किस्सा राजा हरिश्चन्द्र : पंडित लखमीचंद (हरियाणवी कविता)

Kissa Raja Harishchander : Pandit Lakhmi Chand (Haryanvi Poetry)


एक समय की बात है कि जब अवध देश में सुर्यवंशी राजा हरिशचन्द्र राज करते थे। वे बड़े धर्मात्मा थे तथा पुन्न-दान एवं सत्य के लिए देवताओं तक उनका लोहा मानते थे। एक दिन देवराज इन्द्र की सभा मे नारद जी ने राजा हरीशचन्द्र की बड़ी प्रशंसा की। वहां विश्वामित्र इर्ष्यावश नारद जी की बात को पचा नही सके। सत्य और धर्म को भंग करने हेतू, राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने का मन बना लेते है और उसी समय सभा में घोषणा भी कर दी। अब ऋषि विश्वामित्र ब्राह्मण का वेश धारण करके राजा हरिशचन्द्र से सारा राजपाट मांग लेते है। राजा सारा राज दे देता है। जब दक्षिणा के सौ भार मांगे तो राजा के पास कुछ नही था। राजा ने अपने परिवार को बेचकर सौ भार दक्षिणा पूरी की। राजा कालिऐ भंगी का नौकर बन गया। एक दिन हरिया यानि हरिशचन्द्र बरणां नदी पर पाणी भरने जाता है। कई दिन से खाना नही खाया है, इसलिए उसका शरीर कमजोर हो गया था। कवि ने वर्णन किया है-

रहया ताकत लाकै देख, घड़ा ना ठाये तै उठया ।।टेक।। कदे तै महल मैं रहूं था सजकै, प्रेम का प्याला पीऊं था रजकै, सदा विष की प्याली तजकै, भक्ति अमृत रस घूंटया ।।1।। कदे हम गर्क रहैं थे धन मै, ईश्वर के करदे एक छन मैं, हरिशचन्द्र फ़िक्र करै मन मै, मोह घर-कुणबे का झूठा ।।2।। पता ना किस करणी में भंग पड़ग्या, न्यूं चेहरे का सारा नक्शा झड़ग्या, आज मेरै नाग विपत का लड़ग्या, मेरा तप तृष्णा नै लुटया ।।3।। बाकि कुछ ना रही तन मै, मेरी दिन-रात की श्रुति भजन मै, हरिशचन्द्र फ़िक्र करै मन मन मै, नही भ्रम बात का फुटया ।।4।। मानसिंह गुरू प्रेम मै भरकै, सदा अधर्म से रहते डरकै, लख्मीचन्द कहै छन्द धरकै, जाणूं कालर म्य गाड़ दिया खूंटा ।।5।। रानी मदनावत जो रामलाल ब्राह्मण के घर रहा करती, वह भी पानी भरने आती है। कवि ने वर्णन किया है- नीर की हे! नीर की, झट त्यारी करली नीर की ।।टेक।। कदे तै थे सबके सरदार, बान्दी रहैं थी ताबेदार, करया करती सोला सिगांर, चीर की हे! चीर की, गई शोभा दखणी चीर की ।।1।। एक तै पति नही मेरे पास, दूजै नौकर सुधां रोहतास, बणकै रहै जो बिरानी दास, बीर की हे! बीर की, हो रेह-रेह माटी बीर की ।।2।। किसतै तै कहूंगी दर्द की बात मैं, कोये माणस ना मेरे साथ मै, मदनावत सती के गात मै, तीर की हे! तीर की, लगी एैंणी प्रारब्ध के तीर की ।।3।। लख्मीचन्द जंग झोये की, सांझी मैं बणी बीज बोये की, कदे लागूं थी जगह खोवे की, खीर की हे! खीर की, विष की थाली बणगी खीर की ।।4।। राजा और रानी की आपस में बात होती है- चमोले राजा:- कदे-कदे रंग महल में, थे सबके सरदार, पवन तलक की आड़ थी, नौकर कई हजार, नौकर रहैं थे हजार, दास चरणां के, इब मरण तैं आगै, और बता डरणा के, रानी पहूच गई जड़ै, जल बहरे थे बरणां के। राजा:- हरिशचन्द्र के चेहरे की, मगरूरी झड़गी, दुख विपता की काली, नागिण लड़गी, छत्री कै एक औरत, आंवती नजर पड़गी। रानी:- दुख की चिन्ता, मेरे गात मै जागगी, सुख की समय, सौ-सौ कोस भागगी, रानी बरणां नदी मै, जल भरण लागगी। राजा:- चुप था पर, बोले बिन नही सरै सै, न्यूं चिन्ता मै, मेरा गात चिरै सै, मनै घड़ा ठूआदे तूं, पाणी कौण भरै सै। रानी:- हो पार गए जो भजन करैं, हर क्यां नै, मैं कहूं सूं दियों काम छोड, डर क्यां नै, पिया विपत पड़ी मै क्यो भूल गया, घरक्यां नै। राजा:- जाण गया चिन्ता, मेरे जिगर नै खा सै, न्यूंऐं रानी दिन-रात, फिकर मै जा सै, मैं तनै न्यूं बुझू तूं मेरी, मदनावत तै ना सै। रानी:- हो कहरी सू तनै, कोन्या बात पिछाणी, मेरे साजन समय, या आवणी-जाणी, लिये आंख खोलकै देख तेरी, मैं मदनावत रानी। राजा:- मदनावत तूं ध्यान, हरी मै धरीयें, मै कहरया सूं गोरी, मत वचना तैं फिरिये, मनै नही पिछाणी तूं, गिल्ला मतन्या करिये। रानी:- पार गये जिसनै लिया, ईश्वर का शरणां सै, पिया मरण तै आगैं और, बता के डरणा सै, जै नही पिछणू तै, के गिल्ला करणा सै। अब राजा ने घड़ा भर लिया, लेकिन कमजोरी के कारण सर पर उठा नहीं पाया। इतने में मदनावत भी वहीं पानी भरने के लिए आती है और राजा रानी को देखकर क्या कहता है- दया करी हर नै दोनो पै, न्यू दर्शन पावण की, कद का देखूं बाट घाट पै, माणस के आवण की ।।टेक।। दिन और रात फिकर मै जा सै, या चिन्ता मेरे जिगर नै खा सै, तेरे पति मैं श्रध्दा ना सै, मटका ठावण की ।।1।। विपता पड़गी हाथ नही सै, चैन पड़ै दिन-रात नही सै, घड़ा ठवादे कोए बात नही सै, बिल्कुल शरमावण की ।।2।। इतणा अहसान मेरे सिर धरदे, दवाई मेरे जख्म में भरदे, हिम्मत करकै श्रृद्धा करदे, एक हाथ लुवावण की ।।3।। गुरू बिन कौण ज्ञान का देवा, थारे बिन कौण पार करै खेवा, गुरू मानसिंह की करकै सेवा, लई कार सीख गावण की ।।4।। रानी राजा को क्या कहती है- तनै जात जन्म सब खो लिया, रह लिया भंगी के घरां ।।टेक।। चाहे कोय नही देखता और, या सबकी हरि के हाथ मै डोर, भगत पै पडै़ भतेरा जोर, घड़े नै ठुवाती बरां ।।1।। मैं निर्भाग कर्म हेठे की, दया तनै करी नही जेठे की, ना तनै खबर लई बेटे की, मै सेऊं अण्डे की तरहां ।।2।। मनै तकदीर लिखा ली खौटी, सहम होणी नै घीटी घोटी, जले डूब मरै नै क्यो ओटी, मटके ढोवण की सिरां ।।3।। लख्मीचन्द ना एक गडण की, के समझावै मै नही पढण की, जिसमैं श्रृद्धा नही ऊड़ण की, वो क्यूकर उड़ज्या बिना परां ।।4।। रानी की बात सुनकर राजा क्या कहता है- जाणू था एक शरीर, पर बख्त पड़े पै, मुंह फेर गई, रै! मेरी नार ।।टेक।। कुछ तै मेरे कर्मा में रोणा था, तेरा पतिव्रत धर्म टोहणा था, कुछ होणा था मेरा भी हक आखीर, पाणी के घड़े पै, तज मेर गई, रै! मेरी नार ।।1।। कुछ तै लेख कर्म के बगे, दुख-विपता के धूणे जगे, कुछ लगे तेरे बोलां के तीर, जख्म छिड़े पै, नमक गेर गई, रै! मेरी नार ।।2।। ले थी बालम का दुख बंटा, सब कुछ दिया भूल में मिटा, गया बैठ लुटा तकदीर, गादड़ के थड़े पै, बण शेर गई, रै! मेरी नार ।।3।। लखमीचन्द विधी छन्द तोलण की, बात करै तू छाती म्य घा खोलण की, बस बोलण की लिऐ खींच लकीर, जख्म छिड़े पै, नमक गेर गई, रै! मेरी नार ।।4।। रानी ने जो बात बेटा पालने की कहीं थी, उसके जवाब में राजा ने क्या कहां- पालै सै तै कदे नै कदे, तनै करकै टूक खुवादे, इतना-ऐ शान भतेरा, मेरे सिर पै घड़ा ठूवादें ।।टेक।। बणी-बणी के सौ होज्या, कोए ना बिगड़ी का साथी, सत के कारण मारें खड़या सूं, धर्म रूप की गाती, पिछला कर्म निमट नही लेता, इतणै कौण हिमाती, अन्त:करण का मैल उतरज्या, झट मुक्ति हो जाती, कर्म चढण नै दे-दे हाथी, घर तै कर्म तुहादे ।।1।। अपणा तै दुख रोवण लागी, चाहे आगला मरज्या, देख ब्योंत मेरा कंगले आळा, तेरा हिया क्यूं ना लरज्या, कदे-कदे तै राज करूं था, रहै थी हुक्म मै प्रजा, धर्म के कारण करें खड़या सूं, कंगल्या आळा दर्जा, तेरे पति का कर्ज उतरज्यां, तूं याहे दिन-रात दुआ दे ।।2।। हाथ जोड़ कै न्यू कहरा, के मैं हीणा तूं ठाढ़ी, मै बोल्या तूं घड़ा ठूवादे, तनै आंख कसुती काढी, बड़े-बड़े पुन्न-दान करै, जाणै किस दिन आज्या आडी, धर्म का धक्का लुवा दिये, मेरी धंसी गार मै गाडी, तरहां बैल की जुड़ज्यांगा, एक बर कर अधर जुआ दे ।।3।। लख्मीचन्द सतगुरू की सेवा, करकै पार उतरिये, जो भीड़ पड़ी मै काम आंवती, इसी लुगाई बरिये, धड़ पर तैं चाहे नाड़ उतरज्या, मत वचनां तै फिरिये, हाथ जोड़कै न्यूं कहरया, मेरी नार प्रण पै मरिये, न्यूं मत डरिये कदे छींट लागज्या, तूं दूर तै हाथ लुवादे ।।4।। अब राजा को रानी घड़ा उठाने के बारे में क्या तरकीब बताती है- हो जल मै गोता मार कै, तले नै झुका लिये नाड़, घड़ा तेरे सिर उपर आज्या ।।टेक।। लगा लिए परमेश्वर मैं ध्यान, रहज्यागी बणी बणाई श्यान, इसा ज्ञान लगाऊं भरतार कै, कटज्या जीते जी का झाड़, भजन कर हर के गुण गाज्या ।।1।। यो तेरी ब्याही का कहणा सै, आगै अप-अपणा लहणा सै, बीच रहणां सै संसार कै, मैं धर्म खेत तू बाड़, भूल कै कदे खेती नै खाज्या ।।2।। तूं भंगी का नीर भरै इब हाल, जिक्र कदे सुण पावै ना राम लाल, यू ख्याल सै तेरी नार कै, कदे दुनियां जोड़ै राड़, मेरे सिर तोहमद ना लाज्या ।।3।। मानसिंह भोगै ऐश आनंद, गुरू दे काट विपत के फन्द, लख्मीचन्द छन्द धरै विचार कै, इस म्य के तेरा बिगाड़, कर्म कर मुक्ति पद पाज्या ।।4।। नदी के जल में गोता लगा कर राजा घड़े को उठा लेता है और क्या सोचता है- सिर कै ऊपर मटका ठा लिया, जल म्य गोता मार, भीड़ पड़ी में धोरा धरगी, फेरा की गुनहगार ।।टेक।। सदा अधर्म तै घणां डरूं था, सब दुनियां के दुख हंरू था, कदे अवधपुरी में राज करूं था, बण सबका सरदार ।।1।। जोश ना रहा मेरी काया म्य, कदे चलैं थे छत्र की छाया म्य, तनै भंगी कै नौकर लाया म्य, तेरी माया हे! करतार ।।2।। मेरा तप तृष्णा नै लूटया, मेरा ऐश-आनंद सब छूटया, ठोकर लाग कै मटका फूटया, रोया जार-बेजार ।।3।। कदे ना कदे प्राण लिकड़ज्यागें मरकै, आगै होगा सही फैसला हर कै, लख्मीचन्द नै सेवा करकै, ये कली बणाली चार ।।4।। आज भारी दुखड़ा खे कै, तबियत शान्ति जल मै भे कै, गुरू मानसिंह की आज्ञा ले कै, मनै कली बणाली चार ।।5।। ब्राह्मण के भेष में विश्वामित्र के पूछने पर हरिशचन्द्र ने क्या कहा- ऋषि मैं नौकर काले भंगी का, और के घणा निखार हो सै, सोच घणी मटका फूटण की, नौकर की के कार हो सै ।।टेक।। मनै भाग लिखा लिया हीणा, दीखै कोए घड़ी में विष पीणां, लाभ-हाणी और मरणा-जीणा, विधना कै अख्त्यार हो सै ।।1।। सतगुरू जी का ज्ञान करे तै, नित उठकै पुन्न-दान करे तै, एक दमड़ी का नुकसान करे तै, कर्जदार की मार हो सै ।।2।। सुमरण करिये मेरे वाक का, यो चक्कर कुम्हार केसे चाक का, नोकर करदे नफा लाख का, लोग दिखावा प्यार हो सै ।।3।। लख्मीचन्द भेद बतादे धुर का, मुश्किल पता लगै लय-सुर का, जो ताबेदार रह सतगुर का, उसका-ऐ बेड़ा पार हो सै ।।4।। विश्वामित्र ने कालियां भंगी को शिकायत लगाई, जब मटका फूटने पर कालिया रड़के से पीटता है तो हरिशचन्द्र कालिये को क्या कहता है- कालिये मतन्या रड़का मार, मेरा दम लिकड़ण का डर सै, बख्श! तेरे पां चुचकारूंगा ।।टेक।। मत दे दुख घणे खे राखे, ये चित भक्ति में भे राखे, मनै तेरै ले राखे सै भार, तेरा कर्ज मेरै सिर सै, इसनै मर पड़कै तारुंगा ।।1।। सोच मै काले तेरा मटका-ऐ फूटा, सोच नै मेरा तै कालजा चूट्या, सोच कर झूठा सकल विचार, सोचण-समझणियां की मर सै, सोचली ना हिम्मत हारूंगा ।।2।। कर्म तै नेकी कर्म तै बदी, कर्म तै हाथी-घोड़ा गद्दी, कर्म तै मै नदी का पणिहार, कर्म तै यो भंगी का घर सै, कर्म कर जन्म सुधारूंगा ।।3।। लख्मीचन्द कर्म की छींट, जिन्दगी रोटी पर का टींट, चाहे मार-पीट सर तार, मेरा रखवाला हर सै, काटले ना नाड़ उभारूंगा ।।4।। कालिया ने हरिये से कहा, कि दुकान से अन्न भोजन क्यो नही लेता तो जब हरिया क्या जवाब देता है- रस्ता तेरी दुकान का, घर भूल गया ना पाया ।।टेक।। मेरे सब छूटगे आनंद-मौज, सिर पै धरया पाप का बोझ, सुख झंडा फौज निशान का, अपने हाथां द्रव लुटाया ।।1।। लिया जिन्दगी का देख जहूरा, मेरे खाणे छूटगे घी-बूरा, पूरा सूं धर्म इमान का, न्यूं भूखे की डोलगी काया ।।2।। कदे तै ढलै था ताज पै चंवर, राजी रहै था शरीर में भंवर, कंवर मेरा सुथरी श्यान का, अपणे हाथां मोल चुकाया ।।3।। मानसिंह भोगै ऐश आनंद, काटद्यो फांसी यम के फन्द, लख्मीचन्द नै डंका ज्ञान का, दुनियां मै खूब बजाया ।।4।। रानी जल की झारी लेकर आ गई। आते ही उसने पुत्र को हूक्म दिया कि बेटा जाओ पण्डित जी का समय हो रहा है इसलिए फूल तोड़कर लाओं। उसने फूलों की डलिया हाथ में उठाई और बाग से फूल तोड़ने चल पड़ा- धर्म समझकै चल दिया लड़का, छत्री हरिशचन्द्र का जाया, एक पल मै चाहे जो करदे, हे! ईश्वर तेरी ऐसी माया ।।टेक।। धर्म के कारण सुमन्द्र-नदी, धर्म के कारण तजदी गद्दी, मेरे तीर्थ व्रत गए सब रद्दी, मैं पिता की टहल करण ना पाया ।।1।। रौनक कद आवै चेहरे पै, धन-धन ईश्वर तेरे डेरे पै, तनै या भी दया करी मेरे पै, मै घर ब्राह्मण कै नौकर लाया ।।2।। मेरी मां नै कर लाड-प्यार लिया, मै के करता टहल हार लिया, झट दोना चुचकार लिया, जब जननी मां नै काम बताया !!3!! ये कली लख्मीचन्द नै गाई, ईश्वर सबकी करै सहाई, छोडूं नही धर्म की राही, सदा उमर ना रहणी काया ।।4।। रोहताश कंवर को विश्वामित्र ऋषि परीक्षा लेने के लिए सर्प का रूप धारण करके काट लेते है। लड़का मूर्छित होकर जमीन पर गिर जाता है और ऋषि को देखकर लड़का आखरी सांस में क्या कहता है- मैं तेरा भूलूं नही एहसान, ऋषि बुलादे माता मेरी नै ।।टेक।। ऋषि जी मैं मरया-मरया मै मरया, मनै दण्ड किस करणी का भरया, हरया तन केले के समान, चीर दिया विष बडबेरी नै ।।1।। ऋषि जी मेरी मरते की ले लिऐ दया, मेरी जननी मां नै न्यू कहयां, पकड़ रहया काल बली बलवान, भाज सिंहणी तेरे केहरी नै ।।2।। कहै दिये तूं निर्भाग कर्म हेठे की, दया कुछ लेले नै जेठे की, तेरे सुन्दर बेटे की ज्यान, घेरली दुख की घेरी नै ।।3।। यो छन्द लख्मीचन्द नै धरया, जा मेरी माता नै बेरा करया, न्यूं कहिए तेरा चांद दाब लिया आण, काल की रात अन्धेरी नै ।।4।। ऋषि रोहताश कंवर की बात सुनकर काशी शहर की तरफ हो लिया। रास्ते में एक कुआँ था। रानी उस कुवें पर पानी भर रही थी। ऋषि उसको देख कर क्या कहने लगे- कोई हो बेवारिस नारी, अपणा पूत टोह लिए ।।टेक।। तीर काल का सधरया, बोलता दुख-दर्दा में बिन्धरया, किस निन्द्रा में पैर फैला री, री! जागज्या फिर सौ लिए ।।1।। तनै रोवण-पीटण तै सरग्या, यो चेतन परलोक डिगरग्या, तेरा मरग्या कंवर खिलारी, री! लाड़-प्यार सब हो लिये ।।2।। दुख-दर्दा म्य घिटी घुटगी, तेरी ऐश-अमीरी छुटगी, तेरी लुटगी केसर क्यारी री, री! इब चुगैगें पापी गोलिए ।।3।। या ना चोट झिलण की, समय गई फल-फूल खिलण की, लख्मीचन्द चलण की त्यारी, री! बहुत दिन झंग झो लिए ।।4।। ऋषि जी की बात सुनते ही रानी बाग की तरफ भाग लेती है और क्या कहती है- और किसे का दोष नही, कर्म लिखे दुख रोवण चाळी, इस कांशी के बागां कै म्हा, लाश कंवर की टोवण चाळी ।।टेक।। कोए किसी का ना नाती-गोती, शरीर की खिंचती आवै ज्योति, पड़या रेत मै टूट कै मोती, ठाकै लड़ म्य पोवण चाळी ।।1।। मै कांशी मै कौण कड़े की, विपता भोगूं बख्त पड़े की, बेटे कै सुण नाग लड़े की, इस जिन्दगानी नै खोवण चाळी ।।2।। सुत का तीर जिगर पै लाग्या, आख्यां आगै अन्धेरा छाग्या, जै रोहतास जीवता पाग्या, करकै लाड भलोवण चाळी ।।3।। लख्मीचन्द कहै पेश चली ना, लिखे कर्म की रेख टली ना, पिछले दुख मै घाट घली ना, और नया जंग झोवण चाळी ।।4।। बाग में इधर-उधर घूमकर मदनावत रोहताश की लाश को तलाश कर लेती है। रूधन मचाती है और कैसे विलाप करती है- एकली रूधन करै तेरी माता, पता ना पाता, छोड़ चल्या गया रे ।।टेक।। अरे! बणै तेरे माई-बाप बेहुधे, आज तेरे पड़े निगारे मूधे, सूधे करकै पैर फैलाता, हे! मेरे दाता, छोड़ चल्या गया रे ।।1।। ओच्छी लिखदी मेरे भाग म्य, यो शरीर आणा सै दाग म्य, मेरे चांद जै बाग में ना आता, तनै नाग ना खाता, छोड़ चल्या गया रे ।।2।। पति मेरा करड़ा दिल ढेठे का, के बणैं मेरै ख्याल करे जेठे का, मां-बेटे का नाता, हे! मेरे दाता, छोड़ चल्या गया रे ।।3।। अरी क्यूकर होज्या रोवण तै बन्द, घुटगे सांस हुई जबां बन्द, छन्द नै लख्मीचन्द गाता, रक्षा करिये दूर्गे माता, छोड़ चल्या गया रे ।।4।। रानी विलाप करती है- रोहताश आश की, लाश पास पड़ी, सांस टोह लिया पाया ना ।।टेक।। रहूं थी मोटी कोठी जिसी, आज या दुख में काया पिसी, किसी लाचार प्यार से, खवार चार धड़ी, त्यार वजन-वजन म्य काया ना ।।1।। ऋषि नै जाकै सुणाकै न्यू कहा, भाज आज तेरा पूत रो रहा, झट गया थूक सूक गई, उक भूख मै खड़ी, टूक फ़िक्र म्य खाया ना ।।2।। कहे वचन जचण के खरे, हूई बेहोश दोष सिर धरे, तेरे निर्भाग बाग म्य, नाग आग झड़ी, दाग लगाया तनै ताहया ना ।।3।। लख्मीचन्द लगी घलघोट, और ल्यूं किसकी ओट, या पापण सापण भरी, विष की फिरै, मेरै क्यूं ना लड़ी, तेरै किमे थ्याया ना ।।4।। रानी ने बाग में लड़के की लाश को अपने पैरो में लिटा लिया और क्या कहने लगी- नैनां म्य तै आसू पड़तें, जणूं बूंद साढ के झड़ म्य, जिस दम तैं मां कहया करै था, सांस नही तेरे धड़ म्य ।।टेक।। कांशी के म्हा करै थे गुजारा, सब घर बार छूटकै, एक धन माया बाकी थी, जिन्है लेग्या नाग लूटकै, कोए घड़ी मै तेरी मां मर लेगी, सिर नै कूट-कूटकै, कद की देखू बाट तेरी, कद माता कहै उठकै, पड़या रेत मै टूट के मोती, जो रहया करै था लड़ म्य ।।1।। माता कहकै बोलण का, ढंग सौ-सौ कोस परै सै, तू मरग्या मै रही ऊँतणी, एकली ज्यान डरै सै, तेरा पिता भी न्यारा पाट, कर्ज का डण्ड भरै सै, मै बेटा तेरी गैल मरूंगी, जीवण तै नही सरै सै, बोल तेरी मां लाड करै सै, गोडा ला तेरी कड़ म्य ।।2।। कांशी के मै करै थे गुजारा, दिन आंगलियां पै गिणकै, तेरा पिता भी के जिवैगा, तेरे मरे की सुणकै, तेरी काया मै जहर भरया सै, लाकड़ होग्या तणकै, या दुनियां ताने दिया करैगी, बेटा खा लिया जणकै, काल बली नै तोता बणकै, चौंच चुभोदी धड़ म्य ।।3।। दोने मैं तैं फूल बिखरगे, तूं सुख की निंद्रा सोवै, देख कंवर तेरे जामण आळी, जिन्दगानी नै खोवै, लख्मीचन्द कहै सतगुरू बिन, कौण दाग नै धोवै, देख बेटा तेरी पैड़ा नै मां, मूधी पड़-पड़ टोहवै, जैसे साहूकार माल नै रोवै, नकब लगे की जड़ म्य ।।4।। आगे रानी क्या कहती है- मेरे छुटगे सब आनन्द, सनन्ध दुनियां तै उठगी रे ।।टेक।। मनै ऋषियां की सेवा करी, जब किते सुरत देखी तेरी, आज मेरै लाल मरण का बहम, सहम घीटी सी घुटगी रे ।।1।। सुण बेटा रोहताश रे, तेरी मां रोवै तेरे पास रे, ना खबर लविया और, डोर हाथां तै छूटगी रे ।।2।। उघड़े कौण जन्म के पाप रे, मनै ताने दे तेरा बाप रे, धरै बेटा खाणी नाम, राम चौड़े में लुटगी रे ।।3।। मानसिंह कहै सुण पूत रे, मैं रेशम रही ना सूत रे, आज मूंज समझकै निरी, जरी धोखे में कुटगी रे ।।4।। अब बाग का माली मदनावत से क्या कहता है- चल्या माली रै, बोल सुणकै, रोवै सै म्हारे बाग मै कोण खड़ी ।। टेक ।। बागां में बहोत घणां सामान, कदे कुछ होज्या नुकसान, काची घिया बेल नादान, फल-पत्ते डाली रै, टोहलूगां सब गिणकै, जै कोए पागी मनै झड़ी ।।1।। के तेरे कर्मा के फांसे ढलगे, दीखै सब लाड रेत में रलगे, के थारे घरके भी टलगे, जिसनै तूं पाली रै, औड करी जणकै, के दुश्मन नै तेरी चीज हड़ी ।।2।। भूलकै के आगी घर डेरे नै, तेरा रोणा सुणकै होगा दुख जी मेरे नै, के निरभाग पति तेरे नै, बकदी गाल रै, रोई सिर धुणकै, के सास-सुसर तेरी नणंद लड़ी ।।3।। गुरू मानसिंह छन्द नै गाकै, लख्मीचन्द चलै शीश झुकाकै, न्यूं बुझण लग्या धोरै आकै, रोवण आळी रै, बतादे क्यूं खड़ी ठणकै, तनै रोवती नै होली पूरी चार घड़ी ।।4।। मदनावत की रोने की आवाज सुनकर बाग का माली आगे क्या कहता है- दुखयारी का रौला सुणकै, चल्या बाग का माली, ठाडे रुक्के मारण लाग्या, कौण सै रोवण आळी ।। टेक ।। कई बै कहली कोए डरै ना, रोवण आळी बाहर मरै ना, कदे धिकताणें तै तोड़ गेरै ना, फल-पत्ते और डाली ।।1।। कई बै कहैली कहता हारूं, के कुछ करणा ब्योत विचारू, तड़कै दरवाजे कै ताला मारूं, धोरै राखूं ताली ।।2।। पाणी ल्यूं सूं भाड़ा करकै, कोए भी ना डरता माड़ा करकै, नाहण आले नै खाड़ा करकै, गन्दी करदी नाली ।।3।। लख्मीचन्द छन्द पास करदे, कदे बिन समझें विश्वास करदे, कदे हरी प्यौद का नाश करदे, बड़े कष्ट तै पाली ।।4।। माली की बात सुनकर रानी क्या कहती है- मैं के उजाड़ूं तेरे बाग नै, मेरे चमन का चोर, माली तेरे बागां मै पाया ।। टेक ।। मै बेटा कहती हारूं, कित धरती मै टक्कर मारूं, खड़ी मै पुकारूं तेरी जाग नै, गई छूट हाथ तै डोर, मनै कदे सुत्या भी ना ठाया ।।1।। सुण नौ लखे बागां आळे, आज होये तेरे बागां मै चाळे, मेरा पूत डसा काले नाग नै, यो लाम्बी नाड़ का मोर, मरया पड़या फटका भी ना खाया ।।2।। लावै क्यूं अणदोषी कै दोष, मेरा जी जा लिया सौ-सौ कोस, मनै होश नही सै निर्भाग नै, मेरा कुछ ना चाल्या जोर, मेरी सब लुटगी धन माया ।।3।। कहै लख्मीचन्द बणैगी अब कैसे, रानी रूधन करण लगी ऐसे, जैसे अंडा ठा लिया काग नै, कोयल करती शोर, बणैगी जो ईश्वर नै चाहया ।।4।। माली ने रानी को समझाने की बहुत कौशिश की परन्तु माली की बातों से रानी के मन पर तिल भर भी फर्क नहीं पड़ा। वह बेटे के वियोग में विलाप करती रही और अब रोकर माली से क्या कहती है- अरे! मुश्किल हो सै माली, झिलणी बेटे आळी चोट, बाकी ना सै मेरे गात मै रे! ।।टेक।। या गऊ गारया के बीच धंसै सै, यो विषयर आऐ-गयां नै डसै सै, या सुख तै कांशी शहर बसै सै, मै मारी बिन खोट, या कौड़ बणी मेरे साथ मै रे! ।।1।। बैठगी सिर तलै लाकै गोडा, पूत तनै लिया मरण का ओडा, तनै यो बोलणा भी छोडा, कित मरज्यां गल नै घोट, रोया करूंगी दिन-रात मैं रे! ।।2।। कित दोना कित फूल बखेरे, चांद तनै धरती मै ला लिऐ डेरे, तेरे पिता के बिछड़े पाछै, थी तेरी पर्वत जितनी ओट, सुणै तै कहूंगी दो बात मैं रे! ।।3।। लख्मीचन्द होया किसा खाड़ा, पूत मनै भाग लिखा लिया माड़ा, तनै मेरा पेट क्यूँ ना पाड़या, चाल्या नौ महीने तक लोट, योहे धन सै बीर की जात मैं रे! ।।4।। माली आगे क्या कहता है- बहरे तबील तबीयत मानै तेरी, सुन एक अर्ज मेरी, बस रो ली भतेरी, अब दिल को थमा तूं सब कर सब्र, ये दुख सब से जबर, मुझको ना थी खबर, है मुर्दे की मां तूं ।।टेक।। अरी! रोवै कब की खड़ी, नैना जल की झड़ी, या खालिस मिट्टी पड़ी, इसको जल्दी संगवा तूं, तेरा कौण है पति, जिसकी नार सती, करदे सुत की गति, ऐसे जुक्ति बना तूं ।।1।। अरी फिरै कब की भरमती, इन बागां में भगती, जै नही रोने से थमती, मेरे बागों से जा तूं, बेशक दुख है तेरै, मगर तू मत मरै, गम के नाले भरै, तन की सोधी में आ तूं ।।2।। जरा डट-डट डटकै, दुख घट-घट घटकै, हरी रट-रट रटकै, जरा ले सोधी सम्भाला तूं, यह दुख ईश्वर का भेजा, नही जाता अंगेजा, गडया काल का नेजा, भाले गम के खा तूं ।।3।। लख्मीचन्द नहीं आज्ञा को टालै थी, पुत्र को संभालै थी, कभी उसको पालै थी, दुधी पिला तू, चुपकी हो, मत रो, तेरा रोना गलत, सत बोले गत, इस मन्त्र को गा तू ।।4।। माली क्या समझाता है- तामस अहंकार की काया, तृष्णा के बीच घिरी, कहै किसनै बेटा, खाली या लाश धरी ।।टेक।। सतगुण विष्णु पद से मिलग्या, तामश शंकर में, रजोगुण ब्रह्रा लोक से मिलग्या, तीनो अप-अपणे घर मैं, मै न्यूं बूझूं क्यूं मरी फिकर मै, कुणसी थी चीज तरी ।।1।। पंचभूत का मेल था, बण एक रूप टलग्या, पृथ्वी अग्नि आकाश वायु जल, सूर्य स्वरूप खिलग्या, प्राण सोंह अक्षर से मिलग्या, आवागमन फिरी ।।2।। जीव आत्मा तन से न्यारा, नियम होए से पटता, ना गलै नीर मै ना जलै अग्न मै, ना शस्त्र से कटता, ना डाटे तैं भी डटता बतादे, कौणसी के चीज मरी ।।3।। बावन बत्तीस का मेला था, रह खोए तै खोवा खस्ता, जब यो मेला चल्या बिछड़कै, होया दो धेले म्य सस्ता, लख्मीचन्द किस भूल मैं बसता, होले झगड़े तै बरी ।।4।। माली आगे फिर से समझाता है- माली के नै बांधी थी ठाड, रानी नै दिल डाट लिया ।।टेक।। ब्राह्मण के ना सच्चे बोल जरे थे, बड़े दारूण-दुख भरे थे, करे थे मनै अवधपूरी में लाड, कांशी म्य न्यारा पाट लिया ।।1।। राम नै बेल जहर की बोणी, या न्यूये दीखैं जिन्दगी खोणी, होणी नै दिए थे घर तै काढ, बालम का कर्जा बांट लिया ।।2।। चलै थे कदे छत्र की छाया म्य, गर-गाप रहैं थे धन माया म्य, काया म्य चढया जहर करकै गाढ़, मर पड़ कै घाट लिया ।।3।। लख्मीचन्द नै छन्द धरया सै, तेरे कारण बड़ा दुख भरया सै, इब खाली पड़या सै रे! बाढ, हरया खेत था जो काट लिया ।।4।। अब रानी मदनावत माली से क्या कहती है- बोई काट लई रे! माली, धरती पाट लई रे! माली, किसनै डाट लई रे! माली, मोह की झाल बता ।।टेक।। मनुष्य का ना जोर कर्म कै आगै, चोट नै वो जाणै जिसकै लागै, शरीर मै क्या जागै और क्या सोता है, क्या मरता और क्या होता है, क्या हंसता और क्या रोता है, करकै ख्याल बता ।।1।। मेरे जिसी ना और कोए निर्भाग, जगत मै बूरी पेट की आग, वो नाग जला मनै क्यो ना खाता, छूटा दिया बेटे का नाता, वा के फेर जिवती माता, जिसका मरज्या लाल बता ।।2।। मेरे जिसी ना दुखिया और, मेरी रेते मै रलगी बोर, दे कै जोर काल लूटै सै, मुश्किल तै ममता छूटै सै, खाली लाण का के उठै सै, जब झड़ज्यां बाल बता ।।3।। लख्मीचन्द मै रोऊं चित नै भें कै, बैठ गई बेटे का गम खे कै, ले कै जन्म जीव दुख मै फहरया सै, बिना पते की तूं कहरया सै, बिना दोष कोण रहरया सै, वो माणस चाल बता ।।4।। रानी की बात सुनकर माली फिर समझाने लगा और क्या कहने लगा- री! मत रोवै दुखिया, इब लाल कड़ै तै आवै ।।टेक।। व्योम के मै शब्द स्त्रोत, वायु के मै स्पर्श प्राण, आदित्य मै रूप चक्षु, तेज को अग्नि म्य जाण, शब्द स्पर्श रूप और, पृथ्वी मै गन्ध रसमान, अन्त:करण की चार वृतियां, तत्व में लोलीन होगी, त्रिगुण माया जड़ प्रकृति, शक्ति मै प्रवीन होगी, चेतन बिना शरीर जाण, इन्द्री तेरा तीन होगी, छोड़ चले गए हंस ताल नै, इब मोती कौण उठावै ।।1।। चक्षु श्रोत्र ग्रहण मुख, जहां गवन देव प्राण भरता, नाभि मै समान वायु, उपस्तक मैं अपान फिरता, लाखों नाड़ी बहतर कोठे, सबके अन्दर ध्यान फिरता, रज रक्त मांस मेजज, अस्ती बीच उदम धारे, पांच प्राण पांच तत्व सुक्ष्म, भूत न्यारे-न्यारे, अंहकार मन चित बुध्दि, जीव अज्ञान सारे, पांच-पच्चीस बीच मै मिलाकै, यो चेतन जगत रचावै ।।2।। प्रकृति से परे ईश्वर, सृष्टी का विस्तार करै, तीन मुर्ति धारण करकै, पालन पोषण सहांर करै, बीतज्यां दिन कल्प पूरा, एक मकड़ी बीच संसार करै, मनुष्य मूर्ति प्रवाण प्रतीष्ठ, आत्मा का नाश कौण, जन्म मरण विधि से न्यारा, ईश्वर सुख त्रास कौण, निश्चित कमोद सुक्ष्म, चक्षु का प्रकाश कौण, कौण घातक और कौण मारदे, तूं किसनै मरया बतावैं ।।3।। एक वृक्ष नाना पक्षी सब रहते, सायावान करकै, चूं देशी प्रभात उड़गे, रात भर गुजारन करकै, वृक्ष वट संसार जाण, देख निश्चय ध्यान करकै, अग्नि मै ना जलता-गलता, आकृति मै मिटता नही, रहै तरूण आपत्ति मै, शस्त्र द्वारा कटता नही, तीन काल चेतन रहैं, विकार विधि से घटता नही, कोए इसा खोजी पार्थी सिद्द नही, जो ढूंड कंवर नै ल्यावै ।।4।। दिखती ना बुर्जी फुट्टी, किले मै नुकशान होग्या, डाकू चोर आए कोन्या, माल बे-अनुमान खोग्या, पलटण फौज भाज लिकड़ी, पड़कै डयोडीवान सोग्या, नगरी से पुरजंन चाल्यां, शत्रुओं का शोर सुणकै, धजा पताके काट दिये, कौण दिखादे और चणकै, कजा रूपी काल खाग्या, पाड़ लाग्या चोर बणकै, संसार बाग और ईश्वर माली, कदे काटै कदे लगावै ।।5।। अनहद के कपाट खुले, अनल हक को पहचान लिया, सच्ची नगरी जा बसाई, झूठा छोड़ जिहान दिया, निर्मल धारा ॐ श्री हरी, ॐ पवित्र ध्यान किया, खेलता ना बच्चों अन्दर, नही सुसर घर खास गया, ना मखतब मै देरी करी, ना मन्दिर के पास गया, पहूंच गया मंजिल निराली, रस्ता कर तलाश गया, लख्मीचन्द यो उड़ै पहूंचग्या, ना फेर बाहवड़ कै आवै ।।6।। अब मदनावत क्या कहती है- ठाली गोदी मै लाश ठाढ करकै, मदनावत नै दिल डाट लिया ।।टेक।। कदे गरगाप रहै थे माया मै, चलैं थे छत्र की छाया मै, चढ़या जहर काया मै काढ करकै, तेरा नर्म कालजा चाट लिया ।।1।। इसा होया मोटा चाला था, लाल मेरी जिन्दगी का गाला था, मनै पाल्या था पूत लाड करकै, कांशी मै न्यारा पाट लिया ।।2।। दुख रोऊ किसकै रूब-रूब, रही सूं अधम बिचाले डूब, मनै धर्म की खूब आड करकै, साजन का कर्जा बांट लिया ।।3।। तेरे पै बिजली पड़ियो नाग, फोड़ दिए मुझ दुखियां के भाग, छोड चली नौलखां बाग, फिर मरपड़कै मुश्किल घाट लिया ।।4।। यो छन्द लख्मीचन्द नै टेरा, मेरे सतगुरू दियो मेट अन्धेरा, मेरा सुन्ना गेरा बाढ करकै, जो हरया खेत था काट लिया ।।5।। माली रानी को फिर क्या कहता है- माटी के म्हा माटी मिलगी, मिलगी पवन-पवन के म्हा, किसकी रहै रूखाली माली, कोन्या फूल चमन के म्हा ।।टेक।। एक दीपक मै तै लिकड़ रोशनी, धुआंधार तेल जलग्या, इन पांचा मैं तै एक लिकड़ कै, बेरा ना कित रलग्या, अन्धेरे मैं हुआ अन्धेरा, चान्दण मै चान्दण खिलग्या, वायु में वायु मिलगी, और पाणी मै पाणी मिलग्या, जैसे जीव से ब्रह्म, ब्रह्म से माया, न्यारी रहै गवन के म्हा ।।1।। जहां रवि शशी ना पक्षपात, रजरक्त मज्जा मद मै मिलग्या, एक अंश मात्र सा स्वरूप बणा, छोटे से कद मै मिलग्या, जहां द्वितिया नाश ब्रह्मा की शक्ति, उस घर की हद मै मिलग्या, सुक्ष्म सा अस्थूल छोड़ कै, परम पदी पद मै मिलग्या, ना गलै नीर मै ना कटे शस्त्र से, जलता नही अग्न के म्हा ।।2।। कहे सुणे की ना मानै, तेरी आपै ब्याधा मिटज्यागी, जिब सड़ उठैगी लाश कंवर की, तू आपै उल्टी हटज्यागी, एक बार छोड़कै चाल पड़ी, तेरी न्यूं के जिन्दगी कटज्यागी, जगत सराहना करै तेरी, तूं दुनिया के म्हा छटज्यागी, एक तुलसी की माला ले, कर भक्ति भजन भवन के म्हा ।।3।। बाग का माली न्यूं कहरया सै, सुणती हो तै बोल बहू, जिन्है टोहवै वो ना पावै, चाहे कितनीएं ल्हास टटोल बहूं, बणी-बणी के सब साथी, और ना बिगड़ी का मोल बहूं, तू चित्त करकै माटी संगवाले, मत हो डामांडोल बहूं, कहै लख्मीचन्द बण दासी भगवन की, फेर रहैगा जगत नवन के म्हा ।।4।। आगे रानी क्या कहती है- के मेरा बेटा मरण जोग था, उमर चौथाई ना आधी, दुखयारी के पुत मरे की, किसे कै गमी ना श्यादी ।।टेक।। कुछ दिन भी ना हुए मनै, घर ब्राह्मण कै ठहरी नै, बेटा डस लिया मेरा विषियर नै, जुल्म करे बैरी नै, लड़तै-ऐ फटका भी ना खाया, डस्या इसे जहरी नै, मै दुखियां के खेण लायक थी, इसी चोट गहरी नै, सारी कांशी सुख तै बसती, मैं टूक टेर सतादी ।।1।। इस सोधी मै बुरी करी ना, कुणसी करणी दहगी, कुण खींचकै काढण लाग्या, ज्यान फन्द मै फहगी, रोती जा संगवाती जा, मेरी बुर्ज किले की ढहगी, हम घर तै आए तीन प्रानी, मै एक उतणी रहगी, आज अवधपूरी तै सूर्यवंशी की, तनैं बिल्कुल कुढी ठादी ।।2।। नियम धर्म पुन्न-दान की खात्तर, कदे ना हाथ सिकोड़ा, गऊ ब्राह्मण साधू की सेवा तैं, कदे ना मुखड़ा मोड़ा, लाकड़ी और आरणे-गोस्से, तिनका-तिनका जोड़ा, इसे बख्त पै मरया पूत, तनै कफन का भी तोड़ा, तूं तै स्वर्ग सिधार चल्या, तनै छोड बिलकती मां दी ।।3।। छल्हा बलै था आग दियाई, दस पंदरा ढंग भरकै, शमसाणां मै चिता बणादीं, इन्धन कठ्ठा करकै, उपर-नीचै लाकड़ी-गोस्से, लाश बिचालै धरकै, लख्मीचन्द रानी न्यूं बोली, यो दर्द मिटैगा मरकै, करकै सबर बैठगी जड़ मै, आग चिता मै ला दी ।।4।। अब रानी मदनावत माली के कहने से कुछ दिल मे धीरज धरती है तथा केले के पत्ते तोड़कर अपने पुत्र की लाश को उन केले के पत्तों मे लपेटकर शमशान भूमि की तरफ चलती है। चलती-चलती रानी मदनावत क्या कहती है- केला तोड़कै अर्थी तुरत बणाली, रानी ठा बेटे की लाश रोवती चाली ।। टेक ।। मेरे बेटा रे! आज सारा-ऐ लाड बिखरग्या, तेरे मरणे का दुख मेरे गात नै चरग्या, रोया भी ना जाता दुख मै हिरदा भरग्या, मेरा के जीवै मनै जन्म ऊतणी करग्या, गई सूख बेल जड़ तै खोद चकलाली ।।1।। मेरी माया सब छूटग्या आनंद राज का, मै क्यूकर भूलूंगी यो दर्द आज का, के कांशी म्य तोड़ा होया तेरे नाज का, मेरा तीतर भख लिया, धर काल नै रूप बाज का, रोहताश कंवर की श्यान कालजै लाली ।।2।। म्हारा राज छूटग्या दुनियां म्य धूम माचली, मै कांशी म्य बेवारिस एक जांचली, मुझ दुखिया की किसनै तकदीर बांचली, रो पड़ी बात जब आगी याद पाछली, मेरे बेटा रे मैं तेरे फिकर नै खाली ।।3।। लख्मीचन्द इब तक थे बड़े भरोसे, म्हारे आनंद के दिन परमेश्वर नै खोसे, मात-पिता के तनै कालजे मौसे, कितै ल्याऊंगी फूकण नै लाकड़ी गोस्से, दई लाश टेक, रानी मुर्दघाट पै आळी ।।4।। अब रानी ने चिता में आग लगाई तो राजा ने धुंआ सा देखा और क्या हुआ- पहलम चोट नदी मै न्हा लिया, छिड़का करकै फूंस बिछा लिया, हरिशचन्द्र नै आसण ला लिया, हर के ध्यान मै ।।टेक।। क्रिया योग कपाली खींचै, माणस ना कोए आगै-पीछै, नीचै बिछी रहै थी मृगछाला, हाथां मै रूद्राक्ष की माला, कान्धे पै पड़या रहै था दुशाला, घरू मकान मै ।।1।। मन्दिर समझ लिए शमशान, जड़ै हरी भजन करण की रिठाण, कौण डाण जिन्है आग जगाई, धुआं सा चढता दिया दिखाई, एक मुर्दे की जड़ मै खड़ी लुगाई, दूर मैदान मै ।।2।। चल पड़या तेग लई हाथां म्य, फर्क आग्या किसके गातां म्य, इन बातां म्य कटै ना करदा, किस बेहूदे नै हार दी श्रध्दा, बिना मसूल फूक दिया मुर्दा, फर्क इमान में ।।3।। गुरू मानसिंह का ढंग निराला, लख्मीचन्द जमूरा पाला, लेकै चाल्या तेग दुधारी, नही पिछाणी प्राणों की प्यारी, जा छत्री नै ठोकर मारी, सुत की श्यान मै ।।4।। रानी मदनावत ने राजा हरिशचन्द्र को पहचान लिया और वह हाथ जोड़कर क्या कहने लगी- साजन हो तनै नही पिछाणी, तेरे चिता बलै रोहताश की ।।टेक।। पता ना कित किस्मत पड़कै सोगी, हौंणी सब तरिया तै होगी, मनै मुश्किल होगी यहां तक ल्याणी, तेरै बान्ध गाठड़ी नाश की !!1! मै निरभाग कर्म हेठे की, तनै तै दया करी ना जेठे की, तनै बेटे की चहिये थी क्रिया करानी, लेकै थोथी बाही बांस की ।।2।। कदे बोलै था कहकै हूर, तेरी पतिभर्ता मै ना जरूर, तनै चाहिये ना थी दूर बगाणी, करी रेह-रेह माटी लाश की ।।3।। लख्मीचन्द भाग लिऐ फुट, राम नै दिन धौली लई लूट, छोड़या ना घूंट भरण नै पाणी, तेरे शरबत भरे गिलास की ।।4।। अब राजा हरिशचन्द्र रानी मदनावत को क्या कहते है- रोवणं की तै तेरै भूल सै, मरघट का मशूल सै, बेहूदी-मुधी-सूधी क्यों लाश कररी सै ।।टेक।। कित तै ठा लाई मुरदार नै, परै लेज्या अपणी बेगार नै, बे श्रध्दा-करदा-मुर्दा, क्यों पास धररी सै ।।1।। ल्या सवा रूपया धर उरै, मरणां सै तै कितै मर परै, तेरै किसकी-जिसकी-विष की चास फिररी सै ।।2।। सवा रूपये नै नाटगी, मुझ नौकर का गल काटगी, किसे टूटे-फूटे-झूठे क्यूं, सांस भररी सै ।।3।। लख्मीचन्द रंग चेत का, मै सूं रूखाला इस खेत का, क्यूं ना डरती-फिरती-चरती, या घास घिररी सै ।।4।। राजा रानी को देख कर पहचान लेता है और क्या कहता है- क्यूं भरमावै सै डाण, बोलण लगी बोल रसीला ।।टेक।। कितके मुर्दे फूक कै जागी, आड़ै एक आधी गाली खागी, कड़ै तै इसी कलिहारी आगी, मेरा करण माजणा ढीला ।।1।। कदे छत्री पूरे मण(पर्ण)का था, मेरे कुछ ना घाटा धन का था, लाल मेरा सुन्दर बदन का था, यो निर्भाग गात का लीला ।।2।। बात नै कोन्या ऊकण दूंगा, ना मौके नै चूकण दूंगा, लाश कती ना फूकण दूंगा, मै छत्री सूं बड़ा हठीला ।।3।। लख्मीचन्द गुरू जी की बाणी, रहै ना बल-विद्या मै हाणी, परे नै हटज्या बेटा खाणी, मेरा कर बैठी ऊंट-मटीला ।।4।। अब राजा हरिशचन्द्र आगे क्या कहता है- आप घाट की मालिक बणगी, तू अपणा जबर वसीला करकै, बेईमान भलोवण लागी, मीठा बोल रसीला करकै ।। टेक ।। किसनै मारी तरले माट पै, चढकै चलणा कर्म बाट पै, लाश नै लेकै आगी घाट पै, गोरे गात नै लीला करकै ।।1।। कित विषयर नै डंक चुभो दिया, मेरा रेत मै लाल लहको दिया, मैं होणी नै सब तरियां खो दिया, इज्जत बन्द नुकीला करकै ।।2।। कित घूँघट में दुबकण लागी, चोट कालजै खुबकण लागी, क्यूँ शमसाणां में सुबकण लागी, तरले होठ नै ढीला करकै ।।3।। सीखले गुरू मानसिंह तै बाणी, कदे ना हो बल-विद्या की हाणी, परे नै मरज्या बेटा खाणी, बैठगी ऊंट-मटीला करकै ।।4।। अब रानी राजा से क्या प्रार्थना करती है- व्याकुल सै मेरा गात पति जी, मैं जोडू़ं दो हाथ पति जी, तेरी बणरी सै बात पति जी, मेरी समय बिगड़ी हो ।।टेक।। मै कद की रोऊं आंख्यां नै मीच, बुरी हो सै आपस की खींच, के लिखी बीच कर्म हेठे कै, दया नहीं दिल के ढेठे कै, तेरे रोहताश कंवर बेटे कै, नागण लड़गी हो ।।1।। माचग्या दिन धौली विध्वंस, आज बन्द होया चालणा वंश, हंस-हंसणी कागाँ के मै, जाणै के लिखदी भागां के मै, इन काशी के बागां कै मै, आज पुटगी पड़गी हो ।।2।। बान्ध कै राम नाम का परण, आज ऋषि-मुनियों के पूजकै चरण, वर्ण देवता की सेवा करी थी, बेटे कारण विपत भरी थी, तेरी खेती मै जो खूद हरी थी, आज कती उजड़गी हो ।।3।। गुरू मानसिंह करै भजन हमेशां, लख्मीचन्द मन जा प्रदेशां, बेश्या कै मै गई तकी थी, बर्दां कै मै गई लिखी थी, वाहे सूं जो तेरी गैल बिकी थी, ईब तेरी गरज लिकड़गी हो ।।4।। रानी राजा को एक बार फिर क्या कहती है- साजन हो क्यों बोलै, अपणी ब्याही नै धमकाकै, पिसा मोहर बराबर होगा, इस कांशी मै आकै ।।टेक।। फोड़ूं कडै़ भाग खोटे नै, मै दुखी करदी दुख मोटे नै, इस निर्भाग जले टोटे नै, कड़ै बिका दिये लाकै ।।1।। कदे मदनावत राज करै थी, इसे टोटे की नही जरै थी, लक्ष्मी पायां लागी फिरै थी, धरी ना हाथ तै ठाकै ।।2।। मैं बेटे का फिकर करूं सूं, साजन लेले दया मरूं सूं, आज कंगल्या की ढाल फिरूं सूं, शमशाणां के म्हा कै ।।3।। लख्मीचन्द तदबीर यो सै, मसूल में ले तै चीर यो सै, पूंजी मेरी आखिर यो सै, दे दिए काले नै जाकै ।।4।। राजा रानी को एक बार फिर क्या कहती है- रानी मेरै भी उठैं झाल, बेटा याद भतेरा आवै सै ।।टेक।। अरै छूटग्या तीर साधणा, गया सिर का सेंला बान्धणा, चान्दणा था ह्रदय में काल, आज चौगरदै अन्धेरा छावै सै ।।1।। रानी मेरा बदलग्या ख्याल, मेरै भी मोह-ममता का जाल, अरै रानी इसे-इसे लाल, के रूखां कै लटके पावै सै ।।2।। दुख नै धुम्मा खूब घुटा दिया, मेरा सब धर्म-कर्म छूटा दिया, मनै लूटा दिया धन माल, गया हुआ बखत फेर के थ्यावै सै ।।3।। लख्मीचन्द देखले सब की उठ, खागे खेत खड़े रहगे ठूंठ, फूट कै इबके लिकड़ैगी बाल, फिर क्यूकर खेत लहरावै सै ।।4।। राजा हरिशचन्द्र रानी के चीर को लेकर कालिये के पास जाता है और आगे क्या होता है- बेटे आळा किला टूटग्या, टूटी पड़ी किवाड़ी रहगी, चीर नै लेकै चल दिया राजा, रानी नग्न उगाड़ी रहगी ।।टेक।। रोवण नै होग्या बुम्ब फूटकै, फिकर नै खालिया गात चूंटकै, आवण लाग्या सांस टूंट कै, उसी-ऐ चालती नाड़ी रहगी ।।1।। रानी धौरे तै चलती बरियां, ढह पड़या होता संभलती बरियां, लिकड़ियो बेशक जलती बरियां, पेड़ मै गडी कुहाड़ी रहगी ।।2।। होणी सब तरियां तै खोगी, मेरे मार्ग मैं काटें बोगी, मेरे लेखै जगपरलो होगी, जै सांप की बात बिगाड़ी रहगी ।।3।। लख्मीचन्द दुख गया मान मै, कदे पड़ज्या फर्क श्यान मै, झाल डाटली ज्ञान ध्यान मै, बन्द की बन्द जबाड़ी रहगी ।।4।। चीर हाथ में लिऐ हुए राजा हरिशचन्द्र कालिये को क्या कहता है- लिये थाम हाथ में काले, अपणे मरघट का मशूल ।।टेक।। महल एक चणकै त्यार करया था, लाग्या धन-द्रव खरया था, एक आळे मै लाल धरया था, रहगे भिड़े-भिड़ाये ताले, लाल तै ब्याज सटया ना मूल ।।1।। मुझ बन्दे का पौच भाग था, इस देही कै लगणा दाग था, मेरे हाथां का लाया बाग था, पर विधना नै काट दिये डाले, गया सूख हजारी फूल ।।2।। कदे तूं रोवै ना सिर धूण रै, पाछै पछतावै पढ-गुण रै, ध्यान कर गुण-अवगुण चुन रै, अर्ज मेरी सुन रै रड़के आले, आबरो की मतन्या करिये धूल ।।3।। खड़या क्यूं होगा दूर परै, चीर के लिऐ बिना ना सरै, मतन्या नीत बदी पै धरै, मानसिंह करै छन्द के चाले, माफ कर लख्मीचन्द की भूल ।।4।। आगे राजा कालिये से कहता है- के बूझै सै काले, तेरे मरघट का टोटा भरग्या रै ।।टेक।। ऊह्का रक्षक दाता बेली, उसकै धौरे ना पिसा-धेली, एक रोवै थी नार अकेली, लड़का बेवारस का मरग्या रै ।।1।। जाणै के लिख दी मेरे भाग म्य, या देह आणी दिखै दाग म्य, डाकू बड़ग्या भरे बाग म्य, मेरी बढती कली कतरग्या रै ।।2।। छत्री सत ऊपर जूझै सै, घटग्या त्यौर न्यू कम सूझै सै, जै काले सत बूझै सै, मेरा बेटा रोहताश गुजरग्या रै ।।3।। लख्मीचन्द छन्द इसे जड़ियों, कोए मत म्हारे की ढाल बिगड़ियों, रै! नाग तेरे फण पै बिजली पड़ियो, मेरे कुणबे का पाछा करग्या रै ।।4।। अब कालिये के पास से चीर को लेकर हरिश्चंद्र वापिस चल देता है और क्या कहता है- ले लिया सिर का चीर, छत्री हो लिया राही-राही ।।टेक।। आज मेरी होगी बात कसूत, यो कूढ़ा जाता दीखै ऊत, जिनके मरै सै गाबरू पूत, जीवै के वै मर्द-लुगाई ।।1।। आज मेरै ढलग्या नीर नैन का, छूटग्या बख्त मेरे चैन का, बेटा रोहताश था कहण का, ऊँ-तै बराबर के-सा भाई ।।2।। मेरा मिटता ना दर्द जिगर का, घणां मारया मरग्या इस डर का, पता कोन्या मालिक के घर का, दी जाणैं कै दिन की करड़ाई ।।3।। लख्मीचन्द बण गुरू का दास, कर ईश्वर का भजन तलाश, जाकै देख्या था रोहताश, कवर की लाश कै पास गोरी धन बैठी पाई ।।4।। अब राजा चीर को वापिस लेकर शमशान घाट पर पहूंच जाता है और रानी को क्या कहता है- सवा रूपया नगद लिया करै, डयोढा और सवाया कर लिया, चीर नै लेकै गात नै ढकले, कर मरघट का आया कर लिया ।।टेक।। राम जी लग्या मरत्या नै मारण, ये कैसा दुख पड़या सै दारूण, मनै सह लई चोट धर्म के कारण, बेचकै गात पराया कर लिया ।।1।। यो लगणां था दाग खोड़कै, उड़े तै मै उल्टा आया बोहड़कै, कालिया बोल्या हाथ जोड़कै, मनै खाता खत्म खताया कर लिया ।।2।। कर्मा की नही टलै सै, लागी चोट मेरै नही झिलै सै, रानी इसा बेटा कड़ै मिलै सै, बिकण नै गैल उम्हाया कर लिया ।।3।। कहै लख्मीचन्द धोरै आया नंगी कै, यो दुख लागै सतसंगी कै, तूं ब्राह्मण कै मै भंगी कै, कुटम्ब था एक दुसाया कर लिया ।।4।। जब कालिये के पास से राजा हरिशचन्द्र चीर वापिस रानी को देता है तो रानी क्या कहती है- यो सै कफन मेरे बेटे का साजन, मेरा ओढण का मुहं ना सै हो ।।टेक।। मौका विष प्याला पीवण का, ना कोए दर्द जख्म सीवण का, हो मेरे साजन जीवण का, रास्ता भाईयां की सूं ना सै हो ।।1।। पेट पापी नै पाड़ गिरूंगी, बेटे बिन के जतन करूंगी, मै भी बेटे की गेल मरूंगी, और मेरी क्याहें मै रूहं ना सै हो ।।2।। मनै तन पै दुख खे लिया, रो कै आंसुओं से मुहं भे लिया, जिब तनै बेटे पै भी कर ले लिया, बस मेरे मतबल का तूं ना सै हो ।।3।। लख्मीचन्द रपोट लाग री, दुख-विपता की गल घोट लाग री, मेरै बेटे की चोट लागरी, मेरे जीवण की न्यूं ना सै हो ।।4।। आगे राजा क्या कहता है- रानी ठा बेटे की लाश, नदी मै गेर दे रै ।।टेक।। रानी रहिए पक्के ढेठ म्य, सब्र का मुक्का ले मार पेट म्य, अरै काले विषियर की भेंट म्य, बैठी शेर दे रै ।।1।। तेरे तै एक जन्म्या जेठा था, यू बड़े कर्मा का हेठा था, जिसा रोहताश तेरा बेटा था, तनै ईश्वर फेर दे रै ।।2।। आज तेरा होया माजणा हलका,तू सब काम छोड़दे छल का, अरै मदनावत कपटी दिल का, मेट अन्धेर दे रै ।।3।। मानसिंह भोगै ऐश आन्नद, गुरू जी काटों विपत के फन्द, कहै लख्मीचन्द, कवंर की छोड़ रानी मेर दे रै ।।4।। अब राजा कालिये के हुक्म से अपनी तलवार ले, रानी को मारने के लिऐ चल देता है तो क्या होता है- बण कै आज्ञाकारी चाल्या, नंगी सूत कटारी चाल्या, हरिशचन्द्र छत्रधारी चाल्या, मारूंगा उस डाण नै ।।टेक।। देखै कांशी बाहर खड़ी सै, भवन मै हौंणी आण बड़ी सै, एक डाण पड़ी सै पली पलाई, न्यूं कहरे सब लोग लुगाई, माणस एक रोज का भाई, भला किततै आवै खाण नै ।।1।। भेद पटग्या कांशी सारी नै, कूण खोवै इज्जत म्हारी नै, कलिहारी नै क्रोध जगा दिया, क्यूकर इतना बोझ उठा लिया, साहूकार का बेटा खा लिया, जुल्म करा अन्याण नै ।।2।। सरै नही ठीक फर्ज तारे बिन, नौकर बणकै काज सारे बिन, मारे बिन के तान बजै सै, छत्रानी का दूध लजै सै, बूरा आदमी नही तजै सै, बुरे कर्म की बाण नै ।।3।। इसके मरण मै ना कुछ अन्तर, इब ना चालै जादू-जन्त्र, लख्मीचन्द गुरू मंत्र पढग्या, गुरू का बोल जिगर मै गडग्या, जा छाती कै ऊपर चढग्या, जगह बता कित जाण नै ।।4।। राजा हरिशचन्द्र ने रानी के केश पकड़ लिये और क्या कहने लगा- कलिहारी, तनै लड़का खा लिया सेठ का, तलवार मारूंगा ।।टेक।। क्यूकर कर इतना बोझ उठा लिया, लड़का साहूकार का खा लिया, रै हत्यारी, काम करया बड़ा ढेठ का, तलवार मारूंगा ।।1।। सिर काटूंगा क्रोध जागरया, हाथ-पां मुहं कै खुन लागरया, के खारी, तनै कुआँ बणा लिया पेट का, तलवार मारूंगा ।।2।। तनै घर कुणबे की आज, अपने ब्याहे वर की लाज, खोई सारी, तनै भय ना देवर-जेठ का, तलवार मारूंगा ।।3।। खा कै सोई नींद आनंद की, रंगत ब्राह्मण लख्मीचन्द की, सै न्यारी, रंग सतगुरू जी की भेट का, तलवार मारूंगा ।।4।। रानी ने हरिशचन्द्र को पहचान लिया और क्या कहने लगी- क्यूं मेरी छाती पै चढरया सै, मनै तेरा बोल पिछाण लिया ।।टेक।। जल पिया ना खाई रोटी, मनै तकदीर लिखा ली खोटी, चाकू चोटी मै गडरया सै, कदे तेरी कटज्यां नरम घिया ।।1।। किसा ढेठ सरहाऊँ ढेठे का, तूं नही पति मेरे पेटे का, मेरै रंज बेटे का बढरया सै, तेरा लरज्या ना हिया ।।2।। कटग्या खेत पड़ी बाढ़ां मै, खून रहया ना मेरे हाडां मै, घणा क्यूं लाडां मै लडरया सै, गूँठा घीटी मै दिया ।।3।। लख्मीचन्द ना करिऐ तंगी, मण्ढी में पड़ी थी उघाड़ी नंगी, पढाया भंगी का पढरया सै, न्यूं करकै इसा काम किया ।।4।। फिर रानी मदनावत क्या कहती है- दूर तै बतला ले सजन, मैं कड़ै भाजकै जां सू ।।टेक।। क्यों तनै गैर की ढांला तकली, तनै गाल हजारां बकली, एक नै ऐ खाकै छिकली, बतादे मै किस के छोरट खां सूं ।।1।। आज मेरी होगी बात कसूत, यो कुढा जाता दीखै ऊत, जिन के मरै गाभरू पूत, दिन-रात सूखती ना आसूं ।।2।। साजन समय आवणी-जाणी, तनै कोन्या बात पिछाणी, तेरी मै मदनावत रानी, पिया जी मैं मानस खाणी ना सूं ।।3।। मानसिंह उंचे दरजे मै, लख्मीचन्द नही हरजे में, सजन तेरे करजे मै, तेरे गैल बिकी थी मै वा सूं ।।4।। राजा रानी से क्या कहता है- के रहै थी पटे बिन जाण, गैर के कोए मुद्दा धरया करै ।।टेक।। वा त्रिया डाण कहावै, जो पहलम अपणा कुटम्ब खपावै, फेर सबनै मरे मनावै अन्याण, नाश औरां का भी करया करै ।।1।। कालिया असल भंगी का तुखम, नौकर राख्या खर्च कै रकम, जिसा कुछ दे-दे हुक्म किसान, करे बिन किस नै सरया करै ।।2।। इस मौके पै डाण हथ्यागी, इब भाग कड़े कै जागी, इब मनै पागी तेरी रिठाण, जडै कै तू लुहकती फिरया करै ।।3।। सत भगती म्य ध्यान डटे बिना, लख्मीचन्द हरी रटे बिना, सुणी सै पिटे-छिते बिना, बेईमान चोर के हां भी भरया करै ।।4।। राजा हरिशचन्द्र रानी मदनावत को मारने के लिऐ तैयार होता है तो रानी क्या बोलती है- जै तेरी डाण निगाह में जचली, मार तेरे मारे बिना मरूं थी के ।।टेक।। बेशक तेग मार मेरे धड़ मै, मोती रहया करै था तेरी लड़ मैं, रहूं थी अवधपूरी में तेरी जड़ मैं, बतादे उड़ै छोरट खाया करूं थी के ।।1।। मेरा दुनियां मै भ्रम फूटरया, तूं तै नौकर बण ऐश लूटरया, देख भूखी का पेट टूटरया, बचाकै लाश धरूं थी के ।।2।। साजन समो आवणी-जाणी, हो तनै कोन्या बात पिछाणी, मनैं तूं कहै था बेटा खाणी, उसनै भी आपै खाऐ फिरूं थी के ।।3।। लख्मीचन्द कहै विपता भारी, गई थी पनघट पै बण पणिहारी, उस दिन डरग्यी ब्राह्मण की मारी, उड़ै मैं अपणा नीर भरूं थी के ।।4।। जब राजा हरिशचन्द्र रानी मदनावत को काटने के लिऐ तैयार होते है तो विष्णु भगवान ने उसकी तेग को पकड़ लिया और साक्षात अपना रूप दिखा कर कहा कि आप दोनो अपने सत पर हो और फिर श्री विष्णु उनको स्वर्ग में चलने के लिए कहते है तो राजा हरिशचन्द्र ने क्या कहा- एक तेरे केसा उत और था, वो मेरा करग्या नाश समार कै ।।टेक।। अपणा गुप्त जख्म सीऊंगा, मैं ठाढे के चरण नीऊंगा जब ठंडा पाणी पीऊंगा, इस माणस खाणी का सिर तार कै ।।1।। क्यूं तू इसके बीच अड़ै सै, मेरे ना पल भर चैन पड़ै सै, इसके मरणे म्य कसर कड़ै सै, जिब या मुण्डै चढी तलवार कै ।।2।। इतणा एहसान मेरे सिर धरदे, दवाई जख्म बिचालै भरदे, सेठ का लड़का जिन्दा करदे, फिर बेशक ले जाईये पुचकार कै ।।3।। लख्मीचन्द हरी गुण गावैंगे, फिर मन इच्छा फल पावैंगे, वैं नर पाछै पछतावैंगे, जो गए सत की बाजी हार कै ।।4।। अब राजा हरिशचन्द्र विष्णु भगवान को क्या कहते है- के दुनियां मै टूक जबर था, मेरे रोहताश कंवर के नाम का ।।टेक।। एक अहसान मेरे पै धरदे, मेरा ज्ञान से ह्रदय भरदे, मेरे लड़के नै जिंदा करदे, जब करूं दर्श स्वर्ग के धाम का ।।1।। मै अधर्म से बहुत डरूं था, सदा दुनियां के कष्ट हरूं था, कदे अवधपुरी मै राज करूं था, आज मेरा दरजा बणया गुलाम का ।।2।। साची कहूं तेरै सब जरज्या, मेरै सिर सै भंगी का कर्जा, जो कर्ज मारकै मरज्या, यो नही काम असल के जाम का ।।3।। मनै सब काम छोड़ दिये गन्दे, जितणे सै उल्फत के धन्दे, कहै लख्मीचन्द सुण मुर्ख बन्दे, यो तन भजन बिन किस काम का ।।4।। हरिशचन्द्र भगवान विष्णु से क्या कहता है- थारी यारी बिना हे! प्रभु, कौण सुख पाया ।। टेक ।। ध्रुव भग्त बालेपण म्य, दर्शन दिऐ कोकला बण म्य, आसण दिया तनै पहूंचा गगन म्य, हर कै आसण तनै दिवाया ।।1।। पिता-पुत्र का बैर भाई, राम नाम पै हूई लड़ाई, नरसिंह बणकै ज्यान बचाई, ताते खम्बे तै प्रहलाद बचाया ।।2।। पार करो दुख के घेरे तैं, इस विपता के अन्धेरे तैं, के कुछ खता बणी मेरे तैं, नीच घर घड़ा तनै ढुआया ।।3।। क्यूकर बैठूं दारूण दुख खेकै, तबियत शान्ति जल म्य भेकै, आज्ञा सतगुरू जी की लेकै, यो छन्द लख्मीचन्द नै गाया ।।4।।

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