अखरावट : मलिक मुहम्मद जायसी

Akharavat : Malik Muhammad Jayasi

दोहा

गगन हुता नहिं महि हुती, चंद नहिं सूर ।
ऐसइ अंधकूप महँ रचा मुहम्मद नूर ॥

सोरठा

सांई केरा नावँ हिया पूर, काया भरी ।
मुहमद रहा न ठाँव, दूसर कोइ न समाइ अब ॥
आदिहु ते जो आदि गोसाईं । जेइ सब खेल रचा दुनियाईं ॥
जस खेलेसि तस जाइ न कहा । चौदह भुवन पूरि सब रहा ॥
एक अकेल, न दूसर जाती । उपजे सहस अठारह भाँती ॥
जौ वै आनि जोति निरमई । दीन्हेसि ज्ञान, समुझि मोहिं भई ॥
औ उन्ह आनि बार मुख खोला । भइ मुख जीभ बोल मैं बोला ॥
वै सब किछु, करता किछु नाहीं । जैसे चलै मेघ परछाहीं ॥
परगट गुपुत बिचारि सो बूझा । सो तजि दूसर और न सूझा ॥

दोहा

कहौं सो ज्ञान ककहरा सब आखर महँ लेखि ।
पंडित पढ़ अखरावटी, टूटा जोरेहु देखी ॥

सोरठा

हुता जो सुन्न-म-सुन्न, नावँ ना सुर सबद ।
तहाँ पाप नहिं पुन्न, मुहमद आपुहि आपु महँ ॥1॥
आपु अलख पहिले हुत जहाँ । नावँ न ठावँ न मूरति तहाँ ॥
पूर पुरान, पाप नहिं पुन्नू । गुपुत,, तें गुपुत, सुन्न तें सुन्नू ॥
अलख अकेल, सबद नहिं भाँती । सूरूज, चाँद; दिवस नहिं राती ॥
आखर, सुर, नहिं बोल, अकारा । अकथ कथा का कहौं बिचारा ॥
किछु कहिए तौ किछु नहिं आखौं । पै किछु मुहँ महँ, किछु हिय राखौं ॥
बिना उरेह अरंभ बखाना । हुता आपु महँ आपु समाना ॥
आस न, बास न, मानुष अँडा । भए चौखँड जो ऐस पखँडा ॥

दोहा

सरग न,धरति न खंभमय, बरम्ह न बिसुन महेस ।
बजर-बीज बीरौ अस, ओहि रंग, न भेस ॥

सोरठा

तब भा पुनि अंकूर, सिरजा दीपक निरमला ।
रचा मुम्मद नूर, जगत रहा उजियार होई ॥2॥
ऐस जो ठाकुर किय एक दाऊँ । पहिले रचा मुम्मद-नाऊँ ॥
तेहि कै प्रीति बीज अस जामा । भए दुइ बिरिछ सेत औ सामा ॥
होतै बिरवा भए दुइ पाता । पिता सरग औं धरती माता ॥
सूरूज, चाँद दिवस औ राती । एकहि दूसर भएउ सँघाती ॥
चलि सो लिखनी भइ दुइ फारा । बिरिछ एक उपनी दुइ डारा ॥
भेंटेन्हि जाइ पुन्नि औ पापू । दुख औ सुख, आनंद संतापू ॥
औ तब भए नरक बैकँठू । भल औ मंद, साँच औ झूठू ॥

दोहा

नूर मुहम्मद देखि तब भा हुलास मन सोइ ।
पुनि इबलीस सँचारेउ, डरत रहै सब कोइ ॥

सोरठा

हुता जो अकहि संग, हौं तुम्ह काहे बीछुरा?
अब जिउ उठै तरंग, मुहमद कहा न जाइ किछु ॥3॥
जौ उतपति उपराजै चहा । आपनि प्रभुता आपु सौं कहा ॥
रहा जो एक जल गुपुत समुंदा । बरसा सहस अठारह बुँदा ॥
सोई अंस घटै घट मेला । ओ सोइ बरन बरन होइ खेला ॥
भए आपु औ कहा गोसाईं । सिर नावहु सगरिउ दुनियाईं ॥
आने फूल भाँति बहु फूले । बास बेधि कौतुक सब भूले ॥
जिया जंतु सब अस्तुति कीन्हा । भा संतोष सबै मिलि चीन्हा ॥
तुम करता बड सिरजन-हारा । हरता धरता सब संसारा ॥

दोहा

भरा भँडार गुपुत तहँ, जहाँ छाँह नहिं धूप ।
पुनि अनबन परकार सौं खेला परगट रूप ॥

सोरठा

परै प्रेम के झेल, पिउ सहुँ धनि मुख सो करै ।
जो सिर सेंती खेल, मुहमद खेल सो प्रेम-रस ॥4॥
एक चाक सब पिंडा चढ़े । भाँति भाँति के भाँडा गढ़े ॥
जबहीं जगत किएउ सब साजा । आदि चहेउ आदम उपराजा ॥
पहिलेइ रचे चारि अढवायक । भए सब अढवैयन के नायक ॥
भइ आयसु चारिहु के नाऊँ । चारि वस्तु मेरवहु एक ठाऊँ॥
तिन्ह चारिहु कै मँदिर सँवारा । पाँच भूत तेहिह महँ पैसारा ॥
आपु आपु महँ अरुझी माया । ऐस न जानै दहुँ केहि काया ॥
नव द्वारा राखे मँझियारा । दसवँ मूँदि कै दिएउ केवारा ॥

दोहा

रकत माँसु भरि, पूरि हिय, पाँच भूत कै संग ।
प्रेम-देस तेहि ऊपर बाज रूप औ रंग ॥

सोरठा

रहेउ न दुइ महँ बीचु, बालक जैसे गरभ महँ ।
जग लेइ आई मीचु, मुहमद रोएउ बिछुरि कै ॥5॥
उहँईं कीन्हेउ पिंड उरेहा । भइ सँजूत आदम कै देहा ॥
भइ आयसु, `यह जग भा दूजा । सब मिलि नवहु, करहु एहि पूजा ॥
परगट सुना सबद, सिर नावा ॥ नारद कहँ बिधि गुपुत देखावा ॥
तू सेवक है मोर निनारा । दसई पँवरि होसि रखवारा ॥
भई आयसु, जब वह सुनि पावा । उठा गरब कै सीस नवावा ॥
धरिमिहि धरि पापी जेइ कीन्हा । लाइ संग आदम के दीन्हा ॥
उठि नारद जिउ आइ सँचारा । आइ छींक, उठि दीन्ह केवारा ॥

दोहा

आदम हौवा कहँ सृजा, लेइ घाला कबिलास ।
पुनि तहँवाँ तें काढा, नारद के बिसवास ॥

सोरठा

आदि किएउ आदेश, सुन्नहिं तें अस्थूल भए ।
आपु करै सब भेस मुहमद चादर-ओट जेउँ ॥6॥
का-करतार चहिय अस कीन्हा? आपन दोष आन सिर दीन्हा ॥
खाएनि गोहूँ कुमति भुलाने । परे आइ जग महँ, पछिताने ॥
छोड़ि जमाल-जलालहि रोवा । कौन ठाँव तें दैउ बिछोवा ॥
अंधकूप सगरउँ संसारू । कहाँ सो पुरुष, कहाँ मेहरारू?॥
रैनि छ मास तैसि झरि लाई । रोइ रोइ आँसू नदी बहाई ।
पुनि माया करता कहँ भई । भा भिनसार, रैनि हटि गई ॥
सूरुज उए, कँवल-दल फूले । दवौ मिले पंथ कर भूले ॥

दोहा

तिन्ह संतति उपराजा भाँतिहि भाँति कुलीन ।
हिंदू तुरुक दुवौ भए अपने अपने दीन ॥

सोरठा

बुंदहि समुद समान, यह अचरज कासौं कहौं?
जो हेरा सो हेरान, मुहमद आपुहि आपु महँ ॥7॥
खा-खेलार जस है दुइ करा । उहै रूप आदम अवतारा ॥
दुहूँ भाँति तस सिरजा काया । भए दुइ हाथ, भए दुइ पाया ॥
भए दुइ नयन स्रवन दुइ भाँती । भए दुइ अधर, दसन दुइ पाँती ॥
माथ सरग, धर धरती भएऊ । मिलि तिन्ह जग दूसर होइ गएऊ ॥
माटी माँसु, रकत भा लीरू । नसै नदी, हिय समुद गंभीरू ॥
रीढ़ सुमेरु कीन्ह तेहि केरा । हाड पहार जुरे चहुँ फेरा ॥
बार बिरिछ, रोवाँ खर जामा । सूत सूत निसरे तन चामा ॥

दोहा

सातौ दीप, नवौ खँड, आठौ दिसा जो आहिं ।
जो बरम्हंड सो पिंड है, हेरत अंत न जाहिं ॥

सोरठा

आगि, बाउ, जल, धूरि चारि मेरइ भाँडा गढा ।
आपु रहा भरि पूरि मुहमद आपुहिं आपु महँ ॥8॥
गा-गौरहु अब सुनहु गियानी । कहौं ग्यान संसार लखानी ॥
नासिक पुल सरात पथ चला । तेहि कर भौहैं हैं दुइ पला ॥
चाँद सुरुज दूनौ सुर चलहीं । सेत लिलार नखत झलमलहीं ॥
जागत दिन -निसि सोवत माँझा । हरष भोर, बिसमय होइ साँझा ॥
सुख बैकुंठ भुगुति औ भोगू । दुख है नरक, जो उपजै रोगू ॥
बरखा रुदन, गरज अति कोहू । बिजुरी हँसी हिवंचल छोहू ॥
घरी पहर बेहर हर साँसा । बीतै छऔ ऋतु, बारह मासा ॥

दोहा

जुगजुग बीतै पलहि पल, अवधि घटति निति जाइ ।
मीचु नियर जब आवै, जानहुँ परलय आइ ॥

सोरठा

जेहि घर ठग हैं पाँच, नवौ बार चहुँदिसि फिरिहिं ।
सो घर केहि मिस बाँच? मुहमद जौ निसि जागिए ॥9॥
घा-घट जगत बराबर जाना । जेहि महँ धरती सरग समाना ॥
माथ ऊँच मक्का बन ठाऊँ । हिया मदीना नबी क नाऊँ
सरवन,आँखि, नाक, मुख चारी । चारिहु सेवक लेहु बिचारी ॥
भाव चारि फिरिस्ते जानहु । भावै चारि यार पहिचानहुँ ॥
भावै चारिहु मुरसिद कहऊ । भावै चारि किताबैं पढ़ऊ ॥
भावै चारि इमाम जे आगे । भावै चारि खंभ जे लागे ॥
भाव चारिहु जुग मति-पूरी । भावै आगि, वाउ,जल धूरी ॥

दोहा

नाभि-कँवल तर नारद लिए पाँच कोटवार ।
नवौ दुवारि फिरै निति दसईं कर रखवार ॥

सोरठा

पवनहु तें मन चाँड, मन तें आसु उतावला ।
कतहुँ भेंड न डाँड, मुहमद बहुँ बिस्तार सो ॥10॥
ना-नारद तस पाहरु काया । चारा मेलि फाँद जग माया ॥
नाद, बेद औभूत सँचारा । सब अरुझाइ रहा संसारा ॥
आपु निपट निरमल होइ रहा । एकहु बार जाइ नहिं गहा ॥
जस चौदह खंड तैस सरीरा । जहँवैं दुख है तहँवैं पीरा ॥
जौन देस महँ सँवरे जहवाँ । तौन देस सो जानहु तहँवा ॥
देखहु मन हिरदय बसि रहा । खन महँ जाइ जहाँ कोइ चहा ॥
सोवत अंत अंत महँ डोलै । जब बोलै तब घट महँ बोलै ॥

दोहा

तन-तुरंग पर मनुआ, मन-मस्तक पर आसु ।
सोई आसु बोलावई अनहद बाजा पासु ॥

सोरठा

देखहु कौतुक आइ, रूख समाना बीज महँ ।
आपुहि खोदि जमाइ मुहमद सो फल चाखई ॥11॥
चा-चरित्र जौ चाहहु देखा । बूझहु बिधना केर अलेखा ॥
पवन चाहि मन बहुत उताइल । तेहिं तें परम आसु सुठि पाइल ॥
मन एक खंड न पहुचै पावै । आसु भुवन चौदह फिरि आवै ॥
भा जेहि ज्ञान हिये सो बूझै । जो धर ध्यान न मन तेहि रूझै ॥
पुतरी महँ जो बिंदि एक कारी । देखौ जगत सो पट बिस्तारी ॥
हेरत दिस्टि उघरि तस आई । निरखि सुन्न महँ सुन्न समाई ॥
पेम समुन्द सो अति अवगाहा । बूडै जगत न पावै थाहा ॥

दोहा

जबहिं नींद चख आवै उपजि उठै संसार ।
जागत ऐस न जानै, दहुँ सौ कौन भंडार ॥

सोरठा

सुन्न समुद चख माहि जल जैसी लहरैं उठहिं ।
उठि उठि मिटि मिटि जाहिं, मुहमद खोज न पाइए ॥12॥
छा-छाया जस बुंद अलोपू । ओठई सौं आनि रहा करि गोपू ॥
सोइ चित्त सों मनुवाँ जागै । ओहि मिलि कौतुक खेलै लागै ॥
देखि पिंड कहँ बोली बोलै । अब मोहिं बिनु कस नैन न खोलै? ॥
परमहंस तेहि ऊपर देई । सोऽहं सोऽहं साँसै लेई ॥
तन सराय, मन जानहु दीया । आसु तेल, दम बाती कीआ ॥
दीपक महँ बिधि-जोति समानी । आपुहि बरै । निरबानी ॥
निघटे तेल झूरि भइ बाती । गा दीपक बुझि, अँधियरि राती ॥

दोहा

गा सो प्रान-परैवा, कै पींजर-तन छूँछ ।
मुए पिंड कस फूलै? चेला गुरु सन पूछ ॥

सोरठा

बिगरि गए सब नावँ, हाथ पाँव मुँह सीस धर ।
तोर नावँ केहि ठाँव, मुहमद सोइ बिचारिए ॥13॥
जा-जानहु अस तन महँ भेदू । जैसे रहै अंड महँ मेदू ॥
बिरिछ एक लागी दुइ डारा । एकहिं तें नाना परकारा ॥
मातु के रकत पिता के बिंदू । उपने दवौ तुरुक औ हिंदू ॥
रकत हुतें तन भए चौरंगा । बिदु हुतें जिउ पाँचौ संगा ॥
जस ए चारिउ धरति बिलाहीं । तस वै पाँचौ सरगहि जाहीं ॥
फूलै पवन, पानि सब गरई । अगिनि जारि तन माटी करई ॥
जस वै सरग के मारग माहाँ । तस ए धरति देखि चित चाहा ॥

दोहा

जस तन तस यह धरती, जस मन तैस अकास ।
परमहंस तेहि मानस, जैसि फूल महँ बास ॥

सोरठा

तन दरपन कहँ साजु दरसन दखा जौ चहै ।
मन सौं लीजिय माँजि मुहमद निरमल होइ दिआ ॥14॥
झा-झाँखर-तन महँ मन भूलै । काटन्ह माँह फूल जनु फूलै ॥
देखहुँ परमहंस परछाहीं । नयन जोति सो बिछुरति नाही ॥
जगमग जल महँ दीखत जैसे । नाहिं मिला, नहिं बेहरा तैसे ॥
जस दरपन महँ दरसन देखा । हिय निरमल तेहि महँ जग देखा ॥
तेहि संग लागीं पँचौ छाया । काम, कोह, तिस्ना, मद, माया ॥
चख महँ नियर, निहारत दूरी । सब घट माँह रहा भरिपूरी ॥
पवन न उडै, न भीजै पानी । अगिनि जरै जस निरमल बानी ॥

दोहा

दूध माँझ जस घीउ है, समुद माँह जस मोति ।
नैन मींजि जो देखहु, चमकि ऊठै तस जोति ॥

सोरठा

एकहि तें दुइ होइ, दुइ सौं राज न चलि सकै ।
बीचु तें आपुहि खोइ, मुहमद एकै होइ रहु ॥15॥
ना-नगरी काया बिधि कीन्हा । लेइ खोजा पावा, तेइ चीन्हा ॥
तन महँ जोग भोग औ रोगू । सूझि परै संसार-सँजोगू ॥
रामपुरी औ कीन्ह कुकरमा । मौन लाइ सोधै अस्तर माँ ॥
पै सुठि अगम पंथ बड बाँका । तस मारग जस सुई क नाका ॥
बाँक चढ़ाव, सात खँड ऊँचा । चारि बसेरे जाइ पहूँचा ॥
जस सुमेरु पर अमृत मूरी । देखत नियर, चढ़त बडि दूरी ॥
नाँघि हिवंचल जो तहँ जाई । अमृत-मूरि-पाइ सो खाई ॥

दोहा

एहि बाट पर नारद बैठ कटक कै साज ।
जो ओहि पेलि पईठै, करै दुवौ जग राज ॥

सोरठा

`हौं' कहतै भए ओट, पियै खंड मोसौं किएउ ।
भए बहु फाटक कोट, मुहमद अब कैसे मिलहिं ॥16॥
टा-टुक झाँकहु सातौ खंडा । खंडै खंड लखहु बरम्हंडा ॥
पहिल खंड जो सनीचर नाऊँ । लखि न अँटकु, पौरी महँ ठाऊँ ॥
दूसर खंड बृहस्पति तहँवाँ । काम-दुवार भोग-घर जहँवाँ ॥
तीसर खंड जो मंगल जानहु । नाभि-कँवल महँ ओहि अस्थानहु ॥
चौथ खंड जो आदित अहई । बाईं दिसि अस्तन महँ रहई ॥
पाँचव खंड सुक्र उपराहीं ।कंठ माहँ औ जीभ-तराहीं ॥
छठएँ खंड बुद्ध कर बासा । दुइ बौंहन्ह के बीच निवासा ॥

दोहा

सातवँ सोम कपार महँ, कहा सो दसवँ दुआर ।
जो वह पवँरि उघारै सो बड सिद्ध अपार ॥

सोरठा

जौ न होत अवतार, कहाँ कुटुम परिवार सब ।
झूठ सबै संसार, मुहमद चित्त न लाइए ॥17॥
ठा-ठाकुर बड आप गोसाईं । जेइ सिरजा जग अपनिहि नाईं ॥
आपुहि आपु जौ देखै चहा । आपनि फ्रभुता आपु सौं कहा ॥
सबै जगत दरपन कै लेखा । आपुहि दरपन, आपुहि देखा ॥
आपुहि बन औ आपु पखेरू । आपुहि सौजा, आपु अहेरू ॥
आपुहि पुहुप फूलि बन फूले । आपुहि भँवर बास-रस भूले ॥
आपुहि फल, आपुहि रखवारा । आपुहि सो रस चाखनहारा ॥
आपुहि घट घट महँ मुख चाहै । आपुहि आपन रूप सराहै ॥

दोहा

आपुहि कागद, आपु मसि, आपुहि लेखनहार ।
आपुहि लिखनी, आखर, आपुहि पँडित अपार ॥

सोरठा

केहु नहिं लागिहि साथ, जब गौनब कबिलास महँ ।
चलब झारि दोउ हाथ, मुहमद यह जग छौड़ि कै ॥18॥
डा-डरपहु मन सरगहि खोई । जेहि पाछे पछिताव न होई ॥
गरब करै, जो हौं-हौं करई । बैरी सोइ गोसाइँ क अहई ॥
जो जाने निहचय है मरना । तेहि कहँ `मोर तोर' का करना?॥
नैन, बैन सरबन बिधि दीन्हा । हाथ पाँव सब सेबक कीन्हा ॥
जेहिके राज भोग-सुख करई । लेइ सवाद जगत जस चहई ॥
सो सब पूछिहि, मैं जो दीन्हा । तैं ओहि कर कस अवगुन कीन्हा ॥
कौन उतर, का करब बहाना । बोवै बबुर, लवै कित धाना? ॥

दोहा

कै किछु लेइ, न सकब तब, नितिहि अवधि नियराइ ।
सो दिन आइ जो पहुँचै, पुनि किछु कीन्ह न जाई ॥

सोरठा

जेइ न चिन्हारी कीन्ह, यह जिउ जौ लहि पिंड महँ ।
पुनि किछु परै न चीन्हिह, मुहमद यह जग धुंध होइ ॥19॥
ढा-ढारे जो रकत पसेऊ । सो जाने एहि बात क भेऊ ॥
जेहि कर ठाकुर पहरे जागै । सो सेवक कस सोवै लागै?॥
जो सेवक सोवै चित देई । तेहि ठाकुर नहिं मया करेई ॥
जेइ अवतरि उन्ह कहँ नहिं चीन्हा । तेइ जनम अँबरिथा कीन्हा ॥
मूँदे नैन जगत महँ अवना । अंधधुंध तैसे तै गवना ॥
लेए किछु स्वाद जागि नहिं पावा । भरा मास तेइ सोइ गँवावा ॥
रहै नींद-दुख-भरम लपेटा । आइ फिरै तिन्ह कतहुँ न भेंटा ॥

दोहा

घावत बीते रैनि दिन, परम सनेही साथ ।
तेहि पर भयउ बिहान जब रोइ रोइ मींजै हाथ ॥

सोरठा

लछिमी सत कै चेरि, लाल करे बहु, मुख चहै ।
दीठि न देखै फेरि, मुहमद राता प्रेम जो ॥20॥
ना-निसता जो आपु न भएउ । सो एहि रसहि मारि विष किएऊ ॥
यह संसार झूठ, थिर नाहीं ।उठहि मेघ जेउँ जाइ बिलाहीं ॥
जो एहि रस के बाएँ भएऊ । तेहि कहँ रस विषभर होइ गएऊ ॥
तेइ सब तजा अरथ बेवहारू । और घर बार कुटुम परिवारू ॥
खीर खाँड तेहि मीठ न लागे । उहै बार होइ भिच्छा माँगै ॥
जस जस नियर होइ वह देखै । तस तस जगत हिया महँ लेखै ॥
पुहुमी देखि न लावै दीठी । हेरै नवै न आपनि पीठी ॥

दोहा

छोड़ि देहु सब धंधा, काढि जगत सौ हाथ ॥
घर माया कर छोड़ि कै, धरु काया कर साथ ॥

सोरठा

साँई के भंडारु, बहु मानिक मुकुता भरे।
मन-चोरहि पैसारु, मुहमद तौ किछु पाइए ॥21॥
ता-तप साधहु एक पथ लागे । करहु सेव दिन राति, सभागे!॥
ओहि मन लावहु, रहै न रूठा । छोडहु झगरा, यह जग झूठा ॥
जब हंकार ठाकुर कर आइहि । एक घरी जिउ है न पाइहि ॥
ऋतु बसंत सब खेल धमारी । दगला अस तन, चढ़ब अटारी! ॥
सोइ सोहागिनि जाहि सोहागू । कंत मिलै जो खेलै फागू ॥
कै सिंगार सिर सेंदुर मेलै । सबहि आइ मिलि चाँचरि केलै ॥
औ जो रहै गरब कै गोरी । चढ़ै दुहाग, जरै जस होरी ॥

दोहा

खेलि लेहु जस खेलना, ऊख आगि देइ लाइ ।
झूमरि खेलहु झूमि कै पूजि मनोरा गाइ ॥

सोरठा

कहाँ तें उपने आइ, सुधि बुधि हिरदय उपजिए ।
पुनि कहँ जाहिं समाइ, मुहमद सो खँड खोजिए ॥22॥
था-थापहु बहु ज्ञान बिचारू । जेहि महँ सब समाइ संसारू ॥
जैसी अहै पिरथिमी सगरी । तैसिहि जानहु काया-नगरी ॥
तन महँ पीर औ बेदन पूरी । तन महँ बैद औ ओषद मूरी ॥
तन महँ विष औ अमृत बसई । जानै सो जो कसौटी कसई ॥
का भा पढ़े गुने औ लिखे? करनी साथ किए औ सिखे ॥
आपुहि खोइ ओहि जो पावा । सो बीरौ मनु लाइ जमावा ॥
जो ओहि हेरत जाइ हेराई । सो पावै अमृत-फल खाई ॥

दोहा

आपुहि खौए पिउ मिलै, पिउ खोए सब जाइ ।
देखहु बूझि बिचार मन, लेहु न हेरि हेराइ ॥

सोरठा

कटु है पिउ कर खोज; जो पावा सो मरजिया ।
तह नहिं हँसी, न रोज; मुहमद ऐसै ठाँवँ वह ॥23॥
दा-दाया जाकह गुरु करई । सो सिख पंथ समुझि पग धरई ॥
सात खंड औ चारि निसेनी । अगम चढ़ाव, पंथ तिरबेनी ॥
तौ वह चढ़ै जौ गुरू चढ़ावै । पाँव न डगै, अधिक बल पावै ॥
जो गुरु सकति भगति भा चेला । होइ खेलार खेल बहु खेला ॥
जौ अपने बल चढ़ि कै नाँघा । सो खसि परा, टूटि गइ जाँघा ॥
नारद दौरि संग तेहि मिला । लेइ तेहि साथ कुमारग चला ॥
तेली-बैल जो निसि दिन फिरई । एकौ परग न सो अगुसरई ॥

दोहा

सोइ सोधु लागा रहै जेहि चलि आगे जाइ ।
नतु फिरि पाछे आवई, मारग चलि न सिराइ ॥

सोरठा

सुनि हस्ति कर नाव, अँधरन्ह टोवा धाइ कै ।
जेइ टोवा जेहि ठावँ, मुहमद सो तैसे कहा ॥24॥
धा-धावहु तेहि मारग लागे । जेहि निसतार होइ सब आगे ॥
बिधिना के मारग हैं ते ते । सरग-नखत तन-रोवाँ जेते ॥
जेइ हेरा तेइ तहँवैं पावा । भा संतोष, समुझि मन गावा ॥
तेहि महँ पंथ कहौं भल गाई । जेहि दूनौ जग छाज बड़ाई ॥
सो बड पंथ मुहम्मद केरा । है निरमल कबिलास बसेरा ॥
लिखि पुरान बिधि पठवा साँचा । भा परवाँन, दुवौ जग बाँचा ॥
सुनत ताहि नारद उठि भागै । छूटै पाप, पुन्नि सुनि लागै ॥

दोहा

वह मारग जो पावै सो पहुँचै भव पार ।
जो भूला होइ अनतहि तेहि लूटा बटपार ॥

सोरठा

साईं केरा बार, जो थिर देखै औ सुनै ।
नइ नइ करै जोहार, मुहमद निति उठि पाँच बेर ॥25॥
ना-नमाज है दीन क थूनी । पढ़ै नमाज सोइ बड गूनी ॥
कही तरीकत चिसती पीरू । उधरति असरफ औ जहँगीरू ॥
तेहि के नाव चढ़ा हौ धाई । देखि समुद-जल जिउ न डेराई ॥
जेहि के एसन खेवक भला । जाइ उतरि निरभय सो चला ॥
राह हकीकत परै न चूकी । पैठि मारफत मार बुडूकी ॥
ढूँढि उठै लेइ मानिक मोती । जाइ समाइ जोति महँ जोती ॥
जेहि कहँ उन्ह अस नाव चढ़ावा । कर गहि तीर खेइ लेइ आवा ॥

दोहा

साँची राह सरीअत, जेहि बिसवास न होइ ।
पाँव राख तेहि सीढ़ी निभरम पहुँचै सोइ ॥

सोरठा

जेइ पावा गुरु मीठ, सो सुख-मारग महँ चलै ।
सुख अनंद भा डीठ, मुहमद साथी पोढ जेहि ॥26॥
पा-पाएउँ गुरु मोहदी मीठा । मिला पंथ सो दरसन दीठा ॥
नावँ पियार सेख बुरहानू । नगर कालपी हुत गुरु-थानू ॥
औ तिन्ह दरस गोसाईं पावा । अलहदाद गुरु पंथ लखावा ॥
अलहदाद गुरु सिद्ध नवेला । सैयद मुहमद के वै चेला ॥
सैयद मुहमद दीनहिं साँचा । दानियाल सिख दीन्ह सुबाचा ॥
जुग जुग अमर सो हजरत ख्वाजे । हजरत नबी रसूल नेवाजे ॥
दानियाल तहँ परगट कीन्हा । हजरत ख्वाज खिजिर पथ दीन्हा ॥

दोहा

खड़ग कीन्ह उन्ह जाइ कहँ, देखि डरै इबलीस ।
नावँ सुनत सो बागै, धुनै ओट होइ सीस ॥

सोरठा

देखि समुद महँ सीप,बिनु बूडे पावै नहीं ।
होइ पतंग जल-दीप मुहमद तेहि धँसि लीजिए ॥27॥
फा फल मीठ जो गुरु हुँत पावै । सो बीरौ मन लाइ जमावै ॥
जौ पखारि तन आपन राखै । निसि दिन जागै सो फल चाखै ॥
चित झूलै जस झूलै ऊखा । तजि कै दोउ नींद औ भूखा ॥
चिंता रहै ऊख पहँ सारू । भूमि कुल्हाड़ी करै प्रहारू ॥
तन कोल्हू मन कातर फेरै । पाँचौ भूत आतमहि पेरै ॥
जैसे भाठी तप दिन राती । जग-धंधा जारै जस बाती ॥
आपुहि पेरि उडावै खोई । तब रस औट पाकि गुड़ होई ॥

दोहा

अस कै रस औटावहु जामत गुड़ होइ जाइ ।
गुड़ ते खाँड मीठि भइ, सब परकार मिठाइ ॥

सोरठा

धूप रहै जग छाइ, चहूँ खंड संसार महँ ।
पुनि कहँ जाइ समाइ,मुहमद सो खंड खोजिए ॥28॥
बा-बिनु जिउ तन अस अँधियारा । जौं नहिं होत नयन उजियारा ॥
मसि क बुंद जो नैनन्ह माहीं । सोई प्रेम-अंस परछाहीं ॥
ओहि जोति सौं परखै हीरा । ओहि सौ निरमल सकल सरीरा ॥
उहै जोति नैनन्ह महँ आवै । चमकि उठै जस बीजू देखावे ॥
मग ओहि सगरे जाहिं बिचारू । साँकर मुँह तेहि बड बिसतारू ॥
जहवाँ किछु नहिं, है सत करा । जहाँ छूँछ तहँ वह रस भरा ॥
निरमल जोति बरनि नहिं जाई । निरखि सुन्न यह सुन्न समाई ॥

दोहा

माटी तें जल निरमल, जल तें निरमल बाउ ।
बाउहु तें सुठि निरमल, सुनु यह जाकर भाउ ॥

सोरठा

इहै जगत कै पुन्न, यह जप तप सब साधना ।
जानि परै जेहि सुन्न, मुहमद सोई सिद्ध भा ॥29॥
भा-भल सोइ जो सुन्नहि जानै । सुन्नहि तें सब जग पहिचानै ॥
सुन्नहि तें है सुन्न उपाती । सुन्नहि तें उपजहिं बहु भाँती ॥
सुन्नहि माँझ इंद्र बरम्हंडा । सुन्नहि तें टीके नवखंडा ॥
सुन्नहि तें उपजे सब कोई । पुनि बिलाई सब सुन्नहि होई ॥
सुन्नहि सात सरग उपराहीं । सुन्नहि सातौ धरति तराहीं ॥
सुन्नहि ठाट लाग सब एका । जीवहिं लाग पिंड सगरे का ॥
सुन्नम सुन्नम सब उतिराई । सुन्नहि महँ सब रहे समाई ॥

दोहा

सुन्नहि महँ मन-रूख जस काया महँ जीउ ।
काठी माँझ आगि जस, दूध माहँ जस घीउ ॥

सोरठा

जावँन एकहि बूँद, जामै देखहु छीर सब ।
मुहमद मोति समुद, काढहु मथनि अरंभ कै ॥30॥
मा-मन मथन करै तन खीरू । दुहै सोइ जो आपु अहीरू ॥
पाँचौ भूत आतमहि मारै । दरब-गरब करसी कै जारै ॥
मन माठा सम अस कै धौवै । तन खैला तेहि माहँ बिलोवै ॥
जपहु बुद्धि कै दुइ सन फेरहु । दही चूर अस हिया अभेरहु ॥
पछवाँ कढुई कैसन फेरहु । ओहि जोति महँ जोति अभेरहु ॥
जस अंतरपट साढ़ी फूटै । निरमल होइ मया सब छूटै ॥
माखन मूल उठै लेइ जोती । समुद माँह जस उलथै मोती ॥

दोहा

जस घिउ होइ जराइ कै तस जिउ निरमल होइ ।
महै महेरा दूरि करि, भौग करै सुख सोइ ॥

सोरठा

हिया कँवल जस फूल, जिउ तेहि महँ जस बासना ॥
तन तजि मन महँ भूल, मुहमद तब पहचानिए ॥31॥
जा-जानहु जिउ बसै सो तहवाँ । रहै कवँल-हिय संपुट जहँवाँ ॥
दीपक जैस बरत हिय-आरे । सब घर उजियर तेहि उजियारे ॥
तेहि महँ अंस समानेउ आई । सुन्न सहज मिलि आवै जाई ॥
तहाँ उठै धुनि आउंकारा । अनहद सबद होइ झनकारा ॥
तेहि महँ जोति अनूपम भाँती । दीपक एक, बरै दुइ बाती ॥
एक जो परगट होइ उजियारा । दूसर गुपुत सो दसवँ दुवारा ॥
मन जस टेम, प्रेम दीया । आसु तेल, दम बाती कीया ॥

दोहा

तहँवा जम जस भँवरा फिरा करै चहुँ पास ।
मीचु पवन जब पहुँचै, लेइ फिरै सो बास ॥

सोरठा

सुनहु बचन एक मोर, दीपक जस आरे बरै ।
सब घर होइ अँजोर, मुहमद तस जिउ हीय महँ ॥32॥
रा -रातहु अब तेहि के रंगा । बेगि लागु प्रीतम के संगा ॥
अरध उरध अस है दुइ हीया । परगट, गुपुत बरै जस दीया ॥
परगट मया मोह जस लावै । गुपुत सुदरसन आप लखावै ॥
अस दरगाह जाइ नहिं पैठा । नारद पँवरि कटक लेइ बैठा ॥
ताकहँ मंत्र एक है साँचा । जो वह पढ़ै जाइ सो बाँचा ॥
पंडित पढ़ै सो लेइ लेइ नाऊँ । नारद छाँडि देइ सो ठाऊँ॥
जेकरे हाथ होइ वह कूँजी । खोलि केवार लेइ सो पूँजी ॥

दोहा

उगरे नैन हिया कर, आछै दरसन रात ।
देखै भुवन सो चौदहौ औ जानै सब बात ॥

सोरठा

कंत पियारे भेंट, देखौ तूलम तूल होइ ।
भए बयस दुइ हेंठ, मुहमद निति सरवरि करै ॥33॥
ला-लखई सोई लखि आवा । जो एहि मारग आपु गँवावा ॥
पीउ सुनत धनि आपु बिसारे । चित्त लखै,तन खोइ अडारै ॥
`हौं हौं करब डारहु खोई । परगट गुपुत रहा भरि सोई ॥
बाहर भीतर सोइ समाना । कौतुक सपना सो निजु जाना ॥
सोइ देखै औ सोई गुनई । सोई सब मधुरी धुनि सुनई ॥
सोई करै कीन्ह जो चहई । सोई जानि बूझि चुप रहई ॥
सोई घट घट होइ रस लेई । सोइ पूछै, सोइ ऊतर देई ॥

दोहा

सोई साजै अँतरपट, खेलै आपु अकेल ।
वह भूला जग सेंती, जग भूला ओहि खेल ॥

सोरठा

जौ लगि सुनै न मीचु, तौ लगि मारै जियत जिउ ।
कोई हुतेउ न बीचु, मुहमद ऐकै होइ रहै ॥34॥
वा-वह रूप न जाइ बखानी । अगम अगोचर अकथ कहानी ॥
छंदहि छंद भएउ सो बंदा । छन एक माहँ हँसी रोवंदा ॥
बारे खेल, तरुन वह सोवा । लउटी बूढ लेइ पुनि रोवा ॥
सो सब रंग गोसाईं केरा । भा निरमल कबिलास बसेरा ॥
सो परगट महँ आइ भुलावै । गुपत में आपन दरस देखावै ॥
तुम अनु गुपुत मते तस सेऊ । ऐसन सेउ न जानै केऊ ॥
आपु मरे बिनु सरग न छूवा । आँधर कहहिं, चाँद कहँ ऊवा?

दोहा

पानी महँ जस बुल्ला, तस यह जग उतिराइ ।
एकहि आबत देखिए, एक है जगत बिलाइ ॥

सोरठा

दीन्ह रतन बिधि चारि, नैन, बैन, सरबन्न मुख ।
पुनि जब मेटिहि मारि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥35॥
सा-साँसा जौ लहि दिन चारी । ठाकुर से करि लेहु चिन्हारी ॥
अंध न रहहु, होहु डिठियारा । चीन्हि लेहु जो तोहि सँवारा ॥
पहिले से जो ठाकुर कीजिय । ऐसे जियन मरन नहिं छीजिय ॥
छाँडहु घिउ औ मछरी माँसू । सूखे भोजन करहु गरासू ॥
दूध, माँसु, घिउ कर न अहारू । रोटी सानि करहु फरहारू ॥
एहि बिधि काम घटावहु काया । काम, क्रोध, तिसना, मद माया ॥
सब बैठहु बज्रासन मारी । गहि सुखमना पिंगला नारी ॥

दोहा

प्रेम तंतु तस लाग रहु करहु ध्यान चित बाँधि ।
पारस जैस अहेर कहँ लाग रहै सर साधि ॥

सोरठा

अपने कौतुक लागि, उपजाएन्हि बहु भाँति कै ।
चीन्हि लेहु सो जागि, मुहमद सोइ न खोइए ॥36॥
खा-खेलहु, खेलहु ओहि भेंटा । पुनि का खेलहु, खेल समेटा ॥
कठिन खेल औ मारग सँकरा । बहुतन्ह खाइ फिरे सिर टकरा ॥
मरन-खेल देखा सो हँसा । होइ पतंग दीपक महँ धँसा ॥
तन-पतंग कै भिरिंग कै नाई । सिद्ध होइ सो जुग जुग ताई ॥
बिनु जिउ दिए न पावै कोई । जो मरजिया अमर भा सोई ॥
नीम जो जामै चंदन पासा । चंदन बेधि होइ तेहि बासा ॥
पावँन्ह जाइ बली सन टेका । जौ लहि जिउ तन, तौलहि भेका ॥

दोहा

अस जानै है सब महँ औ सब भावहि सोइ ।
हौं कोहाँर कर माटी, जो चाहै सो होइ ॥

सोरठा

सिद्ध पदारथ तीनि, बुद्धि, पावँ औ सिर, कया ।
पुनि लेइहि सब छीनि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥37॥
सा साहस जाकर जग पूरी । सो पावा वह अमृत-मूरी ॥
कहौ मंत्र जो आपनि पूँजी । खोलु केवारा ताला कूँजी ॥
साठि बरिस जो लपई झपई । छन एक गुपुत जाप जो जपई ॥
जानहु दुवौ बराबर सेवा । ऐसन चलै मुहमदी खेवा ॥
करनी करै जो पूजै आसा । सँवरे नाँव जो लेइ लेइ साँसा ॥
काठी घँसत उठै जस आगी । दरसन देखि उठै तस जागी ॥
जस सरवर महँ पंकज देखा । हिय कै आँखि दरस सब लेखा ॥

दोहा

जासु कया दरपन कै देखु आप मुँह आप ।
आपुहि आपु जाइ मिलु जहँ नहिं पुन्नि न पाप ॥

सोरठा

मनुवाँ चंचल ढाँप, बरजे अहथिर ना रहै ।
पाल पेटारे साँप, मुहमद तेहि बिधि राखिए ॥ 38॥
हा-हिय ऐसन बरजे रहई । बूडि न जाइ, बूड अति अहई ॥
सोइ हिरदय कै सीढ़ी चढ़ई । जिमि लोहार घन दरपन गढ़ई ॥
चिनगि जोति करसी तें भागै । परम तंतु परचावै लागै ॥
पाँच दूत लोहा गति तावै । दुहुँ साँस भाठी सुलगावै ॥
कया ताइ कै खरतर करई । प्रेम के सँडसी पोढ़ कै धरई ॥
हनि हथेव हिय दरपन साजै । छोलनी जाप लिहे तन माँजै ॥
तिल तिल दिस्टि जोति सहुँ ठानै । साँस चढ़ाइ कै ऊपर आनै ॥

दोहा

तौ निरमल मुख देखै जोग होइ तेहि ऊप ।
होइ डिठियार सो देखै अंधन के अँधकूप ॥

सोरठा

जेकर पास अनफाँस, कहु हिय फिकिर सँभारि कै ।
कहत रहै हर साँस, मुहमद निरमल होइ तब ॥39॥
खा -खेलन औ खेल पसारा । कठिन खेल औ खेलनहारा ॥
आपुहि आपुहि चाह देखावा । आदम-रूप भेस धरि आवा ॥
अलिफ एक अल्ला बड सोई । दाल दीन दुनिया सब कोई ॥
मीम मुहमद प्रीति पियारा । तिनि आखर यह अरथ बिचारा ॥
मुख बिधि अपने हाथ उरेहा । दुइ जग साजि सँवारा देहा ॥
कै दरपन अस रचा बिसेखा । आपन दरस आप महँ देखा ॥
जो यह खोज आप महँ कीन्हा तेइ आपुहि खोजा, सब चीन्हा ॥

दोहा

भागि किया दुइ मारग, पाप पुन्नि दुइ ठाँव ।
दहिने सो सुठि दाहिने, बाएँ सो सुठि बावँ ॥

सोरठा

भा अपूर सब ठावँ गुडिला मोम सँवारि कै ।
राखा आदम नाव, मुहमद सब आदम कहै ॥40॥
औ उन्ह नावँ सीखि जौ पावा । अलख नाव लेइ सिद्धू कहावा ॥
अनहद ते भा आदम दूजा । आप नगर करवावै पूजा ॥
घट घट महँ होइ निति सब ठाऊँ । लाग पुकारै आपन नाऊँ ॥
अनहद सुन्न रहै सब लागै । कबहुँ न बिसरे सोए जागै ॥
लिखि पुरान महँ कहाँ बिसेखी । मोहिं नहिं देखहु, मैं तुम्ह देखी ॥
तू तस सोइ न मोहिं बिसारसि । तू सेवा जीतै, नहिं हारसि ॥
अस निरमल जस दरपन आगे । निसि दिन तोर दिस्टि मोहिं लागे ॥

दोहा

पुहुप बास जस हिरदय रहा नैन भरिपूरि ।
नियरे से सुठि नीयरे, ओहट से सुठि दूरि ॥

सोरठा

दुवौ दिस्टि टक लाइ, दरपन जो देखा चहै ।
दरपन जाइ देखाइ, मुहमद तौ मुख देखिए ॥41॥
छा-छाँडेहु कलंक जेहि नाहीं । केहु न बराबरि तेहि परछाहीं ॥
सूरज तपै परै अति घामू । लागे गहन गहन होइ सामू ॥
ससि कलंक का पटतर दीन्हा । घटै बढ़े औ गहने लीन्हा ॥
आगि बुझाइ ज पानी परई । पानि सूख, माटी सब सरई ॥
सब जाइहि जो जग महँ होई । सदा सरबदा अहथिर सोई ॥
निहकलंक निरमल सब अंगा । अस नाहीं केहु रूप न रंगा ॥
जो जानै सो भेद न कहई । मन महँ जानि बूझि चुप रहई ॥

दोहा

मति ठाकुर कै सुनि कै, कहै जो हिय मझियार ।
बहुरि न मत तासौं करै ठाकुर दूजी बार ॥

सोरठा

गगरी सहस पचास जौ, कोउ पानी भरि धरै ।
सूरुज दिपै अकास, मुहमद सब महँ देखिए ॥42॥
ना-नारद तब रोइ पुकारा । एक जोलाहै सौं मैं हारा ॥
प्रेम-तंतु निति ताना तनई । जप तप साधि सैकरा भरई ॥
दरब गरब सब देइ बिथारी । गनि साथी सब लेहिं सँभारी ॥
पाँच भूत माँडी गनि मलई । ओहि सौं मोर न एकौ चलई ॥
बिधि कहँ सँवरि साज सो साजै । लेइ लेइ नावँ कूँच सौ माँजै ॥
मन मुर्री देइ सब अँग मोरै । तन सो बिनै दोउ कर जोरै ॥
सुथ सूत सो कया मँजाई । सीझा काम बिनत सिधि पाई ॥

दोहा

राउर आगे का कहै जो सँवरै मन लाइ ।
तेहि राजा निति सँवरै पूछै धरम बोलाइ ।

सोरठा

तेहि मुख लावा लूक, समुझाए समुझै नहीं ।
परै खरी तेहि चूक, मुहमद जेहि जाना नहीं ॥43॥
मन सौं देइ कढ़नी दुइ गाढ़ी । गाढ़े छीर रहै होइ साढ़ी ॥
ना ओहि लेखे राति न दिना । करगह बैठि साट सो बिना ॥
खरिका लाइ करै तन घीसू । नियर न होइ, डरैं इबलीसू ॥
भरै साँस जब नावै नरी । निसरै छूँछी, पैठै भरी ॥
लाइ लाइ कै नरी चढ़ाई । इललिलाह कै ढारि चलाई ॥
चित डोलै नहिं खूँटी ढरई । पल पल पेखि आग अनुसरई ॥
सीधे मारग पहुँचै जाइ । जो एहि भाँति करै सिधि पाई ॥

दोहा

चलै साँस तेहि मारग, जेहि से तारन होइ ।
धरै पाव तेहि सीढ़ी, तुरतै पहुँचै सोइ ॥

सोरठा

दरपन बालक हाथ, मुख देखे दूसर गनै ।
तस भा दुइ एक साथ, मुहमद एकै जानिए ॥44॥
कहा मुहम्मद प्रेम-कहानी । सुनि सो ज्ञानी भए धियानी ॥
चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । देखहुँ निरखि भरा औ छूँछा ॥
दुहुँ रूप है एक अकेला । औ अनबन परकार सो खेला ॥
औ भा चहै दुवौ मिलि एका । को सिख देइ काहि को टेका? ॥
कैसे आपु बीच सो मेटै? । कैसे आप हेराइ सो भेंटै?॥
जौ लहि आपु न झियत मरई । हँसै दूरि सौं बात न करई ॥
तेहि कर रूप बदन सब देखै । उठै घरी महँ भाँति बिसेखै ॥

दोहा

सो तौ आपु हेरान है, तम मन जीवन खोइ ।
चेला पूछै गुरू कहँ, तेहि कस अगरे होइ?॥

सोरठा

मन अहथिर कै टेकु, दूसर कहना छाँडि दे ।
आदि अंत जो एक, मुहमद कहु, दूसर कहाँ ॥45॥
सुनु देला! उत्तर गुरु कहई । एक होइ सो लाखन लहई ॥
अहथिर कै जो पिंडा छाडै । औ लेइकै धरती महँ गाडै ॥
काह कहौं जस तू परछाहीं । जौ पै किछु आपन बस नाहीं ॥
जो बाहर सो अंत समाना । सो जानै जो ओहि पहिचाना ॥
तू हेरै भीतर सौं मिंता । सोइ करै जेहि लहै न चिंता ॥
अस मन बूझि छाँडु;को तोरा?। होहु समान, करहु मति `मोरा' ॥
दुइ हुँत चलै न राज न रैयत । तब वेइ सीख जो होइ मग ऐयत ॥

दोहा

अस मन बूझहु अब तुम, करता है सो एक ।
सोइ सूरत सोइ मूरत, सुनै गुरू सौं टेक ॥

सोरठा

नवरस गुरु पहँ, भीज, गुरु=परसाद सो पिउ मिलै ।
जामि उठै सो बीज, मुहमद सोई सहस बुँद ॥46॥
माया जरि अस आपुहि खोई । रहै न पाप, मैलि गइ धौई ॥
गौं दूसर भा सुन्नहि सुन्नू । कहँ कर पाप, कहाँ कर पुन्नू ॥
आपुहि गुरू, आपु भा चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ।
अहै सो जोगी, अहै सो भोगी । अहैं सो निरमल,अहै सो रोगी ॥
अहै सो कड़ुवा, अहै सो मीठा । अहै सो आमिल, अहै सो सीठा ॥
वै आपुहि कहँ सब महँ मेला । रहै सो सब महँ, खेलै खेला ॥
उहै दोउ मिलि एकै भएऊ । बात करत दूसर होइ गएऊ ॥

दोहा

जो किछु है सो है सब, ओहि बिनु नाहिंन कोइ ।
जो मन चाहा सो किया, जो चाहै सो होइ ।

सोरठा

एक से दूसर नाहिं बाहर भीतर बूझि ले ।
खाँडा दुइ न समाहिं, मुहमद एक मियान महँ ॥47॥
पूछौं गुरु बात एक तोंही । हिया । सोच एक उपजा मोहीं ॥
तोहि अस कतहुँ न मोहि अस कोई । जो किछु है सो ठहरा सोई ॥
तस देखा मैं यह संसारा । जस सब भाँडा गढै कोहाँरा ॥
काहू माँझ खाँड भरि धरई । काहू माँझ सो गोबर भरई ॥
वह सब किछु कैसे कै कहई । आपु बिचारि बूझि चुप रहई ॥
मानुष तौ नीकै सँग लागै । देखि घिनाइ त उठि कै भागै ॥
सीझ चाम सब काहू भावा । देखि सरा सो नियर न आवा ॥

दोहा

पुनि साईं सब जन मरै, औ निरमल सब चाहि ।
जेहि न मैलि किछु लागै, लावा जाइ न ताहि ॥

सोरठा

जोगि, उदासी दास, तिन्हहिं न दुख औ सुख हिया ॥
घरही माहँ उदास, मुहमद सोइ सराहिए ॥48॥
सुनु चेला! जस सब संसारू । ओहि भाँति तुम कया बिचारू ॥
जौ जिउ कया तौ दुख सौं भीजा । पाप के ओट पुन्नि सब छीजा ॥
जस सूरुज उअ देख अकासू । सब जग पुन्नि उडै परगासू ॥
भल ओ मंद जहाँ लगि होई । सब पर धूप रहै पुनि सोई ॥
मंदे पर वह दिस्टि जो परई । ताकर मैलि नैन सौं ढरई ॥
अस वह निरमल धरति अकासा । जैसे मिली फूल महँ बासा ॥
सबै ठाँव औ सब परकारा । ना वह मिला, न रहै निनारा ॥

दोहा

ओहि जोति परछाहीं नवौ खंड उजियार ।
सूरुज चाँद कै जोती, अदित अहै संसार ॥

सोरठा

जेहि कै जोति-सरूप, चाँद सुरुज तारा भए ।
तेहि कर रूप अनूप, मुहमद बरनि न जाइ किछु ॥49॥
चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । धरती सरग बीच सब छूँछा ॥
कीन्ह न थूनी, भीति, न पाखा । केहि बिधि टेकि गगन यह राखा?॥
कहाँ से आइ मेघ बरिसावै । सेत साम सब होइ कै धावै?॥
पानी भरै समुद्रहि जाई । कहाँ से उरे, बरसि बिलाई?॥
पानी माँझ उठै बजरागी । कहाँ से लौकि बीजु भुइ लागी?॥
कहँवा सूर, चंद औ तारा । लागि अकास करहिं उजियारा?॥
सूरुज उव बिहानहि आई । पुनि सो अथ कहाँ कहँ जाई?॥

दोहा

काहै चंद घटत है, कहे सूरुज पूर ।
काहे होइ अमावस, काहे लागे मूर?॥

सोरठा

जस किछु माया मोह, तैसे मेघा, पवन, जल ।
बिजुरी जैसे कोह, मुहमद तहाँ समाइ यह ॥50॥
सुनु चेला! एहि जग कर अवना । सब बादर भीतर है पवना ॥
सुन्न सहित बिधि पवनहि भरा । तहाँ आप होइ निरमल करा ॥
पवनहि महँ जो आप समाना । सब भा बरन ज्यों आप समाना ॥
जैस डोलाए बेना डोलै । पवन सबद होइ किछुहु न बोलै ॥
पवनहि मिला मेघ जल भरई । पवनहि मिला बुंद भुइँ परई ॥
पवनहिं माहँ जो बुल्ला होई । पवनहि फुटै, जाइ मिलि सोई ॥
पवनहि पवन अंत होइ जाई । पवनहि तन कहँ छार मिलाई ॥

दोहा

जिया जंतु जत सिरजा, सब महँ पवन सो पूरि ।
पवनहि पवन जाइ मिलि, आगि,बाउ,जल धूरि ॥

सोरठा

निति सो आयसु होइ, साईं जो आज्ञा करै ॥
पवन-परेवा सोइ, मुहमद बिधि राखे रहै ॥51॥
बड करतार जिवन कर राजा । पवन बिना कछु करत न छाजा ॥
तेहि पवन सौं बिजुरी साजा । ओहि मेघ परबत उपराजा ॥
उहै मेघ सौं निकरि देखावै । उहै माँझ पुनि जाइ छपावै ॥
उहै चलावै चहुँदिसि सोई । जस जस पाँव धरै जो कोई ॥
जहाँ चलावै तहवाँ चलई । जस जस नावै तस तस नवई ॥
वहुरि न आवै छिटकत झाँपै । तेहि मेघ सँग खन खन काँपै ॥
जस पिउ सेवा चूखे रूठै । परै गाज पुहुमी तपि कूटै ॥

दोहा

अगिनि, पानि औ माटी, पवन फूल कर मूल ।
उहई सिरजन कीन्हा, मारि कीन्ह अस्थूल ॥

सोरठा

देखु गुरू, मन चीन्ह, कहाँ जाइ खोजत रहै ।
जानि परै परबीन, मुहमद तेहि सुधि पाइए ॥52॥
चेला चरचत गुरु-गन गावा । खोजत पूछि परम गति पावा ॥
गुरु बिचारि चेला जेहि चीन्हा । उत्तर कहत भरम लेइ लीन्हा ॥
जगमग देख उहै उजियारा । तीनि लोक लहि किरिन पसारा ॥
ओहि ना बरन, न जाति अजाती । चंद न सुरुज; दिवस ना राती ॥
कथा न अहै, अकथ भा रहई । बिना बिचार समुझि का परई?॥
सोऽहं सोऽहं बसि जो करई । जो बूझै सो धीरज धरई ॥
कहै प्रेम कै बरनि कहानी । जो बूझै सो सिद्धि गियानी ॥

दोहा

माटी कर तन भाँडा, माटी महँ नव खंड ।
जे केहु खेलै माटि कहँ, माटी प्रेम प्रचंड ॥

सोरठा

गलि सोइ माटीं होइ, लिखनेहारा बापुरा ।
जौ न मिटावै कोइ, लिखा रहै बहुतै दिना ॥53॥

  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : मलिक मुहम्मद जायसी
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