हिन्दी ग़ज़लें-गीत-कविता : उदयभानु हंस

Hindi Poetry : Uday Bhanu Hans

ग़ज़लें
1. मत जियो सिर्फ़ अपनी खुशी के लिए

मत जियो सिर्फ़ अपनी खुशी के लिए
कोई सपना बुनो ज़िंदगी के लिए

पोंछ लो दीन दुखियों के आँसू अगर
कुछ नहीं चाहिए बंदगी के लिए

सोने चाँदी की थाली ज़रूरी नहीं
दिल का दीपक बहुत आरती के लिए

जिसके दिल में घृणा का है ज्वालामुखी
वह ज़हर क्यों पिये खुदकुशी के लिए

उब जाएँ ज़ियादा खुशी से न हम
ग़म ज़रूरी है कुछ ज़िंदगी के लिए

सारी दुनिया को जब हमने अपना लिया
कौन बाकी रहा दुश्मनी के लिए

तुम हवा को पकड़ने की ज़िद छोड़ दो
वक्त रुकता नहीं है किसी के लिए

शब्द को आग में ढालना सीखिए
दर्द काफी नहीं शायरी के लिए

सब ग़लतफहमियाँ दूर हो जाएँगी
हँस मिल लो गले दो घड़ी के लिए

2. आदमी खोखले हैं पूस के बादल की तरह

आदमी खोखले हैं पूस के बादल की तरह
शहर लगते हैं मुझे आज भी जंगल की तरह

हमने सपने थे बुने इंद्रधनुष के जितने
चीथड़े हो गए सब विधवा के आँचल की तरह

जेठ की तपती हुई धूप में श्रम करते हैं जो
तुम उन्हें छाया में ले लो किसी पीपल की तरह

दर्द है जो दिल का अलंकार, कोई भार नहीं
झील में जल की तरह आँख में काजल की तरह

सोने-चाँदी के तराज़ू में न तोलो उसको
प्यार अनमोल सुदामा के है चावल की तरह

जन्म लेती नहीं आकाश से कविता मेरी
फूट पड़ती है स्वयं धरती से कोंपल की तरह

जुल्म की आग में तुम जितना जलाओगे मुझे
मैं तो महकूँगा अधिक उतना ही संदल की तरह

ऐसी दुनिया को उठो, आग लगा दें मिलकर
नारी बिकती हो जहाँ मंदिर की बोतल की तरह

पेट भर जाएगा जब मतलबी यारों का कभी
फेंक देंगे वो तुम्हें कूड़े में पत्तल की तरह

दिल का है रोग, भला 'हंस' बताएँ कैसे
लाज होंठों को जकड़ लेती है साँकल की तरह

3. ज़िंदगी फूस की झोंपड़ी है

ज़िंदगी फूस की झोंपड़ी है
रेत की नींव पर जो खड़ी है

पल दो पल है जगत का तमाशा
जैसे आकाश में फुलझ़ड़ी है

कोई तो राम आए कहीं से
बन के पत्थर अहल्या खड़ी है

सिर छुपाने का बस है ठिकाना
वो महल है कि या झोंपड़ी है

धूप निकलेगी सुख की सुनहरी
दुख का बादल घड़ी दो घड़ी है

यों छलकती है विधवा की आँखें
मानो सावन की कोई झ़ड़ी है

हाथ बेटी के हों कैसे पीले
झोंपड़ी तक तो गिरवी पड़ी है

जिसको कहती है ये दुनिया शादी
दर असल सोने की हथकड़ी है

देश की दुर्दशा कौन सोचे
आजकल सबको अपनी पड़ी है

मुँह से उनके है अमृत टपकता
किंतु विष से भरी खोपड़ी है

विश्व के 'हंस' कवियों से पूछो
दर्द की उम्र कितनी बड़ी है

4. बैठे हों जब वो पास, ख़ुदा ख़ैर करे

बैठे हों जब वो पास, ख़ुदा ख़ैर करे
फिर भी हो दिल उदास, ख़ुदा ख़ैर करे

मैं दुश्मनों से बच तो गया हूँ, लेकिन
हैं दोस्त आस-पास, ख़ुदा ख़ैर करे

नारी का तन उघाड़ने की होड़ लगी
यदि है यही विकास, ख़ुदा ख़ैर करे

अब देश की जड़ खोदनेवाले नेता
खुद लिखेंगे इतिहास, ख़ुदा ख़ैर करे

मंदिर मठों में बैठ के भी संन्यासी
उमेटन लगे कपास, ख़ुदा ख़ैर करे

मावस की रात उन की छत पर देखो तो
पूनम का है उजास, ख़ुदा ख़ैर करे

दिन-रात 'हंस' रहते हुए पानी में
मछली को लगे प्यास, ख़ुदा ख़ैर करे

5. जी रहे हैं लोग कैसे आज के वातावरण में

जी रहे हैं लोग कैसे आज के वातावरण में
नींद में दु:स्वप्न आते, भय सताता जागरण में

बेशरम जब आँख हो तो सिर्फ घूंघट क्या करेगा
आदमी नंगा खड़ा है सभ्यता के आवरण में

घोर कलियुग है कि दोनों राम-रावण एक-से हैं
लक्ष्मणों का हाथ रहता आजकल सीता-हरण में

शब्द नारे बन चुके हैं, अर्थ घोर अनर्थ करते
'संधि' कम 'विग्रह' अधिक है जिन्दगी के व्याकरण में

दंभ के माथे मुकुट है, साधना की माँग सूनी
कोयलें सिर धुन रही हैं, बैठ कौवों की शरण में

आधुनिक युगबोध ने साहित्य का है रूप बदला
गद्य केवल छप रहा है, गीत के हर संस्करण में

रात ने निर्धन समय को हाय ! रिश्वत तो नहीं दी
झांकता है क्यों अंधेरा सूर्य की पहली किरण में

जल रहे ईर्ष्या से जुगनू देख यौवन चाँदनी का
ढूंढते हैं दोष बगुले हंस के हर आचरण में

6. मन में सपने अगर नहीं होते

मन में सपने अगर नहीं होते
हम कभी चाँद पर नहीं होते

सिर्फ़ जंगल में ढूँढ़ते क्यों हो
भेड़िए अब किधर नहीं होते

कब की दुनिया मसान बन जाती
उसमें शायर अगर नहीं होते

किस तरह वो ख़ुदा को पाएँगे
खुद से जो बेख़बर नहीं होते

पूछते हो पता ठिकाना क्या
हम फकीरों के घर नहीं होते

7. कब तक यूं बहारों में पतझड़ का चलन होगा

कब तक यूं बहारों में पतझड़ का चलन होगा?
कलियों की चिता होगी, फूलों का हवन होगा

हर धर्म की रामायण युग-युग से ये कहती है
सोने का हरिण लोगे, सीता का हरण होगा

जब प्यार किसी दिल का पूजा में बदल जाए
हर पल आरती होगी, हर शब्द भजन होगा

जीने की कला हम ने सीखी है शहीदों से
होठों पे ग़ज़ल होगी जब सिर पे कफन होगा

इस रूप की बस्ती में क्या माल खरीदोगे?
पत्थर के हृदय होंगे, फूलों का बदन होगा

यमुना के किनारे पर जो दीप भी जलता है
वो और नही कुछ भी, राधा का नयन होगा

जीवन के अँधेरे में हिम्मत न कभी हारो
हर रात की मुट्ठी में सूरज का रतन होगा

सत्ता के लिए जिन का ईमान बिकाऊ है
उन के ही गुनाहों से भारत का पतन होगा

मज़दूर के माथे का कहता है पसीना भी
महलों में प्रलय होगी, कुटिया में जशन होगा

इस देश की लक्ष्मी को लूटेगा कोई कैसे?
जब शत्रु की छाती पर अंगद का चरण होगा

विज्ञान के भक्तों को अब कौन ये समझाए
वरदानों से अपने ही दशरथ का मरण होगा

कहना है सितारों का, अब दूर नहीं वो दिन
कुछ ऊँची धरा होगी, कुछ नीचे गगन होगा

इन्सान की सूरत में जब भेडिये फिरते हों
फिर 'हंस' कहो कैसे दुनिया में अमन होगा?

8. तू तो सौंदर्य का विकास लगे

तू तो सौंदर्य का विकास लगे
काम-रति का निजी निवास लगे

संगमरमर-सा रंग देख तेरा
चाँद पूनम का भी उदास लगे

रात के समय जब कभी निकले
घुप अँधेरे में भी उजास लगे

है खिला बसंत-सा यौवन
तन में कस्तुरी की सुवास लगे

तेरे होठों से रसकलश छलके
तेरी झिड़की में भी मिठास लगे

मूर्ति है तू कोई 'अजन्ता' की
कभी खजुराहो का इतिहास लगे

दृष्टि से मेरी दूर रहकर भी
मेरे मन के तू आसपास लगे

तू भले हो इक आम लड़की-सी
पर मुझे तो हमेशा खास लगे

भूख मन की भले छुपा ले तू
तेरी आँखों में एक प्यास लगे

यूँ न भरमा मुझे अदाओं से
तेरी मुस्कान इक प्रयास लगे

रूप में तू विराट है लेकिन
लाज से सिमिट कर 'समास' लगे

गीत-कविता
1. भेड़ियों के ढंग

देखिये कैसे बदलती आज दुनिया रंग
आदमी की शक्ल, सूरत, आचरण में भेड़ियों के ढंग

द्रौपदी फिर लुट रही है दिन दहाड़े
मौन पांडव देखते है आंख फाड़े
हो गया है सत्य अंधा, न्याय बहरा, और धर्म अपंग

नीव पर ही तो शिखर का रथ चलेगा
जड़ नहीं तो तरु भला कैसे फलेगा
देखना आकाश में कब तक उड़ेगा, डोर–हीन पतंग

डगमगती नाव में पानी भरा है
सिरफिरा तूफान भी जिद पर अड़ा है
और मध्यप नाविकों में छिड़ गई अधिकार की है जंग

शब्द की गंगा दुहाई दे रही है
युग–दशा भी पुनः करवट ले रही है
स्वाभिमानी लेखनी का शील कोई कर न पाए भंग

2. मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा

तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया,
मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।

यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची,
तेरी तस्वीर बना बैठा।

मैं चातक हूँ तू बादल है,
मैं लोचन हूँ तू काजल है,
मैं आँसू हूँ तू आँचल है,
मैं प्यासा तू गंगाजल है।
तू चाहे दीवाना कह ले,
या अल्हड़ मस्ताना कह ले,
जिसने मेरा परिचय पूछा,
मैं तेरा नाम बता बैठा।

सारा मदिरालय घूम गया,
प्याले प्याले को चूम गया,
पर जब तूने घूँघट खोला,
मैं बिना पिए ही झूम गया।
तू चाहे पागलपन कह ले,
तू चाहे तो पूजन कह ले,
मंदिर के जब भी द्वार खुले,
मैं तेरी अलख जगा बैठा।

मैं प्यासा घट पनघट का हूँ,
जीवन भर दर दर भटका हूँ,
कुछ की बाहों में अटका हूँ,
कुछ की आँखों में खटका हूँ।
तू चाहे पछतावा कह ले,
या मन का बहलावा कह ले,
दुनिया ने जो भी दर्द दिया,
मैं तेरा गीत बना बैठा।

मैं अब तक जान न पाया हूँ,
क्यों तुझसे मिलने आया हूँ,
तू मेरे दिल की धड़कन में,
मैं तेरे दर्पण की छाया हूँ।
तू चाहे तो सपना कह ले,
या अनहोनी घटना कह ले,
मैं जिस पथ पर भी चल निकला,
तेरे ही दर पर जा बैठा।

मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते
अपना भी होश भुला बैठा।

3. उठो फूट के पात्र को फोड़ डालो

उठो फूट के पात्र को फोड़ डालो,
अभी भेद की शृंखला तोड़ डालो,
भटकते दिलों को पुनः जोड़ डालो,
समय की प्रबल धार को मोड़ डालो,
विषैली विषमता मिटाते चलो तुम।
सभी को गले से लगाते चलो तुम॥
स्वयं जाग कर दूसरों को जगा दो,
अभी नाव को तुम किनारे लगा दो,
उठो इस धरा को गगन में उठा दो,
नहीं तो गगन ही धरा पर झुका दो,
नयी नींव खोदो नये घर बनाओ।
नई रागिनी में नये गीत गाओ॥

4. हाइकु

1
ताजमहल
गुलमोहर पर
ओस की बूँद ।

2
दूज का चाँद
विधवा के हाथ की
ज्यों टूटी चूड़ी ।

3
प्रकृति रानी
भू पर लहराती
चूनर धानी।

4
प्रीत की रीत
उल्लास के सुरों में
पीड़ा का गीत ।

5
रात चाँदनी
गगन से बरसे
बेला के फूल ।

6
वर्षा की बूँदें
टूटकर बिखरे
माला के मोती ।

7
सान्ध्य आकाश
श्यामा के होंठों पर
खिले पलाश ।

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