हिन्दी नवगीत : केदारनाथ सिंह

Navgeet : Kedarnath Singh


कुहरा उठा

कुहरा उठा साये में लगता पथ दुहरा उठा, हवा को लगा गीतों के ताले सहमी पाँखों ने सुर तोड़ दिया, टूटती बलाका की पाँतों में मैंने भी अन्तिम क्षण जोड़ दिया, उठे पेड, घर दरवाज़े, कुआँ खुलती भूलों का रंग गहरा उठा । शाखों पर जमे धूप के फाहे, गिरते पत्तों के पल ऊब गए, हाँक दी खुलेपन ने फिर मुझको डहरों के डाक कहीं डूब गए, नम साँसों ने छू दी दुखती रग साँझ का सिराया मन हहरा उठा । पकते धानों से महकी मिट्टी फ़सलों के घर पहली थाप पड़ी, शरद के उदास काँपते जल पर हेमन्ती रातों की भाप पड़ी, सुइयाँ समय की सब ठार हुईं छिन, घड़ियों, घण्टों का पहर उठा !

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की, उड़ने लगी बुझे खेतों से झुर-झुर सरसों की रंगीनी, धूसर धूप हुई मन पर ज्यों — सुधियों की चादर अनबीनी, दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की । साँस रोक कर खड़े हो गए लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन, चिलबिल की नंगी बाँहों में — भरने लगा एक खोयापन, बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की । थक कर ठहर गई दुपहरिया, रुक कर सहम गई चौबाई, आँखों के इस वीराने में — और चमकने लगी रुखाई, प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।

धानों का गीत

धान उगेंगे कि प्रान उगेंगे उगेंगे हमारे खेत में, आना जी, बादल ज़रूर ! चन्दा को बाँधेंगे कच्ची कलगियों सूरज को सूखी रेत में आना जी, बादल ज़रूर ! आगे पुकारेगी सूनी डगरिया पीछे झुके बन-बेंत संझा पुकारेंगी गीली अखड़ियाँ भोर हुए धन खेत; आना जी, बादल ज़रूर ! धान कँपेंगे कि प्रान कँपेंगे कँपेंगे हमारे खेत में, आना जी, बादल ज़रूर ! धूप ढरे तुलसी-बन झरेंगे, साँझ घिरे पर कनेर, पूजा की वेला में ज्वार झरेंगे धान-दिये की बेर, आना जी बादल ज़रूर ! धान पकेंगे कि प्रान पकेगे पकेंगे हमारे खेत में, आना जी, बादल ज़रूर ! झीलों के पानी खजूर हिलेंगे, खेतों में पानी बबूल, पछुवा के हाथों में शाखें हिलेंगे, पुरवा के हाथों में फूल, आना जी बादल ज़रूर ! धान तुलेंगे कि प्रान तुलेंगे, तुलेंगे हमारे खेत में, आना जी बादल ज़रूर !

पात नए आ गए

टहनी के टूसे पतरा गए ! पकड़ी को पात नए आ गए ! नया रंग देशों से फूटा वन भींज गया, दुहरी यह कूक, पवन झूठा — मन भींज गया, डाली-डाली स्वर छितरा गए ! पात नए आ गए ! कोर डिठियों की कड़ुवाई रंग छूट गया, बाट जोहते आँखें आईं दिन टूट गया, राहों के राही पथरा गए, पात नए आ गए !

पूर्वाभास

धूप चिड़चिड़ी, हवा बेहया, दिन मटमैला मौसम पर रंग चढ़ा फागुनी, शिशिर टूटते पत्तों में टूटा, पलाश वन ज्यों फैला एक उदासी का नभ शोले चटक फूटते जिस में अरमानों से गूँजा हिया — आएगा कल बसन्त, मन के भावों के गीतकार-सा गा जाएगा सबका कुछ-कुछ, मौन छाएगा गन्ध स्वरों से, गुड़ की गमक हवा को सरसा जाती जैसे पूस माह में, नदिया होंगीं व्यक्त तटों की हरियाली में खिल, उघड़ा-सा कहीं न दीखेगा जीवन, लगते जो योगी वे अनुभूति-पके तरु फूटेंगे, जकड़ा-सा तब भी क्या चुप रह जाएगा प्यार हमारा ? कुछ न कहेगा क्या वसन्त का सन्ध्या-तारा ?

फागुन का गीत

गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता! ये बाँधे नहीं बँधते, बाँहें- रह जातीं खुली की खुली, ये तोले नहीं तुलते, इस पर ये आँखें तुली की तुली, ये कोयल के बोल उड़ा करते, इन्हें थामे हिया रहता! अनगाए भी ये इतने मीठे इन्हें गाएँ तो क्या गाएँ, ये आते, ठहरते, चले जाते इन्हें पाएँ तो क्या पाएँ ये टेसू में आग लगा जाते, इन्हें छूने में डर लगता! ये तन से परे ही परे रहते, ये मन में नहीं अँटते, मन इनसे अलग जब हो जाता, ये काटे नहीं कटते, ये आँखों के पाहुन बड़े छलिया, इन्हें देखे न मन भरता!

रात पिया पिछवारे

रात पिया, पिछवारे पहरू ठनका किया । कँप-कँप कर जला दिया बुझ -बुझ कर यह जिया मेरा अंग-अंग जैसे पछुए ने छू दिया बड़ी रात गए कहीं पण्डुक पिहका किया । आँखड़ियाँ पगली की नींद हुई चोर की पलकों तक आ-आकर बाढ़ रुकी लोर की रह-रहकर खिड़की का पल्ला उढ़का किया । पथराए तारों की जोत डबडबा गई मन की अनकही सभी आँखों में छा गई सुना क्या न तुमने, यह दिल जो धड़का किया ।

विदा गीत

रुको, आँचल में तुम्हारे यह समीरन बाँध दूँ, यह टूटता प्रन बाँध दूँ । एक जो इन उँगलियों में कहीं उलझा रह गया है फूल-सा वह काँपता क्षण बाँध दूँ ! फेन-सा इस तीर पर हमको लहर बिखरा गई है ! हवाओं में गूँजता है मन्त्र-सा कुछ साँझ हल्दी की तरह तन-बदन पर छितरा गई है ! पर रुको तो — पीत पल्ले में तुम्हारे फ़सल पकती बाँध दूँ ! यह उठा फागुन बाँध दूँ ! ’प्यार’ — यह आवाज़ पेड़-घाटियों में खो गई है ! हाथ पर, मन पर, अधर पर, पुकारों पर, एक गहरी पर्त झरती पत्तियों की सो गई है रहो तो, रुँधे गीतों में तुम्हारे लपट हिलती बाँध दूँ ! यह डूबता दिन बाँध दूँ ! धूप तकिये पर पिघलकर शब्द कोई लिख गई है, एक तिनका, एक पत्ती, एक गाना — साँझ मेरे झरोखे की तीलियों पर रख गई है ! पर सुनो तो — खुले जूड़े में तुम्हारे बौर पहला बाँध दूँ ! हाँ, यह निमन्त्रण बाँध दूँ !

  • मुख्य पृष्ठ : केदारनाथ सिंह - हिंदी कविताएँ
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)