मंजूषा : राजगोपाल

Manjusha : Rajagopal


मोह

मन मोह-मोह का मारा किस की बाँट जोहते हारा चल आँखें मूँदे पथ पर जी ले सुख माया को मथ कर मत भूल शलभ के झुलसे परों को प्रभु से वर मांगते टूटते करों को न बाँच लकीरे किस मे है मंगल मोह का मारा कौन तेरा है संबल पथ न भूले एक पग भी न राह दिखाये यह जग भी मरु मे, तृषा मे, गिरता-उठता चल कभी भाग, ठहर, मोह मे मचल कल तक होंगे दो पग भी हारे ढूंढ रहे है प्रणय जगती मे सारे क्यों निहंग हुआ मोह का मारा कहाँ खो गया है मन का प्यारा शून्य मे कल होगी दूसरी कथा जीवन भर होगी मोह की व्यथा इस संसृति को सभी ने है झेला न छेड़ो, इस प्राण को रहने दो अकेला

मुरब्बा

मिला प्रणय तो मुट्ठी भर ले चख, समझ कर आश्वस्त कर ले न पीना विष उसे मधु मान कर हंस ले-रो ले अपनी दशा जान कर कल्पना मे क्या कंठ हुआ गीला प्रेम नहीं अपार सिंधु सा नीला थोड़ा छल थोड़े सुख का है मुरब्बा है जीवन भाग्य का एक बंद डिब्बा मन-प्रणय दोनों एक ही उर मे पले हैं एक ही पथ पर बरसों साथ चले हैं चुपके से प्रेयसी के अंक मे खिले हैं कभी तृषित मृग सा मरु मे भी जले हैं पुकार लो उसे सारा स्नेह समेटे बांध दो रजनी वहीं धरा पर लेटे कहते-सुनते प्रणय की पर कथा जी ले विश्व मे काल यथा-तथा प्रणय-परिणय रस-रंग लिये कहो जीवन के कितने क्षण जिये युग बीता जैसे गया एक युग्म पल क्यों रोये मन जब काल है प्रबल

प्रणति

तुम मेघों पर चलती सुरवामिनी धरा पर तृषित नयनों की कामिनी चंचल-चपल आषाढ़ की दामिनी विकल जीवन की प्रणय संजीवनी आश्रांत जीवन मे मधुर कल्पना का कितना सुंदर सुलझा हुआ रहस्य धूप मे, छांव मे, रजनी की रसवंती तुम हो इस चंचल मन का आलस्य धन-वैभव से धनी मणियों मे तुम एक प्रणय लिये तुम्हारा है श्रद्धा से अभिषेक मग गया इन नयनों का इंद्रजाल अभिराम तुम ही हो इस जीवन का मधुर अल्पविराम मादक मंजुल विभा की वल्लरी प्रणय-प्राण लिये विश्व से भरी जया, चित्रा, सुरम्या सौरभ साकार सुख-दुख मे छिपी तुम मधु का आधार झंझावत मे जब हुआ यह जीवन अधीर तन-मन सब हारा, तुम ही थी शूर-वीर तुम्हें समर्पित सारे धर्म-कर्म के अर्ध्य सुमन प्रणति परमेश्वरी, तुम्हें मेरा शत-शत नमन

निधि

मेरे उर की तुम अक्षय निधि प्रणय ही शाश्वत त्रिधा की विधि एक साँझ दामिनी आँखों मे उलझी तन-मन जला कर भी न वह सुलझी तुम माधवी मन छू कर अलसाई ऐसी भंगिमा आँखों मे अलौकिक छाई बस गयी हो चाँद सी लोचन मे लेटी हो बिछा कर रजनी मन मे श्रुतियों मे चुपके मधु घोलती है नीरवता तोड़ कृष्णा सी बोलती है थके पीठ पर रात लिये सुलाती है धीरे-धीरे तंद्रा को पास बुलाती है मन पुलकित हो जाता है आँखें मूँदे घन यौवन से बरसती है मदिर बूंदें अंधेरे अलकों मे छिपती उल्का सी खो जाती है प्रणय रंजित पुल्का सी कालजयी तुम आजीवन ऐसे ही रहना प्रणय लिये समय लांघ साथ चलना मैं छवि देखता रहूँगा जीवन धन की प्रतीक्षा रहेगी सदा तुम्हारे दर्शन की

स्वर्ग

छोटे से उर मे कैसे यह स्वर्ग भरा घन-सघन यौवन घन-घन से झरा आँखों मे उसका सौन्दर्य न समा सका बीन-मुग्ध मदिर मन रोके नहीं रुका एक बूंद मधु से तृष्णा नहीं मरी देखते तुम्हें आँखें कभी नहीं भरी रस-रूप रंग कण-कण मे बिखरी धरा पर विभावरी लजाती निखरी छू गयी रजनी लावण्य तुम्हारा लोचन निहारते रहे आनन प्यारा शलभ दिये की लौ पर मरा कर हारा स्वर्ग का यह स्पर्श है चुटकी भर सारा कल तुम उषा बन उपवन मे निखरी देख तुम्हें बेचारी कोई कली झरी धूप मे चली साथ मेरे पाँव-पाँव ढूंढती स्वर्ग धरा पर छांव-छांव मुट्ठी भर आशाओं से कल नीड़ बना मोह-मोह से धीरे जीवन का ताड़ तना बाहर सृष्टि सकल अंदर तुम ही स्वर्ग हो पल-पल लगता जैसे युग-युग का सर्ग हो

बीज

आक का बीज आ बैठा हथेली वह भी सहलाती साथ उसके खेली लगा पृथा पर यह प्रणय तो नहीं हाँ अकेले यह कभी संभव नहीं बीज नहीं, लगा उर से उर का तार है क्या यही मन मे छिपा भ्रूण प्यार है मैं उसकी आँखों मे विश्व देखता रहा साँसे चढ़ी मन लजाया, पर कुछ न कहा तोड़ किनारा जैसे कोई दरिया बह गया क्षण मे मन प्रश्न-उत्तर सब कुछ कह गया उसकी आँखों मे छा गये थे मेघ घने बरस गये वे नयनों से बन कर सपने वह बीज नहीं एक युग्म जीवन था जगती मे निस्वार्थ मन का मंथन था इस अमूल्य से अंकुरित हुआ प्रणय कल पेड़ बना, नीड़ बना, बांध कर समय यह कल्पवृक्ष है प्रणय का जो मरता नहीं जिसका पतझर मे भी एक पत्ता झरता नहीं प्रश्नों की कलियाँ, उत्तर के फूल और तितलियाँ सच एक बीज, एक प्रणय, और अनेक पहेलियाँ

मन की सुनो

गगन तले निस्तब्ध प्रणय गुहार लें रात की चादर झटक दुख बुहार लें बंधे अंधेरे मे हम, जीवन है उस पार जुगनुओं से ले लें थोड़ी रोशनी उधार क्षणदा से मांग लो क्षण भर उन्माद साध लो मन नीड़ भरेगा रात के बाद संधि कर लो जीवन से यह उत्पात मचाता है घन भर दुख है सुख पानी सा बरस जाता है प्रणय ढँक लो जग मे आवरण से जीवन रतिमय है अन्तःकरण से घिसा-पिटा है तन-मन का प्रणय संवाद जीत लो तृष्णा तोड़ कर मन का अवसाद मन है, पानी सा ठहर नहीं पाता है यह चढ़ती उम्र मे भी रंग जाता है जब भी चाँद निकले झूमते फाग खेलो अवसान से पहले आग गोद मे ले लो ईश्वर को साथ लिये जागते रहो चिड़ियों सा चहकते भागते रहो छोड़ जगती का कलरव मन की सुनो मोह-मोह के तिनकों से नया नीड़ बुनो

विनती

तुम ठहरी प्रगल्भ प्रशांत विभावरी क्षितिज तक आँचल तारों से भरी लजाते अकेले चाँद की बिंदी मढ़ी मन मे बसी ही धरा की सज्जा गढ़ी बरसों से देख रहा हूँ तुम्हें निर्निमेष रति से परे है इस सौन्दर्य का परिवेश क्या तुम मुझे आज भी पहचनती हो है यहाँ एक जीवन मेरा भी जानती हो सृष्टि मे प्रणय मंथन का तुम हो अमृत एक बूंद से नहीं भरता है सागर विस्तृत न दे सको मधु तो देना विष का प्याला पी कर जल जायेगी मेरे उर की मधुशाला बंधन मे ही मर कर कुछ सुख पा लूँ स्मृतियों मे फिर यह जीवन मथ डालूँ हँस लूँ मन मे नयनों से रो कर ही जीत जाऊँ जीवन प्रणय हार कर भी तुम अद्भुत रस-रंग का संसर्ग हो रति रमणी कामायनी के सारे सर्ग हो तुम्हें देखता प्रणय गीत लिखता रहूँगा पढ़ लेना, मैं मूक आगे कुछ न कहूँगा

क्या देखा

नीरज नयनों मे मैंने प्यार देखा है अकेले ही विरह का सार देखा है आशाओं का अंबर अपार देखा है जीवन का उर पर मौन प्रहार देखा है प्रेमियों का यहाँ-वहाँ क्रंदन देखा है निर्बंध उड़ते खगों का चुंबन देखा है नयन नीर मे उसका आनन देखा है बरसों केवल उसका ही दर्पण देखा है दुख मे उसे साथ मुस्कुराते देखा है मन के उभरे घाव सहलाते देखा है अकेले जीवन का गीत गाते देखा है धूप-छांव मे कोसों साथ चलते देखा है उसकी स्मृतियों मे अश्रु झरते देखा है साथ बैठे पहेलियाँ हल करते देखा है नीड़ मे सभी को स्नेह से पुचकारते देखा है दर्द मे भी न उसके कभी नीर बहते देखा है मेज़ पर आज उसकी छवि मे प्राण देखा है आँखों मे उसे पाने का अभिमान देखा है तिमिर मे भी उसमे जीवन का भान देखा है मैंने तुझ मे ही इस विश्व का प्रमाण देखा है

सत्य

प्रणय-पीड़ा दोनों हैं जीवन मे मिलते है बारी-बारी जन-जन मे तुमसे प्रणय का मूल्य बढ़ जाता है जीवन एक कदम और चढ़ जाता है समय संग उम्र की वर्तिका जली उस लौ मे भी तुम्हारी ही माया पली उड़े घन, बरसा कर उन्हे नभ भी रोया किन्तु, पीछे तुम सा ही इंद्रधनुष छाया सकल सृष्टि का यही सत्य है छोड़ मन-प्रणय सब कुछ मर्त्य है तुम हो तो धड़कता है यह उर है उसमे स्वरित होता तुम्हारा ही सुर है जी लूँगा ले कर सांस क्षण भर पास बैठे रहो तुम हाथ पकड़ कर खिलेंगे सुमन-सौरभ बेल-पल्लव नीड़ मे होगा कुछ शैशव कुछ आरव बार-बार तुमसे ही प्रणय की पिपासा जीवन मे है युगों की एक अभिलाषा है प्रणय की यही सात्विक परिभाषा प्रभा हो तुम लिये तिमिर से आगे की आशा

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