यानी : जौन एलिया

Yani : Jaun Elia

अपने सब यार काम कर रहे हैं

अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं

तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह
आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं

दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं

हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं

है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं

एक क़त्ताला चाहिए हम को
हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं

क्या भला साग़र-ए-सिफ़ाल कि हम
नाफ़-प्याले को जाम कर रहे हैं

हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को
और वो एहतिराम कर रहे हैं

न उठे आह का धुआँ भी कि वो
कू-ए-दिल में ख़िराम कर रहे हैं

उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं

हम अजब हैं कि उस के कूचे में
बे-सबब धूम-धाम कर रहे हैं

अभी फ़रमान आया है वहाँ से

अभी फ़रमान आया है वहाँ से
कि हट जाऊँ मैं अपने दरमियाँ से

यहाँ जो है तनफ़्फ़ुस ही में गुम है
परिंदे उड़ रहे हैं शाख़-ए-जाँ से

दरीचा बाज़ है यादों का और मैं
हवा सुनता हूँ पेड़ों की ज़बाँ से

ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से

था अब तक मा'रका बाहर का दरपेश
अभी तो घर भी जाना है यहाँ से

फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की
फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से

ख़बर क्या दूँ मैं शहर-ए-रफ़्तगाँ की
कोई लौटे भी शहर-ए-रफ़्तगाँ से

यही अंजाम क्या तुझ को हवस था
कोई पूछे तो मीर-ए-दास्ताँ से

बे-क़रारी सी बे-क़रारी है

बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है

जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है

निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है

बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है

आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है

उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है

हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है

इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है

हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है

ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है

कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे

कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे

शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे

वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे

यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे

मेरा साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएँगे
या'नी मेरे बा'द भी या'नी साँस लिए जाते होंगे

बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या

बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या
ज़माने भर से वा'दा कर लिया क्या

तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली
तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या

हुनर-मंदी से अपनी दिल का सफ़्हा
मिरी जाँ तुम ने सादा कर लिया क्या

जो यकसर जान है उस के बदन से
कहो कुछ इस्तिफ़ादा कर लिया क्या

बहुत कतरा रहे हो मुग़्बचों से
गुनाह-ए-तर्क-ए-बादा कर लिया क्या

यहाँ के लोग कब के जा चुके हैं
सफ़र जादा-ब-जादा कर लिया क्या

उठाया इक क़दम तू ने न उस तक
बहुत अपने को माँदा कर लिया क्या

तुम अपनी कज-कुलाही हार बैठीं
बदन को बे-लिबादा कर लिया क्या

बहुत नज़दीक आती जा रही हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या

ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं

ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

है वो जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दर-पेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुश्बू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

रूह प्यासी कहाँ से आती है

रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है

है वो यक-सर सुपुर्दगी तो भला
बद-हवासी कहाँ से आती है

वो हम-आग़ोश है तो फिर दिल में
ना-शनासी कहाँ से आती है

एक ज़िंदान-ए-बे-दिली और शाम
ये सबा सी कहाँ से आती है

तू है पहलू में फिर तिरी ख़ुश्बू
हो के बासी कहाँ से आती है

दिल है शब-सोख़्ता सिवाए उम्मीद
तू निदा सी कहाँ से आती है

मैं हूँ तुझ में और आस हूँ तेरी
तो निरासी कहाँ से आती है

बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में

बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में
मैं नहीं ख़ुद में ये इक आम ख़बर है मुझ में

इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल
'जौन' बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में

है मिरी उम्र जो हैरान तमाशाई है
और इक लम्हा है जो ज़ेर-ओ-ज़बर है मुझ में

क्या तरसता हूँ कि बाहर के किसी काम आए
वो इक अम्बोह कि बस ख़ाक-बसर है मुझ में

डूबने वालों के दरिया मुझे पायाब मिले
उस में अब डूब रहा हूँ जो भँवर है मुझ में

दर-ओ-दीवार तो बाहर के हैं ढाने वाले
चाहे रहता नहीं मैं पर मिरा घर है मुझ में

मैं जो पैकार में अंदर की हूँ बे-तेग़-ओ-ज़िरह
आख़िरश कौन है जो सीना-सिपर है मुझ में

मा'रका गर्म है बे-तौर सा कोई हर-दम
न कोई तेग़ सलामत न सिपर है मुझ में

ज़ख़्म-हा-ज़ख़्म हूँ और कोई नहीं ख़ूँ का निशाँ
कौन है वो जो मिरे ख़ून में तर है मुझ में

हम आँधियों के बन में किसी कारवाँ के थे

हम आँधियों के बन में किसी कारवाँ के थे
जाने कहाँ से आए हैं जाने कहाँ के थे

ऐ जान-ए-दास्ताँ तुझे आया कभी ख़याल
वो लोग क्या हुए जो तिरी दास्ताँ के थे

हम तेरे आस्ताँ पे ये कहने को आए हैं
वो ख़ाक हो गए जो तिरे आस्ताँ के थे

मिल कर तपाक से न हमें कीजिए उदास
ख़ातिर न कीजिए कभी हम भी यहाँ के थे

क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िराँ
हिन्दोस्ताँ में आए हैं हिन्दोस्ताँ के थे

अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की
ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे

हम किस को दें भला दर-ओ-दीवार का हिसाब
ये हम जो हैं ज़मीं के न थे आसमाँ के थे

हम से छिना है नाफ़-पियाला तिरा मियाँ
गोया अज़ल से हम सफ़-ए-लब-तिश्नगाँ के थे

हम को हक़ीक़तों ने किया है ख़राब-ओ-ख़्वार
हम ख़्वाब-ए-ख़्वाब और गुमान-ए-गुमाँ के थे

सद-याद-ए-याद 'जौन' वो हंगाम-ए-दिल कि जब
हम एक गाम के न थे पर हफ़्त-ख़्वाँ के थे

वो रिश्ता-हा-ए-ज़ात जो बरबाद हो गए
मेरे गुमाँ के थे कि तुम्हारे गुमाँ के थे

सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी

सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी
एक आवाज़ अभी आई थी वो आवाज़ हवा की थी

बे-दुनियाई ने इस दिल की और भी दुनिया-दार किया
दिल पर ऐसी टूटी दुनिया तर्क ज़रा दुनिया की थी

अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ
ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी

अपने-आप से जब मैं गया हूँ तब की रिवायत सुनता हूँ
आ कर कितने दिन तक उस की याद मुझे पूछा की थी

हूँ सौदाई सौदाई सा जब से मैं ने जाना है
तय वो राह-ए-सर-ए-सौदाई मैं ने बे-सौदा की थी

गर्द थी बेगाना-गर्दी की जो थी निगह मेरी ताहम
जब भी कोई सूरत बिछड़ी आँखों में नम-नाकी थी

है ये क़िस्सा कितना अच्छा पर मैं अच्छा समझूँ तो
एक था कोई जिस ने यक-दम ये दुनिया पैदा की थी

मुझे ग़रज़ है मिरी जान ग़ुल मचाने से

मुझे ग़रज़ है मिरी जान ग़ुल मचाने से
न तेरे आने से मतलब न तेरे जाने से

अजीब है मिरी फ़ितरत कि आज ही मसलन
मुझे सुकून मिला है तिरे न आने से

इक इज्तिहाद का पहलू ज़रूर है तुझ में
ख़ुशी हुई तिरे ना-वक़्त मुस्कुराने से

ये मेरा जोश-ए-मोहब्बत फ़क़त इबारत है
तुम्हारी चम्पई रानों को नोच खाने से

मोहज़्ज़ब आदमी पतलून के बटन तो लगा
कि इर्तिक़ा है इबारत बटन लगाने से

शौक़ का रंग बुझ गया याद के ज़ख़्म भर गए

शौक़ का रंग बुझ गया याद के ज़ख़्म भर गए
क्या मिरी फ़स्ल हो चुकी क्या मिरे दिन गुज़र गए

रह-गुज़र-ए-ख़याल में दोश-ब-दोश थे जो लोग
वक़्त की गर्द-बाद में जाने कहाँ बिखर गए

शाम है कितनी बे-तपाक शहर है कितना सहम-नाक
हम-नफ़सो! कहाँ हो तुम जाने ये सब किधर गए!

पास-ए-हयात का ख़याल हम को बहुत बुरा लगा
पस ब-हुजूम-ए-मअरका जान के बे-सिपर गए

मैं तो सफ़ों के दरमियाँ कब से पड़ा हूँ नीम-जाँ
मेरे तमाम जाँ-निसार मेरे लिए तो मर गए

ये जो सुना इक दिन वो हवेली यकसर बे-आसार गिरी

ये जो सुना इक दिन वो हवेली यकसर बे-आसार गिरी
हम जब भी साए में बैठे दिल पर इक दीवार गिरी

जूँही मुड़ कर देखा मैं ने बीच उठी थी इक दीवार
बस यूँ समझो मेरे ऊपर बिजली सी इक बार गिरी

धार पे बाड़ रखी जाए और हम उस के घायल ठहरें
मैं ने देखा और नज़रों से उन पलकों की धार गिरी

गिरने वाली उन तामीरों में भी एक सलीक़ा था
तुम ईंटों की पूछ रहे हो मिट्टी तक हमवार गिरी

बेदारी के बिस्तर पर मैं उन के ख़्वाब सजाता हूँ
नींद भी जिन की टाट के ऊपर ख़्वाबों से नादार गिरी

ख़ूब ही थी वो क़ौम-ए-शहीदाँ या'नी सब बे-ज़ख़म-ओ-ख़राश
मैं भी उस सफ़ में था शामिल वो सफ़ जो बे-वार गिरी

हर लम्हा घमसान का रन है कौन अपने औसान में है
कौन है ये? अच्छा तो मैं हूँ लाश तो हाँ इक यार गिरी

शमशीर मेरी, मेरी सिपर किस के पास है

शमशीर मेरी, मेरी सिपर किस के पास है
दो मेरा ख़ूद पर मिरा सर किस के पास है

दरपेश एक काम है हिम्मत का साथियो
कसना है मुझ को मेरी कमर किस के पास है

तारी हो मुझ पे कौन सी हालत मुझे बताओ
मेरा हिसाब-ए-नफ़-ओ-ज़रर किस के पास है

ऐ अहल-ए-शहर मैं तो दुआ-गो-ए-शहर हूँ
लब पर मिरे दुआ है असर किस के पास है

दाद-ओ-सितद के शहर में होने को आई शाम
ख़्वाहिश है मेरे पास ख़बर किस के पास है

पुर-हाल हूँ प सूरत-ए-अहवाल कुछ नहीं
हैरत है मेरे पास नज़र किस के पास है

इक आफ़्ताब है मिरी जेब-ए-निगाह में
पहनाई-ए-नुमूद-ए-सहर किस के पास है

क़िस्सा किशोर का नहीं कोशक का है कि है
दरवाज़ा सब के पास है घर किस के पास है

मेहमान-ए-क़स्र हैं हमें कुछ रम्ज़ चाहिएँ
ये पूछ के बताओ खंडर किस के पास है

उथला सा नाफ़-प्याला हमारी नहीं तलाश
ऐ लड़कियो! बताओ भँवर किस के पास है

नाख़ुन बढ़े हुए हैं मिरे मुझ से कर हज़र
ये जा के देख नेल-कटर किस के पास है

दरख़्त-ए-ज़र्द

(यह नज़्म जौन एलिया ने अपने पुत्र
(ज़रयून) की बेरुख़ी पर लिखी)

नहीं मालूम 'ज़रयून' अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
वो किन ख़्वाबों से जाने आश्ना ना-आश्ना होगी
तुम्हारे दिल के इस दुनिया से कैसे सिलसिले होंगे
तुम्हें कैसे गुमाँ होंगे तुम्हें कैसे गिले होंगे
तुम्हारी सुब्ह जाने किन ख़यालों से नहाती हो
तुम्हारी शाम जाने किन मलालों से निभाती हो
न जाने कौन दोशीज़ा तुम्हारी ज़िंदगी होगी
न जाने उस की क्या बायसतगी शाइस्तगी होगी
उसे तुम फ़ोन करते और ख़त लिखते रहे होगे
न जाने तुम ने कितनी कम ग़लत उर्दू लिखी होगी
ये ख़त लिखना तो दक़यानूस की पीढ़ी का क़िस्सा है
ये सिंफ़-ए-नस्र हम ना-बालिग़ों के फ़न का हिस्सा है
वो हँसती हो तो शायद तुम न रह पाते हो हालों में
गढ़ा नन्हा सा पड़ जाता हो शायद उस के गालों में
गुमाँ ये है तुम्हारी भी रसाई ना-रसाई हो
वो आई हो तुम्हारे पास लेकिन आ न पाई हो
वो शायद माइदे की गंद बिरयानी न खाती हो
वो नान-ए-बे-ख़मीर-ए-मैदा कम-तर ही चबाती हो
वो दोशीज़ा भी शायद दास्तानों की हो दिल-दादा
उसे मालूम होगा 'ज़ाल' था 'सोहराब' का दादा
तहमतन यानी 'रुस्तम' था गिरामी 'साम' का वारिस
गिरामी 'साम' था सुल्ब-ए-नर-ए-'मानी' का ख़ुश-ज़ादा
(ये मेरी एक ख़्वाहिश है जो मुश्किल है)
वो 'नज्म'-आफ़ंदि-ए-मरहूम को तो जानती होगी
वो नौहों के अदब का तर्ज़ तो पहचानती होगी
उसे कद होगी शायद उन सभी से जो लपाड़ी हों
न होंगे ख़्वाब उस का जो गवय्ये और खिलाड़ी हों

हदफ़ होंगे तुम्हारा कौन तुम किस के हदफ़ होगे
न जाने वक़्त की पैकार में तुम किस तरफ़ होगे
है रन ये ज़िंदगी इक रन जो बरपा लम्हा लम्हा है
हमें इस रन में कुछ भी हो किसी जानिब तो होना है
सो हम भी इस नफ़स तक हैं सिपाही एक लश्कर के
हज़ारों साल से जीते चले आए हैं मर मर के
शुहूद इक फ़न है और मेरी अदावत बे-फ़नों से है
मिरी पैकार अज़ल से
ये 'ख़ुसरो' 'मीर' 'ग़ालिब' का ख़राबा बेचता क्या है
हमारा 'ग़ालिब'-ए-आज़म था चोर आक़ा-ए-'बेदिल' का
सो रिज़्क़-ए-फ़ख़्र अब हम खा रहे हैं 'मीर'-ए-बिस्मिल का
सिधारत भी था शर्मिंदा कि दो-आबे का बासी था
तुम्हें मालूम है उर्दू जो है पाली से निकली है
वो गोया उस की ही इक पुर-नुमू डाली से निकली है

ये कड़वाहट की बातें हैं मिठास इन की न पूछो तुम
नम-ए-लब को तरसती हैं सो प्यास इन की न पूछो तुम
ये इक दो जुरओं की इक चुह्ल है और चुह्ल में क्या है
अवामुन्नास से पूछो भला अल-कुह्ल में क्या है
ये तअन-ओ-तंज़ की हर्ज़ा-सराई हो नहीं सकती
कि मेरी जान मेरे दिल से रिश्ता खो नहीं सकती

नशा चढ़ने लगा है और चढ़ना चाहिए भी था
अबस का निर्ख़ तो इस वक़्त बढ़ना चाहिए भी था
अजब बे-माजरा बे-तौर बेज़ाराना हालत है
वजूद इक वहम है और वहम ही शायद हक़ीक़त है
ग़रज़ जो हाल था वो नफ़्स के बाज़ार ही का था
है ''ज़'' बाज़ार में तो दरमियाँ 'ज़रयून' में अव्वल
तो ये इब्राफ़नीक़ी खेलते हर्फ़ों से थे हर पल
तो ये 'ज़रयून' जो है क्या ये अफ़लातून है कोई
अमाँ 'ज़रयून' है 'ज़रयून' वो माजून क्यूँ होता
हैं माजूनें मुफ़ीद ''अर्वाह'' को माजून यूँ होता
सुनो तफ़रीक़ कैसे हो भला अश्ख़ास ओ अश्या में
बहुत जंजाल हैं पर हो यहाँ तो ''या'' में और ''या'' में

तुम्हारी जो हमासा है भला उस का तो क्या कहना
है शायद मुझ को सारी उम्र उस के सेहर में रहना
मगर मेरे ग़रीब अज्दाद ने भी कुछ किया होगा
बहुत टुच्चा सही उन का भी कोई माजरा होगा
ये हम जो हैं हमारी भी तो होगी कोई नौटंकी
हमारा ख़ून भी सच-मुच का सेहने पर बहा होगा
है आख़िर ज़िंदगी ख़ून अज़-बुन-ए-नाख़ुन बर-आवर-तर
क़यामत सानेहा मतलब क़यामत फ़ाजिआ परवर

नहीं हो तुम मिरे और मेरा फ़र्दा भी नहीं मेरा
सो मैं ने साहत-ए-दीरोज़ में डाला है अब डेरा
मिरे दीरोज़ में ज़हर-ए-हलाहल तेग़-ए-क़ातिल है
मिरे घर का वही सरनाम-तर है जो भी बिस्मिल है
गुज़श्त-ए-वक़्त से पैमान है अपना अजब सा कुछ
सो इक मामूल है इमरान के घर का अजब सा कुछ

'हसन' नामी हमारे घर में इक 'सुक़रात' गुज़रा है
वो अपनी नफ़्इ से इसबात तक माशर के पहुँचा है
कि ख़ून-ए-रायगाँ के अम्र में पड़ना नहीं हम को
वो सूद-ए-हाल से यकसर ज़ियाँ-काराना गुज़रा है
तलब थी ख़ून की क़य की उसे और बे-निहायत थी
सो फ़ौरन बिन्त-ए-अशअश का पिलाया पी गया होगा
वो इक लम्हे के अंदर सरमदिय्यत जी गया होगा

तुम्हारी अर्जुमंद अम्मी को मैं भूला बहुत दिन में
मैं उन की रंग की तस्कीन से निमटा बहुत दिन में
वही तो हैं जिन्हों ने मुझ को पैहम रंग थुकवाया
वो किस रग का लहू है जो मियाँ मैं ने नहीं थूका
लहू और थूकना उस का है कारोबार भी मेरा
यही है साख भी मेरी यही मेआर भी मेरा
मैं वो हूँ जिस ने अपने ख़ून से मौसम खिलाए हैं
न-जाने वक़्त के कितने ही आलम आज़माए हैं
मैं इक तारीख़ हूँ और मेरी जाने कितनी फ़सलें हैं
मिरी कितनी ही फ़रएँ हैं मिरी कितनी ही असलें हैं
हवादिस माजरा ही हम रहे हैं इक ज़माने से
शदायद सानेहा ही हम रहे हैं इक ज़माने से
हमेशा से बपा इक जंग है हम उस में क़ाएम हैं
हमारी जंग ख़ैर ओ शर के बिस्तर की है ज़ाईदा
ये चर्ख़-ए-जब्र के दव्वार-ए-मुमकिन की है गिरवीदा
लड़ाई के लिए मैदान और लश्कर नहीं लाज़िम
सिनान ओ गुर्ज़ ओ शमशीर ओ तबर ख़ंजर नहीं लाज़िम
बस इक एहसास लाज़िम है कि हम बुअदैन हैं दोनों
कि नफ़्इ-ए-ऐन-ए-ऐन ओ सर-ब-सर ज़िद्दीन हैं दोनों
Luis-Urbina ने मेरी अजब कुछ ग़म-गुसारी की
ब-सद दिल दानिशी गुज़रान अपनी मुझ पे तारी की
बहुत उस ने पिलाई और पीने ही न दी मुझ को
पलक तक उस ने मरने के लिए जीने न दी मुझ को
''मैं तेरे इश्क़ में रंजीदा हूँ हाँ अब भी कुछ कुछ हूँ
मुझे तेरी ख़यानत ने ग़ज़ब मजरूह कर डाला
मगर तैश-ए-शदीदाना के ब'अद आख़िर ज़माने में
रज़ा की जाविदाना जब्र की नौबत भी आ पहुँची''

मोहब्बत एक पसपाई है पुर-अहवाल हालत की
मोहब्बत अपनी यक-तौरी में दुश्मन है मोहब्बत की
सुख़न माल-ए-मोहब्बत की दुकान-आराई करता है
सुख़न सौ तरह से इक रम्ज़ की रुस्वाई करता है
सुख़न बकवास है बकवास जो ठहरा है फ़न मेरा
वो है ताबीर का अफ़्लास जो ठहरा है फ़न मेरा
सुख़न यानी लबों का फ़न सुख़न-वर यानी इक पुर-फ़न
सुख़न-वर ईज़द अच्छा था कि आदम या फिर अहरीमन
मज़ीद आंकि सुख़न में वक़्त है वक़्त अब से अब यानी

कुछ ऐसा है ये मैं जो हूँ ये मैं अपने सिवा हूँ ''मैं''
सो अपने आप में शायद नहीं वाक़े हुआ हूँ मैं
जो होने में हो वो हर लम्हा अपना ग़ैर होता है
कि होने को तो होने से अजब कुछ बैर होता है
यूँही बस यूँही 'ज़ेनू' ने यकायक ख़ुद-कुशी कर ली
अजब हिस्स-ए-ज़राफ़त के थे मालिक ये रवाक़ी भी

बिदह यारा अज़ाँ बादा कि दहक़ाँ पर्वर्द आँ-रा
ब सोज़द हर मता-ए-इनतिमाए दूदमानां रा
ब-सोज़द ईं ज़मीन-ए-ए'तिबार-ओ-आस्मानां रा
ब-सोज़द जान ओ दिल राहम बयासायद दिल ओ जाँ रा

दिल ओ जाँ और आसाइश ये इक कौनी तमस्ख़ुर है
हुमुक़ की अबक़रिय्यत है सफ़ाहत का तफ़क्कुर है
हुमुक़ की अबक़रिय्यत और सफ़ाहत के तफ़क्कुर ने
हमें तज़ई-ए-मोहलत के लिए अकवान बख़्शे हैं
और अफ़लातून-ए-अक़्दस ने हमें अ'यान बख़्शे हैं

सुनो 'ज़रयून' तुम तो ऐन-ए-अ'यान-ए-हक़ीक़त हो
नज़र से दूर मंज़र का सर-ओ-सामान-ए-सर्वत हो
हमारी उम्र का क़िस्सा हिसाब अंदोज़-ए-आनी है
ज़मानी ज़द में ज़न की इक गुमान-ए-लाज़िमानी है
गुमाँ ये है कि बाक़ी है बक़ा हर आन फ़ानी है
कहानी सुनने वाले जो भी हैं वो ख़ुद कहानी हैं
कहानी कहने वाला इक कहानी की कहानी है
पिया पे ये गदाज़िश ये गुमाँ और ये गिले कैसे
सिला-सोज़ी तो मेरा फ़न है फिर इस के सिले कैसे

तो मैं क्या कह रहा था यानी क्या कुछ सह रहा था मैं
अमाँ हाँ मेज़ पर या मेज़ पर से बह रहा था मैं
रुको मैं बे-सर-ओ-पा अपने सर से भाग निकला हूँ
इला या अय्युहल-अबजद ज़रा यानी ज़रा ठहरो
There is an absurd I इन absurdity शायद
कहीं अपने सिवा यानी कहीं अपने सिवा ठहरो
तुम इस absurdity में इक रदीफ़ इक क़ाफ़िया ठहरो

रदीफ़ ओ क़ाफ़िया क्या हैं शिकस्त-ए-ना-रवा क्या है
शिकस्त-ए-नारवा ने मुझ को पारा पारा कर डाला
अना को मेरी बे-अंदाज़ा-तर बे-चारा कर डाला
मैं अपने आप में हारा हूँ और ख़्वाराना हारा हूँ
जिगर-चाकाना हारा हूँ दिल-अफ़गाराना हारा हूँ

जिसे फ़न कहते आए हैं वो है ख़ून-ए-जिगर अपना
मगर ख़ून-ए-जिगर क्या है वो है क़त्ताल-तर अपना
कोई ख़ून-ए-जिगर का फ़न ज़रा ताबीर में लाए
मगर मैं तो कहूँ वो पहले मेरे सामने आए
वजूद ओ शेर ये दोनों define हो नहीं सकते
कभी मफ़्हूम में हरगिज़ ये काइन हो नहीं सकते
हिसाब-ए-हर्फ़ में आता रहा है बस हसब उन का
नहीं मालूम ईज़द ईज़दाँ को भी नसब उन का
है ईज़द ईज़दाँ इक रम्ज़ जो बे-रम्ज़ निस्बत है
मियाँ इक हाल है इक हाल जो बे-हाल-ए-हालत है
न जाने जब्र है हालत कि हालत जब्र है यानी
किसी भी बात के मअनी जो हैं उन के हैं क्या मअनी
वजूद इक जब्र है मेरा अदम औक़ात है मेरी
जो मेरी ज़ात हरगिज़ भी नहीं वो ज़ात है मेरी
मैं रोज़-ओ-शब निगारिश-कोश ख़ुद अपने अदम का हूँ
मैं अपना आदमी हरगिज़ नहीं लौह-ओ-क़लम का हूँ

हैं कड़वाहट में ये भीगे हुए लम्हे अजब से कुछ
सरासर बे-हिसाबाना सरासर बे-सबब से कुछ
सराबों ने सराबों पर बहुत बादल हैं बरसाए
शराबों ने मआबद के तमूज़ ओ बअल नहलाए
(यक़ीनन क़ाफ़िया है यावा-फ़रमाई का सर-चश्मा
''हैं नहलाए'' ''हैं बरसाए'')

न जाने आरिबा क्यूँ आए क्यूँ मुस्तारबा आए
मुज़िर के लोग तो छाने ही वाले थे सो वो छाए
मिरे जद हाशिम-ए-आली गए ग़़ज़्ज़ा में दफ़नाए
मैं नाक़े को पिलाऊँगा मुझे वाँ तक वो ले जाए
लिदू लिलमौती वबनू लिलहिज़ाबी सन ख़राबाती
वो मर्द-ए-ऊस कहता है हक़ीक़त है ख़ुराफ़ाती
ये ज़ालिम तीसरा पैग इक अक़ानीमी बिदायत है
उलूही हर्ज़ा-फ़रमाई का सिर्र-ए-तूर-ए-लुक्नत है
भला हूरब की झाड़ी का वो रम्ज़-ए-आतिशीं क्या था
मगर हूरब की झाड़ी क्या ये किस से किस की निस्बत है
ये निस्बत के बहुत से क़ाफ़िए हैं है गिला इस का
मगर तुझ को तो यारा! क़ाफ़ियों की बे-तरह लत है
गुमाँ ये है कि शायद बहर से ख़ारिज नहीं हूँ मैं
ज़रा भी हाल के आहंग में हारिज नहीं हूँ
तना-तन तन तना-तन तन तना-तन तन तना-तन तन
तना-तन तन नहीं मेहनत-कशों का तन न पैराहन
न पैराहन न पूरी आधी रोटी अब रहा सालन
ये साले कुछ भी खाने को न पाएँ गालियाँ खाएँ
है इन की बे-हिसी में तो मुक़द्दस-तर हरामी-पन

मगर आहंग मेरा खो गया शायद कहाँ जाने
कोई मौज-ए-... कोई मौज-ए-शुमाल-ए-जावेदाँ जाने
शुमाल-ए-जावेदाँ के अपने ही क़िस्से थे जो गुज़रे
वो हो गुज़रे तो फिर ख़ुद मैं ने भी जाना वो हो गुज़रे
शुमाल-ए-जावेदाँ अपना शुमाल-ए-जावेदान-ए-जाँ
है अब भी अपनी पूँजी इक मलाल-ए-जावेदान-ए-जाँ

नहीं मालूम 'ज़रयून' अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
यही है दिल का मज़मून अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
हमारे दरमियाँ अब एक बेजा-तर ज़माना है
लब-ए-तिश्ना पे इक ज़हर-ए-हक़ीक़त का फ़साना है
अजब फ़ुर्सत मयस्सर आई है ''दिल जान रिश्ते'' को
न दिल को आज़माना है न जाँ को आज़माना है
कलीद-ए-किश्त-ज़ार-ए-ख़्वाब भी गुम हो गई आख़िर
कहाँ अब जादा-ए-ख़ुर्रम में सर-सब्ज़ाना जाना है
कहूँ तो क्या कहूँ मेरा ये ज़ख़्म-ए-जावेदाना है
वही दिल की हक़ीक़त जो कभी जाँ थी वो अब आख़िर
फ़साना दर फ़साना दर फ़साना दर फ़साना है
हमारा बाहमी रिश्ता जो हासिल-तर था रिश्तों का
हमारा तौर-ए-बे-ज़ारी भी कितना वालिहाना है
किसी का नाम लिक्खा है मिरी सारी बयाज़ों पर
मैं हिम्मत कर रहा हूँ यानी अब उस को मिटाना है

ये इक शाम-ए-अज़ाब-ए-बे-सरोकाराना हालत है
हुए जाने की हालत में हूँ बस फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है
नहीं मालूम तुम इस वक़्त किस मालूम में होगे
न जाने कौन से मअनी में किस मफ़्हूम में होगे
मैं था मफ़्हूम ना-मफ़्हूम में गुम हो चुका हूँ मैं
मैं था मालूम ना-मालूम में गुम हो चुका हूँ मैं

नहीं मालूम 'ज़रयून' अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
मिरे ख़ुद से गुज़रने के ज़माने से सिवा होगी
मिरे क़ामत से अब क़ामत तुम्हारा कुछ फ़ुज़ूँ होगा
मिरा फ़र्दा मिरे दीरोज़ से भी ख़ुश नुमूं होगा
हिसाब-ए-माह-ओ-साल अब तक कभी रक्खा नहीं मैं ने
किसी भी फ़स्ल का अब तक मज़ा चक्खा नहीं मैं ने
मैं अपने आप में कब रह सका कब रह सका आख़िर
कभी इक पल को भी अपने लिए सोचा नहीं मैं ने
हिसाब-ए-माह-ओ-साल ओ रोज़-ओ-शब वो सोख़्ता-बूदश
मुसलसल जाँ-कनी के हाल में रखता भी तो कैसे
जिसे ये भी न हो मालूम वो है भी तो क्यूँ-कर है
कोई हालत दिल-ए-पामाल में रखता भी तो कैसे
कोई निस्बत भी अब तो ज़ात से बाहर नहीं मेरी
कोई बिस्तर नहीं मेरा कोई चादर नहीं मेरी

ब-हाल-ए-ना-शिता सद-ज़ख़्म-हा ओ ख़ून-हा ख़ूर्दम
ब-हर-दम शूकराँ आमेख़्ता माजून-हा ख़ूर्दम
तुम्हें इस बात से मतलब ही क्या और आख़िरश क्यूँ हो
किसी से भी नहीं मुझ को गिला और आख़िरश क्यूँ हो
जो है इक नंग-ए-हस्ती उस को तुम क्या जान भी लोगे
अगर तुम देख लो मुझ को तो क्या पहचान भी लोगे

तुम्हें मुझ से जो नफ़रत है वही तो मेरी राहत है
मिरी जो भी अज़िय्यत है वही तो मेरी लज़्ज़त है
कि आख़िर इस जहाँ का एक निज़ाम-ए-कार है आख़िर
जज़ा का और सज़ा का कोई तो हंजार है आख़िर
मैं ख़ुद में झेंकता हूँ और सीने में भड़कता हूँ
मिरे अंदर जो है इक शख़्स मैं उस में फड़कता हूँ
है मेरी ज़िंदगी अब रोज़-ओ-शब यक-मज्लिस-ए-ग़म-हा
अज़ा-हा मर्सिया-हा गिर्या-हा आशोब-ए-मातम-हा

तुम्हारी तर्बियत में मेरा हिस्सा कम रहा कम-तर
ज़बाँ मेरी तुम्हारे वास्ते शायद कि मुश्किल हो
ज़बाँ अपनी ज़बाँ मैं तुम को आख़िर कब सिखा पाया
अज़ाब-ए-सद-शमातत आख़िरश मुझ पर ही नाज़िल हो
ज़बाँ का काम यूँ भी बात समझाना नहीं होता
समझ में कोई भी मतलब कभी आना नहीं होता
कभी ख़ुद तक भी मतलब कोई पहुंचाना नहीं होता
गुमानों के गुमाँ की दम-ब-दम आशोब-कारी है
भला क्या ए'तिबारी और क्या ना-ए'तिबारी है

गुमाँ ये है भला में जुज़ गुमाँ क्या था गुमानों में
सुख़न ही क्या फ़सानों का धरा क्या है फ़सानों में
मिरा क्या तज़्किरा और वाक़ई क्या तज़्किरा मेरा
मैं इक अफ़्सोस था अफ़्सोस हूँ गुज़रे ज़मानों में

है शायद दिल मिरा बे-ज़ख़्म और लब पर नहीं छाले
मिरे सीने में कब सोज़िंदा-तर दाग़ों के हैं थाले
मगर दोज़ख़ पिघल जाए जो मेरे साँस अपना ले
तुम अपनी माम के बेहद मुरादी मिन्नतों वाले
मिरे कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं बाले
मगर पहले कभी तुम से मिरा कुछ सिलसिला तो था
गुमाँ में मेरे शायद इक कोई ग़ुंचा खिला तो था
वो मेरी जावेदाना बे-दुई का इक सिला तो था
सो उस को एक अब्बू नाम का घोड़ा मिला तो था

साया-ए-दामान-ए-रहमत चाहिए थोड़ा मुझे
मैं न छोड़ूँ या नबी तुम ने अगर छोड़ा मुझे
ईद के दिन मुस्तफ़ा से यूँ लगे कहने 'हुसैन'
सब्ज़ जोड़ा दो 'हसन' को सुर्ख़ दो जोड़ा मुझे

''अदब अदब कुत्ते तिरे कान काटूँ
'ज़रयून' के ब्याह के नान बाटूँ''
तारों भरे जगर जगर ख़्वान बाटूँ
''आ जा री निन्दिया तू आ क्यूँ न जा
'ज़रयून' को आ के सुला क्यूँ न जा''

तुम्हारे ब्याह में शजरा पढ़ा जाना था नौशा वास्ती दूल्हा
''चौकी आँगन में बिछी वास्ती दूल्हा के लिए''

मक्के मदीने के पाक मुसल्ले पयम्बर घर नवासे
शाह-ए-मर्दां अमीर-ऊल-मोमिनीन हज़रत-'अली' के पोते
हज़रत इमाम-'हसन' हज़रत इमाम-'हुसैन' के पोते
हज़रत इमाम-अली-'नक़ी' के पोते
सय्यद-'जाफ़र' सानी के पोते
सय्यद अबुल-फ़रह सैदवाइल-वास्ती के पोते
मीराँ सय्यद-'अली'-बुज़ुर्ग के पोते
सय्यद-'हुसैन'-शरफ़ुद्दीन शाह-विलायत के पोते
क़ाज़ी सय्यद-'अमीर'-अली के पोते
दीवान सय्यद-'हामिद' के पोते
अल्लामा सय्यद-'शफ़ीक़'-हसन-एलिया के पोते
सय्यद-'जौन'-एलिया हसनी-उल-हुसैनी सपूत-जाह''

मगर नाज़िर हमारा सोख़्ता-सुल्ब आख़िरी नस्साब अब मरने ही वाला है
बस इक पल हफ़ सदी का फ़ैसला करने ही वाला है
सुनो 'ज़रयून' बस तुम ही सुनो यानी फ़क़त तुम ही
वही राहत में है जो आम से होने को अपना ले
कभी कोई भी पर हो कोई 'बहमन' यार या 'ज़ेनू'
तुम्हें बहका न पाए और बैरूनी न कर डाले
मैं सारी ज़िंदगी के दुख भुगत कर तुम से कहता हूँ
बहुत दुख देगी तुम में फ़िक्र और फ़न की नुमू मुझ को
तुम्हारे वास्ते बेहद सहूलत चाहता हूँ मैं
दवाम-ए-जहल ओ हाल-ए-इस्तिराहत चाहता हूँ मैं
न देखो काश तुम वो ख़्वाब जो देखा किया हूँ मैं
वो सारे ख़्वाब थे क़स्साब जो देखा किया हूँ मैं
ख़राश-ए-दिल से तुम बे-रिश्ता बे-मक़्दूर ही ठहरो
मिरे जहमीम-ए-ज़ात-ए-ज़ात से तुम दूर ही ठहरो
कोई 'ज़रयून' कोई भी क्लर्क और कोई कारिंदा
कोई भी बैंक का अफ़सर सेनेटर कोई पावंदा
हर इक हैवान-ए-सरकारी को टट्टू जानता हूँ मैं
सो ज़ाहिर है इसे शय से ज़ियादा मानता हूँ मैं
तुम्हें हो सुब्ह-दम तौफ़ीक़ बस अख़बार पढ़ने की
तुम्हें ऐ काश बीमारी न हो दीवार पढ़ने की
अजब है 'सार्त्र' और 'रसेल' भी अख़बार पढ़ते थे
वो मालूमात के मैदान के शौक़ीन बूढ़े थे
नहीं मालूम मुझ को आम शहरी कैसे होते हैं
वो कैसे अपना बंजर नाम बंजर-पन में बोते हैं
मैं ''उर्र'' से आज तक इक आम शहरी हो नहीं पाया
इसी बाइस मैं हूँ अम्बोह की लज़्ज़त से बे-माया
मगर तुम इक दो-पाया रास्त क़ामत हो के दिखलाना
सुनो राय-दहिंदा बिन हुए तुम बाज़ मत आना
फ़क़त 'ज़रयून' हो तुम यानी अपना साबिक़ा छोड़ो
फ़क़त 'ज़रयून' हो तुम यानी अपना लाहिक़ा छोड़ो
मगर मैं कौन जो चाहूँ तुम्हारे बाब में कुछ भी
भला क्यूँ हो मिरे एहसास के अस्बाब में कुछ भी
तुम्हारा बाप यानी मैं अबस मैं इक अबस-तर मैं
मगर मैं यानी जाने कौन अच्छा मैं सरासर मैं
मैं कासा-बाज़ ओ कीना-साज़ ओ कासा-तन हूँ कुत्ता हूँ
मैं इक नंगीन-ए-बूदश हूँ प तुम तो सिर्र-ए-मुनअम हो
तुम्हारा बाप रूहुल-क़ुद्स था तुम इब्न-ए-मरयम हो

ये क़ुलक़ुल तीसरा पैग अब तो चौथा हो गुमाँ ये है
गुमाँ का मुझ से कोई ख़ास रिश्ता हो गुमाँ ये है
गुमाँ ये है कि मैं जो जा रहा था आ रहा हूँ मैं
मगर मैं आ रहा कब हूँ पियापे जा रहा हूँ मैं
ये चौथा पैग है ऊँ-हूँ ज़लालत की गई मुझ से
ज़लालत की गई मुझ से ख़यानत की गई मुझ से
जोज़ामी हो गई 'वज़्ज़ाह' की महबूब वावैला
मगर इस का गिला क्या जब नहीं आया कोई ऐला

सुनो मेरी कहानी पर मियाँ मेरी कहानी क्या
मैं यकसर राइगानी हूँ हिसाब-ए-राइगानी क्या
बहुत कुछ था कभी शायद पर अब कुछ भी नहीं हूँ मैं
न अपना हम-नफ़स हूँ मैं न अपना हम-नशीं हूँ मैं
कभी की बात है फ़रियाद मेरा वो कभी यानी
नहीं इस का कोई मतलब नहीं इस के कोई मअनी
मैं अपने शहर का सब से गिरामी नाम लड़का था
मैं बे-हंगाम लड़का था मैं सद-हंगाम लड़का था
मिरे दम से ग़ज़ब हंगामा रहता था मोहल्लों में
मैं हश्र-आग़ाज़ लड़का था मैं हश्र-अंजाम लड़का था
मिरे हिन्दू मुसलमाँ सब मुझे सर पर बिठाते थे
उन्ही के फ़ैज़ से मअनी मुझे मअनी सिखाते थे
सुख़न बहता चला आता है बे-बाइस के होंटों से
वो कुछ कहता चला आता है बे-बाइस के होंटों से
मैं अशराफ़-ए-कमीना-कार को ठोकर पे रखता था
सो मैं मेहनत-कशों की जूतियाँ मिम्बर पे रखता था
मैं शायद अब नहीं हूँ वो मगर अब भी वही हूँ मैं
ग़ज़ब हंगामा-परवर ख़ीरा-सरा अब भी वही हूँ मैं
मगर मेरा था इक तौर और भी जो और ही कुछ था
मगर मेरा था इक दौर और भी जो और ही कुछ था
मैं अपने शहर-ए-इल्म-ओ-फ़न का था इक नौजवाँ काहिन
मिरे तिल्मीज़-ए-इल्म-ओ-फ़न मिरे बाबा के थे हम-सिन
मिरा बाबा मुझे ख़ामोश आवाज़ें सुनाता था
वो अपने-आप में गुम मुझ को पुर-हाली सिखाता था

वो हैअत-दाँ वो आलिम नाफ़-ए-शब में छत पे जाता था
रसद का रिश्ता सय्यारों से रखता था निभाता था
उसे ख़्वाहिश थी शोहरत की न कोई हिर्स-ए-दौलत थी
बड़े से क़ुत्र की इक दूरबीन उस की ज़रूरत थी
मिरी माँ की तमन्नाओं का क़ातिल था वो क़ल्लामा
मिरी माँ मेरी महबूबा क़यामत की हसीना थी
सितम ये है ये कहने से झिजकता था वो फ़ह्हामा
था बेहद इश्तिआल-अंगेज़ बद-क़िस्मत ओ अल्लामा
ख़लफ़ उस के ख़ज़फ़ और बे-निहायत ना-ख़लफ़ निकले
हम उस के सारे बेटे इंतिहाई बे-शरफ़ निकले
मैं उस आलिम-तरीन-ए-दहर की फ़िक्रत का मुनकिर था
मैं फ़सताई था जाहिल था और मंतिक़ का माहिर था
पर अब मेरी ये शोहरत है कि मैं बस इक शराबी हूँ
मैं अपने दूदमान-ए-इल्म की ख़ाना-ख़राबी हूँ
सगान-ए-ख़ूक ज़ाद-ए-बर्ज़न ओ बाज़ार-ए-बे-मग़्ज़ी
मिरी जानिब अब अपने थोबड़े शाहाना करते हैं
ज़िना-ज़ादे मिरी इज़्ज़त भी गुस्ताख़ाना करते हैं
कमीने शर्म भी अब मुझ से बे-शर्माना करते थे

मुझे इस शाम है अपने लबों पर इक सुख़न लाना
'अली' दरवेश था तुम उस को अपना जद्द न बतलाना
वो सिब्तैन-ए-मोहम्मद, जिन को जाने क्यूँ बहुत अरफ़ा
तुम उन की दूर की निस्बत से भी यकसर मुकर जाना
कि इस निस्बत से ज़हर ओ ज़ख़्म को सहना ज़रूरी है
अजब ग़ैरत से ग़ल्तीदा-ब-ख़ूँ रहना ज़रूरी है

वो शजरा जो कनाना फहर ग़ालिब कअब मर्रा से
क़ुसइ ओ हाशिम ओ शेबा अबू-तालिब तक आता था
वो इक अंदोह था तारीख़ का अंदोह-ए-सोज़िंदा
वो नामों का दरख़्त-ए-ज़र्द था और उस की शाख़ों को
किसी तन्नूर के हैज़म की ख़ाकिस्तर ही बनना था
उसे शोला-ज़दा बूदश का इक बिस्तर ही बनना था

हमारा फ़ख़्र था फ़क़्र और दानिश अपनी पूँजी थी
नसब-नामों के हम ने कितने ही परचम लपेटे हैं
मिरे हम-शहर 'ज़रयून' इक फ़ुसूँ है नस्ल, हम दोनों
फ़क़त आदम के बेटे हैं फ़क़त आदम के बेटे हैं
मैं जब औसान अपने खोने लगता हूँ तो हँसता हूँ
मैं तुम को याद कर के रोने लगता हूँ तो हँसता हूँ
हमेशा मैं ख़ुदा हाफ़िज़ हमेशा मैं ख़ुदा हाफ़िज़
ख़ुदा हाफ़िज़
ख़ुदा हाफ़िज़

सफ़र के वक़्त

तुम्हारी याद मिरे दिल का दाग़ है लेकिन
सफ़र के वक़्त तो बे-तरह याद आती हो
बरस बरस की हो आदत का जब हिसाब तो फिर

बहुत सताती हो जानम बहुत सताती हो
मैं भूल जाऊँ मगर कैसे भूल जाऊँ भला
अज़ाब-ए-जाँ की हक़ीक़त का अपनी अफ़्साना
मिरे सफ़र के वो लम्हे तुम्हारी पुर-हाली
वो बात बात मुझे बार बार समझाना

ये पाँच कुर्ते हैं देखो ये पाँच पाजामे
डले हुए हैं क़मर-बंद इन में और देखो
ये शेव-बॉक्स है और ये है ओलड असपाइस
नहीं हुज़ूर की झोंजल का अब कोई बाइ'स

ये डाइरी है और इस में पते हैं और नंबर
इसे ख़याल से बक्से की जेब में रखना
है अर्ज़ ''हज़रत-ए-ग़ाएब-दिमाग़'' बंदी की
कि अपने ऐब की हालत को ग़ैब में रखना

ये तीन कोट हैं पतलून हैं ये टाइयाँ हैं
बंधी हुई हैं ये सब तुम को कुछ नहीं करना
ये 'वेलियम' है 'ओनटल' है और 'टरपटी-नाल'
तुम इन के साथ मिरी जाँ ड्रिंक से डरना

बहुत ज़ियादा न पीना कि कुछ न याद आए
जो लखनऊ में हुआ था वो अब दोबारा न हो
हो तुम सुख़न की अना और तमकनत जानम
मज़ाक़ का किसी 'इंशा' को तुम से यारा न हो

वो 'जौन' जो नज़र आता है उस का ज़िक्र नहीं
तुम अपने 'जौन' का जो तुम में है भरम रखना
अजीब बात है जो तुम से कह रही हूँ मैं
ख़याल मेरा ज़ियादा और अपना कम रखना
हो तुम बला के बग़ावत-पसंद तल्ख़-कलाम
ख़ुद अपने हक़ में इक आज़ार हो गए हो तुम
तुम्हारे सारे सहाबा ने तुम को छोड़ दिया
मुझे क़लक़ है कि बे-यार हो गए हो तुम

ये बैंक-कार मैनेजर ये अपने टेक्नोक्रेट
कोई भी शुबह नहीं हैं ये एक अबस का ढिढोल
मैं ख़ुद भी इन को क्रो-मैग्नन समझती हूँ
ये शानदार जनावर हैं दफ़्तरों का मख़ौल

मैं जानती हूँ कि तुम सुन नहीं रहे मिरी बात
समाज झूट सही फिर भी उस का पास करो
है तुम को तैश है बालिशतियों की ये दुनिया
तो फिर क़रीने से तुम उन को बे-लिबास करो

तुम एक सादा ओ बरजस्ता आदमी ठहरे
मिज़ाज-ए-वक़्त को तुम आज तक नहीं समझे
जो चीज़ सब से ज़रूरी है वो मैं भूल गई
ये पासपोर्ट है इस को सँभाल के रखना
जो ये न हो तो ख़ुदा भी बशर तक आ न सके
सो तुम शुऊ'र का अपने कमाल कर रखना

मिरी शिकस्त के ज़ख़्मों की सोज़िश-ए-जावेद
नहीं रहा मिरे ज़ख़्मों का अब हिसाब कोई
है अब जो हाल मिरा वो अजब तमाशा है
मिरा अज़ाब नहीं अब मिरा अज़ाब कोई

नहीं कोई मिरी मंज़िल पे है सफ़र दरपेश
है गर्द गर्द अबस मुझ को दर-ब-दर पेश

ख़ल्वत

मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को
किसी भी दिल-कुशा जज़्बे से यकसर ना-शनासाना
नशात-ए-रंग की सरशारी-ए-हालत से बेगाना
मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को

फ़ुसूँ-कारा निगारा नौ-बहारा आरज़ू-आरा
भला लम्हों का मेरी और तुम्हारी ख़्वाब-परवर
आरज़ू-मंदी की सरशारी से क्या रिश्ता
हमारी बाहमी यादों की दिलदारी से क्या रिश्ता
मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को
यहाँ अब तीसरा कोई नहीं या'नी मोहब्बत भी

  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : जौन एलिया
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)