अरी ओ करुणा प्रभामय : अज्ञेय

Ari O Karuna Prabhamaya : Agyeya

1. हे अमिताभ

हे अमिताभ!
नभ पूरित आलोक,
सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक:
हे अवलोकित
हे हिरण्यनाभ!

क्योतो, जापान, 6 सितम्बर, 1957

2. धरा-व्योम

अंकुरित धरा से क्षमा
व्योम से झरी रुपहली करुणा
सरि, सागर, सोते-निर्झर-सा
उमड़े जीवन:
कहीं नहीं है मरना ।

नारा, जापान, 6 सितम्बर, 1957

3. सोन-मछली

हम निहारते
रूप काँच के पीछे
हाँप रही है, मछली ।

रूप तृषा भी
(और काँच के पीछे)
हे जिजीविषा ।

क्योतो, 10 सितम्बर, 1957

4. दीप पत्थर का

दीप पत्थर का
लजीली किरण की
पद चाप नीरव:
अरी ओ करुणा प्रभामय!
कब? कब?

क्योतो, जापान, 9 सितम्बर, 1957

5. हम कृती नहीं हैं

हम कृति नहीं हैं
कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्।
क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब
इस विलास का योग मिला?—जो
हों, इतने भर को ही
भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये?
हम हुए, यही बस,
नामहीन हम, निर्विशेष्य,
कुछ हमने किया नहीं।

या केवल
मानव होने की पीड़ा का एक नया स्तर खोलाः
नया रन्ध्र इस रुँधे दर्द की भी दिवार में फोड़ाः
उस से फूटा जो आलोक, उसे
--छितरा जाने से पहले—
निर्निमेष आँखों से देखा
निर्मम मानस से पहचाना
नाम दिया।

चाहे
तकने में आँखें फूट जायें,
चाहे
अर्थ भार से तन कर भाषा झिल्ली फट जाये,
चाहे
परिचित को गहरे उकेरते
संवेदना का प्याला टूट जायः
देखा
पहचाना
नाम दिया।

कृति नहीं हैः
हों, बस इतने भर को हम
आजीवन तपते-जलते रहे—रह गये।

दिल्ली (बस में), 26 अक्टूबर, 1956

6. सुख-क्षण

यह दु:सह सुख-क्षण
मिला अचानक हमें
अतर्कित।

तभी गया तो छोड़ गया
यह दर्द अकथ्य, अकल्पित।

रंग-बिरंगी मेघ-पताकाओं से
घिर आया नभ सारा:
नीरव टूट गिर गया जलता
एक अकेला तारा।

साउथ एवेन्यू, नयी दिल्ली, 6 दिसम्बर, 1956

7. चाँदनी चुप-चाप

चाँदनी चुप-चाप सारी रात
सूने आँगन में
जाल रचती रही।
मेरी रूपहीन अभिलाषा
अधूरेपन की मद्धिम
आँच पर तँचती रही।
व्यथा मेरी अनकही
आनन्द की सम्भावना के
मनश्चित्रों से परचती रही।

मैं दम साधे रहा,
मन में अलक्षित
आँधी मचती रही:
प्रातः बस इतना कि मेरी बात
सारी रात
उघड़कर वासना का
रूप लेने से बचती रही।

साउथ एवेन्यू, नयी दिल्ली, दिसम्बर, 1956

8. सपने का सच

सपने के प्यार को
तुम्हें दिखाऊँ
-यों सच को

सुन्दर होने दूँ।
सपने के सुन्दर को
प्यार करूँ, सब को दिखलाऊँ-
सच होने दूँ।

पर सपने के सच को
किसे दिखाऊँ
जिस से वह सुन्दर हो
और उसे कर सकूँ प्यार?

नयी दिल्ली (स्वप्न में), 22 जनवरी, 1957

9. प्याला : सतहें

वह जगमग एक काँच का प्याला था
जिस में मद-भरमाये हम ने
भर रक्खा

तीखा भभके-खिंचा उजाला था।
कौंध उसी की से
वह फूट गया।
उस में जो रस था (मद?)

मिट्टी में रिस
वह धीरे-धीरे सूख गया-
पर रस की प्यास नहीं सूखी।

इस लिए हृदय में गाला हम ने एक कुआँ।
रस से लेंगे मन सींच!
काँच-प्याले के टुकड़े से लाये उलीच
जो, आँख मीच

हम पीने लगे-
विषैला कड़वा धुआँ!
यों बाद हृदय के
मन भी टूट गया।

जीवन! वह अब भी है।
विकिरित प्रकाश की किरणें
रंग-बिरंगी अनथक नाच रहीं कच-टुकड़े के
हर स्तर पर।
हम बार-बार गहरे उतरे-

कितना गहरे!-पर
जब-जब जो कुछ भी लाये
उस से बस
और सतह पर भीड़ बढ़ गयी।
सतहें-सतहें-

सब फेंक रही हैं लौट-लौट
वह कौंध जिसे हम भर न रख सके
प्याले में: छिछली उथली घनी चौंध से अन्ध
घूमते हैं हम अपने रचे हुए
मायावी उजियाले में।

गहरे में-कुछ इतना सूना जो
भिद कर भी लौटा ही देता है प्रकाश:
सतहों पर-टूटी चमकीली सतहों को बाँध-बाँध
उलझाने वाला सतहों का ही जटिल पाश!

सतहें-कच-टुकड़े:
यही जुटा पाये हम;
भीतर किरण रही जो
वह नीलाम चढ़ गयी!

मोती बाग, नयी दिल्ली, 1 अप्रैल, 1957

10. ब्राह्म मुर्हूत : स्वस्तिवाचन

जियो उस प्यार में
जो मैं ने तुम्हें दिया है,
उस दु:ख में नहीं, जिसे

बेझिझक मैं ने पिया है।
उस गान में जियो
जो मैं ने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नहीं, जिसे

मैं ने तुम से छिपाया है।
उस द्वार से गु जरो
जो मैं ने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अन्धकार से नहीं

जिस की गहराई को
बार-बार मैं ने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।
वह छादन तुम्हारा घर हो

जिस मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा;
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा।
वह पथ तुम्हारा हो

जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूँगा;
मैं जो रोड़ा हूँ उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।

सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो:
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,

सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्ग!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

नयी दिल्ली, 6 अप्रैल, 1957

11. एक प्रश्न

क्या घृणा की एक झौंसी साँस भी
छू लेगी तुम्हारा गात-
प्यार की हवाएँ सोंधी
यों ही बह जाएँगी?

एक सूखे पत्ते की ही खड़-खड़
बाँधेगी तुम्हारा ध्यान-
लाख-लाख कोंपलों की मृदुल गुजारें
अनसुनी रह जाएँगी?

चौखटे की दीमक का
उद्यम अनवरत देख तुम
खिड़की से बाहर न झाँकोगे:
पक्षियों की बीटों का क्या:

उपयोग होगा, इसी चिन्ता में
जमीन को कुरेदते-
ऊपर का मुक्त-मुक्त-मुक्त
आकाश नहीं ताकोगे?

साउथ एवेन्यू, नयी दिल्ली, 6 अप्रैल, 1957

12. मोह-बंध

मोह-बन्ध हम दोनों
एक बार जो मिले रहे
फिर मिले, इसे क्या कहूँ:
कि दुनिया इतनी छोटी है-

या इतनी बड़ी?
हम में जो कौंध गयी थी
एक बार पहचान, उसी में
आज जुड़ी जो नयी कड़ी-
क्या कहूँ इसे:
इतिहास दुबारा घटित नहीं होता, या वह है

पुनर्घटित की एक लड़ी?
बिछुड़ जाएँगे फिर हम, फिर भी
हार आज को नहीं गिनेंगे,
इस को अभी, आज क्या कहूँ:

कि जीवन एक मोह है जो साहस को हर लेता है,
या कि एक साहस, जो काट रहा है
बन्ध मोह के घड़ी-घड़ी?

दिल्ली-कलकत्ता-कटक (रेल में), 10-12 अप्रैल, 1957

13. चेहरे असंख्य : आँखें असंख्य

चेहरे थे असंख्य, आँखें थीं,
दर्द सभी में था-
जीवन का दंश सभी ने जाना था।

पर दो केवल दो
मेरे मन में कौंध गयीं।
क्यों?
क्या उन में अतिरिक्त दर्द था

जो अतीत में मेरा परिचित कभी रहा,
या मुझ में कोई छायास्मृति जागी थी
जिस को मैं ने उन आँखों में पढ़ा
कि जैसे सदा दूसरों में हम

जाने-अनजाने केवल
अपने ही को पढ़ते हैं?
मैं नहीं जानता किस की वे आँखें थीं,
नहीं समझता फिर उन को देखूँगा

(परिचय मन ही मन चाहा हो, उद्यम कोई नहीं किया),
किन्तु उसी की कौंध
मुझे फिर-फिर दिखलाती है
चेहरे असंख्य, आँखें असंख्य,
जिन सब में दर्द भरा है

पर जिन को मैं पहले नहीं देख पाया था।
वही अपरिचित दो आँखें ही
चिर-माध्यम हैं सब आँखों से, सब दर्दों से
मेरे चिर-परिचय का।


विषुव सम्मिलनी, कटक, 13 अप्रैल, 1957

14. हरा-भरा है देश

हरे-भरे हैं खेत
मगर खलिहान नहीं:
बहुत महतो का मान-
मगर दो मुट्ठी धान नहीं।

भरा है दिल पर नीयत नहीं:
हरी है कोख-तबीयत नहीं।
भरी हैं आँखें पेट नहीं:
भरे हैं बनिये के कागज-
टेंट नहीं।

हरा-भरा है देश:
रुँधा मिट्टी में ताप
पोसता है विष-वट का मूल-
फलेंगे जिस में शाप।

मरा क्या और मरे
इस लिए अगर जिये तो क्या:
जिसे पीने को पानी नहीं
लहू का घूँट पिये तो क्या;

पकेगा फल, चखना होगा
उन्ही को जो जीते हैं आज:
जिन्हें है बहुत शील का ज्ञान-
नहीं है लाज।

तपी मिट्टी जो सोख न ले
अरे, क्या है इतना पानी?
कि व्यर्थ है उद्बोधन, आह्वान-
व्यर्थ कवि की बानी?

कोणार्क-कटक, 15 अप्रैल, 1957

15. शब्द और सत्य

यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है:
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है:
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे
उस में सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ।

कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना है:
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ—
दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।

मोती बाग, नयी दिल्ली, 15 जून, 1957

16. पगली आलोक-किरण

ओ तू पगली आलोक-किरण,
सूअर की खोली के कर्दम पर बार-बार चमकी,
पर साधक की कुटिया को वज्र-अछूता
अन्धकार में छोड़ गयी?

मोती बाग, नयी दिल्ली, 17 जून, 1957

17. जागरण-क्षण

बरसों की मेरी नींद रही।
बह गया समय की धारा में जो,
कौन मूर्ख उस को वापस माँगे?

मैं आज जाग कर खोज रहा हूँ
वह क्षण जिस में मैं जागा हूँ।

मोती बाग, नयी दिल्ली, 18 जून, 1957

18. तू-मैं

तू फाड़-फाड़ कर छप्पर चाहे
जिस को तिस को देता जा
मैं मोती अपने हिय के उन में भरा करूँ।

तू जहाँ कहीं जी करे
घड़े के घड़े अमृत बरसाया कर
मैं उस की बूँद-बूँद के संचय के हित सौ-सौ बार मरूँ।

तू सुर-लोकों के द्वार खोल नित नये
राह पर नन्दन-वन कुसुमाता जा-
मैं बार-बार हठ कर के यह, अनन्य यह मानव-लोक वरूँ।

मोती बाग, नयी दिल्ली, 18 जून, 1957

19. रात कटी

किसी तरह रात कटी
पौ फटी मायाविनी छायाओं की
काली नीरन्ध्र यवनिका हटी।
भोर की स्निग्ध बयार जगी,

तृण-बालाओं की मंगल रजत-कलसियों से
कुछ ओस बूँद झरे,
चिड़ियों ने किया रोर,
आकारों में फिर रंग भरे,

गन्धों के छिपे कोश बिखरे,
दूर की घंटा-ध्वनि वायु-मंडल को कँपाने लगी।
फेंके हुए अखबार की सरसराहट,
पड़ोस के चूल्हों के नये धुओं की चिनियाहटें,

ग्वाले के कमंडल की खड़कन,
कलों से बेचैन नये पानी का टपकना,
बच्चों के पैरों की डगमग आहटें,
आलने पर कल से उतारे हुए, मसले, फटे हुए

कुरते का फ़रियादी रूप,
दवा की अधूरी शीशी से सटे हुए
रुई के गाले का चौंधी आँख-सा झपकना,
पिंजरे में सहसा जागे पंछी-सी

अपने दिल की धड़कन:
परिचित के सहसा सब खुल गये द्वार:
उमड़ने लगा होने का आदि-अन्तहीन पारावार।
और यह सब इस कारणहीन, अप्रत्याशित,

अनधिकृत, विस्मयकर संयोग से कि
किसी दुःस्वप्न के चंगुल में अचानक रात में
साँस नहीं उलटी!

मोतीबाग, नयी दिल्ली, 1 नवम्बर, 1957 (भोर 5 बजे)

20. पहेली

गुरु ने छीन लिया हाथों से जाल,
शिष्य से बोले:
'कहाँ चला ले जाल अभी?
पहले मछलियाँ पकड़ तो ला?'
तकता रह गया बिचारा
भौंचक ।

बीत गए युग । चले गए गुरु ।
बूढ़ा, धवल केश, कुंचित मुख
चेला
सोच रहा था अभी प्रश्न:
'क्यों चला जाल ले?
पहले, रे मछलियाँ पकड़ तो ला?'

सहसा भेद गई तीखी आलोक-किरण ।
'अरे, कब से बेचारी मछली
घिर अगाध से
सागर खोज रही है!'

प्नोम् पेञ् (कम्बुजिया), 2 नवम्बर, 1957

21. अपलक रूप निहारूँ

अपलक रूप निहारूँ
तन-मन कहाँ रह गये?
चेतन तुझ पर वारूँ,
अपलक रूप निहारूँ!

अनझिप नैन, अवाक् गिरा
हिय अनुद्विग्न, आविष्ट चेतना
पुलक-भरा गति-मुग्ध करों से
मैं आरती उतारूँ।
अपलक रूप निहारूँ।

प्नोम् पेञ् (कम्बुजिया), 2 नवम्बर, 1957

22. रात भर आते रहे सपने

रात-भर आते रहे सपने

रात-भर आते रहे सपने:
एक भी अच्छा नहीं था।
किन्तु वास्तव जगत में मुझ को अनेकों बार
सुख मिलता रहा है।

रात भी जब जगा
शय्या सुखद ही थी।
यही क्या तब मानना होगा
कि सपने बुरे हैं सो सत्य हैं
और सुख की वास्तविकता झूठ है?

तोक्यो, 14 नवम्बर, 1957

23. कवि कर्म

ब्राह्म वेला में उठ कर
साध कर साँस
बाँध कर आसन
बैठ गया कृतिकार रोध कर चित्त:

‘रचूँगा।’
एक ने पूछा: कवि ओ, क्या रचते हो?
कवि ने सहज बताया।
दूसरा आया।-अरे, क्या कहते हो?

तुम अमुक रचोगे? लेकिन क्यों?
शान्त स्वर से कवि ने समझाया।
तभी तीसरा आया। किन्तु, कवे!
आमूल भूल है यह उपक्रम!

परम्परा से यह होता आया है यों।
छोड़ो यह भ्रम!
कवि ने धीर भाव से उसे भी मनाया।
यों सब जान गये

कृतिकार आज दिन क्या रचने वाला है
पर वह? बैठा है सने हाथ, अनमना,
सामने तकता मिट्टी के लोंदे को:
कहीं, कभी, पहचान सके वह अपना

भोर का सुन्दर सपना।
झुक गयी साँझ
पर मैं ने क्यों बनाया?
क्या रचा?
-हाय! यह क्या रचाया।

14 नवम्बर, 1957

24. रूप-केकी

रूप-केकी नाचते हैं,
सार-घन! बरसो।
बहुत विस्मृत, बहुत सूना
है गगन जिस को नहीं

उन की पुकारें भर सकेंगी,
बहुत है गरिमा धरा की
नहीं उस के कर्ष-बल से आत्म-विभोर भी
उन की उड़ान उबर सकेगी।

तुम्हीं अपनी दामिनी मायाविनी की
लेखनी अमरत्वदायिनी से
उन्हें परसो।
सार-घन! बरसो।

रूप-केकी नाचते हैं,
सार-घन! बरसो।

क्योतो-ओसाका (रेल में), 16 दिसम्बर, 1957

25. रात और दिन

रात बीतती है
घर के शान्त झुटपुटे कोने में-
सब माँगें पंछी-सी डैनों में सिर खोंस
जहाँ पर अपने ही में खो जाती हैं,

तनी साँस भी स्वस्ति-भाव से
आ जाती है सहज विलम्बित लय पर।
दिन खुलता है
बड़े शहर के शोर-भरे बीहड़ में बेकल दौड़ रहे

उखड़े लोगों की भीड़ों में-
मोड़-मोड़ पर जिन्हें इश्तहारों के रंग-बिरंगे कोड़े
चलता रखते हैं रंगीन सनसनी की तलाश में।
रात अकेले में झीनी-सी छाया एक खड़ी रहती है सिरहाने,

कहती रहती है शब्द बिना:
‘‘तुम मेरे हो, मैं कहीं रहूँ, यह मेरा स्नेह कवच-सा तुम्हें ढके रहता है;
मैं कुछी करूँ, मेरे कामों में हम दोनों की प्रतिश्रुतियों का स्पन्दन है,
मैं कुछी कहूँ, मेरे अन्तस् में अगरु-धूम-सी

मंगल-आशंसाएँ उठती रहती हैं अविराम
तुम सोओ, जागो, कर्म करो, हो विरत,
सर्वदा सब में मैं हूँ: तुम मेरी अग्नि-शिखा हो-

यह देखो मेरी श्रद्धांजलि: यह एक साथ
है उसे बचाती और सौंपती-
और स्निग्ध उस की गरमाई से पुरती भी जाती है।
दिन के जन-संकुल में
भीड़पने की लहरों के अनवरत थपेड़े

निर्मम दुहराते जाते हैं:
‘‘तुम अपने नहीं, पराये हो,
हम चाहे जितना गले मिलें,
चाहे जितना हम मुसकानों के बिछा पाँवड़े

बरसाएँ स्वागत-पंखुड़ियाँ,
तुम तुम हो-अजनबी एक, बेमेल, बिराने।
माला के एक फूल की पंखुड़ियों के भीतर
चिउँटा फूल-सेज पर सोये पर वह फूल नहीं है,

गुँथा नहीं है माला में-
वैसे ही तुम, अजनबी, पराये हो!’’
सुनते थे रात और दिन मणियाँ हैं जीवन की माला की,
पर कौन जौहरी इतने अनमिल मन के
एक सूत्र में गूँथेगा?

ओसाका, 18 दिसम्बर, 1957

26. औद्योगिक बस्ती

पहाड़ियों पर घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में
ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर
धुआँ उगलती जाती हैं।
भीतर जलते लाल धातु के साथ
कमकरों की दु:साध्य विषमताएँ भी
तप्त उबलती जाती हैं।
बंधी लीक पर रेलें लादें माल
चिहुँकती और रंभाती अफ़राये डाँगर-सी
ठिलती चलती जाती हैं।
उद्यम की कड़ी-कड़ी में बंधते जाते मुक्तिकाम
मानव की आशाएँ ही पल-पल
उस को छलती जाती हैं।

ओसाका-हिरोशिमा (रेल में), 17 दिसम्बर, 1957

27. लौटे यात्री का वक्तव्य

सभी जगह जो उपजाता है अन्न, पालता सब को,
उस की झुकी कमर है।
सभी जगह जो शास्ता है,
जो बागडोर थामे है, उस की दीठ मन्द है-

आँखों पर है चढ़ा हुआ मोटा चश्मा जो
प्रायः धूमिल भी होता है।
सभी जगह जिसकी मुट्ठी में ताक़त है
उस का भेजा है एक ओर भेड़िये,

दूसरी पर मर्कट का।
सभी जगह जो रंग-बिरंगी जाज़म पर फैला कर सपनों की मनियारी
घात लगाते हैं गाहक की,
दिल मुर्ग़ी का रखते हैं।

सभी जगह जो मूल्यवान् है
सकुचा रहता है; अदृश्य, सीपी के मोती-सा,
जो मिलता नहीं बिना सागर में डूबे:
सभी जगह जो छिछला है, ओछा है,

नक़ली कीमख़ाब पर सजा हुआ बैठा है लकदक
चौंधाता आँखों को, जब तक ठोकर लगे, पैर रपटे
या जेब कटे, नीयत बिगड़े, हो मतिभ्रंश, दिल डँसा जाय!
सभी जगह है प्रश्न एक:

क्या दोगे? कितना दे सकते हो?
यही पूछते हैं जो फिर भेदक आँखों से
लेते हैं टटोल अंटी में क्या है:
यही दूसरे पूछ, नाप लेते हैं कितना

लहू देह में बाक़ी होगा:
यही तीसरे, आँक रहे जो
मांस-पेशियों में कितना है श्रम-बल-
(बिना छुए या टोडे जैसे चूजे॓ को गाहक टोहता है।)

यही और, जो तिनकों को सिखलाते
बँधी हुई गड्डी की ताक़त, किन्तु बाँधने वाला तार
सदा अपनी मुट्ठी में रखते हैं:
यही और, जिन की लोलुपता

देने का आमन्त्रण सब को देती है,
क्यों कि सिवा इस देने के बस उन को लेना ही लेना है।
और यही वे भी, जिन की जिज्ञासा-
कभी नहीं होती रूपायित, मुखरित

जो अनासक्त हैं, जिन्हें स्वयं कुछ नहीं किसी से लेना है
क्या दोगे? कितना दोगे-दे सकते हो-
मुझे नहीं, जग-भर को, जीवन-भर को,
प्यार? हिरोशिमा

18 दिसम्बर, 1957

28. सांध्य तारा

साँझ। बुझता क्षितिज।
मन की टूट-टूट पछाड़ खाती लहर।
काली उमड़ती परछाइयाँ।
तब एक तारा भर गया आकाश की गहराइयाँ।

जापान, 21 दिसम्बर, 1957

29. सागर पर भोर

बहुत बड़ा है यह सागर का सूना
बहुत बड़ा यह ऊपर छाया औंधा खोखल ।
असमंजस के एक और दिन पर, ओ सूरज,
क्यों, क्यों, क्यों यह तुम उग आए?

आटाभी (जापान), 21 दिसम्बर, 1957

30. मैं ने कहा, पेड़

मैं ने कहा, ‘‘पेड़, तुम इतने बड़े हो,
इतने कड़े हो, न जाने कितने सौ बरसों के आँधी-पानी में
सिर ऊँचा किये अपनी जगह अड़े हो।
सूरज उगता-डूबता है, चाँद भरता-छीजता है

ऋतुएँ बदलती हैं, मेघ उमड़ता-पसीजता है;
और तुम सब सहते हुए
सन्तुलित शान्त धीर रहते हुए
विनम्र हरियाली से ढके, पर भीतर ठोठ कठैठे खड़े हो!’’

काँपा पेड़, मर्मरित पत्तियाँ
बोलीं मानो, ‘‘नहीं, नहीं, नहीं, झूठा
श्रेय मुझे मत दो!
मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ता

या कि सूख ठूँठ हो के टूट जाता,
श्रेय है तो मेरे पैरों-तले इस मिट्टी को
जिस में न जाने कहाँ मेरी जड़ें खोयी हैं:
ऊपर उठा हूँ उतना ही आकाश में

जितना कि मेरी जड़ें नीचे दूर धरती में समायी हैं।
श्रेय कुछ मेरा नहीं, जो है इस नामहीन मिट्टी का।
और, हाँ, इन सब उगने-डूबने, भरने-छीजने,
बदलने, मलने, पसीजने,

बनने-मिटने वालों का भी:
शतियों से मैं ने बस एक सीख पायी है:
जो मरणधर्मा हैं वे ही जीवनदायी हैं।’’

तोक्यो (जापान), 24 दिसम्बर, 1957

31. सागर पर साँझ

बहुत देर तक हम चुपचाप
देखा किये सागर को।
फिर कुछ धीरे से बोला:
‘‘हाँ, लिख लो मन में इस जाती हुई धूप को,

चीड़ों में सरसराती हुई इस हवा को,
लहरों की भोली खिलखिलाहट को:
लिख लो सब मन में-क्यों कि फिर
दिनों तक-(क्या बरसों तक?)-

इसी सागर पर तुम लिखा करोगे
दर्द की एक रेखा-बस एक रेखा
जो, हो सकता है, मूर्त स्मृति भी नहीं लाएगी-
केवल स्वयं आएगी एक रेखा जिसे

न बदला जा सकता है, न मिटाया जा सकता है
न स्वीकार द्वारा ही डुबा दिया जा सकता है
क्यों कि वह दर्द की रेखा है, और दर्द
स्वीकार से भी मिटता नहीं है...’’

लौट हम आये साँझ घिरते न घिरते।
पर फिर उस सागर-तट पर रात को
उगा तारा: उसी पर छितरायी चन्द्रमा ने चाँदनी
उसी पर नभोवृत्त होता रहा और नीला, अपलक:

ये भी तो लहरों पर कुछ लिखते रहे!
हम ने जो लिखा था
अगर वह दर्द है
तो ये क्या लिखते हैं:

न सही दर्द उन में,
न सही भावना-फिर भी, निर्वेद भी,
कुछ तो वे लिखते हैं?
हाँ!

कि ‘‘दर्द है तो ठीक है:
#160;(दर्द स्वीकार से भी मिटता नहीं है
स्वीकार से पाप मिटते हैं, पर दर्द पाप नहीं है।)
दर्द कुछ मैला नहीं,

कुछ असुन्दर, अनिष्ट नहीं,
दर्द की अपनी एक दीप्ति है-
ग्लानि वह नहीं देता।
तुम ने यदि दर्द ही लिखा है,

भद्दा कुछ नहीं लिखा, झूठा कुछ नहीं लिखा,
तो आश्वस्त रहो: हम उसे गहरा ही करेंगे, सारमय बनाएँगे,
उस में रंग भरेंगे, रूप अवतरेंगे,
उसे माँज-माँज कर नयी एक आभा देते रहेंगे,

काल भी उसे एक ओप ही देगा और।
जाओ, वह लिखा हुआ दर्द यहाँ छोड़ जाओ-
तुम्हें वह बार-बार नाना शुभ रूपों में फलेगा।’’

जापान (शिमिजू सागर-तट पर), 5 जनवरी, 1958

32. मानव अकेला

भीड़ों में जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं
वह सहसा दिख जाता है
मानव अंगारे-सा-भगवान्-सा
अकेला।
और हमारे सारे लोकाचार
राख की युगों-युगों की परते हैं।

जनवरी, 1958

33. सागर-तट : सांध्य तारा

मिटता-मिटता भी मिटा नहीं आलोक,
झलक-सी छोड़ गया सागर पर।
वाणी सूनी कह चुकी विदा: आँखों में
दुलराता आलिंगन आया मौत उतर।

एक दीर्घ निःश्वास:
व्योम में सन्ध्या-तारा
उठा सिहर।

हांगकांग शिखर, 19 जनवरी, 1958

34. हवाई अड्डे पर विदा

उड़ गया गरजता यन्त्र-गरुड़
बन बिन्दु, शून्य में पिघल गया।
पर साँप? लोटता डसता छोड़ गया वह उसे यहीं पर
आँखों के आगे धीर-धीरे सब धुँधला होता आता है-
मैदान, पेड़, पानी, गिरि, घर, जन-संकुल।

हांगकांग, 25 जनवरी, 1958

35. मैंने देखा एक बूँद

मैंने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से
रँगी गई क्षण भर
ढलते सूरज की आग से।

मुझको दीख गया:
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!

नयी दिल्ली, 5 मार्च, 1958

36. जन्म-दिवस

एक दिन और दिनों-सा
आयु का एक बरस ले चला गया।

नयी दिल्ली, 7 मार्च, 1958

37. प्राप्ति

स्वयं पथ-भटका हुआ
खोया हुआ शिशु
जुगनुओं को पकड़ने को दौड़ता है
किलकता है:
‘पा गया! मैं पा गया!’

1958

38. चिड़िया की कहानी

उड़ गई चिड़िया
काँपी, फिर
थिर हो गई पत्ती।

नयी दिल्ली, 1958

39. वसंत

यह क्या पलास की लाल लहकती
आग रही कारण, जो वनखंडी की हवा हो चली गर्म आज?

इलाहाबाद, मई, 1958

40. धूप

सूप-सूप भर
धूप-कनक
यह सूने नभ में गयी बिखर:
चौंधाया
बीन रहा है
उसे अकेला एक कुरर।

अल्मोड़ा
५ जून १९५८

41. न दो प्यार

न दो प्यार खोलो न द्वार
तुम कोई इस अन्धी दिवार में:
पा लूँगा दरार मैं कोई। हो न सकूँगा पार-
न हो: मैं बीज उसी में डालूँगा: वह फूटेगा: डार-डार

से उस की झूमेगा फल-भार।
नहीं तो और कौन है द्वार
-या प्यार?

अल्मोड़ा, 5 जून, 1958

42. पगडंडी

यह पगडंडी चली लजीली
इधर-उधर, अटपटी चाल से नीचे को, पर
वहाँ पहुँच कर घाटी में-खिलखिला उठी।
कुसुमित उपत्यका।

अल्मोड़ा, जून, 1958

43. यह मुकुर

यह मुकुर दिया था तू ने:
आज यह मुझ से टूट गया।
यों मोह कि तेरे प्रिय की छवि को
बार-बार मैं देखूँ-छूट गया।

उस दिन यह मुकुर रचा तेरा,
तेरे हाथों में टूटेगा,
मोह दूसरा पात्र प्यार का
रचने का उस दिन क्या
तुझ से छूटेगा?

अल्मोड़ा
10 जुलाई, 1958

44. सागर-चित्र

सूने उदधि की लहर
धीर बधिर:
सूने क्षितिज का आत्मलीन आलोक
अधूरा, धूसर, अन्धा:

टकराहट चट्टानों पर
थोथे थप्पड़ की
जल के:

उड़े झाग की चिनियाहट
गालों पर,
आँखों में किरकिरी रेत:

अर्थहीन मँडराते कई क्रौंच
हकलाते-से जब-तब कराहते हलके ।

यह क्षण: यह चित्र
दरिद्र?
अ-मूल? अमोल?
विलीयमान? चिर?

नयी दिल्ली (रेस्तराँ में बैठे-बैठे), 25 अगस्त, 1958

45. नया कवि

किसी का सत्य था
मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया।
कोई मधु-कोष काट लाया था
मैं ने निचोड़ लिया।

किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।

कोई हुनरमन्द था:
मैं ने देखा और कहा, ‘यों!’
थका भारवाही पाया—
घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों?’


किसी की पौध थी,
मैं ने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
किसी की लगायी लता थी,
मैं ने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली।

किसी की कली थी
मैं ने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।
पर प्रतिमा—अरे, वह तो
जैसे आप को रुचि आप स्वयं गढ़े!

नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर), 3 सितम्बर, 1958

46. नए कवि से

आ, तू आ, हाँ, आ,
मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता-
आ, तू आ।

तेरा कहना है ठीक: जिधर मैं चला
नहीं वह पथ था:
मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर
सदा जिसे पथ कहा गया, जो
इतने-इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर
कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी।

मेरी खोज नहीं थी उस मिट्टी की
जिस को जब चाहूँ मैं रौंदूँ: मेरी आँखें
उलझी थीं उस तेजोमय प्रभा-पुंज से
जिस से झरता कण-कण उस मिट्टी को
कर देता था कभी स्वर्ण तो कभी शस्य,
कभी जीव तो कभी जीव्य,
अनुक्षण नव-नव अंकुर-स्फोटित, नव-रूपायित।

मैं कभी न बन सका करुण, सदा
करुणा के उस अजस्र सोते की ओर दौड़ता रहा जहाँ से
सब कुछ होता जाता था प्रतिपल
आलोकित, रंजित, दीप्त, हिरण्मय
रहस्य-वेष्टित, प्रभा-गर्भ, जीवनमय।

मैं चला, उड़ा, भटका, रेंगा, फिसला,
-(क्या नाम क्रिया के उस की आत्यन्तिक गति को कर सके निरूपित?)-
तू जो भी कह-आक्रोध नहीं मुझ को,
मैं रुका नहीं मुड़ कर पीछे तकने को,
क्यों कि अभी भी मुझे सामने दीख रहा है
वह प्रकाश: अभी भी मरी नहीं है
ज्योति टेरती इन आँखों की।

तू आ, तू देख कि यह पैरों की छाप पड़ी है जहाँ,
कहीं वह है सूना फैलाव रेत का जिस में
कोई प्यासा मर सकता है:
बीहड़ झारखंड है कहीं, कँटीली
जिस की खोहों में कोई बरसों तक चाहे भटक जाय,
कहीं मेड़ है किसी परायी खेती की, मुड़ कर ही
जिस के अगल-बगल से कोई गलियारा पा लेना होगा।

कहीं कुछ नहीं, चिकनी काली रपटन जिस के नीचे
एक कुलबुलाती दलदल है
झाग-भरा मुँह बाये, घात लगाये।
किन्तु प्यास से मरा नहीं मैं, गलियारे भी
चाहे जैसे मुझे मिले: दलदल में भी मैं
डूबा नहीं।

पर आ तू, सभी कहीं, सब चिह्न रौंदता
अपने से आगे जाने वाले के-
आ, तू आ, रखता पैरों पर पैर,
गालियाँ देता, ठोकर मार मिटाता अनगढ़
(और अवांछित रखे गये!)
इन मर्यादा-चिह्नों को

आ, तू आ!
आ तू, दर्पस्फीत जयी!
मेरी तो तुझे पीठ ही दीखेगी-क्या करूँ कि मैं आगे हूँ
और देखता भी आगे की ओर?
पाँवड़े
मैं ने नहीं बिछाये-वे तो तभी, वहीं
बिछ सकते हैं प्रशस्त हो मार्ग जहाँ पर।

आता जा तू, कहता जा जो जी आवे:
मैं चला नहीं था पथ पर,
पर मैं चला इसी से
तुझ को बीहड़ में भी ये पद-चिह्न मिले हैं,
काँटों पर ये एकोन्मुख संकेत लहू के,
बालू की यह लिखत, मिटाने में ही
जिस को फिर से तू लिख देगा।

आ तू, आ, हाँ, आ,
मेरे, पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
जयी, युगनेता, पथ-प्रवर्त्तक,
आ तू आ- ओ गतानुगामी!

नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगरी), 3 सितम्बर, 1958

47. यह कली

यह कली
झुटपुट अँधेरे में पली थी देहात की गली में;
भोली-भली नगर के राज-पथ, दिपते
प्रकाश में गयी छली।

झरी नहीं, बही कहीं
तो निकली नहीं,
लहर कहाँ? भँवर फँसी।
काल डँसी गयी मली-यह कली।

नयी दिल्ली (एम्बेसी रेस्तराँ में), 18 सितम्बर, 1958

48. रोपयित्री

गलियारे से जाते-जाते
उन दिन लख भंगिमा तुम्हारी
और हाथ की मुद्रा,
यही लगा था मुझे

खेत में छिटक रही हो बीज।
किन्तु जब लौटा, देखा
भटके डाँगर रौंद गये हैं सभी क्यारियाँ
भूल गया मै आज, अरे! सहसा पाता हूँ:

अंकुर एक-अनेक-असंख्य-
धरा मानो श्यामल रोमाली के प्रहर्ष से
हो रोमांचित।
हाँ, विस्मय-विभोर

सब जैसे हैं, मैं भी हूँ:
मनोरंग में मेरे भी वह आने वाली
धान-भरी बाली सोनाली
थिरक रही है: मैं भी आँचल

तब पसार दूँगा जब गूँजेगी उस की पद-पायल,
मैं भी लूँगा बीन-छीन
कण-दो कण जो भी हाथ लगेंगे
उस रसवन्ती की पुष्कल करुणा के।

किन्तु जानता हूँ, रहस्य मैं अन्तरतम में:
धरणी सुखदा, शुभदा, वरदा,
भरणी है, पर यह प्रणाम मेरा
है तुम को, केवल तुम को।

भूल गयी थी स्मृति-(दुर्बल!)-पर
तुम्हें मैं नहीं भूला।

नयी दिल्ली (एम्बेसी रेस्तराँ में), 20 सितम्बर, 1958

49. बड़ी लम्बी राह

न देखो लौट कर पीछे
वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से

राह चलते
बड़ी लम्बी राह।

गा रही थी एक दिन
उस छोर बेपरवाह,
लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह
--अवगुण्ठवमयी ठगिनी!—
एक मीठी रागिनी

बड़ी लम्बी राह।
आज सँकरे मोड़ पर यह
वास्तविक विडम्बना
रो रही है:
एक नंगी डाकिनी

बड़ी लम्बी राह: आह,
पनाह इस पर नहीं—
कोई ठौर जिस पर छाँह हो।
कौन आँके मोल उस के शोध का
मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने
एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला?
जल जहाँ है नहीं
क्या वह अब्धि है?
रेत क्या
उपलब्धि है?

बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर
थे हम, एक संवेदना की डोर
बाँधती थी हमें—तुम को: और हम-तुम मानते थे
डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि
पुनीत है, उन से बँधे
सरकार आयेंगे चले

बड़ी लम्बी राह! अब इस ओर पर
संवेदना की आरियाँ ही
मुझे तुम से काटती हैं:
और फिर लोहू-सनी उन धारियों में
और राहों की अथक ललकार है।
और वे सरकार? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले!
बड़ी लम्बी राह: आँख-कोरों से लगा कर
ओठ के नीचे-मुड़े कोने तलक, तेज़ाब-आँकी
एक बाँकी रेख:
‘नहीं जिस से अधिक लम्बी, अमिट या कि अमोघ

विधि की लेख न देखो लौट कर पीछे
भृकुटि मत कसो, मत दो ओट चेहरे को,
चोट से मत बचो; अनुभव डँसे;
न पूछो और कौन पड़ाव अब कब आएगा?

तेज़ाब जब चुक जाएगा-थम जाएँगे, सब यन्त्र; कारोबार
अपने-आप सब रुक जाएगा!

नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर), 22 सितम्बर, 1958

50. इशारे जिंदगी के

ज़िन्दगी हर मोड़ पर करती रही हम को इशारे
जिन्हें हम ने नहीं देखा।
क्यों कि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की
और, हम ने बाँधने से पूर्व देखा था-

हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं।
ज़िन्दगी करती रही नीरव इशारे:
हम धनी थे शब्द के।
‘शब्द ईश्वर है, इसी से वह रहस् है’,

‘शब्द अपने आप में इति है’,-
हमें यह मोह अब छलता नहीं था।
शब्द-रत्नों की लड़ी हम गूँथ कर माला पिन्हाना चाहते थे
नये रूपाकार को, और हम ने यही जाना था

कि रूपाकार ही तो सार है।
एक नीरव नदी बहती जा रही थी,
बुलबुले उस में उमड़ते थे
रहःसंकेत के: हर उमड़ने पर हमें रोमांच होता था,

फूटना हर बुलबुले का, हमें तीखा दर्द होता था।
रोमांच! तीखा दर्द!
नीरव रहःसंकेत-हाय!
ज़िन्दगी करती रही नीरव इशारे,

हम पकड़ते रहे रूपाकार को।
किन्तु रूपाकार चोला है
किसी संकेत शब्दातीत का,
ज़िन्दगी के किसी गहरे इशारे का।

शब्द:
रूपाकार:
फिर संकेत-ये हर मोड़ पर बिखरे हुए संकेत-
अनगिनती इशारे ज़िन्दगी के
ओट में जिन की छिपा है

अर्थ!
हाय, कितने मोह की कितनी दिवारें भेदने को-
पूर्व इस के, शब्द ललके, अंक भेंटे अर्थ को,
क्या हमारे हाथ में वह मन्त्र होगा, हम इन्हें सम्पृक्त कर दें?
अर्थ दो, अर्थ दो।

मत हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो!
हम समझते हैं इशारा ज़िन्दगी का-
हमें पार उतार दो-रूप मत, बस सार दो।
मुखर वाणी हुई, बोलने हम लगे:

हम को बोध था वे शब्द सुन्दर हैं-
सत्य भी हैं, सारमय हैं।
पर हमारे शब्द जनता के नहीं थे,
क्यों कि जो उन्मेष हम में हुआ

जनता का नहीं था, हमारा दर्द
जनता का नहीं था,
संवेदना ने ही विलग कर दी
हमारी अनुभूति हम से।

यह जो लीक हम को मिली थी-
अन्धी गली थी।
चुक गयी क्या राह! लिख दें हम
चरम लिखतम् पराजय की?
इशारे क्या चुक गये हैं

ज़िन्दगी के अभिनयांकुर में?
बढ़े चाहे बोझ जितना
शास्त्र का, इतिहास का
रूढ़ि के विन्यास का या सूक्त का-
कम नहीं ललकार होती ज़िन्दगी की।
मोड़ आगे और हैं-
कौन उस की ओट, देखो, झाँकता है?

दिल्ली-सागर (रेल में), 23 नवम्बर, 1958

51. नए कवि : आत्मोपदेश

शक्ति का मत गर्व कर
तू उपशमन का कर,
हीं रूपाकार को, उस में
छिपा है सार जो, वह वर!

अनुभूति से मत डर-मगर पाखंड उस के दर्द का मत कर:
नहीं अपने-आप जो स्पन्दन डँसे
तेरी धमनियों को, त्वचा की कँपकँपी से
झूठ मत आभास उस का स्वय

अपने को दिखाने की उतावली से भर!
ग़ैर को मत कोंच तू पहचान अपनापन:
चुनौती है जहाँ तू अविकल्प साहस कर:
‘यहाँ प्रतिरोध दुर्बल है, सुलभ जय’, सोच

ऐसा, साहसिक मत बन।
अभियान में जिन खाइयों में
कूदना है, कूद: भरा है उन में अँधेरा इसलिए
मत नयन अपने मूँद!

दीठ की मत डींग भर: जो दिखा उस के बूझने की
तू तपस्या कर:झाड़ मत पल्ला छुड़ा कर
स्वयं अपने-आप से तू झर।
प्यास पर तू विजय पा कर,

और जो प्यासे मिलें, उन के लिए
चुप-चाप निश्चल स्वच्छ शीतल
प्राण-रस से भर।
तू उसे देखे न देखे,

झर रहा जो अन्तहीन प्रकाश-
उसे माथा झुका कर पी:
तू उसे चीन्हे न चीन्हे
हो रहा जो प्राण-स्पन्दन चतुर्दिक गतिमान

उस में डूब कर तू जी।
तू उसे ओढ़े न ओढ़े
व्याप्त मानव-मात्र में है जो विशद अभिप्राय
तू न उस से टूट:
भीड़ का मत हो, डटा रह, मगर

दिग्विद पान्थ के समुदाय से तू
अकेला मत छूट।
एकाकियों की राह?
वह भी है

मगर तब जब कि वह
सब के लिए तोड़ी गयी हो।
अकेला निर्वाण?
वह भी है

अगर उस की चाह
सभी के कल्याण के हित
स्वेच्छया छोड़ी गयी हो।
कहाँ जाता है, इसे मत भूल:

कौन आता है, न इस को भी
कभी मन से उतरने दे।
राह जिस की है उसी की है।
कगारे काट, पत्थर तोड़,

रोड़ी कूट, तू पथ बना, लेकिन
प्रकट हो जब जिसे आना है
तू चुप-चाप रस्ता छोड़:
मुदित-मन वार दे दो फूल,
उसे आगे गुज़रने दे।

सागर-दिल्ली (रेल में), 26 नवम्बर, 1958

52. बाँगर और खादर

बाँगर में
राजाजी का बाग है,
चारों ओर दीवार है
जिस में एक ओर द्वार है,
बीच-बाग़ कुआँ है
बहुत-बहुत गहरा।
और उस का जल
मीठा, निर्मल, शीतल।
कुएँ तो राजाजी के और भी हैं
-एक चौगान में, एक बाज़ार में-
पर इस पर रहता है पहरा।
खादर में
राजाजी के पुरवे हैं,
मिट्टी के घरवे हैं,
आगे खुली रेती के पार
सदानीरा नदी है।
गाँव के गँवार
उसी में नहाते हैं,
कपड़े फींचते हैं,
आचमन करते हैं,
डाँगर भँसाते हैं,
उसी से पानी उलीच
पहलेज सींचते हैं,
और जो मर जायें उन की मिट्टी भी
वहीं होनी बदी है।
कुएँ का पानी
राजाजी मँगाते हैं,
शौक़ से पीते हैं।
नदी पर लोग सब जाते हैं,
उस के किनारे मरते हैं
उसके सहारे जीते हैं।
बाँगर का कुआँ
राजाजी का अपना है
लोक-जन के लिए एक
कहानी है, सपना है
खादर की नदी नहीं
किसी की बपौती की,
पुरवे के हर घरवे को
गंगा है अपनी कठौती की।

नयी दिल्ली, 1 दिसम्बर, 1958

53. वहाँ पर बच जाय जो

जहाँ पर धन
नहीं है राशि वह जिस को समुद
तेरे चरण पर वार दूँ
जहाँ पर तन
नहीं है थाती-मिली वह धूल पावन

जिस में चोले समान उतार दूँ
जहाँ पर मन नहीं है यज्ञ का दुर्दान्त घोड़ा

जिसे लौटा तुझे दे
मैं समर्थ जयी कहाऊँ
जहाँ पर जन नहीं है शक्ति का संघट्ट
जिस में डूब कर ही मैं प्रतिष्ठित व्यक्तित्व पाऊँ

जहाँ पर अहं भी
-जो अजाना, अछूता औ’ उपेक्षावश अलक्षित हो
अनाहत रह गया हो-
नहीं है अन्तिम निजत्व
लुटा जिसे औदार्य का सन्तोष मेरा हो

-वहाँ पर बच जाय जो
(वह क्या, मैं नहीं यह जानता, ओ देवता,
तू जान जो सब जानता है)
उसी अन्तिम सर्ग पर बच जाय जो

वही तेरा हो।
वह जो हो
जो कुछ है वही है
उसी को ले: मुक्ति मुझ को दे।

आज पूरे बोध से यह बात जो मैं ने कही है
यही मेरा साक्ष्य है: मैं प्रतिश्रुति हूँ साथ
तेरे: यह मेरी सही है।

दिल्ली-इलाहाबाद (रेल में), 17 दिसम्बर, 1958

54. जीवन-छाया

पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूँ,
अपनी परछाहीं
सोते के निर्मल जल पर--
तल-पर, भीतर,
नीचे पथरीले-रेतीले थल पर:
अरे, उसे ये पल-पल
भेद-भेद जाती है
कितनी उज्ज्वल
रंगारंग मछलियाँ।

इलाहाबाद, 19 दिसम्बर, 1958

55. मछलियाँ

न जाने मछलियाँ हैं भी या नहीं
आँखें तुम्हारी
किन्तु मेरी दीप्त जीवन-चेतना निश्चय नदी है
हर लहर की ओट जिस की उन्हीं की गति

काँपती-सी जी रही है
पिरोती-सी रश्मियाँ हर बूँद में।

इलाहाबाद, 19 दिसम्बर, 1958

56. उन्मत्त

सूँघ ली है साँस भर-भर
गन्ध मैं ने इस निरन्तर
खुले जाते क्षितिज के उल्लास की,
खा गया हूँ नदी-तट की

लहराती बिछलन जिसे सौ बार
धो-धो कर गयी है अंजली वातास की,
पी गया हूँ अधिक कुछ मैं
स्निग्ध सहलाती हुई-सी

धूप यह हेमन्त की,
आज मुझ को चढ़ गयी है
यह अथाह अकूल अपलक
नीलिमा आकाश की।

मत छुओ, रोको, पुकारो मत मुझे,
जहाँ मैं हूँ वहाँ से मत उतारो-मुझे कुछ मत कहो।
-मगर हाँ, काँपे अगर डग तो
तुम्हीं, ओ तुम, तुम्हीं-तुम रहो,
जो हाथ मेरा गहो।

इलाहाबाद (गंगा की रेती पर), 20 दिसम्बर, 1958

57. जब-जब

जब-जब कहता हूँ-
ओः, तुम कितने बदल गये हो!
जब-तब पहचान एक मुझ में जगती है।
जब-जब दुहराता हूँ:

अब फिर तो ऐसी भूल नहीं हो सकती-
तब-तब यह आस्था ही मुझ को ठगती है।
क्या कहीं प्यार से इतर
ठौर है कोई जो इतना दर्द सँभालेगा?

पर मैं कहता हूँ:
अरे आज पा गया प्यार मैं, वैसा
दर्द नहीं अब मुझ को सालेगा!

इलाहाबाद, 20 दिसम्बर, 1958

58. हिरोशिमा

एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक:
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की
दिशाहिन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्‍थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।

दिल्ली-इलाहाबाद-कलकत्ता (रेल में), 10-12 जनवरी, 1959

59. रश्मि-बाण

‘‘ओ अधीर पथ-यात्री क्यों तुम
यहाँ सेतु पर आ कर
ठिठक गये?
‘‘नयी नहीं है नदी, इसी के साथ-साथ
तुम चलते आये

जाने मेरे अनजाने कितने दिन से!
नया नहीं है सेतु, पार तुम
जाने इस से कितनी बार गये हो
इसी उषा के इसी रंग के

इतने कोमल, इतने ही उज्ज्वल प्रकाश में।
ठिठक गये क्यों
यहाँ सेतु पर आ कर
ओ अब तक अधीर पथ-यात्री?’’

‘‘मैं? मैं ठिठका नहीं।
देखना मेरा दृष्टि-मार्ग से
कितना गहरे चलते जाना है
किसी अन्तहीन अज्ञात दिशा में!

यहीं सेतु के नीचे देख रहा हूँ मैं केवल अपनी छाया को
किन्तु दौड़ते, पल-पल बदल रहे
लहरीले जीते जल पर!’’
‘‘देख रहे हो छाया?

छाया को!
अपनी को!
क्यों तब मुड़ कर भीतर को
अपने को नहीं देखते?

रुकना भी तब नहीं पड़ेगा:
जल बहता हो-बहता जाए-
सेतु हो न हो-दिन हो रजनी,
उषःकाल दोपहरी हो, आँधी-कुहरा हो,

झुका मेघाडम्बर हो या हो तारों-टँका चँदोवा-
तुम्हें न रुकना होगा
किसी मोड़ पर, चौराहे पर,
किसी सेतु पर!

क्यों तुम, ओ पथ-यात्री,
ठिठक गये?’’
‘‘मुझे नदी से, पथ से या कि सेतु से,
अपनी गति से, यति से, या कि स्वयं अपने से,
अपनी छाया छाया से अपनी संगति से
कोई नहीं लगाव-दुराव। क्यों कि ये कोई

लक्ष्य नहीं मेरी यात्रा के।
चौंक गया हूँ मैं क्षण-भर को
क्यों कि अभी इस क्षण मैं ने
कुछ देख लिया है।

‘‘अभी-अभी जो उजली मछली भेद गयी है
सेतु पर खड़े मेरी छाया-(चली गयी है कहाँ!)
वही तो-वही, वही तो
लक्ष्य रही अवचेतन, अनपहचाना
मेरी इस यात्रा का!

‘‘खड़ा सेतु पर हूँ मैं,
देख रहा हूँ अपनी छाया,
मुझे बोध है नदी वहाँ नीचे बहती है
गहरी, वेगवती, प्लव-शीला।

ताल उसी की विरल
लहरों की गति पर देता है प्रति पल
स्पन्दन यह मेरी धमनी का
और चेतना को आलोकित किये हुए है
असम्पृक्त यह सहज स्निग्ध वरदान धूप का!

‘‘सब में हूँ मैं, सब मुझ में हैं,
सब से गुँथा हुआ हूँ, पर जो
बींध गया है सत्य मुझे वह
वह उजली मछली है

भेद गयी जो मेरी
बहुत-बहुत पहचानी
बहुत-बहुत अपनी यह
बहुत पुरानी छाया।

‘‘रुका नहीं कुछ,
सब कुछ चलता ही जाता है,
रुका नहीं हूँ मैं भी, खड़ा सेतु पर:
देखो-देखो-देखो-

फिर आयी वह रश्मि-बाण, दामिनी-द्रुत!-देखो-
बेध रहा है मुझे लक्ष्य मेरे बाणों का!’’

कलकत्ता (एक सेमिनार में बैठे-बैठे), 15 फरवरी, 1959

60. टेर रहा सागर

जब-जब सागर में मछली तड़पी-
तब-तब हम ने उस की गहराई को जाना।
जब-जब उल्का गिरा टूट कर-गिरा कहाँ?-

हम ने सूने को अन्तहीन पहचाना। जो है, वह है,
रहस्य अज्ञेय यही ‘है’ ही है अपने-आप:
जो ‘होता’ है, उस का होना ही
जिसे जानना हम कहते

उस की मर्यादा, माप।
जो है, वह अन्तहीन
घेरे हैं उस को जिस में
जो ‘होता’ है होता है,

जिस में ज्ञान हमारा अर्थ टोहता, पाता,
बल खाता टटोलता बढ़ता है, खोता है।
अर्थ हमारा जितना है, सागर में नहीं
हमारी मछली में है

सभी दिशा में सागर जिस को घेर रहा है।
हम उसे नहीं, वह हम को टेर रहा है।

नयी दिल्ली, 10 मार्च, 1959

61. चिड़िया ने ही कहा

मैंने कहा
कि 'चिड़िया':
मैं देखता रहा-
चिड़िया चिड़िया ही रही ।
फिर-फिर देखा
फिर-फिर बोला,
'चिड़िया' ।
चिड़िया चिड़िया ही रही ।

फिर-जाने कब-
मैंने देखा नहीं:
भूल गया था मैं क्षण-भर को तकना!-
मैं कुछ बोला नहीं-
खो गई थी क्षण-भर को स्तब्ध चकित-सी वाणी,
शब्द गए थे बिखर, फटी छीमी से जैसे
फट कर खो जाते हैं बीज
अनयना रवहीना धरती में
होने को अंकुरित अजाने-
तब-जाने कब-
चिड़िया ने ही कहा
कि 'चिड़िया' ।
चिड़िया ने ही देखा
वह चिड़िया थी ।
चिड़िया
चिड़िया नहीं रही है तब से:
मैं भी नहीं रहा मैं ।

कवि हूँ!
कहना सब सुनना है,स्वर केवल सन्नाटा ।

कहीं बड़े गहरे में
सभी स्वैर हैं नियम,
सभी सर्जन केवल
आँचल पसार कर लेना ।

देहरादून, 18 अगस्त, 1959

62. सरस्वती-पुत्र

मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
खुले गले से मुखर स्वरों में
अति प्रगल्भ गाते जाते थे राम-नाम।
भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, अल्पक,

निर्बाध, अयाने, नाटे, पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।
बाहर वह खोया-पाया, मैला-उजला
दिन-दिन होता जाता वयस्क,

दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
सुस्पष्ट देखता जाता था;
पहचान रहा था रूप,
पा रहा वाणी और बूझता शब्द,

पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था:
दिन-दिन पर उस की घिग्घी बँधती जाती थी।

देहरादून, 19 अगस्त, 1959

63. पास और दूर

जो पास रहे
वे ही तो सबसे दूर रहे:
प्यार से बार-बार
जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे,
वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो
सब से क्रूर रहे।

जो चले गये
ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये
पर जो मिट्टी
उन के पग रोष-भरे खूँदते रहे,
फिर अवहेला से रौंद गये:
उसको वे ही एक अनजाने नयी खाद दे गाड़ गये:
उसमें ही वे एक अनोखा अंकुर रोप गये।
-जो चले गये, जो छोड़ गये,
जो जड़े काट, मिट्टी उपाट,
चुन-चुन कर डाल मरोड़ गये
वे नहर खोद कर अनायास
सागर से सागर जोड़ गये
मिटा गये अस्तित्व,
किन्तु वे
जीवन मुझको सौंप गये।

देहरादून, 24 अगस्त, 1959

64. झील का किनारा

झील का निर्जन किनारा
और वह सहसा छाए सन्नाटे का
एक क्षण हमारा ।
वैसा सूर्यास्त फिर नहीं दिखा
वैसी क्षितिज पर सहमी-सी बिजली
वैसी कोई उत्ताल लहर और नहीं आई
न वैसी मदिर बयार कभी चली ।

वैसी कोई शक्ति अकल्पित और अयाचित
फिर हम पर नहीं छाई ।
वैसा कुछ और छली काल ने
हमारे सटे हुए लिलारों पर नहीं लिखा ।

वैसा अभिसंचित, अभिमंत्रित,
सघनतम संगोपन कल्पान्त
दूसरा हमने नहीं जिया ।
वैसी शीतल अनल-शिखा
न फिर जली, न चिर-काल पली,
न हमसे सँभली ।
या कि अपने को उतना वैसा
हमीं ने दुबारा फिर नहीं दिया?

ढाकुरिया झील, कलकत्ता (मोटर में जाते हुए), 29 नवम्बर, 1959

65. अंतरंग चेहरा

अरे ये उपस्थित
घेरते,घूरते, टेरते
लोग-लोग-लोग-लोग
जिन्हें पर विधाता ने
मेरे लिए दिया नहीं
निजी एक अंतरंग चेहरा ।

अनुपस्थित केवल वे
हेरते, अगोरते
लोचन दो
निहित निजीपन जिन में
सब चेहरों का,
ठहरा ।

वातायन
संसृति से मेरे राग-बंध के ।
लोचन दो-
सम्पृक्ति निविड़ की
स्फटिक-विमल वापियाँ
अचंचल:
जल
गहरा-गहरा-गहरा!

शिक्षायतन, कलकत्ता, 29 नवम्बर, 1959

66. अच्छा खंडित सत्य

अच्छा
खंडित सत्य
सुघर नीरन्ध्र मृषा से,
अच्छा
पीड़ित प्यार सहिष्णु
अकम्पित निर्ममता से।

अच्छी कुण्ठा रहित इकाई
साँचे-ढले समाज से,
अच्छा
अपना ठाठ फ़क़ीरी
मँगनी के सुख-साज से।

अच्छा
सार्थक मौन
व्यर्थ के श्रवण-मधुर भी छन्द से।
अच्छा
निर्धन दानी का उघडा उर्वर दुख
धनी सूम के बंझर धुआँ-घुटे आनन्द से।

अच्छे
अनुभव की भट्टी में तपे हुए कण-दो कण
अन्तर्दृष्टि के,
झूठे नुस्खे वाद, रूढि़, उपलब्धि परायी के प्रकाश से
रूप-शिव, रूप सत्य की सृष्टि के।

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