कविता से लंबी कविता : विनोद कुमार शुक्ल

Kavita Se Lambi Kavita : Vinod Kumar Shukla


रायपुर बिलासपुर संभाग

रायपुर बिलासपुर संभाग हाय! महाकौशल, छत्तीसगढ़ या भारतवर्ष इसी में नाँदगाँव मेरा घर कितना कम पहुँचता हूँ जहाँ इतना ज़िंदा हूँ सोचकर ख़ुश हो गया कि पहुँचूँगा बार-बार आख़िरी बार बहुत बूढ़ा होकर ख़ूब घूमता जहाँ था फलाँगता उतने वर्ष उतने वर्ष तक उम्र के इस हिस्से पर धीरे-धीरे छोटे-छोटे क़दम रखते ज़िंदगी की इतनी दूरी तक पैदल कि दूर उतना है नाँदगाँव कितना अपना! स्टेशन पर भीड़ गाड़ी खड़ी हुई झुंड देहाती पच्चासों का रेला आदमी-औरत लड़के-लड़की गंदे सब नंगे ज़्यादातर कुछ बच्चे रोते बड़ी ज़ोर से बाक़ी भी रुआँसे सहमे जुड़े-सटे एक दूसरे से इकट्ठे कूड़े-कर्कट की गृहस्थी का सामान लाद मोटरा, पोटली, ढिबरी, कंदील लकड़ी का छोटा-सा गट्ठा एक टोकनी में बासी की बटकी हंडी दूसरी में छोटा-सा बच्चा छोटी सुंदर नाक, मुँह छोटा-सा प्यारा बहुत गहरी उसकी नींद भविष्य के गर्भ में उलटा पड़ा हुआ बहुत ग़रीब बच्चा वर्तमान में पैदा हुआ। भोलापन बहुत नासमझी!! पच्चासों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में लपकते वही फिर एक साथ दूसरे डिब्बे में एक भी छूट गया अगर गाड़ी में चढ़ने से तो उतर जाएँगे सब के सब। डर उससे भी ज़्यादा है अलग-अलग बैठने की बिल्कुल नहीं हिम्मत घुस जाएँगे डिब्बों में ख़ाली होगी बेंच यदि पूरा डिब्बा तब भी खड़े रहेंगे चिपके कोनों में या उकड़ूँ बैठ जाएँगे थककर नीचे डिब्बे की ज़मीन पर। निष्पृह उदास निष्कपट इतने कि गिर जाएगा उन पर केले का छिलका या फल्ली का कचरा तब और सरक जाएँगे वहीं कहीं जैसे जगह दे रहे हों कचरा फेंकने की अपने ही बीच। कुछ लोगों को छोड़ बहुतों ने देखा होगा पहली बार आज रायपुर इतना बड़ा शहर आज पहली बार रेलगाड़ी, रोड रोलर, बिजली नल छोड़कर अपना गाँव जाने को असम का चाय बगान, आज़मगढ़ कलकत्ता, करनाल, चंड़ीगढ़ लगेगा कैसा उनको, कलकत्ता महानगर!! याद आने की होगी बहुत थोड़ी सीमा— चंद्रमा को देखेंगे वहाँ तो याद आएगा शायद गाँव के छानी छप्पर का, सफ़ेद रखिया आकाश की लाली से लाल भाजी की बाड़ी नहीं होगी ज़मीन जहाँ जरी खेड़ा भाजी आँगन में करेले का घना मंडप जिसमें कोई न कोई हरा करेला छुपकर हरी पत्तियों के बीच टूटने से छूट जाता दिखलाई देता जब पककर लाल बहुत हो जाता— देखेंगे जब पहली बार सुबह-शाम का सूरज छूटकर रह गया वहाँ दिन छूटकर सुबह-शाम का सूरज। दूर हो जाएगी गँवई, याद आने की अधिकतम सीमा से भी क्षितिज के घेरे से मज़बूत और बड़ा कलकत्ते का है घेरा कि अपनी ही मजबूरी की मज़दूरी का ग़रीबी अपने में एक बड़ा घेरा। नहीं, नहीं मैं नहीं पहुँच सकूँगा नाँदगाँव मरकर भी ज़िंदा रह टिकट कर दूँ वापस चला जाऊँ तेज़ भागते गिरते-पड़ते हाँफते देखूँ झोपड़ी एक-एक कितनी ख़ाली क्या था पहले क्या है बाक़ी छूट गई होगी धोखे से साबुत कोई हंडी पर छोड़ दिया गया होगा दु:ख से पैरा तिनका तक अरहर काड़ी एक-एक। समय गुज़र जाता है जैसे सरकारी वसूली के लिए साहब दौरे पर फ़िलहाल सूखा है इसलिए वसूली स्थगित पिटते हुए आदमी के बेहोश होने पर जैसे पीटना स्थगित। देखना एक ज़िंदा उड़ती चिड़िया भी ऊँची खिड़की से फेंक दिया किसी ने मरी हुई चिड़िया बाहर का भ्रम कचरे की टोकरी से फेंका हुआ मरा वातावरण मर गया एक बैल जोड़ी की तरह एक मुश्त रायपुर और बिलासपुर इस महाकौशल कहूँ या छत्तीसगढ़!! मर गया प्रदेश मर गई जगह पड़ी हुई उसी जगह उत्तर प्रदेश राजस्थान बिहार कर्नाटक आंध्र बिखर गई बैलों की अस्थिरपंजर-सी सब ज़मीन उत्तर से दक्षिण ज़मीन के अनुपात से आकाश को गिद्ध कहूँ इतना भी नहीं काफ़ी जितना, अकेला एक गौंठिया काफ़ी फिर मरे हुए दिन की परछाईं रात अँधेरी। शब्द खेत शब्द पत्थर। मेड़ के नीचे धँसे पत्थर बल्कि चट्टानें फ़ॉसिल हुई फ़सलें दृश्य तालाब का गड्ढे का दृश्य साफ़ है तालाब का पंजर पपड़ाया हुआ मन तालाब का भीतरी जिसमें सूखी हरी काई की परत सूख गया हरा विचार तालाब का पार के ऊपर जाकर मंदिर के पास खड़ा किसी पेड़ का जैसे एक पुराना बरगद पेड़ का नीम सूखा ‘था एक पेड़’ की कहानी की शुरुआत लकड़ी के पेड़ के बबूल पीपल लकड़ी की अमराई। एक ग़रीब खेतिहर के बेदख़ल होते ही छूटकर रह गई ज़मीन ज़मीन का नक़्शा होकर टँग गई ज़मीन दीवाल पर कि हिमालय एक निशान हिमालय का नक़्शे में नदियाँ बड़ी-बड़ी बस चिह्न नदियों के पुल, रेलगाड़ी की पटरी, सड़क और निशान समुद्रों के नक़्शा पूरा टँगा हुआ देश का दीवाल पर कहाँ नाँदगाँव उसमें मेरा घर बहुत मुश्किल ढूँढ़ने में पार्री नाला, नदी मुहारा रास्ता पगडंडी का घर आँगन, एक पेड़ मुनगे का अजिया ने जिसे लगाया था दो पेड़ जाम के बापजी, बड़े भय्या के, और चाचा की छाया, अम्मा से तो एक-एक ईंट घर की और चूल्हे की आगी बहुत थककर एक कोने में पड़ जाती, बहुत मुश्किल इन सबका उल्लेख नक़्शे में। नहीं कोई चिह्न तालाबों में खिले हुए कमल का तैरती छोटी-छोटी मछली झींगा, सिंगी, बामी, कातल कूदते नंग-धड़ंग छोटे-बड़े, गाँव के लड़कों का तकनीकी तौर पर भी मुश्किल यह सब नक़्शे में जब गाँव बहुत से और छोटे-छोटे हों ग़रीब करोड़ों और रईस थोड़े हों जब तक न वहाँ बड़े कल-कारख़ाने या बाँध ऊँचे हों। बिना जाते हुए प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े-खड़े जब याद आते हैं नाँदगाँव पहुँचने के छोटे-छोटे से देहाती स्टेशन इधर से रसमड़ा, मुड़ीपार, परमालकसा उधर से मुसरा, बाँकल तब लगता है मैं कहीं नहीं बस निकाल दिया गया दूर कहीं बाहर सीमा से— निहारते नक़्शे को नक़्शे के बाहर खड़े-खड़े लिए हाथों में एक झोला एक छोटी पेटी का अपना वज़न— फिर थककर बैठ जाता हूँ पेटी के ऊपर और इस तरह खड़े-खड़े थकने से पछताता हूँ— कि तालाब की सूखी गहराई के बीच मैं भी तालाब का कोई छोटा-सा जीवित विचार दिखूँ ज़िंदगी में गीले मन से रिसता हुआ पीपल की गहरी जड़ों को छूता खेत के बीच कुएँ के अंदर झरने-सा फूटूँ मेहनत के पसीने से भीग जाऊँ पलटकर वार करते हुए बुरे समय के बाढ़ के पानी को दीवाल-सा रोकता बाँध का परिचय दूँ कि मैं क्या हूँ आख़िर मेरी ताक़त भी क्या है बाढ़ को रोकने वाली दीवाल छोटे से गाँव के तालाब का छोटा-सा विचार है बिखर गए एक-एक कमज़ोर को इकट्ठा करता हुआ ताक़त का परिचय दूँ कि मैं क्या हूँ मेरी ताक़त भी क्या है इकट्ठी ताक़त को एक-एक कमज़ोर का विचार है। गूँजी तब गाड़ी की तेज़ सीटी कानों में हवा साँय गूँजी अँधेरे अधर में लहर गई एक हरी बत्ती किसी ख़ूँख़ार जानवर की अकेली आँख अँधेरे में हरी चमकी चलने को है अब हरहमेश की रेलगाड़ी हड़बड़ाकर मैं पेटी से उठा कि हाथ का झोला छिटक दूर जा पड़ा गिर गया टिफ़िन का डिब्बा झोले से बाहर लुढ़कता खुलता हुआ रोटी और सूखी आलू की सब्ज़ी को बिखराता ढक्कन अलग दूर हुआ अचानक तब इकट्ठे भूखे-नंगे लड़कों में होने लगी उसी की छीना-झपटी मेरी छाती में धक्-धक् मेहनत को आगे भूख का ख़तरा हरहमेश काँप गए पैर अरे! रोक दो मत जाने दो मजबूर विस्थापित मज़दूरों को कहाँ गया लाल झंडा! लाल बत्ती!! गाड़ी रोकने को आ क्यों नहीं जाता सामने सूर्योदय लाल सिग्नल-सा खींच दे उनमें से ही कोई ज़ंजीर ख़तरे की या पहुँचे कोई इंजन तक कर ले क़ब्ज़ा गाड़ी के आगे बढ़ने पर पलटा दे दिशा गाड़ी की कूदें सब खिड़की-दरवाज़े से डिब्बे की लौटें लेकर फ़ैसले का विचार लश्कर छोड़ दें पीछे मोह कचरे की गृहस्थी का टट्टा कमचिल बासी की बटकी हंडी भी पर भूल न जाएँ ढिबरी कंदील ज़रूरत अँधेरे में रास्ता ठीक देखने की। एक ग़रीब जैसे हर जगह उपलब्ध आकाश पर गोली का निशान गोल सूरज रिसता रक्त पूरब कोई सुबह उसी सुबह एक ज़िंदा चिड़िया का हल्ला देखने को टोलापारा उमड़ा सुनाई देती है सीटी उस चिड़िया की बुलबुल ही शायद दिखलाई नहीं देती कहाँ है? कहाँ है? एक ने कहा—मुझे दिखी उसे घेरकर तुरंत जमघट हुआ चिड़िया बुलबुल दिखाने को बच्चों को कंधे पर बैठाए लोग इस तरह भविष्य तक ऊँचे लोग सबकी इशारे पर एकटक नज़र उधर वहाँ ‘था एक पेड़’ की कहानी का जहाँ ख़ात्मा नहीं चला होगा लंबा क़िस्सा समाप्त बीच में ही हुआ होगा वहीं सुरक्षित पीपल का एक बीज अंकुर ‘एक पेड़ है’ कहानी की शुरुआत उसी पेड़ पर जिस पेड़ की फुनगी को सारे आकाश का निमंत्रण। हरा मुलायम हरा ललछौंह चमकते नए पत्ते के बीच बस, उसी पेड़ पर।

विचारों का विस्तार इस तरह हुआ

विचारों का विस्तार इस तरह हुआ— जिस दिशा में एक मरियल आदमी मुरम खोद रहा दिन भर से धूप में पुरानी ज़ंग खाई लोहे जैसी मज़बूत मुरमी तपती ज़मीन से उस आदमी के साथ एक लड़का आबादी जैसा भूखा उघारा दुबला खुदी हुई मुरम को जो घमेले में भरकर बैलगाड़ी में डाल रहा उन दोनों तक पहुँचने के लिए पेड़ की छाया शाम-शाम को बहुत चाहकर उनकी दिशा में कुछ लंबी होकर रह गई। बुलबुल तो गाने वाला भूरे रंग का फूल खंजन मैना भी पेड़ में इसीलिए तो उड़ गई। दु:ख हुआ हरे-भरे पेड़ से कि पत्तियाँ सैकड़ों आकर बैठ गई होंगी झुंड में चिड़ियों के साथ हरि पत्तियों का बसेरा वह जो अब इसलिए पेड़ हरा एक पत्ती एक चिड़िया लगी पीली पत्ती जो पेड़ से अलग हुई हवा में गिर पड़ी चिड़िया पीली एक पत्ती गई एक पत्ती की छाया गई। पेड़ में स्थिर बैठी चिड़िया पेड़ के हिस्से के समान और पेड़ पर बैठने के लिए कहीं दूर उड़ती चिड़िया भी पेड़ का उगा हुआ विस्तार हवा में उड़ता सीटी-सी बजा ओझल हुआ। —एक चिड़िया गई एक चिड़िया की छाया गई पेड़ की छाया टुकड़े-टुकड़े चिड़ियों की छाया होकर चली गई चिड़ियों के साथ। उड़कर चली जाएगी हरियाली हरी पत्तियों का झुंड हरी झाड़ी असंख्य बीज चिड़ियों के झुंड के साथ भरी नदी के किनारे जंगलों में, बाक़ी होगा ठूँठ इस चटियल मुरमी मैदान पर हरियाली गई हरियाली की छाया गई। दृश्य धुँधले हैं धुँधलके में, एक-एक कर नहीं एक साथ धीरे-धीरे जो दिख रहा है वह धुँधला जो ओझल धुँधलके में ओझल है। चिड़िया बहुत छोटी धुँधला आकाश भी धुँधला एक तारा धुँधलके में शाम का, पर दूर से आती हुई ओझल बैलगाड़ी के बैलों की घंटी की आवाज़ कहाँ धुँधली इसीलिए तो एकबारगी दिखने वाली शाम के तारे पर दृष्टि गई कि घंटी वही तारा है धुँधले आसमान के गले में काँसे की, पर जितना बड़ा गला आसमान का उस हिसाब से घंटी छोटी है चंद्रमा ठीक है। आसमान छुट्टा पता नहीं किसने छोड़ा जुगाली करता हुआ पसरा सारी दुनिया की हरियाली में मुँह मार सकने लायक़ भारी भरकम सारी फ़सलें सारे जंगल उसकी तरफ़ उन्मुख वह धीरे-धीरे आता हुआ ज़मीन की तरफ!!! अगर जहाँ का तहाँ तो बँधा हुआ खूँटे में है, जुतने के लिए कभी मुरम खोदने वाले की बैलगाड़ी में और यदि आ रहा होगा तो शायद जुत गया होगा जोड़ी के लिए दूसरा आसमान भी साथ होगा। एकदम सन्नाटे में उभरकर स्पष्ट बैलगाड़ी के आने की आवाज़ का इस तरह विस्तार हुआ —एक अकेला पेड़ पथरीले मैदान पर निपट अकेला होता है अंकुर से होकर सूख जाने तक उसी जगह वहीं हिलता-डुलता पिंजड़े में एक हरा तोता जैसा दो पेड़ ज़्यादा से ज़्यादा पिंजड़े में जोड़े जैसे होंगे। —सब तरफ़ जाने के लिए पेड़ का क़दम अगला एक दूसरा पेड़ ही होगा एक पेड़ का आगे बढ़ते जाने का मतलब सिलसिला पेड़ों का संगठन की हरियाली का सुख। —पहाड़ जैसा स्थाई रुका हुआ बढ़ जाता है दीवाल की तरह श्रेणियों में संगठित, —सतपुड़ा की श्रेणी विंध्याचल संगठित हों हम भी पर नहीं छोड़नी हमको ख़ैबर की घाटी ख़ाली कोई जगह, हिमालय से बेहतर। —बाहर यदि कहीं धूप में टँगा तोते का पिंजरा तब भी पिंजड़े के अंदर होता है ऊपर से पिंजड़े की छाया के अंदर तोते की छाया होगी पिंजरे की छाया में एक कटोरी की छाया मिर्ची की छाया अधखाई होगी। बैलगाड़ी के आने की आवाज़ का और विस्तार हरे-भरे पेड़ को हरा-भरा पेड़ सोचने का अभ्यास होना ज़रूरी है पेड़ दिख रहा है धुँधलके में पर हरा भरा है रात में भी हरा-भरा होगा हरियाली के विश्वास का विस्तार नन्ही चिड़िया से होगा— एक पेड़ से दूसरे पेड़ इस मुहल्ले उस मुहल्ले एक छोर से अंतिम छोर बिजली के तार टेलीफ़ोन के खंबे कुएँ की मुँडेर रहट इस तरफ़ उस तरफ़ कारख़ाने दफ़्तर गौरय्या घर-घर आने वाली बैलगाड़ी के पहिए की यह घरर-घरर आवाज़। मेरा विचार!! भूकंप के पहले ज़मीन के अंदर दबी हुई गड़गड़ाहट का शक ज़मीन में धमक ज़मीन काँपती हुई कि यह कोई और बैलगाड़ी है!! मुरम भरकर ले जाने वाली नहीं पर है मुरम खोदने वाले की जिसकी आवाज़ से भयानक लू में ठंडी लहर चली नमी और हरियाली की गंध नदियों, खेतों और ख़ुशहाल आबादी वाली हज़ारों मील के दृश्य के एक साथ उभरने की आवाज़ बहुत ज़ोर की कहीं बारिश के अंदर से गुज़र भीगी-भीगी ठंडी हवा इधर— उस बारिश की पहुँची यहाँ ख़बर, हवा में उड़ता मीलों दूर भविष्य से आया जैसा एक बूँद पानी चेहरे पर चेहरे पर पूरे पानी का अनुभव, मेरे पते पर एक बूँद पूरा वातावरण जिसमें पोस्टकार्ड ठंडी हवाओं का बहुत दिन बाद मिला आने वाली सबकी कुशलता और अनगिनत अच्छे समाचारों का आभास देने वाला कोई संकेत अक्षर, संबंध अक्षर— बारिश की एक बूँद। चार-आठ बूँद पड़ते ही मैंने सोच लिया एक वाक्य —अच्छा समय दूसरे वाक्य फिर— मिल-जुलकर ख़ुश बहुत। कल की थोड़ी बेफ़िक्री मौसम इतना अच्छा कि खिलखिलाता लड़का अढ़ाई साल का नंग-धडंग दौड़ता निकल आया घर से बाहर, पीछे-पीछे हाथ में चड्डी लिए दौड़ती पत्नी आई मुझसे शिकायत करती बेटे की सुनकर मैं बेटे के पीछे दौड़ा पर जान-बूझकर धीरे-धीरे ताकि कुछ देर उसे आगे तक और दौड़ने दूँ उसके पीछे धीरे-धीरे मैं दौड़ूँ पत्नी भी दौड़े— बुढ़ापे में बेटे के पीछे दौड़ नहीं पाएँगे पर जहाँ वह होगा साथ वहाँ होंगे आगे-आगे मौसम इतना अच्छा। इसी तरह बूँदा-बाँदी कुछ देर मैं लिखता रहा! कुछ देर मैं लिखता रहूँ —आने वाली बैलगाड़ी में जुते होंगे अड़ियल बैल से बुरे दिन मज़बूत पुट्ठे के भारी सींग तेल में चमकते काले बैल काले दिन पसीने से भीगे सुमेला तोड़ने की कोशिश गाड़ी उलटा देने की फ़िराक़ पर काबू में होंगे हाँकता होगा मुरम खोदने वाला और खड़ा होगा बाज़ू में लड़का ललकारते हुए बैलों को ताक़त से पूँछ मरोड़ ''हई! हई! बईला सम्हल गड़बड़ करने से डर जल्दी चल आगे बढ़।’' मज़बूत विशाल संगठन की ताक़त से धीमे-धीमे बढ़ती हुई बैलगाड़ी परंतु भविष्य के अच्छे समय को लादकर पहुँचने के लिए वाली गति। लदा होगा टूट-फूटकर पहाड़ वह गाड़ी के एक कोने में, जो ज़िंदगी के रास्ते में अड़ा है रास्ता जिससे मात्र कुछ क़दम चारों तरफ़, रास्ता एक कमरा जैसा बल्कि गुफा जैसा चट्टानों से बंद। टूटने से पहाड़ के निकल बाहर आया होगा पहाड़ जैसै वज़न से सैकड़ों साल का पिछड़ा दबा हुआ ग़रीब छोड़कर पीछे अपनी पुरातत्त्व हुई ग़रीबी सारे उसके अवशेष खंडित पैर टूटी नाक टूटी भुजा बचा हुआ धड़— पेट के साथ शामिल होते बारिश की दुनिया में अपनी मज़बूत भुजाओं से ताक़तवर कंधे पर लेकर हल मेड़ों से उतर खेतों पर। और बैलगाड़ी में होंगे हँसते अपने सब मुस्काते ग़रीब बुलबुल ग़रीब खंजन मैना ग़रीब गौरय्या औरत बच्चे बूढ़े। एक बच्चा जो बैठा होगा टूटे पहाड़ के ढेर की चोटी पर पूछेगा दादा से— पहाड़ को फेंक क्यों नहीं देते गाड़ी से नीचे मुरम की खदानों में? '‘अरे! नहीं!!’' दादा बोलेंगे— ''रास्ते में जगह-जगह आदमियों की उत्सुक भीड़ मिलेगी जिस ख़तरनाक ऊँचाई से डरते थे उसको मरा हुआ टूटा-फूटा देख लेने की उसमें ललक होगी।'' सुनकर सब बच्चे ख़ुश होकर ताली बजाते दौड़ पड़ेंगे खेलने पहाड़ के टूटने से फूट पड़े सोते और झरनों में। गूँजी तब विचारों के विस्तार में गाने की आवाज़ गंभीर मुरम खोदने वाले की भर्राई मोटी लड़के की मधुर मीठी उस आवाज़ का मैं इस तरफ़ विस्तार हुआ और गाने लगा ज़मीन की स्थिरता के संयम से भविष्य की ख़ुशहाली की साँसों को खींचकर आसमान की ऊँचाई को ध्यान में रख मुट्ठा भींचे धीरे-धीरे ''निकल पड़े बाहर बेघर के बंद खिड़की दरवाज़े से झुग्गी-झोपड़ी गटर नाली से, दया और माँगे हुए वक़्त से बाहर कूदकर छीन लें अपना वक़्त अपने कारख़ाने बग़ीचे अपने घर अपनी घास तिनके तक निकल पड़ें शामिल होने उनमें जो इकट्ठे हैं नदी को साथ लाने चटियल मुरमी मैदान पर।'' जल्दी ऐसी कि— ख़ुशबू बौर की पहले आई अमराई बाद में होने के लिए साथियों की ख़बर पहले आई बाद में साथी पहुँचने के लिए, अच्छे भविष्य का विश्वास पहले अच्छा भविष्य बाद में होने के लिए काम करने की शुरुआत पहले काम ख़त्म करने के लिए। बुलबुल तो गाने वाला भूरे रंग का फूल खंजन मैना भी— इस पेड़ उस पेड़।

तीन मीटर ख़ुशबू के अहाते में उगा हुआ गुलाब

तीन मीटर ख़ुशबू के अहाते में उगा हुआ गुलाब ख़ुशबू के अहाते को बिखेर या कतर कर कुछ इस तरह कोट बन गया कि गुलाब का फूल कॉलर में उगा है जब मैंने गुलाब का फूल तोड़ा जब मुझे तफ़रीह करनी थी तब मुझे एक कोट बनवाना था तब मुझे एक क़मीज़ भी बनवानी है जब मुझे पंद्रह रुपए ख़र्च करने हैं वे रुपए कहाँ हैं? मेरी बचत का रुपया हर बार ख़र्च हुआ बाप के उधारखाते में मेरा नाम दर्ज हुआ जब भी थोड़ा तंदुरुस्त हुआ बहुत बीमार हुआ। ख़ुशबू का पारदर्शक कोट पहनकर ज़िंदगी का अजीब जोकर लगता हूँ अंदर वही पुरानी क़मीज़ उसमें बाप जी को लिखा एक पोस्टकार्ड कि यहाँ सब ठीक। पोस्टकार्ड डालना कुछ दिनों से भूल रहा था उसकी दृष्टि की पहली ठोकर से उछलकर लाल डिब्बे के सामने आकर खड़ा हुआ चौकन्ना चुस्त!! चिट्ठी डाल देता हूँ बड़ा काम होता है ज़िंदगी से मेरे ठीक होने की ख़बर मुझसे अलग होती है जो मुझसे जुड़ी नहीं थी उस ख़बर के न जुड़ने का पैदाइशी निशान कहीं ज़रूर है या वह पूरा मैं हूँ— अच्छा नाक-नक़्शा नहीं पक्का नहीं कि पहली जनवरी को पैदा हुआ छुटपन में गिरने के कुहनी-घुटनों में निशान हैं पीठ में फोड़े बहुत निकलते हैं आप कैसे हैं? कितने बाल-बच्चे हैं? अत्र कुशलम् तत्रास्तु!! परम पिता परमेश्वर की अनुकंपा से हमारा आपका उपनयन संस्कार भी हुआ है बिसाहू, हरवाहा, चरवाहा की मिट्टी पलीद है। चिट्ठी के अलावा मेरे पते पर पहुँचने के पहले गोल बाज़ार की सड़क स्टेडियम में बदलती है ऊँचे छज्जों, बालकनी, गैलरी दुमंज़िले, तिमंज़िले में बैठे घूमते लोगों के लिए मेरे पते पर पहुँचने का उनका खेल शुरू होता है! समय से पहले ख़त्म होने का एक मैच— उनकी दृष्टि की हॉकी स्टिकों के बीच पूरी लंबाई के ऊपर उछला तना हुआ अपना गोल सिर बचाता फिरता अपनी आँख बचाता हुआ ग़ुस्से से ऊपर तकता हूँ पैर बचाता हुआ कुचल देने के लिए लात घुमाता हूँ हवा में घूँसे गोया हवा को घूँसे गोया उनकी साँस को चोट! “हो! हो! शाबाश! बचके ज़ोर लगाओ! अभी मरे नहीं। कोशिश करो। तंदुरुस्त हो। कुछ नहीं बिगड़ा। लेकिन बचोगे नहीं!” मकानों की खुली खिड़कियों से लाउडस्पीकर से आवाज़ आती है फुसफुसाकर मैं भी कहता हूँ कि कोशिश करूँगा और बचूँगा। यद्यपि दोस्त से मिलने की जगह मालूम है लेकिन दोस्त का ठिकाना नहीं साहूकार का ठिकाना मालूम है भूगोल मालूम है अमरीका मालूम है साहूकार बहुरूपिया, बहुत रुपया मालिकों का मालिक या नौकरों का नौकर सैकड़ों जोड़ी जूते वाला दो पैर का जानवर— नंगे पैर का आदमी जिसकी फ़िराक़ में बड़ी मेहरबानी! झोपड़ी बनाने के लिए क़र्ज़ देकर ब्याज में झोपड़ी ले लेता ज़मीन ले लेता प्रदेश ले लेता फिर भी बेघर के दरवाज़े को खटखटाकर कभी भी कहीं से भी बरामद करवाकर क़र्ज़ वसूलने का उसका दावा दिन के उजाले में हमें निकालता रात के अँधेरे में बंद कर देता या लोग कोई झोपड़ी नहीं के अंदर जाकर कोई दरवाज़ा नहीं को बंद कर लेते कोई खिड़की नहीं को खोल लेते या छोटा-सा झरोखा भी नहीं के पास आकर बैठ जाते हैं दुनिया देखते हैं। गोल बाज़ार की सड़क में तालियों के बीच अपनी पत्नी से मैं खाना परोसने के लिए कहता हूँ एक पूरी थाली— अरहर की दाल, रोटियाँ, चटनी, ख़ुशबूदार चावल रसेदार गोभी, बढ़िया थाली उनकी कोशिश होती है कि दिमाग़ में उतरे ताकि पेट और दिमाग़ का काम एक होकर गहराई से सोचना गू हो जाए। बाज़ू के घर की छत में लाइन से बैठे काले कव्वों के झपटने के लिए आम थाली नहीं ये विचार से रोटी को झपटकर उड़ जाने को तैयार बैठे तत्पर नुकीली तेज़ चोंच इनकी है विचारों की गहराई तक धँसाकर नोचने बैठे काले कव्वे भगाने से नहीं भागते हैं—पत्नी कहती है भगाने से नहीं भागते हैं—मुहल्ले के लड़के कहते हैं मैं कुछ भी नहीं कहता कोई कुछ नहीं कहता तब भी सब सुनते हैं —इनको भगाते रहो ज़रूरी विचारों से मज़बूत बनो मरे हुए कव्वों की खाल ओढ़कर साहूकारों की जमात इकट्ठी है। बहुतों की खोल में हीरे की बटन लगी है छत पर कव्वे इकट्ठे होने के अंधविश्वास का सहारा ले मेहमान बनकर मुहल्ले में आएगा उड़कर नहीं, पैदल चलकर आएगा उनकी पेटी में कव्वों की खाल होगी जो अधनंगे बच्चों की भेंट होगी खिलौने घुनघुने होंगे। इनको भगाते रहो। शायद वह मुझसे भी कहे कि कॉलर में लगा गुलाब का फूल मुरझा गया है बहुत तफ़रीह हो गई दस-पाँच रुपया बचने से कुछ नहीं होगा क़मीज़ सिलवाने के बदले कव्वे की खाल ओढ़कर जमात के साथ बैठूँ काँव! काँव!! बोलना सीखूँ! वह मुझे डाँटेगा, धमकी देगा कि मैंने गुलाब का फूल क्यों तोड़ा था फिर वह कान में इत्र का फाहा खोंस बग़ीचा समारोह में शामिल होगा तब बादल से सूरज, मोटर की डिकी से, जैसे निकलेगा उनके वातावरण को रंगीन बना देगा वातावरण में डिस्टेंपर!! वातावरण की बाहरी दीवालों पर ऊँगली फिराने से कोई रंग नहीं आता उनके वातावरण में अंदर जाने की मनाही है लेकिन मिट्टी में हाथ रखने से मिट्टी का रंग नहीं मिट्टी आ जाती है क्या यह गंदगी है? लीख से भरे बालों वाले लड़के के चेहरे में मैल की परत— मैल की परत का नक़ाब! नक़ाबपोश, चोर, डाकू उचक्का, गँवार, ग़ुंडा वह ग़रीब का लड़का।... बहुत से उदाहरण थे उदाहरणों की भीड़ कविता में आने की उनकी धकापेल मची बड़ा ग़ुस्सा किसी की नाक फ़ाउंटेनपेन लिखना सूँघने के समान इसलिए ख़ुशबू सूँघ से अदृश्य होकर ख़ुशबू बोलकर कान उसको आँख की तरह देखता सुनता है इस तरह का कारोबार पूरा चेहरा बिगड़ा है। तब मैं उसकी पहली करतूत के उदाहरण को ढूँढ़ने के लिए सब कुछ उलटकर पहले अपनी तलाशी लेता हूँ ख़ुद उदाहरण होने से बचता केवल दो मिनट बंद दीवाल घड़ी की तरफ़ देखता कि कितनी देर तक ख़त्म हुआ समय क़ायम रहता है इस तरह दो मिनट बर्बाद करता हूँ। अपनी तलाशी लेते मैं एक नई कविता शुरू करता तो वह हज़ारों कविता की पृष्ठभूमि तैयार कर देता है— अकेले मेरे बस का नहीं पूरी कविता पूरी कार्रवाई नहीं पोटली में दो किलो चावल नहीं यह ज़मीन पर गिरे दो किलो चावल के एक-एक दाने को बीनकर मुहल्ले के लोगों के द्वारा इकट्ठा करने का इस तरह पेट से ज़्यादा समूह की ताक़त बढ़ाने का हिसाब है उस आदमी को दौड़कर पकड़ना है धक्का देकर पोटली का चावल गिराना जिसका काम है मेरा कविता के अलावा क्या कविता का काम है!! मुहल्ले के लड़को, आओ बहुत ज़रूरी काम है— एक-एक कर जिसको जब भी मौक़ा मिले अकेले से अच्छा किसी को साथ लाना है पूरे मोहल्ले को गोल बाज़ार में आना है किसान गंज में ख़रीददार दुकानों में बरसों के मुनाफ़े को तुरंत घाटे में मेहनत को मुस्कराहट में सोने को बनते हुए ताप बिजलीघर में जिसकी चिमनी में उगा मधुमक्खी का छत्ता या दिमाग़ में डंक मारने वाले विचारों का शहद-छत्ता डंक मारने वाले विचारों को फैलाना है ज़रूरी काम है। उसकी पहली करतूत के उदाहरण को ढूँढ़ते समय जैसे गुम हो गई पहले की कविता ढूढ़ने के लिए सब कुछ उलट-पुलट बिखरा न मालूम कहाँ वह गुप्त कविता फ़रार कविता किस घूरे में फिंकी बहुत नुक़सान हुआ काम पर जाने में देर हुई पत्नी से पहले डाँट-डपट पूछा फिर उसके उदास होने पर पछताया जबकि वह लिखी गई कविता नहीं लिखी जाने वाली कविता होती है। कई दरवाज़े वाले गोल कमरे की तरह एक विशाल उदाहरण का बहुत छोटा कमरा पर इतने दरवाज़े खिड़कियाँ झरोखे जिनके खुले होने पर यह कमरा शामिल मैदान लगता है— खुले दरवाज़े का घेरा दस बाई ग्यारह का क्षितिज कमरा बिल्कुल शुरू लगता है। उदाहरण होने से बचता हुआ क्षितिज कमरे के अंदर घुसकर उदाहरणों की बैठक में कविता लिखने मित्रों और दुश्मनों को जवाबदेह हूँ इन्हीं के बीच वह ग़रीब का लड़का जैसे परिचितों के बीच बेफ़िक्र होकर खेलता दिखता है वैसे नंग-धड़ंग लेकिन प्रतीकों के बाबासूट में कहीं जाने को तैयार मुझे देखते ही आ लिपटता है कहीं घुमा लाने की ज़िद करता है —उदाहरणों की भीड़ से पुरानी खटारा साइकिल के उदाहरण पर पैडल मारता हुआ गुज़रता रहा वर्तमान और इसलिए पीछे कैरियर पर बैठा ग़रीब लड़के का उदाहरण इतना पुराना पड़ गया कि उसे लेकर चढ़ाई चढ़नी थी या चढ़ाई करनी थी क़िला फ़तह करना था कुछ सवारियाँ, रिक्शे में पाँच आदमी, कहीं आबादी के ऊपर एक सवार नहीं! यह छिपकर चढ़ाई का रास्ता नहीं यह आम रास्ता है। ‘एक दूसरा रास्ता भी है।’ मैंने कैरियर पर बैठे ग़रीब लड़के से कहा सामंती इतिहास सदर बाज़ार से केवल दो मिनट का है यदि साइकिल से जाएँ उधर भी परिचित हैं वहाँ लालबाग़ है—राजा का महल जिसे सारडा सेठ ने ख़रीदा है कोकड़ा मारवाड़ी का मंदिर एक हलवाई की दुकान जहाँ पुराने क़िले का पीर रोज़ रात को दो बजे दो सोने की गिन्नियाँ देकर दो जलेबियाँ खाने आता है बड़ा सिरफिरा पहुँचा हुआ पीर!! हर साल जिसकी मज़ार एक बीता बढ़ जाती है और शहर अपने अंदर एक बीता कम हो जाता है हर सेठ उसकी गिन्नियाँ भुनाकर रईस और बाक़ी व्यापार ठीक। न मालूम कब ग़रीब का लड़का कैरियर से उतरकर हलवाई की दुकान के सामने पड़े हुए काग़ज़ की चासनी चाटता लापता हुआ हाय! उसके पीछे मैं लापता!! जगह-जगह ठीक होने का समाचार मुझे ढूँढ़ता फिरता, मेरी तलाश करता मैं उस आदमी को ढूँढ़ता जिसकी कुशलता का समाचार मुझे मिलेगा आदमी कब कुशलपूर्वक होगा? ख़बर मिलते ही देना है जवाब— कि यहाँ भी ठीक। अपनी तलाशी लेते समय जेब में हाथ डालता हूँ तो उसमें पहले से घुसा कोई और हाथ जेब के अंदर मुझसे हाथ मिलाता है कि मैं गिरफ़्त में!! उससे हाथ छुड़ाने की ज़बरदस्त कोशिश में उसकी कलाई-घड़ी टूटी ज़रूर पर तब भी घंटे, मिनट और सेकंड के नुकीले काँटे मेरे हाथ में चुभे, धँसे बहुत गहरे, बहुत गहरे बुरा समय बताते हैं अंदर और बाहर बूँद-बूँद ख़ून बहता है जो एक घटना है—उस हाथ को जेब से बाहर निकाल फेंकता हूँ तब भी उसकी हथेली से उसकी मस्तिष्क और भाग्य-रेखा जेब में कुलबुलाती छूट जाती है एक-एक कर उनको चुटकी से पकड़ ज़मीन पर छोड़ता हूँ तो सर्र-सर्र भागती हुई लकीरें साँप के बिल में पनाह लेती हैं कुल मिलाकर जेब से मुट्ठी-भर लकीरें, बृहस्पति, चंद्र, पहाड़, शनि निकाल हवा में उछालता हूँ उसकी बोरी से एक मुट्ठी अनाज उठाकर एक घूँसा अनाज कहकर उसे डराता हूँ उससे राज़ीनामे और अँगूठे का निशान लगाने से चिढ़ता हूँ।... बहुत ज़रूरी काम से कुछ सोचकर हड़बड़ी में जाते हुए मुझे देखकर एक पोस्टमैन पूछता है? क्या आप पहली जनवरी को पैदा हुए? आपकी पीठ में फोड़े बहुत निकलते हैं और ज़िंदगी के ठीक होने की ख़बर जो आपसे कभी नहीं जुड़ी उस ख़बर के न जुड़ने का पैदाइशी निशान आप स्वयं हैं तब तो यह गश्ती पत्र आपका भी है— अत्र कुशलम् तत्रास्तु दुनिया में कुशल है, चिंता न करें मैंने पोस्टमैन से कहा —आप पोस्टमैन बूढ़े हैं! —नहीं, मैं ब्रिगेडियर बूढ़ा हूँ एक जल्दी होने वाले महायुद्ध में मेरी टाँग टूटी, मरने से बचा केवल एक पैर से पैडल मारकर आपको ढूँढ़ते पहुँचा उदाहरण के लिए मुझे एक कविता में होना था संभावित युद्ध में घायल होकर मेरे चेहरे का पूरा कारोबार बिगड़ा मेरी ही नाक फ़ाउंटेनपेन सूँघना लिखने के समान बिग्रेडियर पोस्टमैन हूँ संभावित युद्ध की शांति में डाक बाँटने की मेरी ड्यूटी है।... उसे जाते हुए मैंने देखा उसके कैरियर में पार्सलों के बीच दबा हुआ ग़रीब लड़के का उदाहरण मुझे देखकर मुस्कुराया मुझे रोना आया।

लगभग जयहिंद

रोबदार आदमी ने दो सोने के दाँतों की जँभाई ली। मुझे भी जँभाई आने लगी। एक आलीशान आश्चर्य की चर्चा हुई उसमें भी विस्थापित टिपरिया होटल में मेरा छोटा भाई तश्तरी-प्याले धो रहा था। मैंने उसे दो लात लगाई और ठीक बाएँ मुड़कर ब्राह्मण पारा की एक गंभीर मोटी दीवाल से सटकर चलता गया— रिश्तेदार मुझे दबाकर चलाता था। खड़े-खड़े मैं घसीटा गया। थककर नीचे बैठते ही दीवाल और ऊँची हो जाती थी। छलाँग लगाने की मेहनत की तरह। फिर जीवित दिखने के लिए इधर-उधर हिलते हुए थोड़ी-बहुत कोशिश छलाँग लगाने की जिसमें ख़ास-ख़ास लोगों के लिए दीवाल के बीच चार क़ीलों से ठुका अपना ही इकतीस साल पुराना कपड़े पहने हुए मात्र छलाँग लगाता हुआ एक फ़ोटो ही। फ़ोटो में बाएँ हाथ से क़मीज़ की जेब दबाए हुए। जेब में अठन्नी थी या फ़ोटो में बचत की आठ आने की स्थिरता! और सामने चहल-पहल करती आबादी आठ बजे रात को चली गई मैं वहीं रहा वाला मज़ाक़ करता हुआ हँसोड़ दोस्त, ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटी दीवाल से पलस्तर उखाड़ता, भागता हुआ चौखड़िया पारा जाएगा या मसान गंज। पलस्तर के उखड़ने से मुझे गुदगुदी होती थी। ईंटें उखाड़ेगा तो हँस दूँगा जैसे हँसना एक गोरिल्ला उदासी होकर एक ज़बर्दस्त तोड़फ़ोड़ की कार्रवाई की तरह ठहाका मारना जिसमें ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटी दीवाल की जगह समतल मैदान वाला खेलकूद वाला मज़ाक़ करता हुआ हँसोड़ दोस्त— चर्चा ने मुझे इस तरह उखाड़ा कि मेरी पूरी बाँह की क़मीज़ उस दीवाल पर फैली थी क़मीज़ की दोनों कलाई पर कीलें ठुकी थीं आराम करने के पहले जिस कील में मैं कपड़े टाँगता था। वह भविष्य नहीं था। निश्चय ही हमारा भविष्य नमस्कार हो गया। जाते वक़्त जयहिंद था लगभग जयहिंद सरासर जयहिंद एक राजनीतिक नमस्कार भाई साहब! ख़ुदा हाफ़िज़ सैयद ग़ुफ़रान अहमद!! हर बार धक्का-मुक्की में अदब के साथ मुस्कुराकर पट्टे वाली चड्डी पहने हुए मैं अलग हुआ। कंधे पर तौलिया हो गई। जँभाई हो गई। सुबह-सुबह नहाना हो गया साबुन की एक बट्टी हो गई। बाएँ नहानी घर हो गया दाहिने पेशाबघर होगा। चड्डी में पत्नी की फटी-पुरानी साड़ी की मज़बूत किनार के नाड़े में गठान लगाता हुआ परिवार हो गया। या एक लंबी क़ीमत दिमाग़ में नाड़े की तरह पड़ी हुई जिसकी गठान खोलने या तोड़ने की कोशिश में मेरी हर चाल क़ानून के गिरफ़्त में थी, सोचते ही विचार क़मीज़ और पतलून पहनकर खड़ा हो गया हाय! मैं चड्डी पहनकर अलग हुआ? क्या! सौम्य भुखमरी थी कि ख़ानसामा अच्छा खाना बनाता था। मैं नागरिक हो गया। या अनिमंत्रित रह गया। दिमाग़ के पिछवाड़े की दीवाल फाँदकर कचहरी के पिछवाड़े के घूरे में उतर ज़िंदगी दफ़्तरी उपस्थिति हो गई। हाय! हाय! आँखों को बाँधी गई पट्टियों की बनी हुई पट्टे वाली चड्डी में कचहरी का न्यायाधीश नाड़े डालता हुआ बैठा था। और ऊपर की खिड़की से चमकीला बिल्ला लगाए अर्दली मुझको घूरता था, क्या मैं दुमंज़िला से नंगा दिखता था! अर्दली मुझको कचहरी के घूरे से पुराने कार्बन काग़ज़, शासन सेवार्थ लिफ़ाफ़े पुरानी सरकारी टिकटें ढूँढ़ते देख लिया था। इसी कार्बन काग़ज़ से मेरे छोटे भाई की शक्ल मुझसे मिलती-जुलती थी। कार्बन काग़ज़ से रोबदार आदमी का लड़का हूबहू रोबदार आदमी हो गया। लेकिन मैं अपने बाप की तरह नहीं था मैं अपने दोस्त की तरह नहीं था। मैं अपने दुश्मन की तरह नहीं था। मैं संविधान भूल गया था। न्यायाधीश की नाक बहुत लंबी थी। मेरी नाक बेढंगी थी, क्या शक्ल थी, खाना खाने के बाद पान के ठेले वाली दृष्टि नुकीली तेज़ अपने को ही आँखों की जगह चुभ रही थी। दौड़-धूप हुई तो ब्राह्मण पारा से भागता-भागता हँसोड़ दोस्त ईदगाह-भाटा तक चला गया। मैं नौकरी की तरह सड़क में बाएँ चलते हुए नौकरी की तरह बाएँ चलता रहा। नौकरी की तरह पाँच घंटे सो लिए। नौकरी की तरह चार अख़बार पढ़ लिए। राम टॉकीज़ या सोचकर कृष्णा टॉकीज़ हो लिए। फ़ुरसत के समय सड़क के बीच आकर टेनिस के खेल के मैदान से दो मील दूर आने-जाने वाली मोटरगाड़ियों और भीड़ से होने वाली दुर्घटनाओं से बचने का अभ्यास करता हुआ पाया गया। न टाँग टूटी, न हाथ टूटा, न विश्वविद्यालय, न कृष्णा टॉकीज़ न डाक बंगला, न दिल्ली, न बनिया पारा। सही सलामत होता हुआ, इतना ठहरा हुआ भागा कि एक पूरी की पूरी चहल-पहल आबादी मेरे पैरों से विस्थापित हो गई। मैं पिछड़ गया। या एक तीन मंज़िला मकान ही मेरे पैरों से चल रहा होगा। बोझ लादने में बेईमानी की हद है जबकि तीन मंज़िला मकान के केवल दो कमरों में रहता था जिसका एक पूरा का पूरा कमरा पाख़ाना था— जब लौटता था मेरा हँसोड़ दोस्त मेरे पेट की ख़राबी का मज़ाक़ उड़ाता था। या शक्ल पर ज़रूरत से ज़्यादा कटे हुए बाल का। सोनारपारा से आते-आते रोबदार आदमी के बाप के बाल चाँदी की तरह सफ़ेद थे। चाँदी और सोने की दुकान में शायद बाल कटवाने घुसा होगा। मेरा बाप ख़िज़ाब लगाकर मुझे सब्ज़ी बाज़ार में ढूँढ़ता रहा। लेकिन उसे मेरा छोटा भाई मिल गया, ईंटे पर बैठकर नउवे से सिर घुटाता होगा।

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