किस्सा कीचक वध (महाभारत) : पंडित लखमीचंद (हरियाणवी कविता)

Kissa Keechak Vadh : Pandit Lakhmi Chand (Haryanvi Poetry)


कौरवों से जुए में हारने के बाद शर्त के अनुसार पांडवों को 12 साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास बिताना था। अगर कौरव अज्ञातवास के दौरान उन्हें दूंढ लेते हैं तो पांडवों को पुनः 12 साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास बिताना होगा। वनवास के 12 साल ख़त्म होने को आये तो युधिष्ठिर को चिंता होने लगी क्योंकि भीम और अर्जुन जैसे योद्धाओं का छुप कर रहना असंभव था। काफी सोच-विचार करने के बाद युधिष्ठिर अपने भाईयो से कहते हैं की हम सब विराट नगर के राजा विराट के यहाँ नौकरी करते हुए अपना अज्ञातवास बिताएंगे। सभी अपना नाम बदल कर राजा विराट के यहाँ नौकरी करने लगे। सब से पहले सहदेव गया। उसने राजा विराट से कहा कि मेरा नाम तन्तिपाल है और मैं गाय-बछड़ों के नस्ल पहचानने में निपुण हूँ तो राजा विराट ने उसको गौशाला में रख लिया । फिर नकुल गया उसने कहा कि मेरा नाम ग्रन्थिक मैं घोड़ों का काम जानता हूं तो उसको घुड़शाला में रख लिया। फिर भीम गया उसने अपना नाम बल्लव और अपने आपको रसोईया बताया तो उनको भण्डारे में रख लिया। अब युधिष्ठर विराट के पास गया और कहा-हे राजन! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम 'कंक' है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ। राजा विराट ने कहा कि अब तुम यहीं रहा करो और मुझे चौपड़ खिलाया करो। फिर द्रोपदी राजा विराट की रानी सुदेशना के पास गई और अपना नाम सारन्द री बताया और क्या कहने लगी कि मैं पहले धर्मराज युधिष्ठिर की महारानी द्रौपदी की दासी का कार्य करती थी, किन्तु उनके वनवास चले जाने के कारण मैं कार्यमुक्‍त हो गई हूँ। अब आपकी सेवा की कामना लेकर आपके पास आई हूँ। फिर अर्जुन गया उसने कहा कि मुझे नाचना गाना बहुत अच्छा आता है तो राजा विराट ने उसको भी रख लिया। जब द्रौपदी रानी सुदेशना के पास जाती है तो क्या कहती है-

मैं दासी द्रोपद नार की, हस्तिनापुर म्हारा गाम, थारै भीड़ पडी मैं आई।।टेक। राड़ कैरो पाडों की छड़ी, मण तै पासंग रहे ना धड़ी, जब घड़ी सधी तकरार की, जित गया राज तमाम, थारै धोरै भीड़ मैं आई।। करौ लोग सोचगे मन्दी, किया इसा कर्म बिगड़गी सन्धी, जो आन्न्दी थी दरबार की, हुई दुर्योधन के नाम, थारै धोरै भीड़ मैं आई।। पतिव्रता के धर्म जणाया करूं, सुणले तै कथा सुणाया करूं, एक लड़ी बणाया करूं हार की, बस योहे सै रोज का काम, थारै धोरै भीड़ मैं आई।। लखमीचन्द कहूं जोड़ दो कर, खाते फिरैं बिराणी ठोकर, बस नौकर सू घड़ी चार की, फेर सातूं पहर आराम, थारै धोरै भीड़ मैं आई।। अब सुदेशना द्रोपदी को क्याथ कहती है- तेरे देश नगर का तोल ना तनैं, किस विध रखलूं कामनी।।टेक। चालता दीखै नीर गले का, फिकर तेरे मद के डीक बले का, तेरे रूप जले का मोल ना, जाणूं अम्बर में चिमकै दामनी।। करती बात जोड़ कै दो कर, खा रही कर्म करे की ठोकर, तेरे नौकर आली खोल ना, तेरी कौण भरैगा जामनी।। रहैं सुबह शाम हरी की रटना, यो मुश्किल सै संकट कटना, तेरा डटना बात मखौल ना, पडैं झाल बदन की थामनी।। गल में गला विपत का फन्द, तेरे सब छुटगे ऐश आनन्द, कह लखमीचन्द झूठा बोल ना, मुश्किल सै छन्द लामनी।। थोडा अनुनय-विनय करने पर सुदेशना उसे अपने यह नौकरी पर रख लेती है। एक दिन सुदेशना के महल में उसका भाई आया जिसका नाम कीचक था। कीचक जब सुदेशना के महल में गया तो उसने वहां एक तरफ बैठी हुई द्रोपदी को देखा तो पर्दा किये हुए बैठी थी, कीचक ने सोचा कि यह तो आज कोई नई औरत है। वह अपनी बहन सुदेशना से क्या कहता है- या परदे आली नार, कड़े तै आई, इसका देबी केसा रूप निराली सै।।टेक। बोलै मीठे-मीठे बैना, कसर किसे बात की है ना, इसके नैनां मै तलवार, कुदरती स्याही, इसका देबी केसा रूप निराली सै।। या मेरी खराब करावैगी किरया, झड़ते फूल बोलती बरियां, होया सब तरियां लाचार, हे मरग्या तेरा भाई, इसका देबी केसा रूप निराली सै।। मनैं चौगरदे ध्यान टेक लिया, समझ ग्रंथा तक का लेख लिया, घूम कै देख लिया संसार, ऐसी देखी ना लुगाई, इसका देबी केसा रूप निराली सै।। मानसिंह जल दूध छणा कै, बैठी परदा अलग तणा कै, छन्द की कली बणाकै चार, ब्राह्मण लखमीचन्द नै गाई, इसका देबी केसा रूप निराली सै।। सुदेशना कहने लगी कि भाई यह एक दुखिया और बेवारिस औरत है इसको मैंने अपने पास दासी रखा है- साच बतादे दासी आई सै कडे तै।।टेक। कीचक बदी नै त्याग रहा, करूं के फिकर मेरै लाग रहा, इश्क बली जाग रहा, तेरे महल मैं बडे तै।। कीचक ना विष का प्याला पीवण का, दास तेरे चरणां मै नींवण का, इसका काटया ना जीवण का, बचज्या सांप के लड़े तै।। कीचक न्यू के विष घूटै सै, के सहज पैंडा झूटै सै, नाग लहरे पै उठै सै, बिच्छू डंक के छेडे तै।। लखमीचन्द आनन्दी भोगी, इब या कार बणी ना क्याहें जोगी, महल मैं इस तरियां पैदा होगी, जैसे सिया जी खून के घड़े तै।। आगे सुदेशना कीचक को कहती हैं- शालन्द्री सै इसका नाम विपता की मारी सै, के पूछैगा इसका हाल।।टेक। पांचों पांडो थे बलकारी, जिनकी एक द्रोपद नारी, उस नारी की सेवा करै थी सुबह शाम, या तै सही पूजारी सै, विपता में हो री सै काल।। छुटग्या राज पाट घर डेरा, कर्म का लागै कोन्या बेरा, होग्या अन्धेरा रूसया राम, या अपना बखत बिता री सै, इसका लुटया सब धन माल।। पांचों पांडो होगे बनवासी, न्यारी हुई द्रोपद से दासी, विपत खासी में करती काम, दिल में रंज भारी सै, जाणूं नीर बिन सुक्खा ताल।। लखमीचन्द राम गुण गाले, भाई अपणा मन कपटी समझाले, लाले ध्यान समर ले राम, हर की माया न्यारी सै, वो रखता सब का ख्याल।। सुदेशना अपने भाई कीचक को क्या कहती है- सुण मां के जाये भाई, तनैं मैं भेद बतावण लागी।।टेक। गई लिकड़ शरीर की ज्योति, दुख मैं ना कोए नाती गोती, एक दुखियां नार फिरै थी रोती, मनैं देख दया सी आगी।। काम नै सब तै पहलम करले, चार घड़ी ध्यान कृष्ण का धरले, जब दोफारा दिन फिरले, टुकड़ा दिया हाथ का खागी।। या सै नेम धर्म की पूरी, करै जो करणे की दस्तूरी, या सै कीमत की कस्तूरी, मनै पड़ी रेत मैं पागी।। गुरु मानसिंह मैं नहीं फिरूंगी, लखमीचन्द रस घूट भरूंगी, इसनैं मैं रोजना याद करूंगी, या जिस दिन चाली जागी।। अपनी बहन की बात सुनकर कीचक अपनी बहन सुदेशना से क्या कहता हैं- वोहे उसका राम जिसमैं मन फंसज्या, घाल दे दासी नै मेरा घर बसज्या।।टेक। बिजली केसे चमके लागैं इसके चेहरे मैं, तेरा कीचक भाई आ लिया गिरदस के फेरे मैं, जीऊंगा कै मरूंगा आग्या दासी के घेरे मैं, हे न्यू तै मनै साच बतादे के सै मन तेरे मैं, मेरे अन्धेरे से डेरे मैं दीवा फेर चसज्या।। उसनै भी शाबासी जिसनै पाली जण कै, बिपता के दिन काटै सै म्हारै गिण गिण कै, भीड़ पड़ी मै या करै गुजारा दासी बण कै, जुल्फ नागनी सी खड़ी होज्यां दोनू तण कै, जै कोए आज्या स्याहमी फण कै या चौडै़ डसज्या।। बणादे नै काम मेरा छोड कै डर नै, बरतण खातिर चीज मारे तै दे राखी हर नै, पति पत्नी नै रोया करै सै पत्नी रोवै वर नै, हे तू कहदे तै मैं दे दूं अपणे काट कै सिर नै, मैं खा लिया फिकर नै, जब या घूंघट मैं हंसज्या।। कहै लखमीचन्द तू रोवै मत टुक दिल नै थाम ले, जो सच्चे दिल से भजन करै उसकी दया राम ले, हे डूबगी इसी सुथरी धोरै इतना काम ले, इस दासी के बदले में मेरा घर और गाम ले, जै राम जी का नाम ले तै के जीभ घिसज्या।। सुदेशना जब कोई जवाब नहीं दे पाती हैं तो अब कीचक दासी को क्या कहता है- सुख चाहती हो तै ल्या दुख दूर करूं तेरे। । टेक । वास्ते रहने को त्यार रंगीले से महल करैं, स्त्री जो मेरी, तेरी दासी बण टहल करैं, रंगीली हो सेज बिस्तर रूई केसा पहल करैं, साबुन से नहलाकै चोटी नागनी सी त्यार करैं, स्याही और सन्दूर बिन्दी रोली की बहार करैं, वस्त्रों में चमेली और इत्र की महकार करैं, तेरा सब जेवर सोने का होगा जब हाथ देख लिये मेरे।। टकने सब ढके होए गोल पिंडली सडोल तेरी, कोकला और कोयल केसी मिटठी- बोली तेरी, मुख की गोलाई कैसी चन्द्रमा सी गोल तेरी, गोरा सा बदन गात बीच में से ठुका हुया, गर्दन से नीचे का भाग अगाड़ी को झुका हुया, वस्त्र हैं मलीन चांद बादलों में लुहका हुया, घटा हटा झट पट घूंघट मत कर घोर अन्धेरे।। काले से बालों की बीणी बिना बन्धी पड़ी हुई, गोल है कलाई तोल-मोल करकै घड़ी हुई, केले केसी गोभ कैसे लर्ज रही खड़ी हुई, मोटे-२ नैन कंवल फूल की ज्यों खिले हुए, होठ हैं एक सार कैसे सन्धी करकै मिले हुए, मुस्कुरा कर बात करै सन्तेरे से छिले हुए, मनै मुश्किल हुई उठा कै खाणे, क्यों करकै फांक बखेरे।। प्रेम से रटूंगा गोरी सुबह-श्याम नाम तेरा, ये राज और पाट घर और गाम तेरा, जितना मेरे पास सारा सौदा ही तमाम तेरा, कटने को अगाड़ी कर दी गर्दन है मशीन तेरे, लखमीचन्द से पूछ जै ना आंवता यकीन तेरे, जितना मेरा समान है वो सारा ही आधीन तेरे तनै भी चलणा हमनै भी पहुंचणा जित धर्मराज के डेरे।। सुदेशना ने कीचक को बहुत समझाया परन्तु वह नहीं मानता वह द्रोपदी के पास गया और क्या कहता है- देख तेरा दुख दासी पण का मेरे जी नै मुश्किल होरी, मत दुख पावै राणी बण कै चाल मेरे संग गौरी।।टेक। बेमाता नै रूप दे दिया बड़े-बड़े जंग झोकै, कोए बेईमान बेहूदा बैठज्या माल पराया खो कै, किसे भाग्यवान नै खेती पाली बीज धर्म का बो कै, कोए बेईमान काट ले खेती घरां गेर ले ढो कै, परमेश्वर के तलै बसै और परमेश्वर कीये चोरी।। परमेश्वर नै रूप दे दिया न्यूंए ना गवाणां चाहिए, बोझ उठै तै ठावै आप तै ना और पै ठवाणा चाहिए, दूसरे के मन की बात समझ कै बोल सुहाणां चाहिए, सच्ची करै कमाई जगत में खाणा कमाणां चाहिए, ना तै चोरी का डंड पड़ै भुगतणां देख अगत की मोरी।। सर्प नै पकड़ लई चकचून्दर पेट भरण के रूख से, वो पंजे गाड गई आंख्यां में दोनूवां कै एकसा-ए दुख सै, खाले तै लागै कोढ, छोड़ दूं तै मर्द पणे में टुक सै, जल का शरणां लिया सर्प नैं वा पैर हटागी सुख सै, मैं दोनूवां के सुख की खातिर कररया लला लोरी।। मेरी तबियत चकचून्दर बण कै नागिन तेरै हिथागी, तू प्रेम के जल का सत्संग करले ना ज्यान मुफ्त मैं जागी, प्रेम के जल नै पति समझले जगह बचण की पागी, प्रेम की प्रीति पार करैगी हम तुम बीर मर्द बणै सागी, कहै लखमीचन्द बरत खुशी तै घरां तील रेशमी कोरी।। द्रोपदी ने कीचक की एक बात भी नहीं सुनी। वह गुस्से में भरकर अपनी बहन सुदेशना के पास आया कहने लगा आज से इस दासी को महल में नहीं रखना यह बहुत ही खतरनाक औरत है और क्या कहता है- इसनै काढ़ महल तै बहार नार या जादूगरणी सै।।टेक। या अणदोषां नै दोषैगी तेरी बढती बेल मोसैगी, तेरा खोसैगी हार सिंगार, भीतरलै पेट कतरणी सै।। या करी कराई खोवैगी, घरां या बीज बिघ्न के बोवैगी, काल न तेरा मोहवैगी भरतार, झूठी राम समरणी सै।। कहे की तू ना मानै अलझेडी , तनै क्यों बाड़ विघन की छेड़ी, कोए लेगा हेड़ी खेल शिकार, फिरै या सुन्नी हिरणी सै।। गुरु मानसिंह छन्द कहै सैं, गुण-अवगुण की बात लहैं सै, बहै सै त्रिवेणी केसी धार, किस विध पार उतरणी सै।। सुदेशना अब कीचक को क्या समझाती है- शिवजी के वरदान से इसके पांच पति आकाश मैं।।टेक। नित बिना जगाए जगते, उनके विमान गगन में बगते, वें डिगते ना इस बैरण के ध्यान से, जब चाहवैं जब पास में।। मतन्या आग दिखावै फूंस नै, तनै ज्ञान नहीं कंजूस नै, उसनै खो देंगे जगत जिहान से, जो फंसैं इश्क की चास में।। तू अधर्म से नहीं डरै सै, क्यूं बिन आई मौत मरै सै, क्यूं झूठा करै सै जबान से, भरया ठाडयां का दूध गिलास में।। लखमीचन्द करो शुभ कर्म , बणी रहै दो आख्यां की शर्म, चल्या जा अपणे धर्म इमान से, ना तै यो जगत भरैगा विश्वास मैं।। रानी सुदेशना की बात सुनकर कीचक गुस्से से भर जाता है और द्रौपदी को भला बुरा कहने लगता है। कीचक की उल्टी सीधी बात सुनकर द्रोपदी चुप नहीं रह सकी। उसने कीचक को क्या जवाब दिया- मतना मारै कीचक मेरै बोलां के तीर, पार जिगर मै हो लिए।।टेक। मत बालक की तरियां हाथ लफावै, तेरै चन्द्रमा नहीं हथावै, कड़े का इश्क कमावै, तेरा आ लिया अखीर, कोए जगह बचण की टोह लिये।। यो तनै सहम रोप दिया चाला, मरती बरियां लेगा सम्भाला, तू सै गन्दा नाला, मैं गंगा जी का नीर, अपणे दाग जिगर के धो लिये।। क्यूं ना सबर शान्ति धारै, मन मैं खोटी बात बिचारै, साहमी हो कै शूरा मारै, धोखा करकै मारै बीर, बड़े बड़ां नै घर खो लिये।। लखमीचन्द छन्द की किसी कली मिलावै, आप तै क्यूं अपणी मौत बुलावै, क्यूं जाण कै घलावै गल में मौत की जंजीर, आगै गैर जबां मत बोलिये।। और द्रोपदी आगे कीचक से कहती है- पांच पति गन्धर्व सै मेरे, तेरे किसे बहोत मार कै गेरे, जिनके संग ले राखे फेरे, के रौवैंगे तेरी ज्यान नै।।टेक। रहूं सूं उनकी मारी डरकै, खोटी कोए भी कहदे मुंह भरकै, अमृत करकै चाखूं सूं , बुरा वचन नहीं भाखूं सूं , न्यूंए ल्हको कै राखूं सू, इस घूंघट के म्हां श्यान नै।। ऊत सैं वैं पीटण के बारे मैं, सहम क्यूं ज्यान फंसावै घारे मैं, आरे मैं सिर ना दे सकता, एक चोट भी ना खे सकता, बैल कभी रंग ना ले सकता, खाकै देसी पान नै।। तू कीचक के सोचै दिल मैं, सहम की फांसी घलज्या गल मैं , वे पल मैं झाड़ मरोड़ गिरैंगे, दुश्मन का सिर फोड़ गिरैंगें, पकड़ कै घीटी तोड़ गिरैंगे, लुच्चे बेईमान नै।। लखमीचन्द क्यों ना बदी नै त्यागै, सुती नाग बिड़े की जागै, कीचक लागै नेड़ै मतना, काल की खिड़की भेडै़ मतना, जाण बूझ कै छेडै मतना, रूप कपट की खान नै।। द्रौपदी की बातें सुन कर कीचक का मन खिन्न जो जाता है और अपनी बहन सुदेशना को कहता है- बहना बस लण दे भाई का डेरा।।टेक। मैं मानस तगड़ी का साधू, इसनै एक और जुल्म करा बाधू, मरूंगा मैं आश्क, जादू क्यों गेरा।। तेरा भाई दुख नै सहज्यगा, तेरे तै मन-तन की कहज्यगा, बहना पीहर बणा रहज्यगा तेरा।। दर्शन कर लिया 16 राशी का, जखम हो रहया सै इश्क ग्यासी का, लागण दे नै दासी का मेरे महलां में फेरा।। तनै के समझाऊं मती मंद नै, या भोगैगी ऐश आनन्द नै, यो छन्द लखमीचन्द नै कथ कै टेरा।। कीचक एक बार फिर से द्रोपदी के रूप की बढाई करता है और कहता है- श्यान थी सवाई जाणूं, चन्दां का उजाला।।टेक। हूर का भूरा-भूरा रंग, दीखै परियां केसा ढंग, ना उसी कोए लुगाई, उसका ब्यौंत निराला।। वा दासी बण कै करै गुजारा, उसनै मेरै तीर कसूता मारया, ना जाती कुछ बताई, उसका ढंग कुढाला।। उस बिन जीणा मुश्किल मेरा, लागै जिसकै उसनै बेरा, होरी सै दुखदाई यो मोटा चाला।। लखमीचन्द गुरु का शरणा, उस बिन होगा मनैं दुख भरणा, कै तै होगी मन की चाही, ना पिल्यू विष का प्याला।। कीचक अपनी बहन सुदेशना को डरा धमका कर द्रौपदी को अपने कक्ष में भेजने के लिए मन लेता है। रानी सुदेशना दासी को शराब के बहाने से कीचक के महल में जाने के लिए कहती है- मदिरा की बोतल ल्या दासी।।टेक। मैं चौदस का व्रत करूं, तेरे पायां में ओडणा धरूं, मैं तै भूखी मरूं ऐ और प्यासी।। जा सै ज्योत बदन की कढी, या दुख की सेल गात में गढी, जैसे चिल्ले पै चढी, हे सख्त ग्यासी।। कीचक आदमी सै भला, तेरा उसका मेल मिला, वो चांद खिला, तू पूर्णमासी।। मानसिंह गुरु धर्म पिछाण लिए, कर लखमीचन्द तू काण लिए हे तू मत जाण लिए ठट्ठा हांसी।। रानी सुदेशना से द्रोपदी कहती है- आडै़ चाहे कितणिऐ टहल कराले, मनैं मत भेजै गिरकाणे कै।।टेक। वो नहीं हटता नाम धरण तै, मैं दुख पागी विपत भरण तै, गैर माणस के दर्श करण तै, दोष लगै सति के बाणें कै।। तू मदिरा मंगवाणी चाहवै सै, मनै घर कीचक के खंदावै सै , मनै इतणी नफरत आवै सै , जैसे कोए जहर मिला दिया खाणे कै।। वो ऊंच और नीच तकै था, बुरी कहण तै नहीं छिकै था, जब तेरे मुंह पैए गाल बकै था, शर्म का खोज नहीं मरजाणे कै।। लखमीचन्द भेद खुलज्यगा, दुख दर्दां गात डुलज्यगा, उडै सब पाप पुन तुलज्यगा, बिचालै धर्म राज के थाणे कै।। रानी सुदेशना के मजबूर करने पर द्रोपदी बोतल हाथ में ले कर कीचक के महल की ओर चल हुई क्या सोचती है- बोतल ले ली हाथ मैं, चली द्रोपद नार, रोई गेर कै आंसू।।टेक। कदे बरतूं थी सोना चांदी, दुख विपता नै करदी आन्धी , कदे सौ-सौ बान्दी रहैं थी साथ मैं, हर दम ताबेदार, दुख-सुख लहण नै सासू।। अब कृष्ण जी ल्हुकग्ये कड़ै, तेरे बिन कौण बिचालै अडै, पडै जब कष्ट बीर की जात मैं, हो जति-सति पै भार, मैं इस रंज के मां सूं।। करले तनै करणी हो जिसी, तेरी करणी मैं ढील किसी, जैसे शशि अन्धेरी रात में, करै चौगरदे चमकार मैं के तेरी भक्तिणी ना सूं।। लखमीचन्द कै तेरा यकीन, तनैं ध्यावैं सैं दीनों दीन, हे तीन लोक के नाथ मैं, इब तेरैए अख्त्यार, आज घर गैर के जां सूं।। अब द्रोपदी ने सोचा कि जाना तो जरूर पड़ेगा, परन्तु भीम को बता चलूँ। वह अपने आप संभाल लेगा। वह भण्डारे में गई और वहां जाकर द्रोपदी ने क्या कहा- भीम बली बिन पाप कटै ना मेरा बिचारी का, भीड़ पड़ी का कहणा सै यू मुझ दुखियारी का।।टेक। कित सोगे कित सोगे करती बड़ी भण्डारे मै आण, बेखटकै तै पहुंच गई ना करी किसे की काण, पेट भराई मिलै खाण नैं नहीं काम की जाण, के कीचक दानां मार दिया न्यूं सोग्या चादर ताण, कीचक गाहक होरा सै आज इज्जत थारी का।। भण्डारे में पहुंच गई वा कर प्रीतम की आश, पो कै अपणे हाथां खा सै ना और काम की ख्यास, द्रोपदी के रूप का फेर होण लगा प्रकाश, जैसे घी की जोत जलै मन्दिर में ना धूमें की चास, मैं शिवजी करकै रटूं तनै दिए दुख मेट पुजारी का।। मनैं कई बार कहली एक सुणी ना फिररया कडै मता, कीचक दान आण कै मनै दे सै रोज सता, कही दर्द की बात मनैं इसी करदी कौण खता, जैसे नदी के उपर पेड़ साल का झुक-२ आवै लता, तुम और करो सो ना पाछला मिटता दर्द जवारी का।। विराट देश में मुझ त्रिया की होरी बुरी गति, कौण कहैगा दुनियां के में द्रोपद नार सती, वो कीचक धर्म बिगाड़ै सै ना इसमैं झूठ रती, थारा के जीवै सै बीर दुखी हो जिसके पांच पति, लखमीचन्द दिन रात रटूं, नाम कृष्ण मुरारी का।। दासी भीम से बात करती है भीम क्या कहता है- तेरा सुण लूंगा सब हाल सांझ नै भंडारे में आ जाईए।।टेक। तेरे मन कपटी नै डाट दूंगा, सारे दुख नै बांट दूंगा, तेरा काट दूंगा सब जाल, मेरे तै सारा हाल सुणा जाईए।। बुद्धी हरली सै कंजूस की, तेरी घड़ी हटाद्यूं गर्दिश की, उसकी तार लूंगा खाल, उसका पता ठिकाणा बता जाईए।। मै ना छोडूं काम अधूरा, मैं सूं रणभूमि का सूरा, तेरा पूरा करूं सवाल अपणा मन कपटी समझा जाईए।। द्रोपदी मै ध्यान तेरे पै टेकूं, चढ़े तवे पै मैं भी दो सेकू, देखू वो कैसा है महिपाल, तू भी ध्यान पति में ला जाईये।। अकल ठीक करूं मतीमन्द की, फांसी काटूं दुख के फन्द की, छन्द की चाहिए ठीक मिसाल, लखमीचन्द हरीगुण गा जाईए।। द्रोपदी हाथ में बोतल लिए हुए कीचक के महल के सामने पहुंच जाती है । कीचक ने जब द्रोपदी को देखा तो खुशी की सीमा नहीं रही, वह बाहर खड़ी हुई द्रोपदी को अन्दर बुलाता है और क्या कहता है- बाहरणै खड़ी क्यूं, आज्या तेराए घर सै।।टेक। बुरी हो सै तृष्णा दूती, आज हो लेगी जो रांड नपूती, तेरी जूती और मेरा सिर सै।। करै नै मीठी-मीठी बात, तनै क्यूं कर लिया ढीला गात, तेरी घड़वा दूंगा नाथ भतेरा जर सै।। झांखा बन्द करले आले का, कून्दा कर बन्द पड़काले का, किस साले का, आडै तनै डर सै।। खड़ी नै घणी देर तनै होली, तनै तबियत मेरी भी चरोली, जै तू ना बोली, तै मेरी मर सै।। यो छन्द मानसिंह ज्ञानी का, लखमीचन्द उमर याणी का, छन्द टेकण में भवानी का, सारा ए बर सै।। द्रोपदी दूर खड़ी देख रही है परन्तु मुख से नहीं बोलती, कीचक द्रोपदी के पास आ गया और उसको अन्दर ले जाना चाहा, परन्तु द्रोपदी और भी पीछे हट गई और कीचक से क्या कहती है- मात-पिता की जगह समझकै लिया थारा शरणां सै, कमरे महल बणे रहो तुमनै हमनै के करणा सै।।टेक। रीछ और बन्दर लड़े देख कै, सीता नार हड़ी नै, कोये मरहमकार पिछाणैगा इस दारूण विपत पड़ी नै, मैं जां सूं डरी देख कै दुख की नाग लड़ी नै, तेरी बाहण नै मदिरा चाहिए मनैं दे दे बाहर खड़ी नै, सुदेशना मदिरा पीवै मनैं के धड़ में धरणा सै।। तुम बाहण और भाई बणे रहो जन्म लिया जिस मां कै, श्याम सवेरी राजी होज्यां दोनवां के दर्शन पा कै, तेरी बाहण नै करा गुजारा दुख मैं नौकर ला कै, हुक्म कहा सो आण सुणाया जो कहो सुणादूं जा कै, दिये हाथ का टुकड़ा खाकै यो पेट खढा भरणां सै।। हम रैय्यत तू इस दुनियां का जगतपति राजा सै , दो दिन का जीणा दुनिया मैं फेर काल बली खाज्या सै, दया धर्म और शील शान्ति दुश्मन मैं भी पाज्या सै , हाथ जोड़ कै विनती करले तै तुरत दया आज्या सै, मैं घास फूंस और डाब पटेरा तू मृग खूद चरणां सै।। राजा हो कै रैयत नै ना घणी सताया करते, पर त्रिया और परधन की ढब नहीं लखाया करते, वैद्य रसोईया दासी तै ना बैर लगाया करते, मैं मोरी की ईंट चुबारै नहीं चढ़ाया करते, लखमीचन्द शरण सतगुर की पर लुच्यां तै डरणा सै।। कीचक ने सोचा कि अभी इसके साथ प्रेम का ही व्यवहार करना चाहिए। वह उसको तरह-तरह का लोभ दिखाता है। अब कीचक द्रोपदी को क्या कहने लगा- करकै प्यार बुलाई थी आ लाड करूं सो बार तेरा, तेरे आणे से पहले खाण की खातर कर दिया भोजन तैयार तेरा।।टेक। कदम उठा कै यहां तक आई ये भी तो अहसान किया, तीन रोज हुए एक-एक पल में सौ-सौ बर तेरा ध्यान किया, मेवा और मिष्ठान मिठाई तेरे लिए पकवान किया, तेरे नाम से सुबह उठकै शुद्ध जल में अस्नान किया, देशी पान मंगा राखे और हाजिर सै दिलदार तेरा।। तेरे अर्पण कर दिन्हा यो राज पाठ घर डेरा, और बता के कसर रहै जब कीचक बणै पति तेरा, बेमाता नै रूप दे दिया चन्द्रमा केसा चेहरा, दे दीदार प्यार कर दिल से जन्म सफल होज्या मेरा बणकै वैद्य दवाई दे दे यो तड़फ रहा बेमार तेरा।। रंग महलों से बाहर निकल कै और कहीं मत जाया करो, कीचक नै भरतार समझ कै नित उठ दर्शन पाया करो, साबुन और जल गर्म मिलैगा तेल मशल कै न्हाया करो, नहीं जरूरत मैं तुम्हें देखूं तुम मेरी तरफ लखाया करो, नौकर चाकर टहल करैं और बान्दी करैं सिंगार तेरा।। दासी पार लगा जाईये यो जहाज अधम में अटक रहा, दे माशूक जुल्फ का झटका दिल उलझन मैं भटक रहा, जैसे नाग बीन का लहरा सुण कै बम्बी पै सिर पटक रहा, वैसे ही तेरा रूप हमारे दिल के अन्दर खटक रहा, लखमीचन्द सदा ना रहणा यो धन जोबन दिन चार तेरा।। लेकिन द्रोपदी अन्दर नही आती है। तो कीचक बलकारी और अभिमानी कीचक को बड़ा दर्द सा हुआ और वह क्रोध भरी आवाज से द्रोपदी को क्या कहने लगा- दासी करणा हो सो करले, न्यूं तै सदा-सदा ना जीणे की, यो दिन फेर ना मिले।।टेक। क्यों कर रही जिन्दगी का धेला, एक दिन उड़या हंस अकेला, दूध का बेला कर पै धरले, तेरी सो-सो बर करूं खुशामद पीणे की, कीचक तेरे गल मैं घलै।। होरी तूं समझण जोगी स्याणी, समझले तूं मुझ बन्दे की बाणी, पाणी प्रेम रूप का तू भरले, शोभा होज्या बाग लखीणें की, जोबन फूल सा खिलै।। किस दिन होगा सीना सर्द, लागरी सै इश्क रूप की कर्द सुणया सै ठाड़े की गर्द मैं मरले, नहीं ठीक शरण हो हीणे की, तेरा कुछ हांगा ना चलै।। लखमीचन्द छन्द मै ना चूक, तेरे सुन कै जिगर गया दूख, सदा माशूक कालजे नै चरले, आश्की हो सै लहू पसीने की, मुश्किल तै या चोट झिलै।। कीचक के काफी डराने धमकाने व विनती करने पर द्रौपदी अन्दर आती है तो कीचक उसे क्या कहता है- धन्य भाग आज तू म्हारै आगी रै, तनै जितणे कदम धरे सै, वैं सिर मेरे पै।।टेक। तू खड़ी मेरी रूब-रूब, रहा था अधम बिचालै डूब, इब मेरै खूब आनन्दी सी छागी रै, जब तेरे पैर आण फिरे सैं , राण्डू डेरे पै।। हम बस होगे तेरे नूर कै, क्यूं हांडै सै दूर-दूर कै, उस दिन तू घूर-घूर कै खागी रै, भीतरले मैं जख्म करै सै, लाली चेहरे पै।। झोंके लगैं थे पवन की साथ, पतली कमर गोरा गात, आज मेरी एक बात समझ में आगी रै, जितने धन माल भरे सै, ल्या वारूं तेरे पै।। लखमीचन्द राजी गाणे तै , दुख पाग्या मैं तेरे दुर्बल बाणे तै, तेरे आणे तै किस्मत जागी रै, हुए सूके धान हरे सैं, मेरे फूटे झेरे पै।। और आगे कीचक द्रौपदी से क्या कहता है- आज तै आगै इस महल नै, तेरे नाम का कहया करैंगे, 105 मेरे भाई तेरे हुकम में रहया करैंगे।।टेक। बोलिए मीठी बाणी करकै, मै समझाऊं स्याणी करकै, तनैं राखैंगे पटराणी करकै, वो त्रिलोकी दया करेंगें।। रटा कर अपने पति के नाम नै, जै चाहवै सै स्वर्ग धाम नै, पलंग पै बैठी कहें जा काम नै, वैं तेरा इशारा लहया करैंगे।। रहा कर कमल फूल सा खिलकै, तू यहां तक आई सै चलकै, कीचक के जोड़े में मिलकै, दोनों आनन्दी सहा करेंगे।। दुनिया में दो दिन का जीणा, किसे बात की रहै कमी ना, जिस जगह तेरा पडै पसीना, उडै़ खून म्हारे बहया करेंगें।। हर दम दासी रहैंगी टहल मैं, लौटेजां रूई रेशम के पहल में, इस कीचक के रंग महल में गीत उमंग के गाया करेंगे।। और बता के तेरे तै प्यारा, तेरे तै राज सौंप दिया सारा, सारी दुनिया तै न्यारा, तेरे लिए सुख नया करेंगे।। लखमीचन्द धर्म सत भूलै, तू मद मेर नशे में फूलै, इब तक फिरी ठाऊ चूहलै, इब तेरा ठिकाना ठहया करेगें।। कीचक आगे कहता है- मैं मरया तेरे दर्द का मारया, दासी मत मारै मैं मरया पड़या।।टेक। कुछ कसर बात में है ना, तेरा बहुत घड़ाऊं गहना, तेरे नैना का गजब इशारा, दासी मत मारै मैं मरया पड़या।। मनैं सै तेरे तै घणी गरज, भूलग्या मैं और किस्म की तरज, मेरै मरज बैठग्या भारया, दासी मत मारै मैं मरया पड़या।। मेरै खटका सै तेरी शान का, तेज जाणै दोफारी के भान का, दासी तू मेरी ज्यान का घारा, दासी मत मारै मैं मरया पडया।। मेरा के समझावै मति मन्द का, फांसा काट विपत के फन्द का, लखमीचन्द का छन्द न्यारा, दासी मत मारै मैं मरया पड़या।। कीचक द्रौपदी को लुभाता है- रै खुश हो कै मुखड़ा धोले, साबुन धरा नीम की पेड़ी का।।टेक। धन-धन बेमाता माई, जिसनै इसी सुथरी श्यान बणाई, घड़कै खूब करी चतुराई, गोरा बदन ठाट ढंग नेड़ी का।। चमकती आई बिजली सी, आंगली दीखै मूंगफली सी, मोटी-मोटी आंख डली सी, नाक जाणै असल चांचवा खेड़ी का।। इब बोले बिन नहीं सरैगा, आश्क के जतन करैगा, जिसकै लागज्या, तुरन्त मरैगा, भरी पिस्तौल निशाना हेड़ी का।। बड़ी रंग रूप हुस्न में चातर, चलैं जाणैं इन्द्र सभा की पातर, अरै छोरे छारयां खातिर, यो छन्द लखमीचन्द अलछेड़ी का।। दासी के रूप में द्रौपदी कहती है- कीचक होज्यगा नुक्सान हाथ मरोडै मतना।।टेक। द्रोपदी :- तू भूखा फिरै सै बहू का, आडै चालैगा गेड लहू का, मैं सू काचा दूध गऊ का, रई घमोडै मतना।। कीचक :- के कर लेगा सौण सौंणियां, एक बर हो लण दे जो बात होणियां दासी, बणकै नाग पोणियां डसण नै दौडै़ मतना।। द्रोपदी :- मै लगरी सूं हरी सुमर में, तूं भररया जाणै कौण गुमर में, मेरी आज्यागी जरब कमर में, आंगली तोडै मतना।। कीचक :- दया ले लिए दूर खले की, तेरी घड़वा दूंगा टूम गले की, मैं कहरा सूं बात भले की, चढै पाप कै, घोडै मतना।। दासी :- कहै लखमीचन्द घलज्यगा घी सा, मेरा लिकड़ण नै हो रया जी सा, मैं सू मुंह देखण का शीशा, ईंट तै फोडै मतना।। कीचक काम के वशीभूत होकर द्रोपदी की ओर लपकता है। वह बचकर भागना चाहती है, तो उसके केश कीचक के हाथ में आ जाते हैं। वह उसका धर्म बिगाड़ने की कोशिश करता है तो द्रोपदी उसे क्या कहती है- अग्नि के तुल जाण ले तू इस दासी के केश, हटज्या छोड़ कै दाने।।टेक। तू ना डरै मरण के भय से, मै थारे द्वार आण पड़ी ऐसे, जैसे पार्वती की आण ले, द्वारै खड़े गणेश, हटज्या छोड़ कै दाने।। क्यूं ना बदी करण तै डरै, तू बिन आई मौत मरै, मनै दुखी करै तनै डाण ले, तेरै नहीं दया का लेश, हटज्या छोड़ कै दाने।। तुम सो जितने राजा और राणी, मेरी सुण लियो धर्म की बाणी, जो दूध और पाणी छाणले, करते न्याय नरेश, हटज्या छोड़ कै दाने।। लखमीचन्द तज बात गैलड़ी, एक दिन मिलै काठ की बैलड़ी, तू पकड़ पहलड़ी बाण ले, ओ म्हारे भारत देश, हटज्या छोड़ कै दाने।। और द्रौपदी क्या कहती है- कीचक कुछ ख्याल करै नै तेरे दिन थोड़े बाकी रह रे सैं।।टेक। इन बाता में उड़ज्या लाली, क्यूं बकवाद पीटरया ठाली, पापी लोग भजन बिन खाली, सदा सत पुरुषां के गहरे सैं।। आज तेरा आग्या बखत कसूत, तेरै लागणे सै विपता के जूत, धर्म राज के दूत तेरे कहै सूणैं, सब लहरे सै।। दुख विपता का जंग झोगे, करी कराई सब खोगे, बड़े-बड़े इस पृथ्वी पै होगे, वैं सदा उमर ना ठहरे सैं।। तू बोलै सै घणा अकड़ कै, तेरी वैं गेरैंगे मश्क जकड़ कै, ले ज्यां यम के दूत पकड़ कै, ब्राह्मण लखमीचन्द न्यूं कहरे सैं।। कीचक द्रोपदी को कहता है- तेरी के श्रद्धा सै बोलण की, तेरी काया मैं यू नशा बिराणा सैं।।टेक। आच्छी समझण जोगी स्याणी, तेरी कोयल तै भी मीठी बाणी, आ बैठ तेरे बैठण खातिर मरज्याणी, दिया कीचक नै छोड़ सिराहणां सै।। कीचक तेरे आगै पीछै फिरै सै, राजा हो कै भी टहल करै सै, तनै के बालम बिना सरै सै, पर कीचक का नाश कराणां सै।। तेरे तै बतलावण नै जी चाहवै , कीचक तनै हाथ जोड़ समझावै, जवानी बार-बार नहीं आवै, तार धर सिर का चीर पुराणां सै।। लखमीचन्द छन्द शर्बत सा घोलै, जोर कीचक के बीच लठोलै, भैंस बिराणी खड़ा हो कै ड़योलै, मनै घरसारू खेत चराणां सै।। द्रौपदी कीचक को समझती है- राजा नै प्रजा तकणी चाहिए, धर्म का खाता करकै, मैं रैय्यत बणकै शरमाऊं तेरा बाप का नाता करकै।।टेक। राम बराबर समझणा चाहिए राज करणिया जो सै, मैं शील त्रिया भगत कृष्ण की नहीं जिगर मैं धो सै , राज धर्म का दण्ड देण नै चोर जार की टोह सै, समझणियां के लेखै राजा राम बराबर हो सै, तू छत्री छाया करै जगत की धर्म का छाता करकै।। खलक के रचने वाला ईश्वर सब का खालिक हो सै, उस तै नीचै प्रजा के ऊपर राज का पालिक हो सै, राजा नै अख्तयार हुक्म जो जिसकै मुतालिक हो सै, राम तै नीचे प्रजा के उपर सबका मालक हो सै, जैसे कंवल की जड़ पाणी मैं, फल से ऊपर पाता करकै।। जती मोर और सति मोरणी चाली बुलबुल हो सै, जै त्रिया भी इसे ढंग पै चालै दुनियां में जुल हो सै, बहोत बड़े शुभ कर्म करे तै, राज्यों का कुल हो सै , राजा के लेखै सारी प्रजा बेटी के तुल्य हो सै, राजा पिता समझणा चाहिए, राणी माता करकै।। 28 नरक व्यास जी नै बरणे, सरध तै सरध मिलाकै, लखमीचन्द सतगुर की आज्ञा, ले चल गात बचाकै. गैर पुरुष और गैर स्त्री कोए देखो इश्क कमाकै, वाहे तस्वीर मिलेगी आगै पड़ै नर्क में जाकै, यम के दूत भरादें कोली लोहा ताता करकै।।

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