेवण जीना चाहता है ? कौन एषणा-रहित बीतरागी यौवन में बहता है ? सभी चाहते सुख से जीना, वस्तु खोजते मनचाही। सभी चाहते कांचन-मणि हो, रहे ठाठ औबल शाही।। किन्तु कर्म के बिना कभी हम कुछ भी नहीं पा सकते हैं। पास लटकता मधुर भाग्य-फल कभी नहीं खा सकते हैं ।। यद्यपि ये सुकुमार सरल हैं फिर भी निरन्तर श्रम करते। एक-दूसरे को विलोक कर, हँसकर, कहकर दुःख हरते।। कितना इनमें विमल प्रेम है, कितना भरा तपोबल है । वही जयी होता इस जग में जिसका सुदृढ़ मनोबल है ।। वन में सहते कष्ट अमित पर कभी नहीं 'सी' भी करते। इन्हीं परुष पाषाण मार्ग पर, कंटक-कुश पर पग धरते।। सहते कष्ट यहाँ पर कितना कहा नहीं जा सकता है । इन्हें विलोके बिना एक क्षण रहा नहीं जा सकता है ।। हम तपस्वियों, ऋषि-मुनियों के ये सुजान हैं, जीवन हैं। तप-धन-संचित, स्वार्थ शून्य हम जैसे जन के तन-मन हैं।। आये हैं जबसे इस वन में पेड़ स्वयं फल देते हैं । मेघ समय पर वर्षा करते, खेत उगल धन देते हैं।। सर्वकला-निष्णात, कष्ट की इनपर चलती घात नहीं। रहते नित संतुष्ट, रुष्ट होने की कोई बात नहीं ।। दीख रही जो कुटी कुञ्ज के बीच बनी सुखदायी है। उसे सुमित्रलाल लखन ने अपने हाथ बनायी है ।। ये निर्धनों और दलितों को नित्य नयी शिक्षा देते। कहते- "करो परिश्रम, कर्मठ कभी नहीं भिक्षा लेते।। भाग्यवाद को भूल, उठो, कर्तव्य करो, निर्माण करो। गला काटकर किन्तु किसी का कभी नहीं निज गह भरो। आज विषमता की समाज में सुलग रही जो चिन्गारी। उसे समझ लो सर्वनाश की होती भीषण तैयारी।। उठो एक हो महाशक्ति बन धराधाम पर नाम करो। सुजन-विरोधी दुष्ट शक्तियों का अब काम तमाम करो।।" ये प्रचण्ड मानववादी है, मानवता के विश्वासी । इनकी सुधावृष्टि से शीतल होगी ये धरती प्यासी।। माया की छाया भयंकरी पास न आने पायेगी । होगी शांति धरा पर, जनता जीयेगी, मुस्कायेगी।। बल-वीरता, बुद्धि-कौशल, करुणा अथाह, वात्सल्य सरल।। मंगलमय उल्लास, आत्मा का सात्विक ऐश्वर्य तरल ; जिसमें ये गुण मिलें वही नर नारायण कहलाता है । संत जनों की रक्षा करता, दुष्टों को दहलाता है ।। जब से आये राम सज्जनों का जीवन निःशंक हुआ। इनके कारण रात्रिचरों का भय-विह्वल आतंक हुआ।। सदा प्रपीड़ित दलित जनों में नयी प्रेरणा आयी है । नयी रीतियाँ, नयी नीतियाँ देती आज दिखाई हैं।। इनकी सारी बात ठीक है, इनका है मौलिक चिन्तन। हृदय और मस्तिष्क उभय का हुआ योग ज्यों मणि-कांचन।। इनकी बातें लगती हमको जैसे अपनी बाते हैं । ऐसा लगता जैसे इनसे जनम-जनम के नाते हैं ।। आँख मूँद कर कभी नहीं ये किसी चीज को अपनाते। ऐसे पुरुष धरा पर अपनी लीक खींच कर ही जाते।। धरती की समृद्धि हमेशा उनके पग पर झुकती है । जिनकी प्रतिभा प्रश्न-चिन्ह बन परम्परा पर रूकती है।। कितने हैं ये दयावन्त, जीवों के रक्षक, अति भोले। अहा! हमारे जन्म-जन्म के बन्द द्वार इनने खोले। पर-दुख देख द्रवित होते हैं, हिमवत् तुरत पिघलते हैं। दुष्ट-दमन के लिए विष्णु-से आठो याम मचलते हैं।। ये स्वतन्त्रता के परिपोषक, वैर दासता से इनकी । ये विकास-समृद्धि देखना चाह रहे हैं जन-जन की।। ये जनता के परम हितैषी, ये जनमत के पोषक हैं । इनसे थर-थर काँप रहे हैं जो जनता के शोषक हैं ।। इनका कहना "नहीं किसी के पास विपुल धन संचित हो। भोजन, वस्त्र, निवास, सुशिक्षा से न कोई जन वंचित हो ।। कहीं नहीं अन्याय प्रबल हो दुराचार बढने पाये। कहीं नहीं कोई जन-धन से कंचन-गढ़ गढ़ने पाये।।" जहाँ लोकमत की अवहेला, धर्म-हीनता शासन में। जहाँ लोक-अधिकार-हनन है, केवल मिथ्या भाषण में।। उन्हें राम के अग्नि-बाण का, अब शरव्य बनना होगा। राम-राज के वर वितान को धरती पर तनना होगा।। राम नहीं बस व्यक्ति, राष्ट्र की वे ज्वलन्त परिभाषा हैं। राम नहीं बीएस शक्ति, शील के रक्षण की अभिलाषा है।। रान नहीं हैं राजनीति, जन-हित की महती कांक्षा हैं। राम नहीं कल्पना, मनुज की स्वर्ग-विजयनी वांछा है।। राम सत्य संकल्प धरा पर नई व्यवस्था लाने के । राम स्वस्थ सिद्धान्त धर्म का ध्वज निर्भय फहराने। के राम श्रेष्ठ आदर्श मनुज के गौरव के. सुविचारों के ।। राम दिव्य दृष्टांत दुष्टता के निर्मम संहारों के ।। राम एक प्रतिमान देश की संस्कृति के आचारों के। राम एक दिनमान अडिग मर्यादा के, व्यवहारों के ।। राम सहज साकार धर्म हैं, पौरुष की अंगड़ाई हैं । रामचन्द्र इस धराधाम पर हँसती हुई भलाई हैं।। आर्य-सभ्यता के प्रतीक श्री राम गुणों की सीमा हैं। इनकी गति से काल-चक्र भी कम गतिमय है, धीमा है।। हम सब अब तक अनासक्त थे, अब आसक्त कहायेंगे। रामभक्त हम, राम-काज हित जीयेंगे, मर जायेंगे।। फूले फले धरा पर चहुँदिशि राम-राज जग-हितकारी। सभी सुजन हो जाएँ स्वर्ग-अपवर्ग प्राप्ति के अधिकारी।। मिटटी की सुगन्धि भर जाये पारिजात के फूलों में। भे विश्व कल्याण-कामना जीवन के उपकूलों में ।। बढ़ें जगत में शूर-वीर, अप्रतिम तेजमय, बलशाली। सदा शरासन रहे हाथ में शोभायुक्त प्रेम-पाली।। प्रखर वीरता के ऊपर करुणा-ममता का शासन हो। और विश्व के ह्रदय-ह्रदय में पशुता का निष्कासन हो।। लिए हाथ में कलश कर्म का बढ़ें एक स्वर से गाते। त्याग एनी को विनय सहित, सब बढ़े सत्य को अपनाते।। और अहिंसा का जन-प्यारा उज्जवल दीप चमकता हो । मानवता का हर-भरा यह अनुपम बाग़ गमकता हो।। मिटे वैर सब रहें प्रेम से, ह्रदय-ह्रदय ना दूर रहें । सभी झुकें हों फलित वृक्ष-से और न मद में चूर रहें।। जय हो अखिल श्रृष्टि के नायक, भाग्य-विधायक, जगत्राता। जयति अत्युतम जनकदुलारी, तेज-पुंज शुभ युग-भ्राता।।

द्वितीय सर्ग-नेत्रभंग (खण्ड काव्य)

प्रात समय है सूर्यरश्मियाँ सतरंगी अतिसुन्दर थिरक रही है पर्णकुटी पर अतिप्रसन्न हो आकर, चमक रहा स्फटिक शैल-सा स्वच्छ नदी का तीर। कलकल, छलछल कर लहराता प्रतिपल निर्मल नीर।। महा विटप वत के नीचे है बनी वेदिका ऊँची। गुग्गुल-अगरु-हवन-गंध से जो रहती है सींची।। जहाँ सहज ही दिव्य सुगन्धित चलता मलय समीर। दर्भासन को बिछा वहाँ पर बैठे हैं रघुबीर।। जहाँ तलाबों के सरसिज के सुमन-अनूप खिले हैं। जहाँ कुञ्ज की तरह परस्पर अगणित विटप मिले हैं ।। जहाँ गुलाब और केवड़ा के फूल खिले अनमोल। जहाँ पपीहा-हंस-मोर के गुंजित हैं मृदु बोल।। जहाँ भ्रमर विकसित प्रसून पर मडराते रस पीते। जहाँ विचरते निडर भयानक व्याघ्र, भेड़िये, चीते।। वहीं प्रिया के संग राम बैठे हैं श्याम शरीर । गूँज रही है मेघ सदृश उनकी वाणी गंभीर।। "प्रिये! बता दो वन में रहते कितने दिन हैं बीते? हम वनवासी बने श्रांत, माया-ममता से रीते ।। लेकिन कितनी शांति यहाँ है! कितना है संतोष । यहाँ नही है भोग लालसा, नहीं किसी पर रोष ।। भोले-भोले ये वनवासी नित्य विविध फल लाते। पहले हमें खिलते साग्रह तब अपने हैं खाते ।। कितने सरल और कोमल हैं गुह, निषाद औ' कोल। कितने हैं निष्काम, अकलुषित इनके अटपट बोल।। परम तपस्वी ऋषि-मुनियों का दर्शन हमको मिलता। मन-तड़ाग में ज्ञान-भक्ति का सरसिज अनुपम खिलता।। जग से एक विरक्ति भावना न जाने क्यों जागी? सत्य कह रहा सबसे उत्तम हैं ये तपसी-त्यागी।। "किन्तु देखती मैं तपियों का जीवन नहीं निरापद। इनको भी पीड़ित करते हैं दुष्ट, तमीचर श्वापद।। ये निस्पृह मानव-समाज के उन्नायक अविकार। बने लक्ष्य आतंकवाद के सहते नित्य प्रहार ।। जिन्हें नहीं जग से कुछ लेना, केवल देना देना। दृढ़प्रतिज्ञ अंधड़ में जिनको तपः तरी है खेना।। ऐसे जो निर्भ्रांत मनस्वी औ' जो परम उदार । उनको भी हैं दुष्ट सताते, कैसा जग व्यवहार !!" "सच है सुमुखि! तपोबल पूरित ऋषि भी आज दलित हैं । दण्डित नहीं दुष्ट को करते ऐसे क्षमा-छलित हैं ।। क्षमाशीलता के कारण जब पौरुष की तलवार । कुंठित होती, तभी मनुज पर होता अत्याचार।। आत्म-सुरक्षा दंड-शक्ति पर ही निर्भर करती है। दण्ड-शक्ति का सदन सम्पदा चेरी बन भरती है।। रीपु, ऋण, रोग तीन का करना अन्त सदैव अभीष्ट। विमल विवेक-विहीन दया से होता घोर अनिष्ट।। दण्ड-विहीन दया है प्रेयसी! प्राण-रहित काया है । तेज-विहीन अहिंसा निश्चय हिंसा की छाया है ।। शौर्य-हीन आदर्श व्यर्थ है, त्याग-हीन स्म्प्रीति। ओज-हीन औदार्य निरर्थक, अनुशासन बिन निति।। जगत नहीं है ठीक, वहाँ पर बड़ी विषमता फैली। आज स्वच्छ चादर भी दिखती लोगों को मटमैली।। निष्कलंक जो उसे मानते लोग यहाँ सकलंक। निरपराध कारागृह में है, अपराधी निः शंक।। जो अनीति का पालन करता, वही न्याय की प्रतिमा। जो अविचारी, नीच, क्लीव, उसकी ही फैली महिमा।। जो न किसी का सुख सह सकता वही अकल्प सहिष्णु। आज सभी में स्पर्धा है, कहलाते सब विष्णु।। जो शोषण कर विभव बटोरे व्ही बना है राजा । उसका ही गुणगान हो रहा, बजे द्वार पर बाजा।। धन-दौलत के लिए किया करता जो अकथ अनर्थ। जन-धन का अपहर्ता ही कहलाता आज समर्थ।। जो नृशंस न्र वही आज सच्चा मानव कहलाता । लोगों से सम्मान प्राप्त कर सुख से समय बिताता।। बना नियामक और नियन्ता, रीती-निति-मर्मज्ञ। क्षमा नहीं कर सकते लेकिन, उसको शिव सर्वज्ञ।। आज आततायी पुरुषों की होती अनुपम पूजा । वे ही बने देव, उनसे अब पूज्य न कोई दूजा।। असहनीय पीड़ा शती है जनता बन निष्प्राण। नहीं जानती उसका कैसे कौन करेगा त्राण।। शासक वर्ग विलास-सिन्धु में डूब रहा नख-सिर से। कर्म-च्युत हो अनय कर रहा निति-नियम अस्थिर-से।। सत्ता सम्पति और शक्ति की देख घिनौनी चाल । ऐसा लगता त्रेता में ही आ पहुँचा कलिकाल।। कर्मीवृन्द स्वतंत्र, नित्य उत्कोच ग्रहण करता है । बंदीगृह में आज सत्यवक्ता केवल मरता है ।। असहनीय है असहनीय, यह यंत्र-मन्त्र औ' तन्त्र। राष्ट्र और जनगण विरूद्ध यह है भरी षड्यंत्र।।" "सच कहते हैं नाथ! पाप के प्लावन की यह हद है। मर्यादा को तोड़ भ रहा षड्यंत्रों का नद है ।। रहते समय नियंत्रण इस पर करना अति अनिवार्य। और नहीं तो यही लोक द्वारा होगा स्वीकार्य।। न्याय-पक्ष जब-जब निष्क्रिय हो निबल-भीरु होता है। अनय पक्ष तब-तब प्रचण्ड हो नाश बीज बोटा है ।। अनय रोकने में होता जब धर्म विवश-लाचार। तभी देश की जनता पर होता है अत्याचार ।।" "सच कहती हो प्रिये! धर्म ही इसे रोक सकता है । सत्तासीन मदान्ध मनुज को वही टोक सकता है ।। किन्तु धर्म की शक्ति चाहिए, आत्मा को ज्यों देह । मानवता की तभी सुरक्षा होगी निःसंदेह।। आज धर्म को देख रहा हूँ मैं होते अवहेला । धर्म-द्वेषियों का सत्ता के पास लगा है मेला ।। जिहें धर्म का मर्म न मालूम पाप-कर्म-निष्णात। उनके मुख से निकल रही है आज धर्म की बात।।" "धर्म नहीं हे नाथ! आजकल धर्मान्धता प्रबल है । इसके कारण धर्म-द्वेषियों को नित मिलता बल है ।। धर्मान्धता प्रबल जब होती, धर्म-द्वेष हो क्रूर। धर्म-तत्व को मानव मन-से कर देता है दूर ।। क्या है धर्म? इसे कह पाना उतना सरल नहीं है। जितना सरल दीखता सचमुच उतना तरल नहीं है।। एक तत्व ही कहीं पुण्य है और खिन पर पाप। खिन सत्य सर्वोच्च धर्म है, कहीं सत्य अभिशाप ।। कहीं क्रोध है पूज्य, कहीं पर वह अपूज्य पातक है। कहीं क्षमा स्तुत्य, कहीं पर क्षमा घोर घातक है।। कहीं अहिंसा परम धर्म है, कहीं वही अपकर्म । बड़ा कठिन कहना लगता है कहना क्या है धर्म-अधर्म।।" "सजनि! देश या काल, परिस्थिति, व्यक्ति, विशेष विषय से। जहाँ धर्म में मतिभ्रम होता, वह होता संशय से ।। विविधि शास्त्र-अनुशीलन, चिंतन का लेकर आधार। कभी-कभी करना पड़ता है धर्माधर्म विचार ।। बाह्याचार धर्म है कहना बहुत बड़ी जड़ता है । इसमें धर्म-तत्व-दिनमणि का बिम्ब नहीं पड़ता है ।। प्राणिमात्र की दुख-निवृति हो, यही धर्म का ध्येय । यही धर्म का मूल तत्व है, यही श्रेय का प्रेय।। शोषण नहीं, सुपोषण जिससे होता धर्म वही है । जिसमें कलकल दया प्रवाहित हिंसा तनिक नहीं है।। जिससे होता प्राणिमात्र के जीवन का उत्थान। वही धर्म होता है जिससे जग भर का कल्याण ।। जहाँ ह्रदय में द्वेष नहीं है, मन में नहीं जलन है । जहाँ शांति, विश्वास, शील का चरों और चलन है।। दान, ज्ञान, तप, त्याग, सुसंयम करते जहाँ प्रकाश। वहीं सहज स्वीकार्य धर्म का होता नित्य निवास।। जहाँ मनुज की बुद्धि शुद्ध है, विमल विवेक अचल है। सत्य, प्रेम, शुचिता, ऋत, ऋजुता, शाश्वत अम्ल, धवल है।। जहाँ सजीली क्षमा, अकारण नहीं जहाँ पर क्रोध । वहीं समझ लो आर्य धर्म है, न्याय-निति अविरोध।। जो दूसरे धर्म में बाधक वह कुधर्म कहलाता। उसका नहीं अभ्युदय-निःश्रेयश से रंचक नाता ।। सत्य-जन्य सदधर्म सदा है भेद-सहिष्णु अभेद। यह चिन्मय, आनन्दपूर्ण है, इसमें तनिक न खेद।। यद्यपि गूढ़ धर्म की गति है फिर भी नहीं अगम है। आगम, निगम, आर्षचिन्तन, सुज्नों से सदा सुगम है ।। आर्य धर्म में घृणा नहीं है, केवल प्रेम प्रसार । सर्वभूत-कल्याण- कामना, परहित- पर -उपकार।। आर्य धर्म मन-वचन-कर्म से हिंसा तनिक न करना । दुष्ट-दमन के लिए कमर कस अभय खड्ग ले फिरना ।। दण्डनीय है स्वजन अगर वह करता है अपराध । सभी समान न्याय के सम्मुख, नहीं कोई अपवाद ।। 'प्रिये! एक न एक दिवस नीचों का नाश अटल है। होगा उनका राज्य नेत्र में जिनके करुणा-जल है ।। अन्यायी का राज्य देखना मैं करके निर्मूल । धरती के कर में रख दूँगा तपस-त्याग का फूल।।" "आर्य-पुत्र! इस त्याग तपस्या से न बड़ा कोई है। किन्तु अमानवता में बेसुध यह संसृति सोयी है ।। सागाराम्बरा वसुंधरा पर जब तक विषधर नाग । आग बुझेगी नहीं, कभी न जाग सकेगा त्याग ।।" खा राम ने, "ठीक कह रही हो सुभगे! कल्याणी! जो अनार्य, वे क्या समझेंगे वेड-विहित-वर वाणी।। वे क्या जाने क्या होते हैं सत्य, तोष औ' त्य्याग। जिनके भीतर सतत प्रज्ज्वलित भौतिकता की आग।। किन्तु राम की बार-बार कहने की नहीं प्रकृति है। एक बार जो कहा वही बस उसका अथ है, इति है।। मिटा धरा से दुराचार को धर्म करेगा राज । जीवित नहीं बचेगा भू पर दुर्मति, दुष्ट-समाज।। कभी नहीं राक्षसी वृत्ति निर्बाध पनपने दूँगा। आर्य संस्कृति को न कभी इस तरह कलपने दूँगा।। नहीं चाहिए कभी मनुज को सीमातीत विराग। उसे चाहिए शौर्य-वीर्य की धकधक जलती आग।। क्षीरोज्ज्वल स्फटिक शैल-सा जिनका निर्मल मन है। जिनको प्यारा स्वजन नहीं, सारा समाज -जन-जन है।। जिनके अंदर धैर्य, पराक्रम, अपरिग्रह, अनुराग। उन्हें चाहिए विश्ववंद्य पौरुष की जलती आग।। पौरुष से ही कार्य सिद्ध होते यह मेरा मत है। दैन्य-प्रदर्शन एकमात्र कापुरुष जनों का व्रत है।। कामासक्त नहीं कर सकता कोई कर्म सुसिद्ध। निर्बल कौन ? वही नर जो है नारि-नयन-शर-बिद्ध।। मुझे मिला संतोष विपिन में, चाह न कुछ पाने की। नहीं लालसा श्री-विहीन इस जग को अपनाने की।। प्यार जिसे है सुलभ वही संसृति में सुखी मनुष्य। उसका वर्तमान अच्छा है, उसका मधुर भविष्य।। राज्यश्री-सी तू सँग में, फिर क्या वैभव लूँगा । पाकर वैभव भी न भोग कर सकता पर को दूँगा।। पितु की आज्ञा पूर्ण करूँगा, राज-पाट है व्यर्थ। क्या कोई स्तुत्य बना है क्र के कुटिल अनर्थ ? हम वन में हर वस्तु काम की अनायास पा जाते। रोज गहन में जाकर लक्ष्मण नयी वस्तु हैं लाते।। सही बताओ किसी वस्तु का होता यहाँ आभाव ? कितना सहज और ममतामय लक्ष्मण का वर्ताव ।। धन्य सुमित्रा जी माता हैं, जिनने सूत को भेजा। 'बड़े बन्धु की सेवा करना' चलते समय सहेजा।। 'मातु-पिता हैं राम-जानकी इनके रहना साथ ।' ऐसी ममतामयी जननी के आगे झुकता माथ।।" "चिर प्रणम्य हैं मातु सुमित्रा, सच कहते हैं स्वामी! उनके कारण ही प्रिय देवर हुए बन्धु-अनुगामी।। शेषनाग क्या कह पायेंगे उनका गौरव-गाथ । मुझे रुलाती रोज उर्मिला की स्मृति हे नाथ।। राज-पाट-सुख-छोड़ मनस्वी देवर वन में आये । यहाँ हमारी सेवा में रत रहकर समय बिताये ।। परम बीतरागी, से अनुदिन त्याग त्रिया-सुख-इच्छा। अहो! विपिन में झेल रहे दुःख, विधि की विकट परीक्षा।। कौन टाल सकता है विधि के विविध यातना-तम को ? जो कुछ लिखा ललाट- पत्र पर और कर्म के क्रम को ? सब उसके सम्मुख हैं निर्बल, सब हैं निपट अजान । उसकी ही दुर्दान्त शक्ति जग में छिटकी अम्लान ।।" "दूर भगाते, भाग्य प्रियतमे! जिनमें पौरुष बल है । जिनमें सहनशीलता निरुपम और शक्ति उज्जवल है।। हमें राज्य का लोभ नहीं है, नहीं भोग से मोह । तुच्छ वास्तु के लिए उचित क्या करें बन्धु से द्रोह।। राज्य-विभव तो मात्र उसी माया के ही सहचर हैं । इन्हें जानते केवल वे ही जो विवेकमयनर हैं ।। जो माया के निठुर बंध को पल में देते तोड़। वे दुर्भेद्य भाग्य-पर्वत को निश्चय सकते फोड़।। वह तो उज्जवल और अकलुषित, बिना रूप का, सम है। वह तो व्याप्त विश्व-जीवन में, उसे न पाना भ्रम है।। वह शास्वत, निर्वेद, अगोचर, जगत उसी की छाया । सृष्टि नाचती नियति जो बर्बर, उसकी ही है माया ।। प्राचीन वह, अर्वाचीन भी, भूमा वही, दहर है। वही सगुण है, निर्गुण भी है, सागर वही, लहर है।। उससे भिन्न नहीं कुछ भी है, , वह दृष्ट-दृष्टव्य । वही ज्ञान, ज्ञातव्य वही है, श्रोता औ' श्रोतव्य ।। इस परिवर्तनशील विश्व में स्थिर किसको मानें ? कब वैभव का मन्द्र मोह-मदिरा छिप जाय न जाने!! हम 'उसके' हैं अंश, हमें जग में करना है नाम । वीर पुरुष यश के लोभी हो तप करते निष्काम।। जो वनवास दिया माता ने मुझको वही भला है । माता को हो कष्ट, ताप यह किसको नहीं खला है ? भाई ही तो विभव-भोगते, मुझको है संतोष । मुझे विमाता कैकेयी पर, तनिक नहीं है रोष ।। सीमाबद्ध अतीत, असीमित है भवितव्य भुवन में । भला निराशा हेतु कहाँ है ठौर मनुज जीवन में ? आशा का प्रदीप कर में ले, भूल सभी अभियोग । शक्तिशील करते अलभ्य को पाने का उद्योग ।। हम तो दुख सहर्ष सह लेंगे, दिन जाते हैं बीते । किन्तु कभी श्रृंगार न तूने किया यहाँ हे सीते !! आज तुम्हे अपने हाथों से आओ तनिक सजाऊँ। प्रेम-निकेतन में न्यारा छवि का मैं दीप जलाऊँ।। कंचन तन, कौशेय वसन, उत्फुल्ल कमल-दल-लोचन। जवाकुसुम से अधर मनोहर, गति रति-गर्व-विमोचन ।। आओ तुम्हें सजाऊँ जैसे धरती को मधुमास । तुम तो मूर्तिमती श्रद्धा हो, मैं मानो विश्वास ।। समयोचित वैराग-राग यदि वय के संग-संग मचले। तो नर के भावानुभाव से नित्य नया रस निकले ।। समय और वय की माँगों की पूर्ति प्रिये! अनिवार्य । जीवन तभी सरस होता है काम्य, सतत स्वीकार्य।। सीताजी मुस्काकर बोलीं- "प्राण-नाथ! क्या कहते ? मेरा भी श्रृंगार घटा है भला आप के रहते ? पति ही तो पत्नी का भूषण, वही है श्रृंगार । बस दोनों को एक दूसरे का मिलता हो प्यार ।।" "नहीं, नहीं, यह तो अकाट्य है, फिर भी मन में मेरे । यही लालसा आज सजाऊँ गहने तन पर तेरे ।। तुझको छवि की मूर्ति सदृश प्यारी! मैं सकूँ निहार ।" इतना कह क्र राम सिया का करने लगे श्रृंगार ।। दो शिरीष के फूल कान में सीता के पहनाये । फिर ले मालति माल हाथ में कंगन सुघर सजाये ।। पुनः राम ने एक अनोखी निशा माधवी- माला । दिव्य हार सम स्लज सिया की शुभ ग्रीवा में डाला ।। चन्द्र-धवल मस्तक पर अनुपम हरिचन्दन का टीका । मानो हिमकण मधुर झलकता उज्जवल कमल-कली का ।। और लटकते स्कन्धों पर वे घुंघराले केश । कुछ क्षण खोये रहे देखकर राम सिया का वेश ।। देख अलौकिक प्रेम राम का सीताजी मुस्काई । सलज नयन अवलोक स्वामि-तन पुलकी, फिर सकुचाई ।। तभी वहाँ आ गया शक्रसुत धर कर काक शरीर । मन-ही-मन यों लगा सोचने होकर अधिक अधीर ।। "अहो! राम यह राज्य-त्याग, वन में भी मोद मनाता । पर, इसका पागल प्रमोद मुझको है तनिक न भाता ।। भाई को अन्यत्र भेजकर खुद स्त्री के संग । मौज क्र रहा अरे! अभी मैं करता हूँ रस-भंग ।। बाहु-वलय में लिए प्रिय को बैठा सीना ताने । तीन लोक का अहो नियन्ता आज स्वयं को माने।। ठहरो, अच्छा होगा सिय के पग में मारूँ चोंच । कुछ क्षण ही के लिए व्याप्त हो इसके मन में सोच ।। मेरे जीते कभी नहीं यह राम सुखी रह सकता । कभी नहीं सौभाग्य - त्रिया-सुख जीते जी लह सकता ।। इस निष्कासित का ऐसा सुख कभी न सकता देख । अभी सिया के चरणों में खींचता चंचु की रेख ।। जैसा सुना कहीं उससे भी बढ़कर है वैदेही । पूर्णचन्द्र-सा वदन मनोहर, मदन-दलन, स्नेही ।। देव, दनुज, गंधर्व, किम्पुरुष, यक्ष, रक्ष में वाम । सिया सरीखी नहीं मिलेगी तन्वंगी अभिराम ।। पवन-प्रकम्पित-पद्म-पत्र-सम चल अपांग-छवि छलके । गालों पर गौरव गुलाल मनसिज मुस्काता मलके ।। कानों में अव्याज मनोहर हिलते सजल शिरीष । शर-संधान किये बैठा है मानो मदन खबीस ।। लीला लोल विलास नयन का मुझको कसक रहा है । बंकिम भृकुटि, विशाल हार ग्रीवा में लटक रहा है ।। कोमल सरल कपोल-पालि पर राम का अवनत आनन । जला रहा है मुझे, जलाता दावानल ज्यों कानन ।। चूम रहे भुजमूल झूल कर केश असंयत काले । कुछ कहते उन्नत उरोज, ये अधर सुधारसवाले ।। फूट रही उद्दाम वासना धर सीता का रूप । पान कर रहा जिसे राम मकरध्वज का प्रतिरूप ।। चन्द्र-कांति-सी अंग-कांति है, रोम रहित तन कोमल । जिसके सम्मुख आह! उर्वशी भी हो जाती ओझल ।। सहजन्या, मेनका, घृताची, रम्भा भी श्री-हीन । मेरा मन भुजंग-सा नत फन सुनकर ऐसी बीन ।। सीता के तन का विकास लय-क्रम से सधा हुआ है । अंग-अंग में यौवन जिसमें मनसिज बॅधा हुआ है ।। मुझे चाहिए कटिक्षीणा सीता का श्वासोच्छ्वास । काम-विवर्द्धक कल कपोल की लाली का मृदु पाश ।। चढ़ी हुई ज्यों नदी उफनती तन में ज्यों तरुणाई । चरणों में पावक-प्रसून की झलक रही अरुणाई ।। अप्सरियों के कुच-कलशों का कुंकुम है बेकार । मुझे चाहिए जंक-सुता का अधर-चषक साभार ।। पञ्चबाण के पञ्च बाण मोहन, शोषण, उन्मादन । छिपे इन्हीं मदमत्त नयन में स्तम्भन, संतापन ।। श्यामा के प्रसन्न वैभव का यदि न किया स्पर्श । जीवन-भोग रोग सम होगा और शोकमय हर्ष ।। अहा! चतुर्दिक इन्दीवर, अरविन्द खिले हँसते-से । नव मल्लिका विहँसती जिसमें मयन-नयन फँसते से।। आम्रमंजरी की सुगन्धि से पुलकित है परिवेश । शोक मिटाता-सा अशोक तरु, देता प्रिय सन्देश ।। मन-मंथन कर रहा निरंतर आकर मन्मथ मेरा । मेरे अंग-अंग पर जैसे है अनंग का डेरा ।। कामरूप को काम सताता, यह दर्पक क्र दर्प । बार-बार दस रहा ह्रदय को ज्यों मतवाला सर्प ।। अहा! राम से सिया सलोनी ऐसे चिपट गई है । जैसे जल्द खण्ड से सहसा विद्युत लिपट गई है ।। कंकण-क्वणन-रहित हाथों का मुझे चाहिए ताप । इन्दु-विनिन्दक मुख-मण्डल की गर्म-गर्म-सी भाप ।। कैसे करूँ निवारण, वारण यदि मन बना हुआ है ? सरस काम-वासना-पंक में नख-शिख सना हुआ है ।। मन-मतंग जा रहा जहाँ पर जाने दूँ अभिराम । करने दूँ सीता-सरिता में अवगाहन अविराम ।। बड़ा सुअवसर आज मिला लक्ष्मण भी यहाँ नहीं है । और राम की प्राण-चेतना सुख में डूब रही है ।। इसी समय आघात करूँगा तभी बनेगी बात । कार्यों में विलम्ब करने से बढ़ते हैं उत्पात ।। बार-बार जीवन में अवसर मिलता नहीं किसी को । जो इससे कुछ लाभ उठाता ज्ञानी कहो उसी को ।। अवसर से जो कार्य न करते खुद पर नहीं प्रतीति । उन मूर्खों के लिए समझ लो विधि ही है विपरीत ।। लक्ष्मण ही है परम उग्र, अतिशय प्रचण्ड बलशाली । उसकी आँखों में प्रकोप की स्थिर रहती लाली ।। उसे देखकर मैं रहता हूँ मन में तनिक सशंक । इसके शौर्य-सूर्य के सम्मुख मेरा तेज मयंक ।। बल से कभी नहीं पा सकता मैं इस सुमुखि सिया को । दो हथेलियों बीच सुरक्षित इस सौन्दर्य-दिया को ।। क्यों न इसे मैं छल से छूकर निज मन कर लूँ शांत । बल से नहीं काम यदि चलता तो छल ही निर्भ्रांत ।। बल औ' विनय जहाँ असफल हैं, सफल वहाँ छल होता । राज-निति औ' प्रणय-प्रीति में सब कुछ जायज होता ।। वैसे भी परोक्ष-प्रिय होते देव - परम विद्वान ।। प्रत्यक्षता पंथ में पैदा करती है व्यवधान ।। लेकिन मन में कुछ शंका हो रही अचानक मेरे । प्रलय-काल की विकत घटा मनो मुझको है घेरे ।। तन कम्पित है, मन उद्वेलित, कहीं गया यदि चूक । तब तो राम-बाण कर देंगे, इस तन को शतटूक ।। देखा मैंने राम तेज को जिसने शिव के धनु को तोड़, अचानक डाल दिया था विस्मय में त्रिभूवन को । छिपा वहाँ मैं भी बैठा था, धर मानव का रूप । परशुराम ने कहा - 'राम, तुम हो देवों के भूप ।। विकट तड़का के मस्तक को इसी राम ने फोड़ा । कौशिक मुनि का यज्ञ कराकर नाम किया न थोडा ।। बिना बात के किसी व्यक्ति से उचित नहीं है वैर । अन्यायी की तीन लोक में खिन नहीं है खैर ।। इसी राम ने पतित अहल्या का उद्धार किया है । देवराज - मम पिता इन्द्र को निन्द्य करार दिया है ।। शची-शक्र का श्रेष्ठ पुत्र मैं मेरा नाम जयन्त । मुझ में अपरम्पार शक्ति है, मेरा वीर्य अनन्त ।। मैं हूँ अमर, राम हैं नश्वर लेकिन सुखी यही है । अम्बर हुआ पराजित जैसे जीती हुई मही है ।। शची-शक्र का महावीर सूत मैं दुर्जेय जयन्त । मेरे शासन के अधीन यह सृष्टि स्वर्ग-पर्यन्त ।। जो न पिता की मान-हानि का बदला पुत्र चुकता । वह क्यों नहीं गर्भ में अपनी माता के मर जाता ।। मैं हूँ नमुचि-जम्भ-बल-सूदन-पुत्र प्रसिद्ध महान । मुझे पिता का वैर शोधना, लौटाना सम्मान ।। पौलोमी का पुत्र पातकी पाप-रूप अतिचारी । उसे हमेशा प्रिय लगती थी पर-सम्पत्ति, पर-नारी ।। उसने खा ह्रदय से अपने - "मत होओं भयभीत । किस्में इतनी शकरी सकेगा जो सुरपति को जीत ? क्या सामर्थ्य राम में पगले ! जो तू छोटा होता । कायरता का बोझ शीर्ष पर व्यर्थ आज क्यों ढोता ? एक नहीं सैकड़ों राम से हो मत तनिक हताश । क्या होगा वह सफल, नहीं जिसको निज पर विश्वास ।। मूर्ख ! भीरुता है यदि तुझ में, तो कुछ नहीं करेगा । कायर ही की तरह रोज कुत्ते की मौत मरेगा ।। धीर-वीर इतना कार्यों में करते नहीं विचार । फिर वह जिसका निखिल सृष्टि पर हो पूरा अधिकार ।। उसको इतना बुद्धि-तर्क बोलो अच्छा लगता है ? होगा क्या वह सफल जो पहला पग रखते डरता है ? समय नहीं है त्यागो सत्वर अपने व्यर्थ विचार । सद्य प्रफुल्लित हो प्रवीर! दुश्मन पर करो प्रहार ।। मैं हूँ देव, मनुज की नारी मुझको रहे अलभ क्यों ? अगर प्रज्ज्वलित रूप-शिखा तो मैं न बनूँ शलभ क्यों ? संदेहों से सदा हुआ करता संकल्प निरीह । मैं सुख का अविकल अभिलाषी मैं क्यों बनूँ अनीह ।। सारे श्रेष्ठ रत्न का आश्रय अमरावती कहाँ है ? सीता जैसा महारत्न यदि अब तक नही वहाँ है ? मुझे चाहिए सीता का बस बाहु-वलय-अभिसार । संसृत के इस दिव्य रत्न पर अपना चिर अधिकार ।। इष्ट वस्तु की प्राप्ति हेतु करते समर्थ श्रम भारी । श्रम से खुलती है समस्त रत्नों की दिव्य पिटारी ।। पाना है यदि इष्ट वस्तु तो जल्दी कर उद्योग । उद्यम से सब कुछ मिलता है भोग हो कि योग ।। यों खुद को समझाकर कौआ उड़ा पास में आया । लखकर प्रभु का दिव्य रूप निज को ही भूला पाया ।। सीताजी की सुखद गोद में मोद-मग्न श्री राम । लेटे थे, निश्चिन्त, शांत था मुख-मण्डल अभिराम ।। आह, काक दुष्कर्म निरत, इर्ष्या से फूला-फूला । निज पितु के वैभव-प्रमाद से निज को भूला-भूला ।। पर-सुख को सह सका न पापी आया प्रभु के पास । इसी तरह मद होता है जब छाता सत्यानाश ।। आखिर उसने उछल चोंच से सिय के पग में मारा । आह, सुकोमल उन चरणों से चली रक्त की धारा ।। एक नहीं, यों बार-बार क्र सीताजी पर वार । रामचन्द्र को मानो उसने दी तीखी ललकार ।। जनक-सुता अकुला उठ बैठीं, घाव लगे थे तन में । सोचा नयी आपदा कैसे आ टपकी इस वन में ।। उधर काक अपनी करनी पर ऐंठा, रहा अशोक । रामचन्द्र अपने प्रकोप को नहीं सके तब रोक ।। क्षत विलोक उनकी आँखों से गिरे अश्रु हिमकन-से । कुछ बेसुध, बेचैन रह गये मन्त्र-मुग्ध न्त्फां-से ।। प्रकृतिस्थ हो रामचंद्र ने शीश उठाया शांत । कौआ तरु पर दिया दिखाई सुखी, रक्तमय कांत ।। बोले - "दुरमति! तुझे अभी दुष्कर्मों का फल देता । देखूँ इस ब्रहमाण्ड में तेरा कौन सहायक होता ?" शाल वृक्ष की डाल सदृश तब फड़क उठे भुजदण्ड । और झपटकर उठा लिया झट काल सदृश कोदण्ड ।। दर्भासन से खींच एक तृण बाण बनाया क्षण में । ब्रह्म अस्त्र से अभिमंत्रित कर तेज जगाया तृण में ।। पल भर में हो उठा प्रज्ज्वलित बड़वानल सा बाण । कहा राम ने, "नहीं बचेंगे काक! तुम्हारे प्राण ।। रुको, रुको दुष्कर्मों का प्रतिफल देता हूँ, ले लो । जिससे कभी न दुस्साहस कर किसी जीव से खेलो ।। दुष्टों को यदि दण्ड न दूँगा फैलेगा दुष्कर्म । बड़ा भयानक होता है नीचों से पड़ना नर्म ।। देख विकट अन्याय मगर लेते जो क्षमा सहारा । उन निवीर्य पुरुषों का कोई होता नहीं किनारा ।। सहकर जो अन्याय सदा रहते हैं सरल सुशांत । उनसे धर्म नष्ट होता है, दुख का बढ़ता ध्वान्त ।। दुष्ट व्यक्ति केवल झुकते हैं प्रबल शक्ति के भय से । उन्हें सरल करना मुश्किल है नय से, विनय, प्रणय से।। जो उनका कुछ अहित करे, वह ही उनका शुभचिंतक । पर-सुख नहीं देख सकते ये दुष्ट सुजन के निंदक ।।" यह कहकर अति क्रुद्ध शीघ्र कानों तक खींच शरासन । पैरों को एकदम समेट वे बैठ गए वीरासन ।। छूटा बाण महा प्रलयंकर काँपे वनचर जीव । भगा कौआ अति सभीत, देखने लगे बलसींव ।।

तृतीय सर्ग-नेत्रभंग (खण्ड काव्य)

चल पड़ा भयंकर राम बाण, भीषण दावाग्नि उगलता-सा । अपने प्रचण्ड घन-गर्जन से, सारा संसार निगलता सा ।। शतकोटि शम्भु के अट्टहास की तरह बाण हुंकार चला । मानो रोषाकुल शेषनाग ही आज प्रखर फुंकार चला ।। भैरव रव-पूरित विश्व हुआ, निस्तेज हुए रवि-शशि-उडुगण । काँपा सहसा ब्रह्माण्ड-वलय, काँपा अम्बर, काँपा कण-कण ।। काँपे छाया-पथ, गिरि-गहवर ; ग्रहगण की गति निस्पंद हुई । क्षण एक लगा ऐसे जैसे संसृति की हृत्गति बन्द हुई ।। चल पड़े सभय उनचास पवन, हरहर हरहर हरहर हरहर । थी काँप रही पृथ्वी प्रतिपल, थरथर थरथर थरथर थरथर ।। हो विकल सकल दिक्पाल भगे, दिग्गज सहसा चिग्घाड़ उठे । हो गया बधिर रव-गुण अम्बर, शम्बर - से सिंह दहाड़ उठे ।। फट पड़े प्रलय प्रावृट पड़पड़, कड़कड़ विद्युत ध्वनि घोर हुई। बहुरंगी अग्नि-लपट प्रकटी, हलचल खलबल चहुँऔर हुई।। भय-कंपित यक्ष-पिसाच हुए, राक्षस. गंधर्व, दनुज, दानव । थे काँप रहे सुरगण किन्नर, भय विह्वल थे सारे मानव ।। त्रैलोक प्रकम्पित था भय से, भय-पूरित था ब्रह्माण्ड निलय । ऐसा भीषण विस्फोट हुआ , मानो मडराया खण्ड प्रलय ।। परमाणु-संतुलन भंग हुआ, चिर प्रकृति पुरुष से भिन्न हुई । त्रयगुण में साम्य प्रविष्ट हुआ, प्रक्रिया सृजन की छिन्न हुई ।। सुर-असुर सभी थे सोच रहे यह क्या है, क्या है, ज्ञात नहीं । यह शंकर का तीसरा नयन, या प्रलय-निशा है प्रात नहीं ।। यह राम बाण ही हाय अथवा द्वादश आदित्य-प्रभा-मण्डल । अथवा बहु ज्वालामुखी धधकते तोड़ धरा की पर्त निबल ।। होता निपात उल्काओं का, या धूमकेतु मडराया है । अथवा उद्वेलित महासिंधु, बड़वानल से बढ़ आया है ।। यह प्रलय-चाप का अग्नि-विशिख, या स्वयं काल घहराता है । अथवा समीप है नाश, उसी का, पवन रहस्य बताता है ।। अथवा समुद्र-मंथन में फिर से प्रकट हुआ है हालाहल । जिससे संसृति है दग्ध्मान, अग-जग में भीषण कोलाहल ।। अथवा विराट विग्रह उरुक्रम, उरुगाय विष्णु का बाण चला । जिससे पृथ्वी द्युलोक और , यह अन्तरिक्ष जा रहा जला ।। कौआ भय-विह्वल भाग चला, उसके पीछे था बाण प्रखर ।। सन-सन सन-सन गतिमान सतत, ध्वनि निःसृत थी घर घर, घर घर ।। ताम्राक्ष अलौकिक काक उड़ा, पहले बिल्कुल नीचे-नीचे । फिर सहसा उड़ने लगा पलटकर, तेजी से ऊँचे - ऊँचे ।। फिर तीव्र वेग से महाडीन, अतिडीन, सुडीन उड़ानों को । क्रमशः भरते वह भाग चला, लज्जित करते तूफानों को ।। ऊपर ऊपर केवल ऊपर निज पर पसार घबडाया-सा । हाँफता हुआ उड़ता ही गया , भय पाया-सा, भरमाया-सा ।। वह भूर्भुवः स्वः तपः जनः मह सत्यलोक-स्वर्लोक गया । फिर अटल, वितल, पटल लोक, में भी बेरोक सशोक गया ।। यों अधः-उर्ध्व चौदहों भुवन में, रहा घूमता अकुलाया । पर, जहाँ खों भी गया , पास में कालानल जलते पाया ।। वह उड़ने में था परम कुशल, था दूर श्रवण, मनसागामी । प्रिय दर्शन, तरुण, मनोहर था, था कामरूप, अतिशय कामी ।। लेकिन उसकी दक्षता कला- बाजियाँ विफल विपरीत हुईं । अप्रतिहत बढ़ते राम-बाण की उस पर प्रतिक्षण जीत हुई ।। आखिर अपनी सामर्थ्य भूल, उसने सुरपुर प्रस्थान किया । 'है बड़ा कठिन जीवन बचना', उसने मन-ही-मन मान लिया ।। वह तुरत त्याग वायस तन को, देवेन्द्र लोक में जा धमका । विभ्रांत विकल सुत को विलोक, कर सुरपति का माथा ठनका ।। यम, अग्नि. बृहस्पति, वरुण, अरुण के मुख मलीन, श्री-हीन हुए । मघवा-सुख के सारे कपोत , उनके कर से उड्डीन हुए ।। देखा देवेश्वर ने जयन्त का मुख विवरण-सा, सूखा-सा । अति थका-थका बेचैन, डरा-सा, प्यासा-सा अति भूखा-सा ।। कल केशराशि बिखरी-बिखरी, तन स्वेद-सिन्धु में डूबा- सा । था अस्त-व्यस्त वर वस्त्र, पुत्र उनका बन गया अजूबा-सा ।। बोले-"क्या बात हुई? प्रिय सुत्त! क्यों वेपथुमान शरीर सुघर ? क्यों देख रहे आगे-पीछे, दायें - बायें, नीचे - ऊपर ? धौंकनी सदृश चलती छाती, साँसे भी नहीं समाती हैं । मुख वाक्-शून्य, आँखें अनुपम बाहर निकली-सी आती हैं ।। ओठों पर पपड़ी जमी हुई , वदनाब्ज अधिक मुरझाया है । क्या मेघनाद राक्षसी सैन्य के साथ पुनः चढ़ आया है ? क्यों देख रहे तुम हमें भ्रमें-से, भूले - से, अनजाने - से । यों बार-बार क्यों चौंक रहे अपनी साँसों के आने से ।। पर, जब तक कहता कुछ जयन्त, तब तक शर पहुँचा लहराता । जाज्वल्यमान चिति-चक्र सदृश, सुरपति के सम्मुख घहराता ।। वे समझ गए श्री रामचन्द्र का, इसने क्या अपराध किया । अब बच न सकेगा किसी भांति, अपना जीवन बर्बाद किया ।। यह राम-बाण है महाभयद, यह व्यर्थ कभी न जायेगा । इसका अवरोध कहाँ तब तक, जब तक न शत्रु को खायेगा ।। यह मन्त्रपूत ब्रह्मास्त्र विकट, इसका न लक्ष्य खोनेवाला । काँटे ही सदा उसे मिलते , जो है बबूल बोनेवाला ।। बोले आखण्डल - "किसी तरह, हो सकता तेरा त्राण नहीं । यह वज्र-विनिन्दक ऐशिकास्त्र, कोई साधारण बाण नहीं ।। झट भाग यहाँ से अरे मूढ़! मेरे वश की है बात नहीं । यह क्या है, क्या है भासमान, इसकी महिमा कुछ ज्ञात नहीं ।।" जब बचा न पाए स्वयं इन्द्र, व्याकुल जयन्त तब भाग चला । सुरलोक कोलाहल से भरता, करता अजस्र रव नाग चला ।। असहाय, विलपता, विफल काम, ब्रह्मा औ' शिव के धाम गया । पा सका शरण नहीं भी खल , उसका सब श्रम बेकाम गया ।। था गया नीच वह जहाँ कहीं, पीछे से पहुँचा बाण वहाँ । हाँ, दुष्ट दुरात्मा पापी को, मिल सकता जीवन त्राण कहाँ ।। अविराम भागते नर्क-कीट को, नहीं तनिक विश्राम मिला । वह जहाँ खिन भी गया धधकता, राम - बाण घिघ्घाम मिला ।। अब रंचक चलना दूभर था, थक गये पाँव थे, बढ़ न सके । क्या करें भला कुछ भी उपाय उसके दिमाग से कद न सके ।। लेकिन सौभाग्य प्रबल उसका, मिल गए बीच पथ में नारद ।। निस्संग, अनागत-विज्ञ, राम के परम भक्त, गुण के पारद ।। वे स्वर्ग, मर्त्य, पटल लोक में गाते शांत विचरते हैं । हैं बड़े दयालू, कृपाशील, निर्बाध विचार वितरते हैं ।। अति त्रस्त-स्रस्त देवेन्द्र तनय को देख उन्होंने ध्यान किया । क्षण भर में अपनी योगशक्ति द्वारा रहस्य सब जान लिया ।। बोले फिर गूढ़ वचन हँसकर, "रे मूढ़ कहाँ तक भागेगा ? अपनी रक्षा के लिए बता तू शरण कहाँ तक माँगेगा ? तेरी काया में मातृ-पितृ दोनों पक्षों का दोष भरा । तू इसीलिए हर क्षण रहता, सत्ता-मदान्ध, अति रोष-भरा ।। तू उसी इंद्र का पुत्र कि जिससे सभी सृजन का बैर ठना । तू उसी विडौजा का बेटा जिसने असंख्य व्यभिचार जना ।। तू उसी सहस्त्रलोचन का सूत, जिसने सतियों का शील हरा । तू उसी शक्र का वक्र तनय, जिससे पीड़ित नक्षत्र - धरा ।। तू उसी पुरन्दर का अंगज, जिसने गुरु का अपमान किया । तू उसी वज्रधर का आत्मज, जिसने त्रिशिरा के प्राण लिया ।। तू वासव का शवसदृश सूनु , तू जन्मजात अतिचारी है । तू देव-जाति का चिर कलंक, तू भोग-भ्रष्ट, भयकारी है ।। तेरे कुकर्म का न्यायोचित श्री रामचन्द्र ने दण्ड दिया । पा गया कुचक्रों का प्रतिफल, जैसा तूने पाखण्ड किया ।। रे बोल कौन जो राम-शत्रु को शरण कभी है दे सकता ? रे कौन बता सम्मान त्याग, अपमान शीश पर ले सकता ? श्री राम परात्पर परमब्रह्म, वे अष्टसिद्धि के स्वामी हैं । वे ही घट-घट में रमे हुए , जन-जन के अन्तर्यामी हैं ।। श्री राम विरज, विभु, परम शक्ति, अमिताभ, महाचिति, सुरपुंगव । वे शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, नित्य, चिर निर्विकार, संसृति-संभव ।। वे ही हैं स्वजन, पिता-माता, धन-मान, मित्र-प्रभु, प्राणेश्वर । वे हैं विष्णु, जगत-पालक, सर्जक ब्रह्मा, शिव विश्वेश्वर ।। अब उन्हें छोड़कर निखिल सृष्टि में तेरी कोई शरण नहीं । जा क्षमा माँग ले तू उनसे , ले ले जीवन, यह मरण नहीं ।। जा भाग उभिन की शरण, दर्प का त्याग हृदय से तू विभ्रम । यों बाख न सकेगा अरे मूर्ख, इस तरह निकल जायेगा दम ।। मन से मद, इर्ष्या और मोह, तजकर प्रमाद, पातक भीषण । तू भाग शीघ्र उस छाया में , है नहीं जहाँ आतप तीक्षण ।। जा तुरत क्षमा कर देवेंगे, वे राम दया के सागर हैं । हैं मेरे इष्टदेव रघुवर , सदधर्म-निरत, नय-नागर हैं ।। वे हैं पराक्रमी, सौम्य, ललित; उनका न क्रोध निष्फल जाता । ले बता दिया सीधा उपाय अन्यथा दौड़ कर मर जाता ।। प्रभु से विरोध कर बोल भला, कोई कैसे जी सकता है ? कोई सर के बल खड़े-खड़े, कैसे पानी पी सकता है ? वे सिया न निर्बल नारी हैं, वे ही हैं शक्ति जगन्माता । उनसे बढ़कर है कौन ? हाय, तूने क्यों तोड़ लिया नाता ? वे रिद्धि-सिद्धि, आज्ञा, आशा, वैष्णवी, लक्ष्मी, वरदाता । वे त्रिपुरसुन्दरी राम-प्रिया, हैं जगद्धारिणी, जग-त्राता ।। तू शरण उन्हीं की जा सत्वर, अन्यथा तेरा कल्याण नहीं । वह बाण आ रहा है भीषण, छोड़ेगा तेरे प्राण नहीं ।। इस राम-विशिख कालानल में, तेरी सुदेह जल जाएगी । तू तो तन त्याग सुखी होगा, पर, शचीव्यर्थ दुःख पायेगी ।। हाँ, पुत्र-मरण से बढ़कर माँ के लिए न कोई दुःख होता । लेकिन होता है हाल यही , जो भी जन राम-विमुख होता ।। यह राम बाण है चिर अमोघ, इसका न लक्ष्य-हत होता है । रे मूढ़! बाह्ग तू राम शरण, क्यों व्यर्थ प्राण को खोता है ? उत्तम है मेल-जोल रखना , निर्बल का सदा बलीनों से । बनता है स्वर्ण अधिक शोभन , जुड़ता जब दीप्त नगीनों से ।। " इतना कह करके मौनिराट ने आँख मूँद, निःस्वास लिया । मानो जयन्त को इसी ब्याज, फिर से आशा-विश्वास दिया ।। श्री नारद को करके प्रणाम, पापी जयन्त प्रभु पास चला । अपनी प्रवंचना में वायस था, मन में अधिक उदास चला ।। इधर चल पड़े देव - ऋषी, करते 'महती' वीणा-वादन । सर्वेश्वर की कलित कीर्ति का मधुर मधुर करते गायन ।।

चतुर्थ सर्ग-नेत्रभंग (खण्ड काव्य)

बाण प्रहार कर चिन्तित हुए श्री राम यह क्या है ? क्यों हुआ ऐसा ? कैसी व्यवस्था यह ? कैसा प्रशासन यह ? कैसा यह तन्त्र है ? नित्य ही होता बलात्कार वधुओं पर, होता है अपमान राह चलती सतियों का, उनके स्वजनों-स्वामियों की उपस्थिति में भी होता है शील हरण श्तिशालियों द्वारा- सत्ताधीशों द्वारा- उच्च्प्दास्थों, कुलीनों, धनियों द्वारा- खुले आम, बिना भय कैसा यह शासन है ? यह तो आतंक है, कलंक मानवता का । ऐसे आतंक में जीना क्या संभव है ? नारी-देह के भूखे भयानक नर-भेड़ियों की कमी नहीं है आज अपने समाज में, मुक्त यौनाचारियों की अपसंस्कृति घटाटोप छाई है व्योम में, दिगन्त में - दिग्मंडल में । आज बच्चियाँ तक छेड़ी जातीं, छोड़ी नहीं जातीं संतानवती प्रौढ़ाएँ, नवोढ़ाएँ, वृद्धाएँ सब की सब पतित कामी पुरुषों की वासना का लक्ष्य हैं । कैसा अन्याय है यह ? कैसा अपमान है यह प्रकृतिस्वरूपा आद्याशक्ति नारी का ? नारी का अपमान घातक है, घातक है । नारी के अपमान से किसी भी राष्ट्र का उत्थान नहीं हो सकता, डूब जाता है शीघ्र नारी उत्पीड़क समाज, सम्पूर्ण देश होता है शीघ्र पतित, शीघ्र खण्डित । गौरव-सम्मान रहित, होता विदेश- विजित । नारी का अपमान, बलात्कार, उत्पीड़न घोर अन्याय है, घातक उद्दण्डता है । किसी भी कीमत पर उद्दण्डता है दण्डनीय अपरिहार्य दण्डनीय । किन्तु आज दण्डनीय दण्ड कहाँ पता है ? उसी के हाथ में सत्ता है, शक्ति है- शासन-प्रशासन है- उसके ही समर्थक हैं अंधभक्त संख्यातीत, उसकी प्रशस्तियों से भरे हैं सब शास्त्र, ग्रन्थ; निति निर्धारक वह, नियम-विस्तारक वह, धर्मोपदेशक वह, सब कुछ वही है आज सब कुछ वही है आज सब कुछ वही है । अप्रतिम त्याग-वृत्ति-संयम-सम्पन्न जिन पूर्वजों ने रचा कभी सुंदर समाज शुभ संस्कृति महान दिव्य सभ्यता सदा वरेण्य क्या उसको- मानव प्रजाति के सर्वोत्तम, बहुमूल्य प्रेमोपहार को - नष्ट कर देंगें ये उद्दण्ड स्वैराचारी ? कैसी विडम्बना है ? सम्प्रति समाज के नेता पथ भ्रष्ट हैं, सत्ता की बागडोर भ्रष्टाचारियों के हाथ है । हाय भारतवर्ष में - भरतों की भूमि में - शत्रु-दल-बल-मर्दन, हीनों के अपवारक, हिमगिरी से इन्दुसर- मध्य अतिशय पवित्र आर्यों के देश में- होता है बलात्कार ! पुष्पित है भ्रष्टाचार ! प्रसरित नपुंसकता ? मानवाधिकार यह ? नहीं कोई प्रतिरोधक विरोधी, प्रज्ज्वलित वीर ? कैसा दुर्भाग्य है ? आह ! यह भरत-भूमि-- श्रेष्ठ पुरुषों की भूमि-- युद्ध-विस्तारक, रणंजय, स्वनाम धन्य नर-रत्नों की भूमि-- शत-शत लघु खण्डों में-- राज्यों-उपराज्यों में-- कटी-छँटी, बँटी हुई, संकीर्ण राष्ट्रीयता की -- खण्डित राष्ट्र चेतना की- भूमि बन कलथ रही रक्त-क्लांत लुंज-पुंज । देश जब बँटता है अगणित लघु राज्यों में राष्ट्रीयता सिमटती है; अपाहिज होता है जातीय-स्वाभिमान-- भुवन-भास्वर शौर्य; तिरोहित होता है अपना उज्जवल अतीत, इतिहास चेतन भी शीघ्र नष्ट होती है, बढ़ता है आकर्षण विदेशी संस्कृतियों के प्रति, बन जाती विकृति ही संस्कृति --जीवन-पद्धति, भ्रष्टाचार बनता है जीवन-मूल्य अनैतिकता आदर्श । चारो ओर घोरतम गरीबी का राज्य आज, भयंकर अशिक्षा का फैला है अन्धकार आधि-व्याधि-ग्रस्त, त्रस्त-स्रस्त, अस्त-व्यस्त देश । चारो ओर सर्वभक्षी फैला है भ्रष्टाचार, व्ही बनता जा रहा जीवन-मूल्य जीवन-दर्शन, नैतिकता का मानदण्ड । कैसे होगा उद्धार ? कैसे होगा कल्याण सर्वसाधारण मानव का ? शिशु सा अबोध वह भ्रान्त, चेतना-विहीन । स्व-संस्कृति है मरणासन्न, धर्म शक्तिहीन, धर्म हीनता प्रबल है । कैसे होगा उद्धार ? कैसे होगा कल्याण ? अंकुश लगाना होगा निरंकुश ऐरावतों को, दिग्गजों के तोड़ने होंगे कठोर दन्त । वश में करना होगा विवश कर पथभ्रष्टों को, शीर्षस्थ पदों पर बैठे मदान्ध अधिकारियों को, अन्यथा सबकुछ समाप्त हो जायेगा, सब कुछ समाप्त हो जायेगा, सब कुछ ......... । खुलेआम जिन पर लग रहे हैं आरोप सिद्ध भी हैं हो चुके अब भी हैं वे ही सत्ताधारी, पूज्य, सर्वमान्य, धन्य । उनके बिना आज धार्मिक आयोजन तक, सांस्कृतिक समारोह सभी अधूरे मन जाते, लोकमान्य विद्वतजन -- कवि-कोविद-कलावन्त ऐसे पथभ्रष्टों के हाथों से प्राप्त कर पुरस्कार-- पशस्ति-लेख-मुद्राएँ-- उपाधियाँ-प्रमाण-पत्र-- मानते स्वयं को धन्य और कृतकार्य भी । बदलते जीवन-मूल्यों का कैसा परिणाम यह ? ध्वस्त करना होगा इस विकृति-- अपसंस्कृति को-- उसकी अवैध संतति भ्रष्ट आचार को, अनर्गल, अन्याय को । स्वैराचारी राजपुरुष-- शासकों-प्रशासकों को-- सदाचार, शक्ति और सुन्दर चरित्र से करना होगा ठीक, लाना सन्मार्ग पर । लानी होगी पुनः उत्कृष्ट शिष्ट संस्कृति, सभ्यता समाज में । जागरण आवश्यक सीमान्त जन-वर्ग का । समस्त समुदाय को शिक्षित सुसंगठित कर, संकीर्णताओं से -- तुच्छ निहित स्वार्थों से -- पूर्णतया मुक्त कर लाना है श्रेष्ठ राज, श्रेष्ठ अनुशासन-- सुशासन-प्रशासन जहाँ सभी जन निर्भय हों, सभी जन निर्भय हों, हो समान, होवें स्वकर्म-निरत, विरत अधर्म से; देश-माता के लिए स्वजीवन-अर्पणकर्ता, कर्मठ-कुशल-शिल्पी, विद्वान, मानवता-पोषक, त्यागी-निरोग-योग्य । विकसित हों जिससे वाणिज्य-उद्योग कई, धंधे अनेक अन्य, किन्तु दृष्टि उनकी हो लोकोपकार पर-- मानव उत्कर्ष पर । दुर्जन के सम्मुख सिर झुका लेने से बंद नहीं करता वह अत्याचार-दुराचार । जब तक उसका न होगा प्रतिकार-- डटकर भरी विरोध, शांति नहीं हो सकती । अत्याचार का सामना साहसपूर्वक करना होगा निश्चय यही है वर्तमान धर्म देश-धर्म समाज-धर्म यही है व्यक्ति-धर्म मानवता, श्रेय, प्रेय । नारी अरक्षित यदि जीवन ही व्यर्थ है । नारी के शोषण में कोई नहीं पीछे देव-दानव-मानव-राक्षस सबने किया उस पर असहनीय अत्याचार बनाया सभी ने उसे भोग्या - विलास-वस्तु सुरा-सहयोगिनी सुन्दरी मदालसा, उर्वशी, धृताची, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा, सहजन्या, विप्रचित्ति आदि-आदि । नारी क्या है केवल भोग-वस्तु ? केवल रूपाजीवा ? नहीं वह माँ है बहन, बेटी, भार्या ? घृण्य, यह परम घृण्य भोगवृत्ति का विचार यह रीति-नीति यह परम्परा सुदीर्घ, एकदम असंगत है , कलंक सभ्यता के नाम । धिक् धिक् परदारारत्यर्थी ! धिक् धिक् कामवासना अदम्य ! नारी ! निमित्त बनो तुम्हीं युग परिवर्तन का । नारी ! ओ नारी ! पुरुष की आत्मा ! पति की सम्पूर्णता तुम में निहित है, ओ जननी, जाया, दयिता, भार्या ! ओ प्रभामय प्रातः प्रत्यूषा ! किरण ओ रक्तक्षीरा ! तुम्हीं बनो निमित्त युग-परिवर्तन का । याद है मुझे अभी तक अभिशप्ता पति-त्यक्ता ऋषिपत्नी पतिव्रता अहल्या का म्लान मुख चिर तिरस्कार दग्ध । नहीं, अब और नहीं बनने दूँगा मैं अह्ल्याएँ -- अरजाएँ आर्यों के देश में, होंगी अब ललनाएँ भीति-मुक्त निःशंक विचरण करेगीं वे यत्र-तत्र-सर्वत्र । कराना होगा नारी को उसकी महानता का बोध, जगाना होगा उसका आत्मबल, आत्म-विश्वास; बदलना होगा पुरुष को स्वभाव, अपना ह्रदय, अपना दृष्टिकोण । नारी के प्रति, न्य मानव बन पुनर्जन्म लेना होगा । सीता का अपमान अपमान नारी जाति का है , अपमान रघुवंश का, अपमान स्वयं राम का है । लहलहाती केसर की क्यारी-सी सीता की देहयष्टि--अंग-कांति मेरे अतिरिक्त कोई अन्य स्पर्श करे, संभव नहीं है यह संभव नहीं है । सीता मेरी परिणीता उस पर कुदृष्टि वह भी मेरी उपस्थिति में - धनुर्धर दाशरथि राम की उपस्थिति में ? पिताश्री की मृत्यु भी उतना दुखदायी नहीं, नहीं यह वनवास, राज्य-सत्ता से च्युत होना, जितना स्वर्गंगा-सी तन्वंगी सीता का क्षत-विक्षत होना । इसे नहीं सह सकता, सहना नपुंसकता है ऐसे स्थानों पर पापपूर्ण कायरता है । स्वयं आरोपित मेरा यह निर्वासन, मेरा जीवन-दर्शन, मेरा उर्जस्वित विश्वास, मेरा अपराजेय पौरुष तोड़कर रख देगा शिलाभूत कायरता; कामुकता काई-सी फैली, फट जाएगी, गुनगुनी उदासी वंध्या है, वंध्या है । उठो राम, उठो राम नूतन संकल्प ले स्थापित करो फिर से नूतन जीवन-मूल्य, नूतन विचार-दृष्टि, नूतन व्यवस्था, नूतन आदर्श नूतन राज रामराज रामराज रामराज रा...म...रा...ज.......... ।

पंचम सर्ग-नेत्रभंग (खण्ड काव्य)

सुना लक्ष्मण ने जब रव घोर, हुए तत्क्ष्ण चिन्तन में लीन । उठा क्योंकर यह भैरव नाद ? हुआ क्यों जग शोभा-श्रीहीन ।। सूर्य की ज्योति हुई क्यों मन्द ? बंद - से हुए सृष्टि व्यापार ? धरा पर नहीं शांति निश्शेष ? हुआ चहता संसृति संहार ? इन्द्र का छूटा कुलिश कठोर, या कि है चला वरुण का पाश ? या कि शंकर का शूल विशाल, चला करने ब्रह्माण्ड-विनाश ?? या कि होकर अति क्रोधाविष्ट, काल ने फेंका दण्ड कठोर । या कि श्रीहरि का चक्र कराल, भर रहा नभ में दारुण रोर ।। या कि कविक्रतु हुतभुक कर क्रोध, सप्तजिह्वा खोले विकराल ? हुए उद्यत करने दिवि-दाह, आह, जिससे चर-अचर बेहाल ।। या कि ताड़का-तनय मारीच, राक्षसी सेना सहित सतर्क । चढ़ा रघुनायक पर रण-हेतु, इसी से मन्द ज्योति क्या अर्क ? राज्य-च्युत हैं सम्प्रति श्री राम, संग में भाभी कुल की लाज । और मैं हूँ प्रभुवर से दूर , हुआ चहता है परम अकाज ।। या कि राघव ने ही सोत्साह राक्षसों को करने निर्मूल । चलाया है ब्रह्मास्त्र अजेय , उड़ रही जिससे भारी धूल ।। जो भी हो उचित नहीं है और अधिक रुकना या करना देर । न जाने क्या है देव-विधान ? निमिष में हो सकता अंधेर ।। एक क्षण में समिधादि समेट, शीघ्रता से फल-मूल बटोर । और डग भरते लम्बे, मौन, सोचते चले कुटी की ओर ।। आहा! जैसे हो मत्तगयन्द, झुण्ड से बिछुड़ जा रहा आज । या कि मृगया के हेतु सतर्क, बढ़ रहा हो कोई मृगराज ।। पहुँचकर देखा प्रभु निश्चिन्त, कुटी सम्मुख बैठे थे शांत । अधर अम्बुज पर स्मित मन्द, प्रात इन्दीवर-सा तन कांत ।। धरा था वहीं निषंग नवीन , जटित कंचन, शर से भरपूर । विकट विषधर-सा चाप विशाल, पड़ा था वहीं, नहीं था दूर ।। वहीं थीं आर्य भी अति खिन्न, शिशिर-हत पंकज-सा मुख दीन । दीखता ज्यों बादल के बीच , निबल, निस्तेज मयंक मलीन ।। अचानक पड़ी चरण पर दृष्टि, चंचु-चोटिल शोणित से लाल । कहा लक्ष्मण ने तब सविषाद- "आर्य! आर्या का यह क्या हाल ? पूजता रहा जिसे दिन-रात, चढ़ाकर अपने भाव प्रसून । अहा! उस चरण-कमल से आज, बह रहा है यह क्योंकर खून ? मातृवत माना जिहें सदैव और पाया वैसा स्नेह । उन्हीं के चरणों में ये घाव, ताव से जलती है यह देह ।। दया से द्रवित सदा वर चित्त, नित्य करुणा से कलित अनूप । आहा! जिनका अति ह्रदय उदार, उन्हीं को लगी चोट विद्रूप ।। न गृह में शांति, न वन में चैन; अहा! यह कैसा कर्म-विधान ? कौन पढ़ सकता विधि का लेख ? अनागत का किसको है ज्ञान ? पिता ने दिया अहो ! असि पत्र नरक जैसा वनवास कठोर । एक प्रिय पुत्र हेतु अपकर्म ! न्याय-हत्या, अनरीति अछोर !!" कहा प्रभु ने हँसकर -"हे सौम्य! कहीं से एक आ गया काक । उसी ने दिया सिया को घाव, माँसलोलुप ज्यों राक्षस पाक ।।" कहा लक्ष्मण ने -"है आश्चर्य, कर सका ऐसा कैसे काक ? आह ! यह कैसा है प्रारब्ध ? उपस्थित कैसा कर्म-विपाक ? आपके रहते हुए अभीत काक कर आर्या पर आघात, बचाकर चला गया निज प्राण, है नहीं क्या विस्मय की बात ? अगर मैं होता तो हे तात ! छोड़ता नहीं नीच के प्राण । दुष्ट का लेना शीश उतार, दुष्टता का उत्कृष्ट निदान ।।" "शांत हो मेरे अनुज अधीर, मिलेगा अपराधी को दण्ड ।" कहा राघव ने कर मृदु हास, सुदृढ़ कर में लेकर कोदण्ड ।। "सुनें सुर-असुर खोलकर कान, उठा कर कहता मैं भुजदण्ड । राम के शासन में है सत्य , अदण्डित रह न सकेगा भण्ड ।। किया है किसने यह दुष्कर्म, आ गया निश्चय उसका काल । अनुज ! वह भ्रांति-बद्ध हो आज, सर्प को समझ रहा मणिमाल ।। गया है मेरा दारुण बाण दुष्ट का करने अनुसंधान । करेंगे उसके निस्संदेह देह से पागल प्राण प्रयाण ।। किन्तु इतना मेरा विश्वास, नहीं वह मृत्यु लोक का जीव । पलक थी उसकी अचल, सुनेत्र चपल थे यथा नवल राजीव ।। और है एक बात, हे सौम्य ! हवा में था वह मानो तैर । न तन के उसके था प्रतिबिम्ब, न धरती पर पड़ते थे पैर ।। देह थी उसकी दिव्य, सुपुष्ट, शक्तिमय, शोभन और विशाल । ऐन्द्रजालिक सा प्रतिपल मौन चल रहा था वह मायिक चाल ।। कभी जाता था नभ में दूर, कभी भू पर आता तत्काल । कभी हो जाता दृग की ओट, कभी प्रकटित होता ज्यों काल ।। मानता हूँ मैं अपनी भूल, हुआ मुझसे कर्तव्य प्रमाद । इसी से हुआ उपस्थित आज, अनिक्षित, अनसोचा, अवसाद । किन्तु करता तुमको आश्वस्त, रहेगा सुयश राम के साथ । नहीं स्मय-विस्मय हे वीर ! झुकेगा नहीं लाज से माथ ।। प्रतीक्षा करो तनिक हे सौम्य ! सामने होगा दोषी आप । उसे लायेगा मेरा बाण, मंत्र ज्यों लाता विषधर साँप ।। काक की बोलो कौन बिसात ? सृष्टि का कर सकता हूँ नाश । अस्त्र विद्या का बल, विक्रांत, सिर्फ मेरे या शिव के पास ।।" कहा लक्ष्मण ने हो उद्विग्न - "अन्यथा नहीं समझिये तात ! सुयश के आप प्रसन्न निकेत, आपका बल-विक्रम विख्यात ।। आप ही तीस लक्षणों युक्त, धर्म के हैं साकार स्वरुप । आप ही वेद-ज्ञान-मर्मज्ञ, विष्णु के हैं प्रतिमान अनूप ।। आर्या का लाख दारुण क्लेश, उठी अंतर में दाहक हूक । इसी से अनियंत्रित था चित्त, हुई कुछ कहने में भी चूक ।। दोष मेरा ही है आर्य ! सुरक्षा का मुझ पर है भार । कमी है कहीं व्यवस्था बीच, इसी से हुआ अचानक वार ।। सोचता था अब तक यह क्षेत्र, शत्रु-गण हतु अजेय, अगम्य । किन्तु यह ज्ञात हुआ है आज, सभी के लिए सुगम, यह रम्य ।। रहा अब नहीं सुरक्षित, शांत तात ! यह अपना पर्ण कुटीर । मिला इसका हमको संकेत, चुनौती मिली हमें गंभीर ।। किन्तु इस पर कुछ करें विचार, नहीं है अभी तनिक अवकाश । प्रथम आर्या का है उपचार, चोट से जो है अधिक हताश ।। कष्ट से तड़प रही है हाय, ऐंठता जाता मंजु शरीर । एक मेरी गलती से आह, भोगती भाभी दारुण पीर ।। कर्म-फल-भोग यदपि अनिवार्य, किन्तु उनका ऐसा क्या कर्म ? दे रहा है जो दारुण क्लेश, समझ में नहीं आ रहा मर्म ।। ब्रह्म-विद्या-सी परम पवित्र, लक्ष्मी-सी सब गुण-सम्पन्न । उमा-सी पति-परायण , और अन्नपूर्णा-सी सहज प्रसन्न ।। उन्हें जो मिला निदारुण कष्ट, भाग्य का है यह निश्चय फेर । इसी से हुई मुझे भी तात ! मूल-फल-संग्रह में कुछ देर ।। देखने लगा प्रकृति-सौन्दर्य, देह-सुधि-रहित, भूल कर्तव्य । इसी से हुआ भयंकर काण्ड, काक ने खाना चाहा हव्य ।। आर्या के पग-क्षत पर शीघ्र, इंगुदी फल का तैलालेप । अभी करके करता दुख दूर, बात में होता कालक्षेप ।।" लक्ष्मण ने तत्क्षण किया, सहज, सफल उपचार । पल में हल्का हो गया , सीता का दुःख-भार ।। तब-तक आता-सा दिखा, राम - बाण विकराल । उसके आगे हाँफता- सा सुरपति का लाल ।। सजग हुए सौमित्र तब, अपना काढ़ कृपाण । दुखदाई रिपु के तुरत, ले लेने को प्राण ।। बोले राघव अनुज से, कोमल, सरल सुभाय - "दोषी आता द्वार पर , तुम्हीं करो अब न्याय ।।" कहा लखन ने, "आप ही, इसको दीजै दण्ड । कर न सके जिससे कभी, यह फिर से पाखण्ड ।। न जाने क्यों मैथिली के भर आये नैन । बिम्बाधर कम्पित हुए, किन्तु न फूटे बैन ।।

षष्ठ सर्ग-नेत्रभंग (खण्ड काव्य)

आया जयन्त प्रभु पास हाथ मलता-सा । अपने कुकर्म की ज्वाला में जलता-सा ।। रह गया मात्र शर से अंगुल भर अन्तर । कर आर्तनाद वह गिरा राम के पग पर ।। "त्राहि-त्राहि हे नाथ ! शची-सुत नत मैं । द्युलोक-निवासी, विनय-विनत, मदगत मैं ।। मैं इन्द्रपुत्र, क्रतुभुक, ऋभु, विवुध, त्रिदश हूँ । युगपत समर्थ सुर, सुमनस, अमर,अलस हूँ ।। मैं सतत मुक्त, स्वच्छन्द, विवेक-विरत था । सद्धर्म - शून्य मैं अविरत पाप - निरत था ।। संतत अनीति पर चरण मेरे बढ़ते थे । प्रतिदिन निर्भय पाखण्ड नए गढ़ते थे ।। मेरे मन में था गर्व पिता के बल का । यम,काल,वरुण,वसु,पूषा,अनिल,अनल का ।। मैं काम-कलभ पर अति मदान्ध बैठा था । खुद को ही सबसे बड़ा मान ऐंठा था ।। क्रीडा -स्तुति - मद -मोद-विलास-सदन में । मैं खोया था गायन, रति, लास्य, मदन में ।। मैं भोग - भक्त, प्रतिपल सुख - अन्वेषी था । इसलिए सहज ही सदगुण का द्वेषी था ।। वह दर्प चूर्ण हो गया, क्षमा - याचक मैं । हे नाथ आपकी कीर्ति-कथा वाचक मैं ।। अपनी करनी का ब्याज सहित फल पाकर । मैं आज शरण में पड़ा मरण अपनाकर ।। मैंने विष को ही अमृत मान लिया था । चिर निन्दा को ही स्तुति जान लिया था ।। जो लोक - वेद से वर्जित कर्म कलुष हैं । उनको ही समझा था ऋग, साम, यजुष हैं ।। लेकिन मुझको अब यही बोध होता है । स्वछन्द इन्द्रियों वाला नर रोता है ।। अनियंत्रित मन का सर्वनाश निश्चित है । कामुक जन का कल्याण नहीं किंचित् है ।। इच्छाओं का पागल बहाव भयप्रद है । तृष्णा मनुष्य के सर्वनाश का नद है ।। प्रभु ! देवजाति तो जन्मजात भोगी है । हे सुयश! 'सुधर्मा सभा' भोगी-रोगी है ।। हे नाथ ! आप तो खुद अन्तर्यामी हैं । मेरे जैसे जन पतित, क्रूर, कामी हैं ।। हे प्रभो ! स्वत्व, वैभव ऐसे होते हैं । भारी घमण्ड जो अनायास देते हैं ।। हे विभो ! आप ही ब्रह्म, सृष्टि-कर्ता हैं । आजान देव, मूढों के मद - हर्ता हैं ।। हे विश्व-विनायक !आप दीन-वत्सल हैं । हे प्रभो ! आपका अति कोमल हृत्तल है ।। मैं तुच्छ कीट से भी निहीन, नीचा हूँ । मैं सतत पाप-पाखण्ड-वारि-सींचा हूँ ।। मैं पामर, विभव-मदान्ध, दण्ड-लायक था । मैं अष्टशत्रु का मित्र, धृष्ट नायक था ।। खुल गए ज्ञान के चक्षु दण्ड मिलने से । जैसे खुलते हैं कंज सूर्य खिलने से ।। हे चिर शरण्य! तव चरण-शरण आया हूँ । मैं बुद्धिहीन, भय-व्याकुल, भरमाया हूँ ।। मैं था अविज्ञ प्रभु के प्रताप औ' बल से । इसलिए किया अपराध काक बन छल से ।। उसका अति समुचित दण्ड मिला, कृतकृत हूँ । जब तक न करेंगे आप क्षमा, मैं मृत हूँ ।। दें दण्ड और कुछ मैं सहर्ष सह लूँगा । उसको स्वकृत्य का प्रतिफल मैं कह दूँगा ।। हे ईश ! मोह में ज्ञान छिपा था मेरा । मुझको प्रवंचना ने आकर था घेरा ।। मैं था उन्मादी और अनय - रत , चंचल । नित घूम रहा था थाम्ह विभव-बल-अंचल ।। अपनी कुत्सा का किन्तु कटुक फल पाया । हे अशरण - शरण ! शरण में मैं हूँ आया ।। प्रभु! आप प्रमोद-निकेत, कंज आनन हैं । आप से विलसता विशद विश्व-कानन है ।। मैं तो पर - द्रोही और दुराचारी हूँ । फिर भी करुणार्द्र कृपा का अधिकारी हूँ ।। दें प्राण - दान रघुवीर ! दया - व्रत - धारी ! हे दुःख भंजन ! यह जले न देह हमारी ।। हे जगत्पिता ! मैं तो बालक दुर्मति हूँ । कैसा भी हूँ, प्रभु की आखिर संतति हूँ ।।" फिर घूम उर्विजा-ओर ह्रदय निज धर कर, बोला जयन्त कम्पित तन, वाणी थर-थर । आँखों से अविरल अश्रु बहाता विह्वल -- "हे मातु ! तुम्हारा ही अब मुझको संबल ।। हे जनक-नन्दिनी! आप जगज्जननी हैं । आप से अलंकृत, झंकृत नभ - अवनी हैं ।। धरती माता - सी आप क्षमाशीला हैं । संहार - सृजन भवती की दृक - लीला हैं ।। आप ही त्रिपुरसुन्दरी, परा विद्या हैं । आप ही महाचिति-शक्ति,स्फूर्ति,आद्या हैं ।। आप ही कला, कलकांति, शांति,शुचि,श्री हैं । आप ही कीर्ति, श्रुति, नियति, सती, धी ही हैं।। हे कृष्णकुंतला ! जगपूज्या ! बहुमान्या ! हे महोत्सवा! वरदा! फलदा! धन-धान्या ! दो अभयदान मेरा जीवन निर्भय हो । भवती का हृदय न मेरे प्रति निर्दय हो ।।" सहसा बोले सौमित्र कड़क घन-स्वर से । "हे तात ! द्रवित मत होवें पाप-प्रकर से ।। यह दुष्ट पुलोमा दैत्य-सुता-सुत, घाती । यह है दुर्गुण का दुर्ग , परम उत्पाती ।। यह नीच क्रूर केवल असत्य - भाषी है । पर-तिय-लोलुप, मन्मथ-मदान्ध नाशी है ।। इसका मस्तक काटना नीति सम्मत है । मेरा ही नहीं, शुक्र का भी यही मत है ।। सारे दुर्व्यसन सहर्ष सहज इसमें हैं । यह स्वैराचारी पाप सहस इसमें हैं ।। यह कामी, निठुर, अवश्य नरक-कीड़ा है । इसके मुँह पर देखिए कहाँ ब्रीड़ा है ।। इसने गुरुतर अपराध किया आर्या का । रघुकुल-कलकमल-दिवाकर की भार्या का ।। इसने बिन कारण घात किया, बिन सोचे । भाभी के कोमल चरण बिना भय नोचे ।। सोचिए क्षमा का क्या यह अधिकारी है ? बल के घमण्ड में पागल, व्यभिचारी है ।। इसको कठोरतम दण्ड प्रभो! अब दीजै । करके यों निर्मल न्याय, सुयश जग लीजै ।।" इतना कहकर जब मौन हुए श्री लक्ष्मण । बोलीं वैदेही बिखराती करुणा - कण -- "हे नाथ ! छोड़िये इसे दण्ड क्या देंगे । इसकी स्त्री का क्या सुहाग, प्रभु लेंगे ? आ गया शरण में अतः मरण मत दीजै । हे आर्यपुत्र! इस पर अब तनिक पसीजै ।। प्रिय देवर जी भी सदय अवश्य बनेंगे । इसके न रक्त से उनके हाथ सनेंगे ।। छोडिए, स्वयं कर्मों का फल पायेगा । हिम-खण्ड सदृश कुछ पल में गल जायेगा ।"। सुनकर भार्या के वचन जलद-तन रघुवर, बोले जयन्त से सिंह सदृश मंद्र - स्वर- "ऐ इंद्र पुत्र ! तू है असाध्य अन्यायी । तू मृत्यु योग्य है कहते मेरे भाई ।। जिनका तूने अपराध किया पर, वे ही कह रहीं क्षमा करिए शुचि-शील-सनेही !! पर जो भी जग में है कुकर्म-पथ-गामी । जो हैं जगद्रोही, दुष्ट, क्रूर, खल, कामी ।। पर-सुख पर-वैभव देख जो घबड़ाते हैं । औरों की उन्नति देख जो जल जाते हैं ।। जो अजागलस्तन का पियूष पीते हैं । जो कलित कल्पना में केवल जीते हैं ।। जिनको असत्य की छाया प्रिय रजनी है । जीको छुटती रिपु के समक्ष कँपनी है ।। जिनसे न भलाई की भव को आशा है । जिनकी न धर्म- सदगुण में अभिलाषा है।। जो उच्छृंखल, अति कुटिल और पामर है । जिनको कुकर्म करते न तनिक भी डर है ।। जो हैं कलंक नरता के औ' लम्पट हैं । जिनके न दान के लिए ये कर सम्पुट हैं ।। जो डाह - द्वेष से नित्य जले जाते हैं । जिनसे निर्भय सद्धर्म दले जाते हैं ।। जो सुजन-संत से सदा रुष्ट होते हैं । जो 'पर' को दुख दे स्वयं पुष्ट होते हैं ।। उन सबको देना दण्ड नीति मेरी है । उनके विरुद्ध ही मेरी रण - भेरी है ।। जो बिना बात स्वजनों से भी लड़ते हैं । जो शोषण के बल पर सदैव बढ़ते हैं ।। जिनको न स्वार्थ के सिवा अन्य अनुभव है । जिनको अति प्रिय प्रतिक्रियावाद का शव है।। जो असहायों में त्रास भरा करते हैं । जिनके समुदाय से सुजन मरा करते हैं ।। जिनके प्राणों के पीछे धन का कण है । जिनका पशुत्व से भरा हुआ हर क्षण है ।। जो भी विनीत, सद्धर्मी, नर-पुंगव हैं । जो भी वरेण्य मानवता के वैभव हैं ।। जो हैं पराक्रमी, वीरव्रती, प्रणपाली । जिनके प्रताप से दुष्ट सिहरते खाली ।। जिनका विकास सुजनों को नहीं सताता । जिनसे राजा औ' रंक समादर पाता ।। जिनसे पृथ्वी की हरी - भरी डाली है । जिनसे समस्त संसृत गौरवशाली है ।। मैं उन सबका अतिशय विनीत सहचर हूँ । प्रेमी, विनम्र मनुजों का मैं अनुचर हूँ ।। जिनका चरित्र धरती पर अमल धवल है । उनके हित अर्पित जीवन-ज्योति सकल है ।। जो परम दयालु, कृपालु, धर्म-ज्ञाता हैं । जो ज्ञानी, विज्ञानी, स्वदेश - भ्राता हैं ।। ये ही हैं मेरे सखा, स्वामि, जीवन, धन । उनके ही लिए समर्पित मेरा तन - मन ।। जिनमें न अष्टदुर्व्यसन शरण पाते हैं । जिनके न पंचछल निकट कभी आते हैं ।। जिनको सदगुण का एकमात्र संबल है । जिमें पौरुष का जलता प्रखर अनल है ।। जिनकी न भावना परतिय में लगती है । जिनमें चिराग की विमल ज्योति जगती है ।। जो जन्मभूमि का कण - कण गले लगाते । वे पुरुषसिंह ही मेरे मन को भाते ।। जो हैं सुहार्द, संग्रामजयी, सुविचर्षण । जिनके कृतित्व में गरिमा है आकर्षण ।। जो देश - धर्म के लिए समुद मिट जाते । वे पुरुषसिंह ही मेरे मन को भाते ।। मैं धर्महीन सत्ता का नाश प्रकट हूँ । चिर दर्प - द्वेष - ईंधन के लिए लपट हूँ ।। जो अनुशासन में बँधे नाम कमाते । वे पुरुषसिंह ही मेरे मन को भाते ।। देवता सत्य - संयुक्त सदा रहते हैं । वे नहीं अनृत के सागर में बहते हैं ।। पर, ओ मघवा का पुत्र प्रचण्ड घमण्डी । तुझको दूँगा मैं दण्ड अरे पाखण्डी ।। तूने कपड़े से आग पकड़ना चाहा । खाली हाथों से नाग पकड़ना चाहा ।। जो सिंह - रवनि पर तूने दृष्टि गड़ाई । उसकी तुझको करनी होगी भरपाई । तू भूल गया निज पिता इन्द्र की करनी । जिनसे घायल है आज तलक यह धरणी ।। किसलिए द्विलोचन से सहस्त्र दृगधारी । बन गए पुरन्दर पुनः कथा पढ़ सारी ।। जा पूछ शची से नृपति 'नहुष' की लीला । किस तरह बची तब जननी परम सुशीला ।। किस तरह स्वर्ग से पतित हुए बन पापी । साथी जिनके हैं दिनकर परम प्रतापी ।। एकाक्ष पिंगली कैसे हुए 'धनद' हैं ? जा पूछ उन्हें यह किनसे मिली सनद है ? क्योंकर है उनका वाम विलोचन फूटा ? ओ कूचर उन्हीं से पूछ कहाँ क्या टूटा ? जानता नहीं तू भूप 'दण्ड' की गाथा । जिसने 'अरजा' को पाकर अवश अनाथा ।। जब किया विकट व्यभिचार प्रलय की आँधी । यों चली मिट गया राज्य सहित अपराधी ।। जानता नहीं रावण की कुटिल कहानी ? जब कामुक ने की रम्भा संग मनमानी । आखिर नलकूबर-शाप शीश पर लेकर । लौटा लंका में सुयश स्वयं सब देकर ।। कामुकता का अमिटित कलंक होता है । शश का लांछन अब तक मयंक धोता है ।। विद्वता, मान, मर्यादा ढह जाती है । कामुकता का जब भी प्रहार पाती है ।। तू अजर, अमर है, तुझे प्राण का भय क्यों ? चिंता, इर्ष्या, भय-भीति, शोक, संशय क्यों ? मेरे चरणों पर पड़ा बिलख रोता क्यों ? निज अश्रु-सलिल से मम पद-रज धोता क्यों? ले, आँख तेरी मैं एक फोड़ देता हूँ । पहला कसूर है प्राण छोड़ देता हूँ ।। यदि पुनः कभी तू यह क्रम दुहरायेगा । तब और नहीं, बीएस मृत्यु दण्ड पायेगा ।। यह आँख तेरी अतिशय सदोष मतवाली । इसमें ही है दीखती विभव की लाली ।। ले, इसे छीनकर, ज्ञान-दृष्टि देता हूँ । देकर समष्टि मैं व्यर्थ व्यष्टि लेता हूँ ।। अब से पर-नारी, ज्वलित अग्नि सम जानो । जो देता हूँ उपदेश उसे तुम मानो ।। सबसे करके तुम प्रेम बढ़ो यों आगे । पाओ जीवन में सुयश, आयश सब भागे ।। जाओ अब ऐसा कर्म कभी मत करना । लखकर संयोग किसी का कभी न मरना ।। जाओ, इन्द्रासन ग्रहण करो, सुख लूटो । चिन्तित होंगे देवेन्द्र, रुको मत, फूटो ।। पाकर आज्ञा रामचन्द्र की चला दुष्ट मन मारे । एक नयन बनकर, सलल्ज लांछन ललाट पर धारे ।। किसी तरह उठ नहीं पा रहे थे उसके दो पाँव । काँप रहा था वह जैसे लहरों में छोटी नाव ।। देख राम का न्याय, शरण - वत्सलता ; दुर्लभ अनुकम्पा, दया - मया, निर्मलता ; आये देवर्षि समेत सप्त ऋषि सत्वर , करने लगे सुगान पुलक, गदगद स्वर - जय पवन तेज दिवाकर! जय अक्षय कीर्ति गुणागर! जय सीता-सुमुख-रमण हे!जय जय जग-ताप शमन हे ! तुमको शतवार नमन है । तुमको अर्पित जीवन है ।। जय कृपा-सिन्धु, सुखकारी!जय परम दिव्य वपु धारी! जय जय ओंकार-प्रणव हे!जय परम पुराण, सु-नव हे ! तुमको शतवार नमन है । तुमको अर्पित जीवन है ।। जय आदि शक्ति-श्री-सीता! जय पतिव्रत-धर्म-पुनीता! जय लक्ष्मण परम पराक्रम!जय सगुण,सुहार्द,सुसंयम! तुमको शतवार नमन है । तुमको अर्पित जीवन है ।। जय दर्प-विनाशक शक्ति-भवन,जय वीर,धीर,संताप-हरण; जय राम लोक-नयनाभिराम,जय अक्षुण्ण गुण,शोभा-ललाम; तुमको शतवार नमन है । तुमको अर्पित जीवन है ।। जय रघुकुल - भूषण रामचन्द्र ! जय विश्ववंद्य, स्वर मेघमन्द्र ! जय सौम्य,शांत,अलोकवरण!जय दुख-दलितों की एक शरण! तुमको शतवार नमन है । तुमको अर्पित जीवन है ।। तन्मय होकर फिर कहा देव ऋषि ने सस्वर- "हे राम ! मानवी मेधा के चरमोत्कर्ष, संघर्षशील नैतिकता के उज्जवल स्वरूप, हे निःसंशय ! संशय की काली रात तुम्हें क्या छू सकती ? तुम मानव नव, भव-विभव तुम्हारे चरणों में है पड़ा हुआ, जो सड़ा हुआ उसके अपवारक, निर्धारक जीवन-जगती के मानदण्ड, योद्धा प्रचण्ड, तुम हो जीवन, जीवन की संस्कृति के प्रतीक, आस्था-वर्चस अनलस पौरुष-प्रज्ज्वलित केन्द्र, हे राघवेन्द्र ! जय हो, जय हो । स्तुति कर सप्तर्षि शुचि, गये समुद निज धाम । देवऋषी भी चल पड़े, जपते 'जय श्री राम' ।। उनके जाते ही तभी, शोभा ललित ललाम । उतरी नभ से स्वर्ग की, भू पर अति अभिराम ।। झिलमिल-झिलमिल मधुराभा, उतरी अम्बर से भू पर । उसमें था पुरुष अलौकिक , कोमल कमनीय मनोहर ।। थे अंग - अंग से उसके , बहु फूट रहे छवि - झरने । मानो धरती पर आया , जन-जन का तन-मन हरने ।। कौशेय पीत कटि - पट तर, थी लाल पाड़ की धोती । हर चुन्नट में करते थे , झलमल झल उज्ज्वल मोती ।। कटि से बाँहों पर आकर था उत्तरीय लहराता । मानो कुसुमायुध अपनी हो मौन ध्वजा फहराता ।। तारों-से झलमल-झलमल वे दिव्य वसन भाते थे । मणि-मुक्ता-जटित छटा पर लोचन न ठहर पाते थे ।। उज्जवल ललाट के ऊपर था मुकुट मयंक चमकता । बहुमूल्य रतन-मणियों से विद्युत-सा सतत दमकता ।। घुँघराली अलि-अवली-सी लहराती ललित अलक थी । पुखराज-प्रभा से मण्डित , स्पन्दन्हीन पलक थी ।। नीलम से, शाण चढ़े से , स्तब्ध नयन अति शोभन । मन मुग्ध विवश करते थे जाने क्या था सम्मोहन ।। आलोक-वलय-परिवेष्ठित, था वदन अनूप, अलौकिक । उसके समक्ष सहमी - सी लगती सुन्दरता लौकिक ।। मन्दार कुसुम की माला, अम्लान, अनूप, नवल-सी । थी लहर रही उर-सर पर अवली रक्ताभ कँवल-सी ।। प्रस्वेद-विहीन वदन से , अद्भुत सुगन्ध थी झरती । उस पर जग की सुन्दरता कैसे न स्वयं ही मरती ।। विश्रब्ध खड़ा था नर वह, स्वर्गिक सौन्दर्य समेटे । जी करता बाहु-वलय में भर कर उसको खुब भेंटें ।। उसके तन की परछाई भू पर न तनिक पडती थी । उसके वर दिव्य वसन पर, रज रंच नहीं अड़ती थी ।। सामान्य नहीं था नर वह, धरती पर स्वर्ग खड़ा था । मानव से विशद, विलक्ष्ण, तन से अति दिव्य, बड़ा था ।। दायें कर में था उसके रवि-सा पवी जग-मग करता । बायें में अरुण कमल था परिमल -पराग -कण झरता ।। भय पर जयकारी वय का वह था अति तरुण यशस्वी । स्वर्गिक ऐश्वर्य विमण्डित था कोई मधुर मनस्वी ।। राघव ने मन में सोचा यह मनुज नहीं निर्जर है । है कोई देव अलौकिक, निश्चय यह पुरुष प्रवर है ।। पशुपति की मोहक गति से धीरे - धीरे अति सुन्दर । वह बढ़ा जिधर बैठे थे, दिनमणि-कुल-भूषण रघुवर ।। लखन ने देखा उसव सशंक, बढ़ा वह जब राघव की ओर । किया कार्मुक पर शर-संधान, जमे ज्या पर अंगुलि के पोर ।। तभी उसने कर जय-जयकार, कहा- "जय राघव, जय श्री राम । आपको हे सीतापति ! आज, कर रहा सुरपति स्वयं प्रणाम ।। आपका धर्म, प्रचण्ड प्रताप, बढ़े भू - नभ में चारों ओर । काल की सीमा को अतिक्रम्य, रहे शासन अविछिन्न, अछोर ।। आपका सुयश, शील, सौहार्द, शक्ति-सामर्थ्य, बुद्धि-वर्चस्व । आपका राज्य, निति-नैपुण्य, बने भू - मानव का सर्वस्व ।। धरा पर रहे शांति अभिराम, बढ़े विकसित हो मानव जाति । दूर हो ईति-भीति, त्रय ताप, रहे आनन्द वहाँ सब भाँति ।। पुरुष हों रूपवान, विजिगीषु, धर्म -संवृत, कौशल -सम्पन्न । स्त्रियाँ हों पातिव्रतपूर्ण , कला-माधुर्य-ओज-गुण-धन्य ।। प्रीतिकर हो षडऋतु सब काल, सबल हो यह भरतों का देश । सतत धन-धान्यपूर्ण अविभाज्य, रहे गौरव - मण्डित बिन क्लेश ।। आप सम्राटों के सम्राट, स्वर्ग के अधिपति, महिमा-केंद्र । कर रहा नमन पुनः हे राम ! विष्णु का अग्रज स्वयं महेंद्र ।। आप ही ब्रह्मा, महत्, महेश, आप ही निराकार - साकार । आपको हे मर्यादा - सेतु ! कर रहा नमन पुनः शतबार ।। आप ही प्रणव, जयिष्णु, तरुत्र, भरत, भारत, ऋत, ऋभु, शिपिविष्ट । आप ही विष्णु, विराट, वरेण्य, आप ही शिष्ट, विशिष्ट, अभीष्ट ।। आप ही तुग्र, त्रिविक्रम देव ! अरंकृत, अभय, सदय, उरुशंस । चित्रराती, बल-विक्रम-सिन्धु, आप रवि - वंश - अंश - अवतंस ।। आपके चरणों में मधु उत्स, आप श्रुतकक्ष, पुरुप्रिय राम ! आपको हे उर्जापति ब्रह्म ! कर रहा पुनः महेंद्र प्रणाम ।। इस तरह स्तुति कर देवेश, हुए पल भर में अन्तर्धान । राम की महिमा का सानन्द, गूँजने लगा धरा पर गान ।।

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