ख़्वाब का दर बंद है : अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान 'शहरयार'

Khwab Ka Dar Band Hai : Akhlaq Mohammed Khan Shahryar



ख़्वाब का दर बंद है

मेरे लिए रात ने आज फ़राहम किया एक नया मरहला नींदों से ख़ाली किया अश्कों से फिर भर दिया कासा मिरी आँख का और कहा कान में मैं ने हर इक जुर्म से तुम को बरी कर दिया मैं ने सदा के लिए तुम को रिहा कर दिया जाओ जिधर चाहो तुम जागो कि सो जाओ तुम ख़्वाब का दर बंद है

आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई

आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई आँसुओं में भीग जाने की हवस पूरी हुई आ रही है जिस्म की दीवार गिरने की सदा इक अजब ख़्वाहिश थी जो अब के बरस पूरी हुई इस ख़िज़ाँ-आसार लम्हे की हिकायत है यही इक गुल-ना-आफ़्रीदा की हवस पूरी हुई आग के शो'लों से सारा शहर रौशन हो गया हो मुबारक आरज़ू-ए-ख़ार-ओ-ख़स पूरी हुई कैसी दस्तक थी कि दरवाज़े मुक़फ़्फ़ल हो गए और इस के साथ रूदाद-ए-क़फ़स पूरी हुई

ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है

ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है घर की ता'मीर तसव्वुर ही में हो सकती है अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है आज भी है तिरी दूरी ही उदासी का सबब ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है

तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है कि सारा शहर मिरे ख़्वाब से परेशाँ है मैं इस सफ़र में किसी मोड़ पर नहीं ठहरा रहा ख़याल कि वो वादी-ए-ग़ज़ालाँ है ये एक मैं कि तिरी आरज़ू ही सब कुछ है वो एक तू कि मिरे साए से गुरेज़ाँ है तो हाफ़िज़े से तिरा नाम क्यूँ नहीं मिटता जो याद रखना है मुश्किल भुलाना आसाँ है मैं उस किताब के किस बाब को पढ़ूँ पहले विसाल जिस का है मज़मूँ फ़िराक़ उनवाँ है

ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से

ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से ख़्वाबों की कोई दुनिया आबाद करें फिर से मुद्दत हुई जीने का एहसास नहीं होता दिल उन से तक़ाज़ा कर बेदाद करें फिर से मुजरिम के कटहरे में फिर हम को खड़ा कर दो हो रस्म-ए-कोहन ताज़ा फ़रियाद करें फिर से ऐ अहल-ए-जुनूँ देखो ज़ंजीर हुए साए हम कैसे उन्हें सोचो आज़ाद करें फिर से अब जी के बहलने की है एक यही सूरत बीती हुई कुछ बातें हम याद करें फिर से

नींद की ओस से, पलकों को भिगोए कैसे

नींद की ओस से पलकों को भिगोए कैसे ? जागना जिसका मुकद्दर हो वो सोए कैसे ? रेत दामन में हो या दश्त में बस रेत ही है | रेत में फस्ले-तमन्ना कोई बोए कैसे ? ये तो अच्छा है कोई पूछने वाला न रहा | कैसे कुछ लोग मिले थे हमें खोए कैसे ? रूह का बोझ तो उठता नहीं दीवाने से | जिस्म का बोझ मगर देखिये ढोए कैसे ? वरना सैलाब बहा ले गया होता सब कुछ | आँख की ज़ब्त की ताकीद है रोए कैसे ?

तेरे सिवा भी कोई मुझे याद आने वाला था

तेरे सिवा भी कोई मुझे याद आने वाला था मैं वर्ना यूँ हिज्र से कब घबराने वाला था जान-बूझ कर समझ कर मैं ने भुला दिया हर वो क़िस्सा जो दिल को बहलाने वाला था मुझ को नदामत बस इस पर है लोग बहुत ख़ुश हैं इस लम्हे को खो कर जो पछताने वाला था ये तो ख़ैर हुई दरिया ने रुख़ तब्दील किया मेरा शहर भी उस की ज़द में आने वाला था इक इक कर के सब रस्ते कितने सुनसान हुए याद आया मैं लम्बे सफ़र पर जाने वाला था

जुदा हुए वो लोग कि जिन को साथ में आना था

जुदा हुए वो लोग कि जिन को साथ में आना था इक ऐसा मोड़ भी हमारी रात में आना था तुझ से बिछड़ जाने का ग़म कुछ ख़ास नहीं हम को एक न इक दिन खोट हमारी ज़ात में आना था आँखों को ये कहते सुनते रहते हैं हर दम सूखे को आना था और बरसात में आना था इक लम्बी सुनसान सड़क पर तन्हा फिरते हैं वो आहट थी हम को न उस की बात में आना था ऐ यादो तुम ऐसे क्यूँ इस वक़्त कहाँ आईं किसी मुनासिब वक़्त नए हालात में आना था

देख दरिया को कि तुग़्यानी में है

देख दरिया को कि तुग़्यानी में है तू भी मेरे साथ अब पानी में है नूर ये उस आख़िरी बोसे का है चाँद सा क्या तेरी पेशानी में है मैं भी जल्दी में हूँ कैसे बात हो तू भी लगता है परेशानी में है मुद्दई सूरज का सारा शहर है रात ये किस की निगहबानी में है सारे मंज़र एक से लगने लगे कौन शामिल मेरी हैरानी में है

हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है

हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है अगर चराग़ किसी को जलाना होता है ज़बानी दा'वे बहुत लोग करते रहते हैं जुनूँ के काम को कर के दिखाना होता है हमारे शहर में ये कौन अजनबी आया कि रोज़ ख़्वाब सफ़र पे रवाना होता है कि तू भी याद नहीं आता ये तो होना था गए दिनों को सभी को भुलाना होता है इसी उमीद पे हम आज तक भटकते हैं हर एक शख़्स का कोई ठिकाना होता है हमें इक और भरी बज़्म याद आती है किसी की बज़्म में जब मुस्कुराना होता है

वहशत-ए-दिल थी कहा कम के बढ़ने आए

वहशत-ए-दिल थी कहा कम के बढ़ने आए किसलिए याद हमे बीते ज़माने आए.. दश्त खाली हुए जंज़ीर हुए दीवाने थी ख़ता इतनी के क्यू खाक उड़ाने आए.. क्या अज़ब रंग है दस्तूर भी क्या खूब है ये आग भड़काने कोई-कोई भुजने आए.. कोई आसान नही तर्क़-ए-तलूक करना बज़म-ए-यार मे अब यारो को भूलाने आए.. नक्श कुछ अब भी सरे जान दिल बाकी है तेज़ आँधी से कहो इनको मिटाने आए.. वहशत-ए-दिल थी कहा कम के बढ़ने आए किसलिए याद हमे बीते ज़माने आए

गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम

गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम दिल बहुत उदास है कि रो न पाए हम वजूद के चहार सम्त रेगज़ार था कहीं भी ख़्वाहिशों के बीज बो न पाए हम रूह से तो पहले दिन ही हार मान ली बोझ अपने जिस्म का भी ढो न पाए हम दश्त में तो एक हम थे और कुछ न था शहर के हुजूम में भी खो न पाए हम एक ख़्वाब देखने की आरज़ू रही इसी लिए तमाम 'उम्र सो न पाए हम

आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है

आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है ये राय अकेली मेरी नहीं है सब की है सुनसान सड़क सन्नाटे और लम्बे साए ये सारी फ़ज़ा ऐ दिल तेरे मतलब की है तिरी दीद से आँखें जी भर के सैराब हुईं किस रोज़ हुआ था ऐसा बात ये कब की है तुझे भूल गया कभी याद नहीं करता तुझ को जो बात बहुत पहले करनी थी अब की है मिरे सूरज आ! मिरे जिस्म पे अपना साया कर बड़ी तेज़ हवा है सर्दी आज ग़ज़ब की है

ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है

ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है तिरे बग़ैर भी ये रात ढलती जाती है उस इक उफ़ुक़ पे अभी तक है ए'तिबार मुझे मगर निगाह-ए-मनाज़िर बदलती जाती है चहार सम्त से घेरा है तेज़ आँधी ने किसी चराग़ की लौ फिर भी जलती जाती है मैं अपने जिस्म की सरगोशियों को सुनता हूँ तिरे विसाल की साअ'त निकलती जाती है ये देखो आ गई मेरे ज़वाल की मंज़िल मैं रुक गया मिरी परछाईं चलती जाती है

ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता

ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता मैं तुझ से जुदा हो के भी तन्हा नहीं होता इस मोड़ से आगे भी कोई मोड़ है वर्ना यूँ मेरे लिए तू कभी ठहरा नहीं होता क्यूँ मेरा मुक़द्दर है उजालों की सियाही क्यूँ रात के ढलने पे सवेरा नहीं होता या इतनी न तब्दील हुई होती ये दुनिया या मैं ने इसे ख़्वाब में देखा नहीं होता सुनते हैं सभी ग़ौर से आवाज़-ए-जरस को मंज़िल की तरफ़ कोई रवाना नहीं होता दिल तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे भी आमादा नहीं है और हक़ भी अदा इस से वफ़ा का नहीं होता

कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ

कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ तुझ से मिलना था कि मैं कुछ और भी तन्हा हुआ कोई पलकों से उतरती रात को रोके ज़रा शाम की दहलीज़ पर इक साया है सहमा हुआ मुंजमिद होती चली जाती हैं आवाज़ें तमाम एक सन्नाटा है सारे शहर में फैला हुआ आसमानों पर लिखी तहरीर धुँदली हो गई अब कोई मसरफ़ नहीं आँखों का ये अच्छा हुआ इस हथेली में बहुत सी दस्तकें रू-पोश हैं उस गली के मोड़ पर इक घर था कल तक क्या हुआ

मंज़र गुज़िश्ता शब के दामन में भर रहा है

मंज़र गुज़िश्ता शब के दामन में भर रहा है दिल फिर किसी सफ़र का सामान कर रहा है या रत-जगों में शामिल कुछ ख़्वाब हो गए हैं चेहरा किसी उफ़ुक़ का या फिर उभर रहा है या यूँही मेरी आँखें हैरान हो गई हैं या मेरे सामने से फिर तू गुज़र रहा है दरिया के पास देखो कब से खड़ा हुआ है ये कौन तिश्ना-लब है पानी से डर रहा है है कोई जो बताए शब के मुसाफ़िरों को कितना सफ़र हुआ है कितना सफ़र रहा है

मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना

मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना मिशअल-ए-जाँ को रौशन करना लेकिन इतना मत करना हक़-गोई और वो भी इतनी जीना दूभर हो जाए जैसा कुछ हम करते रहे हैं तुम सब वैसा मत करना पिछले सफ़र में जो कुछ बीता बीत गया यारो लेकिन अगला सफ़र जब भी तुम करना देखो तन्हा मत करना भूक से रिश्ता टूट गया तो हम बेहिस हो जाएँगे अब के जब भी क़हत पड़े तो फ़सलें पैदा मत करना ऐ यादो जीने दो हम को बस इतना एहसान करो धूप के दश्त में जब हम निकलें हम पर साया मत करना

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें बहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम को कभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखें सुकूत-ए-शाम से पहले की मंज़िल सख़्त होती है कहो लोगों से सूरज को न यूँ ढलता हुआ देखें हवाएँ बादबाँ खोलीं लहू-आसार बारिश हो ज़मीन-ए-सख़्त तुझ को फूलता-फलता हुआ देखें धुएँ के बादलों में छुप गए उजले मकाँ सारे ये चाहा था कि मंज़र शहर का बदला हुआ देखें हमारी बे-हिसी पे रोने वाला भी नहीं कोई चलो जल्दी चलो फिर शहर को जलता हुआ देखें

ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते

ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते इक पल भी अगर भूल से हम सो गए होते ऐ शहर तिरा नाम-ओ-निशाँ भी नहीं होता जो हादसे होने थे अगर हो गए होते हर बार पलटते हुए घर को यही सोचा ऐ काश किसी लम्बे सफ़र को गए होते हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है अज्दाद कहीं पेड़ भी कुछ बो गए होते किस मुँह से कहें तुझ से समुंदर के हैं हक़दार सैराब सराबों से भी हम हो गए होते

कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का

कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का नाम लेता ही नहीं वक़्त गुज़र जाने का जाने वो कौन है जो दामन-ए-दिल खींचता है जब कभी हम ने इरादा किया मर जाने का दस्त-बरदार अभी तेरी तलब से हो जाएँ कोई रस्ता भी तो हो लौट के घर जाने का लाता हम तक भी कोई नींद से बोझल रातें आता हम को भी मज़ा ख़्वाब में डर जाने का सोचते ही रहे पूछेंगे तिरी आँखों से किस से सीखा है हुनर दिल में उतर जाने का

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता किसी को क्या मुझे ख़ुद भी यक़ीं नहीं आता तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितमगर है जहाँ पे चाहिए आना वहीं नहीं आता जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे जो हो चुका है उसी पर यक़ीं नहीं आता ये मेरा दिल है कि मंज़र उजाड़ बस्ती का खुले हुए हैं सभी दर मकीं नहीं आता बिछड़ना है तो बिछड़ जा इसी दो-राहे पर कि मोड़ आगे सफ़र में कहीं नहीं आता

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर थी मैं वाक़िफ़ न था बे-सबब इल्ज़ाम मैं देता रहा बरसात को कैसी बस्ती थी जहाँ पर कोई भी ऐसा न था मुन्कशिफ़ मैं जिस पे करता अपने दिल की बात को सारी दुनिया के मसाइल यूँ मुझे दरपेश हैं तेरा ग़म काफ़ी न हो जैसे गुज़र-औक़ात को

ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा

ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा चेहरों के समुंदर से गुज़रते रहे फिर भी इक अक्स को आईना तरसता है हमारा उन लोगों से क्या कहिए कि क्या बीत रही है अहवाल मगर तू तो समझता है हमारा हर मोड़ पे पड़ता है हमें वास्ता इस से दुनिया से अलग कहने को रस्ता है हमारा

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