क़तआत/क़ितआत : जौन एलिया

Qita : Jaun Elia

अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़
वो बरसों बाद जब मुझ से मिला है
भला मैं पूछता उससे तो कैसे
मताए-जां तुम्हारा नाम क्या है?

अब तो जिस तौर भी गुजर जाए
कोई इसरार ज़िन्दगी से नहीं
उसके ग़म में किया सभी को माफ़
कोई शिकवा भी अब किसी से नहीं

इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
था बस इक ना-रसाई का रिश्ता
मेरे और उस के दरमियाँ निकला
उम्र भर की जुदाई का रिश्ता

उसके और अपने दरमियान में अब
क्या है बस रू-ब-रू का रिश्ता है
हाए वो रिश्ता-हा-ए-ख़ामोशी
अब फ़क़त गुफ़्तुगू का रिश्ता है

कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
दर्द ग़ुर्बत का साथ देता है
जब मुक़ाबिल हों इश्क़ और दौलत
हुस्न दौलत का साथ देता है

क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
कर्ब ख़ुद अपनी बेवफ़ाई का
क्या मैं इस को तिरी तलाश कहूँ?
दिल में इक शौक़ है जुदाई का

चाँद की पिघली हुई चाँदी में
आओ कुछ रंग-ए-सुख़न घोलेंगे
तुम नहीं बोलती हो मत बोलो
हम भी अब तुम से नहीं बोलेंगे

चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
दर्द बदनाम तो नहीं होगा
हाँ दवा दो मगर ये बतला दो
मुझ को आराम तो नहीं होगा

जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
लिबास-ए-मुफ़्लिसी में कितनी बे-क़ीमत नज़र आती
यहाँ तो जाज़बिय्यत भी है दौलत ही की पर्वर्दा
ये लड़की फ़ाक़ा-कश होती तो बद-सूरत नज़र आती

जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
दूर मत जाओ लौट भी आओ
हो गईं फिर किसी ख़याल में गुम
तुम मिरी आदतें न अपनाओ

थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उसका ये था
पहले इक साया सा निकल के घर से बाहर आता है
इस के ब'अद कई साए से उसको रुख़्सत करते हैं
फिर दीवारें ढै जाती हैं दरवाज़ा गिर जाता है

दिल में जिनका निशान भी न रहा
क्यूं न चेहरों पे अब वो रंग खिलें
अब तो खाली है रूह, जज़्बों से
अब भी क्या हम तपाक से न मिलें

पसीने से मिरे अब तो ये रूमाल
है नक़्द-ए-नाज़-ए-उल्फ़त का ख़ज़ीना
ये रूमाल अब मुझी को बख़्श दीजे
नहीं तो लाइए मेरा पसीना

पास रह कर जुदाई की तुझ से
दूर हो कर तुझे तलाश किया
मैं ने तेरा निशान गुम कर के
अपने अंदर तुझे तलाश किया

फिर कहाँ बाकी रहे होशो-हवास
वो घनी पलकें जब बोझल हो चलीं
खेंचने थी अपनी तस्वीरे-जूनून
हमने तेरी ज़ुल्फ़ खींच ली

मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
मिरी गुलफ़म जान-ए-दिल-रुबाई
मिरे जी में ये आता है कि मल दूँ
तिरे गालों पे नीली रौशनाई

मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
तुम ने साँचे में जुनूँ के ढाल दीं
कर लिया था मैं ने अहद-ए-तर्क-ए-इश्क़
तुम ने फिर बाँहें गले में डाल दीं

मैंने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
तुझ से मिलने की आरज़ू की है
तेरे जाने के ब'अद भी मैंने
तेरी ख़ुशबू से गुफ़्तुगू की है

ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
मता-ए-जाँ हैं तिरे क़ौल और क़सम की तरह
गुज़शता साल इन्हें मैं ने गिन के रक्खा था
किसी ग़रीब की जोड़ी हुई रक़म की तरह

ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
जुज़ हरीफ़ान-ए-सितम किस को पुकारा जाए
वक़्त ने एक ही नुक्ता तो किया है तालीम
हाकिम-ए-वक़त को मसनद से उतारा जाए

यूँ तो अपने क़ासिदाने दिल के पास
जाने किस-किस के लिए पैग़ाम हैं
जो लिखे जाते रहे औरों के नाम
मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम हैं

रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निबाहनी होती
मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती

वो किसी दिन न आ सके पर उसे
पास वादे को हो निभाने का
हो बसर इंतिज़ार में हर दिन
दूसरा दिन हो उस के आने का

शर्म दहशत झिझक परेशानी
नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं
आप वो जी मगर ये सब क्या है
तुम मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं

सर में तकमील का था इक सौदा
ज़ात में अपनी था अधूरा मैं
क्या कहूँ तुम से कितना नादिम हूँ
तुम से मिल कर हुआ न पूरा मैं

साल-हा-साल और इक लम्हा
कोई भी तो न इन में बल आया
ख़ुद ही इक दर पे मैं ने दस्तक दी
ख़ुद ही लड़का सा मैं निकल आया

हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
कुछ भी हो पर अब हद्द-ए-अदब में न रहा जाए
तारीख़ ने क़ौमों को दिया है यही पैग़ाम
हक़ माँगना तौहीन है हक़ छीन लिया जाए

है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
वर्ना कुछ लज़्ज़त-ए-हयात नहीं
क्या इजाज़त है एक बात कहूँ
वो मगर ख़ैर कोई बात नहीं

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