किस्सा सत्यवान-सावित्री : पंडित लखमीचंद (हरियाणवी कविता)

Kissa Satyavan-Savitri : Pandit Lakhmi Chand (Haryanvi Poetry)


जब पाण्डवों को कौरवों ने वनवास दिया तो पांचों पाण्डव तथा उनके साथ द्रोपदी मारकण्डे ऋषि के आश्रम पर पहुंच जाते हैं। मारकण्डे ऋषि ने उनका बडा सम्मान किया तथा पाण्डवों ने फिर कुछ दिन वहीं पर निवास किया। एक दिन मारकण्डे ऋषि और धर्मपुत्र युधिष्ठर बैठे आपस में बात कर रहे थे। धर्मपुत्र ने अपनी विपता के विषय में कहा कि हम तो जंगल का दुख-सुख सहन कर सकते हैं, परन्तु हमारे साथ द्रोपदी भी है, यह जंगल का दुख कैसे सहन करेगी। मारकण्डे ऋषि कहते हैं कि पतिव्रता स्त्री हर समय साथ रखनी चाहिए। सावित्री पतिव्रता स्त्री थी, वह अपने पति सत्यवान को धर्मराज के घर से जीवित करवाकर लाई थी। धर्मपुत्र ने कहा कि हे! ऋषि जी यह सावित्री कौन थी और सत्यवान कौन था, इनका चरित्र हमें विस्तार से बताने का कष्ट करें। युधिष्ठर की बात सुनकर मारकण्डे ऋषि सावित्री का चरित्र सुनाते हैं-

धर्मपुत्र कहैं नही दुखी कोये, जिसी दुखी त्रिया म्हारी, इतनी सुणकै मारकण्डे नै, धर्म-कथा करदी जारी ।।टेक ।। एक अश्वपति महाराज तेजस्वी, सूर्य के समान हुये, यज्ञ करता तप करता, युद्व करता बलवान हुये, गऊ-ब्राह्मण-साधू का प्यारा, गुरू चरण में ध्यान हुये, अतिथि सेवा पांच महायज्ञ, शास्त्रों के ज्ञान हुये, जितने राजा थे पृथ्वी के, हरदम रहैं आज्ञाकारी ।।1।। अस्त्र-शस्त्र का ज्ञाता था, कठिन लडाई लडै रन में, विधि से रक्षा करै प्रजा की, आई सो करता मन में, सब राजों में श्रेष्ठ भूप कै, कमी नहीं माया-धन में, नहीं सन्तान हुई भूप कै, फिकर करया करता तन में, संहस्त्र मन्त्रों का जाप करया, उन्हे कठिन व्रत करकै भारी ।।2।। इन्द्री जीत ब्रहमचारी बण, नियत आहार किया करता, अग्नि में आहुति मन्त्रों से, संहस्त्र बार किया करता, दिन के छठ भाग म्य भोजन, करकै प्यार किया करता, 18 वर्ष तक यज्ञ हवन तप, मन को मार किया करता, प्रसन्न हुई जब दर्शन दे कै, बोली सावित्री प्यारी ।।3।। अग्नि में से प्रकट हो कै, फिर सावित्री फरमाई, दर्शन दे दिये प्रसन्न हो कै, सन्मुख तेरे खडी पाई, लख्मीचंद नै पतिभ्रता की, स्तुति हित से गाई, एक कभी दो चार कभी, हर बार सति होती आई, वाहे सति जो करै पति की, रात-दिनां ताबेदारी ।।4।। अश्वपति महाराज बडे धर्मात्मा पुरूष थे । वह यज्ञ-हवन तप-भजन व्रत में बहुत विश्वास रखते थे, परन्तु सन्तान नहीं थी। एक दिन यज्ञ में से सावित्री देवी प्रगट होती है और अश्वपति महाराज से क्या कहने लगी- ले छत्री वरदान लिये, जो ब्रह्मा नै बरणां सै, धर्म विषय मैं इब कोये, प्रमाद नहीं करणां सै ।।टेक।। अश्वपति:— धर्म विषय को सत्य जाणकै, मनै ईश्वर टेरा सै, मिलै मुझे सन्तान बिना, न्यूऐ घर सुन्ना डेरा सै, पुत्र बिना गृहस्थी का, निशदिन फिका चेहरा सै, हों बहुत से पुत्र तप भजन का, यो कारण मेरा सै, ऋषि कहैं पुत्र बिना, नर अधोगति मरणां सै ।।1।। सावित्री:— तेरे मन की बात सोचकै, मैं ब्रह्मा तै बतलाई, यज्ञ हवन तप व्रत से खुश हो, कन्या तुरन्त रचाई, इस तैं आगै और सवाल भूलकै, करै मत भाई, होणां सै जो इसतै होज्या, इसमें तेरी भलाई, ब्रह्मा नै वरदान दिया मनै, ल्हको कै कित धरणा सै ।।2।। वो देवी अन्तरध्यान हुई, और राजा अपणे घर आग्या, आन्नद से राजा सकल प्रजा का, पालन करण लाग्या, कुछ दिन पाछै पटराणी कै, गर्भ रहा मन भाग्या, जैसे शुक्ल पक्ष का चांद गगन मैं, दिन-दिन दूणां छाग्या, गर्भ की पूरी समय हुई फेर, झूठा के जरणां सै ।।3।। उस कन्या के नामकरण नै, पण्डितों को बुलाया, सावित्री की दई कन्या, सावित्री-ऐ नाम धराया, लक्ष्मी कैसी देव कन्या कै, पडै रूप की छाया, तेज देख किसी राजकवंर नै, ब्याह नहीं करणा चाहया, कहै लख्मीचंद सब धर्म जाणते, एक ईश्वर का शरणां सै ।।4।। दिन-प्रतिदिन सावित्री जवान होती गई तो राजा की चिन्ता भी बढती जाती है- सावित्री नै समय पै आकै, सिर चोटी अस्नान किया, पर्वत के उपर जाकै अपणे, ईष्ट देव का ध्यान किया ।।टेक।। ब्राह्मणों से करा हवन लिये, इष्ट देव से वरदान धन लिये, मात-पिता के सीर वचन लिये, सब का आदर मान किया ।।1।। माला इष्ट देव की पाकै, अपणे पिता की जड़ में जाकै, लज्जित सी हो के बैठगी आकै, मुख से नहीं ब्यान किया ।।2।। पिता पुत्री को जवान देख, सोचण लाग्या जतन अनेक, मिटै ना मिटाई रेख, ऊंच नीच का ज्ञान किया ।।3।। लख्मीचंद रंग ढंग जवानी के-सा, दूसरा नहीं था इसी श्यानी के-सा, सुन्दर रूप भवानी के-सा, तनै त्रिलोकी भगवान किया ।।4।। राजा को चिन्ता थी ही और अब महाराणी भी अपनी बेटी को जवान देखकर अपने पति से कहने लगी- तनै सावित्री का भी कुछ ध्यान सै, हो सुण साजन मेरे, या होरी सै ब्याहवण जोग ।। टेक ।। मनै तै एक जणी थी जेठी, बात कहूं सू बणकै ढेठी, तनै क्यूं रीत जगत की मेटी, जिसकै बेटी घरां जवान सै, न्यू कहैं बडे-बडेरे, उडै माणस मरे के-सा शोग ।।1।। बात मैं ना कहती बढ-चढकै, सजन तू डूब गया गुण पढकै, जगत मैं कन्यादान तै बढकै, और नहीं कोए दान सै, दे बेटी नै फेरे, ना तै हंसैंगे जगत के लोग ।।2।। पी ले भक्ति रस का प्याला, रटले राम नाम की माला, जुणसा धर्म गृहस्थी आला, जो समझै तो इन्सान सै, ना तै पशु भतेरे रहे, सै आनन्दी भोग ।।3।। सीखले गुरू मानसिंह तै बाणी, रह ना फेर बल-विद्या मैं हाणी, न्यूं बतलावै थे राजा-राणी, जिसनै सच्चे- गुरू का ज्ञान सै, हों दिल के दूर अन्धेरे, कटैं जन्म-जन्म के रोग ।।4।। राजा रानी से कहने लगा कि मुझे तो पहले ही बहुत चिन्ता है, पर क्या करूं मुझे सावित्री के योग्य कोई वर दिखाई ही नहीं दे रहा। उसके बाद राजा सावित्री से ही पूछता है कि तुझे कैसा वर चाहिए, तो सावित्री क्या कहती है- वेद रीत और हवन कुण्ड, एक श्रेष्ठ सा घर चाहिए सै, इन्द्रजीत पराक्रमी कैसा, पिता मेरे को वर चाहिए सै ।। टेक ।। मात-पिता की सेवा करकै, चरणां मैं सिर धरता हो, समदम-उपरम सात धाम, कुछ संयम यज्ञ भी करता हो, अग्नि होत्र पंच महायज्ञ, ओम का नाम सूमरता हो, तीन काल सन्ध्या तर्पण मैं, मन इधर उधर ना फिरता हो, कृष्ण जैसा योगी हो, ना तो अर्जून सा वर चाहिए ।।1।। नीति और वेदान्त शास्त्र, कुछ ज्योतिष का ज्ञान भी हो, तुरंग भजावै भाल चढावै, कुछ मलखम्ब बलवान भी हो, नृत्य कला और गदा घुमावै, 14 विद्या निदान भी हो, वस्त्र पहरै शास्त्र लावै, छोटे-बडे का मान भी हो, पैर पद्य माथे मैं मणी, मनैं गोड्यां तक कर चाहिए ।।2।। बह्मचार्य पै कायम रहै, दान करै कुछ जति भी हो, एक भाव पूजा मैं देखै, राज करै महारथी भी हो, गऊ-ब्राह्मण का दास रहै, उसकी शद्ध मति भी हो, पतिव्रता के जोडे के म्ह, इतने गुणों का पति भी हो, फिर हम सीधे चले जां स्वर्ग मैं, के धन दौलत जर चाहिए ।।3।। ऋग्वेद का ज्ञाता हो, सारा-ऐ भेद बतावणिया, अथर्ववेद का ज्ञाता हो, शस्त्र खूब चलावणिया, आयुर्वेद का ज्ञाता हो, खुद बुट्टी-दवा पिलावणिया, सामवेद का ज्ञाता हो, कुछ भजन रागणी गावणिया, गुरू मानसिंह का पंजा सिर पै, के लख्मीचंद डर चाहिए सै ।।4।। राजा अश्वपति देश-विदेश सब जगह घूम लिया, लेकिन उसे सावित्री के लायक वर नहीं मिला और फिर हार कर वह अपनी बेटी को खुद वर ढूंढने के लिये कहता है- मैं फिर लिया जगत जहान मैं, ना वर जोडी का पाया ।। टेक ।। ओउ्म भूर्भव: स्व:, जन तप सतलोक, सातों तै पाताल टोहे, फिरया बिना रोक-टोक, दसों दिग्पाल टोहे, जो पृथ्वी की डाटैं झोंक, अष्ट वसु सप्त ऋषि, दुनिया के संवारे काम, ग्यारह रूद्र चोदह मनु, जिनके न्यारे-न्यारे नाम, बारह आदित्य रहते जहां, होती नहीं सुबह-शाम, प्रभू जी तेरा लिखया हुआ टलता ना, तेरे बिना पत्ता तक हिलता ना, मनै वर जोडी का मिलता ना, कुछ जची नहीं मेरे ध्यान में, मैं वहां से भी उलटा आया ।।1।। स्वर्गपुरी घूम-घूम, देवताओं का राज देख्या, अग्नि-कुबेर वरूण-यम का, समाज देख्या, दिव्य रूप न्यारे-न्यारे, इन्द्र कै सिर ताज देख्या, रमणीक दीप जहां, नागों ही का वास रहे, पिंडलिक शेषनाग, वासुकी भी खास रहे, मणि कणि धारण करना, दिव्य सा प्रकाश रहे, वहां पर कोई भी जा सकता ना, जा कै युद्ध मचा सकता ना, वहां से कोई उल्टा आ सकता ना, जो मारै फूक जबान मैं उनकी भरी जहर की काया ।।2।। साठ हजार ऋषि, बाल खिल ज्ञान करैं, सूर्य से साहसी खडे हुऐ, तप ध्यान करैं, सात छन्द छ: अंग रूप की, पहचान करैं, प्रियव्रत उतानपात ध्रुव जी, दिल डाट गये, प्रचेता की पदवी पाई, दोष-गुण छांट गये, करकै दाब कपिल मुनि, ऋषभ देव भी नाट गये, उन्नै तै अन्न पाणी खाणा ना, ले कै जन्म फिर आणा ना, किसी ब्याह शादी की चाहना ना, रहे सनक-सनन्दन ज्ञान मैं, तजी हरी भजन से माया ।।3।। भूत और प्रेत जिनकी योनि, सब ढाल देखी, आर्यों का लोक देख्या, मारूतों की चाल देखी, ध्यान मैं बेजान पडे़, ऋषियों की भी टाल देखी, अड़सठ तीर्थ अठाईस पर्वत, सुमेरू और मारकण्ड, बावन अरस चौदह भूवन, सात दीप नौं खण्ड, लख्मीचंद कहै घूम-घूम, देख्या सारा ब्रह्मण्ड, तेरा अनुमान कडै़ सै, बिन समझै ज्ञान कडै़ सै, गावणियां तेरा ध्यान कडै सै, खड्या हो कै देख मैदान मैं, तेरा करदयूं मन का चाहया ।।4।। अश्वपति महाराज अपनी पुत्री को देखकर चिन्ता में डूब गये और सोचने लगे कि अब क्या किया जाये। अब कहते हैं कि तुम खुद जाओ अपने योग्य वर स्वयं तलाश करो। अब अश्वपति क्या कहते हैं - जवान अवस्था देख कै बोल्या, खुद बेटी से बाप, तेरे ब्याह की इच्छा करकै, करण कोई आया ना मेल-मिलाप ।।टेक।। हमनै ब्राह्मणों के मुख से वचन, सुने हैं वेद-शास्त्र के, जडै़ कवारी जवान रहै घर पै, उडै़ हों पाप उदय घर के, जो समय पै कन्यादान करै, उडै़ काम नहीं हों डर के, तनै पति मिलै मनैं आण बता, आधीन करूं वर के, तेरे कंवारी रहणें से मेरे सिर, दिन-दिन चढै श्राप ।।1।। ऋतु काल में जो नर, त्रिया के पास नहीं जाते, ब्रह्म हत्या का दोष लगै, फल अपणी करणी का पाते, जिस त्रिया के पुत्र हों, पर बालम मर जाते, वो जिते जी मर गये जो, मां की रक्षा ना चाहते, वे अपणे हाथां धरैं शीश पै, तीन जन्म का पाप ।।2।। जो देवता निन्दा नहीं करै, मेरी इसमें-ऐ बात भली, अर्थ जुडा संग नौकर कर दिये, कर्मां की नहीं टली, बहुत सा द्रव्य दिया बूढा मंत्री, संग बुद्धिमान बली, फेर पिता को शीश झुकाकै, शरमाकै रथ मैं बैठ चली, अणजाणे मार्ग से चलदी, जहां ऋषि करैं तप-जाप ।।3।। अपने कुटुम्ब के दुख-सुख मैं, साथी खुद होणा चाहिए, धर्म की राह मैं बीज बिघन का, ना कदे बोणा चाहिए, सुख हो मात-पिता नै ,नींद भर जब सोणा चाहिए, सावित्री करै फिक्र पति, इब कित टोहणा चाहिए, गुरू मानसिंह की लख्मीचंद, तू लगा प्रेम से छाप ।।4।। सावित्री रथ में बैठकर अपना पति ढूंढने के लिये चल पडी, चलते-चलते एक गहरे वन में पहुंच गई। वहां एक ऋषि का आश्रम था। जहां राजा दयुमतसैन अपनी रानी के साथ निर्वासान के दिन काट रहा था । उनका राज दुश्मनों ने छीन लिया था। वह दोनों अन्धे हो गए थे। उनका लडका सत्यवान लकडी काट कर उनको गुजारा चला रहा था। तब सावित्री ने सत्यवान को वन में लकडी काटते देखा कि पहली नजर में ही वह उसके दिल को भा गया। वह अपने मन ही मन उसके गुणों की प्रशंसा करके क्या कहने लगी- हे प्रभू मन मोहवण नै, या मूर्त कडे तै तारी ।। टेक ।। रूपवान-गुणवान, बुद्धि से विचार करै, क्षमा और तेजवान, शान्ति को सार करै, शीलवन्त-दयावान, दर्शनों से प्यार करै, ऋग्वेद-सामवेद, हर्दय में ही वास तेरै, शिक्षा-कल्प व्याकरण-ज्योतिष, निरूक्त छन्द पास तेरै, अठारह पुराण श्रुति-स्मृति, सभी कण्ठ इतिहास तेरै, सत पत गोपत चौदह विद्या, लई सीख कडे तै सारी ।।1।। मीठी-2 प्यारी लागै, गूंज रही बोल तेरी, मोटे नैन चोड़ा माथा, लम्बी गर्दन गोल तेरी, तीरां के निशाने मारै, भुजा है सुडोल तेरी, चेहरे की गोलाई कैसी, चन्द्रमा सी खिली हुई, दान्तों की बत्तीसी जैसे, सन्धि करकै मिली हुई, शेरां जैसी चाल कैसे, मन्द-2 ढली हुई, मैं कईं बर बोलूं जब एकबै बोलै, मनै यो दुखडा सै भारी ।।2।। शस्त्रों को जानकर, दुश्मन से ना डरणे वाला, ब्राह्मणों का सच्चा सेवक, यज्ञ-हवन करणे वाला, सत्य के विषय में शीश, काट कै धरणे वाला, दानियों मैं दानवीर, दधिचि सा जान लिया, संकीर्ति के पुत्र, रन्तिदेव केसा मान लिया, सभी को नवाकै शीश, ऋषियां धोरै ज्ञान लिया, मैं होली तेरे चरणा की दासी, रहूं बणै कै आज्ञाकारी ।।3। धडकने का नाम नहीं, ह्रदय है गम्भीर तेरा, दोनूं रान मिली हुई, ठुकमा है शरीर तेरा, सामना करैगा कौण, युद्ध के म्हा वीर तेरा, इष्टदेव की दया तै तनै, रिद्धि-सिद्धि सिद्ध करी, पृथ्वी का भार तारया, मर्यादा मैं हद करी, भलाई के बदले बुराई, लख्मीचंद तनै कद करी, ले ले जन्म जगत मैं फिरग्ये, सब अप-अपणी बारी ।।4।। अब सावित्री सत्यवान को अपना पति बनाने का संकल्प करके अपने घर वापिस आ जाती है, उसके पिता राजा अश्वपति के पास नारद जी बैठे थे। दोनों सावित्री की ही शादी की बातें कर रहे थे, सावित्री के वहां पहुंचते ही क्या हुआ- झट हाथ जोड़कै लडकी नै नाड़ झुकाई ।। टेक ।। नारद जी के साथ बैठे, गद्दी उपर महाराज, आई थी कहां से लडकी, गई थी ये किस काज, शादी नहीं करी इसकी, देखते आवै लाज, मेरी तो समझ मैं इसका, कोये भी ना आया पति, ढूंढने गई थी कौण, ह्रदय मैं समाया पति, पूछ ल्यो इसी से कोई, पाया अक ना पाया पति, अपने निमत वर टोहवण खातर, गई थी हमारी जाई ।।1।। पिता की आज्ञा से कहा, पता यो तमाम जिसका, शाल्वदेशी अन्धे राजा, दयुमतसैन नाम जिसका, दुश्मनों ने छीन लिया, राजपाट गाम जिसका, पुत्र और राजा-रानी, दुख मैं बिचल गए, राज भ्रष्ठ हो जाने से, वन को निकल गए, तप करते राज ऋषि, आश्रम पै मिल गए, उनके बेटे सत्यवान से, मनै अपणी जोट मिलाई ।।2।। इस कन्या नै पाप किया, राजन पहले बतलादी, सत्यवान नाम जिसका, माता-पिता सत्यवादी, ऋषि वाले उसके संग मैं, ठीक नहीं करणी शादी, रूपवान गुणवान, बलवान विद्ययावान, अग्नि से भी तेज रूप, पित्तरों का प्यारा जान, सूर्य कहो इन्द्र कहो, बृहस्पति सम बुद्धिमान, शक्ति रूप ययाति के तुल्य, मैं कब तक करूं बडाई ।।3।। राजा बोले ब्राह्मण से, क्या राजकंवर दातार भी है, बोलचाल मैं चतुर घणां, पढा-लिख्या होशियार भी है, क्षमाशील उदारचित, दर्शनों से प्यार भी है, हां हां मैं भी जानता हूं, चित मैं कमाल जिसका, संकीर्ति के पुत्र रन्तिदेव, केसा हाल जिसका, शिबी की तरह से सिर भी, दे देने का ख्याल जिसका, फेर राजा नै कवंर की महिमा, खुद और बूझणी चाही ।।4।। अश्वनि कुमार जैसी, चन्द्रमां सी श्यान प्यारी, तप का कलेश सह, शूरवीर ब्रह्मचारी, सत्यवादी सब का मित्र, धैर्यवान लाजधारी, दूसरों के गुणों मैं, दोष ना लगाने वाला, मर्यादा से अचल भी है, सीधा मृदु भोला-भाला, शीलव्रत तपोव्रत, ऋषियों ने कथ डाला, कहै लख्मीचंद ह्रदय मै, बसती शान्ति और समाई ।।5।। सारी बात सुनकर नारद जी बोले सत्यवान में सारे गुण हैं, परन्तु उसकी उम्र एक वर्ष और है। इसलिये सावित्री की शादी उससे करना ठीक नहीं है। सावित्री कहने लगी महाराज दुनिया में कोई चीज अमर नहीं है। एक दिन सबको मरना है। पतिव्रता स्त्री अपना पति सिर्फ एक बार चुनती है, बार-बार नहीं। यदि मेरी शादी होगी तो सत्यवान के साथ, और सावित्री क्या कहती है- मेरे सिर पै खोटा मन्दा, यो दोष ना धरो, सत्यवान सै पति मेरा, जीओ चाहे मरो ।। टेक ।। बेशक मरो जगत मरता है, साची कहे बिना ना सरता है, दरखत एक बार गिरता है, डूबो चाहे तिरो ।।1।। पहले मन से संकल्प छूटता, फेर बाणी का भ्रम फूटता, पर्वत एक बार टूटता, चाहे कितनाऐ नीचै गिरो ।।2।। एक बर हो कन्यादान, दान की होती एक जबान, मेरा पति सत्यवान, ज्यादा दुखी ना करो ।।3।। यो छन्द लख्मीचंद नै धर लिया, मनै इब मन में संकल्प कर लिया, मनै एकै पति बर लिया, और चाहे कोये लाख बरो ।।4।। सावित्री की बात सुनकर नारद जी राज अश्वपति से क्या कहने लगे- नारद जी बोले कुछ, पहचान ना करी जा भाई ।। टेक ।। ठीक कहणी ना बार-बार की, जिसनै खबर हो धर्म सार की, डूबैंगे जडै शर्मदार की, काण ना करी जा भाई ।।1।। शादी करदयो कुछ ना डर सै, इसके मन का चाहया बर सै, इसकी बुद्धि या स्थिर सै, खींच ताण ना करी जा भाई ।।2।। इसकी रटन से सत्यवान की, पेश चलै ना म्हारे-तेरे ध्यान की, शास्त्रों के ज्ञान की, कुछ हाण ना करी जा भाई ।।3।। लख्मीचंद ढंग मेरी निंगाह मैं, आ रही सै मेरी सलाह मैं, तेरी बेटी के ब्याह मैं, कुछ गिलाण ना करी जा भाई ।।4।। नारद जी ने कहा ! राजन अब देर करने की जरूरत नहीं, अपनी बेटी के मतानुसार श्रेष्ठ कार्य कराओ। नारद जी के आदेशानुसार अश्वपति महाराज ने ब्राह्मणो को बुलाकर अच्छा सा समय दिखाकर और सावित्री सब धन सामग्री साथ लेकर ऋषियों के आश्रम पर पहुंच जाती हैं- सब सामग्री कट्ठी करकै, बडा भारी धन लिया, बेटी के विवाह मैं लगा, छत्री नै मन लिया ।। टेक ।। बणाली विवाह करण की सूरत, और क्याहें की नहीं जरूरत, एक अच्छा सा मर्हूत, और शुभ सा लगन लिया ।।1।। मेरे दिल का भय भागग्या तै, जै कन्या का निमत जागग्या तै, इस शादी मैं रंग लागग्या तै, जीत पूरा रन लिया ।।2।। सोच कै सब छोटी बडी बात, अपणा कर काबू मैं गात, बहुत से ब्राह्मणों को साथ करने को हवन लिया ।।3।। ख्याल था सावित्री के पर्ण का, भूप कहै बणज्यां दास चरण का, ठीक समय सै विवाह करण का, सोच जवानीपन लिया ।।4।। लखमीचन्द बुरे कर्मां का तजन करै था, सेवन-पूजन यजन करै था, जडै अन्धा राजा भजन करै था, राज छूटया बन लिया ।।5।। महाराज अश्वपति ने राजा दूम्मतसैन से हाथ जोडकर निदेवन किया कि मैं अपनी लडकी की शादी आपके लडके सत्यवान से करना चाहता हूं। सत्यवान के पिता ने इस बात पर विश्वास नहीं किया और कहा कि मुसीबत में मेरे साथ ऐसा मजाक क्यों करते हो। अब राज दूम्मतसैन क्या कहता है- राज पाठ छूटै जिनका, उननै दुनियां मैं दुख भारा हो ।। टेक ।। पकडरया तू तपस्वी आली डगर, छुटावै क्यों बेटी का घर-नगर, भूख जिगर चूंटै रै जिनका, उनका फल खाये के गुजारा हो ।।1।। आज मेरा बण्या बिगडग्या खेल, रहया सूं दुख-दर्दा नै झेल, मेल तलक टुटै रै जिनका, उनका ना कोए मित्र-प्यारा हो ।।2।। बण में आग्या साथ लुगाई, एक मेरा बालक करै सै पढाई, भाई दुश्मन धन लुटटै रै जिनका, उनका बैरी जग सारा हो ।।3।। कहै लख्मीचंद करले नै शुभ कर्म, बिन्धज्या भूख प्यास मैं मरहम, धर्म बन्धया खूटटै रै उनका, जिननै सब तरियां मन मारा हो ।।4।। दूम्मतसैन की बात सुनकर राजा ने कहा कि आप मेरी बात सत्य मानों और अब राजा अश्वपति क्या कहता है- दूम्मतसैन सूण बात मेरी, या झूठ ना एक रति सै, जो शरण पड़े की आश तोड़दे, उसकी मूढ मति सै ।। टेक ।। अश्वपति खुद अपणे दिल का, आप भ्रम फोड़ै सै, मैं आशा करकै आया शरण म्य, क्यूं मुखड़ा मोड़ै सै, सोच समझ कै बात करै नै, क्यूं लगी आश तोड़ै सै, इस ढाल का मेल मुल्हाजा, यो परमेश्वर जोड़ै सै, हम बाप और बेटी जाणै सैं, जो दुख-सुख आली गति सै ।।1।। पिता-पुत्री का एक संकल्प, शादी बिना सरै ना, साहूकार कंगाल की चिन्ता, सौ-सौ कोस करै ना, धनमाया गहणे-वस्त्र का, बिल्कुल फ़िक्र करै ना, सब सामग्री साथ मेरै, तूं इतणा भूप डरै ना, सावित्री वर जोग तेरा बेटा, सत्यवान पति सै ।।2।। या बुद्धि म्य कमजोर नहीं सै, बैल तरियां बहै लेगी, नहीं डरै तकलीफ पडै तै, राम-राम कहै लेगी, परवा मतन्या करै बात की, आप कष्ट सहै लेगी, रंग महलां की नहीं जरूरत, बणखंड मैं रहै लेगी, क्यूंके रूपवान-गुणवान सत्यवान, लडका बलवान जति सै ।।3।। करकै दया उरे नै लागण दे, प्रेम रूप के झोले, भेद नहीं सै मेरी काया मैं, चाहे रूम-रूम नै टोहले, लख्मीचंद सब पाप छोड कै, सीधै रस्तै होले, फेर राज की करते बडाई, सब ब्राह्मण न्यूं बोले, अश्वपति सत्य कहैं भूप, ना तिलभर फर्क कती सै ।।4।। राजा अश्वपति की बात सुनकर राजा दूम्मतसैन के दिल में खुशी हुई। राजा आपस में बातें करने लगे और इधर सावित्री राज दूम्मतसैन की राणी के पास गई, ओर क्या कहने लगी- अपणी शरण के म्ह लेले, तेरे पायां पडूं सास, ईश्वर नै करी सै मेरे, या मन की पूरी आश ।। टेक ।। मेरे पिता नै दूध ओर, नीर छाण लिये, मनै थारे बणखंड मैं, चरण आण लिये, इतणे मैं जाण लिये, सारे रंग-रास ।।1।। थारी बहूँ नहीं पर्ण नै हारै, मेरी भी ज्यान भरोसै थारै, खडे धर्म कै सहारै, दोनूं जमीं और आकाश ।।2।। ना कदे खोटा वचन कहूंगी, थारी सेवा कर आनन्द सहूंगी, मैं बणकै नै रहूंगी, सासू-सुसरे की दास ।।3।। लख्मीचंद तजो सब पाप, थारे पै राजी सै मेरा बाप, मैं तो करगी थी आप, थारे बेटे नै तलाश ।।4।। अब सावित्री को उसकी सास क्या कहती है- आ री बहू, दिल प्यारी बहू, पुचकारी बहू, झट छाती कै लाली ।। टेक ।। बहूँ तेरा कंचन कैसा रूप, खिल रही सूरज कैसी धूप, तेरे पै राजी सै मेरा भूप, सिर हाथ धरया, घणा प्रेम भरया, जब नहीं सरया, बहू गोदी मैं ठाली ।।1।। पडै तेरै मद जोबन की झोल, सुन्दर रूप घंणा अनमोल, बहू तेरे मीठे-मीठे बोल, म्हारे ह्रदय मैं रमैं, हुआ सुख हमै, वा दुख की समै, बहूँ पाछे नै जाली ।।2।। समय गई करडाई के फेर की, मैं रक्षक फूलां जिसे ढेर की, मेरे पै सच्चे ईश्वर नै मेर की, लई नजर टेक, पूरी लाख ऐक, तेरा रूप देख, बहूँ सब तीर्थ न्हाली ।।3।। लख्मीचंद छन्द मैं के कसर, ओर के घणी कंहण का बिसर, समझणिंया कै होज्या असर, ये तेरे सुसर खले, अन्धे ढीम डले, बहू भाग जले, नै सौ ठोकर खाली ।।4।। शादी की सभी रस्मे पूरी हो जाने के बाद, राज अश्वपति चलने के लिये आज्ञा मांगते हैं, तो दूम्मतसैन क्या कहते हैं- शादी करी मेरे पुत्र की, मेरे दुख-दरिद्र कट लिए ।। टेक ।। भक्ति करूं था राम की, आज टेर मेरी सुण लई, कुछ आप नैं करदी दया, ये पाप न्यारे छंट लिए ।।1।। तेरै राज पाट हर नै दिया, मैं खुद तन्हा कंगाल हूं, आज मेरे नाम से संसार मैं, घर-घर बधावे बंट लिए ।।2।। राज छुटया किस्मत ढली, दुश्मन चढे सिर गरज कै, धन लुटया बेकार हूं, मेरे नेत्र तक घट लिये ।।3।। कहै लख्मीचंद इस कर्म का, बदला कहीं जाता नहीं, वो पार गए संसार से, जिननै नाम हर के रट लिए ।।4।। अपने पिता महाराज अश्वपति के चले जाने के बाद सावित्री ने अपना सारा हार-सिंगार उतार कर अपनी सास को दे दिया और क्या कहने लगी- पिता के गए पै, गहणे-वस्त्र आपै तार लिए, ले सासू संगवा कै धरले, नौलखा हार लिए ।। टेक ।। गहणां-वस्त्र पहरण का, मेरा कोये विचार नहीं, बुद्धि निर्मल हुई मेरी, करूं धर्म की हार नहीं, आग-फूंस कै धोरै रहते, हो कदे प्यार नहीं, आड़ै ऋषि आश्रम, करणा चाहती हार-सिंगार नहीं, रूखां के बक्कल तार, कसीले वस्त्र धार लिए ।।1।। सास-ससुर और पति की सेवा, करती रहूं हमेश, सासू राखै लाडली, और करता प्यार नरेश, चन्द्रमां सी श्यान बहू की, और काले-2 केश, बडे प्रेम से सुणै गुणै, ऋषि-मुनियां के उपदेश, हरदम बुद्धि रहै भजन में, न्यूं मन मार लिए ।।2।। फिकर कई बै करै एकली, मेरे पै कद ईश्वर दया करै, मन-मन मैं करै सोच औरां तै, कुछ ना कहया करै, सास-ससुर और पति की सेवा, कर आनन्द सहया करै, श्री नारद जी बात खटकती, दिल पै रहया करै, हे! तीन लोक के नाथ मेरा, कर बेड़ा पार लिए ।।3।। बडे-बडे राजा हुए जमीं पै, धरे हुए धन रहगे, बहुत सी माता पुत्र बिना, और घणे माता बिन रहगे, कहै लख्मीचंद धन माया के, लगे हुए सन रहगे, फ़िक्र करै पति की उम्र के, बाकी चार-ऐक दिन रहगे, हे! भगवान डूबती नैय्या, तूं अधर उभार लिये ।।4।। सावित्री ने अपना हार अपनी सास को सौंपकर खुद तपस्विनी का बाणा धारण कर लिया व नारद जी की बात, उसने किसी को नहीं बताई। जब एक साल पूर्ण हाने में सिर्फ चार दिन बाकी रह गये तो सब खाणा-पीणा छोडकर व्रत रखने का संकल्प कर लिया और फिर कवि क्या वर्णन करता है- किसे तै ना भेद खोलै, ख्याल मन-मन मैं, इष्टदेव की माला लेकै, बैठगी भजन मैं ।। टेक ।। ईश्वर देख्या खूब टेर कै, बैठगी थोडी सी जगह घेर कै, कईं बै देख्या हाथ फेर कै, पिया जी के तन मैं ।।1।। गुण-अवगुण की बात लहै थी, सेवा करकै आनन्द सहै थी, पति की जड़ मैं बणी रहै थी, रात और दिन मैं ।।2।। हवन के प्रेम नार कै बढे, चार-ऐक हाथ सूर्य चढे, ब्राह्मणों नै मन्त्र पढे, उन्नै घी डाल्या हवन मैं ।।3।। सत वचन ब्राह्मणों नै भाखे, उसनै भी अमृत करकै चाखे, लख्मीचंद न मतभेद राखे, ईश्वर के रटन मैं ।।4।। जब चार दिन बाकी रह गये तो सावित्री ने खाना छोड दिया और व्रत रखने का संकल्प कर लिया- तीन दिन और रात का, एक व्रत धारण कर लिया ।। टेक ।। नियम है सो-हे व्रत है, हो व्रत से शुद्ध आत्मा, कदे फर्क पडज्या भजन मैं, दिल तरण-तारण कर लिया ।।1।। रात-दिन रहती बणी हाजिर, पति के पास मैं, मेरी जिन्दगी होज्या सफल, जै यो कष्ट निवारण कर लिया ।।2।। जल लिया संकल्प किया, खडी हुई सूर्य के सामने, इस नेम को छोडूं नहीं, मन से उच्चारण कर लिया ।।3।। लख्मीचंद इस व्रत का भी, कोई उद्योग है, कोई बात है तदबीर है कोई, यत्न कारण कर लिया ।।4।। अब सावित्री अपने सास-ससुर के पास जाती है और चुपचाप बैठ जाती है। मुख से उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं हुई। राज दूम्मतसैन ने सावित्री से क्या कहा और सावित्री क्या कहती है- सास ससुर और ब्राह्मणों को, नमस्कार सम्मान करकै, उड़ै-ऐ बैठगी नारद जी के, कहे वचन का ध्यान करकै ।। टेक ।। राजा:— हम दोनू मिलकै साथ कहैं सैं, बीतंगे कईं दिन-रात कहैं सै, तेरे सास-ससूर एक बात कहैं सै, सुणिए हे! बहू कान करकै ।।1।। सावित्री:— पार होगा कोए पूरा योगी, प्रभू तुम बैद्य बणों मैं रोगी, उड़ै-ऐ बैठगी गुम सी होगी, पत्थर कैसी श्यान करकै ।।2।। राजा:— बहू तू धर्म का जंग जीतगी, तेरी भजन मैं लाग नीतगी, तनै कईं दिन और रात बितगी, देख्या ना जलपान करकै ।।3।। सावित्री:— थारी शरण छोड कित जांगी, मैं इस धर्म ताल मैं न्हांगी, कल दिन छिपणे पै भोजन खांगी, हटती नहीं जबान करकै ।।4।। राजा :— बहू म्हारे परमार्थ मैं सिर दे, इतना एहसान म्हारे शीश धर दे, इस कठिन व्रत नै पूरा करदे, म्हारे पै अहसान करकै ।।5।। सावित्री :— माला इष्टदेव की जपणी, या मूर्त कोए घडी मैं टपणी, आज पति के बदले ज्यान खपणी, दे दयूंगी पुन्न दान करकै ।।6।। राजा :— कहै लख्मीचंद महात्मा होगी, धर्म के उपर खात्मा होगी, बहू की शुद्ध आत्मा होगी, ऋषियों का अस्थान करकै ।।7।। सावित्री ने अन्न त्याग कर भगवान के भजन में सच्चा ध्यान लगा लिया। जब वहीं मृत्यू का दिन आया तो सत्यवान ने कुल्हाडा उठाया और लकडी काटने चले, तब सावित्री ने सत्यवान को रोक लिया तो सावित्री क्या कहती है और सत्यवान क्या कहने लगा- हो पिया मैं भी चलूंगी तेरी साथ, ऐकला मत जाइये बण में, छोडणां मैं अलग नहीं चाहती ।। टेक ।। सावित्री:— कहे वचनों से नहीं हिलूंगी, धर्म-कर्म से नहीं टलूंगी, मैं भी चलूंगी नाथ, चाव संग चालण का मन मैं, कहूं के कुछ कही नहीं जाती ।।1।। सत्यवान:— बणखण्ड का मार्ग मुश्किल सै, नार तनै भूखी नै हलचल सै, तेरा पहलां-ऐ दुर्बल सै गात, जोश ना रहया तेरे मन मैं, बतादे तू भोजन क्यूं ना खाती ।।2।। सावित्री:— के ल्योगे मेरा भ्रम फोड़कै, निंघा मेरी फिरती च्यारों ओड़कै, मैं कहूं जोड़कै हाथ, फूलती ना माया-धन म्य, जाणकै मैं भोजन ना पाती ।।3।। सत्यवान:— मैं तेरी सुणूं बात रूखी नै, मतन्या छेड़ै जगहां दुखी नै, तनै भूखी नै होए कईं दिन-रात, जगत के प्राण बसैं अन्न मैं, इसी के तेरी बज्र की छाती ।।4। सावित्री:— मैं ईश्वर के गुण गाऊंगी, बणखण्ड नै देखण जाऊंगी, तेरे लिवा ल्याऊंगी फल-पात, काल जाणैं के करदे छन मैं, रहैंगे दुख सुख के साथी ।।5। सत्यवान:— लखमीचन्द न्यूं की न्यूं सरज्यागी, बण का तू हाल देख डरज्यागी, तू मरज्यागी खा कै अपघात, सूरज तेज तपै घन मैं, तले तै हो धरती ताती ।।6।। सत्यावान कहता है कि सावित्री वन का रास्ता बहुत कठिन है, तेरा कोमल शरीर है, उस कष्ट को नहीं सह पायेगा। अगर फिर भी तू हठ करती है तो मेरे माता-पिता से आज्ञा लेले और सत्यवान क्या कहता है- विकट बाट बणखण्ड का चलणा, तू क्यूकर दुख नै खेले, इस बात मेरी म्य, ध्यान कती देले ।। टेक ।। कार-व्यवहार चल्या करैं आच्छे, जिन कुणब्यां के मन मिलज्यां, मेरे मात-पिता की आज्ञा लेले, मेरै घी कैसे दीपक बलज्यां, मनैं डर लागै कदे गल मैं घलज्या, उनकी आज्ञा लेले ।।1।। असल बाप के बेटे समझया करैं सै, जोड़े और लायां नैं, फेर भी ठा छाती कै लाले, घर तै भी तांहया नै, मेरे मात-पिता के पांया नै, गोरी पक्षी बणकै सेले ।।2।। जो मन से बुरा करै औरां का, उन्हैं के जन्म लिया, बुरा करो चाहे भला करो, नर भोगैगा कर्म किया, जिननै सत भगती मैं ध्यान दिया, वैं रहे साधू-सन्त अकेले ।।3।। चाहवै जो कुछ करयां करैं, जिनका करण का इरादा हो, मेरे मात-पिता की आज्ञा लिये बिन, कुछ ना फायदा हो, लख्मीचंद बीर-मर्द का कायदा हो सै, जैसे गुरू और चेले ।।4।। सत्यवान की बात सुनकर सावित्री आज्ञा लेने के लिए अपने सास-ससुर के पास जाती हैं तथा चुपचाप खडी हो जाती है। इस पर दूम्मतसैन राजा सावित्री से पूछते हैं कि बेटी तुम यहां किस काम से आई हो? कहो! तो सावित्री अब क्या कहती है- फल लेने की इच्छा करकै, जा सै री सुत तेरा, बणखण्ड की हवा खाण जाण नै, जी कररया सै मेरा ।। टेक ।। थारे कहे बिन कोई काम, दिन-रैन नहीं कर सकती, पति का बिछड़ना पल भर भी, मैं सहन नहीं कर सकती, थारी आज्ञा बिन उपर नैं, मैं नैंन नहीं कर सकती, बिना पति के एक घडी भी, मैं चैन नहीं कर सकती, पहलम कहूं सूं नाटियों मतन्या, होगा दर्द घनेरा ।।1।। जी जलज्याणे नै कदे आज तक, इसा कमाल करया ना, थारी चां मैं भरकै टहल करूं, कदे मन्दा हाल करया ना, ओढण-पहरण खाण-पीण का, कदे भी ख्याल करया ना, मनैं एक साल आई नै हो लिया, कदे सवाल करया ना, आज चा मैं भरकै लागण द्यो, मेरा बियाबान मैं फेरा ।।2।। वो हवन के लिये लकड़ी ल्यावै, थारे लिए फल ल्याता, और काम कोए करता तो, वो रोक दिया भी जाता, इसा पुरूष ना चाहिए रोकणा, जो अपणा परण निभाता, हाथ जोड कै अर्ज करूं सूं, तुम ही सुख-दुख के दाता, सब के मन की जाण लिया करै, घर का बडा-बडेरा ।।3।। राजा बोल्या बहूँ आज तू, इतणी क्यूं नरमाई, आज तलक तनै कुछ नहीं मांग्या, जिस दिन तै तू आई, लख्मीचंद नै प्रेम मैं भरकै, या कथा सावित्री की गाई, ले बहू मनैं आज्ञा दे दी, इब करले मन की चाही, फेर सुसर की सुणकै चाल पड़ी, कर दिल का दूर अन्धेरा ।।4।। अब सावित्री अपने पति सत्यवान के साथ बण में चलने की तैयारी करती है- सुसर की सुणकै हंसती चाली, तन कर डामांडोल, पति का दुख ह्रदय मैं पूरा, यो नहीं किसे नै तोल ।। टेक ।। हंसै उजागर दुखी मन-मन मैं, चली पिया के साथ, ह्रदय उपर रहै खटकती, वा नारद जी की बात, जिसका गोरा-गोरा गात, पड़ै थी मदजोबन की झोल ।।1।। फल-फूलां मैं लटपट दोनों, बीर-मर्द डौलै, नारद जी के बोल नार के, हिरदे नै छोलै, जड़ै मोर-पपैये कोयल बौलैं, मीठे-मीठे बोल ।।2।। कितै नदी कितै पर्वत थे, कितै गहरा बण होग्या, कुछ याद पहलड़ी कुछ ख्याल पति का, व्याकुल तन होग्या, दो तरियां का मन होग्या, ये दो दुख-सुख अनमोल ।।3।। तोड़-फोड़ कै डलिया भरली, कट्ठे फल करकै, कहै लख्मीचंद लकड़ी काटूं, करडा दिल करकै, फेर काल बली नै छल करकै, सिर आण बजाया ढोल ।।4।। अब सत्यवान और सावित्री दोनों बियाबान में पहुंच गए। दोनों ने फल फूल तोड़कर डलिया भर ली। अब सत्यवान लकडी काटने के लिए एक वृक्ष पर चढ गया। नारद जी की बाणी अनुसार यम के दूतों ने सत्यवान को दरख्त पर ही घेर लिया तो सत्यवान क्या कहता है और सावित्री क्या कहती है- सावित्री मेरा हाथ पकड़, कोए पाछे नै डाटै सै, मेरी काया मैं दुख दर्द घणां, मेरे ह्रदय नै चाटै सै ।। टेक ।। सत्यवान:— दुख का जाल पुरया मेरे तन मैं, ज्यूं याद विधि माकड़ कै, के जाणैं यो के दर्द हुआ, मैं बांध लिया जाकड़ कै, मेरे प्राण सुखगे आया पसीना, मेरी नश बंधगी आकड़ कै, मनै कईं बै ठा लिया कुल्हाड़ा, पर ना लगता लाकड़ कै, कई बार बोच लिया पाकड़ कै, सर दुणा-ऐ पाटै सै ।।1।। सावित्री:— जाण गई मैं घडी-महूर्त, दिन झगडे गन्दे नै, हे परमेश्वर सबर दिये, मेरे सास-सुसर अन्धे नै, मेरे पति नै काम करया सै, वचना मैं बन्धे नै, बिना ज्ञान कोण काट सकै, इस जन्म-मरण फन्दे नै, छोड पिया इस धन्धे नै, इब के लकडी काटै सै ।।2।। सत्यवान:- सावित्री इब तेरे कहे तैं, में फरसा दूर धरूंगा, सिर मैं कोये भाले से मारै, चक्कर चढया गिरूंगा, कोये खोटा कर्म बणा मेरे तै, उसका दण्ड भरूंगा, मेरी काया मैं दुख दर्द घंणा, मैं जीउंगा अक मरूंगा, ले लकडी काटणी बन्द करूंगा, जै तू रोकै-नाटै सै ।।3।। सावित्री:— लख्मीचंद सतगुरू की सेवा, कर मुक्ति मार्ग टोहज्या, शुद्ध आत्मा रहै इसा कोये, सुकर्म का फल बोज्या, एैब-सबाब घमण्ड सब मन के, हीणां बण कै खोज्या, गोडयां मैं सिर धरो पति जी, मैं हवा करूं तूं सोज्या, जै इसी सति होजयां तै, कती जति पति का दुख बांटै सै ।।4।। सत्यवान नीचे उतर कर आ गया और सावित्री ने अपने गोडयां में सिर रख लिया और क्या कहती है- नारद जी के कहे वचन का, ख्याल करकै, बैठगी वा गोरी सिर नै, गोडयां मैं धरकै ।। टेक ।। सुणें सै लक्षण जती सती के, पति बिन बीर की गती के, आज बदलै पति कै, दिखाउंगी मरकै ।।1।। जाणै वे उंच-नींच की कांण, जिन्हैं हो धर्म करण की बाण, बहुत सी बीरां के प्राण, आज लिकडज्यां सै डर कै ।।2।। मनै माला इष्टदेव की जपणी, कोए घडी मैं या सूरत खपणी, पति के बदले ज्यान अपणी, दे दयूंगी पुन्न-दान करकै ।।3।। बीर जो इतने दुख सहगी तै, लिकडज्या जै फन्दे मैं फहगी तै, जै कुछ ऊक-चूक रहैगी तै, फेर होगा फैंसला हर कै ।।4।। लख्मीचंद क्यूकर सरैगी, या नाव डूबैगी अक तरैगी, बेरा ना बैरण के करैगी, मेरी दाहिनी आंख फरकै ।।5।। * * * जंगल के म्हा बणा आश्रम, जड़ै रहा सकल भर डेरा, सत्यवान पति मेरा आज, यो काल बली नै घेरा ।। टेक ।। काल मरोड़ी देवण लाग्या, कट्ठा होग्या भिचकै, नाभि प्राण दूत बैठग्या, खूब कसूता जमकै, पिंगला नाडी तोड दर्द, दो-चार घडी मैं पचकै, प्राण कोश पै चोट लागग्यी, सांस आवता खिंचकै, इसा कोण जो लिकडजया बचकै, यमदूत फिरै चुफेरा ।।1।। हुचकी बन्धगी कायल होग्या, अग्नि तक ना तन मैं, के ज्ञानी के करै सूरमा, यो काल गिरा दे रन मैं, बन्धन पांच प्राण संशय के, छूट लिये एक छन मैं, अम्बर म्हं तै तारा टूट्या, गजब रोशनी घन मैं, साच-माच के माया धन नै, वो लेग्या काढ लुटेरा ।।2।। पत्ते-नाडी छूट लई, बा का जोर चलै था, बखत आखरी सत्यवान का, गैल्या कौण चलै था, घोर घटा घनघोर घोर कै, गहरा घोर तुलै था, कडक-कडक कै बिजली चमकै, अम्बर खूब हिलै था, जहां ज्ञान का दीप जलै था, काल नै करया अन्धेरा ।।3।। ऋषि-मुनि सन्यासी-योगी, काल कै टाल नहीं सै, काल छली को जीत सकै, कोए इन्द्र जाल नहीं सै, पैदा हो- हो रोज मरण की, आछी आल नहीं सै, कल्पित जीव नै सदा रहण की, बिल्कुल ख्याल नहीं सै, लख्मीचंद कोए माल नहीं सै, जो गांठ बांध कै लेरया ।।4।। अब सावित्री भगवान के ध्यान में बैठ जाती है। यमराज ने अपने दूत भेजे, परन्तु वह सत्यवान के नजदीक भी नहीं जा सके, और वापिस जाकर यमराज से कहते हैं कि वहां तो सति स्त्री बैठी है, वहां पर हमारी कोई पेश नहीं चलेगी, तो यमराज स्वंय सावित्री के पास जाते हैं और क्या कहते हैं- एक महूर्त पिछै करण नै, खुद अपणे मन के चाहे, सत्यवान को लेण खास, यमराज वहां पर आये ।। टेक ।। परम तेजस्वी नेत्र लाल, काले वस्त्र रूप विशाल, यमराज कहो चाहे काल, हाथ में खुद फांसी लाये ।।1।। जब उनकी छाया बगल में पडी, जमीं पै सिर धर होगी खडी, ठीक लग्न और घडी, देव के झट दर्शन पाये ।।2।। कांपती डरती बोली धर कै धीर, मैं जाणगी देवता हो या पीर, तुम्हारा लम्बा दिव्य शरीर, कहो कदम किस तरफ उठाये ।।3।। हाथ जोड बोली हे महाराज, कहो क्या करणा चाहते आज, रखिये लख्मीचंद की लाज, थारे प्रेम से गुण गाये ।।4।। सावित्री के यह कहने पर कि मैं भी साथ चलूंगी तो यमराज ने कहा कि अभी तुम्हारा वक्त बाकी है, जिसका समय आ जाता है, वहीं स्वर्गलोक में जाता है। इतना कहकर यमराज सत्यवान के प्राणों को लेकर चल दिये और सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ती है। फिर दोनों के क्या सवाल-जवाब होते है- पाछै-पाछै होली, ध्यान म्य लगी ।। टेक ।। यमराज:— यमराज बोले थमकै, मनै तेरे मन की टोह लई, काल बली नै ज्यान दलण की, चाक्की झोह लई, आज तलक तनै पति के फर्ज की, गठड़ी ढोह लई, जा तूं क्रिया कर्म करा पति के, फर्ज से उऋण हो लई, तेरा यहां तक चलना बहुत है, तूं सत की श्यान में लगी ।।1।। सावित्री:— पतिव्रत धर्म मेरे गुरू का कथन, मैं उस ज्ञान को लखती, कुछ कृपा है प्रभू आप की, मैं वृथा ना बकती, जहां जाये पति जहां चले पति, मैं वो रास्ता तकती, पति के संग चलने से गति, मेरी रूक नहीं सकती, जो तत्वदर्शी ऋषियों ने कहा, मैं उस ज्ञान में लगी ।।2।। यमराज:— मित्रता का धर्म बताया, संग सात कदम चलना, इस धर्म को लेकर सत्य कहूं, मत नेम से टलना, बनवासी करते धर्म-कर्म, कुछ मांगते फल ना, तत्वदर्शी लोग इसी धर्म से, चाहते ना हिलना, तेरे पति मरण की चोट, करड़ी ज्यान मैं लगी ।।3।। सावित्री:— सन्त जन इसी धर्म को, प्रधान कहते हैं, दूसरे और तीसरे धर्म को, अन्जान कहते हैं, तत्वदर्शी इसी ज्ञान को, विज्ञान कहते हैं, मिलै इसी धर्म से परम सुख, अस्थान कहते हैं, कहै लख्मीचंद जिनकी श्रुति, सही भगवान मैं लगी ।।4।। सावित्री को अपने साथ-साथ आते देख यमराज ने उनसे वापिस जाने के लिए कहा तो सावित्री क्या कहती है- ईश्वर का कर ध्यान लखूंगी, सब रस्तों को देख सकूंगी, चलती-चलती नहीं थकूंगी, पिया जी के साथ में ।। टेक ।। जहां तक जायेंगें मेरे पति, वहां तक पहुंचैगी मेरी गति, जति-सती के गुणों को गुणिये, देकै ध्यान प्रेम से सुणिये, अक्षर-अक्षर ले कै सुणिये, कहूंगी गुण की बात ।।1।। मनै माला इष्टदेव की जपणी, कोई घडी मैं या मूरत खपणी, जो आत्मा अपणी के तुल्ल हो, श्रेष्ठ महात्मा श्रेष्ठ ही कुल हो, धीरवान और सत का बल हो, जैसे दीवा अन्धेरी रात मैं ।।2।। सतपुरूषों से मिलना एक बार, उनको मित्र कहो चाहे यार, वे प्यार करै बस यही असल हो, उनका मिलना ना निष्फल हो, सतपुरूषों में यही अकल हो, के फ़िक्र रहै ना गात मैं ।।3।। सावित्री तेरा कहणा सै, यो ज्ञानियों की बुद्धि का गहणा सै, तनै रहणां सै सबके हित खातर, कहै लख्मीचंद अकलबन्द चातर, के समझै हिये का पात्थर, फर्क हो घूंसे-लात मैं ।।4।। सावित्री का अटल इरादा देखकर यमराज बोले बेटी अपने पति के प्राणों को छोड़कर तुम जो चाहो वरदान मांग लो। मैं तुम्हारे पतिव्रत धर्म से खुश हूं। इस तरह फिर यमराज क्या कहने लगे- अपणे जीवित पति के सिवा, मांग वरदान लिए, जी चाहवै सो तेरा ।। टेक ।। धन्य-धन्य सै आज का रोज, जिसका चाहूं था ढूंढ़णा खोज, इसका कोए बोझ सकै ना लिवा, प्राण शुद्ध जाण लिए, मेरी फांसी मैं घिरा ।।1।। कर दिये काल बली नै राषे, तेरे सब छुट लिये खेल तमाशे, दिये प्यासे को जल पिवा, सुण ऐसा ज्ञान लिये, जो चढया सो गिरा ।।2।। तेरा तै था काबू मैं गात, तेरे नाटै थे पिता-मात, छोड़ कै नारद जी की बात, विवाह सत्यवान लिये, जो जन्मा सो मरा ।।3।। लख्मीचंद ना कदे वृथा बकै, इसी यमराज बुरी ना तकै, उसनै इब ना सकै कोये जिवा, समर भगवान लिये, नफा रहैगा निरा ।।4।। यमराज ने सावित्री से कहा कि अपने पति के जीवन को छोडकर कोई भी वरदान मांग मिल जायेगा। सावित्री ने कहा मेरे पिता के 100 पुत्र होने चाहिये। अब सावित्री क्या कहती है- हाथ जोड़कै धर्मराज से, सावित्री फरमाई, थारे बिना हे प्रभू जी, मेरी कौण करै सहाई ।। टेक ।। सावित्री:— सच्ची बात कहै देने मे, किसी का भी डर नहीं, डरैंगे तो वही जिनके, ह्रदय के मैं हर नहीं, सावित्री न्यू बोली, मेरे पिता कै पुत्र नहीं, पूरी आयु वाले बणा, बल से बलवान दियो, यही मेरी इच्छा मेरे, पिता को सन्तान दियो, एक ना दो चार घणे, पुत्रों का वरदान दियो, सौ पुत्र हों मेरे पिता कै, सावित्री के भाई ।।1।। यमराज:— हो ज्यांगे सौ राजपुत्र, प्रेम से लड़ाने वाले, गिरती हुई बेल को, शिखर मैं चढाने वाले, तेरे पिता कै सो पुत्र हों, वंश को बढाने वाले, कृपा करकै लौटज्या फेर, ऐसा बोले यमराज, चलती-चलती हारज्यागी, बहुत दूर चली आज, दे दिया वरदान हमनै, सिद्ध किये तेरे काज, तूं थकज्यागी कमजोर घणी, बहुत दूर तक आई ।।2।। सावित्री:— पति के संग रहकै मेरा, कठिन मार्ग निकट जानों, कहूंगी एक बात कोये, चिट्ठी नहीं टिकट जानों, दूर तक मन दौड़ै मेरा, समझ ना विकट जानों, वैवस्त मनु सूर्य देव, जगत की ही आत्मा जान, उन्ही के प्रतापी पुत्र, आप हो खुद भगवान, विवश्वान नाम थारा, ऋषियों नै कथा ज्ञान, तुम धर्म करो दुनियां भी करती, हो धर्म सदा सुखदाई ।।3।। यमराज:— आत्मा अपनी पै छिड़का, ज्ञान का लगाओ खास, प्रीती से विश्वास होता, धर्म का निभाओ पास, सतपुरूषों की आत्मा पै, सभी को पूर्ण विश्वास, सतपुरूषों का विश्वास मनुष्य, चित ही में धरया करैं, सब से प्रीति रखते हुए, सब पर दया करया करैं, मनोरथ पूरा हो जाने से, संग से ना टरया करैं, कहै लख्मीचंद सुणी ना, जिसी आज तनै बात सुनाई ।।4।। सावित्री की बात सुनकर यमराज क्या कहने लगे और सावित्री क्या कहने लगी- तेरे सास-ससुर के धर्म कर्म मैं, कदे ना हाणी हो, मनै प्रेम से वरदान दिया, मेरी साची बाणी हो ।। टेक ।। यमराज:— तेरे सास सुसर नै राज मिलैगा, जो तूं चाहवै सै, उनकी रहै धर्म मैं ब़ुद्धि, जो कोये धर्म कमावै सै, अब लौटज्या वापिस ना हक, क्यूं परिश्रम ठावै सै, तूं थकी हुई कमजोर घणी, मनै दया सी आवै सै, मनैं कईं बार कहली फेर भूलग्या, इतनी अकलमन्द स्याणी हो ।।1।। सावित्री:— हे प्रभू प्रजा आप से दण्ड पा कै, शुद्ध हो जाती है, दण्ड देकर सुकर्म का फल दयो, फेर शुभ घड़ी आती है, इसीलिये प्रजा आपको, यमराज बताती है, एक छोटी सी अर्ज मेरी, जो मेरे मन को भाती है, कर्म-वचन मन से दुख नहीं दे, चाहे कोई भी प्राणी हो ।।2।। यमराज:— किसी प्राणी से विरोध ना करणा, सब पर दया करैं, यज्ञ-हवन तप-दान भजन कर, दुख मैं सुख ल्हया करैं, बडे सन्त जन इसी धर्म को, सनातन कहया करैं, बहुत अनजान धर्म विरोध कर, भूल मैं रहया करैं, सज्जन दया करै दुश्मन पै भी, कदे ना गिलाणी हो ।।3।। लख्मीचंद शरण सतगुरू की, रट हरि नाम हरे, तेरे मीठे बोल सच्चाई के, गुण झट प्रेम भरे, सावित्री तेरे वचन मनैं, लिख ह्रदय बीच धरे, जितने बोल निकलते ह्रदय से, एक तै एक खरे, जैसे प्यासे की प्यास बुझावण नै, ठण्डा पाणी हो ।।4।। यमराज ने भी सावित्री को सभी वरदान दे दिये और कहने लगे कि सावित्री जो तुमने वरदान मांगा, मैने वही वरदान दे दिया। अब सावित्री क्या कहती है और यमराज क्या कहता है- सब बातां की मौज होज्या जै, प्रभू चरणं मैं ध्यान होज्या, खटका रहै किस बात का, जब थारे दर्शन भगवान होज्या ।। टेक ।। कदे खाली जा बात ना मेरी, तू जिस वरदान को टेरी, पूरी इच्छा होज्या तेरी, सब दूनियां कै ज्ञान होज्या ।।1।। उनकी किस्मत चाहिये जगणी, चिन्ता अलग गात से भगणी, जैसे हो देवताओं मैं अग्नि, सूर्य के समान होज्या ।।2।। सुसर का राज छुटया रहै बन में, उनकै ज्योति नहीं नैनन मैं, आंख खुलै हो आन्नद मन मैं, शूरवीर बलवान होज्या ।।3।। लखमीचन्द हरी गुण गाकै, इब तू चाली जा वर पाकै, सज्जनों की शोभत में आकै, मूर्ख भी इन्सान होज्या ।।4।। सावित्री कहने लगी महाराज आपने वरदान देने में कोई कसर नही छोड़ी, यदि एक वरदान और दे दो तो मैं तुरन्त लोट जाउंगीं । मेरे पास कोई भी सन्तान नहीं है यदि एक पुत्र होने का वरदान और मिल जाए तो मैं चली जाउंगी। यमराज ने यह वरदान भी सावित्री को दे दिया। अब सावित्री क्या कहती है और यमराज क्या कहता है- सब के घर मैं थारी दया तै, दिया हुआ धनमाल होगा, जती मर्द बिन सती बीर कै, कहो पुत्र किस ढाल होगा ।। टेक ।। तेरा दिल किसे तरियां ना हाल्या, मनै सांस सबर का घाल्या, जिब मेरे पति नै ले कै चाल्या, किस तरियां मेरै लाल होज्यां ।।1।। मेरा खोटा मता नहीं था, मैं रहया तनै सता नहीं था, पहलम तै मनै पता नहीं था, तेरा धर्म कपट का जाल होगा ।।2।। थोडा सा मनै ज्ञान बख्श दे, मेरे लिये वरदान बख्श दे, मेरे पति की ज्यान बख्श दे, जब पूरा मेरा सवाल होगा ।।3।। लख्मीचंद कर काम शर्म का, पति नै लेज्या मैं जिगर नर्म का, मेरे वचन और तेरे धर्म का, सब दुनियां कै ख्याल होगा ।।4।।

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