मिलता रहूँगा ख़्वाब में : अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान 'शहरयार'

Milta Rahoonga Khwab Main : Akhlaq Mohammed Khan Shahryar



क़िस्सा मिरे जुनूँ का बहुत याद आयेगा

क़िस्सा मिरे जुनूँ का बहुत याद आयेगा जब-जब कोई चिराग़ हवा में जलायेगा रातों को जागते हैं, इसी वास्ते कि ख़्वाब देखेगा बन्द आँखें तो फिर लौट जायेगा कब से बचा के रक्खी है इक बूँद ओस की किस रोज़ तू वफ़ा को मिरी आज़मायेगा काग़ज़ की कश्तियाँ भी बड़ी काम आएँगी जिस दिन हमारे शहर में सैलाब१ आयेगा दिल को यक़ीन है कि सर-ए-रहगुज़ार-ए-इश्क़२ कोई फ़सुर्दा३ दिल ये ग़ज़ल गुनगुनायेगा १. बाढ़ २. प्रेम की राह में ३. उदास

दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं

दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं वक़्त की बात है क्या होना था क्या हो गया मैं दिल के दरवाज़े को वा१ रखने की आदत थी मुझे याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का दूर से आती हुई ऐसी सदा हो गया मैं क्या सबब इसका था, मैं खुद भी नहीं जानता हूँ रात खुश आ गई और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं भूले-बिछड़े हुए लोगों में कशिश अब भी है उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा२ हो गया मैं १. खुला २. सुमधुर गाने वाला

तिरी गली से दबे पाँव क्यों गुज़रता हूँ

तिरी गली से दबे पाँव क्यों गुज़रता हूँ वो ऐसा क्या है जिसे देखने से डरता हूँ किसी उफ़क१ की ज़रूरत है मेरी आँखों को सो ख़ल्क२ आज नया आसमान करता हूँ उतारना है मुझे कर्ज़ कितने लोगों का ज़रा सुकून मिले तो हिसाब करता हूँ अजब नहीं कि किसी याद का गुहर मिल जाए गये दिनों के समन्दर में फिर उतरता हूँ बड़े जतन से बड़े एहतिमाम३ से तुझको भुला रहा हूँ, मोहब्बत का दम भी भरता हूँ १. क्षितिज २. सृष्टि करना ३. प्रबन्ध, बन्दोबस्त

पड़ाव आये कई एक घर नहीं आया

पड़ाव आये कई एक घर नहीं आया कि रास अब के भी हमको सफ़र नहीं आया किया था ख़ल्क अजब आसमान आँखों ने कहाँ का चाँद, सितारा नज़र नहीं आया जो एक बार गया सब्ज पानियों की तरफ़ सुना गया है कभी लौट कर नहीं आया चिराग़ जलते हवाओं की सरपरस्ती१ में हमारे लोगों ! तुम्हें ये हुनर नहीं आया भुलाके तुझको ख़जिल२ होते और क्या होता भला हुआ कि दुआ में असर नहीं आया १.देख-रेख २. लज्जित

ये चाहती है हवा उसको आजमाऊँ न मैं

ये चाहती है हवा उसको आजमाऊँ न मैं कोई चिराग़ कहीं भी कभी जलाऊँ न मैं सुकूत साया रहे इस ज़मीन पर हरदम कोई सदा कोई फ़रियात लब पे लाऊँ न मैं यूँ ही भटकता रहूँ उम्र भर उदास-उदास सुराग़ बिछड़े हुओं का कहीं भी पाऊँ न मैं सफ़र ये मेरा किसी तौर मुख़्तसर१ हो जाए वो मोड़ आये कि जी चाहे आगे जाऊँ न मैं भुला तो दूँ तेरे कहने पे तुझको दिल से मैं मगर ये शर्त है, तुझको भी याद आऊँ न मैं १. संक्षिप्त

कटेगा देखिये दिन जाने किस अज़ाब के साथ

कटेगा देखिये दिन जाने किस अज़ाब1 के साथ कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब2 के साथ तो फिर बताओ समन्दर सदा को क्यों सुनते हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब3 के साथ बड़ी अजीब महक साथ ले के आयी है नसीम ! रात बसर की किसी गुलाब के साथ फ़ज़ा में दूर तलक मर्हबा4 के नारे थे गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको गये ज़रूर थे कुछ दूर माहताब5 के साथ 1. यातना, कष्ट 2. सूरज 3. मृगतृष्णा 4. शाबाश, बहुत खूब 5. चाँद

एक ही धुन है कि इस रात को ढलता देखूँ

एक ही धुन है कि इस रात को ढलता देखूँ अपनी इन आँखों से सूरज को निकलता देखूँ ऐ जुनूं ! तुझसे तक़ाज़ा है यही दिल का मिरे शह्र-ए-उम्मीद1 के नक्शे को बदलता देखूँ ये सफ़र वो है कि रुकने का मक़ाम इसमें नहीं मैं जो रुक जाऊँ तो परछाईं को चलता देखूँ चाहे तारीकी2, मुख़ालिफ़3 हो हवा दुश्मन हो मश्अल-ए-दर्द4 को हर हाल में जलता देखूँ वस्ल-आसार कोई लम्हा मयस्सर आये हिज्र की साअत-ए-बेमेह्र5 को टलता देखूँ 1. आशा का नगर 2. अंधकार 3.विरोधी, प्रतिकूल 4. पीड़ा की मशाल 5. निर्मम क्षण

दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे

दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे फिर भी उस शख़्स में क्या-क्या नज़र आता है मुझे सारी आवाज़ों को सन्नाटे निगल जाएँगे कब से रह-रह के यही ख़ौफ़ सताता है मुझे ये अलग बात कि दिन में मुझे रखता है निढाल रात की ज़द1 से तो सूरज ही बचाता है मुझे इक नये कह्र के इमकान2 से बोझल है फ़ज़ा आसमाँ धुंध में लिपटा नज़र आता है मुझे 1. चोट, मार 2. संभावनाएँ

सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है

सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है इस शह्र में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढें पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान-सा1 क्यों है तनहाई की ये कौन-सी मंज़िल है रफ़ीक़ो ता-हद्द-ए-नज़र2 एक बियाबान-सा क्यों है हमने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की वो ज़ूद-पशेमान, पशेमान-सा क्यों है क्या कोई नयी बात नज़र आती है हममें आईना हमें देख के हैरान-सा क्यों है 1. भावना शून्य और निष्प्राण-सा 2. दृष्टि की सीमा तक

जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यों है ज़िन्दगी रोज़ नये रंग बदलती क्यों है धूप के कह्र का डर है तो दयारे-शब1 से सर-बरहना2 कोई परछाईं निकलती क्यों है मुझको अपना न कहा इसका गिला तुझसे नहीं इसका शिकवा है कि बेगाना समझती क्यों है तुझसे मिलकर भी न तनहाई मिटेगी मेरी दिल में रह-रहके यही बात खटकती क्यों है मुझसे क्या पूछ रहे हो मेरी वहशत का सबब बू-ए-आवारा3 से पूछो कि भटकती क्यों है 1. रात्रि का नगर 2. नंगे सिर 3. व्यर्थ भ्रमण करने वाली गंध

जुस्तजू1 जिसकी थी उसको तो न पाया हमने इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने सबका अहवाल2 वही है जो हमारा है आज ये अलग बात कि शिकवा किया तनहा हमने खुद पशेमान3 हुए, नै उसे शर्मिन्दा किया इश्क़ की वज़्अ4 को क्या ख़ूब निभाया हमने कौन-सा कह्र ये आँखों पे हुआ है नाज़िल एक मुद्दत से कोई ख़्वाब न देखा हमने उम्र भर सच ही कहा, सच के सिवा कुछ न कहा अज्र5 क्या इसका मिलेगा ये न सोचा हमने 1. तलाश 2. दशाएं 3. शर्मिंदा 4. पद्धति 5. भलाई का बदला, पुण्य

शाम की दहलीज़ तक आयी हवा

शाम की दहलीज़ तक आयी हवा और फिर आगे न चल पायी हवा आँख इस मंज़र को कैसे भूल पाए फूल मुरझाये तो मुरझायी हवा ख़ुश्क पत्तों के सिवा कुछ भी न था शाख़ से उतरी तो पछतायी हवा रेत फैली और फैली दूर-दूर आसमाँ से क्या ख़बर लायी हवा आइने बेअक्स हैं, मुद्दत हुई देख के ये आँख भर लायी हवा

कश्ति-ए-जाँ से उतर जाने को जी चाहता है

कश्ति-ए-जाँ1 से उतर जाने को जी चाहता है इन दिनों यूँ है कि मर जाने को जी चाहता है घर में याद आती थी कल दश्त2 की वुसअत3 हमको दश्त में आए तो घर जाने को जी चाहता है कोई सूरत हो कि फिर आग रग-ओ-पै4 में बहे राख बनने को, बिखर जाने को जी चाहता है कैसी मजबूरी-ओ-लाचारी है, उस कूचे में जा नहीं सकता मगर जाने को जी चाहता है क़ुर्ब5 फिर तेरा मयस्सर हो कि ऐ राहत-ए-जाँ आख़िरी हद से गुज़र जाने को जी चाहता है 1. प्राणों की नौका 2. जंगल 3. विस्तार 4. शिरा और स्नायु 5. निकटता

आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ

आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ ख़ौफ़ के मारे जुदा शाख़ से पत्ता न हुआ रूह ने पैरहन-ए-जिस्म1 बदल भी डाला ये अलग बात किसी बज़्म में चर्चा न हुआ रात को दिन से मिलाने की हवस थी हमको काम अच्छा न था, अंजाम भी अच्छा न हुआ वक़्त की डोर को थामे रहे मज़बूती से और जब छूटी तो अफ़सोस भी इसका न हुआ ख़ूब दुनिया है कि सूरज से रक़ाबत2 थी जिन्हें उनको हासिल किसी दीवार का साया न हुआ 1. तन रुपी वस्त्र 2. प्रतिद्वंद्विता

जुनूँ के नग़्मे वफ़ाओं के गीत गाते हुए

जुनूँ1 के नग़्मे वफ़ाओं के गीत गाते हुए हमारी उम्र कटी ज़ख़्म-ए-दिल छुपाते हुए जहाँ में हमने फ़क़त2 इक तुम्हीं को चाहा है तुम्हें ख़याल न आया ये दिल दुखाते हुए हमें भी ज़िन्दगी करने का हौसला था कभी हमें भी लोगों ने देखा है मुस्कुराते हुए कोई है जो हमें दो-चार पल को अपना ले ज़बान सूख गई ये सदा लगाते हुए 1. उन्माद 2. मात्र

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को

शदीद1 प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को सियाह रात ने बेहाल कर दिया मुझको कि तूल दे नहीं पाया किसी कहानी को बजाय मेरे किसी और का तक़र्रुर2 हो क़ुबूल जो करे ख़्वाबों की पासबानी3 को अमाँ की जा मुझे ऐ शह्र तूने दी तो है भुला न पाऊँगा सहरा की बेकरानी4 को जो चाहता है कि इक़बाल5 हो सिवा6 तेरा तो सबमें बाँट बराबर से शादमानी7 को 1. तीव्र 2. तैनाती 3. रखवाली 4. असीमता 5. प्रताप 6. अतिरिक्त 7. हर्ष

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का यहाँ से गुज़रे हैं गुज़़रेंगे हम से अहल-ए-वफ़ा ये रास्ता नहीं परछाइयों के चलने का कहीं न सब को समुंदर बहा के ले जाए ये खेल ख़त्म करो कश्तियाँ बदलने का बिगड़ गया जो ये नक़्शा हवस के हाथों से तो फिर किसी के सँभाले नहीं सँभलने का ज़मीं ने कर लिया क्या तीरगी से समझौता ख़याल छोड़ चुके क्या चराग़ जलने का

तेरे वा'दे को कभी झूट नहीं समझूँगा

तेरे वा'दे को कभी झूट नहीं समझूँगा आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा देखने के लिए इक चेहरा बहुत होता है आँख जब तक है तुझे सिर्फ़ तुझे देखूँगा मेरी तन्हाई की रुस्वाई की मंज़िल आई वस्ल के लम्हे से मैं हिज्र की शब बदलूँगा शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा ता-कि महफ़ूज़ रहे मेरे क़लम की हुरमत सच मुझे लिखना है मैं हुस्न को सच लिक्खूंगा

ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता

ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता मैं तुझ से जुदा हो के भी तन्हा नहीं होता इस मोड़ से आगे भी कोई मोड़ है वर्ना यूँ मेरे लिए तू कभी ठहरा नहीं होता क्यूँ मेरा मुक़द्दर है उजालों की सियाही क्यूँ रात के ढलने पे सवेरा नहीं होता या इतनी न तब्दील हुई होती ये दुनिया या मैं ने इसे ख़्वाब में देखा नहीं होता सुनते हैं सभी ग़ौर से आवाज़-ए-जरस को मंज़िल की तरफ़ कोई रवाना नहीं होता दिल तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे भी आमादा नहीं है और हक़ भी अदा इस से वफ़ा का नहीं होता

ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है

ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है तिरे बग़ैर भी ये रात ढलती जाती है उस इक उफ़ुक़ पे अभी तक है ए'तिबार मुझे मगर निगाह-ए-मनाज़िर बदलती जाती है चहार सम्त से घेरा है तेज़ आँधी ने किसी चराग़ की लौ फिर भी जलती जाती है मैं अपने जिस्म की सरगोशियों को सुनता हूँ तिरे विसाल की साअ'त निकलती जाती है ये देखो आ गई मेरे ज़वाल की मंज़िल मैं रुक गया मिरी परछाईं चलती जाती है

देख दरिया को कि तुग़्यानी में है

देख दरिया को कि तुग़्यानी में है तू भी मेरे साथ अब पानी में है नूर ये उस आख़िरी बोसे का है चाँद सा क्या तेरी पेशानी में है मैं भी जल्दी में हूँ कैसे बात हो तू भी लगता है परेशानी में है मुद्दई सूरज का सारा शहर है रात ये किस की निगहबानी में है सारे मंज़र एक से लगने लगे कौन शामिल मेरी हैरानी में है

ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है

ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है घर की ता'मीर तसव्वुर ही में हो सकती है अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है आज भी है तिरी दूरी ही उदासी का सबब ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं

ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं जागती आँखों से भी देखो दुनिया को ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं जज़्ब करे क्यूँ रेत हमारी अश्कों को तेरा दामन तर करने अब आते हैं अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वर्ना हम को बुलावे दश्त से जब तब आते हैं काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया देखो हम को क्या क्या करतब आते हैं

उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए

उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आए सच ख़ुद से भी ये लोग नहीं बोलने वाले ऐ अहल-ए-जुनूँ तुम यहाँ बेकार में आए ये आग हवस की है झुलस देगी इसे भी सूरज से कहो साया-ए-दीवार में आए बढ़ती ही चली जाती है तन्हाई हमारी क्या सोच के हम वादी-ए-इंकार में आए

आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई

आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई आँसुओं में भीग जाने की हवस पूरी हुई आ रही है जिस्म की दीवार गिरने की सदा इक अजब ख़्वाहिश थी जो अब के बरस पूरी हुई इस ख़िज़ाँ-आसार लम्हे की हिकायत है यही इक गुल-ना-आफ़्रीदा की हवस पूरी हुई आग के शो'लों से सारा शहर रौशन हो गया हो मुबारक आरज़ू-ए-ख़ार-ओ-ख़स पूरी हुई कैसी दस्तक थी कि दरवाज़े मुक़फ़्फ़ल हो गए और इस के साथ रूदाद-ए-क़फ़स पूरी हुई

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं इन आँखों से वाबस्ता अफ़्साने हज़ारों हैं इक तुम ही नहीं तन्हा उल्फ़त में मिरी रुस्वा इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं इक सिर्फ़ हमीं मय को आँखों से पिलाते हैं कहने को तो दुनिया में मय-ख़ाने हज़ारों हैं इस शम-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो इस शम-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

किस फ़िक्र किस ख़याल में खोया हुआ सा है

किस फ़िक्र किस ख़याल में खोया हुआ सा है दिल आज तेरी याद को भूला हुआ सा है गुलशन में इस तरह से कब आई थी फ़स्ल-ए-गुल हर फूल अपनी शाख़ से टूटा हुआ सा है चल चल के थक गया है कि मंज़िल नहीं कोई क्यूँ वक़्त एक मोड़ पे ठहरा हुआ सा है क्या हादिसा हुआ है जहाँ में कि आज फिर चेहरा हर एक शख़्स का उतरा हुआ सा है नज़राना तेरे हुस्न को क्या दें कि अपने पास ले दे के एक दिल है सो टूटा हुआ सा है पहले थे जो भी आज मगर कारोबार-ए-इश्क़ दुनिया के कारोबार से मिलता हुआ सा है लगता है उस की बातों से ये 'शहरयार' भी यारों के इल्तिफ़ात का मारा हुआ सा है

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें बहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम को कभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखें सुकूत-ए-शाम से पहले की मंज़िल सख़्त होती है कहो लोगों से सूरज को न यूँ ढलता हुआ देखें हवाएँ बादबाँ खोलीं लहू-आसार बारिश हो ज़मीन-ए-सख़्त तुझ को फूलता-फलता हुआ देखें धुएँ के बादलों में छुप गए उजले मकाँ सारे ये चाहा था कि मंज़र शहर का बदला हुआ देखें हमारी बे-हिसी पे रोने वाला भी नहीं कोई चलो जल्दी चलो फिर शहर को जलता हुआ देखें

कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ

कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ तुझ से मिलना था कि मैं कुछ और भी तन्हा हुआ कोई पलकों से उतरती रात को रोके ज़रा शाम की दहलीज़ पर इक साया है सहमा हुआ मुंजमिद होती चली जाती हैं आवाज़ें तमाम एक सन्नाटा है सारे शहर में फैला हुआ आसमानों पर लिखी तहरीर धुँदली हो गई अब कोई मसरफ़ नहीं आँखों का ये अच्छा हुआ इस हथेली में बहुत सी दस्तकें रू-पोश हैं उस गली के मोड़ पर इक घर था कल तक क्या हुआ

जुदा हुए वो लोग कि जिन को साथ में आना था

जुदा हुए वो लोग कि जिन को साथ में आना था इक ऐसा मोड़ भी हमारी रात में आना था तुझ से बिछड़ जाने का ग़म कुछ ख़ास नहीं हम को एक न इक दिन खोट हमारी ज़ात में आना था आँखों को ये कहते सुनते रहते हैं हर दम सूखे को आना था और बरसात में आना था इक लम्बी सुनसान सड़क पर तन्हा फिरते हैं वो आहट थी हम को न उस की बात में आना था ऐ यादो तुम ऐसे क्यूँ इस वक़्त कहाँ आईं किसी मुनासिब वक़्त नए हालात में आना था

ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से

ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से ख़्वाबों की कोई दुनिया आबाद करें फिर से मुद्दत हुई जीने का एहसास नहीं होता दिल उन से तक़ाज़ा कर बेदाद करें फिर से मुजरिम के कटहरे में फिर हम को खड़ा कर दो हो रस्म-ए-कोहन ताज़ा फ़रियाद करें फिर से ऐ अहल-ए-जुनूँ देखो ज़ंजीर हुए साए हम कैसे उन्हें सोचो आज़ाद करें फिर से अब जी के बहलने की है एक यही सूरत बीती हुई कुछ बातें हम याद करें फिर से

दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूँ कितना है

दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूँ कितना है नोक-ए-ख़ंजर ही बताएगी कि ख़ूँ कितना है आँधियाँ आईं तो सब लोगों को मा'लूम हुआ परचम-ए-ख़्वाब ज़माने में निगूँ कितना है जम्अ करते रहे जो अपने को ज़र्रा ज़र्रा वो ये क्या जानें बिखरने में सुकूँ कितना है वो जो प्यासे थे समुंदर से भी प्यासे लौटे उन से पूछो कि सराबों में फ़ुसूँ कितना है एक ही मिट्टी से हम दोनों बने हैं लेकिन तुझ में और मुझ में मगर फ़ासला यूँ कितना है

तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें

तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें ज़िंदगी देखिए क्या रंग दिखाती है हमें मरकज़-ए-दीदा-ओ-दिल तेरा तसव्वुर था कभी आज इस बात पे कितनी हँसी आती है हमें फिर कहीं ख़्वाब ओ हक़ीक़त का तसादुम होगा फिर कोई मंज़िल-ए-बे-नाम बुलाती है हमें दिल में वो दर्द न आँखों में वो तुग़्यानी है जाने किस सम्त ये दुनिया लिए जाती है हमें गर्दिश-ए-वक़्त का कितना बड़ा एहसाँ है कि आज ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता किसी को क्या मुझे ख़ुद भी यक़ीं नहीं आता तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितमगर है जहाँ पे चाहिए आना वहीं नहीं आता जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे जो हो चुका है उसी पर यक़ीं नहीं आता ये मेरा दिल है कि मंज़र उजाड़ बस्ती का खुले हुए हैं सभी दर मकीं नहीं आता बिछड़ना है तो बिछड़ जा इसी दो-राहे पर कि मोड़ आगे सफ़र में कहीं नहीं आता

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता किसी को क्या मुझे ख़ुद भी यक़ीं नहीं आता तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितमगर है जहाँ पे चाहिए आना वहीं नहीं आता जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे जो हो चुका है उसी पर यक़ीं नहीं आता ये मेरा दिल है कि मंज़र उजाड़ बस्ती का खुले हुए हैं सभी दर मकीं नहीं आता बिछड़ना है तो बिछड़ जा इसी दो-राहे पर कि मोड़ आगे सफ़र में कहीं नहीं आता

दाम-ए-उल्फ़त से छूटती ही नहीं

दाम-ए-उल्फ़त से छूटती ही नहीं ज़िंदगी तुझ को भूलती ही नहीं कितने तूफ़ाँ उठाए आँखों ने नाव यादों की डूबती ही नहीं तुझ से मिलने की तुझ को पाने की कोई तदबीर सूझती ही नहीं एक मंज़िल पे रुक गई है हयात ये ज़मीं जैसे घूमती ही नहीं लोग सर फोड़ कर भी देख चुके ग़म की दीवार टूटती ही नहीं

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर थी मैं वाक़िफ़ न था बे-सबब इल्ज़ाम मैं देता रहा बरसात को कैसी बस्ती थी जहाँ पर कोई भी ऐसा न था मुन्कशिफ़ मैं जिस पे करता अपने दिल की बात को सारी दुनिया के मसाइल यूँ मुझे दरपेश हैं तेरा ग़म काफ़ी न हो जैसे गुज़र-औक़ात को

तेरी साँसें मुझ तक आते बादल हो जाएँ

तेरी साँसें मुझ तक आते बादल हो जाएँ मेरे जिस्म के सारे इलाक़े जल-थल हो जाएँ होंट-नदी सैलाब का मुझ पे दरवाज़ा खोले हम को मयस्सर ऐसे भी इक दो पल हो जाएँ दुश्मन धुँद है कब से मेरी आँखों के दरपय हिज्र की लम्बी काली रातें काजल हो जाएँ उम्र का लम्बा हिस्सा कर के दानाई के नाम हम भी अब ये सोच रहे हैं पागल हो जाएँ

दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए

दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए इस अंजुमन में आप को आना है बार बार दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिए माना कि दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास लेकिन ये क्या कि ग़ैर का एहसान लीजिए कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए

पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात

पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात यूँ बूँद बूँद उतरी हमारे घरों में रात कुछ भी दिखाई देता नहीं दूर दूर तक चुभती है सूइयों की तरह जब रगों में रात वो खुरदुरी चटानें वो दरिया वो आबशार सब कुछ समेट ले गई अपने परों में रात आँखों को सब की नींद भी दी ख़्वाब भी दिए हम को शुमार करती रही दुश्मनों में रात बे-सम्त मंज़िलों ने बुलाया है फिर हमें सन्नाटे फिर बिछाने लगी रास्तों में रात

भटक गया कि मंज़िलों का वो सुराग़ पा गया

भटक गया कि मंज़िलों का वो सुराग़ पा गया हमारे वास्ते ख़ला में रास्ता बना गया सुराही दिल की आँसुओं की ओस से भरी रही इसी लिए अज़ाब-ए-हिज्र उस को रास आ गया सराब का तिलिस्म टूटना बहुत बुरा हुआ कि आज तिश्नगी का ए'तिबार भी चला गया तमाम उम्र ख़्वाब देखने में मुंहमिक रहा और इस तरह हक़ीक़तों को वाहिमा बना गया

बहते दरियाओं में पानी की कमी देखना है

बहते दरियाओं में पानी की कमी देखना है उम्र भर मुझ को यही तिश्ना-लबी देखना है रंज दिल को है कि जी भर के नहीं देखा तुझे ख़ौफ़ इस का था जो आइंदा कभी देखना है शब की तारीकी दर-ए-ख़्वाब हमेशा को बंद चंद दिन बा'द तो दुनिया में यही देखना है ख़ून के क़तरों ने तूफ़ान उठा रक्खा है अब रग-ओ-पय में मुझे बर्फ़ जमी देखना है किस तरह रेंगने लगते हैं ये चलते हुए लोग यारो कल देखोगे या आज अभी देखना है

शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा

शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा तेज़ आँधी है मुख़ालिफ़ है हवा मान भी जा ऐसी दुनिया में जुनूँ ऐसे ज़माने में वफ़ा इस तरह ख़ुद को तमाशा न बना मान भी जा कब तलक साथ तिरा देंगे ये धुँदले साए देख नादान न बन होश में आ मान भी जा ज़िंदगी में अभी ख़ुशियाँ भी हैं रानाई भी ज़िंदगी से अभी दामन न छुड़ा मान भी जा शहर फिर शहर है याँ जी तो बहल जाता है शहर को छोड़ के सहरा को न जा मान भी जा

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है हद-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है हर एक जिस्म रूह के अज़ाब से निढाल है हर एक आँख शबनमी हर एक दिल फ़िगार है हमें तो अपने दिल की धड़कनों पे भी यक़ीं नहीं ख़ोशा वो लोग जिन को दूसरों पे ए'तिबार है न जिस का नाम है कोई न जिस की शक्ल है कोई इक ऐसी शय का क्यूँ हमें अज़ल से इंतिज़ार है

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है कल यूँ था कि ये क़ैद-ए-ज़मानी से थे बेज़ार फ़ुर्सत जिन्हें अब सैर-ए-मकानी से नहीं है चाहा तो यक़ीं आए न सच्चाई पे उस की ख़ाइफ़ कोई गुल अहद-ए-खिज़ानी से नहीं है दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है कहते हैं मिरे हक़ में सुख़न-फ़हम बस इतना शेरों में जो ख़ूबी है मुआ'नी से नहीं है

ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है

ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है साए में उस के बैठ के रोना फ़ुज़ूल है रातों से रौशनी की तलब हाए सादगी ख़्वाबों में उस की दीद की ख़ू कैसी भूल है है उन के दम-क़दम ही से कुछ आबरू-ए-ज़ीस्त दामन में जिन के दश्त-ए-तमन्ना की धूल है सूरज का क़हर सिर्फ़ बरहना सरों पे है पूछो हवस-परस्त से वो क्यूँ मलूल है आओ हवा के हाथ की तलवार चूम लें अब बुज़दिलों की फ़ौज से लड़ना फ़ुज़ूल है

ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते

ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते इक पल भी अगर भूल से हम सो गए होते ऐ शहर तिरा नाम-ओ-निशाँ भी नहीं होता जो हादसे होने थे अगर हो गए होते हर बार पलटते हुए घर को यही सोचा ऐ काश किसी लम्बे सफ़र को गए होते हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है अज्दाद कहीं पेड़ भी कुछ बो गए होते किस मुँह से कहें तुझ से समुंदर के हैं हक़दार सैराब सराबों से भी हम हो गए होते

सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का

सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का कि खेल ख़त्म हुआ कश्तियाँ डुबोने का बरहना-जिस्म बगूलों का क़त्ल होता रहा ख़याल भी नहीं आया किसी को रोने का सिला कोई नहीं परछाइयों की पूजा का मआ'ल कुछ नहीं ख़्वाबों की फ़स्ल बोने का बिछड़ के तुझ से मुझे ये गुमान होता है कि मेरी आँखें हैं पत्थर की जिस्म सोने का हुजूम देखता हूँ जब तो काँप उठता हूँ अगरचे ख़ौफ़ नहीं अब किसी के खोने का गए थे लोग तो दीवार-ए-क़हक़हा की तरफ़ मगर ये शोर मुसलसल है कैसा रोने का मिरे वजूद पे नफ़रत की गर्द जमती रही मिला न वक़्त उसे आँसुओं से धोने का

हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है

हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है यहाँ का सारा इलाक़ा तो आसमान का है हमें निकलना पड़ा रात के जज़ीरे से ख़तर अगरचे इस इक फ़ैसले में जान का है ख़बर नहीं है कि दरिया में कश्ती-ए-जाँ है मुआहिदा जो हवाओं से बादबान का है तमाम शहर पर ख़ामोशियाँ मुसल्लत हैं लबों को खोलो कि ये वक़्त इम्तिहान का है कहा है उस ने तो गुज़रेगा जिस्म से हो कर यक़ीन यूँ है वो पक्का बहुत ज़बान का है

हज़ार बार मिटी और पाएमाल हुई है

हज़ार बार मिटी और पाएमाल हुई है हमारी ज़िंदगी तब जा के बे-मिसाल हुई है इसी सबब से तो परछाईं अपने साथ नहीं है सऊबत-ए-सफ़र-ए-शौक़ से निढाल हुई है सुकून फिर भी तो वहशत-सरा-ए-दिल में नहीं है निगाह-ए-यार अगरचे शरीक-ए-हाल हुई है ख़ुशी के लम्हे तो जूँ-तूँ गुज़र गए हैं यहाँ पर बस एक साअत-ए-ग़म काटनी मुहाल हुई है लकीर नूर की जो आसमान-ए-दिल पे बनी है अँधेरी रात का हमला हुआ तो ढाल हुई है

हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई

हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई दिल ओ निगाह की साज़िश थी कामयाब हुई तुम्हारी हिज्र-नवाज़ी पे हर्फ़ आएगा हमारी मूनिस ओ हमदम अगर शराब हुई यहाँ तो ज़ख़्म के पहरे बिठाए थे हम ने शमीम-ए-ज़ुल्फ़ यहाँ कैसे बारयाब हुई हमारे नाम पे गर उँगलियाँ उठीं तो क्या तुम्हारी मदह-ओ-सताइश तो बे-हिसाब हुई हज़ार पुर्सिश-ए-ग़म की मगर न अश्क बहे सबा ने ज़ब्त ये देखा तो ला-जवाब हुई
नज़्में

ख़्वाब

मेरे लिए रात ने आज फ़राहम किया एक नया मरहला नींदों से ख़ाली किया अश्कों से फिर भर दिया कासा मिरी आँख का और कहा कान में मैं ने हर इक जुर्म से तुम को बरी कर दिया मैं ने सदा के लिए तुम को रिहा कर दिया जाओ जिधर चाहो तुम जागो कि सो जाओ तुम ख़्वाब का दर बंद है

एक और सालगिरह

लो तीसवां साल भी बीत गया लो बाल रुपहली होने लगे लो कासा-ए-चश्म हुआ ख़ाली लो दिल में नहीं अब दर्द कोई ये तीस बरस कैसे काटे ये तीस बरस कैसे गुज़रे आसान सवाल है कितना ये! मालूम है मुझ को ये दुनिया किस तरह वजूद में आई है किस तरह फ़ना होगी इक दिन मालूम है मुझ को इंसाँ ने किस तरह से की तख़्लीक़-ए-ख़ुदा किस तरह बुतों को पैदा किया मालूम है मुझ को मैं क्या हूँ किस वास्ते अब तक ज़िंदा हूँ इक उस के जवाब का इल्म नहीं ये तीस बरस कैसे काटे हाँ याद है इतना में इक दिन टॉफ़ी के लिए रोया था बहुत अम्माँ ने मुझे पीटा था बहुत हाँ याद है इतना मैं इक दिन तितली का तआक़ुब करते हुए इक पेड़ से जा टकराया था हाँ इतना याद है मैं इक दिन नींदों के दयार में सपनों की परियों से लिपट कर सोया था हाँ इतना याद है मैं इक दिन घर वालों से अपने लड़-भिड़ के तोड़ आया था सब रिश्ते-नाते हाँ इतना याद है मैं इक दिन जब बहुत दुखी था तन्हा था इक जिस्म की आग में पिघला था हाँ ये भी याद है मैं इक दिन सच बोल के पछताया था बहुत अपने से भी शरमाया था बहुत हाँ ये भी याद है मुझ को कि मैं जब बहुत ही बे-कल होता था अशआर भी लिक्खा करता था हाँ ये भी याद है मुझ को कि मैं रोटी रोज़ी की तमन्ना में बड़ा ख़्वार हुआ इस दुनिया में हाँ और भी कुछ है याद मुझे मगर इस का जवाब कहाँ ये सब ये तीस बरस कैसे गुज़रे ये तीस बरस कैसे काटे अब इस के जवाब से क्या होगा चलो उठो कि सुब्ह हुई देखो चलो उठो कि अपना काम करें चलो उठो कि शहर-ए-तमन्ना में मरहम ढूँडें उन ज़ख़्मों का जो दिल ने अभी तक खाए नहीं ताबीर करें उन ख़्वाबों की जो आँखों ने दिखलाए नहीं उन लम्हों के हमराज़ बनें जो ज़ीस्त में अपनी आए नहीं चलो तीसवां साल भी बीत गया चलो मय छलकाएँ जश्न करें चलो सर को झुकाएँ सज्दे में इस उम्र-ए-फ़रोमाया का सफ़र आधे से ज़ियादा ख़त्म हुआ

एक नज़्म

माइल-ब-करम हैं रातें आँखों से कहो अब माँगें ख़्वाबों के सिवा जो चाहें

एक मंज़र

नींद की सोई हुई ख़ामोश गलियों को जगाते गुनगुनाते मिशअलें पलकों पे अश्कों की जलाए चंद साए फिर रहे थे रात जब हम ख़्वाब की दुनिया से वापस आ रहे थे

अब के बरस

हवा का तआक़ुब कभी चाँद की चाँदनी को पकड़ने की ख़्वाहिश कभी सुब्ह के होंट छूने की हसरत कभी रात की ज़ुल्फ़ को गूँधने की तमन्ना कभी जिस्म के क़हर की मद्‌ह-ख्वानी कभी रूह की बे-कसी की कहानी कभी जागने की हवस को जगाना कभी नींद के बंद दरवाज़े को खटखटाना कभी सिर्फ़ आँखें ही आँखें हैं और कुछ नहीं है कभी कान हैं हाथ हैं और ज़बाँ है कभी सिर्फ़ लब हैं दिलों के धड़कने के अंदाज़ अब के बरस कुछ अजब हैं

आरज़ू

सोते सोते चौंक उठी जब पलकों की झंकार आबादी पर वीराने का होने लगा गुमान वहशत ने पर खोल दिए और धुँदले हुए निशान हर लम्हे की आहट बन गई साँपों की फुन्कार ऐसे वक़्त में दिल को हमेशा सूझा एक उपाए काश कोई बे-ख़्वाब दरीचा चुपके से खुल जाए

पहले सफ़्हे की पहली सुर्ख़ी

हिमालिया की बुलंद चोटी पे बर्फ़ के एक सुबुक मकाँ में बुझी हुई मिश्अलों का जल्सा अज़ीम और आलमी मसाइल पे एक हफ़्ते से हो रहा है सिफ़्र तलक दर्जा-ए-हरारत पहुँच चुका है मज़ीद तफ़्सील राज़ में है

नया अमृत

दवाओं की अलमारियों से सजी इक दुकाँ में मरीज़ों के अम्बोह में मुज़्महिल सा इक इंसाँ खड़ा है जो इक नीली कुबड़ी सी शीशी के सीने पे लिक्खे हुए एक इक हर्फ़ को ग़ौर से पढ़ रहा है मगर उस पे तो ''ज़हर'' लिख्खा हुआ है उस इंसान को क्या मरज़ है ये कैसी दवा है?

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