किस्सा सेठ ताराचंद : पंडित लखमीचंद (हरियाणवी कविता)

Kissa Seth Tara Chand : Pandit Lakhmi Chand (Haryanvi Poetry)


हरिराम अपने छोटे भाई ताराचंद के यश को सहन नही कर सका। उसने मन में सोचा जब तक दिल्ली में ताराचंद का नाम है, उसे कोई नही पहचानेगा। हरीराम ने पक्का निश्चय कर लिया ताराचन्द का नाम ख़त्म करूँगा करूगा। अब हरिराम अपनी पत्नी के पास आता है और मन की सारी बात बताई। अब हरिराम की पत्नी एक बात के द्वारा क्या पति हरिराम को क्या कहती है-

कहै पत्नी उठ बैठ पति, नहा-धोकै अस्नान करो चलकै ।। टेक ।। मै कायदे तैं नही फिरूगी, पिया मै रस की घूंट भरूगीं, तेरी सेवा करूगीं मैं नार सती, तबियत खुश करूं कमर मल कै ।।1।। दूर कर मन कपटी की काळस, मक्खन लेकर करूंगी तेरी माळस, तेरी निद्रा हो आळस दूर कती, खुलज्यागा बदन गर्म जल कै ।।2।। खाट में पड़या बोझ सा तुलता, उठकै चलै तो बदन तेरा डूलता, तेरा मन नही खुलता एक रती, हंकारे भरै पड़या बिलकै ।।3।। लख्मीचन्द कर कार शर्म तैं, मतना हटिए नेम धर्म तैं, बुरे कर्म तै हो भंग मति, क्यों पड़या खाट के में घल कै ।।4।। अब सेठानी की बात सुनकर हरिराम ने कहा कि जब तक ताराचंद को भी अपने जैसा नहीं बना देता, मुझे चैन नहीं धर्म। कर्म करने से उसकी इज्जत बढ़ती है तो मैं उसका धर्म-कर्म ही छुडवा दूंगा, फिर वह मेरे जैसा हो जाएगा। सेठ हरिराम अपनी सेठानी से क्या कहता है- मच्या सै जगत में शोर, उस ताराचंद के नाम का ।। टेक ।। हम भी दुनिया के बीच रहै सै, गुण-अवगुण की सब बात सहै सैं, मनै बहुत कहै सै ठग-चोर, लूटकै खालो माल गुलाम का ।।1।। अपनी पूरी करुंगा लाग नै, क्यूँकर धोऊंगा जिगर दाग नै, उत के करया सै भाग नै जोर, मन मोह लिया जगत तमाम का ।।2।। मेरे ना धन माया की कमी, पर मनै एक बात की गमी, मनै कहै सैं आदमी और, हरिराम नहीं किसै काम का ।।3।। मानसिहं भोगै ऐश आनंद, गुरु जी काट दियो विपत के फंद, लख्मीचन्द पकडले सही डोर, जब रस्ता मिलै स्वर्ग धाम का ।।4।। अब हरिराम की सेठानी समझाती है। सेठ जी दान-पुन्न खर्चे करे बिना आदमी का नाम कैसे होगा- दान-पुन्न खर्चे खाये बिन, बणकै पशु कमाया, तेरा नाम कडे तै हो दुनिया मै, तूं निंदक बणया पराया ।। टेक ।। मात-पिता की मरगत कै मैं, कदे लाया ना धेला, साधु की संगत अतिथि की सेवा, ना सतगुरु का चेला, तीर्थ व्रत यात्रा ना करी, ना संतों का मेला, दो भाइयों में बैठ-उठ ना, घर म्य सड़ै अकेला, कदे धी बेटी नै दमड़ी ना दी, ना खुद खेल्या-खाया ।।1।। नेम-धर्म पुन्न-दान करण की, कदे ना चित मै धारी, गायत्री का भजन करया ना, सत बणा पुजारी, अग्नि होत्र पांच महायज्ञ, तनै गीता नहीं बेचारी, शुद्रो वाले काम करे, शुभ कर्म कै ठोकर मारी, पाप का माल भरया कोठी मैं, ना पुण्य मै पैसा लाया ।।2।। मान-बड़ाई काम-क्रोध मद, लोभ-मोह से डरणा, हानि-लाभ तज बैर भाव, एक ले ईश्वर का सरणा, अभय रहै भय ना दे किसी को,भवसागर से तरणा, चित्त की वृत्ति करो समाहित, ठीक यकीदा करणा, सर्व आत्मा एक समझ कै, जब खुद पारथ चाहिए सै, लख्मीचन्द धर्म करे बिन, यो धन गारत चाहिए सै, इज्जतबंद बनण की खातिर, पुरुषार्थ चाहिए सै, नीच-दुष्ट छलियां खातर, महाभारत चाहिए सै, श्रीकृष्ण की दया मारणिया, खुद पार्थ चाहिए सै चार वेद भगवान स्वरूप का, गुण गीता नै गाया ।।4।। अब हरिराम अपनी सेठानी को मन की बात कैसे बताता है- झूठ-कपट छल बेईमानी मैं, खास करया चाहूं सूं, ताराचंद छाती म्य खटकै, नाश करया चाहूं सूं ।। टेक ।। जिन कर्मों तै इज्जत बिगड़ै, वोहे ढंग फेर देणा सै, मण भर ज्यादा वजन मेरे तै, वो बणा सेर देणा सै, तूं अर्धंगी तेरे आगै, सब कष्ट टेर देणा सै, कला ऊत की चढी सिखर मै, वो तलै गेर देणा सै, अपणे ना की सारे कै, रंग-रास करया चाहूं सूं ।।1।। इसा भूल का थप्पड़ मारूं, वो बे-सोधी म्य सोज्या, साबुण मिलज्यां मैल काटण नै, दाग जिगर के धोज्या, हो कोए रास्ता धर्म के राह मैं, विघ्न के काटें बोज्या, धर्म तजे तैं इज्जत बिगड़ै, वो दो धेले का होज्या, फिरै मांगता भींख उसनै, मै दास करया चाहूं सूं ।।2।। सुख तै सोऊं पैर फला कै, दुश्मन का भय भागै, उसतै ज्यादा सेठ कहलाउं, जब मेरी किस्मत जागै, सौदा सुत व्यवहार करण मै, वो अड़ज्या सै आगै, मेरी इज्जत बणै उसकी बिगड़ै, जब मेरै रंग लागै, अपणे ना की दिल्ली मै, शाबास करया चाहूं सूं ।।3।। हरीराम दगा करण लागग्या, तेग दुधारा बणकै, बहोत दिन रह लिया दिल्ली म्य, सबतै न्यारा बणकै, सारे उसकी करै बडाई, भाईचारा बणकै, उस पाजी का खोज मिटादूं, मित्र प्यारा बणकै, लख्मीचन्द सतगुरू की सेवा, पास करया चाहूं सूं ।।4।। अब सेठानी उसको बुरे काम करने से मना करती है पर हरिराम एक नही सुनता और सेठ ताराचन्द के पास जाता है- पहलम ढीली धोती करली, पहन अंगरखा चलण की जरली, सिर पै गोल पगड़ी धरली, कलम टांगली कान मै ।। टेक ।। गल मै पहरी मोहन माळा, कांधे पै लिया गेर दुशाला, चाल्या सेठ भला सा बणकै, जमीं पै पैर धरै गिण-गिणकै, काम बिगाडूंगा कहै-सुणकै, जै किमै जचगी तै ध्यान मै ।।1।। उसतै कमती ना मेरा डेरा, उसतै बती धन मै लेरा, मेरा न्यूं नक्शा झड़रया सै, मेरै आगै रोड़ा सा अड़रया सै, उसका रूका सारै पड़रया सै, दान-पुन्न का जहान म्य ।।2।। उसका नाम शिखर मै गर्जा, आज मेरी सब बातां मै हर्जा, उसका दर्जा तलै घटण तै, शुभ कर्मा में दूर हटण तै, उस पाजी का रोग कटण तै, खेलूगां शेर मैदान मै ।।3।। फिर भोगूगां ऐश-आनन्द, कटज्या दुख विपत के फन्द, श्री लख्मीचन्द छन्द घड़ैगा, क्यूकर आगै आण अड़ैगा, धर्म तजे तै फर्क पड़ैगा, ताराचन्द की श्यान मै ।।4।। अब हरिराम ताराचन्द को पापी मन से क्या कहने लगा- मत कर खर्च फिजुल, सै तेरै भूल, पैसा मूल, जगत मै प्यारा सै ।। टेक ।। पहलम तनै इज्जत बन्धती दिखे जा, फेर कंगलेपण मै झीखे जा, धन कौड़ी-2 जोड़, तेरै खर्च करोड़, करदे तै तनै चारों ओड़, किसारा सै ।।1।। इब तूं गफलत कै मै सोयें जा, फेर टोटे कै मै रोये जा, हो टूकड़े तक मजबूर, बिना कसूर, करदे दूर, तेरा जो भाईचारा सै ।।2।। टोटे कै मै यो धन कित जा सै, खर्च करैं तै भरा कूआ भी रित जा सै, धन बिन किसी दुकान, सब कहैं बेईमान, बिना धन-धान, किसा साहूकारा सै ।।3।। लख्मीचन्द मत आईये आंट मै, जब तक पैसा है तेरी गांठ मै, सब रहैंगे चरण के दास, करले ख्यास, पैसा पास, रहै तै रंग न्यारा सै ।।4।। इतनी बात सुनकर अपने भाई की ताराचन्द ने गऊशाला, दान-पुन्न आदि बन्द कर देता है। दिन प्रतिदिन धर्म-कर्म के कार्यों में कमी आती रही। यही हरिराम चाहता था। समय का चक्र कैसे चलता है। कवि ने क्या वर्णन किया- फर्क होया, सेठ जी के दिल मै, सब धर्म छोड दिये भूल मै ।। टेक ।। कुसंग सिखा गया हरीराम, दिये सब छोड़ धर्म के काम, सेठ जी ताराचन्द का नाम, बेहुदयां मै दर्क होया, फंसा हलचल मै, शुभ कर्म मिला दिये धूल मै ।।1।। जितने थे सदाव्रत विद्यालये, गऊशाला-मन्दिर और शिवालये, सारै पर्चे लिख-लिख डाले, अकल तैं चर्क होया, आग्या बैरी के छल मै, ना दान दिये स्कूल मै ।।2।। ताराचन्द सेठ था खाशा, ईब होग्या टूकड़े तक का सांसा, देखै थी दुनिया दीन तमाशा, फांसा सर्क होया, फांसी घली गल मै, गया बैठ पाप की झूल मै ।।3।। लख्मीचन्द के खोट सार का, जब आवण लगै बख्त हार का, ताराचन्द साहूकार का, बेड़ा गर्क होया, पाप के जल मै, जाणू कोए भौरां बुचकै मरग्या फूल मै ।।4।। जब ताराचन्द धर्म-कर्म से नाता तोड़ देता है तो जगह जगह से घाटे की चिठ्ठी आनी शुरू हो गई। करोबार घाटा, कहीं जहाज डूब गये, कहीं बिल्डिंग जल गयी। इस प्रकार सेठ जी शोक ग्रस्त हो गए। अब सेठानी दयावती उदासी का कारण पूछती और सेठ ताराचन्द क्या जवाब देता है- प्रदेशां तै चिट्ठी आई, ब्योंत बिगड़ लिया मेरा, और किसे का दोष नही, सिर करड़ाई का फेरा ।। टेक ।। 60 लाख के चार जहाज थे, भरे भराऐ भाई, कलकत्ते तै परै सी डूबगे, ऐसी चिट्ठी आई, बांचण लाग्या हाथ कापग्यां, रोकै नाड़ हलाई, बम्बई में दो कोठी जलगी, कुछ ना पार बसाई, सेठ के सिर पै चौगरदे तै, दिया करड़ाई नै घेरा ।।1।। पाणी का दुख होया दुनियां नै, चुग्गे का मोरा नै, गऊशाला भी बन्द करवादी, दुख डांगर-ढोरां नै, सारे शहर मै डूंडी पिटगी, खबर हुई औरां नै, अवधपूरी मै कोठी थी, वो भी लूट लई चोरां नै, भीतर बड़कै रोवण लाग्या, फिका पड़ग्या चहेरा ।।2।। आए थे हम नहाण गंग मै, पाप नीर मै भेगे, जितने मित्र प्यारे थे, सब सौ-सौ ताने देगे, थी बणिये की जात चोट नै, पेट पकड़कै खेगे, जितना धन बाकी था, उसनै भी चोर काढ़ कै लेगे, कदे-कदे तै नामी था, इस ताराचन्द का डेरा ।।3।। घालूँ हाथ ऩफे की खात्तिर, अधर्म आगै अड़ज्या, एक पैसे की हो ना कमाई, सौ का टोटा पड़ज्या, सुणै दिवाळा लिकड़ण की जब, सहम सांप सा लड़ज्या, कहै लख्मीचन्द धर्म तजे तै, यो साहूकारा बिगड़ज्या, न्यून पड़ू तै कुआ दिखै, न्यून पड़ूं तै झेरा ।।4।। अब सेठानी दयावती कहती है, सेठ जी आपने हरीराम की सीख मे आकर जो धर्म के कार्य बन्द किये है, यह उसी का नतीजा है। दयावती कहती है कि इस संकट की घड़ी मे आप श्री कृष्ण का ध्यान करो और एक बात के द्वारा क्या कहती है- इब के सै देखें जा दुःख एक तै एक नया, मुश्किल बचाणी पिया शर्म-हया, सच्चे कृष्ण नै रटे जा, वही करैंगे दया ।। टेक ।। सजन मेरे इतणे मै भय खाग्या, जरा सी लगते ही चक्कर आग्या, जों भगतां कै निशाना लाग्या, वो भगतां नै सह्या ।।1।। कदे तै था पूरा सेठ श्यान का, रक्षक बणग्या गाहक ज्यान का, हरीराम बेईमान का, तूं मानग्या कह्या ।।2।। सच्चे कृष्ण का नाम रटे बिन, सत भग्ति मै ध्यान डटे बिन, पिछला पाप कटे बिन, हो दूख एक तै एक नया ।।3।। सत की कमर बाँध सजने से, पिया उस हरी का ना भजने से, सुकर्म के तजने से, दुख की अग्नि मै तया ।।4।। लख्मीचन्द बख्त की रौंण, लगी किसी अनरिती सी हौंण, लागरी सै आवागौंण, जगत मै आया सौ गया ।।5।। अब सेठ जी की आंखो में आसू थे। और सेठानी दयावती क्या कहती है- हो क्यों रोवण लागे जी, धर्म तजे तै तेरै हार सै धन की ।। टेक ।। पिया तुम बैठण लगे कुसंग, तजकै न्या-नीति का ढंग, मेरे साजन पाप रूप का जंग, भूल मै क्यों झोवण लागे जी, हो शुभ कर्म तजे तै, तेरै हार सै धन की ।।1।। किसके कहणे तैं गऐ रीझ, म्हारे सब छूटे दिवाली-तीज, मेरे साजन पाप रूप का बीज, भूल मै क्यों बोवण लागे जी, कुल की शर्म तजे तै, तेरै हार सै धन की ।।2।। पिया क्यों भूल बीच में बसता, तेरा न्यूं हो रया सै तन खसता, बालम पाप रूप का रस्ता, भूल मै क्यो टोहवण लागे जी, सत का भर्म तजे तै, तेरै हार सै धन की ।।3।। लख्मीचन्द हर्फ कहै गिण कै, रहैगा दूध-नीर सब छण कै, हो पिया पाथर केसा बणकै, भूल मै क्यों सोवण लागे जी, दिल नर्म तजे तै, तेरै हार सै धन की ।।4।। इतनी बात सुनकर ताराचन्द क्या कहता है- लिखा कर्मों में ऐसा, अब रोना है कैसा, जब धोरै था पैसा, लाखों थे प्यारे, नैना पानी ढले, मेरा ह्रदय जले, कुछ वश ना चले, रुस्से राम हमारे ।। टेक ।। हे! कृष्ण हरी, सुनो अर्ज मेरी, कैसी मेहर फिरी, नीचे-ऊंचे से डारे, हे! कृष्ण दीन बन्ध, आनन्द कन्ध, किने ताराचन्द, से क्यो झूठे सितारे ।।1।। घर में कुछ ना रहया, किस रस्ते गया, हे! प्रभू तेरी दया, बिन कैसे गुजारे, नाग दुख का लड़या, मेरा नक्शा झड़या, मै घर मै पड़या, भरूं आह के नारे ।।2।। दया लिजो आन, तेरी अद्भूत श्यान, प्रभू दीन जान, कै सुदामा उभारे, ऐहसान सिर पै तूं धरदे, घर रीते को भरदे, पल मै कंगला तूं करदे, रिताकै भंडारे ।।3।। नागण दुख की लड़ी, मौत स्यामी खड़ी, जान जाओ पड़ी, ल्यूं ना टूकड़े उधारे, कहै लख्मीचन्द जहां, बैठे कंगले यहां, अब जाऊं कहां, रस्ते बन्द दिखैं सारे ।।4।। अब सेठानी दयावती हालत को देखते हूऐ कहती है कि सेठ जी आप कहीं नौकरी करलों, ताकि पेट गुजारा चल सके और इतिहास उठाकर देखो मुसिबत तो बड़े-बड़े राजा महा-राजाओ पर भी आई थी। एक बात के द्वारा दयावती क्या उदाहरण देती है और ताराचन्द क्या जवाब देता है- सै बणियें की जात पिया, तूं घूंट सबर की भरले, आखिर नै तूं मर्द कहावै, कितै नौकरी करले ।। टेक ।। दयावती:- छन मै टोटा छन मै फायदा, छन मै महल-हवेली, छन मै राणी छन मै सेठाणी, छन मै सखी-सहेली, छन मै मित्र छन मै प्यारे, छन मै ज्यान अकेली, छन मै गोती छन मै नाती, छन मै दाता बेली, छन मै कृष्ण चाहे जो करदे, तूं ध्यान उसी का धरले ।।1।। ताराचन्द:- तनै सेठाणी ठीक कहया, गुण कृष्ण के रागूंगा, जिस पाळे पै खड़ा करया सूं, उसतै ना भागूंगा, शर्म भरी मेरी आंख्या म्य, कित नौकर लागूंगा, इसी नौकरी करण तैं आच्छा, मै घरा-ऐ प्राण त्यागूंगा, आज दो कोडी के माणस होगे, कदे थे सबतैं उपरले ।।2।। दयवती:- फायदे मै तै सब राजी, टोटे में कौण निभाले, म्हारे तै भी दुखी बहोत सै, तू चारो तरफ निंघाले, बज्र केसी छाती करकै, नीची नाड़ झुकाले, मजदूरी में दोष नही, चाहे भंगी कै कर खाले, नल-पांडौ जिसा दुख पड़ज्या तै, तू घड़ी-स्यात में मरले ।।3।। ताराचन्द:- नल-पांडो हरीचन्द नै भोगी, जैसी समय हिथाई, धर्म के कारण करी नौकरी, ना सेधी करड़ाई, धर्म तजे तै ये दुख देखे, मेरी खूब समझ मै आई, सत ना छोंडूं धर्म जाणकै, सुध लेंगे रघुराई, श्री लख्मीचन्द कहै भगतां की नैया, परले पार उतरले ।।4।। समय को देखते हूये दयावती कहती है, सेठ जी आपको याद हो हापुड़ में आपके पगड़ी बदल यार मन्शा सेठ रहते है। चन्द्रगुप्त को मन्शा सेठ के पास गिरवी रख आओ और 200 रू० ले आओ, तकि पेट गुजारा हो सके- चन्द्रगुप्त इकलौता बेटा, इसनै गिरवी धर आओ, मंशा सेठ बसैं हापूड़ मै, उनके सुपुर्द कर आओ ।। टेक ।। 200 रू० मांग लिऐ जाकै, वै झट पल्ले म्हं घालैंगे, दयावान सतपुरूष सेठ सै, नहीं बात नै टालैंगे, दोपहरी और श्याम सवेरी, वो तीनो बख्त सम्भालैंगे, अपने पुत की ढाल समझ कै, तेरे लाल नै पालैंगे, और इसा कितै मिलै ना ठिकाणा, चाहे दुनिया में फिर आओ ।।1।। करी इश्वर नै दया म्हारे पै, दे दिया पूत खिलाणे को, जाणै कब तक महरूम रहूंगी, सुत नै पास बुलाणे को, क्षुधा बुरी जगत मै बैरण, टोटा जिगर जलाणे को, धर गिरवी सुत नै ल्या पुंजी, कुछ अपणा काम चलाणे को, 200 रूपये घला पल्ले मै, सौप कै वापस घर आओ ।।2।। नाम श्री कृष्ण सच्चे का, दिल के बीच घूटालेंगे, आज तै पाछै धर्म तजण का, दोनों हल्फ उठालेंगे, सेठ सिठाणी चन्द्रगुप्त नै, गोड्या बीच लुटा लेंगे, टोटा हटते-हे नफा रहा तै, पुत नै फेर छूटा लेंगे, ले कै नाम परमेश्वर का, घूंट सब्र की भर आओं ।।3।। कहै लख्मीचन्द धर्म करे तै, सबके बेड़े पार गए, जो धर्म छोड़ अधर्म करते, वै डूब बीच मझधार गए, गज और ग्राह लड़े जल म्हं, जब गज हरी नाम पुकार गए, जौ भर सूंड रहा जल ऊपर, वै पकड़कै अधर उभार गए, मेरे रौम रौम मै बास करो, और ह्रदय मै हरी हर आओ ।।4।। अब सेठ ताराचन्द हिम्मत करके चन्दगुप्त लेकर हापुड़ चल पड़ते है- करकै दूर जिगर के धड़के नै, लेकै चाल पड़या लड़के नै, सून्ना घर दीखै तड़के नै, जब क्यूकर के होगी ।। टेक ।। लगे दाग कड़ै धोऊंगा, जगह इब हापूड़ मै टोहूगां, रोऊंगा किस्मत हेठी नै, धन-धन सेठाणी ढेठी नै, बेच गेरै बेटा-बेटी नै, टोटे का रोगी ।।1।। प्यारे लोग बणे सब बैरी, इज्जत कोडी की ना रहै रही, ठीक दुपहरी सुबह-श्याम की, रीत छोड़दी धर्म काम की, सीख बणियें हरिराम की, मनै दुनिया तै खोगी ।।2।। सब प्यारा तै टूटग्या ताळक, करूं के लहू की बूंद सै मेरा बाळक, हे! माळक तेरा शरणां होगा, दया करो ना तै मरणा होगा, यो बेटा गिरवी धरणा होगा, मेरी किस्मत पड़कै सोगी ।।3।। लख्मीचन्द दिये छोड़ उदासी, हम तै कुछ ना सेठाणी खासी, शाबासी उस अकलबन्द की, बेटा दे दिया तज कार आनन्द की, के ईज्जत थी ताराचन्द की, इन कामां जोगी ।।4।। अब ताराचन्द मंशा सेठ के पास हापूड़ मे पहूंच जाते है, मंशा सेठ की ताराचन्द पर पड़ती है। एक बात के द्वारा मंशा सेठ क्या करता है- सेठ आवता नजर पड़या रै, मंशा नै दिया छोड़ थड़ा रै, हाथ जोड़कै होया खड़या रै, झट आदरमान करया ।। टेक ।। मेरी अकल तेरे तै रद्दी, होग्या खड़या छोड़कै गद्दी, तुम रिद्धी-सिध्दी के दाता , दिल मेरा मिलने को चाहता, कृष्ण-सुदामा के-सा नाता, मैं दिन-दिन दास तेरा ।।1।। अपणे भेद बतादू मन के, देख सब अंग फूलगे तन के, जैसे अर्जून के गुरू कृष्ण होगे, दया करी हम प्रसन्न होगे, कर्मां करकै दर्शन होगे, सै पूर्बला भाग मेरा ।।2।। समझ कै अपणा नाती-गोती, दिन-दिन रहो सवाई ज्योति, तूं मोती पिरोवण जोगा लड़ मै, सीलक होगी देखकै धड़ मै, मूढा घाल बैठग्या जड़ मै, चरणां शीश धरया ।।3।। ईश्वर की भग्ति मै आनन्द, गुरू मानसिंह दियो काट विपत के फन्द, लख्मीचन्द छन्द नये धरलूं, मै तनै देख प्रेंम मै भरलू, तेरी छाया में गुजारा करलूं, मै पक्षी तूं रूख हरया ।।4।। अब ताराचन्द मऩ्शा सेठ को क्या कहता है- मंशा सेठ स्वर्ग केसा धाम, किन्हीं ताराचन्द नै झुक, तूं लेले राम-राम ।। टेक ।। सेठ थड़े का मोदी बणकै, बही पै हर्फ लिखै गिण-गिणकै, झट नाड़ उठाई सुणकै, सच्चै राम जी का नाम ।।1।। ताराचन्द झुकण लगे जाकर, सेठ जी देखै नाड़ उठाकर, भागे नौकर-चाकर, लगे सेवा करण तमाम ।।2।। मेरा पहलम के-सा नही सै डिठोरा, रहया ना दुनिया मैं धर-धौरा, सेठ मेरा जी लीकड़ण नै होरया, रोवते नै कोली भरकै थाम ।।3।। रक्षक मेरे दर्द का बणले, एक-एक बात ध्यान तै गिणले, उठकै एक ओड़ नै सुणले, एक सै तेरै गोचरी काम ।।4।। लख्मीचन्द कहै तेरा सहारा, तू मेरे दिल का सच्चा प्यारा, बेटा गिरवी धरणे आरया, वे छूटगे ऐश-आराम ।।5।। अब मंशा सेठ ने ताराचन्द का बड़ा आदरमान किया और पूछा कैसे दर्शन दिऐ, तो सेठ ताराचन्द ने कंगाली का जिकर करते हूए क्या कहा- एक चीज सै अनमोल, इसनै गहणै धरले, टोटे मैं मरूं सूं, मेरी दया करले ।। टेक ।। किसे चीज का घाटा ना था, खांणे-पीणे का, इब रास्ता टोहूं, अपणे मरणे-जीणे का, अपणे तै हिणे का, ठाढा खोस घर ले ।।1।। हरीराम बिन कोंण बिगाड़ै, मेरी फूलवाडी नै, रोवतां फिरूं सूं, अपनी किस्मत माड़ी नै, बन्दे की बिगाड़ी नै, समार हर ले ।।2।। बहूत से करैं थे गुजारा, म्हारै लाग कै, डूबग्या मझधार मै, किनारै लाग कै, तेरै काट कै सहारै लाग कै, मेरा लोहा तरले ।।3।। लख्मीचन्द गुरू की बाणी, चित म्य धारैगा, टोटा रोकै चाल्या जा, के जी तै मारैगा, ईश्वर तारैग, बेड़ा पार परले ।।4।। अब सेठ ताराचन्द मंशा सेठ से कहने लगे, भाई टोटे ने ज्यादा तंग कर दिया। इस लड़के को गहणै रखलो और मुझे 200 रू० दे दो। इतनी बात सुनकर मंशा सेठ कहता है, इस बारे मे तो अपनी सेठानी की राय लेता हूं। अब मंशा सेठ अपनी सेठानी के पास जाता है और एक बात के द्वारा क्या कहता है- सुणै तै सुणाऊं तन्यै जिकर सेठाणी, उस ताराचन्द के हाल का रै ।। टेक ।। कदे ताराचन्द सेठ था नामी, म्हारे कैसे सौ सौ करै थे गुलामी, आज देख्या जाता ना स्याहमी, पड़ै आख्यां तै पाणी, भेष कती कंगाल का रै ।।1।। टोटे म्य कम इज्जत होती, धोरा धरज्यां नाती-गोती, आज मिलै ना मोती, पड़ी काकर खाणी, कदे था हंस सरोवर ताल का रै ।।2।। सेठ टोटे के बीच मरै सै, एक लड़के नै लिऐ फिरै सै, उसनै गिरवी धरै सै, उसकी उमर सै याणी, वो लड़का कुल छ: साल का रै ।।3।। सेठ की इज्जत मिली धूल म्हं, जाणूं कोए भौरा बुच्या फूल म्हं, कहै लख्मीचन्द, भूल म्हं ना जाणी, सिर पै बाजै सै नंगारा काल का रै ।।4।। सारी बात सुनकर सेठानी मंशा सेठ को क्या कहती है- लड़का तै ना लेणा चाहिए, बदले मै दुख खेणा चहिए मांगै सो दे देणा चहिए, पिया काम चलावण नै ।। टेक ।। करदे दूर जिगर के धड़के, खोलकै भेद बतादूं जड़के, इस लड़के तै के माया बरसैगी, दुनियां बेशर्मी दरशैगी, बाहण दयावती तरसैगी, पिया पुत खिलावण नै ।।1।। मै ना कहती बात घणी, रहज्या तेग धर्म की तणी, थारी दुनिया में बणी साख रहैगी, बात कहण नै लाख रहैगी, वाहे शर्म की आंख रहैगी, पिया फेर मिलावण नै ।।2।। जै लड़कै नै ना लेग्या संग, इसमै के रहज्यागी आसंग, पांसग मान धड़े होज्यांगे, फूलां की सेज छड़े होज्यांगे, दुश्मन लोग खड़े होज्यांगे, पिया हाथ हिलावण नै ।।3।। श्री लख्मीचन्द कर कार शर्म की, कदे खुलज्या ना गांठ भ्रम की, धर्म की राह रली चाहिए सै, पुन की बेल फली चाहिए सै, सत का मल्लाह बली चहिए सै, पिया पार लगावण नै।।4।। मंशा सेठ और उनकी सेठानी लड़का रखने से मना कर देते है। फिर ताराचन्द को कहते है कि आप लड़का भी ले जाओ और 200 रू० भी ले लो पर ताराचन्द जिद पर अड़ जाता और कहता है कि लडका गिरवी रखे बिना मै 200रू० नही ले सकता है। ताराचन्द की जिद के देखते हूये मंशा सेठ और सेठानी लडके को अपने पास रख लेते है और ताराचन्द को 20 0 और खाने का भोजन बांध देते है। चलते वक्त सेठ ताराचन्द चन्द्रगुप्त के लाड करते हूऐ, एक बात के द्वारा क्या समझाता है- ताराचन्द नै सौंप दिया, सुत मंशा की गोदी मै, मात-पिता ज्यूं सेवा करिये, जब होज्या सोधी मै ।। टेक ।। अष्ट वसु और ग्यारा रूद्र, मेरे सुत की रक्षा करियो, विष्णु विभुति आदित्य बारह, ज्ञान से ह्रदय भरियो, ब्रह्मज्योत भगवान स्वरूप, नित्य मेहर आपकी फिरियो, मंशा सेठ धर्म के कारण, तेरा बेड़ा पार उतरियो, इस खाई में मैं आप पड़ूंगा, खुद अपनी खोदी मै ।।1।। जैसे पाण्डो की छोटी राणी नै, सुत हाजिर करे बाहण कै, वे पाल दिये नकुल सहदेव, कुन्ती नै पूत जाण कै, उसतै भी ज्यदा भीड़ पड़ी, तेरी लेली शरण आण कै, पाल पुत की रक्षा करियो, दूध और नीर छाण कै, रक्षक नाम लिख्या जागा, थारा सुरपुर की ओद्धी मै ।।2।। मात-पिता ज्यूं सेवा करिये, इनकी शाम-सबेरी, मत जननी का दूध लजाईए, पाकै उम्र बडेरी, जै मेरा बेटा लायक होग्या तै, इतनीऐ बात भतेरी, काढ़ आत्मा राम समझ कै, थारी शरण मै गेरी, सुत के लाड नही करणे थे, मेरी किस्मत बोदी मै ।।3।। सेठ पणे की बात याद कर, ह्रदय कांप्या डरकै, दौ सौ रूपये बांध लिये पल्लै, बेटा गहणै धरकै, भोजन बांध दिया मंशा नै, घणी खुशामन्द करकै, कहै श्री लख्मीचन्द चाल्या ताराचन्द, घूट सबर की भरकै, तूं बेटा कर मौज सेठ कै, रहया टोटे का मोदी मै।।4।। अब सेठ ताराचन्द मंशा सेठ को राम रमी करके घर की तरफ चल देते है। रास्ते मे सेठ को भुख लगती है और सामने हरनन्दी नदी दिखाई देती है। ताराचन्द ने सोचा स्नान करके भोजन कर लूंगा। नदी के कंठारे ऊपर खाणे का भोजन, कपड़े और 200 रू० रख देता है और नदी मे डूबकी लगाकर सेठ ताराचन्द बाहर आते है 200 रू और खाने का भोजन घाट पर नही मिलता है तो ताराचंद क्या सोचता है- दो सौ रूपए खाण का भोजन, धरया घाट पै आकै, हरनन्दी तनै लूट लिया मैं, के सुख पाया न्हाकै ।। टेक ।। लड़का बेच्या करी थी कमाई, देखण लाग्या रकम ना पाई, साच बता हरनन्दी माई, लेग्या कोण उठाकै ।।1।। लड़का गया उमर थी याणी, न्यूं आंख्या में आग्या पाणी, जब मांगैगीं दाम सेठाणी, मै कित तै दूंगा ल्याकै ।।2।। कोन्या जाता दिल समझाया, हे! ईश्वर तेरी अद्भूत माया, जिसनै पेट पाड़कै जाया, वा मरज्यागी डकराकै ।।3।। श्री लख्मीचन्द का गाम सै जांटी, दूख में जा सै छाती पाटी, ताराचन्द नै आत्मा डाटी, बैठ गया गम खाकै।।4।। अब सेठ ताराचन्द मन को समझाकर घर की और चलता है। चलते-चलते मन विचार करते हूऐ अपने भाग्य को दोषी ठहराता हुआ क्या कहता है- मेरे गल गली दुख विपता फांसी, गल घुट भी गया तो गजब है गजब, पुत्र भी गया हुरमत भी गई, धन लुट भी गया तो गजब है गजब ।। टेक ।। छूटया धर्म पैमाना, जिसका कुछ ना ठिकाना, दूजै चोरों नै लूटया, सब माल खजाना, तीजै ह्रदय में लाग्या, जो सुत का निशाना, अगर उट भी गया तो गजब है गजब।।1।। हुआ अधर्म से मन्दा, बूरी संगत से गन्दा, अब कंगला बणया, कहीं तारा ना चन्दा, बूरे कर्मों के उपर, बिन समझे कोई बन्दा, अगर जुट भी गया तो गजब है गजब।।2।। बणकै प्यारा किसी का, करदे गुजारा किसी का, जो लेकर कै दे दे, उल्टा उधारा किसी का, एक मुठी भाग के बदले, सितारा किसी का, अगर छुट भी गया तो गजब है गजब।।3।। श्री लख्मीचन्द तेरी ज्यान, कभी कोई हरले तुफान, दुख-सुख को ग्रहस्थ मै, जाने इन्सान, किसी का दिल गुर्दा हो, फूलो के समान, अगर टुट भी गया तो गजब है गजब।।4।। सेठ सेठानी आपस में बाते कर रहे थे कि इतनी देर में एक साधु ने उनके दर पर अलख आ जगाई। सेठ जी साधु को दरवाजे पर देखकर हाथ जोड़ लेते है और क्या कहते है- कदे कदे धन जोड़ जोड़ हम, जमीं मै गड़ाया करते, चन्द्रगुप्त नै ले गोदी में सौ-सौ लाड लडाया करते ।।टेक।। सब तै पहलम उठ सिंगर कै, राम राम रटते मन भरकै, ठाकुर जी का भजन करकै, लम्बा तिलक चढाया करते ।।1।। तला बावड़ी मन्दिर शिवाले, गऊशाला के ढंग निराले, बड़े-बड़े पंडित मेरे विद्यालय, में पढाया करते ।।2।। हरदम ज्योत प्रचण्ड हवन की, आशा पूरी हो थी मन की, कमी नही थी माया धन की, हम सब मौज उड़ाया करते।।3।। श्री लख्मीचन्द बदी नै त्यागै, याद आवै जब ह्रदय जागै, दान-पुन्न मै सबतै आगै, अपणा हाथ बढ़ाया करते।।4।। सारा हाल जानकर साधु को ताराचन्द की दीनहीन दशा को देखकर दया आ गयी और और उनको समझाने लगे कि अब जो हो गयी सो हो गयी, आगे की सुध लो। ताराचन्द ने साधु के पांव पकड़ लिऐ और आशिर्वाद देने की प्रार्थना की तो साधू महात्मा एक बात के द्वारा समाझाते है- गऊ ब्राह्मण साधु की सेवा, अतिथि टहल बजाणे से, तीन जन्म के पाप कटैंगे, ईश्वर के गुण गाणे से ।। टेक ।। आपस के मै रलमिल कै, धर्म-कर्म मर्याद करो, समुद्र केसी झाल रोक कै, ईशवर से फर्याद करो, गऊ-ब्राह्मण साधु सेवा में, ना कदे विवाद करो, ब्रह्म रूप भगवान की सेवा, हित-चित से ईमदाद करो, हाथ जोड़ कै दो भिक्षा, कोई मगंता घर पै आणे से।।1।। छोड़ इर्ष्या रहो आनन्द से, यो ढंग पार उतरणे का, किसी समय मै सब दुख मिटज्या, टोटे का डण्ड भरणे का, सुणो प्रेम से जतन बताऊँ, सहज गुजारा करणे का, कहा ऋषियों नै सेवा है फल, जंगल बीच बिचरणे का, शहर मै बेचो नफा रहैगा, तोड़ लाकड़ी लाणे का।।2।। दासी के सुत नारद जी नै, ब्राह्मण के घर जन्म लिया, गऊ ब्राह्मण साधु सेवा से, चित मै धारण खूब किया, चरणांव्रत दिया ऋषियां नै, समझ कै अमृत नीर पिया, बड़े-बड़े ऋषि-मुनियां नै फेर, नारद को वरदान दिया, शुद्ध आत्मा हुई नारद की, बचा हुआ अन्न खाणे से।।3।। जितना धन कमाकै ल्याओं, चार जगह पै भाग करो, एक तुम्हारा तीन पुण्य के, अति लोभ का त्याग करो, दबा लिऐ अधर्म नै ज्यादा, ईब शुभ कर्मों की जाग करो, छोड पराई आशा तृष्णा, हरि भजन की लाग करो, कहै श्री लख्मीचन्द हो ज्ञान की वृद्धि, गुरू को शीश झुकाणे से।।4।। अब साधू शिक्षा देकर चले जाते है। सेठ ताराचन्द साधू की बताई बात पर अमल करता और कैसे समय गुजरता है- सेठ पणे की बात याद कर, पिछला बख्त बिचारा, तोड़ लाकड़ी बेच दिल्ली म्य, लागे करण गुजारा ।। टेक ।। मण-मण लकड़ी दो बै करकै, जंगल मै तै ल्याते, कदे एक रूपया कदे बारा आन्ने, रोजाना बण जाते, तीन आन्ने का भोजन करके, बाकि दाम बचाते, गऊ-ब्राह्मण साधु की सेवा, करकै भोजन खाते, ईश्वर भग्ति श्रध्दा करकै, वे तै रोज करै भण्डारा। ।1।। बीर-मर्द दिन लिकड़े पहलम, घर तै बहार लिकड़गे, गोरे-गोरे गात की शोभा, खून सूख कै झड़गे, एक दो दिन तै रहया अलकस, फेर बाण सी पकड़गे, धर्म जाण कै तज अधर्म नै, शुभ कर्मा पै अड़गे, महीने भीतर दीखण लाग्या, भग्ति का ढंग न्यारा ।।2।। उनका बुरा कदे ना हो, जो औरां का सोच भला ले, स्याणा माणस गई बुध्दि नै, हट कै फेर मिलाले, फिरज्या मेहर श्री कृष्ण की, भगतां नै पास बुलाले, ओढण-पहरण खाण-पीण का, घर तै काम चलाले, भीड़ पड़ी मै दमड़ी तक भी, मांगण गए ना उधारा ।।3।। बीर-मर्द चाहना रखते थे, पेट भराई अन्न की, शुभ कर्मा पै अड़े रहे, ना करी जरूरत धन की, चौबीस घण्टे चर्चा करते, मन मै हरि भजन की, श्री लख्मीचन्द वैं पार हुए, जड़ै मेहर फिरी श्रीकृष्ण की, इन कामां मै मर्द-बीर नै, बर्ष बीतगे बारा ।।4।। सेठ और सेठानी ने अपना मन धर्म-कर्म में लगा लिया और मेहनत करके नेक कमाई का टुकड़ा खाने लगे।

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