किस्सा मछली मछुए का : अलेक्सांद्र पूश्किन

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु)

Kissa Machhli Machhuye Ka : Alexander Pushkin


नीले-नीले सागर तट पर घास-फूस की कुटी बनाकर, तैंतीस वर्षों से उसमें ही बूढ़ा-बुढ़िया रहते थे, बुढ़िया बैठी सूत कातती बूढ़ा जल में जाल बिछाता, एक बार जो जाल बिछाया वह बस काई लेकर आया, बार दूसरी जाल बिछाया वह बस जल-झाड़ी ही लाया, बार तीसरी जाल बिछाया मछली एक फाँसकर लाया, किन्तु नहीं साधारण मछली, ढली हुई सोने में असली । मानव की भाषा में बोली- "बाबा, मुझको जल में छोड़ो बदले में जो चाहो, ले लो, क्या इच्छा, तुम इतना बोलो ।" बूढ़ा चकित हुआ घबराया इतने सालों जाल बिछाया, मछली मानव जैसा बोले नहीं कभी भी वह सुन पाया । छोड़ दिया उसको पानी में और कहा मीठी वाणी में- "भला करे भगवान तुम्हारा तुम नीले सागर में जाओ, नहीं चाहिए मुझको कुछ भी, तुम घर जाओ, चिर सुख पाओ ।" बूढ़ा जब वापस घर आया, बुढ़िया को सब हाल सुनाया- "आज जाल में आई मछली नहीं आम, सोने की असली, हम जैसी भाषा में बोली- 'बाबा, मुझको जल में छोड़ो, बदले में जो चाहो ले लो क्या इच्छा तुम इतना बोलो ।' माँगूँ कुछ, यह हुआ न साहस यों ही छोड़ दिया जल मे, बस ।" बुढ़िया बूढ़े पर झल्लाई उसे करारी डाँट पिलाई- " बिल्कुल बुद्धु तुम, उल्लू हो ! कुछ भी नहीं लिया मछली से नया कठौता ही ले लेते घिसा हमारा, नहीं देखते ।" बूढ़ा झट सागर पर आया कुछ बेचैन उसे अब पाया । मछली को जा वहाँ पुकारा वह तो तभी चीर जल-धारा, आई पास और यह बोली- "बाबा, क्यों है मुझे बुलाया ?" बूढ़े ने झट शीश झुकाया- "सुनो बात तुम, जल की रानी तुम्हें सुनाऊँ व्यथा कहानी, मेरी बुढ़िया मुझे सताए उसके कारण चैन न आए, कहे : कठौता घिसा-पुराना लाओ नया, तभी घर आना ।" दिया उसे मछली ने उत्तर- "दुखी न हो, बाबा, जाओ घर पाओ नया कठौता घर पर।" बूढ़ा वापस घर पर आया नया कठौता सम्मुख पाया। बुढ़िया और अधिक झल्लाई और ज़ोर से डाँट पिलाई- "बिल्कुल बुद्धू तुम, उल्लू हो, माँगा भी तो यही कठौता कुछ तो और ले लिया होता । उल्लू, फिर सागर पर जाओ, औ' मछली को शीश नवाओ, तुम अच्छा-सा घर बनवाओ।" बूढ़ा फिर सागर पर आया कुछ बेचैन उसे अब पाया, स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा मछली तभी चीर जल-धारा, आई पास और यह पूछा- "बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?" बूढ़े ने झट शीश झुकाया- "सुनो बात तुम, जल की रानी तुम्हें सुनाऊँ व्यथा कहानी, मेरी बुढ़िया मुझे सताए उसके कारण चैन न आए, कहती- जाकर शीश नवाओ जल-रानी की मिन्नत करके तुम अच्छा-सा घर बनवाओ ।" "दुखी न हो, तुम वापस घर जाओ और वहाँ निर्मित घर पाओ ।" वह कुटिया को वापस आया नहीं चिन्ह भी उसका पाया । वहाँ खड़ा था अब बढ़िया घर, चिमनी जिसकी छत के ऊपर लकड़ी के दरवाज़े सुन्दर । बुढ़िया खिड़की में बैठी थी औ' बूढ़े को कोस रही थी- "तुम बुद्धू हो, मूर्ख भयंकर माँगा भी तो केवल यह घर, जाओ, फिर से वापस जाओ औ' मछली को शीश नवाओ, नहीं गँवारू रहना चाहूँ, ऊँचे कुल की बनना चाहूँ ।" बूढ़ा फिर सागर पर आया कुछ बेचैन उसे अब पाया, मछली को फिर वहाँ पुकारा वह तो तभी चीर जल-धारा, आई पास, और यह पूछा- "बाबा, क्यों है मुझे बुलाया?" बूढ़े ने झट शीश झुकाया- "सुनो बात तुम जल की रानी तुम्हें सुनाऊँ व्यथा-कहानी, मेरी बुढ़िया मुझे सताए उसके कारण चैन न आए, नहीं गँवारू रहना चाहे ऊँचे कुल की बनना चाहे ।" बोली मछली- जी न दुखाओ उसको ऊँचे कुल की पाओ ।" बूढ़ा वापस घर को आया दृश्य देख वह तो चकराया, भवन बड़ा-सा सम्मुख सुन्दर बुढ़िया बाहर दरवाज़े पर, खड़ी हुई, बढ़िया फ़र पहने तिल्ले की टोपी औ' गहने, हीरे-मोती चमचम चमकें स्वर्ण मुँदरियाँ सुन्दर दमकें, लाल रंग के बूट मनोहर दाएँ-बाएँ नौकर-चाकर, बुढ़िया उनको मारे, पीटे बल पकड़कर उन्हें घसीटे। बूढ़ा यों बुढ़िया से बोला- "नमस्कार, देवी जी, अब तो जो कुछ चाहा, वह सब पाया चैन तुम्हारे मन को आया?" बुढ़िया ने डाँटा, ठुकराया उसे सईस बना घोड़ों का तुरत तबेले में भिजवाया। बीता हफ़्ता, बीत गए दो, आग बबूला बुढ़िया ने हो फिर से बूढ़े को बुलवाया, उसको यह आदेश सुनाया- " आ, मछली को शीश नवाओ मेरी यह इच्छा बतलाओ, बनना चाहूँ मैं अब रानी ताकि कर सकूँ मनमानी ।" बूढ़ा डरा और यह बोला- "क्या दिमाग़ तेरा चल निकला ? तुझे न तौर-तरीका आए हँसी सभी में तू उड़वाए ।" बुढ़िया अधिक क्रोध में आई औ' बूढ़े को चपत लगाई- "क्या बकते हो, ऐसी जुर्रत ? मुझसे बहस करो, यह हिम्मत ? तुरत चले जाओ सागर पर वरना ले जाएँ घसीटकर ।" बूढ़ा फिर सागर पर आया और विकल अब उसको पाया, स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा मछली तभी चीर जल धारा, आई पास और यह पूछा- "बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?" बूढ़े ने झट शीश झुकाया- "सुनो व्यथा मेरी, जल-रानी तुम्हें सुनाऊँ दर्द कहानी, बुढ़िया फिर से शोर मचाए नहीं इस तरह रहना चाहे, इच्छुक है बनने को रानी ताकि कर सके वह मनमानी ।" स्वर्ण मीन तब उससे बोली "दुखी न हो, बाबा, घर जाओ तुम बुढ़िया को रानी पाओ !" बूढ़ा फिर वापस घर आया सम्मुख महल देख चकराया, अब बुढ़िया के ठाठ बड़े थे, उसके तेवर ख़ूब चढ़े थे, थे कुलीन सुवा में हाज़िर होते थे सामन्त निछावर, मदिरा से प्याले भरते थे वे प्रणाम झुक-झुक करते थे, बुढ़िया केक, मिठाई खाए और सुरा के जाम चढ़ाए, कंधों पर रख बल्लम, फरसे सब दिशि पहरेदार खड़े थे । बूढ़ा ठाठ देख घबराया झट बुढ़िया को शीश नवाया, बोला- "अब तो ख़ुश रानी जि, जो कुछ चाहा वह सब पाया अब तो चैन आपको आया ?" उसकी ओर न तनिक निहारा इसे भगाओ, किया इशारा, झपटे लोग इशारा पाकर गर्दन पकड़ निकाला बाहर, सन्तरियों ने डाँट पिलाई बस, गर्दन ही नहीं उड़ाई, सब दरबारी हँसी उड़ाएँ ऊँचे-ऊँचे यह चिल्लाएँ- "भूल गए तुम कौन, कहाँ हो ? आए तुम किसलिए, यहाँ हो ? ऐसी ग़लती कभी न करना बहुत बुरी बीतेगी वरना ।" बीता हफ़्ता, बीत गए दो, सनक नई आई बुढ़िया को, हरकारे सब दिशि दौड़ाए ढूँढ़ पकड़ बूढ़े को लाए, बुढ़िया यों बोली बूढ़े से- "फिर से सागर तट पर जाओ औ' मछली को शीश नवाओ, नहीं चाहती रहना रानी, अब यह मैंने मन में ठानी करूँ सागरों में मनमानी, जल में हो मेरा सिंहासन सभी सागरों पर हो शासन, स्वर्ण मीन ख़ुद हुक़्म बजाए जो भी माँगूँ, लेकर आए ।" हुई न हिम्मत कुछ समझाए वह बुढ़िया को अक़्ल सिखाए, लौटा वह नीले सागर पर सागर में तूफ़ान भयंकर, लहरें गुस्से से बल खाएँ, उछलें, कूदें, शोर मचाएँ, स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा मछली चीर तभी जल-धारा, आई पास और यह पूछा- "बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?" बूढ़े ने झट शीश नवाया- "सुनो व्यथा मेरी, जल-रानी तुम्हें सुनाऊँ दर्द-कहानी, उस बुढ़िया से कैसे निपटूँ ? अक़्ल भला कैसे उसको दूँ ? नहीं चाहती रहना रानी बात नई अब मन में ठानी, चाहे, हुक़्म चले पानी पर सागर और महासागर पर, जल में हो उसका सिंहासन सभी सागरों पर हो शासन, तुम ख़ुद उसका हुक़्म बजाओ वह जो माँगे, लेकर आओ ।" स्वर्ण मीन ने दिया न उत्तर केवल अपनी पूँछ हिलाकर, चली गई गहरे सागर में और खो गई कहीं लहर में । बूढ़ा तट पर आस लगाए रहा देर तक नज़र जमाए, मीन न लौटी, वह घर आया उसी कुटी को सम्मुख पाया, चौखट पर बैठी थी बुढ़िया और सामने वही कठौता वही तसला था जिसका टूटा हुआ तला था। 1833

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