मेरा सफ़र : अली सरदार जाफ़री

Mera Safar : Ali Sardar Jafri



तराना-ए-उर्दू

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारे नग़्मों की जान उर्दू हसीन दिलकश जवान उर्दू यह वह ज़बाँ है कि जिसको गंगा के जल से पाकीज़गी मिली है अवध की ठण्डी हवा के झोंकों में जिसके दिल की कली खिली है जो शे’रो-नग़मा के खुल्दज़ारों मे आज कोयल-सी कूकती है हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारे नग़्मों की जान उर्दू हसीन दिलकश जवान उर्दू इसी ज़बाँ में हमारे बचपन ने माँओं से लोरियाँ सुनी हैं जवान होकर इसी ज़बाँ में कहानियाँ इश्क़ ने कही हैं इसी ज़बाँ के चमकते हीरों से इल्म की झोलियाँ भरी हैं हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारे नग़्मों की जान उर्दू हसीन दिलकश जवान उर्दू यह वह ज़बाँ है कि जिसने ज़िन्दाँ की तीरगी में दिये जलाये यह वह ज़बाँ है कि जिसके शो’लों से जल गये फाँसियों के साये फ़राज़े-दारो-रसन से भी हमने सरफ़रोशी के गीत गाये हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारे नग़्मों की जान उर्दू हसीन दिलकश जवान उर्दू चले हैं गंगो-जमन की वादी से हम हवाए-बहार बनकर हिमालया से उतर रहे हैं तरान-ए-आबशार बनकर रवाँ हैं हिन्दोस्ताँ की रग-रग में ख़ून की सुर्ख़ घार बनकर हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारे नग़्मों की जान उर्दू हसीन दिलकश जवान उर्दू

हाथों का तराना

इन हाथों की ताज़ीम करो इन हाथों की तकरीम करो दुनिया को चलाने वाले हैं इन हाथों को तस्लीम करो तारीख़ के और मशीनों के, पहियों की रवानी इनसे है तहज़ीब की और तमद्दुन की, भरपूर जवानी इनसे है दुनिया का फ़साना इनसे है, इन्साँ की कहानी इनसे है इन हाथों की ताज़ीम करो सदियों से गुज़र कर आये हैं, ये नेक और बद को जानते हैं ये दोस्त हैं सारे आलम के, पर दुश्मन को पहचानते हैं खुद शक्ति का अवतार हैं ये, कब गैर की शक्ति मानते हैं इन हाथों की ताज़ीम करो है ज़ख़्म हमारे हाथों के, ये फूल जो हैं गुलदानों में सूखे हुए प्यासे चुल्लू थे, जो जाम हैं अब मयख़ानों में टूटी हुई सौ अँगडा़इयों की, मेहराबें हैं ऐवानों में इन हाथों की ताज़ीम करो राहों की सुनहरी रौशनियाँ, बिजली के जो फैले दामन हैं फ़ानूस हसीं ऐवानों के, जो रंग और नूर के ख़िरमन हैं ये हाथ हमारे जलते हैं, यह हाथ हमारे रौशन हैं इन हाथों की ताज़ीम करो खा़मोश हैं ये, खा़मोशी से, सौ बर्बत-ओ-चंग बनाते हैं तारों में राग सुलाते हैं, तबलों में बोल छुपाते हैं जब साज़ में जुम्बिश होती है, तब हाथ हमारे गाते हैं इन हाथों की ताज़ीम करो एजाज़ है ये इन हाथों का, रेशम को छुएँ तो आँचल है पत्थर को छुएँ तो बुत कर दें, कालिख को छुएँ तो काजल है मिट्टी को छुएँ तो सोना है, चाँदी को छुएँ तो पायल है इन हाथों की ताज़ीम करो बहती हुई बिजली की लहरें, सिमटे हुए गंगा के धारे धरती के मुक़द्दर के मालिक, मेहनत के उफ़क के सय्यारे यह चारागराने-दर्दे-जहाँ, सदियों से मगर ख़ुद बेचारे इन हाथों की ताज़ीम करो तख़्लीक़ यह सोज़े-मेहनत की, और फ़ितरत के शहकार भी हैं मैदाने-अमल में लेकिन खु़द, ये खा़लिक़ भी मे’मार भी हैं फूलों से भरे ये शाख़ भी हैं और चलती हुई तलवार भी हैं इन हाथों की ताज़ीम करो ये हाथ न हों तो मुहमल सब, तहरीरें और तक़रीरें हैं ये हाथ न हों तो बेमानी, इन्सानों की तक़दीरें हैं सब हिकमतो-दानिश, इल्मो-हुनर, इन हाथों की तफ़सीरें हैं इन हाथों की ताज़ीम करो ये कितने सबुक और नाज़ुक हैं, ये कितने सुडौल और अच्छे हैं चालाकी में उस्ताद हैं ये, और भोलेपन में बच्चे हैं इस झुठ की गन्दी दुनिया में, बस हाथ हमारे सच्चे हैं इन हाथों की ताज़ीम करो यह सरहद-सरहद जुड़ते हैं और मुल्कों-मुल्कों जाते हैं बाँहों में बाँहें डालते हैं और दिल को दिल से मिलाते हैं फिर ज़ुल्मो-सितम के पैरों की ज़ंजीरे-गराँ बन जाते हैं इन हाथों की ताज़ीम करो

एशिया जाग उठा

1. यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है यहीं पे सूरज ने आँख खोली यहीं पे इन्सानियत की पहली सहर ने रूख़ से नका़ब उलटा यहीं से अगले युगों की शम्‌ओं ने इल्म-ओ-हिकमत का नूर पाया इसी बलन्दी से वेद ने ज़मज़मे सुनाये यहीं से गौतम ने आदमी की समानता का सबक़ पढा़या हमारी तारीख़ की हवाएँ मसीह के बोल सुन चुकी है हमारा सूरज मुहम्मदे-मुस्तफ़ा के सर पर चमक चुका है और अब हमारे क़दीम आकाश के सितारे क़दीम आँखों से एशिया की नयी जवानी को देखते हैं यह खा़क वह खा़क है कि जिसने सुनहरे गेहूँ के मोतियों को जनम दिया है यह खा़क इतनी क़दीम जितनी क़दीम इन्साँ की दास्तानें अज़ीम इतनी अज़ीम जितनी हिमालया की बलन्दियाँ हैं हसीन इतनी हसीन जितनी हसीं अजन्ता की अप्सराएँ यह अपनी फ़ैयाज़ियों में दरयाए-नील-ओ-गंगा से कम नहीं है यह गोद बच्चों से और फूलों से और फलों से भरी हुई है। हमारा विरसा मोहनजोदाडो़ से लेके दीवारे-चीन तक है हमारी तारीख़ ताज और सीकरी से अहरामे-मिस्र तक है हमें रिवायात के ख़्ज़ानों से बाविलो-नीनवा मिले हैं फ़साहतों ने हमारे बचपन के होंट चूमे बलाग़तों ने बडी़ हसीं लोरियाँ सुनायीं ज़बान खोली तो वेद, इंजील और क़ुर्‌आन बन के बोले हमारी तख़ईल आसमानों की उस बलन्दी को छू चुकी है जहाँ से फ़िरदौसी और सा’दी निज़ामी, ख़ैयाम और हाफ़िज़ के चाँद सूरज चमक रहे हैं बलन्दियाँ जिन पे वाल्मीक और पाक तुलसी कबीर और सूर हुक्मराँ हैं उन्हीं फ़ज़ाओं की बिजलियाँ हैं जो साज़े-इक़बाल और टैगोर के तरानों में गूँजती हैं 2. गुज़र चुके हैं हमारे सर से हज़ारों सालों के तुन्द तूफ़ां मुसीबतों की हवाएँ, जुल्मो-सितम की आँधी मगर यह अनमोल खा़क फिर भी हसीन फिर भी जवाँ रही है हमारे रुस्तुम हमारे अर्जुन मरे नहीं हैं वह जंगलों और पहाड़ियों में ज़मीन पर काश्त कर रहे हैं हमारे फ़रहाद भी तीशे चला रहे हैं जवान लैला, हसीन शीरीं, कुँवारी हीर अब भी गा रही हैं शकुंतलाएँ घनेरे पेड़ों के सब्ज़ साये में नाचती हैं हम एशिया के अवाम सूरज की तरह डूबे हैं और उभरे दुखों की अग्नि में तप के निखरे हमारी आँखों के आगे कितनी सियाह सदियों की साँस टूटी न जाने कितने बलन्द परचम हमारी नज़रों के सामने सरनिगूँ हुए हैं उलटते देखे हैं ताज हमने हमारे सीने से जाने कितने रथों के पहिये गुज़र चुके हैं मगर हम इस भूक, क़त्ल, इफ़लास के अंधेरे हवादिसे-रोज़गार के तुन्दो-तेज़ शो’लों में अनगिनत जन्म ले चुके हैं हम अपनी धरती की कोख में बीज की तरह दफ़्न हो गये थे मगर नयी सुबह की हवा में बहार की कोंपलों में तब्दील होके बाहर निकल पडे़ यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है जबीं पे तारों का ताज, पैरों में झाग की झाँझनों का नग़मा ज़मीन-सदियों पुराने हाथों में अपने लकडी़ के हल सँभाले गरीब मज़दूर, जलती आँखें उचाट नींदों की तल्ख़ रातें थके हुए हाथ, भाप का ज़ोर, गर्म फ़ौलाद की रवानी जहाज़, मल्लाह, गीत, तूफ़ाँ कुम्हार, लोहार, चाक, बरतन ग्वालनें दूध में नहायी अलावों के गिर्द बूढ़े अफ़साना-गो, कहानी जवान माँओं की गोद में नन्हे-नन्हे बच्चों के भोले चेहरे लहकते मैदान, गायें, भैंसें फ़ज़ाओं में बाँसुरी का लहरा हरी-भरी खेतियों में शीशे की चूड़ियाँ खनखना रही हैं उदास सहरा पयम्बरों की तरह से खा़मोश और गम्भीर खजूर के पेड़ बाल खोले दफ़ों की आवाज़ ढोलकों की गमक समन्दर के क़हक़हे नारियल के पेड़ों की सर्द आहें सितार के तार से बरसते हुए सितारे अनार के फूल, आम का बौर, सेबो-बादाम के शुगूफ़े कोठार, खलियान, खाद के ढेर, कुँवारी पगडण्डियों की गर्दिश बलन्द बाँसों के झुण्ड हँसती धनक के नीचे घनेरे जंगल पठार, मैदान, रेगज़ारों के गर्म सीने गुफ़ाएँ जन्नत की तरह ठण्डी समन्दरों में कँवल के फूलों की तरह रखे हुए जज़ीरे चमकते मूँगों की मुस्कराहट वो सीपियों की हँसी, वह सन्थाल लड़कियों के चमकते दाँतों की तरह मोती वो मछलियाँ गोश्त से भरी कश्तियाँ जो पिघली सफ़ेद चाँदनी में तैरती हैं वो लम्बी-लम्बी हसीन नदियाँ जो अपनी मौजों से साहिलों के लरज़ते होंटों को चूमती हैं दुल्हन बनी वादियों की नाज़ुक कमर में झरनों के नर्म हल्के़ पहाडि़यों की हथेलियों पर धरे हुए नीलगूँ कटोरे सितारे मुँह देखते हैं झीलों के आईने में हिमालया के गले में गंगा की और जमुना की शोख़ बाँहें पहाड़ की आँधियों के माथों पे बर्फ़ के नीलगूँ दुपट्टे बलन्दियों पर ख़फ़ीफ़-सा इर्तिआ़श हलकी-सी रागिनी का यह एशिया है, जवान, शादाब और धनवान एशिया है कि जिसके निर्धन ग़रीब बच्चों को भूक के नाग डस रहे हैं वो होंट जो माँ के दूध के बाद फिर न वाकि़फ़ हुए कभी दूध के मज़े से ज़बानें ऐसी जिन्होंने चक्खा नहीं है, गेहूँ की रोटियों को वह पीठ जिसने सफ़ेद कपडा़ छुआ नहीं है वो उँगलियाँ जो किताब से मस नहीं हुई हैं वो पैर जो बूट और स्लीपर की शक्ल पहचानते नहीं हैं वो सर जो तकियों की नर्म लज़्ज़त से बेख़बर हैं वो पेट जो भूक ही को भोजन समझ रहे हैं ये नादिरे-रोज़गार इंसाँ तुम्हें फ़क़त एशिया की जन्नत ही में मिलेंगे जो तीन सौ साल के ‘तमद्दुन’ के बाद भी ‘जानवर’रहे हैं कहाँ हो ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की रौशनी लेके आनेवालो तुम्हारी ‘तहज़ीब’ की नुमाइश है एशिया में कहीं ज़माने में इस क़दर दर्दनाक चेहरे नहीं मिलेंगे तुम्हारी शाहाना यादगारों से एशिया का हर-एक कोना भरा हुआ है कहीं पे मेहराबे-फ़त्‌ह बाँधी कहीं रुऊ़नत की लाट उठाई कहीं पे काँसे के घोडे़ ढाले कहीं पे पत्थर के बुत बनाए मगर यह ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की य़ादगारें कहीं नहीं हैं बुलाओ अपने मुसव्विरों और बुतगरों को कहो कि इन दर्दनाक चेहरों से एक-इक म्यूज़ियम सजा दें तुम्हारे कारे-अज़ीम को जाविदाँ बना दें अब एशिया की ज़मीं पे हाथों का एक जंगल उगा हुआ है यह संगे-मरमर की, संगे-अस्वद की मुट्ठियाँ हैं कँवल की कलियाँ, कपास के फूल, बम के और नारियल के गोले कहाँ है ऐ नौ-अरूसे-सुब्‌हे-बहार आजा हमारी बेताब मुट्ठियों में शफ़क़ का सिन्दूर चांद तारों के फूल सिरनों की सुर्ख़ अफ़साँ भरी हुई है।

अवध की ख़ाके-हसीं

गुज़रते बरसात आते जाड़ों के नर्म लम्हे हवाओं में तितलियों के मानिन्द उड़ रहे हैं मैं अपने सीने में दिल की आवाज़ सुन रहा हूँ रगों के अन्दर लहू की बूँदें मचल रही हैं मिरे तसव्वुर के ज़ख़्म-ख़ुर्दा उफ़क से यादों के कारवाँ यूँ गुज़र रहे हैं कि जैसे तारीक शब के तारीक आसमाँ से चमकते तारों के मुस्कराते हुजूम गुज़रें मैं क़ैदखा़ने में इश्क़े-पेचाँ की सब्ज़ बेलों को ढूँढ़ता हूँ जो फैल जाती हैं अपने फूलों के नन्हे-नन्हे चिराग़ लेकर कहाँ है वो दिल-नवाज़ बाँहें वह शाख़े-सन्दल कि जिस पर अँगडा़इयों ने अपने हसीं नशेमन बना लिये हैं मैं अपनी माँ के सफ़ेद आँचल की छाँव को याद कर रहा हूँ मेरी बहन ने मुझे लिखा है नदी के पानी में बेर की झाड़ियाँ अभी तक नहा रही हैं पपीहे रुख़सत नहीं हुए हैं अभी वो अपनी सुरीली आवाज़ से दिलों को लुभा रहे हैं मैं रात के वक़्त अपने ख़्वाबों में चौंक पड़ता हूँ जैसे मुझको अवध की मिट्टी बुला रही है हसीन झीलें कँवल के फूलों की चादरों में ढँकी हुई हैं फ़ज़ाओं में मेघदूत परवाज़ कर रहे हैं न जाने कितनी महब्बतों के पयाम लेकर घटाओं की अप्सराएँ अपनी घनेरी ज़ुल्फ़ों में आख़िरी बार मुस्करा कर ख़लीजे-बंगाल और बह्रे-अरब के मोती पिरो रही हैं हरे परों और नीले फूलों के मोर ख़ुश हो के नाचते हैं क़दीम गंगा का पाक पानी ज़मीं के दामन को धो रहा है वो खेतियाँ धान से भरी हैं जहाँ हवाएँ अज़ल के दिन से सितार अपने बजा रही हैं हिमालय की बुलन्दियाँ बर्फ़ से ढकी हैं उन आसमाँ-बोस चोटियों को सहर के सूरज ने सात रंगों की कल्ग़ियों से सजा दिया है शफ़क़ की सुर्ख़ी में मेरी बहनों की मुस्कराहट घुली हुई है मिरे तसव्वुर में साक़ियों का ख़िरामे-रंगीन न जामो-मीना की गर्दिशें हैं न मयकदे हैं न शोरिशें हैं मैं छोटे-छोटे घरों की छोटी-सी ज़िन्दगी में घिरा हुआ हूँ अँधेरे क़स्बों को याद करके तड़प रहा हूँ वो जिनकी गलियों में मेरे बचपन की यादें अब तक भटक रही हैं जहाँ के बच्चे पुराने कपड़ों की मैली गुड़ियों से खेलते हैं वो गाँव जो सैकड़ों बरस से बसे हुए हैं किसानों के झोंपड़ों पर तरकारियों की बेलें चढ़ी हुई हैं पुराने पीपल की जड़ में पत्थर के देवता बेख़बर पड़े हैं क़दीम बरगद के पेड़ अपनी जटाएँ खोले हुए खड़े हैं ये सीधे-सादे ग़रीब इन्सान नेकियों के मुजस्समे हैं ये मेहनतों के ख़ुदा ये तख़लीक़ के पयम्बर जो अपने हाथों के खुरदुरेपन से ज़िन्दगी को सँवारते हैं लोहार के घन के नीचे लोहे की शक्ल तब्दील हो रही है कुम्हार का चाक चल रहा है सुराहियाँ रक़्स कर रही हैं सफ़ेद आटा सियाह चक्की से राग बनकर निकल रहा है सुनहरे चूल्हों में आग के फूल खिल रहे हैं पतीलियाँ गुनगुना रही हैं धुएँ से काले तवे भी चिन्गारियों के होंटों से हँस रहे हैं दुपट्टे आँगन में डोरियों पर टँगे हुए हैं और उनके आँचल से धानी बूँदें टपक रही हैं सुनहरी पगडण्डियों के दिल पर सियाह लहँगों की सुर्ख़ गोटें मचल रही हैं यह सादगी किस क़दर हसीं है मैं जेल में बैठे-बैठे अकसर यह सोचता हूँ जो हो सके तो अवध की प्यारी ज़मीन को गोद में उठा लूँ और उसकी शादाब लहलहाती हुई जबीं को हज़ारों बोसों से जगमगा दूँ मैं अपने बचपन के साथियों की गरजती आवाज़ सुन रहा हूँ वो कारख़ानों के सामने इन्क़िलाब बनकर खड़े हुए हैं वो खेतियों में बहार बनकर रवाँ-दवाँ हैं अँधेरी कानों की तीरगी में वो नूर बनकर उतर रहे हैं ज़मीं के सीने पे काश्तकारों की लाठियों के हज़ारों जंगल उगे हुए हैं कुदालें खेतों की पासबाँ हैं, दरातियाँ जगमगा रही हैं ग़रीब सीता के घर पे कब तक रहेगी रावण की हुक़्मरानी द्रौपदी का लिबास उसके बदन से कब तक छिना करेगा शकुन्तला कब तक अन्धी तक़दीर के भँवर में फँसी रहेगी यह लखनऊ की शिगुफ़्तगी मक़बरों में कब तक दबी रहेगी सरों के ऊपर मुसीबतों के पहाड़ कब तक गिरा करेंगे ख़बासतें कब तलक अहिंसा का रूप धारे फिरा करेंगी किसान जो अपनी धरती पे जानवर की तरह झुके हैं वो जिनकी पीठों पे भारी ईंटें लदी हुई हैं जो कच्चे चमड़े के सख़्त जूतों से पिट रहे हैं ये जिस्म जो कारख़ानेदारों की भट्ठियों मे उबल रहे हैं ये हाथ लोहे के दाँत जिनको चबा रहे हैं ये ख़ून जो नफ़ाख़ोर बनियों की थैलियों में खनक रहा है ये औरतें जिनके हाथ पीछे बँधे हुए हैं जो ऊँचे पेड़ों पे अपने बालों की फाँसियों में लटक रही हैं यह काँपती मुफ़लिसी जो आयी है छातियों का लगान लेकर ये नन्हे बच्चे जो मालिकों के मवेशियों को चरा रहे हैं जो खेत मज़दूर भूके रहकर ज़मीं से गेहूँ उगा रहे हैं ये अपने सीने की आग कब तक दबा सकेंगे ये अपनी नफ़रत का ज़हर कब तक छुपा सकेंगे ये ज़ख़्म कब तक हरे रहेंगे अवध की ख़ाके-हसीं के ज़र्रे बगूले बनकर मचल रहे हैं अब आँसुओं की पुरानी झीलों से सुर्ख़ शोले उबल रहे हैं ग़मों की भारी सिलें दिलों से सरक रही हैं शुजाअतें गोफनों को लेकर निकल रही है झुके हुए सर उभरते सूरज की शानो-शौकत से उठ रहे हैं यह सूरमाओं की सरज़मीं है यह आसमाने-ख़मोश तूफ़ाने-बर्क़ो-बाराँ का आसमाँ है यह मुस्कराती हुई फ़ज़ा सुर्ख़ आँधियों से भरी हुई है यहाँ का एक-एक चप्पा लाखों बग़ावतों से बसा हुआ है बग़ावतें जो हर-इक शहनशाहियत की चूलें हिला चुकी हैं बग़ावतें जो साम्राज को बलन्दियों से गिरा चुकी हैं बग़ावतें जो फ़िरंगियों के दिलों पे हैबत बिठा चुकी है यही पुरानी बग़ावतें फिर नये सिरे से जवाँ हुई हैं मिरे वतन की ज़मी को नापाक करने वालो मैं उन पुरानी-नयी अवामी बग़ावतों ही का तरजुमाँ हूँ मैं अपने अहले-वतन के एहसास और जज़्बात की ज़बाँ हूँ अवध की ख़ाके-हसीं के ज़र्रो जो सैंकड़ों मील दूर से उड़के मेरे ख़्वाबों में आ गये हो मिरे वतन की ज़मीं से मेरा सलाम कहना उसे बताना कि मेरे होंठों पे संगो-आहन की सर्द मुहरें लगी हुई हैं वह काला क़ानून एक दीवार बनके रस्ते में आ गया है जिसे अहिंसा का नाम लेकर पुजारियों ने खड़ा किया है मगर यह दीवार रोक सकती नहीं हैं मुझको उबलते ज्वालामुखी को कोई दबा सका है? मैं आज मजबूर हूँ तो क्या है वतन से कुछ दूर हूँ तो क्या है मगर मैं उसके जुजाहिदों की सफ़ों से बाहर नहीं गया हूँ

पत्थर की दीवार

क्या कहूँ भयानक है या हसीं है यह मंज़र ख़्वाब है कि बेदारी कुछ पता नहीं चलता फूल भी है साये भी खा़क भी है पानी भी आदमी भी मेहनत भी गीत भी हैं आँसू भी फिर भी एक ख़ामोशी रूहो-दिल की तनहाई इक तवील सन्नाटा जैसे साँप लहराये माहो-साल आते हैं और दिन निकलते हैं जैसे दिल की बस्ती से अजनबी गुज़र जाए चीख़ती हुई घडि़याँ ज़ख्म-ख़ुर्दा ताइर हैं नर्मरौ सबुक लमहे मुंजमिद सितारे हैं रेंगती हैं तारीख़ें रोज़ो-शब की राहों पर ढँढ़ते हैं चश्मो-दिल नक़्शे-पा नहीं मिलते ज़िन्दगी के गुलदस्ते ज़ेबे-ताके़-निस्याँ हैं पत्तियों की पलकों पर ओस जगमाती है इमलियों के पेडो़ पर घूप पर सुखाती है आफ़ताब हाँसता है मुस्कराते हैं तारे चाँद के कटोरे से चाँदनी छलकती है जेल की फ़ज़ाओं में फिर भी इक अँधेरा है जैसे रेत में गिर कर दूध जज़्ब हो जाए रौशनी के गालों पर तीरगी के नाख़ुन की सैकड़ों ख़राशें हैं पत्थर की दीवारें बारिकों की तामीरें अज़दहों के पैकर हैं जो नये असीरों को रात-दिन निगलते हैं उनके पेट की दोज़ख़ कोई भर नहीं सकता पत्थर की दीवारें भूक का भयानक रूप चक्कियों के भद्दे राग रोटियों के दाँतों में रेत और कंकर हैं दाल के पियालों में ज़र्द-ज़र्द पानी है चावलों की सूरत पर मुफ़लिसी बरसती है सब्ज़ियों के ज़ख़्मों से पीप-सी टपकती है पत्थर की दीवारें दर्दो-ग़म के परों में आँसुओं की ज़ंजीरें बेबसी की महफ़िल में हसरतों की तक़रीरें रस्सियों की गाँठों में बाज़ुओं की गोलाई नींम-जान क़दमों में बेड़ियों की शहनाई हथकड़ी के हल्कों में हाथ कसमसाते हैं फाँसियों के फन्दों में गरदनें तड़पती हैं पत्थर की दीवारें जो कभी नहीं रोतीं जो कभी नहीं हँसतीं उनके सख़्त चेहरे पर रंग है न गा़ज़ा है खुरदरे लबों पर सिर्फ़ बेहिसी की मुहरें हैं पत्थर की दीवारें पत्थरों के फ़र्श और छत पत्थरों की मेहराबें पत्थरों की पेशानी पत्थरों की आँखें हैं पत्थरों के दरवाज़े पत्थरों की अँगड़ाई पत्थरों के पंजों में आहनी सलाख़ें हैं और इन सलाख़ों में हसरतें तमन्नाएँ आरज़ुएँ उम्मीदें ख़्वाब और ताबीरें अश्क फूल और शबनम चाँद की जवाँ नज़रें धूप की सुनहरी ज़ुल्फ़ बादलों की परछाई सुब्‌हो-शाम की परियाँ मौसमों की लैलाएँ सूलियों पे चढ़ती हैं और इस अँधेरे में सूलियों के साये में इन्क़िलाब पलता है तीरगी के काँटों पर आफ़ताब चलता है पत्थरों के सीने से सुर्ख हाथ उगते हैं हाथ हैं कि तलवारें रात के अँधेरे में जैसे शम्‌अ़ जलती है उँगलियाँ फिरोज़ाँ हैं बारिकों के कोनों से साजिशें निकलती हैं ख़ामुशी की नब्ज़ों में घण्टियाँ-सी बजती हैं जाने कैसे क़ैदी हैं किस जहाँ से आये हैं नाख़ुनों में कीलें हैं हड्डियाँ शिकस्ता हैं नौजवान जिस्मों पर पैरहन हैं ज़ख्मों के जगमगाते माथों पर ख़ून की लकीरें हैं अश्क आग के क़तरे साँस तुन्द आँधी है बात है कि तूफ़ाँ है अबरुओं की जुम्बिश में अ़ज़्म मुस्कराते हैं और निगह की लरज़िश में हौसले मचलते हैं त्योरियों की शिकनों में नक़्शे-पा बग़ावत के जितना ज़ुल्म सहते हैं और मुस्कराते हैं जितना दुःख उठाते हैं और गीत गाते हैं जब्र और बढ़ता है ज़ह्र और चढ़ता है ज़ालिमों की शिद्दत पर ज़ुल्म चीख़ उठता है। उनके लब नहीं हिलते उनके सर नहीं झुकते दिल से आह के बदले इक सदा निकलती है ‘इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद’ ख़ाके-पाक के बेटे खेतियों के रखवाले हाथ कारख़ानों के इन्क़िलाब के शहपर कोहसार के शाहीं पत्थरों की कोरों पर आँधियों की राहों पर बिजलियों की बारिश में गोलियों के तूफ़ाँ में सर उठाये बैठे हैं इन्क़िलाब-सामाँ है हिन्द की फ़ज़ा सारी नज़्‌अ़ के है आलम में यह निज़ामे-ज़रदारी वक़्त के महल में है जश्ने-नौ की तैयारी जश्ने-आम जुम्हूरी इक़्तिदारे-मज़दूरी ग़र्के़-आतिशो-आहन बेबसी-ओ-मजबूरी मुफ़लिसी-ओ-नादारी तीरगी के बादल से जुगनुओं की बारिश है रक़्स में शरारे हैं हर तरफ़ अँधेरा है और इस अँधेरे में हर तरफ़ शरारे हैं कोई कह नहीं सकता कौन-सा शरारा कब बेक़रार हो जाए शो’लाबार हो जाए इन्क़िलाब आ जाए

तुम्हारी आँखें

तुम्हारी आँखें हसीन, शफ़्फ़ाफ़, मुस्कराती, जवान आँखें लरज़ती पलकों की चिलमनों में शहाबी चेहरे पे अबरुओं की कमाँ के नीचे तुम्हारी आँखें वो जिनकी नज़रों के ठण्डे साये में मेरी उल्फ़त मिरी जवानी की रात परवान चढ़ रही थी तुम्हारी आँखें अँधेरी रातों में जो सितारों की रौशनी से फ़ज़ाए-ज़िंदाँ में झाँकती हैं मैं लिख रहा हूँ तुम्हारी आँखें सफेद कागज़ पे अपनी पलकों से चल रही हैं मै पढ़ रहा हूँ तुम्हारी आँखें हर इस सत्‌र की भौओं के नीचे लरज़ रही हैं मै सो रहा हूँ तुम्हारी आँखें तुम्हारी पलकें कहानियाँ सी सुना रही हैं मैं दोस्तों और साथियों में घिरा हुआ हूँ मसर्रतों के गुलाब हर सिम्त खिल रहे हैं तुम्हारी आँखों के फूल गोया महक रहे हैं मुझे गिरिफ़्तार करके जब जेल ला रहे थे पुलिस वाले तुम अपने बिस्तर से अपने दिल के अधूरे ख़्वाबों को लेके बेदार हो गई थीं तुम्हारी पलकों से नींद अब भी टपक रही थी मगर निगाहों में नफ़रतों के अज़ीम शोले भड़क उठे थे तुम्हारी आँखें हिक़ारतों के जहन्नमों को जगा रही थीं निज़ामे-ज़ुल्मो-सितम पे बिजली गिरा रही थी मिरी महब्बत ने अपनी जन्नत का हुस्न देखा तुम्हारी आँखें पे मेरी नज़रों के प्यार बरसे मिरी उम्मीदों, मिरी तमन्नाओं ने सदा दी यह नफ़रतों की अज़ीम मश्‌अ़ल जलाये रखना कि यह महब्बत के दिल का शो’ला है जिसकी रंगीन रौशनी में हमारे ख़्वाबॊं के रास्ते जगमगा रहे हैं तुम्हारी आँखें जो मेरे सीने में तैरती हैं कँवल की कलियाँ जो मेरे दिल में खिली हुई हैं उन्हीं से दो और आँखें बेदार हो गई हैं वो नन्हे-नन्हे चमकते हीरों की नन्ही कनियाँ जो मेरी आँखों का नूर लेकर तुम्हारे आँचल से झाँकती हैं फिर और आँखें, फिर और आँखें, फिर और आँखें यह सिलसिला ता-अबद रहेगा ज़माने की गोद में सितारों के हुस्न की नदियाँ बहेंगी, वो सब तुम्हारी वो सब हमारी ही आँखें होंगी हमारी आँखें कि जिनसे शो’ले बरस रहे हैं मगर वह कल का हसीन दिन देखो कितना नज़दीक आ गया है हमारी आँखों से जब बहारें छलक पड़ेंगी

नींद

(अपने बच्चों की पहली सालगिरह पर) रात ख़ूबसूरत है नींद क्यों नहीं आती दिन की ख़श्मगीं नज़रें खो गयीं सियाही में आहनी कडो़ का शोर बेडि़यों की झनकारें कै़दियों की साँसों की तुन्दो-तेज़ आवाज़ें जेलरों की बदकारी गालियों की बौछारें बेबसी की खा़मोशी खा़मुशी की फ़रयादें तहनशीं अँधेरे में शब की शोख़ दोशीज़ा१ खा़रदार तारों को आहनी हिसारों२ को पार करके आयी है भर के अपने आँचल में जंगलों की खु़शबूएँ ठ्ण्डकें पहाडो़ की मेरे पास लायी है नीलगूँ जवाँ सीनः नीलगूँ जवाँ बाँहें कहकशाँ३ की पेशानी नीम चाँद का जूड़ा मख़मली अँधेरे का पैरहन लरज़ता है वक़्त कि सिया ज़ुल्फ़ें ख़ामोशी के शानों पर४ ख़म-ब-ख़म महकती हैं और ज़मीं के होंटों पर नर्म शबनमी बोसे मोतियों के दाँतों से खिलखिला के हँसते हैं रात खू़बसूरत है नींद क्यों नही आती रात पेंग लेती है चाँदनी के झूले में आसमान पर तारे नन्हे-नन्हे हाथों से बुन रहे हैं जादू-सा झींगुरों की आवाज़ें कह रही है अफ़साना दूर जेल के बाहर बज रही है शहनाई रेल अपने पहियों से लोरियाँ सुनाती है रात खू़बसूरत है नींद क्यों नहीं आती रोज़ रात को यूँ ही नींद मेरी आँखों से बेवफ़ाई करती है मुझको छोड़कर तन्हा जेल से निकलती है बम्बई की बस्ती में मेरे घर का दरवाज़ा जाके खटखटाती है एक नन्हे बच्चे की अँखडियों के बचपन में मीठे-मीठे ख़्वाबों का शहद घोल देती है इक हसीं परी बनकर लोरियाँ सुनाती है पालना हिलाती है सेंट्रल जेल, नासिकः अप्रैल १९५० १.जवान और अल्हड़ लड़की २.लोहे के घेरे ३.आकाश-गंगा ४.खा़मोशी के कन्धों पर।

भूखी माँ, भूखा बच्चा

मेरे नन्हे, मिरे मासूम मिरे नूरे-नज़र आ कि माँ अपने कलेजे से लगा ले तुझको अपनी आग़ोशे-मुहब्बत में सुला ले तुझको तेरे होंटों का यह जादू था कि सीने से मिरे नदियाँ दूध की वह निकली थी छातियाँ आज मिरी सूख गयी हैं लेकिन आँखें सूखी नहीं अब तक मिरे लाल दर्द का चश्म-ए-बेताब रवाँ है इनसे मेरे अश्कों ही से तू प्यास बुझा ले अपनी सुनती हूँ खेतों में अब नाज नहीं उग सकता काँग्रेस राज में सोना ही फला करता है गाय के थन से निकलती है चमकती चाँदी और तिजोरी की दराज़ों में सिमट जाती है चाँद से दूध नहीं बहता है तारे चावल हैं न गेहूँ न ज्वार वरना मैं तेरे लिए चाँद सितारे लाती मेरे नन्हे, मिरे मासूम मिरे नूरे-नज़र आ कि माँ अपने कलेजे से लगा ले तुझको अपनी आग़ोशे-मुहब्बत मे सुला ले तुझको सो भी जा मेरी महब्बत की कली मेरी जवानी के गुलाब मेरे इफ़लास१ के हीरे सो जा नींद में आएँगी हँसती हुई परियाँ तिरे पास बोतलें दूध की शरबत के कटोरे लेकर जाने आवाज़ की लोरी थी कि परियों का तिलस्म नींद-सी आने लगी बच्चे को खिंच गयी नीलगूँ होंटों पे ख़मोशी की लकीर मुट्ठियाँ खोल दीं और मूँद लीं आँखें अपनी यूँ ढलकने लगा मनका जैसे शाम के ग़ार में सूरज गिर जाए झुक गयी माँ की जबीं बेटे की पेशानी पर अब न आँसू थे, न सिसकी थी न लोरी न कलाम एक सन्नाटा था एक सन्नाटा था तारीको-तवील२ १.अभावग्रस्तता २.अँधेरा और विस्तृत

अनाज

मेरी आशिक़ हैं किसानों की हसीं कन्याएँ जिनके आँचल ने मुहब्बत से उठाया मुझको खेत को साफ़ किया, नर्म किया मिट्टी को और फिर कोख़ में धरती की सुलाया मुझको ख़ाक-दर-ख़ाक हर-इक तह में टटोला लेकिन मौत के ढूँढ़ते हाथों ने न पाया मुझको ख़ाक से लेके उठा मुझको मिरा ज़ौके़-नुमू सब्ज़ कोंपल ने हथेली में छुपाया मुझको मौत से दूर मगर मौत की इक नींद के बाद जुम्बिशे-बादे-बहारी ने जगाया मुझको बालियाँ फूलीं तो खेतों पे जवानी आयी उन परीज़ादों ने बालों में सजाया मुझको मेरे सीने में भरा सुर्ख़ किरन ने सोना अपने झूले में हवाओं ने झुलाय मुझको मैं रकाबी में, प्यालों में महक सकता हूँ चाहिए बस लबो-रुख़सार का साया मुझको मेरी आ़शिक़ हैं किसानों की हसीं कन्याएँ गोद से उनकी कोई छीन के लाया मुझको हवसे-ज़र ने मुझे आग में फूँका है कभी कभी बाज़ार में नीलाम चढ़ाया मुझको कैद रखा कभी लोहे में कभी पत्थर में कभी गोदामों की क़ब्रों में दबाया मुझको सी के बोरों में मुझे फेंका है तहख़ानों में चोर बाज़ार कभी रास न आया मुझको वो तरसते हैं मुझे और मैं तरसता हूँ उन्हें जिनके हाथों की हरारत ने उगाया मुझको क्या हुए आज मेरे नाज़ उठानेवाले है कहाँ क़ैदे-गुलामी से छुड़ानेवाले

एक ख़्वाब और

ख़्वाब अब हुस्ने-तसव्वुर के उफ़ुक़ से हैं परे दिल के इक जज़्बा-ए-मासूम ने देखे थे जो ख़्वाब और ताबीरों के तपते हुए सहराओं में तश्नगी आबला-पा शो’ला-ब-कफ़ मीजे-सराब यह तो मुमकिन नहीं बचपन का कोई दिन मिल जाए या पलट आये कोई साअते-नायाबे-शबाब फूट निकले किसी अफ़सुर्दा तबस्सुम से किरन या दमक उट्ठे किसी दस्ते-बुरीदा में गुलाब आह पत्थर की लकीरें हैं कि यादों के नुक़ूश कौन लिख सकता है फिर उम्रे-गुज़श्ता की किताब बीते लम्हात के सोये हुए तूफ़ानों में तैरते फिरते हैं फूटी हुई आँखों के हुबाब ताबिशे-रंगे-शफ़क़, आतिशे-रूए-ख़ुर्शीद मल के चेहरे पे सहर आयी है ख़ूने-अहबाब जाने किस मोड़ पे किस राह में क्या बिती है किससे मुमकिन है तमन्नाओं के ज़ख़्मों का हिसाब आस्तीनों को पुकारेंगे कहाँ तक आँसू अब तो दामन को पकड़ते हैं लहू के गिर्दाब देखती फिरती है एक-एक का मुँह ख़ामोशी जाने क्या बात है शर्मिन्दा है अन्दाज़े-ख़िताब दर-ब-दर ठोकरें खाते हुए फिरते हैं सवाल और मुजरिम की तरह उनसे गुरेज़ाँ हैं जवाब सरकशी, फिर मैं तुझे आज सदा देता हूँ मैं तिरा शाइरे-आवारा-ओ-बेबाको-ख़राब फेंक फिर जज़्बए-बेताब की आ़लम पे कमन्द एक ख़्वाब और भी ऐ हिम्मते-दुश्वारपसन्द

ग़ज़ल

काम अब कोई है न आएगा बस इक दिल के सिवा रास्ते बन्द हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा बाइसे-रश्क है तन्हारवी-ए-रहरावे-शौक़ हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा हमने दुनिया की हर इक शय से उठाया दिल को लेकिन इक शोख़ के हंगाम-ए-महफ़िल के सिवा तेग़े मुन्सिफ़ हो जहाँ, दारो-रसन हों शायद बेगुनाह कौन है इस शहर में क़ातिल के सिवा जाने किस रंग से आयी है गुलिस्ताँ में बहार कोई नग़मा ही नहीं शोरे-सलासिल के सिवा

हसीन-तर

कल एक तू होगी और इक मैं कोई रक़ीबे-रफ़ीक़-सूरत१ कोई रफ़ीक़े-रक़ीब सामाँ मिरे तेर दरमियाँ न होगा हमारी उम्रे-रवाँ की शबनम तेरी सियह काकुलों की रातों में तार चाँदी के गूँध देगी तिरे हसीं आ़रिज़ों२ के रंगीं गुलाब-बेले के फूल होंगे शफ़क़ का हर रंग ग़र्क़ होगा लतीफ़ो-पुरकैफ़ चाँदनी में तिरी किताबे-रुखे़-जवाँ पर कि जो ग़ज़ल की किताब है अब ज़माना लिखेगा एक कहानी और अनगिनत झुर्रियों के अन्दर मिरी महब्बत के सारे बोसे हज़ार लब बन के हँस पड़ेंगे हम अपनी बीती हुई शबों की सलोनी परछाइयों को लेकर हम अपने अहदे-तरब की शामो- सहर की रानाइयों को लेकर पुरानी यादों के जिस्मे-उर्यां३ के वास्ते पैरहन बुनेंगे फिर एक तू होगी और इक मैं कोई रक़ीबे-रफ़ीक़-सूरत कोई रफ़ीक़े-रक़ीब सामाँ मिरे तेर दरमियाँ न होगा हवस की नज़रों को तेरे रुख़ पर जमाले-नौ का गुमाँ न होगा फ़क़त मिरी हुस्न-आज़मूदा- नज़र४ यह तुझको बता सकेगी कि तेरी पीरी५ का हुस्न तेरे शबाब से भी हसीनतर है १.मित्र समान दुश्मन २.कपोल ३.नग्न शरीर ४.हुस्न की आज़माई हुई नज़र [हुस्न आज़मूदा नज़र को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए] ५.वृद्धावस्था।

लम्हों के चिराग़

वो नींद की तरह नर्म सब्ज़ा ख़्वाबों की तरह रमीदा१ शबनम फूलों की तरह शिगुफ़्ता चेहरे खुशबू की तरह लतीफ़ बातें किरनों की तरह जवाँ तबस्सुम शो’ले की तरह दहकती ख़्वाहिश तारों की तरह चमकती आग़ोश साग़र की तरह छलकते सीने सब क़ाफ़िला-ए-अदम२ के राही वादि-ए-अदम में चल रहे हैं तारीकियों कि खुले हैं परचम लम्हों के चिराग़ जल रहे हैं हर लम्हा हसीं और जवाँ है हर लम्हा फ़रोग़े-जिस्मों-जाँ है हर लम्हा अज़ीमो-जाविदाँ है १.भागा हुआ २.परलोक जानेवाला क़ाफ़िला ३. शरीर और प्राण का प्रकाश ४.महान और शाश्वत।

मेरा सफ़र

हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम (हम हरियाली की तरह बार-बार उगे हैं) -रूमी फिर इक दिन ऐसा आएगा आँखों के दिये बुझ जाएँगे हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे और बर्गे-ज़बाँ से नुत्क़ो-सदा की हर तितली उड़ जाएगी इक काले समन्दर की तह में कलियों की तरह से खिलती हुई फूलों की तरह से हँसती हुई सारी शक्लें खो जाएँगी ख़ूँ की गर्दिश, दिल की धड़कन सब रागनियाँ सो जाएँगी और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर हँसती हुई हीरे की ये कनी ये मेरी जन्नत, मेरी ज़मीं इसकी सुब्‌हें, इसकी शामें बे-जान हुए, बे-समझ हुए इक मुश्ते-ग़ुबारे-इन्साँ पर शबनम की तरह रो जाएँगी हर चीज़ भुला दी जाएगी यादों के हसीं बुतख़ाने से हर ची़ज़ उठा दी जाएगी फिर कोई नहीं ये पूछेगा सरदार कहाँ है महफ़िल में लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा बच्चों के दहन से बोलूँगा चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा जब बीज हँसेंगे धरती में और कोंपलें अपनी उँगली से मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी मैं पत्ती-पत्ती, कली-कली अपनी आँखें फिर खोलूँगा सरसब्ज़ हथेली पर लेकर शबनम के क़तरे तोलूँगा मैं रंगे-हिना, आहंगे-ग़ज़ल अन्दाज़े-सुख़न बन जाऊँगा रुख़्सारे-उरूज़े-नौ की तरह हर आँचल से छन जाऊँगा जोड़ों की हवाएँ दामन में जब फ़स्ले-ख़िज़ाँ को लाएँगी रहरी के जवाँ क़दमों के तले सूखे हुए पत्तों से मेरे हँसने की सदाएँ आएँगी धरती कि सुनहरी सब नदियाँ आकाश की नीली सब झीलें हस्ती से मिरी भर जाएँगी और सारा ज़माना देखेगा हर आशिक़ है ‘सरदार’ यहाँ हर माशूक़ा‘सुलताना’ है मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ अय्याम के अफ़्सूँ-खा़ने में मैं एक तड़पता क़तरा हूँ मसरूफ़े-सफ़र जो रहता है माज़ी की सुराही के दिल से मुस्तक़बिल के पैमाने में मैं सोता हूँ और जागता हूँ और जाग के फिर सो जाता हूँ सदियों का पुराना खेल हूँ मैं मैं मर के अमर हो जाता हूँ

दो शे’र

हर मंज़िल इक मंज़िल है नयी और आख़िरी मंज़िल कोई नहीं इक सैले-रवाने-दर्दे-हयात१ और दर्द का साहिल कोई नहीं हर गाम२ पे ख़ूँ के तूफ़ाँ हैं, हर मोड़ पे बिस्मिल३ रक़्साँ हैं४ हर लहज़ा५ है क़त्ले-आम६ मगर कहते हैं कि क़ातिल कोई नहीं १.जीवन की व्यथाओं का सैलाब २.पग ३.घायल ४.तड़प रहे हैं ५.क्षण ६.सर्वसाधारण का वध

ग़म का हीरा

ग़म का हीरा दिल में रक्खो किसको दिखाते फिरते हो ये चोरों की दुनिया है

प्यास भी एक समन्दर है

प्यास भी एक समन्दर है समन्दर की तरह जिसमें हर दर्द की धार जिसमें हर ग़म की नदी मिलती हैं और हर मौज लपकती है किसी चाँद से चेहरे की तरफ़

अजनबी आँखें

सारी शामें उनमें डूबीं सारी रातें उनमें खोईं सारे साग़र उनमें टूटे सारी मय ग़र्क़ उन आँखों में है देखती हैं वो मुझे लेकिन बहुत बेगानावार।

बहुत क़रीब हो तुम

बहुत करीब हो तुम, फिर भी मुझसे कितनी दूर कि दिल कहीं है, नज़र है कहीं, कहीं तुम हो वो जिसको पी न सकी मेरी शो’ला-आशामी१ वो कूज़ः-ए-शकर-ओ-जामे-अंगबीं२ तुम हो मिरे मिज़ाज में आशुफ़्तगी३ सबा४ की है मिली कली की अदा, गुल की तम्कनत५ तुमको सबा की गोद में, फिर भी सबा से बेगाना तमाम हुस्नो-हकी़क़त, तमाम अफ़साना वफ़ा भी जिस पे है नाज़ाँ वो बेवफ़ा तुम हो जो खो गयी है मिरे दिल की वो सदा तुम हो बहुत क़रीब हो तुम, फिर भी मुझसे कितनी दूर हिजाबे-जिस्म६ अभी है, हिजाबे-रूह७ अभी अभी तो मंज़िले-सद-मिह्रो-माह८ बाक़ी है हिजाबे-फ़ासिला-हाए-निगाह९ बाक़ी है विसाले-यार अभी तक है आरज़ू का फ़रेब १.अग्निज्वाला पीने की इच्छा २.मिठास से भरा प्याला और शहद से भरा प्याला ३.उद्विग्नता ४.समीर ५.अभिमान ६.शरीर की दूरी ७.आत्मा की दूरी ८.सैकड़ों सूर्य और चंद्रमाओं की मंज़िल ९.निगाहों की दूरियों का संकोच।

चाँद को रुख़्सत कर दो

मेरे दरवाज़े से अब चाँद को रुख़्सत कर दो साथ आया है तुम्हारे जो तुम्हारे घर से अपने माथे से हटा दो यह चमकता हुआ ताज फेंक दो जिस्म से किरनों का सुनहरी ज़ेवर तुम ही तन्हा मिरे ग़मख़ाने में आ सकती हो एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रक्खा है मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद दिले-ख़ूँ-गश्ता का हँसता हुआ ख़ुश-रंग गुलाब

जब तिरा नाम लिया

जब तिरा नाम लिया दिल ने, तो दिल से मेरे जगमागाती हुई कुछ वस्ल की रातें निकलीं अपनी पलकों पे सजाये हुए अश्कों के चिराग़ सर झुकाये हुए कुछ हिज्र की शामें गुज़रीं क़ाफ़िले खो गये फिर दर्द के सहराओं में दर्द जो तिरी तरह नूर भी है नार भी है दुश्मने-जाँ भी है, महबूब भी, दिलदार भी है

तिरे प्यार का नाम

दिल पे जब होती है यादों की सुनहरी बारिश सारे बीते हुए लम्हों के कँवल खिलते हैं फैल जाती है तिरे हर्फ़े-वफ़ा की ख़ुशबू कोई कहता है मगर रूह की गहराई से शिद्दते-तश्नःलबी भी है तिरे प्यार का नाम

तुम नहीं आये थे जब

तुम नहीं आये थे जब, तब भी तो मौजूद थे तुम आँख में नूर की और दिल में लहू की सूरत दर्द की लौ की तरह, प्यार की ख़ुशबू की तरह बेवफ़ा वादों की दिलदारी का अन्दाज़ लिये तुम नहीं आये थे जब, तब भी तो तुम आये थे रात के सीने में महताब के ख़ंजर की तरह सुब्‌ह के हाथ में ख़ुर्शीद के साग़र की तरह शाखे़-ख़ूँ, रंगे-तमन्ना में गुले-तर की तरह तुम नहीं आओगे जब, तब भी तो तुम आओगे याद की तरह, धड़कते हुए दिल की सूरत ग़म के पैमाना-ए-सरशार को छलकाते हुए बर्ग-हाए-लबो-रुख़्सार को महकाते हुए दिल के बुझते हुए अंगारे को दहकाते हुए ज़ुल्फ़-दर-ज़ुल्फ़ बिखर जाएगा फिर रात का रंग शबे-तन्हाई में भी लुत्फ़े मुलाका़त का रंग रोज़ लाएगी सबा कूए-सबाहत१ से पयाम रोज़ गाएगी सहर तहनियते-जश्ने-फ़िराक़२ आओ आने की करें बात कि तुम आये हो अब तुम आये हो तो मैं कौन-सी शय नज़्र करूँ कि मिरे पास बजुज़ मेह्रो-वफ़ा कुछ भी नहीं इक ख़ूँ-गश्ता तमन्ना के सिवा कुछ भी नहीं १.मित्रता की गली २.विछोह के जश्न की मुबारकबाद

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तू मुझे इतने प्यार से मत देख तेरी पलकों के नर्म साये में धूप भी चांदनी सी लगती है और मुझे कितनी दूर जाना है रेत है गर्म, पाँव के छाले यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे प्यार की ये नज़र रहे, न रहे कौन दश्त-ए-वफ़ा में जाता है तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तुम्हारे हाथ

तुम्हारे नर्म, हसीं, दिल-नवाज़ हाथ नहीं महक रहे हैं मिरे हाथ में बहार के हाथ मचल रही हैं हथेली में उँगलियों की लवें तड़पती नब्ज़ कहे जा रही है प्यार की बात पिघल रही है रुख़े-आतशी पे हिज्र की शाम निकल रही है सियह ज़ुल्फ़ से विसाल की रात

नसीम तेरी क़बा

नसीम तेरी क़बा, बूए-गुल है पैराहन हया का रंग रिदाए-बहार उढ़ाता है तेरे बदन का चमन ऐसे जगमगाता है कि जैसे सैले-सहत, जैसे नूर का दामन सितारे डूबते हैं चाँद झिलमिलाता है

प्यास की आग

मैं कि हूँ प्यास के दरिया की तड़पती हुई मौज पी चुका हूँ मैं समन्दर का समन्दर फिर भी एक-इक क़तरा-ए-शबनम को तरस जाता हूँ क़तरःए-शबनमे-अश्क क़तरःए-शबनमे-दिल, ख़ूने-जिगर क़तरःए-नीम नज़र या मुलाक़ात के लम्हों के सुनहरी क़तरे जो निगाहों की हरारत से टपक पड़ते हैं और फिर लम्स के नूर और फिर बात की ख़ुशबू में बदल जाते हैं मुझको यह क़तर-ए-शादाब भी चख लेने दो दिल में यह गौहरे-नायाब भी रख लेने दो ख़ुश्क हैं होंट मिरे, ख़ुश्क ज़बाँ है मेरी ख़ुश्क है दर्द का, नग़मे का गुलू मैं अगर पी न सका वक़्त का यह आबे-हयात प्यास की आग में डरता हूँ कि जल जाऊँगा

क़त्ले-आफ़ताब

शफ़क़ के रंग में है क़त्ले-आफ़ताब का रंग उफ़ुक़ के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग ज़मीं से ता-ब-फ़लक है बलन्द रात का नाम यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं वो बेहिसी है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग जबीने-शौक़ नहीं संगे-आस्ताँ भी नहीं रक़ीब जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग हज़ार लब से जुनूँ सुन रहे हैं अफ़साना दिलों में शो’ला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे कोई हसीन नहीं किससे अब वफ़ा कीजे सिवाय इसके कि क़ातिल ही को दुआ दीजे मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए इक इन्तिहा है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा के लिए बिछे हैं ख़ार कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के ख़मोशी मुह्र-ब-लब है किसी सदा के लिए उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ-नवा के लिए वो पहना शम्‌अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब के जाम पलक-पलक पे फ़िरोज़ाँ हैं आँसुओं के चिराग़ लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं तमाम पैरहने-शब में भर गए हैं शरार चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें लचक रही हैं कहीं शाख़े-गुल की तलवारें सनक रही हैं कहीं दश्ते-सरकशी में हवा चहक रही है कहीं बुलबुले-बहारे-नवा महक रही है लबो-आरिज़ो-नज़र की शराब जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम नफ़स में निक़हते-पैग़ामे-इन्क़िलाब लिए ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा सहर के दोश पे इक ताज़ा आफ़ताब लिए

सरे-तूर

[आस्माँ-परवाज़ों के नाम] ("क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक-सा जवाब आओ न हम भी सैर करें कोहे-तूर की") -गा़लिब दिल को बेताब रखती है इक आरज़ू कम है ये वुस्‌अ़त१-आ़लमे-रंगो-बू ले चली है किधर फिर नयी जुस्तुजू ता-ब-हद्दे-नज़र२ उड़ के जाते हैं हम वो जो हाइल थे राहों में शम्सो-क़मर हमसफ़र उनको अपना बनाते हैं हम है ज़मी पर्दः-ए-लालः-ओ-नस्तरन आस्माँ पर्दः-ए-कहकशाँ है अभी राज़े-फ़ितरत हुआ लाख हम पर अ़याँ राज़े-फ़ितरत निहाँ का निहाँ है अभी जिसकी सदियों उधर हमने की इब्तिदा नातमाम अपनी वो दास्ताँ है अभी मंज़िलें उड़ गयीं बन के गर्दे-सफ़र रहगुज़ारों ही में कारवाँ है अभी पी के नाकामियों की शराबे-कुहन अपना ज़ौके़-तजस्सुस३ जवाँ है अभी हाथ काटे गये जुर्रते-शौक़ पर ख़ू-चिकां हो के वो गुलफ़िशाँ हो गये हैरतों ने लगाई जो मुह्रे-सुकूत लब ख़मोशी में जादू-बयाँ हो गये रास्ते में जो कुहसार आये तो हम ऐसे तड़पे कि सैले-रवाँ हो गये हैं अज़ल से ज़मीं के कुर्रे पर असीर हो के महदूद हम बेकराँ हो गये ज़ौके़-परवाज़ भी दिल की इक जस्त है खा़क से ज़ीनते-आस्माँ हो गये अक़्ले-चालाक ने दी है आकर ख़बर इक शबिस्ताँ है ऐवाने-महताब में मुन्तज़िर हैं निगाराने-आतिश-बदन जगमगाती फ़ज़ाओं की मेहराब में कितने दिलकश हसीं ख़्वाब बेदार हैं माहो-मिर्‌रीख़४ की चश्मे-बेख़्वाब में खींच फिर ज़ुल्फ़े-माशूक़ः ए-नीलगूँ ले ले शो’ले को फिर दस्ते-बेताब में मुज़्दः हो महजबीनाने-अफ़लाक को बज़्मे-गेती५ का साहिबे-नज़र आ गया तहनियत हुस्न को बेनक़ाबी की दो दीदा-वर आ गया, पर्दा-दर आ गया आस्माँ से गिरा था जो कल टूट कर वो सितारा बदोशे-क़मर आ गया ले के पैमानए-दर्दे-दिल हाथ में मल के चेहरे पे ख़ूने-जिगर आ गया बज़्मे-सय्यारगाने-फ़लक-सैर में इक हुनरमन्द सय्यारा-गर आ गया शौक़ की हद मगर चाँद तक तो नहीं है अभी रिफ़ते-आस्माँ और भी है सुरय्या के पिछे सुरय्या रवाँ कहकशाँ से परे, कहकशाँ और भी झाँकती हैं फ़ज़ाओं के पेचाक से रंग और नूर की वादियाँ और भी और भी मंज़िलें, और भी मुश्किलें हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी आज दस्ते-जुनूँ पर है शमे-खि़रद६ दोजहाँ जिसके शो’ले से मा’मूर हैं लेके आएँ पयामे-तुलू’-ए-सहर जितने सूरज ख़लाओं में मस्तूर हैं कह दो बर्के़-तजल्ली७ से ही जलवागर आज मूसा नहीं हम सरे-तूर हैं १.संसार का विस्तार २.दृष्टि की अंतिम सीमा तक ३.जिज्ञासा ४.चाँद और तारे ५.धरती की महफ़िल ६.बुद्धि रूपी दीपक ७.वह प्रकाश जिसे तूर पर हज़रत मूसा ने देखा था।

पैराहन-ए-शरर

खडा़ है कौन पैराहन-ए-शरर पहने बदन है चूर तो माथे से ख़ून जारी है ज़माना गुज़रा कि फ़रहादो-कै़स ख़्त्म हुए यह किस पे अहले-जहाँ, हुकमे-संगबारी है यहाँ तो कोई भी शीरीं-अदा निगार नहीं यहाँ तो कोई भी लैला-बदन बहार नहीं यह किसके नाम पे ज़ख़्मों की लाल-कारी है कोई दिवाना है, लेता है सच का नाम अब तक फ़रेबो-मक्र को करता नहीं सलाम अब तक है बात साफ़ सज़ा उसकी संगसारी है

एक बात

इस पे भूले हो कि हर दिल को कुचल डाला है इस पे फूले हो कि हर गुल को मसल डाला है और हर गोशःए-गुलज़ार में सन्नाटा है किसी सीने में मगर एक फ़ुग़ाँ तो होगी आज वह कुछ न सही कल को जवाँ तो होगी वह जवाँ होके अगर शोलः-ए-जव्वाला बनी वह जवाँ होके अगर आतिशे-सद-साला बनी ख़ुद ही सोचो कि सितमगारों पे क्या गुज़रेगी

निवाला

माँ है रेशम के कारख़ाने में बाप मसरूफ़१ सूति मिल में है कोख से माँ की जब से निकला है बच्चा खोली के काले दिल में है जब यहाँ से निकल के जाएगा कारख़ानों के काम आएगा अपने मजबूर पेट की ख़ातिर भूक सरमाए की बढ़ाएगा हाथ सोने के फूल उगलेंगे जिस्म चाँदी का धन लुटाएगा खिड़कियाँ होंगी बैंक की रौशन ख़ून उसका दिये जलाएगा यह जो नन्हा है भोला-भाला है सिर्फ़ सरमाये का निवाला है पूछती है यह उसकी ख़ामोशी कोई मुझको बचाने वाला है

दो चिराग़

तीरगी के सियाह ग़ारों से शहपरों की सदाएँ आती हैं ले के झोंकों की तेज़ तलवारें ठण्डी-ठण्डी हवाएँ आती हैं बर्फ़ ने जिन पे धार रक्खी है एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार इक चिराग़ और एक दोशीज़ा वोह बुझी-सी है वह उदास-सा है दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में तीरगी और हवा से लड़ते हैं तीरगी उठ रही है मैदाँ में फ़ौज-दर-फ़ौज बादलों की तरह और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़ तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को भींच लेते हैं मैले आँचल को लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है शो’ला रह-रह के थरथराता है नंगी बूढ़ी ज़मीन काँपती है तीरगी अब सियह समन्दर है और हवा हो गयी है दीवानी या तो दोनों चिराग़ गुल होंगे या करेंगे वो शो’ला-अफ़शानी फूँक डालेंगे तीरगी की मता पर मुझे एतिमाद है इन पर गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं

दो शे’र

हर मंज़िल इक मंज़िल है नयी और आख़िरी मंज़िल कोई नहीं इक सैले-रवाने-दर्दे-हयात१ और दर्द का साहिल कोई नहीं हर गाम२ पे ख़ूँ के तूफ़ाँ हैं, हर मोड़ पे बिस्मिल३ रक़्साँ हैं४ हर लहज़ा५ है क़त्ले-आम६ मगर कहते हैं कि क़ातिल कोई नहीं १.जीवन की व्यथाओं का सैलाब २.पग ३.घायल ४.तड़प रहे हैं ५.क्षण ६.सर्वसाधारण का वध

सुब्‌ह-ए-फ़र्दा

१. इसी सरहद पे कल डूबा था सूरज हो के दो टुकडे़ इसी सरहद पे कल ज़ख़्मी हुई थी सुब्‌हे-आज़ादी यह सरहद ख़ून की, अश्कों की, आहों की, शरारों की जहाँ बोयी थी नफ़रत और तलवारें उगायी थीं यहाँ महबुब आँखों के सितारे तिलमिलाये थे यहाँ माशूक़ चेहरे आँसुओं में झिलमिलाये थे यहाँ बेटों से माँ, प्यारी बहन भाई से बिछडी़ थी यह सरहद जो लहू पीती है और शो’ले उगलती है हमारी ख़ाक की सरहद पे नागिन बनके चलती है सजाकर जंग के हथियार मैदाँ में निकलती है मैं इस सरहद पे कब से मुन्तज़िर हूँ सुब्‌ह-ए-फ़र्दा का २. यह सरहद फुल की, ख़ुशबू की, रंगों की, बहारों की धनक की तरह हँसती, नदियों की तरह बल खाती वतन के आरोज़ों पर ज़ुल्फ़ की मानिन्द लहराती महकती, जगमगाती, इक दुल्हन की माँग की सूरत कि जो बालों को दो हिस्सों में तक़सीम करती है मगर सिंदूर की तलवार से, सन्दल की उँगली से यह सरहद दिलबरों की, आशिकों की, बेक़रारों की यह सरहद दोस्तों की, भाइयों की, ग़मगुसारों की सहर को आये ख़ुरशीदे-दरख़्शाँ पासबाँ बनकर निगहबानी हो शब को आसमाँ के चाँद तारों की ज़मीं पामाल हो जाए, भरे खेतों की यूरिश से सिपाहें हमलाआवर हों दरख़्तों की क़तारों की खु़दा महफ़ूज़ रक्खे इसको ग़ैरों की निगाहों से पडे़ नज़रें न इस पर ख़ूँ के ताजिर ताजदारों की महब्बत हुक्मराँ हो, हुस्न का़तिल, दिल मसीहा हो चमन पे आग बरसे शोलः-पैकर गुलइज़ारों की वो दिन आये कि नफ़रत हो के आँसू दिल से बह आये वो दिन आये यह सरहद बोसा-ए-लब बनके रह जाये ३. यह सरहद मनचलों की, दिल जलों की, जाँनिसारों की यह सरहद सरज़मीने-दिल के बाँके शहसवारों की यह सरहद कजकुलाहों की, यह सरहद कजअदाओं की यह सरहद गुलशने-लाहौरो-दिल्ली की हवाओं की यह सरहद अम्नो-आज़ादी के दिलअफ़रोज़ ख़्वाबों की यह सरहद डूबते तारों, उभरते आफ़ताबों की यह सरहद ख़ूँ मे लिथडे़ प्यार के ज़ख़्मी गुलाबों की मैं इस सरहद पे कब से मुन्तज़िर हूँ सुब्‌हे-फ़र्दा का

ताशक़न्द की शाम

मनाओ जश्ने-महब्बत कि ख़ूँ की बू न रही बरस के खुल गये बारूद के सियह बादल बुझी-बुझी-सी है जंगों की आख़िरी बिजली महक रही है गुलाबों से ताशक़न्द की शाम जगाओ गेसूए-जानाँ की अम्बरीं रातें जलाओ साअ़दे-सीमीं की शमे-काफ़ूरी तवील बोसों के गुलरंग जाम छलकाओ यह सुर्ख़ जाम है ख़ूबाने-ताशक़न्द के नाम यह सब्ज़ जाम है लाहौर के हसीनों का सफ़ेद जाम है दिल्ली के दिलबरों के लिए घुला है जिसमें महब्बत के आफ़ताब का रंग खिली हुई है उफ़ुक़ पर धनक तबस्सुम की नसीमे-शौक़ चली है जाँफ़िज़ा तकल्लुम की लबों की शो’लाफ़िशानी है शबनम-अफ़्शानी इसमें सुब्‌हे-तमन्ना नहाके निखरेगी किसी की ज़ुल्फ़ न अब शामे-ग़म में बिखरेगी जवान ख़ौफ़ की वादी से अब न गुज़रेंगे जियाले मौत के साहिल पे अब न उतरेंगे भरी न जाएगी अब ख़ाको-ख़ूँ से माँग कभी मिलेगी माँ को न मर्गे-पिसर की ख़ुशख़बरी खिलेंगे फूल बहुत सरहदे-तमन्ना पर ख़बर न होगी यह नर्गिस है किसकी आँखों की यह गुल है किसकी जबीं किसका लब है यह लालः यह शाख़ किसके जवाँ बाज़ुओं की अँगडा़ई बस इतना होगा यह धरती है, शहसवारों की जहाने-हुस्न के गुमनाम ताजदारों की यह सरज़मीं है महब्बत के ख़्वास्तगारों की जो गुल पे मरते थे शबनम से प्यार करते थे ख़ुदा करे कि यह शबनम यूँ ही बरसती रहे ज़मीं हमेशा लहू के लिए तरसती रहे

गुफ़्तगू

गुफ़्तगू बन्द न हो बात से बात चले सुब्‌ह तक शामे-मुलाक़ात चले हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले हाँ जो अलफ़ाज़ के हाथों में हैं संगे-दुश्नाम तंज़ छलकाये तो छलकाया करे ज़हर के जाम तीखी नज़रें हों तुर्श अबरुए-ख़मदार रहें बन पडे़ जैसे भी दिल सीनों में बेदार रहें बेबसी हर्फ़ को ज़ंजीर-ब-पा कर न सके कोई क़ातिल हो मगर क़त्ले-नवा कर न सके सुब्‌ह तक ढल के कोई हर्फ़े-वफ़ा आएगा इश्क़ आयेगा बसद लग़ज़िशे-पा आएगा नज़रें झुक जाएँगी, दिल धड़केंगे, लब काँपेंगे ख़ामुशी बोसः ए-लब बनके महक जाएगी सिर्फ़ ग़ुंचों के चटकने की सदा आएगी और फिर हर्फ़ो-नवा की न ज़रूरत होगी चश्मो-अबरू के इशारों में महब्बत होगी नफ़रत उठ जायेगी, मेहमान मुरव्वत होगी हाथ में हाथ लिये सारा जहाँ साथ लिये तोहफ़ःए-दर्द लिए प्यार की सौग़ात लिये रहगुज़ारों से अदावत के गुज़र जाएँगे ख़ूँ के दरयाओं से हम पार उतर जाएँगे गुफ़्तगू बन्द न हो बात से बात चले सुब्‌ह तक शामे-मुलाक़ात चले हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले

क़त्‌आ

दौरे-मय ख़त्म हुआ, ख़त्म हुई सुह्बते-शब हो चुकी सुब्‌ह मगर रात अभी बाकी़ है ऐसा लगता है कि बिछड़ी है अभी मिलके नज़र ऐसा लगता है मुलाक़ात अभी बाक़ी है

बरहना फ़की़र

मिरी ज़िन्दगी, तिरी ज़िन्दगी यह जो एक कुह्ना लबादा है हैं कशीदा इस पे हज़ार गुल कोई ख़ून से कोई शो’ला से कोई अश्क से कोई आह से कोई खौ़फ़ और गुनाह से कोई इक तबस्सुमे-ज़ेरे-लब कोई हर्फ़े-नीम-निगाह से कोई कम है याँ न ज़्यादा है मिरी ज़िन्दगी, तिरी ज़िन्दगी यह जो एक कुह्ना लबादा है अदम एक बरह्ना फ़क़ीर है कि लिबास जिसका हवाएँ हैं कि लिबास जिसका दिशाएँ हैं कभी चाँद को वह पहनता है कभी ढाँपता है बदन को वह नए आफ़ताब के नूर से कभी रंगे-गुल के कतान से मगर इसके बाद भी वह फ़क़ीर यूँही घूमता है बरह्ना तक कि क़बाए-ज़ुलमतो-नूर में कभी छु सका न वह बे-बदन मिरी ज़िन्दगी, तिरी ज़िन्दगी उसे देती है नया पैरहन यह वुजूद हिकमते सादा है जो बरह्नगी-ए-अदम को रोज़ नया इक लिबास पहनाता है

कार्ल मार्क्स

‘नीस्त पैग़म्बर व लेकिन दर बग़ल दारद किताब’ -जामी वह आग मार्क्स के सीने में जो हुई रौशन वह आग सीन-ए-इन्साँ में आफ़ताब है आज यह आग जुम्बिशे-लब जुम्बिशे-क़लम भी बनी हर एक हर्फ़ नये अह्द की किताब है आज ज़मानागीरो-खुदआगाहो-सरकशो-बेबाक सुरूरे-नग़मा-ओ-सरमस्ती-ए-शबाब है आज हर एक आँख में रक़्साँ है कोई मंज़रे-नौ हर एक दिल में कोई दिलनवाज़ ख़्वाब है आज वह जलवः जिसकी तमन्ना भी चश्मे-आदम को वह जलवः चश्मे-तमन्ना में बेनक़ाब है आज

पॉल रोबसन

अपने नग़्मे पे कोई नाज़ तुझे हो कि न हो नग़मा इस बात पे नाज़ाँ है कि है फ़न तेरा देस हैं दूर बहुत दिल तो बहुत दुर नहीं मेरे गुलशन ही के पहलू में है गुलशन तेरा तेरे नग़मे ने लिया देहली-ओ-शीराज़ का दिल मॉस्को तेरा है ग़र नाता-ओ-लन्दन तेरा अपनी पलकों से चुना ख़ूने-शहीदाने-हबश कितने गुलज़ारों से गुलरंग है दामन तेरा तेरी आवाज़ बिलाले-हबशी की है नवा नूर से दिल के तिरे हर्फ़ है रौशन तेरा बूए-गुल रह न सकी क़ैद-ए-गुलिस्ताँ में असीर सरहदें तोड़ के सब फैल गया फ़न तेरा कृश्न का गीत है, गोकुल की हसीं शाम है तू आ कलेजे से लगा लें कि सियह फ़ाम है तू

एक शे’र

तीरगी फिर ख़ूने-इंसाँ की क़बा पहने हुए दे रही है सुब्‌हे-नौ का कमनिगाहों को फ़रेब

हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा(ग़ज़ल)

काम अब कोई है न आएगा बस इक दिल के सिवा रास्ते बन्द हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा बाइसे-रश्क है तन्हारवी-ए-रहरावे-शौक़ हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा हमने दुनिया की हर इक शय से उठाया दिल को लेकिन इक शोख़ के हंगाम-ए-महफ़िल के सिवा तेग़े मुन्सिफ़ हो जहाँ, दारो-रसन हों शायद बेगुनाह कौन है इस शहर में क़ातिल के सिवा जाने किस रंग से आयी है गुलिस्ताँ में बहार कोई नग़मा ही नहीं शोरे-सलासिल के सिवा

कुछ शे’र

यह है आरज़ू चमन की, कोई लूट ले चमन को ये तमाम रंगो-नक्‌हत तिरे इख़्तियार में है तिरे हाथ की बलन्दी में फ़रोगे़-कहकशाँ है ये हुजूमे-माहो-अंजुम तिरे इन्तिज़ार में है

नवम्बर, मेरा गहवारा

(आपबीती और जगबीती) रख़्से-तख़्लीक़ जब कहीं फूल हँसे जब कोई तिफ़्ल सरे-राह मिले जब कोई शाख़े-सियाह-रंग पे जब चाँद खिले दिल ये कहता है हसीं है दुनिया चीथड़ों ही में सही माह-जबीं है दुनिया दस्ते-सैयाद भी है बाज़ुए-जल्लाद भी है रक़्से-तख़्लीके़-जहाने-गुज़राँ जारी है खोल आँख, ज़मीं देख, फ़लक देख, फ़ज़ा देख नवम्बर, मेरा गहवारा है, ये मेरा महीना है इसी माहे-मुनव्वर में मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी मिरे तारे-नफ़स में जुम्बिशे-बादे-सबा आयी मशामे-रूह में मिटी की ख़ुशबू फूल बनकर मुस्कुरा उट्ठी लहू ने गीत गाया शमे-हस्ती जगमगा उट्ठी यह लम्हा-लम्हःए-मिलादे-आदम था मैं सत्तर साल पहले इस तमाशगाहे़-आलम में इक आफ़ाक़ी खिलौना था हवा के हाथ सहलाते थे मेरे नर्म बालों को मिरी आँखों में रातें नींद का काजल लगाती थीं सहर की पहली किरनें चूमती थीं मेरी पलकों को मुझे चाँद और तारे मुस्कुराकर देखते थे मौसमों की ग़र्दिशें झूला झुलाती थीं भरी बरसात में बारिश के छींटे गर्मियों में लू के झोंके मुझसे मिलने के लिए आते वो कहते थे हमारे साथ आओ चल के खेलें बाग़ो-सहरा मिरी माँ अपाने आँचल में छुपा लेती थी नन्हे से खिलौनों को मिरी हैरत की आँखें उस महब्बत से भरे चेहरे को तकती थीं जिस आईने में पहली बार मैंने अपना चेहरा आप देखा था वो चेहरा क्या था सूरज था, ख़ुदा था या पयम्बर था वो चेहरा जिससे बढ़कर ख़ूबसूरत कोई चेहरा हो नहीं सकता कि वो इक माँ का चेहरा था जो अपने दिल के ख़्वाबों, प्यार की किरनों से रौशन था वो पाकीज़ा मुक़द्दस सीनःए-ज़र्रीं वह उसमें दूध की नहरें वह मौज़े-कौसरो-तसनीम थी या शहदो-शबनम थीं उन्हीं की चन्द बूँदें सिह-हर्फ़ो-जादुए-लफ़्ज़ो-बयाँ बनकर मिरे होंटों से खुशबू-ए-ज़बाँ बनकर सरे-लौहो-क़लम आती हैं तो शमशीर की सूरत चमकती हैं हसीनों के लिए वह ग़ाज़ःए-रुख़सारो-आरिज़ हैं खनकती चूड़ियों, बजती हुई पायल को इक आहंग देती है ज़मीं की गर्दिशों, तारीख़ की आवाज़े-पा में ढलती जाती है। जो अब मेरी ज़बाँ है मेरे बचपन में वह मेरी माँ की लोरी थी यह लोरी इक अमानत है मेरा हर शे’र अब इसकी हिफ़ाज़त की ज़मानत है इक़राअ़-अल्लमा-बिलक़लम मिरा पहला सबक इक़राअ़ है तहसीने-क़लम जिसमें है तक़रीमे-क़लम जिसमें क़लम तहरीके-रब्बानी क़लम तख़्लीके़-इन्सानी क़लम तहज़ीबे-रूहानी क़लम ही शाखे़-तूबा भी है अंगुश्ते-हिनाई भी मिरे हाथों में आकर रक़्स करती है हज़ारों दाइरों में चाँद और सूरज की मेहराबें दरख़शां इल्म और हिक़मत की कन्दीलें हिलाले-नौ का सीना माहे-क़ामिल का ख़ज़ीना है मिरी उँगली ने पहले ख़ाक के सीने पे हर्फ़े-अव्वलीं लिक्खा फिर उसके बाद तख़्ती पर क़लम का नक़्शे-सानी था क़लम अंगुश्ते-इन्सानी का जलवा है उरूज़े-आदमे-ख़ाकी़ का दिलक़श इस्तिआरा है फ़ितरत की फ़ैयाज़ियाँ मुझे सूरज ने पाला चाँद की किरनों ने नहलाया हर इक शय मुझसे थी मानूस मुझसे बात करती थी दरख़्तों की ज़बाँ चिडि़यों के नग़्मे मैं समझता था हवा में तितलियाँ परवाज़ करती थी मैं उनके साथ उड़ता था मिरी मुट्ठी में जुगनू जगमगाते थे मैं परियों के प्रिस्तानों में जाता था अँधेरा काँपता था बिजलियों के ताज़ियानों से मैं उस पर मुस्कराता था गरजते बादलों से दोस्ती थी ख़ाक पर चलते हुए कीड़ों पे बेहद प्यार आता था हर इक शय जैसे मेरी ज़ात थी मेरी हक़ीक़त थी अनलहक़ ही सदाक़त थी हरे नीले सुनहरी सुर्ख़ अण्डे आशियानों में परिन्दों के वो सब मेरे खिलौने थे मैं आफ़ाकी़ खिलौना था मैं ख़ुद फ़ितरत था फ़ितरत मेरी हस्ती थी इसी फ़ितरत ने मेरे ख़ूँ में लाखों बिजलियाँ भर दीं मसें भीं रगो-पै में गुनूँ का बाँकपन आया मिरे आगे मये रंगों में दुनिया का चमन आया हर इक शमशाद-पैकर लेके फ़िर्दौसे-बदन आया जिधर देखो उधर बर्नाइयाँ हैं जिधर देखो उधर रानाइयाँ हैं शफ़क़ के रंग में भीगी हुई परछाइयाँ हैं मिरे लग्ज़ीदा-लग्ज़ीदा क़लम ने एक रंगीं और खुशबूदार कागज़ पर बडी़ मुश्किल से रुकते-रुकते हर्फ़े-इश्क़ लिक्खा और किसी की बारगाहे-हुस्न में भेजा हया की शम्‌अ जल उट्ठी हरीमे-दिलरुबाई में घुमाया सर झुकाकर देर तक कंगन कलाई में जिक्र उस परिवश और फिर बयाँ अपना कहाँ से आयी हो कौन हो तुम न गुल न ख़ुशबू मगर तुम्हारा वुजूद ख़ुद रूहे-गुलिस्ताँ है वो कायनाते-सुरूर जिसका ख़ुद अपना सूरज है चाँद अपना मैं कायनाते-सुरूर में साँस ले रहा हूँ शकुन्तला है यहाँ न हेलन न हीर है और न जूलियट है फ़क़त तुम्हारे बदन का मौसम जो मेरी नज़रों की नर्म बारिश में रंग और नूर बन गया है कोई नहीं तुमसे बढ़के दुनिया-ए-दिलबरी में कोई नहीं मुझसे बढ़के दुनिया-ए-आशिक़ी में हर एक से तुम हसीनतर हो हर एक से मैं अज़ीमतर हूँ *** तुम्हारे होंटों के ख़म में जो लफ़्ज़ बन रहे हैं वो मेरे सीने में फूल की तरह खिल रहे हैं तुम्हारी ‘हाँ’ इक गुलाब है ताज़ः-ओ-शिगुफ़्ता कि जिससे ऐवाने-जाँ मुअ़त्तर ‘नहीं’ भी नन्ही-सी इक कली है जो दिल की नाज़ुक-सी शाख़ में सो रही है ख़्वाबे-बहार बनकर यह ख़्वाब ताबीर के गुलिस्ताँ का मुन्तज़िर है तुम्हारे दिलकश बदन के रंगों में मुज़्तरिब है तुम्हारी आँखों से झाँकता है तुम्हारी साँसों में काँपता है मुझे ‘नहीं’ की कली अ़ता हो कि जिससे ‘हाँ’ का गुलाब महके *** तुम्हारे शहरे-जमाल में मेरे दिल का कासा भटक रहा है तुम अपने होटों का शहद आँखों के फूल हाथों के चाँद दे दो ये मुफ़्लिसी की सियाह रातें वुज़ूद पर तंज कर रही हैं *** ज़मीन का रंग तुम ज़मीं का जमाल तुम हो ज़मीं की दौलत ज़मीं की बेटी तुम अप्सराओं से और हूरों से पाकतर हो कि बो तसव्वुर के आस्मानों की पुतलियाँ हैं तमाम हुस्ने-गुमाँ के पैकर मगर तुम उस ख़ाक की चमक हो कि जिसकी नस-नस में सेब, अंगूर और गेहूँ की फ़स्ल का ख़ूँ रवाँ-दवाँ है सहर का सुरज तुम्हारे माथे को चूमता है बदन में शबनम की रौशनी है *** हवाएँ जो मेरी राज़दाँ हैं वो मेरे होटों से लफ़्ज़ लेकर तुम्हारे कानों की सीपियों में गुहर के मानिन्द डालती हैं मैं मुस्कराता हूँ तुम भी हँसती हो और दोनों नयी तमन्नाओं के ज़ज़ीरों में घूमते हैं न कोई महकूम<>शासित<> है न हाकिम न कोई क़ानून है न सख़्ती बस एक ज़ंजीरे-लुत्फ़, शमशिरे-दिलरुबाई वरके-नाख़्वान्दा मैं इक वरक़ हूँ लिखा है किसने पढ़ा है किसने हर इक दरख़्त इक क़लम है हर शाख़ इक क़लम है समन्दरों की दवात नदियों में पिघली चाँदी की रौशनाई फ़ज़ा के सैयाल नीलगूँ से हवाओं के हाथ लिख रहे हैं सितारों का नूर लिख रहा है ज़मीन का रक़्स लिख रहा है ज़मीन की पुश्त से निकलता गुलाबी सूरज सुनहरी किरनों से लिख रहा है गुज़रते लम्हात अपने तीरों से लिख रहे हैं गुज़रती तारिख़ अपने नेज़ों से लिख रही है तमाम अहबाब लिख रहे हैं तमाम अग्यार लिख रहे हैं हरीफ़ों के ख़ंज़रों पे ख़ूँ है सियासते-मक्रो-फ़न की तलवार लिख रही है महकते ज़ख़्मों के फूल अलफ़ाज़ बन गये हैं तबस्सुमे-लुत्फ़े-यार का हर्फ़-हर्फ़ है गुंचः-ए-शिगुफ़्ता हदस के ख़ारों की नोक में जुम्बिशे-क़लम है ज़बाने-दुश्नाम लिख रही है ज़बाने-बदनाम लिख रही है ज़बाने-नाकाम लिख रही है मगर मिरा दिल, मिरा जुनूँ भी तो लिख रहा है मैं इक वरक़ हूँ तमाम एहसासे-नातमामी मगर मुकम्मल किताब जैसे जो पढ़ सको तो मुझे बताना कि इस सहीफ़े में क्या लिखा है सहीफ़ः ए-कायनात ये दो वरक़ हैं ज़मीन और आस्मान जिन पर सहीफ़-ए-कायनात तहरीर हो रहा है फ़साना हस्ती को नेस्ती का फ़साना नेकी का और बदी का फ़साना ज़ुल्मत का रौशनी का सहीफ़ःए-कायनात तहरीर हो रहा है जो कल कली थी वो आज गुल है जो आज गुल है वो कल समर है हर एक शय वक़्त की हवाओं की ज़द पे इक शमे-रहगुज़र है जो बुझ रही है जो जल रही है वुजूद पर नाज़ कर रही है हवाओं के तुन्द-ओ-तेज़ झोंके जब आँधियों का लिबास पहने उतरते हैं गारते-चमन पर तो शाखे़-गुल अपना सर झुकाकर सलाम करती है और फिर सर उठा के हँसती है और कहती है- मुझको देखो मैं फ़ितरते-लाज़वाल का रंगे-शाइरी हूँ वुज़ूद का रक़्से-दिलबरी हूँ जिसे मिटाने की कोशिशें हैं वो मिट सका है न मिट सकेगा यह रंग सह्ने-बमन से उबलेगा मक़्तलों से तुलूअ़ होगा हर्फ़े-बद मिरे ख़िलाफ़ उठाया क़लम हरीफ़ों ने मिरा गुरूर बढा़ और सर बलन्द हुआ यही सलीका है बस हर्फ़े-बद से बचने का कि अपनी ज़ात को इतनी बलन्दियाँ दे दो किसी का संगे-मलामत वहाँ तक आ न सके सदाए-कूए-मलामत तलाश करती रहे मगर नवाए-बहार-आशना को पा न सके चिरागे-इल्म-ओ-हुनर को कोई बुझा न सके जियो तो अपने दिल-ओ-जाँ के मयकदे में जियो ख़ुद अपने ख़ूने-जिगर की शराबे-नाब पियो जहाँ के सामने जब आओ ताज़ा-रू आओ हुज़ूरे-मुहतसिब-ओ शैख़ में सुबू लाओ जो ज़ख़्म-ख़ुर्दा है वो नग़्मःए-गुलू लाओ दिले-शिकस्ता में बढ़ने दो रौशनी ग़म की ये रौशनी तो है मीरास इब्ने-आदम की ये रौशनी कि जो तलवार भी सिपर भी है मिरी निग़ाह में पैमानःए-हुनर भी है हसद हसद की आँखों का रंग देखो जो दिल के अन्दर भरे हुए हैं वो ज़हर-आलूदा संग देखो जो हाथ में हैं वो फूल देखो जो रूह में है बबूल देखो लबों पे जो है वो हर्फ़ देखो हकीर कितना है ज़र्फ़ देखो कि दोस्त है और दोस्त के मुँह पे बात कहने से डर रहा है वुजूद ज़ाहिर में है मुकम्मल मगर वो अन्दर बिखर रहा है वह अपनी नफ़रत का ज़हर लेकर ख़ुद अपने ख़ूँ में उतर रहा है वो तंगदिल भी है तंगजाँ भी तुनुक ज़मीर और तुनुक ज़बाँ भी ख़बर नहीं उसको वो कहाँ है कि हर तरफ़ एक शख़्स ऐसा नज़र के अन्दर बसा हुआ है कि जिसके साये से काँपता है जब अपना क़द उससे नापता है तो अपने ख़ंजर को तोलता है हसद का मारा हुआ यह बन्दा ग़रीबे-शहरे-दयारे-ख़ुद है शराफ़ते-नफ़्स मर चुकी है बिचारा ख़्वेश-आशना नहीं है मगर उसी दोस्त की बदौलत मैं ख़ुद को पहचानने लगा हूँ मैं उसका एहसान मानता हूँ ख़ुदा करे उसका दिल कहीं से सुकूँ की दौलत तलाश कर ले क़ातिल की शिकस्त इस कमींगाह में है कितने कमाँदार बताओ तीर कितने हैं सियह तरकश में गिन के देखो तो ज़रा कौन-सा तीर है मख़सूस मिरे दिल के लिए इब्ने-मरियम को किया तुमने सरे-दार बलन्द और वो ज़िन्दा है तश्नगी तुमने मुहम्मद के नवासे को दी "चश्मःए-फ़ैज़े-हुसैन इब्ने-अली जारी है" इब्ने-मरियम न हुसैन इब्ने-अली हो लेकिन ख़ूँ में है ख़ूने-शहादत की हरारत पिन्हाँ वो जो सदियों से दहकता हुआ अंगारा है और सीने में मिरे एक नहीं, सैकड़ों-लाखों दिल हैं वो किसी देस का दिल हो कि किसी क़ौम का दिल वो किसी फ़र्दे-बशर का दिल हो ज़ख्म-ख़ुर्दा हो कि नग़्मों से भरा मेरे सीने में धड़कता है मिरा दिल बनकर कितने दिल क़त्ल करोगे आख़िर कितने जलते हुए तारों को बुझा सकते हो कितने ख़ुर्शीदों को नेज़ों पे उठा सकते हो "क़त्ल करते-करते ख़ुद तुमको जुनूँ हो जाएगा" (नामुकम्मल-ज़ेरे-तख़लीक़)

सितारों के पयाम आए बहारों के सलाम आए (ग़ज़ल)

सितारों के पयाम आये बहारों के सलाम आये हज़ारों नामा आये शौक़ मेरे दिल के नाम आये न जाने कितनी नज़रें इस दिले-वहशी पे पड़ती हैं हर इक को फ़िक्र है इसकी, ये शाहीं ज़ेरे-दाम आये इसी उम्मीद में बेताबी-ए-जाँ बढ़ती जाती है सुकूने-दिल जहाँ मुमकिन हो शायद वो मुक़ाम आये हमारी तश्नगी बुझती नहीं शबनम के क़तरों से जिसे साकी़गरी की शर्म हो आतिश-ब-जाम आये इन्हीं राहों में शैख़ो-मुह्तसिब हाइल रहे अक्सर इन्हीं राहों में हूराने-बिहिश्ती के ख़्याम आये निगाहें मुंतज़िर हैं एक ख़ुर्शीदे-तमन्ना की अभी तक जितने मिह्‌रो-माह आये नातमाम आये ये आलम लज़्ज़ते-तख़्लीक़ का है रक़्से-लाफ़ानी तसव्वुर ख़ानए-हैरत में लाखों सुब्‌हो-शाम आये कोई ‘सरदार’ कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में बहुत अहले-सुख़न उट्ठे बहुत अहले-क़लाम आये

दिल और शिकस्त-ए-दिल

वफ़ा-पैकर थी वो लेकिन, वफ़ा नाआशना निकली वो नग़्मा थी, शिकस्ते-शीशःए-दिल की सदा निकली चरागे़-लालः ए-सहरा की सूरत दिल में रौशन थी मगर पल भर में सहराओं की बेपर्वा हवा निकली बहुत बेबाक आना था, बहुत दुज़्दाना जाना था ये म्रे दिल की धड़कन भी वही आवाज़े-पा निकली वफ़ा कैसी, कहाँ की बेवफ़ाई, इश्क़ की मंज़िल थी मक़्तलगाह जिसमें हुस्न की तेग़े-अद निकली ये सारा खेल था जो वक़्त के शातिर ने खेला था न कुछ उसकी ख़ता निकली, न कुछ अपनी ख़ता निकली कोई मंज़िल नहीं आवारःए-कूए तमन्ना की नयी ख़ुशबूए-पैराहन लिये बादे-सबा निकली निगारे-आतशीं-रुख़ और कोई आनेवाला है दिले-वीराँ की तारीकी में हलका-सा उजाला है कोई तो ज़ख़्मे-दिल पर मर्हमे-मेहरो-वफ़ा रक्खे कोई तो दर्द के रुख़सार पर दस्स्ते-शिफ़ा रक्खे फिर वही मेहरो-मुरव्वत फिर वही शौक़े फ़ुज़ूल फिर वही सहराए-दर्द और दर्द के सहरा का फूळ न कोई उसकी तरह है न वो किसी की तरह करिश्मा हुस्न का हाफ़िज़ की शाइरी की तरह तमाम शहदे-विसालो-तमाम ज़हरे-फ़िराक़ वो नौबहारे-तमन्ना है ज़िन्दगी की तरह ये मेरा इश्क़ कि उसके बदन का शो’ला है ये उसका हुस्न, कि है मेरी तश्नगी की तरह मिले तो ऐसे मिले जैसे दोस्त बरसों के छूटे तो ऐसे, कि लगते हैं अजनबी की तरह चुराया जिसने, कोई साहिबे-नज़र होगा चमक रही थी वो हीरे की रौशनी की तरह चमन में रूह के तितली की तरह आयी थी और अब गयी है तो सावन कि चाँदनी की तरह तमाम कैफ़ियते-ज़िस्मो-जाँ तमाम हुई किसी का यार नहीं उसकी दिलबरी की तरह ‘चमक रहा था मिज़ा पर सितारःए-सहरी उदास वो भी थी ‘सरदार जाफ़री’ की तरह

ख़्वाब-ए-परीशाँ

मेरे दुश्मन की बेटी थी वो उसकी राहों में बारूद थी फ़र्शे-मख़मल न था आग के पेड़ थे और शाख़ों में अंगारों के फूल थे सर पे मेरे वतन के जहाज़ और दुश्मन के तय्यारे मस्रूफ़े-पैकार थे आसमाँ से क़यामत बरसने लगी उसको मालूम था उसके दुश्मन का बेटा हूँ मैं मुझको मालूम था मेरे दुश्मन की बेटी है वो उसकी आँखों में मासूमियत, ख़ौफ़ और बेबसी थी और उस ख़ौफ़ के गहरे गारों में हर चीज़ गुम हो चुकी थी रहनुमाओं की तक़रीरें अहले-सियासत के दीवनापन के बयानात अख़बारों के इक़्तिबासात हथियारों के ताजिरों के जुनूँखे़ज़ एलान रॉकेटों की सदा और तय्यारों की घनगरज कुछ न था सिर्फ़ एक दिल धड़कने की आवाज़ थी दो दिलों की वो आवाज़ जो एक दिल बन गए हाथ से हाथ मस होने की जिस्म से जिस्म छूने की आवाज़ और हम दोनों बेताब साँसों के बेरब्त-से साएबाँ के तले ख़ौफ़ के ग़ार में सब बलाओं से महफ़ूज़ थे उसका सारा बदन प्यार ही प्यार था मेरा सारा बदन हुस्न की हुस्न था इक नदी थी जो ख़ामोशी से बह रही थी कोंपलें हँस रही थीं फूल ख़ामोशी से खिल रहे थे और दुश्मन की सरहद की ठण्डी हवाएँ और मेरे वतन की महकती हवाएँ गले मिल रही थीं उनको परवाना-ए-राहदारी की कोई ज़रूरत न थी रक़्से-इबलीस (शैतान का नाच) और इतने में ज़र्रात फटने लगे और हर ज़र्रे के दिल से ख़ुर्शीद का ख़ून उबलने लगा नूर ने नार की शक्ल में सारे जिन्नात, सारे शयातीन के पाँव की बेडि़याँ काट दीं और फ़ज़ाओं में ज़हरीले सूरज बरसने लगे फिर ख़लाओं में लाखों जहन्नम हर तरफ रक़्से-इबलीस था रक़्से-इबलीस का देखनेवाला कोई न था हर तरफ उसकी आवाज़ थी जैसे इक आतशीं क़हक़हा कोई भी सुननेवाला न था बस ख़ुदा, इक ख़ुदा वहदहू-लाशरीक रक़्से-इबलीस के बाद इमारतें उड़ गयीं फ़ज़ा में पहाड़ धुनकी हुई रूई के दहकते गाले जो अपने शोलों से आसमानों को चाटते हैं ख़लाओं की आतशीं हवाएँ जो क़ल्बे-ख़ुर्शीद में पली हैं गुरूर से रक़्स कर रही हैं ज़मीन वीरान हो चुकी है न तोतले इश्क़ हैं न माँओं की उँगलियाँ हैं न नन्हे-नन्हे हसीन कीडे़ न बुलबुलें हैं न कोयलें हैं ज़मीन इक आग का कुर्रा है दरख़्त हैं आग के हवा आग की है और आग का समन्दर न कोई सरमायादार बाक़ी न कोई मज़दूर रह गया है न अब कोई इन्क़िलाब होगा न कोई ताबीर और न कोई हसीनो-दीवाना ख़्वाब होगा न शाम होगी न जाम होगा न दिल के सह्‌ने-हसीं में कोई हसीन मह्‌वे-ख़िराम होगा हर एक शय आग बन चुकी है जहन्नमों में बदल चुकि है जो अस्लिहा बेचते थे वो सब हैं नज़्रे-आतश जिन्हें थी हथियारों से महब्बत वो नज़्रे-आतश जिन्हें थी हथियारों से अदावत वो ऩज़्रे-आतश जो क़त्ल करते थे नज़्रे आतश जो क़त्ल होते थे नज़्रे आतश हज़ारहा साल बाद अगर फिर ज़मीं बनेगी न जाने कैसा निज़ाम होगा ख़बर नहीं क्या वहाँ बशर का भी नाम होगा सुनो इक आवाज़ आसमानों से जा रही है निज़ामे-शम्सी उदास है उसका एक सय्यारा खो गया है जो वुस्‌अते-क़ाइनात का शोख़ो-शंग नीलम था अश्क बनकर टपक गया है ये ख़ित्तःए-ज़म्हरीर जिस पर करोड़ों सदियाँ गुज़र चुकी हैं करोड़ों नूरी बरस जहाँ अपना सारा मफ़हूम खो चुके हैं बिसाते रक़्क़ासःए-फ़लक था ज़मीं की नीलम परी का मस्कन और उसके अतराफ़ कहकशाओं के सिलसिले थे तमाम सय्यारों से मुक़द्दस पयम्बरों की ज़मीं आयाते-आसमानी की जो अमीं थीं वह नफ़अख़ोरों की शैतनत से शिकस्त खाकर ख़ला में रूपोश हो गई है ख़्वाबे-परीशाँ ये ख़्वाब ख़्वाबे-परेशाँ था और कुछ भी न था बशर ने रोक दिया दस्त-ज़ुल्मो-ज़ुल्मत को ज़मीन अब भी दरख़शाँ है अब भी रक़्साँ है फिर आरज़ू के चिरागों से दिल फ़ुरोज़ाँ है वो ख़ौफ़ो-दर्द के गारों से आफ़ताब आये वो हुस्नो-इश्क़ के रंगीन माहताब आये वो बोसा-बोसा चमन-दर-चमन गुलाब आये

आबला-पा

काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब इक आबला-पा वादि-ए-पुरख़ार में आवे -ग़ालिब साये में दरख़्तों के बैठे हुए इन्सानों ऐ वक़्त के मेहमानों किस देस से आये हो किस देस को जाना है ऐ सोख़्ता-सामानों ये वुस्‌अते-मैदाँ है या दर्द का सहरा है इक धूप का जंगल है या प्यास का दरिया है दरिया के परे क्या है पत्थर है कि चश्मा है नग़्मा है कि नालः है शबनम है कि शो’ला है शायद कोई साहिर है जो डूबते सूरज के दरवाज़े पे बैठा है अफ़्सूने-तमाशा है २ है रात की राहों मे तारों का सफ़र जारी और बादे-बियाबानी सरमस्तो-ग़ज़ल-ख़्वाँ है हर ज़र्रे के सीने में इक शम्‌अ फ़ुरोज़ाँ है हर खा़र के नेज़े पर ख़्वाबों का गुलिस्ताँ है ३ ऐ इश्क़ जुनूँ-पेशा उस सिम्त ही चलना है डूबा है जहाँ सूरज वाँ रेत के टीले पर या नाकः ए-लैला है या महमिले-सलमा है ४ सद-क़ाफ़िला पिन्हाँ है सद-क़ाफ़िला पैदा है आवाज़े-जरस लेकिन इस दश्त में तन्हा है सदियों से इसी सूरत है हुक़्मे-सफ़र जारी फ़र्माने-सितम जारी एलाने-करम जारी ५ फूलों के कटोरों में शबनम की गुलाबी है और बादे-सहरगाही बदमस्त शराबी है कल सुबह के दामन में तुम होंगे न हम होंगे बस रेत के सीने पर कुछ नक़्शे-क़दम होंगे साये में दरख़्तों के फिर लोग बहम होंगे किस देस से आये हो किस देस को जाना है ऐ वक़्त के मेहमानो ऐ शमे-तमन्ना पर जलते हुए परवानो ऐ सोख़्ता-सामानो!

आये हम ग़ालिब-ओ-इक़बाल के नग़्मात के बाद(ग़ज़ल)

आये हम ग़ालिब-ओ-इक़बाल के नग़्मात के बाद मुसहफफ़े-इश्क़ो-जुनूँ हुस्न की आयात के बाद ऐ वतन ख़ाके-वतन वो भी तुझे दे देंगे बच गया है जो लहू अब के फ़सादात के बाद नारे-नुम्रूद यही और यही ग़ुलज़ारे-ख़लील कोई आतिश नहीं आतिशक़दा-ए-ज़ात के बाद राम-ओ-गौतम की ज़मीं हुर्मते-इन्साँ की अमीं बाँझ हो जाएगी क्या ख़ून की बरसात के बाद हमको मालूम है वादों की हक़ीक़त क्या है बारिशे-संगे-सितम, ज़ामे-मुदारात के बाद तश्नगी है कि बुझाये नहीं बुझती ‘सरदार’ बढ़ गयी कौसरो-तस्नीम की सौग़ात के बाद

करबला

[एक रजज़] फिर अलअतश की है सदा जैसे रजज़ का ज़मज़मा फिर रेगे-सहरा पर रवाँ है अहले-दिल का कारवाँ नहरे-फ़ुरात आतश-ब-ज़ाँ रावि-ओ-गंगा ख़ूँचिकाँ कोई यज़ीद ए-वक़्त हो या शिम्र हो या हुरमुला उसको ख़बर हो या न हो रोज़े-हिसाब आने को है नज़्दीक है रोज़े-जज़ा ऐ करबला ऐ करबला २. गूँगी नहीं है ये ज़मीं गूँगा नहीं ये आसमाँ गूँगे नहीं हर्फ़ो-बयाँ गूँगी अगर है मस्लिहत ज़क़्मों को मिलती है ज़बाँ वो खूँ जो रिज़्क़-ख़ाक़ था ताबिन्दा है पाइन्दा है सदियों की सफ़्फ़ाकी सही इन्सान अब भी ज़िन्दा है हर ज़र्रा-ए-पामाल में दिल के धड़कने की सदा ऐ करबला ऐ करबला ३ अर्शे-रुऊनत के ख़ुदा अर्ज़े-सितम के देवता ये टीन और लोहे के बुत ये सीमो-ज़र के किब्रिया बारूद है जिन की कबा रॉकेट की लय जिन की सदा तूफ़ाने-ग़म से बेख़बर ये क़समवादो-कमहुनर निकले हैं ले के अस्लिहा लेकिन जल उट्ठी ज़ेरे-पा रेगे-नवाहे-नैनवा आँधी है मश्रिक़ की हवा शो’ला फ़लसतीं की फ़ज़ा ऐ करबला ऐ कराबला ४ ये मदरसे दानीशकदे इल्मो-हुनर के मयकदे इनमें कहाँ से आ गये ये कर्गसों के घोंसले ये जह्‌ल की परछाइयाँ लेती हुई अंगडाइयाँ दानिशवराने-बेयक़ीं ग़ैरों के दफ़्तर के अमीं अल्फ़ाज़ के ख़्वाजासरा इनके तसर्रुफ़ में नहीं ख़ूने-बहारे-ज़िंदगी इनके तसर्रुफ़ में नहीं ख़ूने-हयाते-ज़ाविदाँ बर्हम है इनसे रंगे-गुल आज़ुर्दा है बादे-सबा ऐ करबला ऐ करबला ५ लेकिन यही दानिश क़दे हैं इश्क़ के आतशक़दे हैं हुस्न के ताबिशक़दे पलते हैं जिनकी गोद में लेकर अनोखा बाँकपन अस्रे-रवाँ के कोहकन मेरे ज़वानाने-चमन बुलबुल-नवा, शाहीं अदा ऐ करबला ऐ करबला ६ ऐ ग़म के फ़र्ज़न्दो उठो ऐ आरज़ूमन्दो उठो ज़ुल्फ़ों की गलियों में रवाँ दिल की नसीमे-ज़ाँफ़िज़ा होटों की कलियों में ज़वाँ बूए-गुल-ओ-बूए-वफ़ा आँखों में तारों की चमक माथों पे सूरज की दमक दिल में जमाले-शामे-गम रुख़ पर जलाले-बेनवा गूँजी हुई ज़ेरे-क़दम तारीक़ की आवाज़े-पा शमशीर हैं दस्ते-दुआ ऐ करबला ऐ करबला ७ प्यासों के आगे आएँगे आएँगे लाये जाएँगे आसूदगाने-जामे-ज़म सब साहिबाने-बेकरम खुल जाएगा सारा भरम झुक जाएँगे तेग़ो-अलम पेशे-सफ़ीराने-क़लम रख़शन्दा है रूहे-हरम ताबिन्दा है रूए-सनम सरदार के शि’रों में है ख़ूने-शहीदाँ की ज़िया ऐ करबला ऐ करबला

ऐ शहसवारो!

फैला हुआ है दश्त-ए-जिगरताब प्यासे हैं चश्मे प्यासे है गिर्दाब कुछ और होंगे जीने के आदाब ख़ूने-जिगर ही अब है मए-नाब ऐ शहसवारो ऐ शहसवारो उठते बगूले, इफ़ीत पैकर सूरज की किरनें, सफ़्फ़ाक ख़ंजर गिरते है कटकर, शाहीं के शहपर शौके़-सफ़र ही अपना है रहबर ऐ शहसवारो ऐ शहसवारो वादी-ब-वादी, मंज़िल-ब-मंज़िल सहरा-ब-सहरा, साहिल-ब-साहिल क़ातिल-ब-क़ातिल, क़ातिल-ब-क़ातिल दिल-सा सिपाही, सबके मुक़ाबिल ऐ शहसवारो ऐ शहसवारो आई कहाँ से बूए-बहाराँ जादू भरी है सौत-ए-हज़ाराँ शायद यहीं है शहरे-निगाराँ कुछ और हिम्मत ऐ ज़ौक़े-याराँ ऐ शहसवारो ऐ शहसवारो जाना है आगे हद्दे-नज़र तक अज़्मे-सफ़र से ख़त्मे-सफ़र तक मौज़े-बला से मौज़े-गुहर तक ख़ुश्की-ए-लब से दामने-तर तक ऐ शहसवारो ऐ शहसवारो

अल्‌अ़तश

अल्‌अ़तश, अल्‌अ़तश,अल्‌अ़तश हमनफ़स गर्म लू, हमक़दम ख़ारो ख़स ज़ेर-ए-पा बिजलियाँ, आँधियाँ पेश-ओ-पस सारबाँ और कुछ तेज़ बाँगे-ज़रस अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश रहगुज़र, रहगुज़र, कारवाँ, कारवाँ प्यास की सरज़मीं, प्यास का आसमाँ ख़्वाब-दर-ख़्वाब रक़साँ है जूए-रवाँ सारबाँ और कुछ तेज़ बाँगे-ज़रस अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश महमिलों में ये सब बे-रिदा कौन है पा-ब-ज़ंज़ीर ये बे-नवा कौन हैं ये शहीदाने-राहे वफ़ा कौन हैं सारबाँ और कुछ तेज़ बाँगे-जरस अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश ख़ून से सुर्ख़ सूरज हैं नेज़ो पे सर सुर्ख़ हैं शह्‌रे-मज़लूम के बामो-दर शब के सीने में ख़ंजर है रंगे-सहर सारबाँ और कुछ तेज़ बाँगे-जरस अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश हक्क़ो-बातिल की हर अह्‌द में जंग है हर ज़माना शहादत से गुलरंग है हर रजज़ शो’लः-ए-नूरो-आहंग सारबाँ और कुछ तेज़ बाँगे-जरस अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश अल्‌अ़तश

शो’लः-ए-ख़ुर्शीद-ए-महशर

अकीदे बुझ रहे शमे-जाँ गुल होती जाती है मगर ज़ौके़-जुनूँ की शो’ला-सामानी नहीं जाती ख़ुदा मालूम किस-किस के लहू की लालःकारी है ज़मीने-कूए-ज़ानाँ आज पहचानी नहीं जाती अगर य़ूँ है तो क्यों है, यूँ नहीं तो क्यों नहीं आख़िर यकीं मुह्‌कम है, लेकिन दिल की हैरानी नहीं जाती लहू जितना था सारा सर्फ़े-मक़्तल हो गया, लेकिन शहीदाने-वफ़ा के रुख़ के ताबानी नहीं जाती परीशाँ रोज़गार आशुफ़्ताहालाँ का मुक़द्दर है कि इस ज़ुल्फ़े-परीशाँ की परीशानी नहीं जाती हर इक शय और महँगी और महँगी होती जाती है बस इक ख़ूने-बशर है जिसकी अर्ज़ानी नहीं जाती नये ख़्वाबों के दिल में शो’लः-ए-ख़ुर्शीदे-महशर है ज़मीरे-हज़रते-इन्साँ की सुल्तानी नहीं जाती लगाते हैं लबों पर मुहर अर्बाबे-ज़बाँ बन्दी ‘अली सरदार’ की शाने-ग़ज़लख़्वानी नहीं जाती

पस-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ

पस-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ क्या है आँसू है कि तारे हैं बुझी मग़्मूम आँखें हैं कि अंगारे दहकते हैं तमन्नाओं का सैले-नग़्मा है या जोशे-गिर्यः है मुहाफ़िज़ कुछ नहीं कहते मगर ज़ंज़ीर की आवाज़ यह मुज़्दा सुनाती है कि हल्के टूट जाएँगे ब-फ़ैज़े-इश्क सब आवारा मैक़श लौट आएँगे अगरचे जामो-साक़ी कै़द हैं और मुह्‌तसिब तख़्ते-अदालत पर रियाकारों के हल्के़ में सियहकारों के पहरे में मगर कब तक कि ज़ंज़ीरों की झनकारों का नग़्मा बढ़ता जाता है कि ज़िन्दानों की दीवारों का क़ामत घटता जाता है सलीबों पर सही पैगम्बरों की हुक्मरानी है

चार शे’र

जब से इन्सान की अज़्मत पे ज़वाल आया है है हर इक बुत को ये दा’वा कि खुदा है जैसे एक आवाज़-सी है वक़्त के सन्नाटे में दिले-गेती के धड़कने की सदा हो जैसे है उफ़ुक़-ता-ब-उफ़ुक़ ख़ूने-शहीदाँ की शफ़क़ किसी शो’ले के लपकने की अदा हो जैसे दिल को इस तरह से छूती है किसी हुस्न की याद आरिज़े-गुल पे लबे-बादे-सबा हो जैसे

हवस-ए-दिल

‘हवस को है निशाते-कार क्या-क्या’ -गा़लिब हवस-ए-दिल है कि रक़्से-महो-साल और अभी लुत्फ़े-माशूक़ः-ए-ख़ुर्शीदे-जमाल और अभी दर अभी बन्द न हो शौक़ के मयखा़ने का जामे-जम और अभी जामे-सिफ़ाल और अभी इक ग़ज़ल और किसी दुश्मने-जाँ की ख़ातिर वही आतशकदः-ए-हिज्रो-विसाल और अभी बस निखरने ही को है दर्द के शो’ले का जमाल चश्मे-मज़्लूम में थोडा़-सा जलाल और अभी

दो शे’र

ये कौन आया शबे-वस्ल का जमाल लिए तमाम उम्रे-गुज़श्ता के माहो-साल लिए हज़ार रंगे-खिज़ाँ का बदन पे पैराहन ज़वाले-हुस्न में भी हुस्ने-लाज़वाल लिए

नयी नस्ल के नाम

मुझसे नज़रें चुरा कर कहाँ जाओगे ऐ मेरे आफ़ताबो राह में रात की बेकराँ झील है और ऊँची हैं लहरें असमाने सुख़न के नये माहताबो तीरगी ढूँढ़ती फिर रही है तुम्हारा पता और वो सिर्फ़ मैं जानता हूँ दर्द की शाहरह से गुज़र कर आँसुओं की नदी के किनारे ग़म की बस्ती में जो नूर का झोंपडा़ है उसमें रहते हो तुम मेरी ही तरह ख़ानः-ख़राबी सज़िशे कर्गसों की तरह उड़ रही हैं उनके पर थक के गिर जाएँगे और तुम्हारी बलन्दी न छू पाएँगे तुम इसी तरह परवाज़ करते रहोगे और तुम्हारे परों की चमक कहकशाँ, कहकशाँ, गीत गाती रहेगी ऐ मिरे शोलः-पैकर उक़ाबो अपने लौहो-क़लम तो दिखाओ ज़रा सच कहो, क्या तुम्हारे तराशे हुए लफ़्ज़ में मेरी आवाज़ का शाइबः भी नहीं मेरी आवाज़ जो पहले ग़ालिब की आवाज़ थी और फिर रूहे-इक़बाल का ज़मज़म बन गई आज के नग़्मः-ए-शौक़ में ढल गई सुब्‌हे-फ़र्दा कि वादी में जूए-रवाँ है मेरी आवाज़ पत्थर में शो’लः है शो’ले में शबनम और तूफ़ाँ में तूफ़ाँ और तुम्हारे भी सीने में उसकी चुभन है सच कहो आने वाले ज़माने की रौशन किताबो मुझसे नज़रें चुराकर कहाँ जाओगे?

ये बेकसो-बेक़रार चेहरे(ग़ज़ल)

ये बेकसो-बेक़रार चेहरे सदियों के ये सोगवार चेहरे मिट्टी में पड़े दमक रहे हैं हीरों की तरह हज़ार चेहरे ले जाके इन्हें कहाँ सजाएँ ये भूक के शाहकार चेहरे अफ़्रीका -ओ-एशिया की ज़ीनत ये नादिरे-रोज़गार चेहरे माज़ी के खण्डर की तरह दिलकश ये शम्‌ए-सरे-मज़ार चेहरे फ़ीके हैं फ़रोगे-जर के बावस्फ़ ताबिन्दा हैं ख़ाक़सार चेहरे गुज़रे हैं निगाहो-दिल से होकर हर तरह के बेशुमार चेहरे मग़रूर अना के घोंसलों में बैठे हुए कमइयार चेहरे नाक़ाबिले-इल्तिफ़ात आँखें नाक़ाबिले-ऐतिबार चेहरे शुहरत के बलन्द आस्माँ पर छुटते हुए-से अनार चेहरे पल भर में धुआँ-धुआँ मगर सब पल भर में फ़क़त ग़ुबार चेहरे सोने का चढ़ा है पानी पीतल के ये शानदार चेहरे पहने हैं नक़ाबे-पारसाई जन्नत के कि़रायादार चेहरे इन सब से मगर हसीनतर हैं रिन्दों के गुनाहगार चेहरे हँसते हुए नैज़ा-ओ-सिनाँ पर वो शबनमे-नोके-ख़ार चेहरे चुपके-चुपके सुलग रहे हैं आतशकदः ए-बहार चेहरे शो’लों के मिज़ाज-आशना हैं बर्फ़ाब-से बेशरार चेहरे उम्मीद की शम्‌अ़ से फ़ुरोज़ाँ शाइस्तः ए-इन्तिज़ार चेहरे

राज निराज

[ये अशआर मुम्बई के फ़सादा के ज़माने में लिखे गये] सुना है बन्दोबस्त अब सब ब-अन्दाज़े-दिगर होंगे सितम होगा, मुहाफ़िज़े-शहर बेदीवारो-दर होंगे सज़ाएँ बेगुनाहों को मिलेंगी बेगुनाही की कि फ़र्दे-जुर्म से मुज्रिम की मुंसिफ़ बेख़बर होंगे फ़क़त मुख़बिर शहादत देंगे ऐवाने-अदालत में फ़क़त तीरो-सिनाँ, शमशीरो-ख़ंजर मोतबर होंगे सजाई जाएगी बज़्मे-अज़ा ईज़ा-रसानों से कफ़न पहनाएँगे जल्लाद, क़ातिल नौहःगर होंगे फ़लक थर्रा उठेगा झूटे मातम की सदाओं से यतीमों और बेवाओं के आँसू बेअसर होंगे रसन में माँओं और बहनों के बाज़ू बाँधे जाएँगे शहीदाने-वफ़ा ए ख़ूँ भरे नैज़ों पे सर होंगे मनाया जाएगा जश्ने-मसर्रत सूने खँदरों में अँधेरी रात में रौशन चिरागे़-चश्मे-तर होंगे जो ये ताबीर होगी हिन्द के देरीना ख़्वाबों की तो फिर हिन्दोस्ताँ होगा न इसके दीदःवर होंगे

एक शे’र

कमज़रफ़ी-ए-गुफ़्तार है दुश्नाम-तराज़ी तहज़ीब तो शाइस्तगी-ए-दीदए-तर है

कोई हो मौसम थम नहीं सकता रक़्से-जुनूँ दीवानों का(ग़ज़ल)

कोई हो मौसम थम नहीं सकता रक़्से-जुनूँ दीवानों का ज़ंजीरों की झनकारों में शोरे-बहाराँ बाक़ी है इश्क़ के मुजरिम ने ये मंज़र औ़ज़े-दार से देखा है ज़िन्दाँ-ज़िन्दाँ, महबस-महबस, हल्क़ःए-याराँ बाक़ी है बर्गे-ज़र्द के साये में भी जूए-तरन्नुम जारी है ये तो शिकस्ते-फ़स्ले-ख़िज़ाँ है, सौते-हज़ाराँ बाक़ी है मुह्तसिबों की ख़ुश्क़ी-ए-दिल पर एक ज़माना हँसता है तर है दामन और वक़ारे-बादा-गुसाराँ बाक़ी है फूल-से चेहरे, चाँद-से मुखड़े नज़रों से रूपोश हुए आरिज़े-दिल पर रंगे-हिना है, दस्ते-निगाराँ बाक़ी है

अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए(ग़ज़ल)

(‘आतश' की ज़मीन में) कभी ख़न्दाँ, कभी गिरियाँ, कभी रक़्साँ चलिए दूर तक साथ तिरे, उम्रे-गुरेज़ाँ, चलिए ज़ौक़े-आराइश-ओ-गुलकारी-ए-अश्क़-ए-ख़ूँ से कोई भी फ़स्ल हो, फ़िरदौस-ब-दामाँ चलिए रस्मे-देरीनःए-आलम को बदलने के लिए रस्मे-देरीनःए-आलम से गुरेज़ाँ चलिए आसमानों से बरसता है अँधेरा कैसा अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए शोलः-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बादे-समूम शोलः-ए-जाँ की तरह चाक-गिरीबाँ चलिए अक़्ल के नूर से दिल कीजिए अपना रौशन दिल की राहों से सूए-मंज़िले-इन्साँ चलिए ग़म नयी सुब्‌ह के तारे का बहुत है लेकिन लेके अब परचमे-ख़ुर्शीदे ज़र-अफ़शाँ चलिए सर-ब-क़फ़ चलने की आदत में न फ़र्क़ आ जाए कूचःए-दार में सरमस्तो-ग़ज़ल-ख़्वाँ चलिए

शह्‌र-ए-याराँ

जिस पे नाज़िल हो रहा है अब मशीनों का अज़ाब नग़्मः-ए-शाइस्तगिए-दस्तकाराँ था ये शहर ख़ाके-दिल उडती है अब जिस तरह पर्वानों की ख़ाक सुब्‌हे-गुल, रोज़े-तरब, शामे-बहाराँ था ये शहर कौन है फ़रियादरस, माँगेंगे किससे ख़ूँबहा ज़ेरे-पाए-नख़्वते-आदम-शिकाराँ था ये शहर तौक़े-ज़रीं गर्दने-ख़र में नज़र आता है आज कल तलक जौलाँगहे-चाबुक-सवाराँ था ये शहर

एक शे’र

अपने बेबाक निगाहों में समाया न कोई और वह है कि हर इक ताज़ा ख़ुदा से ख़ुश है

एक शे’र

आस्तीं ख़ून में तर प्यार जताते हो मगर क्या ग़ज़ब करते हो ख़ंजर तो छुपाओ साहब

नज़्म

जो आस्माँ पे चमकता है वो क़मर है कुछ और जिसे हम अपना कहें वो क़मर ज़मीं पे है वो जिसके हुस्न से रौशन जबीं सितारों की वो जिसके हुस्न से रंगीनियाँ बहारों की वो हुस्न फूल में, ज़र्रे में, आफ़ताब में है वो हुस्न हर्फ़ में, नग़्में में है, किताब में है वो हुस्न शोले में, शबनम में है, शराब में है वो हुस्न जिससे है तस्वीरे-क़ाइनात में रंग

समन्दर की बेटी

"हमें हुस्न का मे’यार बदलना है।" -प्रेमचन्द जब वह बोझ उठाती है और टोकरी सर पर रखती है दो हाथों की कौसे-कुज़ह में उसकी गर्दन और भी ऊँची हो जाती है इक तलवार-सी खिंच जाती है यह गर्दन जो कभी नहीं झूक पाती है [हाँ शर्माकर झुक जाने की बात अलग है] यह गर्दन जो जिस्म के ऊपर चेहरे के गुलदस्ते को और होंटों के बर्गे-गुल को आरास्ता करना जानती है जैसे कोई दस्ते-हिनाई नाज़ो-अदा से इश्को़-जुनूँ को हुस्न का तुहफ़ः पेश करे दरियाओं की सिमटती चाँदनी सोने जैसी धूप में जगमग, जगमग करती सड़कों और गलियों से ऐसे गुज़रती है जैसे कोई मग़रूर जवानी अपने बदन पर, अपने बदन कि किरनों का पैरहन पहने बहक रही हो उसकी चाल में फ़ितरी लोच हवाओं का पानी की लहरों की रवानी उसका सीना बोझ से नीचे और उभर कर चाँद और सूरज पर हँसता है उसकी भौंओं की शोख़ कमानें तन जाती हैं कूल्हे और कमर की जुम्बिश रानों से पैरों के तलवों तक बल खाती चली जाती है उसमें है रफ़्ताते-ज़माना की बेबाकी जो सदियों से ताजो-तख़्त को ठुकराती और महलों को क़ब्रों में सुलाती रवाँ दवाँ है ऊँची एडी़ हिरनखुरी की जूतियाँ पहने उचक-उचक कर चलनेवाली दोशीजाएँ घबरा कर पीछे हट जाती है और मछेरन अपनी चाँदी, अपना सोना सर पे उठाये आगे बढ़ जाती है उसके बालों और बालों में सजे हुए फूलों की खु़शबू चारों सिम्त बिखर जाती है दूर से एक आवाज़ आती है मछली ले लो मछली ले लो रोज़ सहर को नीले साहिल की यह नीलम-पैकर बेटी रंगे-शफ़क़ से ज़ाहिर होकर शाम तलक फिर रंगे-शफ़क के पर्दे में छुप जाती है और समन्दर गीत सुनाता रहता है मैंने अजन्ता की आँखों में उसको फ़ुरोज़ाँ देखा है

दो शे’र

तसव्वुर अपना, अपनी आरज़ू, शौक़े-फ़ुज़ूल अपना लब उसके, आरिज़ उसके, नक्‌हने-ज़ुल्फ़े-दराज़ उसकी ख़मोशी एक गुबाँगे-बहारे-आशिक़ाना है तबस्सुम उसकी ग़ज़लें, रूए-रौशन है बयाज़ उसकी

दौलत-ए-दुनिया का हिसाब

तुम कि हो मुहतसिबे-सीमो-ज़रो-लालःओ-गुहर हमसे क्या माँगते हो दौलत-ए-दुनिया का हिसाब चन्द तस्वीरे-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत चन्द नाकर्दा गुनाहों के सुलगते हुए ख़्वाब हाँ, मगर अपनी फ़क़ीरी में गनी हैं हम लोग दौलते-दर्दे-दिलो-दर्दे-जिगर रखते हैं खु़श्किए-लब है तो क्या, दीदःए-तर रखते हैं अपने क़ब्ज़े में नहीं अतलस-ओ-संजाब-ओ-सुमूर जिस्म पर पैरहने-शम्सो-क़मर रखते हैं घर तो रौशन नहीं अल्मास के फ़ानूसों से कस्र-ओ-ऐवाँ पे जो बरसे वो शरर रखते हैं जो ज़माने को बदल दे वो नज़र रखते हैं इस ख़ज़ाने में से जो चाहो उठा ले जाओ और बढ़ जाता है यह माल जो कम होता है हम पे तो रोज़ ज़माने का करम होता है शाखे़-गुल बनता है जब हाथ क़लम होता है।

रक़्स-ए-खि़ज़ाँ

ख़िज़ाँ रसीदा निगारे-बहार रक़्स में है अज़ीब आलमे-बेएतिबार रक़्स में है बरस रहे हैं दरख़्तों से रंग, सूरते-बर्ग तिलिस्म-ख़ानः-ए-लैलो-नहार रक़्स में है गुज़र रहा है ज़माना बहार है न ख़िज़ाँ बस इक तबस्सुमे-बर्क़ो-शरार रक़्स में है न जाने कौन है माशूक़ कौन है आशिक़ न जाने किसका दिले-बेक़रार रक़्स में है जुनूँ ने पैरहने-बर्गो-बार उतार दिया बरह्‌नगी है कि दीवानावार रक़्स में है यह काइनात का हैरतकदा वुजूद का राज़ अज़ल के रोज़ से बे-इख़्तियार रक़्स में है

करिश्मा

मिरे लहू में जो तौरैत का तरन्नुम है मिरी रगों में जो यह ज़मज़मः ज़ुबूर का है यह सब यहूदो-नसारा के ख़ूँ की लहरें हैं मचल रही हैं, जो मेरे लहू की गंगा में मैं साँस लेता हूँ जिन फेफड़ों की जुम्बिश से किसी मुगन्नि-ए-आतश-नफ़स ने बख़्शे हैं ज़वाँ है मुसहफ़े-यज़दाँ का लह्‌ने-दाऊदी किसी की नर्गिसी आँखों का नर्गिसी पर्दा मिरी नज़र को अता कर रहा है बीनाई निगाहे-शौक़ की है बेकरारियाँ क्या-क्या तुलूए-मिह्र की हैं नक़्शकारियाँ क्या-क्या महो-नुजूम की हैं ज़ल्वः-बारियाँ क्या-क्या ज़मीं से ता-ब-फ़लक रक़्स में हैं लैलाएँ शिगुफ़्ता सूरते-गुल, हर तरफ़ तमन्नाएँ ख़ुदा का शुक्र अदा जब ज़बान करती है तो दिल तड़पता है इक ऐसी क़ाफ़िरा के लिए खु़दा भी मेरी तरह, जिस को प्यार करता है वो जिस्मे-नाज़, युहिब्बुल-ज़माल का नग़्मा वो सर से पाँव तलक माहो-साल का नग़्मा जलाले-हिज्रो-शिकोहे-विसाल का नग़्मा जहाने-इश्क़ में, तफ़रीके-इस्मो-ज़ात नहीं जहाने-हुस्न में तक़सीमे-हिन्द-ओ-पाक नहीं सिवा गुलों के गिरीबाँ किसी का चाक नहीं यह आलमे-बशरी, एहतिराम का आलम तमामतर है दुरूद-ओ-सलाम का आलम नफ़स-नफ़स में मिरे ज़मज़मः महब्बत का मिरा वुजूद, क़सीदा बशर की अज़्मत का ये सब करिश्मा है, इन्सानियत की वहदत का

परवीन शाकिर

वह विद्यापति की शाइरी की मासूम-ओ-हसीन-ओ-शोख़ राधा वह अपने ख़याल का कन्हैया उस शहर में ढूँढ़ने गई थी दस्तूर था जिसका संगबारी वह फ़ैज़-ओ-फ़िराक़ से ज़ियादः तक़दीसे-बदन की नगमः-ख़्वाँ थी तहज़ीबे-बदन की राज़दाँ थी गुलनार लबों से गुलफ़िशाँ थी लब-आशना लब ग़ज़ल के मिसरे जिस्म-आशना जिस्म ऩज़्म-पैकर लफ़ज़ों की हथेलियाँ हिनाई तश्बीहों की उँगलियाँ गुलाबी सरसब्ज़ ख़याल का गुलिस्ताँ मुब्‌हम से कुछ आँसुओं के चश्मे आहों की वो हलकी-सी हवाएँ सदबर्ग हवा में मुन्तशिर थे तितली थी कि रक़्स कर रही थी पुरशोर मुआफ़िक़त के बाज़ार अफ़वाहें फ़रोख़्त कर रहे थे वह अपनी शिकस्ता शख़्सीयत को अशआर की चादरों के अन्दर इस तरह समेटने लगी थी एहसास में आ रही थी बुस्‌अत नज़रों का उफ़क़ बदल रहा था और दर्दे-जहाने-आदमीयत टूटे हुए दिल में ढल रहा था उस अलमे-कैफ़ो-कम में इक दिन इक हादिसे का शिकार होकर जब ख़ूँ का कफ़न पहन लिया तो अड़तीस सलीबें नौहःख़्वाँ थीं ख़ामोश था कर्बे-ख़ुदकलामी अब कुछ नहीं रह गया है बाक़ी बाक़ी है सुखन की दिलनवाज़ी जन्नत में है जश्ने-नौ का सामाँ महफ़िल में मजाज़ओ-बायरन हैं मौजूद हैं कीट्स और शैली ये मर्गे-जवाँ के सारे आशिक़ खुश हैं कि ज़मीने-पाक से इक नौमर्ग बहार आ गई है लिपटी हुई ख़ाक की है खुशबू और सायःफ़िगन सहावे-रहमत

सिफ़ारतख़ानःए-जाँ

[एक नज़्म हज़ार साल पुरानी] हमारे शहरे-दिल में इक सिफ़ारतख़ानः ए-जाँ है सिफ़ारत जिस का पर्चम दिलजलों की आहे-सोज़ाँ है बस इक दस्तूरे-इश्को़-आशिक़ी जो मीरे-सामाँ है यहाँ आने का रस्ता कूचः-ए-चाक-गिरीबाँ है यहाँ है रौशनी तन्हा चिराग़े-चश्मे-पुरनम की यहाँ आओ तो खुल जाएँगी राहें सारे आलम की यहाँ कश्मीर भी, ढाका भी है, काशी भी, का’बः भी ज़मीं का हुस्न भी और जल्वःए-अर्शे-मुअल्ला भी यहाँ झेलम भी है, दज़ला भी है, डेन्यूब-ओ-गंगा भी अकब मे दूर तक फैला हुआ दश्ते-तमन्ना भी सरोदे-‘मंज़िले-मा-किब्रिया’ उसका तराना है हक़ीक़त है फ़क़त इन्सान, बाक़ी सब फ़साना है

नज़्र-ए-अख़्तर-उल-ईमान

रही है क़श्तिए उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता ख़यालो-ख़्वाब होगा ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता जो उठता है दिलो-जाँ से धुआँ आहिस्ता आहिस्ता बुझी जाती है कोई कहक्शाँ आहिस्ता आहिस्ता नोटः मर्हूम अख़्तर-उल-ईमान ने अपनी बीमारी के ज़माने में एक नज़्म कही थी, जिसके आख़िरी दो मिस्रे ये थे: बहे जाती है मेरी कश्तिए-उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता ख़यालो-ख़्वाब होता जा रहा है ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता मैंने इनको एक कत्‌अः में तब्दील कर दिया है।

तीन शे’र

तेरी दिलबरी का तुह्‌फ़ः, ये सितार:बार आँखें मए-शौक़ से छलकती ख़ुशो-पुरख़ुमार आँखें मिरे दिल पे साया-अफ़गन, मिरी रूहो-जाँ में रौशन ये फ़रिशतःगौर ज़ुल्फ़ें, ये खुदा-शिकार आँखें रहे ता-अबद सलामत, ये दिलो-नज़र की जन्नत ये सदाबहार पैकर, ये सदाबहार आँखें

अहमद फ़राज़ के नाम

चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए -फ़राज़ तुम्हारा हाथ बढ़ा है जो दोस्ती के लिए मिरे लिए है वो इक-यारे-ग़मगुसार का हाथ वो हाथ शाख़े-गुले-गुलशने-तमन्ना है महक रहा है मिरे हाथ में बहार का हाथ खुदा करे कि सलामत रहें ये हाथ अपने अता हुए हैं जो ज़ुल्फ़ें सँवारने के लिए ज़मीं से नक़्श मिटाने को ज़ुल्मो-नफ़रत का फ़लक से चाँद-सितारे उतारने के लिए ज़मीने-पाक हमारे जिगर का टुकडा़ है हमें अज़ीज़ है देहली-ओ-लखनऊ की तरह तुम्हारे लहज़े में मेरी नवा का लहज़ा है तुम्हारा दिल है हसीं मेरी आरज़ू की तरह करें ये अह्‌द कि औज़ारे-जंग जितने हैं उन्हें मिटाना है और ख़ाक में मिलाना है करें ये अह्‌द कि अर्बाबे-जंग हैं जितने उन्हें शराफ़तो-इन्सानियत सिखाना है जिएँ तमाम हसीनाने ख़ैबरो-लाहौर जिएँ तमाम जवानाने-जन्नते-कश्मीर हो लब पे नग़्मःए-मेहरो-वफ़ा की ताबानी किताबे-दिल पे फ़कत हर्फ़े-इश्क़ हो तहरीर "तुम जाओ गुलशने-लाहौर से चमन-बर-दोश हम आएँ सुब्‌हे-बनारस की रौशनी लेकर हिमालया की हवाओं की ताज़गी लेकर और उसके बाद ये पूछें कि कौन दुश्मन है?"

वेद-ए-मुक़द्दस

शुऊरे-इन्साँ के आफ़ताबे-अज़ीम की अव्वलीं शुआएँ जो लह्‌नो-आवाज़ बन गयी हैं वो अव्वलीं आलमे-तहैयुर ज़मीन क्या, आस्मान क्या है? सितारे क्यों जगमगा रहे हैं? तहैयुर इक नग़्मः-ए-मुसलसल तहैयुर इक रक़्से-वालिहाना तहैयुर इक फ़िक्रे-आरिफ़ाना कोई है ख़ालिक़ तो वो कहाँ है? अगर नहीं है तो फिर ये क्या है? ये दिल में किस नूर की ज़िया है बशर का जल्वा है या ख़ुदा है?

चण्डालिका

[मेरे वतन बलरामपुर से चन्द मील के फ़ासले पर श्रीवस्ती का क़दीम इलाक़ा है जहाँ गौतम बुद्ध ने बहुत सी बरसातें गुज़ारीं। चण्डालिका एक अछूत लड़की है जो गौतम बुद्ध के एक शागिर्द आनन्द पर आशिक़ हो गई थी। यह इश्क़ उसको गौतम बुद्ध के विहार तक ले गया और वह वहीं रह गई।] ये ख़ाके-पाक जो गौतम के क़दमों से मुनव्वर है श्रीवस्ती की बस्ती है यहाँ इक सादा-ओ-मासूम दिल रौशन हुआ था इश्क़ के पाकीज़ा शो’ले से धुआँ उट्ठा बदन से ऊद-ओ-अम्बर की महक आई वो ख़ुश्बू अब भी आवारा है जंगल की हवाओं में

लू के मौसम में बहारों की हवा माँगते हैं (ग़ज़ल)

लू के मौसम में बहारों की हवा माँगते हैं हम क़फ़े-दस्ते-ख़िज़ाँ पर भी हिना माँगते हैं हमनशीं सादादिली-हाए-तमन्ना मत पूछ बेवफ़ाओं से वफ़ाओं का सिला माँगते हैं काश कर लेते कभी काबा-ए-दिल का भी तवाफ़ वो जो पत्थर के मकानों से ख़ुदा माँगते हैं जिसमें हो सतवते-शाहीन की परवाज़ का रंग लबे-शाइर से वो बुलबुल की नवा माँगते हैं ताकि दुनिया पे खुले उनका फ़रेबे-इंसाफ़ बेख़ता होके ख़ताओं की सज़ा माँगते हैं तीरगी जितनी बढ़े हुस्न हो अफ़ज़ूँ तेरा कहकशाँ माँग में, माथे पे ज़िया माँगते हैं यह है वारफ़्तगिए-शौक़ का आलम ‘सरदार’ बारिशे-संग है और बादे-सबा माँगते हैं

एक शे’र

मुसहफ़े-रुख़ पे जो ज़ुल्फ़ों ने लिखा बिस्मिल्लाह आयी ज़ंज़ीर के हल्क़ों की सदा, बिस्मिल्लाह

एक शे’र

खु़दा हसीनो-जमील है और तुम्हारी आँखों में जलवागर है वह मौजे-रंगे-बहार, तुम जिस से गुलफ़िशाँ हो मिरी ऩज़र है

एक शे’र

यह किसने फोन पर दी साले नव की तहनियत मुझको तसवुर रकस करता है तरवय्युल गुनगुनाता है

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