हिंदी कविताएँ : श्रीकृष्ण सरल

Hindi Poetry : Shri Krishna Saral

1. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान

आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है
दिल बैठा सा जाता है, हर साँस आज उन्मन है
बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है
क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?

हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।

फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।

झन झन झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।

पुनः वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला
जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला।
वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने,
लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की माँ बहनें।

उसी रंग में अपने मन को रँग रँग कर हम झूमें,
हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएँ चूमें।
हमें वसंती चोला माँ तू स्वयं आज पहना दे,
तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।

सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का,
बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का।
जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला,
स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।

झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने,
लगे गूँजने और तौव्र हो, उनके मस्त तराने।
लगी लहरने कारागृह में इंक्लाव की धारा,
जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा।

खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी,
होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी।
गले लगाया एक दूसरे को बाँहों में कस कर,
भावों के सब बाँढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।

मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले,
प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले।
बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है,
वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।

तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूँ मैं भाई,
छोटों की अभिलषा पहले पूरी होती आई।
एक और भी कारण, यदि पहले फाँसी पाऊँगा,
बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊँगा।

बढ़िया फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा,
आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा।
पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा,
स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।

तर्क बहुत बढ़िया था उसका, बढ़िया उसकी मस्ती,
अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती।
भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया,
स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।

भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है,
जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है।
जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते,
इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।

यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी,
होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी।
मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने,
कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने?

मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग काँप जाते हैं,
उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें।
भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती,
वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।

मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएँ,
उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ।
मुक्ति मिली हथकड़ियों से अब प्रलय वीर हुंकारे,
फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।

इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो,
इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो।
हँसती गाती आजादी का नया सवेरा आए,
विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।

और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे,
बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे।
भारत माँ के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर,
हँसते हँसते झूल गए थे फाँसी के फंदों पर।

हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा हँस कर,
विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर।
अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएँ,
सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएँ।

जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी,
तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी।
जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएँ,
जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएँ।
(क्रान्ति गंगा)

2. धरा की माटी बहुत महान

धरा है हमको मातृ समान
धरा की माटी बहुत महान

स्वर्ण चाँदी माटी के रूप
विलक्षण इसके रूप अनेक
इसी में घुटनों घुटनों चले
साधु संन्यासी तपसी भूप
इसी माटी में स्वर्ण विहान
इसी में जीवन का अवसान
धरा की माटी बहुत महान

धरा की माटी में वरदान
धरा की माटी में सम्मान
धरा की माटी में आशीष
धरा की माटी में उत्थान
धरा की माटी में अनुरक्ति
सफलता का निश्चित सोपान
धरा की माटी बहुत महान

धरा देती है हमको अन्न
धरा रखती है हमें प्रसन्न
धरा ही देती अपना साथ
अगर हो जाते कभी विपन्न
धरा की सेवा अपना धर्म
धरा अपनी सच्ची पहचान
धरा की माटी बहुत महान

3. जियो या मरो, वीर की तरह

जियो या मरो, वीर की तरह।
चलो सुरभित समीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

वीरता जीवन का भूषण
वीर भोग्या है वसुंधरा
भीरुता जीवन का दूषण
भीरु जीवित भी मरा-मरा
वीर बन उठो सदा ऊँचे,
न नीचे बहो नीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

भीरु संकट में रो पड़ते
वीर हँस कर झेला करते
वीर जन हैं विपत्तियों की
सदा ही अवहेलना करते
उठो तुम भी हर संकट में,
वीर की तरह धीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

वीर होते गंभीर सदा
वीर बलिदानी होते हैं
वीर होते हैं स्वच्छ हृदय
कलुष औरों का धोते हैं
लक्ष-प्रति उन्मुख रहो सदा
धनुष पर चढ़े तीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

वीर वाचाल नहीं होते
वीर करके दिखलाते हैं
वीर होते न शाब्दिक हैं
भाव को वे अपनाते हैं
शब्द में निहित भाव समझो,
रटो मत उसे कीर की तरह।
जियो या मरो वीर की तरह।

4. देश के सपने फूलें फलें

देश के सपने फूलें फलें
प्यार के घर घर दीप जले
देश के सपने फूलें फलें

देश को हमें सजाना है
देश का नाम बढ़ाना है
हमारे यत्न, हमारे स्वप्न,
बाँह में बाँह डाल कर चलें
देश के सपने फूलें फलें

देश की गौरव वृद्धि करें
प्रगति पथ पर समृद्धि करें
नहीं प्राणों की चिंता हो
नहीं प्रण से हम कभी टलें
देश के सपने फूलें फलें

साधना के तप में हम तपें
देश के हित चिन्तन में खपें
कर्म गंगा बहती ही रहे
निरन्तर हिम जैसे हम गलें
देश के सपने फूलें फलें

हमारी साँसों में लय हो
हमारी धरती की जय हो
साधना के प्रिय साँचे में
हमारे शुभ संकल्प ढलें
देश के सपने फूलें फलें

5. शहीद

देते प्राणों का दान देश के हित शहीद
पूजा की सच्ची विधि वे ही अपनाते हैं,
हम पूजा के हित थाल सजाते फूलों का
वे अपने हाथों, अपने शीष चढ़ाते हैं।

जो हैं शहीद, सम्मान देश का होते वे
उत्प्रेरक होतीं उनसे कई पीढ़ियाँ हैं,
उनकी यादें, साधारण यादें नहीं कभी
यश गौरव की मंज़िल के लिए सीढ़ियाँ हैं।

कर्त्तव्य राष्ट्र का होता आया यह पावन
अपने शहीद वीरों का वह जयगान करे,
सम्मान देश को दिया जिन्होंने जीवन दे
उनकी यादों का राष्ट्र सदा सम्मान करे।

जो देश पूजता अपने अमर शहीदों को
वह देश, विश्व में ऊँचा आदर पाता है,
वह देश हमेशा ही धिक्कारा जाता, जो
अपने शहीद वीरों की याद भुलाता है।

प्राणों को हमने सदा अकिंचन समझा है
सब कुछ समझा हमने धरती की माटी को,
जिससे स्वदेश का गौरव उठे और ऊँचा
जीवित रक्खा हमने उस हर परिपाटी को।

चुपचाप दे गए प्राण देश-धरती के हित
हैं हुए यहाँ ऐसे भी अगणित बलिदानी,
कब खिले, झड़े कब, कोई जान नहीं पाया
उन वन-फूलों की महक न हमने पहचानी।

यह तथ्य बहुत आवश्यक है हम सब को ही
सोचें, खाना-पीना ही नहीं ज़िंदगी है,
हम जिएँ देश के लिए, देश के लिए मरें
बन्दगी वतन की हो, वह सही बन्दगी है।

क्या बात करें उनकी, जो अपने लिए जिए
वे हैं प्रणम्य, जो देशधरा के लिए मरे,
वे नहीं, मरी केवल उनकी भौतिकता ही
सदियों के सूखेपन में भी वे हरे-भरे।

वे हैं शहीद, लगता जैसे वे यहीं-कहीं
यादों में हर दम कौंध-कौंध जाते हैं वे,
जब कभी हमारे कदम भटकने लगते हैं
तो सही रास्ता हमको दिखलाते हैं वे।

हमको अभीष्ट यदि, बलिदानी फिर पैदा हों
बलिदान हुए जो, उनको नहीं भुलाएँ हम,
सिर देने वालों की पंक्तियाँ खड़ी होंगी
उनकी यादें साँसों पर अगर झुलाएँ हम।

जीवन शहीद का व्यर्थ नहीं जाया करता
मर रहे राष्ट्र को वह जीवन दे जाता है,
जो किसी शत्रु के लिए प्रलय बन सकता है
वह जन-जन को ऐसा यौवन दे जाता है।

6. देश से प्यार

जिसे देश से प्यार नहीं हैं
जीने का अधिकार नहीं हैं।

जीने को तो पशु भी जीते
अपना पेट भरा करते हैं
कुछ दिन इस दुनिया में रह कर
वे अन्तत: मरा करते हैं।
ऐसे जीवन और मरण को,
होता यह संसार नहीं है
जीने का अधिकार नहीं हैं।

मानव वह है स्वयं जिए जो
और दूसरों को जीने दे,
जीवन-रस जो खुद पीता वह
उसे दूसरों को पीने दे।
साथ नहीं दे जो औरों का
क्या वह जीवन भार नहीं है?
जीने का अधिकार नहीं हैं।

साँसें गिनने को आगे भी
साँसों का उपयोग करो कुछ
काम आ सके जो समाज के
तुम ऐसा उद्योग करो कुछ।
क्या उसको सरिता कह सकते
जिसमें बहती धार नहीं है ?
जीने का अधिकार नहीं हैं।

7. सैनिक

मारने और मरने का काम कौन लेता
यह कठिन काम जो करता, वह सैनिक होता,
जैसे चाहे, जब चाहे मौत चली आए
जो नहीं तनिक भी डरता, वह सैनिक होता।

यह नहीं कि वह वेतनभोगी ही होता है
वह मातृभूमि का होता सही पुजारी है,
अर्चन के हित अपने जीवन को दीप बना
उसने माँ की आरती सदैव उतारी है।

पैसा पाने के लिए कौन जीवन देगा
जीवन तो धरती माँ के लिए दिया जाता,
धरती के रखवाले सैनिक के द्वारा ही
है जीवन का सच्चा सम्मान किया जाता।

यह नहीं कि वह अपनी ही कुर्बानी देता
दुख के सागर में वह परिवार छोड़ जाता,
जब अपनी धरती-माता की सुनता पुकार
तिनके जैसे सारे सम्बन्ध तोड़ जाता।

सैनिक, सैनिक होता है, वह कुछ और नहीं
वह नहीं किसी का भाई पुत्र और पति है,
कर्त्तव्यसजग प्रहरी वह धरती माता का
जो पुरस्कार उसका सर्वोच्च, वीर-गति है।

सैनिक का रिश्ता होता अपनी धरती से
वह और सभी रिश्तों से ऊपर होता है,
जब जाग रहा होता सैनिक, हम सोते हैं
वह हमें जगाने, चिर्रनिद्रा में सोता है।

8. प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,
मार्ग वह हमें दिखाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

नदी कहती है' बहो, बहो
जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।
जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,
पूर्णता जीवन की पाओ।
विश्व गति ही तो जीवन है,
अगति तो मृत्यु कहाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

शैल कहतें है, शिखर बनो,
उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।
ठोस आधार तुम्हारा हो,
विशिष्टिकरण सहारा हो।
रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,
उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

वृक्ष कहते हैं खूब फलो,
दान के पथ पर सदा चलो।
सभी को दो शीतल छाया,
पुण्य है सदा काम आया।
विनय से सिद्धि सुशोभित है,
अकड़ किसकी टिक पाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

यही कहते रवि शशि चमको,
प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।
अंधेरे से संग्राम करो,
न खाली बैठो, काम करो।
काम जो अच्छे कर जाते,
याद उनकी रह जाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

9. प्रेम की पावन धारा है

प्रेम की पावन धारा है,
प्रेम दीपक मन मन्दिर का।
आत्मा का उजियारा है,
प्रेम की पावन धारा है।

प्रेम से हृदय स्वच्छ होता है,
प्रेम है पाप कलुष धोता है।
प्रेम संबल है जीवन का,
प्रेम ने विश्व सँवारा है।
प्रेम की पावन धारा है।

प्रेम उन्नति का साधन है,
प्रेम का हर क्षण पावन है।
प्रेम के बिना दिव्य जीवन,
सिंधु जल जैसा खारा है।
प्रेम की पावन धारा है।

प्रेम जीवन तरणी खेता,
प्रेम प्रतिदान नहीं लेता।
प्रेम प्रेरक शुभ कर्मों का,
प्रेममय यह जग सारा है।
प्रेम की पावन धारा है।

प्रेम, यह जग की भाषा है,
प्रेम, सबकी अभिलाषा है।
प्रेम ने पातक धोए है,
धरा पर स्वर्ग उतारा है।
प्रेम की पावन धारा है।

10. मत ठहरो

मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है
चलने के प्रण से तुम्हें नहीं टलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।

केवल गति ही जीवन विश्रान्ति पतन है,
तुम ठहरे, तो समझो ठहरा जीवन है।
जब चलने का व्रत लिया ठहरना कैसा?
अपने हित सुख की खोज, बड़ी छलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।

तुम चलो, ज़माना अपने साथ चलाओ,
जो पिछड़ गए हैं आगे उन्हें बढ़ाओ
तुमको प्रतीक बनना है विश्वप्रगति का
तुमको जन हित के साँचे में ढलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।

बाधाएँ, असफलताएँ तो आती हैं
दृढ़ निश्चय लख, वे स्वयं चली जाती हैं
जितने भी रोड़े मिलें, उन्हें ठुकराओ
पथ के काँटो को पैंरो से दलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।

जो कुछ करना है, उठो! करो! जुट जाओ!
जीवन का कोई क्षण, मत व्यर्थ गँवाओ
कर लिया काम, भज लिया राम, यह सच है
अवसर खोकर तो सदा हाथ मलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।

11. आँसू

जो चमक कपोलों पर ढुलके मोती में है
वह चमक किसी मोती में कभी नहीं होती,
सागर का मोती, सागर साथ नहीं लाता
अन्तर उंडेल कर ले आता कपोल मोती।

रोदन से, भारी मन हलका हो जाता है
रोदन में भी आनन्द निराला होता है,
हर आँसू धोता है मन की वेदना प्रखर
ताज़गी और वह हर्ष अनोखा बोता है।

आँसू कपोल पर लुढ़क-लुढ़क जब बह उठते
लगता हिमगिरि से गंगाजल बह उठता है,
हैं कौन-कौन से भाव हृदय में घुमड़ रहे
हर आँसू जैसे यह सब कुछ कह उठता है।

सन्देह नहीं, आँसू पानी तो होते ही
वे तरल आग हैं, और जला सकते हैं वे,
उनमें इतनी क्षमता भूचाल उठा सकते
उनमें क्षमता, पत्थर पिघला सकते हैं वे।

आँसू दुख के ही नही, खुशी के भी होते
जब खुशी बहुत बढ़ जाती, रोते ही बनता,
आधिक्य खुशी का, कहीं न पागल कर डाले
अतिशय खुशियों को, रोकर धोते ही बनता।

भावातिरेक से भी रोना आ जाता है
ऐसे रोदन को कोई रोक नहीं पाता,
रोने वाला, निरुपाय खड़ा रह जाता है
आगमन आँसुओं का, वह रोक नहीं पाता।

जो व्यक्ति फफक कर जीवन में रोया न कभी
उसके जीवन में कुछ अभाव रह जाता है,
दुख प्रकट न हो, भारी अनर्थ होकर रहता
रो पड़ने से, वह सारा दुख बह जाता है।

इतिहास आँसुओं ने रच डाले कई-कई
हो विवश शक्ति उनने अपनी दिखलाई है,
वे रहे महाभारत की संरचना करते
सोने की लंका भी उनने जलवाई है।

12. छोड़ो लीक पुरानी

छोड़ो लीक पुरानी छोड़ो
युग को नई दिशा में मोड़ो
छोड़ो लीक पुरानी छोड़ो

प्रेरक बने अतीत तुम्हारा
नए क्षितिज की ओर चरण हो,
नए लक्ष्य की ओर तुम्हारे
उन्मुख जीवन और मरण हो
रखे बाँध कर जो जीवन को
ऐसे हर बंधन को तोड़ो
छोड़ो लीक पुरानी छोड़ो।

बीत गया सो बीत गया वह
तुमको वर्तमान गढ़ना है
नया ज्ञान उपलब्ध जिधर हो
तुमको उसी ओर बढ़ना है
तुम जीवन के हर अनुभव से
जितना संभव ज्ञान निचोड़ो
छोड़ो, लीक पुरानी छोड़ो।

पास तुम्हारे अपनी संस्कृति
लक्ष्य, नया विज्ञान तुम्हारा,
नया सृजन इस महादेश का
अब यह हो अभियान तुम्हारा
करने पूर्ण नए लक्ष्यों को
सागर लांघों, पर्वत फोड़ो
छोड़ो, लीक पुरानी छोड़ो।

ज्ञान तर्क सम्मत शुभ होता
नहीं अंधविश्वास सुखद है,
ग्रहण करो सभी ज्ञान तुम
जो हितकर, जो तुम्हे सुखद है
ज्ञान श्रेष्ठ संपत्ति सभी की
जितना बने, ज्ञान धन जोड़ो
छोड़ो, लीक पुरानी छोड़ो।

13. जवानी खुद अपनी पहचान

जवानी खुद अपनी पहचान
जवानी की है अद्भुत शान
जवानी खुद अपनी पहचान।

घिसट कर चलता बचपन है
लड़कपन अल्हड़ जीवन है
बुढ़ापा थका-थका चलता
जवानी ऊँची बहुत उड़ान
जवानी खुद अपनी पहचान।

जवानी लपटों का घर है
जवानी पंचम का स्वर है
जवानी सपनों की वय है
जवानी में जाग्रत अरमान
जवानी खुद अपनी पहचान।

जवानी के दिन करने के
जवानी के दिन भरने के
जवानी दिन भूचालों के
जवानी है उठता तूफ़ान
जवानी खुद अपनी पहचान।

जवानी को न गँवाए हम
भला कुछ कर दिखालाएँ हम
जवानी पश्चाताप न हो
जवानी हो संतोष महान
जवानी खुद अपनी पहचान।

14. नेतृत्व

नेता, समाज को है नेतृत्व दिया करता
संकट आएँ, वह उनको स्वयं झेलता है,
वह झोंक नहीं देता लोगों को भट्टी में
खतरे आते, वह उनसे स्वयं खेलता है।

योग्यता अपेक्षित होती है हर नेता में
अपने समाज को सही दिशा में ले जाए,
पहचान समय की नब्ज़, सही निर्णय ले वह
ले सूझबूझ से काम, सफलता वह पाए।

नेतृत्व न रहता पीछे 'बढ़े चलो!' कह कर
नेतृत्व सदा आगे चल कर दिखलाता है,
नेतृत्व न खाता पीछे रह शीतल बयार
वह खाता तो, छाती पर गोली खाता है।

केवल कुछ लोगों को हाँके, नेतृत्व न वह
अपने समाज को दिशा-दान वह देता है,
नेतृत्व न देता लच्छेदारी बातों को
निज आन-बान के लिए जान वह देता है।

पिछलग्गू पैदा कर लेना नेतृत्व नहीं
नेतृत्व नहीं हू-हू कर पत्थर फिकवाता,
नेतृत्व देश के दीवाने पैदा करता
नेतृत्व, लाठियों से अपने सिर सिकवाता।

नेतृत्व देखता देश, देश की खुशहाली
नेतृत्व नहीं देखता स्वयं को, अपनों को,
नेतृत्व, हमेशा खुदी मिटा कर चलता है
पालता नहीं आँखों में सुख के सपनों को।

15. पीड़ा का आनन्द

जो कष्ट दूसरे के हैं ओढ़ लिया करते
वह कष्ट नहीं होता, आनन्द कहलाता है,
कहने वाले कहते, वह पीड़ा भुगत रहा
उस पीड़ा में भी वह मिठास ही पाता है।

हम व्यक्ति राष्ट्र या फिर समाज के दुख बाँटे
अनुभूति नहीं फिर दुख की कोई भी करता
वह यही गर्व करता, मैं नहीं अकेला हूँ
वह तो सुख का अनुभव करता, जो दुख हरता।

हम अगर किसी का धन बाँटें, दुख पाएँगे
हम कष्ट किसी के बाँटे, मन को सुख होगा
सुख के बाँटे सुख मिलता, दुख के बाँटे दुख
यह नियम प्रकृति का अटल, न कभी विमुख होगा।

16. मुझमें ज्योति और जीवन है

मुझमें ज्योति और जीवन है
मुझमे यौवन ही यौवन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।

मुझे बुझा कर देखे कोई
बुझने वाला दीप नहीं मैं,
जो तट पर मिल जाया करती
ऐसी सस्ती सीप नहीं मैं।
शब्द-शब्द मेरा मोती है,
गहन अर्थ ही सच्चा धन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।

रुक जाने को चला नहीं मैं
चलते जाना जीवन-क्रम है,
बुझ जाने को जला नहीं मैं
जलते जाना नित्यनियम है।
मैं पर्याय उजाले का हूँ,
अंधियारे से चिर-अनबन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।

हलकी बहुत मानसिकता यह
शिकवे या शिकायतें करना,
हलकी बहुत मानसिकता यह
हलकेपन पर कभी उतरना।
आने नहीं दिया मैंने यह,
अपने मन में हलकापन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।

वर्ष, मास, दिन रहा भुनाता
हर क्षण का उपयोग किया है,
तुम हिसाब कर लो, देखोगे
लिया बहुत कम, अधिक दिया है।
यही गणित मेरे जीवन का,
यही रहा मेरा चिन्तन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।

17. कहो नहीं करके दिखलाओ

कहो नहीं करके दिखलाओ
उपदेशों से काम न होगा
जो उपदिष्ट वही अपनाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।

अंधकार है! अंधकार है!
क्या होगा कहते रहने से,
दूर न होगा अंधकार वह
निष्क्रिय रहने से सहने से
अंधकार यदि दूर भगाना
कहो नहीं तुम दीप जलाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।

यह लोकोक्ति सुनी ही होगी
स्वर्ग देखने, मरना होगा
बात तभी मानी जाएगी
स्वयं आचरण करना होगा
पहले सीखो सबक स्वयं
फिर और किसी को सबक सिखाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।

कर्म, कर्म के लिए प्रेरणा
होते हैं उपदेश निरर्थक
साधु वृत्ति से मन को माँजो
साधु वेश परिवेश निरर्थक।
दुनिया भली बनेगी पीछे
पहले खुद को भला बनाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।।

कथनी है वाचाल कहाती
करनी रहती सदा मौन है,
मौन स्वयं अभिव्यक्ति सबल है
इसे जानता नहीं कौन है।
नहीं सहारा लो कथनी का,
करनी से ही सब समझाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।।

18. माँ

इस एक शब्द 'माँ' में है मंत्र–शक्ति भारी
यह मंत्र–शक्ति सबको फलदायी होती है,
आशीष–सुधा माँ देती अपने बच्चों को
वह स्वयं झेलती दुःख, विषपायी होती है।

माँ से कोमल है शब्द–कोश में शब्द नहीं
माँ की ममता से बड़ी न कोई ममता है,
उपमान और उपमाएँ सबकी मिल सकतीं
लेकिन दुनिया में माँ की कहीं न समता है।

यह छोटा–सा 'माँ' शब्द, सिन्धु क्षमताओं का
तप–त्याग–स्नेह से रहता सदा लबालब है,
खारा सागर, माँ की समता क्या कर पाए
माँ की महानता से महान कोई कब है।

हम लोग जिसे ममता कहकर पुकारते हैं
बौनी है वह भी माँ की ममता के सम्मुख,
हम लोग जिसे क्षमता कहकर पुकारते हैं
बौनी है वह भी माँ की ममता के सम्मुख।

माँ की महानता से, महानता बड़ी नहीं
माँ के तप से, होता कोई तप बड़ा नहीं,
साकार त्याग भी माँ के आगे बौना है
माँ के सम्मुख हो सकता कोई खड़ा नहीं।

हैं त्याग–आग अनुराग मातृ–उर में पलते
वर्षा–निदाघ आँखों में पलते आए हैं,
भावना और कर्त्तव्य रहे ताने–बाने
चरमोत्कर्ष ममता – क्षमता ने पाए हैं।

बेटे के तन का रोयाँ भी दुखता देखे
माता आकुल–व्याकुल हो जाया करती है,
जब पुत्र–दान की माँग धरा–माता करती
इस कठिन कसौटी पर माँ खरी उतरती है।

वह धातु अलग, जिससे माँ निर्मित होती है
उसको कैसा भी ताप नहीं पिघला सकता,
हल्के से हल्का ताप पुत्र – पुत्री को हो
माँ के मन के हिम को वह ताप गला सकता|

दुनिया में जितने भी सागर, सब उथले हैं
माता का उर प्रत्येक सिन्धु से गहरा है,
कोई पर्वत, माँ के मन को क्या छू पाए
माँ के सम्मुख कोई उपमान न ठहरा है|

इतनी महानता भारत की माताओं में
अवतारों को भी अपनी गोद खिलाती हैं,
हो राम – कृष्ण गौतम या कोई महावीर
माताएँ हैं, जो उनको पाठ पढ़ाती हैं।

कोई जीजा माँ किसी शिवा को शेर बना
जब समर–भूमि में सह–आशीष पठाती है,
तो बड़े – बड़े योद्धा भी भाग खड़े होते
अरि के खेमों में काई–सी फट जाती है।

कोई जगरानी किसी चन्द्रशेखर को जब
निज दूध पिला जीवन के पाठ पढ़ाती है,
वह दूध खून का फव्वारा बन जाता है
वह मौत, मौत को भी झकझोर रुलाती है|

कोई विद्या माँ, भगत सिंह से बेटे को
जब घोल–घोल घुट्टी में क्रान्ति पिलाती है,
तो उसका शैशव बन्दूकें बोने लगता
बरजोर जवानी फाँसी को ललचाती है।

जब प्रभावती कोई सुभाष से बेटे को
भारत–माता की व्यथा–कथा बतलाती है,
हर साँस और हर धड़कन उस विद्रोही की
धरती की आजादी की बलि चढ़ जाती है।

कोई चाफेकर – माता तीन – तीन बेटे
भारत माता के ऊपर न्योछावर करती,
कहती, चौथा होता तो वह भी दे देती
आँसू न एक गिरता, वह आह नहीं भरती।

तप और त्याग साकार देखना यदि अभीष्ट
तो देखे कोई भारत की माताओं को,
कलियों में किसलय में भी लपटें होती हैं
तो देखे कोई भारत की ललनाओं को।

कर्त्तव्य हमारा, हम माताओं को पूजें
आशीष कवच पाकर उनका, निर्भय विचरें,
हम लाज रखें उसकी, जो हमने दूध पिया
माँ और बड़ी माँ का हम ऊँचा नाम करें।

माता माता तो है ही, गुरु भी होती है
माता ही पहले–पहले सबक सिखाती है,
माँ घुट्टी में ही जीवन घोल पिला देती
माँ ही हमको जीवन की राह दिखाती है।

हम जननी की, भारत–जननी की जय बोलें
निज जीवन देकर उनके कर्ज चुकाएँ हम
जो सीख मिली है, उसका पालन करने को
निज शीश कटा दें, उनको नहीं झुकाएँ हम।

19. काँटे अनियारे लिखता हूँ

अपने गीतों से गंध बिखेरूँ मैं कैसे
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।
मैं लिखता हूँ मँझधार, भँवर, तूफान प्रबल
मैं नहीं कभी निश्चेष्ट किनारे लिखता हूँ।

मैं लिखता उनकी बात, रहे जो औघड़ ही
जो जीवन–पथ पर लीक छोड़कर चले सदा,
जो हाथ जोड़कर, झुककर डरकर नहीं चले
जो चले, शत्रु के दाँत तोड़कर चले सदा।
मैं गायक हूँ उन गर्म लहू वालों का ही
जो भड़क उठें, ऍसे अंगारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।।

हाँ वे थे जिनके मेरु–दण्ड लोहे के थे
जो नहीं लचकते, नहीं कभी बल खाते थे,
उनकी आँखों में स्वप्न प्यार के पले नहीं
जब भी आते, बलिदानी सपने आते थे।
मैं लिखता उनकी शौर्य–कथाएँ लिखता हूँ
उनके तेवर के तेज दुधारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।।

जो देश–धरा के लिए बहे, वह शोणित है
अन्यथा रगों में बहने वाला पानी है,
इतिहास पढ़े या लिखे, जवानी वह कैसे
इतिहास स्वयं बन जाए, वही जवानी है।
मैं बात न लिखता पानी के फव्वारों की
जब लिखता शोणित के फव्वारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।

20. मैं अमर शहीदों का चारण

मैं अमर शहीदों का चारण, उनके गुण गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।

यह सच है, याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।

वे अगर न होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता,
जीवन ऍसा बोझा होता जो हमसे नहीं सहा जाता,
यह सच है दाग गुलामी के उनने लोहू सो धोए हैं,
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।

इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के मैं भाव जगाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण उनके यश गाया करता हूँ।

यह सच उनके जीवन में भी रंगीन बहारें आई थीं,
जीवन की स्वप्निल निधियाँ भी उनने जीवन में पाई थीं,
पर, माँ के आँसू लख उनने सब सरस फुहारें लौटा दीं,
काँटों के पथ का वरण किया, रंगीन बहारें लौटा दीं।

उनने धरती की सेवा के वादे न किए लम्बे—चौड़े,
माँ के अर्चन हित फूल नहीं, वे निज मस्तक लेकर दौड़े,
भारत का खून नहीं पतला, वे खून बहा कर दिखा गए,
जग के इतिहासों में अपनी गौरव—गाथाएँ लिखा गए।

उन गाथाओं से सर्दखून को मैं गरमाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण उनके यश गाया करता हूँ।

है अमर शहीदों की पूजा, हर एक राष्ट्र की परंपरा
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त—बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।

इसलिए राष्ट्र—कर्त्तव्य, शहीदों का समुचित सम्मान करे,
मस्तक देने वाले लोगों पर वह युग—युग अभिमान करे,
होता है ऍसा नहीं जहाँ, वह राष्ट्र नहीं टिक पाता है,
आजादी खण्डित हो जाती, सम्मान सभी बिक जाता है।

यह धर्म—कर्म यह मर्म सभी को मैं समझाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण उनके यश गाया करता हूँ।

पूजे न शहीद गए तो फिर, यह पंथ कौन अपनाएगा?
तोपों के मुँह से कौन अकड़ अपनी छातियाँ अड़ाएगा?
चूमेगा फन्दे कौन, गोलियाँ कौन वक्ष पर खाएगा?
अपने हाथों अपने मस्तक फिर आगे कौन बढ़ाएगा?

पूजे न शहीद गए तो फिर आजादी कौन बचाएगा?
फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचाएगा?
पूजे न शहीद गए तो फिर यह बीज कहाँ से आएगा?
धरती को माँ कह कर, मिट्टी माथे से कौन लगाएगा?

मैं चौराहे—चौराहे पर ये प्रश्न उठाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण उनके यश गाया करता हूँ।
जो कर्ज ने खाया है, मैं चुकाया करता हूँ।

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