मुक्त-कंठ : राजगोपाल
Mukt-Kanth : Rajagopal


उसके सारे चित्र हृदय पर लिये किस की प्रतीक्षा में बुझाये सारे दिये सब शून्य है यहाँ, अब किस संग रात जिये न रहेंगे हम सुबह तक इस प्रणय का विष पिये मन टूटा है, उससे और कुछ भी न कहो पास जो भी है, उसे सुख समझ कर सहो अब परिणीता के पास या कोसों दूर रहो छल हो या यथार्थ, इस जीवन के साथ बहो तुम तक आना नहीं है उसका ध्येय नहीं तोड़ना है उसे अपनी अस्मिता का श्रेय तुम ठहरे पुरुष अधम, वह है शचि सृजन अजेय बल है तन-मन में तो सुलझा लो यह ब्रम्ह-प्रमेय यहाँ क्या है जो उसका मन धरता न घर, न यह जग, उसकी आँखों में भरता तुम हुये ठूँठ, अब वसंत क्यों तुम पर मरता अपनी जी लो तुम, या बन जाओ प्रेत विचरता जब आऊँगी, तुम्हें भी साथ लिये जाऊँगी अपनी बात आप तक, सबको स्नेह-सगाई दिखलाउंगी दुख पर मिट्टी डाल, खुल कर सुख जतलाउंगी अपनी काया से निकलो, मैं शून्य में भी तुम्हें भा जाऊँगी मैंने कहा, निस्वार्थ भाव से मन में यह कस लो जगती की छोड़ घर-आँगन अपने पग परस दो उसने कहा, कस्तूरी ढूंढते तुम कुछ और तरस लो अब लेन-देन बंद हुआ, गठरी बांध वहीं बस लो कहती वह, बहुत सुना जीवन भर रोदन तुम्हारा मन भर लकड़ियों पर वह प्यार कल ही सिधारा अब कैसी है मारा-मारी, कौन है किस का प्यारा चाहो तो मांग लो जीवन दोबारा, कहीं टूटा है तारा पहले दुख में भी जीवन लगता था स्वर्ग सा सुंदर देहरी पर छोड़ आया उसे, मिला आज दूसरा खंडहर लौट आओ कहती है वह, जीना फिर जीवन भर नवकर न आना पास दोबारा कभी अपनी आशाओं में बहकर बांध लेना महाप्रयाण में स्मृतियों का सामान अब तुम्हारे प्रति हुआ स्नेह श्रद्धा का अवसान रो लेना जगती में फाड़ कर अपने हिस्से का आसमान देखती हूँ, मुझसे अधिक कौन रखता है तुम्हारा ध्यान मैं फेंक आया तुम तक मणि-रत्नों की ढ़ेरी जी लो सुख से जगती मे, वही है पूंजी मेरी मुझे छोड़ विकल यहाँ, मरुथल में बजाती हो रणभेरी कहती वह, सखा बनो, धन देकर नहीं दिखती है दिलेरी वह पुनः कहती, तृषित मृग की कहानी कितनी विकल है बरसों के अनुराग में वह दलित तृष्णा कितनी तरल है देख लो दिवास्वप्न, उसमे भी मधु उतना ही गरल है छोड़ दो शब्दों का आलिंगन, वह सारी आशाएँ विफल है प्रणय का अनुभव अब किसे बतलायें स्वयं को समझायें या सड़क पर चिल्लायें वह तो मुझसे नेत्रहीन हुयी, उसे क्या दिखलायें अब विहंगों की रति-क्रीडा से ही क्या मन बहलायें समय बीता यह प्रश्न निरुत्तर लौट आया न वाद, न ही कोई संवाद, प्रणय से जीवन भरपाया वह कहती प्रायश्चित किस का, किसने है कहर ढाया क्यों जूझते हो जीवन मे, कसी ने नहीं कोई वरदान पाया अब कैसे रोक पाऊँ जिसके पीछे पागल होकर मैं दौड़ता रहा मुट्ठी भर मधु पाने जीवन भर सुन कर कह गयी, बुझे दीप अब बाती पर शलभ सा जा मर या रो ले जड़ तकिये पर अपना विकृत सा सिर रख कर भ्रमर हूँ मैं हर सुमन से तुम्हारी गंध आती है क्या करूँ पंखुड़ियाँ छू कर मधुमय मादकता छाती है देख कर उसे दृगों में तुम्हारी स्मृतियाँ समाती हैं विक्षिप्त सा सोचता हूँ मैं, कब विधा हमें पास लाती है वह कहती, मुझ जैसा किस कुसुम का श्वास छूटा फिर प्रणय परिक्रमा में आज किसका बंधन टूटा उसे हँसता देख कर क्यों तुम्हारा भाग्य फूटा हम भी थे साथ उपवन मे, इस निष्ठुर समय ने हमें लूटा छोड़ो जगती की, सोचा था जब घर आऊँगा तुम्हें भुज-बंधन में जकड़े प्रणय गीत गाऊँगा तुमसे ही थोड़ा ऋण लेकर तुम्हें मित्र बनाऊँगा किन्तु न सोचा था, वहाँ मेरे कमरे को सूना पाऊँगा वह कहती, मैं तो जगती से अब चली वानप्रस्थ भुज-बंधन से अनुबंधन तक कर लो मन को आश्वस्त मैंने भी देखी है उड़ती आशाएँ जो गिरती है धरा पर ध्वस्त बंद हुई मधुशाला, अब होना तुम अपने स्वप्नों में मदमस्त तुम कुछ भी कह लो, हंस लो, या घन सा बरस लो कभी मुझ सा भी अनुभव कर लो या छिपकर तरस लो सुन कर वह कहती, मैं समय हूँ, तुम उन्हीं स्मृतियों में बस लो जगती को समझो, लौट कर अपना मन दोबारा कस लो रुधिर में बहता है इतिहास, होता नहीं है उसका वमन शत-क्रंदन से न तुम्हें पाया, न ही जुटा सका अभिजन हार गया मैं, समेट लूँगा आज जीवन के बिखरे कण मेरे नयनों की नंदिनी तुम्हें मेरा है शत-शत नमन

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