किस्सा भूप पुरंजन : पंडित लखमीचंद (हरियाणवी कविता)

Kissa Bhoop Puranjan : Pandit Lakhmi Chand (Haryanvi Poetry)


यह साधारण सांग या कहानी नहीं हैं। श्रीमद्भागवत में पुरंजनों के बारे में व्याख्यान पर आधारित ये सांग विषय की जटिलता और पौराणिक संदर्भों की वजह से आम लोगों को समझ नहीं आ सका अतः इस सांग को छोड़ना पड़ा।

रागनी-1 पूर्व देश तै तपस्वी पुरंजन आया, शुभ कर्म करण नै मिली मनुष की काया ।।टेक।। तब हुक्म मिल्या जा पच्छम देश मैं फिरया, नौ निधि बहैं विधि पारा बण कै तिरया, प्रथम जागृत का ज्ञान फेर शिशुपति तुऱया, फिर अतीत बनकर मिलै परम पद पुऱया, सब याद रखिए जो कुछ कहा बताया ।।1।। ले कै जन्म पहलम ब्रह्मचारी बण प्यारे, फिर गृहस्थ आश्रम भोग आनन्द रंग सारे, फिर सुधा स्त्री बाणप्रस्थ बन जा रे, फिर बण संन्यासी सब से ध्यान हटा रे, फिर बण स्वामी दण्डी पंच कोष मन लाया ।।2।। चाहे ब्रह्मचारी बण सारी उमर बिता दे, चाहे गृहस्थ धर्म नै श्रद्धासहित पुगा दे, चाहे सुधा स्त्री बाणप्रस्थ मन ला दे, चाहे ब्रह्मचारी तै धुर सन्यासी पद पा दे, फिर बण परम हंस तनैं ज्ञान मिलै चित चाह्या ।।3।। लेकै जन्म कदे कहे वचन नै भूलै, लगतेए हवा मद मेर नशे मैं टूलै, कर्मा का फांसा घल्या अधम मैं झूलै, कर्मां का बन्धन नहीं किसे तै खुलै, इस रस्ते के बीच घोर अन्धेरी माया ।।4।। तब हुक्म मिल्या देख्या पच्छम देश मैं जा कै, जगी विषय वासना लगी लूटणे आ कै, तमोगुण रजोगुण लगे राजी करण रिझा कै, गया सतगुण वाणी भूल कर्म फल पा कै, कहै लखमीचन्द ना ओर रास्ता पाया ।।5।। रागनी-2 पश्चिम दिशा के तीन पुरों मैं घूम पुरंजन आया, राज स्त्री सुख भोगण का नहीं कितै ठिकाणा पाया ।।टेक।। हिमालय पर्वत के नीचे दक्षिण दिशा की धरणी, चौगरदे नै चल्या देखता ह्रदय राम सुरमणी, अदभुत नगर बण्या एक सुन्दर शोभा जा ना वरणी, नौ दरवाजे सर्व सुलक्षण सम्पत विधभय हरणी, ना किसे किस्म का दोष नगर मैं भरी उमंग मैं काया ।।1।। हीरे लाल कणी मणियों से जड़े हुए दरवाजे, स्वर्गपुरी और नागलोक भी देख नगर की लाजे, हाट सभा और चौराहे मैं फिरते भाजे भाजे, ऋषि आश्रम धज पताका बजै छतीसों बाजे, मूंग्या की बेदी रचवाई नित प्रति रंग सवाया ।।2।। महल अटारी शोभा न्यारी बांकी झूकी हवेली, देख पुरंजन राजी हो गया शोभा नई नहेली, महल बणे सोने चांदी के फिरती जान अकेली, तरह तरह की चमक चांदणी खिलरे फूल चमेली, जगमग जोत जगी नगरी मैं हे पण्‍मेश्‍वर तेरी माया ।।3।। देख पुरंजन राजी होग्या नगरी की चतुराई, धन-धन तनै बणावण आले नगरी खूब बनाई, देश-देश की माया लूट कै इस नगरी कै लाई, तरह-तरह के रंग महल मैं दे रे थे रूशनाई, कहै लखमीचन्द दुख भूल पहलड़ा इस पुर मैं डेरा लाया ।।4।। रागनी-3 उस उपवन के दरम्यान, धरकै ध्यान, देखी एक जवान, लुगाई दूर सी ।।टेक।। सौ सौ पुरूष खडे चारूं ओड़ कै, जो रक्षा करैं थे दौड़-दौड़ कै, एक पांच फणां का नाग, करता लाग, सर्व सुहाग, ज्योत भरपूर सी ।।1।। 15-16 वर्ष की थी कामनी, जैसे गगन घटा की दामनी, चिमकत है दिन रैन, मीठे बैन, मोटे नैन दिखावै घूर सी ।।2।। हरदम दस दासी रहै साथ मैं, चमके लगैं गोरे-गोरे गात मैं, सूरज चन्दा की उणिहार थी एक सार, लम्बी नार लरजती हूर सी ।।3।। लखमीचन्द स्वर्ग केसा धाम सै, सुथरी श्यान वर्ण टुक श्याम सै, बिन्दी की अजब बहार, लाल रूखसार, कंचनदार खड़ी मगरूर सी ।।4। रागनी-4 ज्ञान होत सा रूप गजब का अकलमन्द भतेरी, दर्शन कर लिए उपवन के मैं आनन्द आत्मा मेरी ।।टेक।। तिरगुण नगरी पांच तत्व की गारा सात रंग की, नौ दरवाजे दस पहरे पै भौगे हवा उमंग की, चार का भाग पांच का संग मिलकै झुकी दुधारी जंग की, पांच का रूप स्वरूप से मिलकै जगह बणी नए ढंग की, व्यापक ज्ञान दिवा बिच धरदे मिटज्या सकल अन्धेरी ।।1।। धीरज बिना धारणा कैसी सवर्ण बिन किसी सेवा, गुरू बिन ज्ञान कभी नहीं मिलता सेवा बिन ना मेवा, कर्म बिना पूजा ना बणती, जो विचार सुख का लेवा, ध्यान बिना सामान नहीं, जो परम पदी सुख देवा, एक राजा बिना कती ना सजती जो फौज साथ मैं लेरी ।।2।। चौबीस गुण प्रकृति के चित चरोवण खातिर, इतना कुणबा कट्ठा कर लिया क्यूं जंग झोवण खातिर, हंसै फिरै कभी करै नजाकत न्यूं मन मोहवण खातिर, माया उतर चली पृथवी पै जीव भलोवण खातिर, बिन सत्संग सत्य, श्रद्धा बिन काया माटी केसी ढेरी ।।3।। छः विकार सत प्रकृति खेल खिलावण लागे, एक शक्ति दो नैनौ के बीच तीर चलावण लागे, जीव पुरंजन बहू पुरंजनी मेल मिलावण लागे, ईश्वर व्यापक जड चेतन की डोर हिलावण लागे, कहै लखमीचन्द नित कर्म करे बिन छुटती ना हेरा फेरी ।।4।। रागनी-5 सुथरी श्यान उमर की बाली, किसनै पैदा करकै पाली, कौण देश तै आवै चाली, आगे कित जा सै ।।टेक।। मुड़ तुड़ बीस जगाह तै टूटे आडै इस उपवन का रंग लूटै, उठै झाल कती ना दबती सारी अदा बदन मैं फबती, के शिवजी के घर पार्वती तू गणेश की मां सै ।।1।। देख कै थारे उपवन की रोण, किसे उत्साह से लागे होण, भजन बिन काया कौण काज की, मारी मरगी शर्म लाज की, के पटराणी धर्मराज की लज्जा तै ना सै ।।2।। तूं दो बात करै नै मोह तै, इब ना चालै काम ल्हको तै, लक्ष्मी भी हो तै कित भगवान सै, कित तेरे हाथ में फूल का चिन्ह सै, आगै घोर अन्धेरा बन सै, के चालण का राह सै ।।3।। देख कै गोरी धन तेरा हाल बदलग्या मुझ बन्दे का ख्याल, किसी सुथरी चाल नाड़ मैं झटका, बोलण तक का कोन्यां अटका, लखमीचन्द साज का खटका, चूंट-चूंट खा सै ।।4।। रागनी-6 भूलज्यागा पता जिले गाम और घर नै, देखैगा जब आंख्या खुलज्या म्हारे भी नगर नै ।।टेक।। बगैं सैं सौ-सौ मण की झाल, जचा ले एक जगह पै ख्याल, हंस बोल खेल चाल दूर करकै डर नै ।।1।। हमनै जिब हुरमत की चाही, वा झट मिलग्यी पिनी पिनाई, जिसमै काया रहै छिवाई, जरा देख बिस्तर नै ।।1।। तेरा जी चावै सो खाईए, राज कर किले मैं मोज उडाईए, म्हारे कैसी बीर चाहिए थारे जैसे वर नै ।।3।। लखमीचन्द उमर गई सारी, लूट ले या दुनिया बण-बण प्यारी, वै मुक्ति के अधिकारी जुणसे जाणै पद पर नै ।।4।। रागनी-7 भूप पुरंजन राज करैं थे ढंग नगरी तै न्यारे, उत्तर में एक स्वर्ग द्वारा आनन्द देवता सारे ।।टेक।। श्रवण सुमरण स्पर्श रस गन्ध दृष्टि देव बताए, लुब्धक पवन चलै पावक की सप्तम शिश्न बणाए, सर्व सृष्टि करै उपस्थित जन्म मरण संग धाए, अन्धे द्वार आसरै दो मन कै अन्तःकरण संग लाए, दस इन्द्री और पांच विषय नित रहै पुरंजन के प्यारे ।।1।। जब पुरंजनी मदिरा पिवै वो भी पीवण लागै, चलते-फिरते रोते हंसते ताल बजावै रागै, हर्ष शोक करै डरै तै गैल डरै भागती के संग भागै, बात करै संग साथ करै संग सोवै संग जागै, जब कोए से कै दुख होज्या मरे प्रेम के मारे ।।2।। नौकर चाकर काम करैं और आप कहै मैं करता, हर्ष शोक के समुन्दर के मैं अधम बिचालै तिरता, गर्म-सर्द दुख-सुख नै मानै भूख प्यास मैं घिरता, काम क्रोध मद लोभ मोह के बस मैं होकै फिरता, इस पुरंजन का धन खाया लूटकै ये छ: ठग ऊत करारे ।।3।। दस इन्द्री एक मन पांच विषय या पंचभूत की माया, त्रिगुण झगड़ा सत रज तम का पुरंजन संग दर्शाया, जीव साथ अविज्ञात आत्मा ब्रह्म स्वरूप कहलाया, सत चित आनन्द बड़ा दयालु चार वेद नै गाया, कहै लखमीचन्द श्री नारद जी नै न्यूं ब्रह्म ज्ञान विचारे ।।4।। रागनी-8 मन मूर्ख तेरी आंख खुलैं जब पूंजी सकल छली जागी, काल रूप की चाक्की मैं तेरी ज्यान की दाल दली जागी ।।टेक।। कंचनमय रथ स्वर्ण का ज्ञान के घोड़े जोड़ चल्या, पाप पुण्य दो पहिए बणा कै बैठ रथ मैं दौड़ चल्या, अहमता ममता की दो डण्डी अज्ञान जुए की ठौड़ चल्या, तीन धजा सत रज तम की घर से नाता तोड़ चल्या, बन्‍धन पांच प्राण संशय की स्याही अंग मली जागी ।।1।। बागडोर मन सारथी बुद्धि अन्तःकरण स्थान किया, मोह शोक की दो धुरी बणाकै पंच कर्म गत ध्यान किया, सात धात और पांच सामग्री विषय रूप सामान किया, स्वर्ण के वस्त्र पहन रजोगुण अक्षय धारणा बाण किया, करता भोगता मैं करणे से बन्धन फांस घली जागी ।।2।। दस अक्षोहिणी एक सेनापति जीव पुरंजन साथ लिए, पांच प्रकृति विषय राग-द्वेष के धनुष बाण कर हाथ लिए, ज्ञानवती सत बुद्धि को तज सोच विषय उत्पात लिए, महा निर्दयी कर चित राजा कर पशुओं के घात लिए, न्यूं नहीं सोच्या जीव घात जुल्म सै धर्म की टूट कली जागी ।।3।। श्रवण सुमरण कीर्तन अर्चन पूजन सेवन दास नहीं, आशा तृष्णा चिन्ता दुर्मत कुमत करी सत् आस नहीं, ताप दुख त्रिविध तजे शुभ-अशुभ भूख और प्यास नहीं, धीरज धर्म दया सत्संग बिन सिद्धि योग अभ्यास नहीं, कहै लखमीचन्द निष्कर्म करे बिन वृथा उमर चली जागी ।।4।।

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