हिन्दी कविताएँ : विनोद कुमार शुक्ल

Hindi Poetry : Vinod Kumar Shukla


अपने अकेले होने को

अपने अकेले होने को एक-एक अकेले के बीच रखने अपने को हम लोग कहता हूँ। कविता की अभिव्यक्ति के लिए व्याकरण का अतिक्रमण करते एक बिहारी की तरह कहता हूँ कि हम लोग आता हूँ इस कथन के साथ के लिए छत्तीसगढ़ी में- हमन आवत हन। तुम हम लोग हो वह भी हम लोग हैं।

अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं

अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं और पूरा आकाश देख लेते हैं सबके हिस्से का आकाश पूरा आकाश है। अपने हिस्से का चंद्रमा देखते हैं और पूरा चंद्रमा देख लेते हैं सबके हिस्से का चंद्रमा वही पूरा चंद्रमा है। अपने हिस्से की जैसी-तैसी साँस सब पाते हैं वह जो घर के बग़ीचे में बैठा हुआ अख़बार पढ़ रहा है और वह भी जो बदबू और गंदगी के घेरे में ज़िंदा है। सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है। अपेन हिस्से की भूख के साथ सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात बाज़ार में जो दिख रही है तंदूर में बनती हुई रोटी सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है। जो सबकी घड़ी में बज रहा है वह सबके हिस्से का समय नहीं है। इस समय।

अब इस उम्र में हूँ

अब इस उम्र में हूँ कि कोई शिशु जन्म लेता है तो वह मेरी नातिनों से भी छोटा होता है संसार में कोलाहल है किसी ने सबेरा हुआ कहा तो लड़का हुआ लगता है सुबह हुई ख़ुशी से चिल्लाकर कहा तो लड़की हुई की ख़ुशी लगती है मेरी बेटी की दो बेटियाँ हैं सबसे छोटी नातिन जाग गई जागते ही उसने सुबह को गुड़िया की तरह उठाया बड़ी नातिन जागेगी तो दिन को उठा लेगी।

अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था

अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था और हम मिल गए दो बार ऎसा हुआ पहले पन्द्रह बरस बाद मिले फिर उसके आठ बरस बाद जीवन इसी तरह का जैसे स्थगित मृत्यु है जो उसी तरह बिछुड़ा देती है, जैसे मृत्यु पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ अबकी पड़ोस में वह रहने आई उसे तब न मेरा पता था न मुझे उसका। थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का पड़ोस में साथ रहने को बचा था पहले हम एक ही घर में रहते थे।

अभी तक बारिश नहीं हुई

अभी तक बारिश नहीं हुई ओह! घर के सामने का पेड़ कट गया कहीं यही कारण तो नहीं । बगुले झुँड में लौटते हुए संध्या के आकाश में बहुत दिनों से नहीं दिखे एक बगुला भी नहीं दिखा बचे हुए समीप के तालाब का थोड़ा सा जल भी सूख गया यही कारण तो नहीं । जुलाई हो गई पानी अभी तक नहीं गिरा पिछली जुलाई में जंगल जितने बचे थे अब उतने नहीं बचे यही कारण तो नहीं । आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए और तुम भी जंगल छोड़कर ख़ुद नहीं गए शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चे-परिवार के साथ जाते दिखे इस साल कहीं यही कारण तो नहीं है । इस साल का भी अंत हो गया परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का सिलसिला तो नहीं ।

आकाश की तरफ़

आकाश की तरफ़ अपनी चाबियों का गुच्छा उछाला तो देखा आकाश खुल गया है ज़रूर आकाश में मेरी कोई चाबी लगती है! शायद मेरी संदूक की चाबी!! खुले आकाश में बहुत ऊँचे पाँच बममारक जहाज दिखे और छुप गए अपनी खाली संदूक में दिख गए दो-चार तिलचट्टे संदूक उलटाने से भी नहीं गिरते!

आकाश से उड़ता हुआ

आकाश से उड़ता हुआ एक छोटा सा हरा तोता ( गोया आकाश से एक हरा अंकुर ही फूटा है. ) एक पेड़ में जाकर बैठ गया. पेड़ भी ख़ूब हरा भरा था. फ़िर तोता मुझे दिखाई नहीं दिया वह हरा भरा पेड़ ही दिखता रहा.

आँख बंद कर लेने से

आँख बंद कर लेने से अंधे की दृष्टि नहीं पाई जा सकती जिसके टटोलने की दूरी पर है संपूर्ण जैसे दृष्टि की दूरी पर। अँधेरे में बड़े सवेरे एक खग्रास सूर्य उदय होता है और अँधेरे में एक गहरा अँधेरे में एक गहरा अँधेरा फैल जाता है चाँदनी अधिक काले धब्बे होंगे चंद्रमा और तारों के। टटोलकर ही जाना जा सकता है क्षितिज को दृष्टि के भ्रम को कि वह किस आले में रखा है यदि वह रखा हुआ है। कौन से अँधेरे सींके में टँगा हुआ रखा है कौन से नक्षत्र का अँधेरा। आँख मूँदकर देखना अंधे की तरह देखना नहीं है। पेड़ की छाया में, व्यस्त सड़क के किनारे तरह-तरह की आवाज़ों के बीच कुर्सी बुनता हुआ एक अंधा संसार से सबसे अधिक प्रेम करता है वह कुछ संसार स्पर्श करता है और बहुत संसार स्पर्श करना चाहता है।

उपन्‍यास में पहले एक कविता रहती थी

अनगिन से निकलकर एक तारा था। एक तारा अनगिन से बाहर कैसे निकला था? अनगिन से अलग होकर अकेला एक पहला था कुछ देर। हवा का झोंका जो आया था वह भी था अनगिन हवा के झोंकों का पहला झोंका कुछ देर। अनगिन से निकलकर एक लहर भी पहली, बस कुछ पल। अनगिन का अकेला अनगिन अकेले अनगिन। अनगिन से अकेली एक- संगिनी जीवन भर।

एक अजनबी पक्षी

एक अजनबी पक्षी एक पक्षी की प्रजाति की तरह दिखा जो कड़ी युद्ध के पहले बम विस्फोट की आवाज से डरकर यहाँ आ गया हो। हवा में एक अजनबी गंध थी साँस लेने के लिए कुछ कदम जल्दी-जल्दी चले फ़िर साँस ली। वायु जिसमें साँस ली जा सकती है यह वायु की प्रजाति है जिसमें साँस ली जा सकती है। एक मनुष्य मनुष्य की प्रजाति की तरह साइरन की आवाज सुनते हीं जान बचाने गड्ढे में कूद जाता है। गड्ढे किनारे टहलती हुई एक गर्भवती स्त्री एक मनुष्य जीव को जन्म देने सम्भलकर गड्ढे में उतर जाती है पर कोई मनुष्य मर जाता है। इस मनुष्य होने के अकेलेपन में मनुष्य की प्रजाति की तरह लोग थे।

अपनी भाषा में शपथ लेता हूँ

अपनी भाषा में शपथ लेता हूँ कि मैं किसी भी भाषा का अपमान नहीं करूँगा और मेरी मातृ भाषा हर जन्म में बदलती रहे इसके लिए मैं बार-बार जन्म लेता रहूँ— यह मैं जीव-जगत से कहता हूँ चिड़ियों, पशुओं, कीट-पतंगों से भी।

उस रोज़ सूर्य

उस रोज़ सुबह सूर्य निकला नहीं था जिस रोज़ माथे में बिंदी लगाना तुम भूल गई थीं पर उस रोज़ भी सुबह थी कि तुम माथे में बिंदी लगा लोगी और सूर्य निकल आए।

ईश्वर अब अधिक है

ईश्वर अब अधिक है सर्वत्र अधिक है निराकार साकार अधिक हरेक आदमी के पास बहुत अधिक है। बहुत बँटने के बाद बचा हुआ बहुत है। अलग-अलग लोगों के पास अलग-अलग अधिक बाक़ी है। इस अधिकता में मैं अपने ख़ाली झोले को और ख़ाली करने के लिए भय से झटकारता हूँ जैसे कुछ निराकार झर जाता है।

कहीं जाने का मन होता है

कहीं जाने का मन होता है तो पक्षी की तरह कि संध्या तक लौट आएँ। एक पक्षी की तरह जाने की दूरी! सांध्य दिनों में कहीं नहीं जाता परन्तु प्राण-पखेरू?

कक्षा के काले-तख़्ते पर

कक्षा के काले-तख़्ते पर सफ़ेद चाक से बना फूलों का गमला है वैसा ही फूलों का गमला फ़र्श पर रखा है- लगेगा कि गमले को देखकर काले-तख़्ते का चित्र बनाया गया हो जबकि चित्र को देखकर हूबहू वैसा ही हुआ गमला फ़र्श पर रखा है गहरी नदी के स्थिर जल में उसका प्रतिबिम्ब है वह नहीं है जबकि जल में प्रतिबिम्ब देख रहा हूँ। वह आई बाद में- प्रतिबिम्ब के बाद में। अपने प्रतिबिम्ब को देखकर वह सजी सँवरी प्रतिबिम्ब में उसके बालों में एक फूल खुँसा है। परन्तु उसके बालों में नहीं। मैंने सोचा काले-तख़्ते के चित्र से फूल तोड़कर उसके बालों में लगा दूँ या गमले से तोड़कर या प्रतिबिम्ब से। प्रेम की कक्षा में जीवन-भर अटका रहा।

कितना बहुत है

कितना बहुत है परंतु अतिरिक्त एक भी नहीं एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियाँ अतिरिक्त एक पत्ती नहीं एक कोंपल नहीं अतिरिक्त एक नक्षत्र अनगिन होने के बाद। अतिरिक्त नहीं है गंगा अकेली एक होने के बाद— न उसका एक कलश गंगाजल, बाढ़ से भरी एक ब्रह्मपुत्र न उसका एक अंजुलि जल और इतना सारा एक आकाश न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक। कितनी कमी है तुम ही नहीं हो केवल बंधु सब ही परंतु अतिरिक्त एक बंधु नहीं।

कोई अधूरा पूरा नहीं होता

कोई अधूरा पूरा नहीं होता और एक नया शुरू होकर नया अधूरा छूट जाता शुरू से इतने सारे कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते परंतु इस असमाप्त – अधूरे से भरे जीवन को पूरा माना जाए, अधूरा नहीं कि जीवन को भरपूर जिया गया इस भरपूर जीवन में मृत्यु के ठीक पहले भी मैं एक नई कविता शुरू कर सकता हूं मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह जीवन की अपनी पहली कविता की तरह किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए ।

घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा

घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा अपने संन्यास में मैं और भी घरेलू रहूंगा घर में घरेलू और पड़ोस में भी। एक अनजान बस्ती में एक बच्चे ने मुझे देखकर बाबा कहा वह अपनी माँ की गोद में था उसकी माँ की आँखों में ख़ुशी की चमक थी कि उसने मुझे बाबा कहा एक नामालूम सगा।

घर से बाहर निकलने की गड़बड़ी में

घर से बाहर निकलने की गड़बड़ी में इतना बाहर निकल आया कि सब जगह घुसपैठिया होने की सीमा थी। घुसपैठिया कि देशिहा! मेरी सूरत मुझको देखती है कि बदला नहीं। चालाकी से अपनी सूरत की फ़ोटो मैंने खिंचवा ली थी कि बहुरुपिया होकर भी पहिचाना जाएगा। सब्ज़ी बाज़ार में खड़ा होकर मैं सोचता हूँ कि विद्रोही न कहलाने के लिए मुझे कौन-कौन सी सब्ज़ी नहीं ख़रीदनी चाहिए। मैं हमेशा जाता हुआ दिखलाई देता हूँ। मैं अपनी पीठ बहुत अच्छी तरह पहिचानता हूँ।

चार पेड़ों के

चार पेड़ों के एक-दूसरे के पड़ोस की अमराई पेड़ों में घोंसलों के पड़ोस में घोंसले सुबह-सुबह पक्षी चहचहा रहे थे यह पड़ोसियों का सहगान है- सरिया-सोहर की गवनई। पक्षी, पक्षी पड़ोसी के साथ झुंड में उड़े। परन्तु मेरी नींद एक पड़ोसी के नवजात शिशु के रुदन से खुली। यह नवजात भी दिन सूर्य दिन को गोद में लिए है सूर्य से मैंने दिन को गोद में लिया।

जगह-जगह रुक रही थी यह गाड़ी

जगह-जगह रुक रही थी यह गाड़ी, बिलासपुर में समाप्त होने वाली छत्तीसगढ़ में सवार था। अचानक गोदिया में सभी यात्री उतर गए और दूसरी कलकत्ता तक जाने वाली आई गाड़ी में चढ़ गए। एक मुझ से अधिक बूढ़े यात्री ने उतरते हुए कहा 'तुम भी उतर जाओ अगले जनम पहुँचेगी यह गाड़ी' मुझे जल्दी नहीं थी मैं ख़ुशी से गाड़ी में बैठा रहा मुझे राजनांदगाँव उतरना था जहाँ मेरा जन्म हुआ था।

जब बाढ़ आती है

जब बाढ़ आती है तो टीले पर बसा घर भी डूब जाने को होता है पास, पड़ोस भी रह रहा है मैं घर को इस समय धाम कहता हूं और ईश्वर की प्रार्थना में नहीं एक पड़ोसी की प्रार्थना में अपनी बसावट में आस्तिक हो रहा हूं कि किसी अंतिम पड़ोस से एक पड़ोसी बहुत दूर से सबको उबारने एक डोंगी लेकर चल पड़ा है घर के ऊपर चढाई पर मंदिर की तरह एक और पड़ोसी का घर है घर में दुख की बाढ़ आती है ।

जब मैं भीम बैठका देखने गया

जब मैं भीम बैठका देखने गया तब हम लोग साथ थे। हमारे सामने एक लाश थी एक खुली गाड़ी में. हम लोग उससे आगे नहीं जा पा रहे थे. जब मैं उससे आगे नहीं जा पा रहे थे. तब हम सब आगे निकल गये. जब मैं भीम बैठका पहुँचा हम सब भीम बैठका पहुँच गये. चट्टानों में आदिमानव के फुरसत का था समय हिरण जैसा, घोड़े बंदरों, सामूहिक नृत्य जैसा समय. ऊपर एक चट्टान की खोह से कबूतरों का झुंड फड़फड़ाकर निकला यह हमारा समय था पत्थरों के घोंसलों में - उनके साथ जब मैं लौटा तब हम लोग साथ थे. लौटते हुए मैंने कबूतरों को चट्टानों के घोंसलों में लौटते देखा.

जितने सभ्य होते हैं

जितने सभ्य होते हैं उतने अस्वाभाविक । आदिवासी जो स्वाभाविक हैं उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है हमारी तरह अस्वाभाविक । जंगल का चंद्रमा असभ्य चंद्रमा है इस बार पूर्णिमा के उजाले में आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से डरे हुए हैं और पेड़ों के अंधेरे में दुबके विलाप कर रहे हैं क्योंकि एक हत्यारा शहर बिजली की रोशनी से जगमगाता हुआ सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।

जाते-जाते ही मिलेंगे लोग उधर के

जाते-जाते ही मिलेंगे लोग उधर के जाते-जाते जाया जा सकेगा उस पार जाकर ही वहाँ पहुँचा जा सकेगा जो बहुत दूर संभव है पहुँचकर संभव होगा जाते-जाते छूटता रहेगा पीछे जाते-जाते बचा रहेगा आगे जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा और कुछ भी नहीं में सब कुछ होना बचा रहेगा।

जाते हुए थोड़ा-सा जाना

जाते हुए थोड़ा-सा जाना वह अपने साथ ले गई। बाक़ी अपना जाना ले जाना वह भूल गई।

जैसे सब चल रहा है

जैसे सब चल रहा है वैसे ही हम तुम सब घिसट रहे हैं ज़िंदगी की सड़क पर नियम से ठीक बाईं ओर हाट-बाज़ार फिर घर की ओर।

जो कुछ अपरिचित हैं

जो कुछ अपरिचित हैं वे भी मेरे आत्मीय हैं मैं उन्हें नहीं जानता जो मेरे आत्मीय हैं। कितने लोगों, पहाड़ों, जंगलों, पेड़ों, वनस्पतियों को तितलियों, पक्षियों, जीव-जंतु समुद्र और नक्षत्रों को मैं नहीं जानता धरती को मुझे यह भी नहीं मालूम कि मैं कितनों को नहीं जानता। सब अत्मीय हैं सब जान लिए जाएँगे मनुष्यों से मैं मनुष्य को जानता हूँ।

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊँगा। एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर नदी जैसे लोगों से मिलने नदी किनारे जाऊँगा कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब असंख्य पेड़ खेत कभी नहीं आएँगे मेरे घर खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा। जो लगातार काम में लगे हैं मैं फ़ुरसत से नहीं उनसे एक ज़रूरी काम की तरह मिलता रहूँगा— इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।

तीनों, और चौथा केन्द्र में

तीनों, और चौथा केन्द्र में उसी की घेरे-बन्दी का वृत्त तीनों वृत्त के टुकड़े थे फरसे की तरह धारदार तीन गोलाई के भाग तीनों ने तीन बार मेरा गला काटना चाहा उन्हें लगता था कि मेरा सिर तना है इसलिए सीमा से अधिक ऊँचाई है जबकि औसत दर्ज़े का मैं था। वे कुछ बिगाड़ नहीं सके मेरा सिर तीन गुना और तना उनकी घेरेबन्दी से बाहर निकलकर। फ़िल्म का एक दृश्य मुझे याद आया एक सुनसान कबाड़ी गोदाम के बड़े दरवाज़े को खोलकर मैं लड़खड़ाता हुआ गुंडों से बचकर निकला हूँ लोग बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे हैं पत्नी कुछ अलग रुआँसी खड़ी है सबसे मिल कर मैं बाद में उससे मिला वह रोते हुए मुझ से लिपट गई।

तीन मीटर ख़ुशबू के अहाते में

तीन मीटर ख़ुशबू के अहाते में उगा हुआ गुलाब ख़ुशबू के अहाते को बिखेर या कतर कर कुछ इस तरह कोट बन गया कि गुलाब का फूल कॉलर में उगा है जब मैंने गुलाब का फूल तोड़ा जब मुझे तफ़रीह करनी थी तब मुझे एक कोट बनवाना था तब मुझे एक क़मीज़ भी बनवानी है जब मुझे पंद्रह रुपए ख़र्च करने हैं वे रुपए कहाँ हैं? मेरी बचत का रुपया हर बार ख़र्च हुआ बाप के उधारखाते में मेरा नाम दर्ज हुआ जब भी थोड़ा तंदुरुस्त हुआ बहुत बीमार हुआ। ख़ुशबू का पारदर्शक कोट पहनकर ज़िंदगी का अजीब जोकर लगता हूँ अंदर वही पुरानी क़मीज़ उसमें बाप जी को लिखा एक पोस्टकार्ड कि यहाँ सब ठीक। पोस्टकार्ड डालना कुछ दिनों से भूल रहा था उसकी दृष्टि की पहली ठोकर से उछलकर लाल डिब्बे के सामने आकर खड़ा हुआ चौकन्ना चुस्त!! चिट्ठी डाल देता हूँ बड़ा काम होता है ज़िंदगी से मेरे ठीक होने की ख़बर मुझसे अलग होती है जो मुझसे जुड़ी नहीं थी उस ख़बर के न जुड़ने का पैदाइशी निशान कहीं ज़रूर है या वह पूरा मैं हूँ— अच्छा नाक-नक़्शा नहीं पक्का नहीं कि पहली जनवरी को पैदा हुआ छुटपन में गिरने के कुहनी-घुटनों में निशान हैं पीठ में फोड़े बहुत निकलते हैं आप कैसे हैं? कितने बाल-बच्चे हैं? अत्र कुशलम् तत्रास्तु!! परम पिता परमेश्वर की अनुकंपा से हमारा आपका उपनयन संस्कार भी हुआ है बिसाहू, हरवाहा, चरवाहा की मिट्टी पलीद है। चिट्ठी के अलावा मेरे पते पर पहुँचने के पहले गोल बाज़ार की सड़क स्टेडियम में बदलती है ऊँचे छज्जों, बालकनी, गैलरी दुमंज़िले, तिमंज़िले में बैठे घूमते लोगों के लिए मेरे पते पर पहुँचने का उनका खेल शुरू होता है! समय से पहले ख़त्म होने का एक मैच— उनकी दृष्टि की हॉकी स्टिकों के बीच पूरी लंबाई के ऊपर उछला तना हुआ अपना गोल सिर बचाता फिरता अपनी आँख बचाता हुआ ग़ुस्से से ऊपर तकता हूँ पैर बचाता हुआ कुचल देने के लिए लात घुमाता हूँ हवा में घूँसे गोया हवा को घूँसे गोया उनकी साँस को चोट! “हो! हो! शाबाश! बचके ज़ोर लगाओ! अभी मरे नहीं। कोशिश करो। तंदुरुस्त हो। कुछ नहीं बिगड़ा। लेकिन बचोगे नहीं!” मकानों की खुली खिड़कियों से लाउडस्पीकर से आवाज़ आती है फुसफुसाकर मैं भी कहता हूँ कि कोशिश करूँगा और बचूँगा। यद्यपि दोस्त से मिलने की जगह मालूम है लेकिन दोस्त का ठिकाना नहीं साहूकार का ठिकाना मालूम है भूगोल मालूम है अमरीका मालूम है साहूकार बहुरूपिया, बहुत रुपया मालिकों का मालिक या नौकरों का नौकर सैकड़ों जोड़ी जूते वाला दो पैर का जानवर— नंगे पैर का आदमी जिसकी फ़िराक़ में बड़ी मेहरबानी! झोपड़ी बनाने के लिए क़र्ज़ देकर ब्याज में झोपड़ी ले लेता ज़मीन ले लेता प्रदेश ले लेता फिर भी बेघर के दरवाज़े को खटखटाकर कभी भी कहीं से भी बरामद करवाकर क़र्ज़ वसूलने का उसका दावा दिन के उजाले में हमें निकालता रात के अँधेरे में बंद कर देता या लोग कोई झोपड़ी नहीं के अंदर जाकर कोई दरवाज़ा नहीं को बंद कर लेते कोई खिड़की नहीं को खोल लेते या छोटा-सा झरोखा भी नहीं के पास आकर बैठ जाते हैं दुनिया देखते हैं। गोल बाज़ार की सड़क में तालियों के बीच अपनी पत्नी से मैं खाना परोसने के लिए कहता हूँ एक पूरी थाली— अरहर की दाल, रोटियाँ, चटनी, ख़ुशबूदार चावल रसेदार गोभी, बढ़िया थाली उनकी कोशिश होती है कि दिमाग़ में उतरे ताकि पेट और दिमाग़ का काम एक होकर गहराई से सोचना गू हो जाए। बाज़ू के घर की छत में लाइन से बैठे काले कव्वों के झपटने के लिए आम थाली नहीं ये विचार से रोटी को झपटकर उड़ जाने को तैयार बैठे तत्पर नुकीली तेज़ चोंच इनकी है विचारों की गहराई तक धँसाकर नोचने बैठे काले कव्वे भगाने से नहीं भागते हैं—पत्नी कहती है भगाने से नहीं भागते हैं—मुहल्ले के लड़के कहते हैं मैं कुछ भी नहीं कहता कोई कुछ नहीं कहता तब भी सब सुनते हैं —इनको भगाते रहो ज़रूरी विचारों से मज़बूत बनो मरे हुए कव्वों की खाल ओढ़कर साहूकारों की जमात इकट्ठी है। बहुतों की खोल में हीरे की बटन लगी है छत पर कव्वे इकट्ठे होने के अंधविश्वास का सहारा ले मेहमान बनकर मुहल्ले में आएगा उड़कर नहीं, पैदल चलकर आएगा उनकी पेटी में कव्वों की खाल होगी जो अधनंगे बच्चों की भेंट होगी खिलौने घुनघुने होंगे। इनको भगाते रहो। शायद वह मुझसे भी कहे कि कॉलर में लगा गुलाब का फूल मुरझा गया है बहुत तफ़रीह हो गई दस-पाँच रुपया बचने से कुछ नहीं होगा क़मीज़ सिलवाने के बदले कव्वे की खाल ओढ़कर जमात के साथ बैठूँ काँव! काँव!! बोलना सीखूँ! वह मुझे डाँटेगा, धमकी देगा कि मैंने गुलाब का फूल क्यों तोड़ा था फिर वह कान में इत्र का फाहा खोंस बग़ीचा समारोह में शामिल होगा तब बादल से सूरज, मोटर की डिकी से, जैसे निकलेगा उनके वातावरण को रंगीन बना देगा वातावरण में डिस्टेंपर!! वातावरण की बाहरी दीवालों पर ऊँगली फिराने से कोई रंग नहीं आता उनके वातावरण में अंदर जाने की मनाही है लेकिन मिट्टी में हाथ रखने से मिट्टी का रंग नहीं मिट्टी आ जाती है क्या यह गंदगी है? लीख से भरे बालों वाले लड़के के चेहरे में मैल की परत— मैल की परत का नक़ाब! नक़ाबपोश, चोर, डाकू उचक्का, गँवार, ग़ुंडा वह ग़रीब का लड़का।... बहुत से उदाहरण थे उदाहरणों की भीड़ कविता में आने की उनकी धकापेल मची बड़ा ग़ुस्सा किसी की नाक फ़ाउंटेनपेन लिखना सूँघने के समान इसलिए ख़ुशबू सूँघ से अदृश्य होकर ख़ुशबू बोलकर कान उसको आँख की तरह देखता सुनता है इस तरह का कारोबार पूरा चेहरा बिगड़ा है। तब मैं उसकी पहली करतूत के उदाहरण को ढूँढ़ने के लिए सब कुछ उलटकर पहले अपनी तलाशी लेता हूँ ख़ुद उदाहरण होने से बचता केवल दो मिनट बंद दीवाल घड़ी की तरफ़ देखता कि कितनी देर तक ख़त्म हुआ समय क़ायम रहता है इस तरह दो मिनट बर्बाद करता हूँ। अपनी तलाशी लेते मैं एक नई कविता शुरू करता तो वह हज़ारों कविता की पृष्ठभूमि तैयार कर देता है— अकेले मेरे बस का नहीं पूरी कविता पूरी कार्रवाई नहीं पोटली में दो किलो चावल नहीं यह ज़मीन पर गिरे दो किलो चावल के एक-एक दाने को बीनकर मुहल्ले के लोगों के द्वारा इकट्ठा करने का इस तरह पेट से ज़्यादा समूह की ताक़त बढ़ाने का हिसाब है उस आदमी को दौड़कर पकड़ना है धक्का देकर पोटली का चावल गिराना जिसका काम है मेरा कविता के अलावा क्या कविता का काम है!! मुहल्ले के लड़को, आओ बहुत ज़रूरी काम है— एक-एक कर जिसको जब भी मौक़ा मिले अकेले से अच्छा किसी को साथ लाना है पूरे मोहल्ले को गोल बाज़ार में आना है किसान गंज में ख़रीददार दुकानों में बरसों के मुनाफ़े को तुरंत घाटे में मेहनत को मुस्कराहट में सोने को बनते हुए ताप बिजलीघर में जिसकी चिमनी में उगा मधुमक्खी का छत्ता या दिमाग़ में डंक मारने वाले विचारों का शहद-छत्ता डंक मारने वाले विचारों को फैलाना है ज़रूरी काम है। उसकी पहली करतूत के उदाहरण को ढूँढ़ते समय जैसे गुम हो गई पहले की कविता ढूढ़ने के लिए सब कुछ उलट-पुलट बिखरा न मालूम कहाँ वह गुप्त कविता फ़रार कविता किस घूरे में फिंकी बहुत नुक़सान हुआ काम पर जाने में देर हुई पत्नी से पहले डाँट-डपट पूछा फिर उसके उदास होने पर पछताया जबकि वह लिखी गई कविता नहीं लिखी जाने वाली कविता होती है। कई दरवाज़े वाले गोल कमरे की तरह एक विशाल उदाहरण का बहुत छोटा कमरा पर इतने दरवाज़े खिड़कियाँ झरोखे जिनके खुले होने पर यह कमरा शामिल मैदान लगता है— खुले दरवाज़े का घेरा दस बाई ग्यारह का क्षितिज कमरा बिल्कुल शुरू लगता है। उदाहरण होने से बचता हुआ क्षितिज कमरे के अंदर घुसकर उदाहरणों की बैठक में कविता लिखने मित्रों और दुश्मनों को जवाबदेह हूँ इन्हीं के बीच वह ग़रीब का लड़का जैसे परिचितों के बीच बेफ़िक्र होकर खेलता दिखता है वैसे नंग-धड़ंग लेकिन प्रतीकों के बाबासूट में कहीं जाने को तैयार मुझे देखते ही आ लिपटता है कहीं घुमा लाने की ज़िद करता है —उदाहरणों की भीड़ से पुरानी खटारा साइकिल के उदाहरण पर पैडल मारता हुआ गुज़रता रहा वर्तमान और इसलिए पीछे कैरियर पर बैठा ग़रीब लड़के का उदाहरण इतना पुराना पड़ गया कि उसे लेकर चढ़ाई चढ़नी थी या चढ़ाई करनी थी क़िला फ़तह करना था कुछ सवारियाँ, रिक्शे में पाँच आदमी, कहीं आबादी के ऊपर एक सवार नहीं! यह छिपकर चढ़ाई का रास्ता नहीं यह आम रास्ता है। ‘एक दूसरा रास्ता भी है।’ मैंने कैरियर पर बैठे ग़रीब लड़के से कहा सामंती इतिहास सदर बाज़ार से केवल दो मिनट का है यदि साइकिल से जाएँ उधर भी परिचित हैं वहाँ लालबाग़ है—राजा का महल जिसे सारडा सेठ ने ख़रीदा है कोकड़ा मारवाड़ी का मंदिर एक हलवाई की दुकान जहाँ पुराने क़िले का पीर रोज़ रात को दो बजे दो सोने की गिन्नियाँ देकर दो जलेबियाँ खाने आता है बड़ा सिरफिरा पहुँचा हुआ पीर!! हर साल जिसकी मज़ार एक बीता बढ़ जाती है और शहर अपने अंदर एक बीता कम हो जाता है हर सेठ उसकी गिन्नियाँ भुनाकर रईस और बाक़ी व्यापार ठीक। न मालूम कब ग़रीब का लड़का कैरियर से उतरकर हलवाई की दुकान के सामने पड़े हुए काग़ज़ की चासनी चाटता लापता हुआ हाय! उसके पीछे मैं लापता!! जगह-जगह ठीक होने का समाचार मुझे ढूँढ़ता फिरता, मेरी तलाश करता मैं उस आदमी को ढूँढ़ता जिसकी कुशलता का समाचार मुझे मिलेगा आदमी कब कुशलपूर्वक होगा? ख़बर मिलते ही देना है जवाब— कि यहाँ भी ठीक। अपनी तलाशी लेते समय जेब में हाथ डालता हूँ तो उसमें पहले से घुसा कोई और हाथ जेब के अंदर मुझसे हाथ मिलाता है कि मैं गिरफ़्त में!! उससे हाथ छुड़ाने की ज़बरदस्त कोशिश में उसकी कलाई-घड़ी टूटी ज़रूर पर तब भी घंटे, मिनट और सेकंड के नुकीले काँटे मेरे हाथ में चुभे, धँसे बहुत गहरे, बहुत गहरे बुरा समय बताते हैं अंदर और बाहर बूँद-बूँद ख़ून बहता है जो एक घटना है—उस हाथ को जेब से बाहर निकाल फेंकता हूँ तब भी उसकी हथेली से उसकी मस्तिष्क और भाग्य-रेखा जेब में कुलबुलाती छूट जाती है एक-एक कर उनको चुटकी से पकड़ ज़मीन पर छोड़ता हूँ तो सर्र-सर्र भागती हुई लकीरें साँप के बिल में पनाह लेती हैं कुल मिलाकर जेब से मुट्ठी-भर लकीरें, बृहस्पति, चंद्र, पहाड़, शनि निकाल हवा में उछालता हूँ उसकी बोरी से एक मुट्ठी अनाज उठाकर एक घूँसा अनाज कहकर उसे डराता हूँ उससे राज़ीनामे और अँगूठे का निशान लगाने से चिढ़ता हूँ।... बहुत ज़रूरी काम से कुछ सोचकर हड़बड़ी में जाते हुए मुझे देखकर एक पोस्टमैन पूछता है? क्या आप पहली जनवरी को पैदा हुए? आपकी पीठ में फोड़े बहुत निकलते हैं और ज़िंदगी के ठीक होने की ख़बर जो आपसे कभी नहीं जुड़ी उस ख़बर के न जुड़ने का पैदाइशी निशान आप स्वयं हैं तब तो यह गश्ती पत्र आपका भी है— अत्र कुशलम् तत्रास्तु दुनिया में कुशल है, चिंता न करें मैंने पोस्टमैन से कहा —आप पोस्टमैन बूढ़े हैं! —नहीं, मैं ब्रिगेडियर बूढ़ा हूँ एक जल्दी होने वाले महायुद्ध में मेरी टाँग टूटी, मरने से बचा केवल एक पैर से पैडल मारकर आपको ढूँढ़ते पहुँचा उदाहरण के लिए मुझे एक कविता में होना था संभावित युद्ध में घायल होकर मेरे चेहरे का पूरा कारोबार बिगड़ा मेरी ही नाक फ़ाउंटेनपेन सूँघना लिखने के समान बिग्रेडियर पोस्टमैन हूँ संभावित युद्ध की शांति में डाक बाँटने की मेरी ड्यूटी है।... उसे जाते हुए मैंने देखा उसके कैरियर में पार्सलों के बीच दबा हुआ ग़रीब लड़के का उदाहरण मुझे देखकर मुस्कुराया मुझे रोना आया।

दुनिया जगत

दुनिया जगत जगत कुएँ का। जिस पर जाने कैसे चढ़ा एक नन्हा बच्चा। आवाज़ नहीं दी मैंने उसको चौंककर कुएँ के अंदर गिर जाता तो! चुपचाप धीरे-धीरे चला सँभलकर उठाया मैंने गोद में उसको। बस, इतना मैं चुप रहा इतना धीरे चला बहुत चुप बहुत धीरे चला।

दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है

दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है कहकर मैं अपने घर से चला। यहाँ पहुँचते तक जगह-जगह मैंने यही कहा और यहाँ कहता हूँ कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। जहाँ पहुँचता हूँ वहाँ से चला जाता हूँ। दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है— बार-बार यही कह रहा हूँ और कितना समय बीत गया है लौटकर मैं घर नहीं घर-घर पहुँचना चाहता हूँ और चला जाता हूँ।

दूर से अपना घर देखना चाहिए

दूर से अपना घर देखना चाहिए मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में सात समुंदर पार चले जाना चाहिए जाते-जाते पलटकर देखना चाहिए दूसरे देश से अपना देश अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी घर में अन्न-जल होगा कि नहीं की चिंता पृथ्वी में अन्न-जल की चिंता होगी पृथ्वी में कोई भूखा घर में भूखा जैसा होगा और पृथ्वी की तरफ़ लौटना घर की तरफ़ लौटने जैसा। घर का हिसाब-किताब इतना गड़बड़ है कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ़ लौटता हूँ जैसे पृथ्वी की तरफ़।

नदी तुम इस किनारे हो

नदी तुम इस किनारे हो या उस किनारे इस पार हो या उस पार या तुम केवल मँझधार ही हो! सच में नदी प्यार में तुम समझ में नहीं आती।

पहाड़ को बुलाने

पहाड़ को बुलाने 'आओ पहाड़' मैंने नहीं कहा कहा 'पहाड़, मैं आ रहा हूँ। पहाड़ मुझे देखे इसलिए उसके सामने खड़ा उसे देख रहा हूँ। पहाड़ को घर लाने पहाड़ पर एक घर बनाऊंगा रहने के लिए एक गुफ़ा ढूँढूंगा या पितामह के आशीर्वाद की तरह चट्टान की छाया कहूंगा यह हमारा पैतृक घर है।

प्रेम की जगह अनिश्चित है

प्रेम की जगह अनिश्चित है यहाँ कोई नहीं होगा की जगह भी कोई है। आड़ भी ओट में होता है कि अब कोई नहीं देखेगा पर सबके हिस्से का एकांत और सबके हिस्से की ओट निश्चित है। वहाँ बहुत दुपहर में भी थोड़ी-सा अँधेरा है जैसे बदली छाई हो बल्कि रात हो रही है और रात हो गई हो। बहुत अँधेरे के ज़्यादा अँधेरे में प्रेम के सुख में पलक मूँद लेने का अंधकार है। अपने हिस्से की आड़ में अचानक स्पर्श करते उपस्थित हुए और स्पर्श करते हुए विदा।

बहुत कुछ कर सकते हैं

बहुत कुछ कर सकते हैं ज़िंदगी में का काम बहुत था। कुछ भी नहीं कर सके की फ़ुरसत पाकर मैं कमज़ोर और उदास हुआ। ऐसी फ़ुरसत के अकेलेपन में दुःख हुआ बहुत, पत्नी ने कातर होकर पकड़ा मेरा हाथ जैसे मैं अकेला छूट रहा हूँ उसे अकेला छोड़। बच्चे मुझसे आकर लिपटे अपनी पूरी ताक़त से मैंने अपनी ताक़त से उनको लिपटाया और ज़ोर से पत्नी-बच्चों ने मुझे नहीं अकेला छोड़ा फिर भी सड़क पर गुज़रते जाते मैं हर किसी आदमी से अकेला छूट रहा हूँ सबसे छूट रहा हूँ एक चिड़िया भी सामने से उड़कर जाती है अकेला छूट जाता हूँ। चूँकि मैं आत्महत्या नहीं कर रहा हूँ मैं दुनिया को नहीं छोड़ रहा हूँ।

बहुत कुछ देखना बाक़ी है

बहुत कुछ देखना बाक़ी है इसलिए मैं नीचे से ऊपर तक आँख हो गया हूँ इस दिमाग़ से आँख हूँ काम से आँख हूँ। बहुत कुछ देखना बाक़ी है इसलिए इनमें कहीं से भी और किसी से भी आँसू नहीं हूँ।

बोलने में कम से कम बोलूँ

बोलने में कम से कम बोलूँ कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ इतना कम कि किसी दिन एक बात बार-बार बोलूँ जैसे कोयल की बार-बार की कूक फिर चुप । मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप । पहाड़, आकाश, सूर्य, चंद्रमा के बरक्स एक छोटा सा टिम-टिमाता मेरा भी शाश्वत छोटा-सा चुप । ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में मेरा एक चुप- चलने के पहले एक बंदूक का चुप । और बंदूक जो कभी नहीं चली इतनी शांति का हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप । बरगद के विशाल एकांत के नीचे सम्हाल कर रखा हुआ जलते दिये का चुप । भीड़ के हल्ले में कुचलने से बचा यह मेरा चुप, अपनों के जुलूस में बोलूँ कि बोलने को सम्हालकर रखूँ का चुप ।

मैं अंतर्मुखी होकर

मैं अंतर्मुखी होकर कविता में अपने को एक वाक्य देता हूँ— कि चलो निकलो। इस वाक्य में बाहर देना भूल जाता हूँ। इसलिए अपने अंदर और निकल जाता हूँ। अंतर्मन के तालाब में बहिर्मुख के प्रतिबिंब को अंतर्मुख देखता हूँ। बहिर्मुख की दाढ़ी बनाता हूँ। बहिर्मुख को धोकर अंतर्मुख साफ़ देखता हूँ। तैयार होकर बाहर परंतु अंतर्मुख के साथ निकल आता हूँ खुली हवा में उसी से साँस लेता हूँ।

मैं दीवाल के ऊपर

मैं दीवाल के ऊपर बैठा थका हुआ भूखा हूँ और पास ही एक कौआ है जिसकी चोंच में रोटी का टुकड़ा उसका ही हिस्सा छीना हुआ है सोचता हूँ की आए! न मैं कौआ हूँ न मेरी चोंच है – आख़िर किस नाक-नक्शे का आदमी हूँ जो अपना हिस्सा छीन नहीं पाता!!

यह कहकर

यह कहकर कि परिस्थितियाँ हमें अलग करेंगी तुम ख़ुद अलग हो गईं तुमने तो परिस्थितियों को अलग करने का मौक़ा ही नहीं दिया। बरस बीत गए कि परिस्थितियाँ हमें मिला देंगी के रस्ते पर मैं खड़ा रहा।

यह दिन उम्र की रोज़ी है

यह दिन उम्र की रोज़ी है एक सुभ हुई की तन्ख़ा मिली और शाम हुई में खर्च हुई अगले दिन का क्या पता इस क्या पता दिन की भी सुबह हुई यह उधारी हुई। मित्रो, दिनों के उधार को मैं दूसरों के जीवन से बहुत प्रेम कर चुक दूंगा। परंतु हम सभी के आजकल के दिनों की यह लूट और हत्या की रपट है कि मैं किसी भी दिन को जैसे उन्नीस फ़रवरी के दिन को कविता के रोजनामचे में दर्ज़ कराता हूँ।

रईसों के चेहरे पर

रईसों के चेहरे पर उठी हुई ऊँची नाक और कीमती सेंट! ख़ुश-बू मैं नहीं जानता दु:ख जानता हूँ।

रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था

रहने के प्रसंग में कहीं एक घर था उसी तरह प्यास के प्रसंग में उसमें एक छोटे घड़े में पानी भरा था बहुत दिन से बचा था के कारण घड़ा पुराना हो चुका था पता नहीं क्या था के कारण कुछ था जो याद नहीं आ रहा था जो याद आ रहा था वह इतना था कि उसके प्रसंग भी बहुत थे आस-पास था, दूर था बीते हुए रात-दिन का समय हो चुका था बीतने वाले रात-दिन का समय था सब तरफ़ जीवन था संसार के प्रसंग में घड़ा छोटा था कोई किसी के घर पानी पीने आ सकता है इसलिए छोटे घड़े के बदले बड़े घड़े होने का एक प्रसंग था।

राजिम का विष्णु-मंदिर

राजिम का वह आठवीं शताब्दी का विष्णु-मन्दिर है गर्भ-गृह में विष्णु को सबने दूर से प्रणाम किया मन्दिर के मंडप में दुर्गा की मूर्त्ति है कठोर पत्थर की अत्यन्त सुन्दर अंदर से कोमल हो सम्भवत: । सबने दुर्गा की प्रतिमा का चरण-स्पर्श किया कुछ ने माथा टेका मैंने देखा प्रतिमा के पैरों की उंगलियाँ माथा टेकने और चरण-स्पर्श से घिसकर चिकनी और सपाट हो चुकी हैं इसमें मन ही मन का चरण-स्पर्श और दूर का माथा टेकना भी शामिल है। विष्णु की प्रतिमा को समीप से नहीं देख पाया।

रायपुर बिलासपुर संभाग

रायपुर बिलासपुर संभाग हाय! महाकौशल, छत्तीसगढ़ या भारतवर्ष इसी में नाँदगाँव मेरा घर कितना कम पहुँचता हूँ जहाँ इतना ज़िंदा हूँ सोचकर ख़ुश हो गया कि पहुँचूँगा बार-बार आख़िरी बार बहुत बूढ़ा होकर ख़ूब घूमता जहाँ था फलाँगता उतने वर्ष उतने वर्ष तक उम्र के इस हिस्से पर धीरे-धीरे छोटे-छोटे क़दम रखते ज़िंदगी की इतनी दूरी तक पैदल कि दूर उतना है नाँदगाँव कितना अपना! स्टेशन पर भीड़ गाड़ी खड़ी हुई झुंड देहाती पच्चासों का रेला आदमी-औरत लड़के-लड़की गंदे सब नंगे ज़्यादातर कुछ बच्चे रोते बड़ी ज़ोर से बाक़ी भी रुआँसे सहमे जुड़े-सटे एक दूसरे से इकट्ठे कूड़े-कर्कट की गृहस्थी का सामान लाद मोटरा, पोटली, ढिबरी, कंदील लकड़ी का छोटा-सा गट्ठा एक टोकनी में बासी की बटकी हंडी दूसरी में छोटा-सा बच्चा छोटी सुंदर नाक, मुँह छोटा-सा प्यारा बहुत गहरी उसकी नींद भविष्य के गर्भ में उलटा पड़ा हुआ बहुत ग़रीब बच्चा वर्तमान में पैदा हुआ। भोलापन बहुत नासमझी!! पच्चासों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में लपकते वही फिर एक साथ दूसरे डिब्बे में एक भी छूट गया अगर गाड़ी में चढ़ने से तो उतर जाएँगे सब के सब। डर उससे भी ज़्यादा है अलग-अलग बैठने की बिल्कुल नहीं हिम्मत घुस जाएँगे डिब्बों में ख़ाली होगी बेंच यदि पूरा डिब्बा तब भी खड़े रहेंगे चिपके कोनों में या उकड़ूँ बैठ जाएँगे थककर नीचे डिब्बे की ज़मीन पर। निष्पृह उदास निष्कपट इतने कि गिर जाएगा उन पर केले का छिलका या फल्ली का कचरा तब और सरक जाएँगे वहीं कहीं जैसे जगह दे रहे हों कचरा फेंकने की अपने ही बीच। कुछ लोगों को छोड़ बहुतों ने देखा होगा पहली बार आज रायपुर इतना बड़ा शहर आज पहली बार रेलगाड़ी, रोड रोलर, बिजली नल छोड़कर अपना गाँव जाने को असम का चाय बगान, आज़मगढ़ कलकत्ता, करनाल, चंड़ीगढ़ लगेगा कैसा उनको, कलकत्ता महानगर!! याद आने की होगी बहुत थोड़ी सीमा— चंद्रमा को देखेंगे वहाँ तो याद आएगा शायद गाँव के छानी छप्पर का, सफ़ेद रखिया आकाश की लाली से लाल भाजी की बाड़ी नहीं होगी ज़मीन जहाँ जरी खेड़ा भाजी आँगन में करेले का घना मंडप जिसमें कोई न कोई हरा करेला छुपकर हरी पत्तियों के बीच टूटने से छूट जाता दिखलाई देता जब पककर लाल बहुत हो जाता— देखेंगे जब पहली बार सुबह-शाम का सूरज छूटकर रह गया वहाँ दिन छूटकर सुबह-शाम का सूरज। दूर हो जाएगी गँवई, याद आने की अधिकतम सीमा से भी क्षितिज के घेरे से मज़बूत और बड़ा कलकत्ते का है घेरा कि अपनी ही मजबूरी की मज़दूरी का ग़रीबी अपने में एक बड़ा घेरा। नहीं, नहीं मैं नहीं पहुँच सकूँगा नाँदगाँव मरकर भी ज़िंदा रह टिकट कर दूँ वापस चला जाऊँ तेज़ भागते गिरते-पड़ते हाँफते देखूँ झोपड़ी एक-एक कितनी ख़ाली क्या था पहले क्या है बाक़ी छूट गई होगी धोखे से साबुत कोई हंडी पर छोड़ दिया गया होगा दु:ख से पैरा तिनका तक अरहर काड़ी एक-एक। समय गुज़र जाता है जैसे सरकारी वसूली के लिए साहब दौरे पर फ़िलहाल सूखा है इसलिए वसूली स्थगित पिटते हुए आदमी के बेहोश होने पर जैसे पीटना स्थगित। देखना एक ज़िंदा उड़ती चिड़िया भी ऊँची खिड़की से फेंक दिया किसी ने मरी हुई चिड़िया बाहर का भ्रम कचरे की टोकरी से फेंका हुआ मरा वातावरण मर गया एक बैल जोड़ी की तरह एक मुश्त रायपुर और बिलासपुर इस महाकौशल कहूँ या छत्तीसगढ़!! मर गया प्रदेश मर गई जगह पड़ी हुई उसी जगह उत्तर प्रदेश राजस्थान बिहार कर्नाटक आंध्र बिखर गई बैलों की अस्थिरपंजर-सी सब ज़मीन उत्तर से दक्षिण ज़मीन के अनुपात से आकाश को गिद्ध कहूँ इतना भी नहीं काफ़ी जितना, अकेला एक गौंठिया काफ़ी फिर मरे हुए दिन की परछाईं रात अँधेरी। शब्द खेत शब्द पत्थर। मेड़ के नीचे धँसे पत्थर बल्कि चट्टानें फ़ॉसिल हुई फ़सलें दृश्य तालाब का गड्ढे का दृश्य साफ़ है तालाब का पंजर पपड़ाया हुआ मन तालाब का भीतरी जिसमें सूखी हरी काई की परत सूख गया हरा विचार तालाब का पार के ऊपर जाकर मंदिर के पास खड़ा किसी पेड़ का जैसे एक पुराना बरगद पेड़ का नीम सूखा ‘था एक पेड़’ की कहानी की शुरुआत लकड़ी के पेड़ के बबूल पीपल लकड़ी की अमराई। एक ग़रीब खेतिहर के बेदख़ल होते ही छूटकर रह गई ज़मीन ज़मीन का नक़्शा होकर टँग गई ज़मीन दीवाल पर कि हिमालय एक निशान हिमालय का नक़्शे में नदियाँ बड़ी-बड़ी बस चिह्न नदियों के पुल, रेलगाड़ी की पटरी, सड़क और निशान समुद्रों के नक़्शा पूरा टँगा हुआ देश का दीवाल पर कहाँ नाँदगाँव उसमें मेरा घर बहुत मुश्किल ढूँढ़ने में पार्री नाला, नदी मुहारा रास्ता पगडंडी का घर आँगन, एक पेड़ मुनगे का अजिया ने जिसे लगाया था दो पेड़ जाम के बापजी, बड़े भय्या के, और चाचा की छाया, अम्मा से तो एक-एक ईंट घर की और चूल्हे की आगी बहुत थककर एक कोने में पड़ जाती, बहुत मुश्किल इन सबका उल्लेख नक़्शे में। नहीं कोई चिह्न तालाबों में खिले हुए कमल का तैरती छोटी-छोटी मछली झींगा, सिंगी, बामी, कातल कूदते नंग-धड़ंग छोटे-बड़े, गाँव के लड़कों का तकनीकी तौर पर भी मुश्किल यह सब नक़्शे में जब गाँव बहुत से और छोटे-छोटे हों ग़रीब करोड़ों और रईस थोड़े हों जब तक न वहाँ बड़े कल-कारख़ाने या बाँध ऊँचे हों। बिना जाते हुए प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े-खड़े जब याद आते हैं नाँदगाँव पहुँचने के छोटे-छोटे से देहाती स्टेशन इधर से रसमड़ा, मुड़ीपार, परमालकसा उधर से मुसरा, बाँकल तब लगता है मैं कहीं नहीं बस निकाल दिया गया दूर कहीं बाहर सीमा से— निहारते नक़्शे को नक़्शे के बाहर खड़े-खड़े लिए हाथों में एक झोला एक छोटी पेटी का अपना वज़न— फिर थककर बैठ जाता हूँ पेटी के ऊपर और इस तरह खड़े-खड़े थकने से पछताता हूँ— कि तालाब की सूखी गहराई के बीच मैं भी तालाब का कोई छोटा-सा जीवित विचार दिखूँ ज़िंदगी में गीले मन से रिसता हुआ पीपल की गहरी जड़ों को छूता खेत के बीच कुएँ के अंदर झरने-सा फूटूँ मेहनत के पसीने से भीग जाऊँ पलटकर वार करते हुए बुरे समय के बाढ़ के पानी को दीवाल-सा रोकता बाँध का परिचय दूँ कि मैं क्या हूँ आख़िर मेरी ताक़त भी क्या है बाढ़ को रोकने वाली दीवाल छोटे से गाँव के तालाब का छोटा-सा विचार है बिखर गए एक-एक कमज़ोर को इकट्ठा करता हुआ ताक़त का परिचय दूँ कि मैं क्या हूँ मेरी ताक़त भी क्या है इकट्ठी ताक़त को एक-एक कमज़ोर का विचार है। गूँजी तब गाड़ी की तेज़ सीटी कानों में हवा साँय गूँजी अँधेरे अधर में लहर गई एक हरी बत्ती किसी ख़ूँख़ार जानवर की अकेली आँख अँधेरे में हरी चमकी चलने को है अब हरहमेश की रेलगाड़ी हड़बड़ाकर मैं पेटी से उठा कि हाथ का झोला छिटक दूर जा पड़ा गिर गया टिफ़िन का डिब्बा झोले से बाहर लुढ़कता खुलता हुआ रोटी और सूखी आलू की सब्ज़ी को बिखराता ढक्कन अलग दूर हुआ अचानक तब इकट्ठे भूखे-नंगे लड़कों में होने लगी उसी की छीना-झपटी मेरी छाती में धक्-धक् मेहनत को आगे भूख का ख़तरा हरहमेश काँप गए पैर अरे! रोक दो मत जाने दो मजबूर विस्थापित मज़दूरों को कहाँ गया लाल झंडा! लाल बत्ती!! गाड़ी रोकने को आ क्यों नहीं जाता सामने सूर्योदय लाल सिग्नल-सा खींच दे उनमें से ही कोई ज़ंजीर ख़तरे की या पहुँचे कोई इंजन तक कर ले क़ब्ज़ा गाड़ी के आगे बढ़ने पर पलटा दे दिशा गाड़ी की कूदें सब खिड़की-दरवाज़े से डिब्बे की लौटें लेकर फ़ैसले का विचार लश्कर छोड़ दें पीछे मोह कचरे की गृहस्थी का टट्टा कमचिल बासी की बटकी हंडी भी पर भूल न जाएँ ढिबरी कंदील ज़रूरत अँधेरे में रास्ता ठीक देखने की। एक ग़रीब जैसे हर जगह उपलब्ध आकाश पर गोली का निशान गोल सूरज रिसता रक्त पूरब कोई सुबह उसी सुबह एक ज़िंदा चिड़िया का हल्ला देखने को टोलापारा उमड़ा सुनाई देती है सीटी उस चिड़िया की बुलबुल ही शायद दिखलाई नहीं देती कहाँ है? कहाँ है? एक ने कहा—मुझे दिखी उसे घेरकर तुरंत जमघट हुआ चिड़िया बुलबुल दिखाने को बच्चों को कंधे पर बैठाए लोग इस तरह भविष्य तक ऊँचे लोग सबकी इशारे पर एकटक नज़र उधर वहाँ ‘था एक पेड़’ की कहानी का जहाँ ख़ात्मा नहीं चला होगा लंबा क़िस्सा समाप्त बीच में ही हुआ होगा वहीं सुरक्षित पीपल का एक बीज अंकुर ‘एक पेड़ है’ कहानी की शुरुआत उसी पेड़ पर जिस पेड़ की फुनगी को सारे आकाश का निमंत्रण। हरा मुलायम हरा ललछौंह चमकते नए पत्ते के बीच बस, उसी पेड़ पर।

विचारों का विस्तार इस तरह हुआ

विचारों का विस्तार इस तरह हुआ— जिस दिशा में एक मरियल आदमी मुरम खोद रहा दिन भर से धूप में पुरानी ज़ंग खाई लोहे जैसी मज़बूत मुरमी तपती ज़मीन से उस आदमी के साथ एक लड़का आबादी जैसा भूखा उघारा दुबला खुदी हुई मुरम को जो घमेले में भरकर बैलगाड़ी में डाल रहा उन दोनों तक पहुँचने के लिए पेड़ की छाया शाम-शाम को बहुत चाहकर उनकी दिशा में कुछ लंबी होकर रह गई। बुलबुल तो गाने वाला भूरे रंग का फूल खंजन मैना भी पेड़ में इसीलिए तो उड़ गई। दु:ख हुआ हरे-भरे पेड़ से कि पत्तियाँ सैकड़ों आकर बैठ गई होंगी झुंड में चिड़ियों के साथ हरि पत्तियों का बसेरा वह जो अब इसलिए पेड़ हरा एक पत्ती एक चिड़िया लगी पीली पत्ती जो पेड़ से अलग हुई हवा में गिर पड़ी चिड़िया पीली एक पत्ती गई एक पत्ती की छाया गई। पेड़ में स्थिर बैठी चिड़िया पेड़ के हिस्से के समान और पेड़ पर बैठने के लिए कहीं दूर उड़ती चिड़िया भी पेड़ का उगा हुआ विस्तार हवा में उड़ता सीटी-सी बजा ओझल हुआ। —एक चिड़िया गई एक चिड़िया की छाया गई पेड़ की छाया टुकड़े-टुकड़े चिड़ियों की छाया होकर चली गई चिड़ियों के साथ। उड़कर चली जाएगी हरियाली हरी पत्तियों का झुंड हरी झाड़ी असंख्य बीज चिड़ियों के झुंड के साथ भरी नदी के किनारे जंगलों में, बाक़ी होगा ठूँठ इस चटियल मुरमी मैदान पर हरियाली गई हरियाली की छाया गई। दृश्य धुँधले हैं धुँधलके में, एक-एक कर नहीं एक साथ धीरे-धीरे जो दिख रहा है वह धुँधला जो ओझल धुँधलके में ओझल है। चिड़िया बहुत छोटी धुँधला आकाश भी धुँधला एक तारा धुँधलके में शाम का, पर दूर से आती हुई ओझल बैलगाड़ी के बैलों की घंटी की आवाज़ कहाँ धुँधली इसीलिए तो एकबारगी दिखने वाली शाम के तारे पर दृष्टि गई कि घंटी वही तारा है धुँधले आसमान के गले में काँसे की, पर जितना बड़ा गला आसमान का उस हिसाब से घंटी छोटी है चंद्रमा ठीक है। आसमान छुट्टा पता नहीं किसने छोड़ा जुगाली करता हुआ पसरा सारी दुनिया की हरियाली में मुँह मार सकने लायक़ भारी भरकम सारी फ़सलें सारे जंगल उसकी तरफ़ उन्मुख वह धीरे-धीरे आता हुआ ज़मीन की तरफ!!! अगर जहाँ का तहाँ तो बँधा हुआ खूँटे में है, जुतने के लिए कभी मुरम खोदने वाले की बैलगाड़ी में और यदि आ रहा होगा तो शायद जुत गया होगा जोड़ी के लिए दूसरा आसमान भी साथ होगा। एकदम सन्नाटे में उभरकर स्पष्ट बैलगाड़ी के आने की आवाज़ का इस तरह विस्तार हुआ —एक अकेला पेड़ पथरीले मैदान पर निपट अकेला होता है अंकुर से होकर सूख जाने तक उसी जगह वहीं हिलता-डुलता पिंजड़े में एक हरा तोता जैसा दो पेड़ ज़्यादा से ज़्यादा पिंजड़े में जोड़े जैसे होंगे। —सब तरफ़ जाने के लिए पेड़ का क़दम अगला एक दूसरा पेड़ ही होगा एक पेड़ का आगे बढ़ते जाने का मतलब सिलसिला पेड़ों का संगठन की हरियाली का सुख। —पहाड़ जैसा स्थाई रुका हुआ बढ़ जाता है दीवाल की तरह श्रेणियों में संगठित, —सतपुड़ा की श्रेणी विंध्याचल संगठित हों हम भी पर नहीं छोड़नी हमको ख़ैबर की घाटी ख़ाली कोई जगह, हिमालय से बेहतर। —बाहर यदि कहीं धूप में टँगा तोते का पिंजरा तब भी पिंजड़े के अंदर होता है ऊपर से पिंजड़े की छाया के अंदर तोते की छाया होगी पिंजरे की छाया में एक कटोरी की छाया मिर्ची की छाया अधखाई होगी। बैलगाड़ी के आने की आवाज़ का और विस्तार हरे-भरे पेड़ को हरा-भरा पेड़ सोचने का अभ्यास होना ज़रूरी है पेड़ दिख रहा है धुँधलके में पर हरा भरा है रात में भी हरा-भरा होगा हरियाली के विश्वास का विस्तार नन्ही चिड़िया से होगा— एक पेड़ से दूसरे पेड़ इस मुहल्ले उस मुहल्ले एक छोर से अंतिम छोर बिजली के तार टेलीफ़ोन के खंबे कुएँ की मुँडेर रहट इस तरफ़ उस तरफ़ कारख़ाने दफ़्तर गौरय्या घर-घर आने वाली बैलगाड़ी के पहिए की यह घरर-घरर आवाज़। मेरा विचार!! भूकंप के पहले ज़मीन के अंदर दबी हुई गड़गड़ाहट का शक ज़मीन में धमक ज़मीन काँपती हुई कि यह कोई और बैलगाड़ी है!! मुरम भरकर ले जाने वाली नहीं पर है मुरम खोदने वाले की जिसकी आवाज़ से भयानक लू में ठंडी लहर चली नमी और हरियाली की गंध नदियों, खेतों और ख़ुशहाल आबादी वाली हज़ारों मील के दृश्य के एक साथ उभरने की आवाज़ बहुत ज़ोर की कहीं बारिश के अंदर से गुज़र भीगी-भीगी ठंडी हवा इधर— उस बारिश की पहुँची यहाँ ख़बर, हवा में उड़ता मीलों दूर भविष्य से आया जैसा एक बूँद पानी चेहरे पर चेहरे पर पूरे पानी का अनुभव, मेरे पते पर एक बूँद पूरा वातावरण जिसमें पोस्टकार्ड ठंडी हवाओं का बहुत दिन बाद मिला आने वाली सबकी कुशलता और अनगिनत अच्छे समाचारों का आभास देने वाला कोई संकेत अक्षर, संबंध अक्षर— बारिश की एक बूँद। चार-आठ बूँद पड़ते ही मैंने सोच लिया एक वाक्य —अच्छा समय दूसरे वाक्य फिर— मिल-जुलकर ख़ुश बहुत। कल की थोड़ी बेफ़िक्री मौसम इतना अच्छा कि खिलखिलाता लड़का अढ़ाई साल का नंग-धडंग दौड़ता निकल आया घर से बाहर, पीछे-पीछे हाथ में चड्डी लिए दौड़ती पत्नी आई मुझसे शिकायत करती बेटे की सुनकर मैं बेटे के पीछे दौड़ा पर जान-बूझकर धीरे-धीरे ताकि कुछ देर उसे आगे तक और दौड़ने दूँ उसके पीछे धीरे-धीरे मैं दौड़ूँ पत्नी भी दौड़े— बुढ़ापे में बेटे के पीछे दौड़ नहीं पाएँगे पर जहाँ वह होगा साथ वहाँ होंगे आगे-आगे मौसम इतना अच्छा। इसी तरह बूँदा-बाँदी कुछ देर मैं लिखता रहा! कुछ देर मैं लिखता रहूँ —आने वाली बैलगाड़ी में जुते होंगे अड़ियल बैल से बुरे दिन मज़बूत पुट्ठे के भारी सींग तेल में चमकते काले बैल काले दिन पसीने से भीगे सुमेला तोड़ने की कोशिश गाड़ी उलटा देने की फ़िराक़ पर काबू में होंगे हाँकता होगा मुरम खोदने वाला और खड़ा होगा बाज़ू में लड़का ललकारते हुए बैलों को ताक़त से पूँछ मरोड़ ''हई! हई! बईला सम्हल गड़बड़ करने से डर जल्दी चल आगे बढ़।’' मज़बूत विशाल संगठन की ताक़त से धीमे-धीमे बढ़ती हुई बैलगाड़ी परंतु भविष्य के अच्छे समय को लादकर पहुँचने के लिए वाली गति। लदा होगा टूट-फूटकर पहाड़ वह गाड़ी के एक कोने में, जो ज़िंदगी के रास्ते में अड़ा है रास्ता जिससे मात्र कुछ क़दम चारों तरफ़, रास्ता एक कमरा जैसा बल्कि गुफा जैसा चट्टानों से बंद। टूटने से पहाड़ के निकल बाहर आया होगा पहाड़ जैसै वज़न से सैकड़ों साल का पिछड़ा दबा हुआ ग़रीब छोड़कर पीछे अपनी पुरातत्त्व हुई ग़रीबी सारे उसके अवशेष खंडित पैर टूटी नाक टूटी भुजा बचा हुआ धड़— पेट के साथ शामिल होते बारिश की दुनिया में अपनी मज़बूत भुजाओं से ताक़तवर कंधे पर लेकर हल मेड़ों से उतर खेतों पर। और बैलगाड़ी में होंगे हँसते अपने सब मुस्काते ग़रीब बुलबुल ग़रीब खंजन मैना ग़रीब गौरय्या औरत बच्चे बूढ़े। एक बच्चा जो बैठा होगा टूटे पहाड़ के ढेर की चोटी पर पूछेगा दादा से— पहाड़ को फेंक क्यों नहीं देते गाड़ी से नीचे मुरम की खदानों में? '‘अरे! नहीं!!’' दादा बोलेंगे— ''रास्ते में जगह-जगह आदमियों की उत्सुक भीड़ मिलेगी जिस ख़तरनाक ऊँचाई से डरते थे उसको मरा हुआ टूटा-फूटा देख लेने की उसमें ललक होगी।'' सुनकर सब बच्चे ख़ुश होकर ताली बजाते दौड़ पड़ेंगे खेलने पहाड़ के टूटने से फूट पड़े सोते और झरनों में। गूँजी तब विचारों के विस्तार में गाने की आवाज़ गंभीर मुरम खोदने वाले की भर्राई मोटी लड़के की मधुर मीठी उस आवाज़ का मैं इस तरफ़ विस्तार हुआ और गाने लगा ज़मीन की स्थिरता के संयम से भविष्य की ख़ुशहाली की साँसों को खींचकर आसमान की ऊँचाई को ध्यान में रख मुट्ठा भींचे धीरे-धीरे ''निकल पड़े बाहर बेघर के बंद खिड़की दरवाज़े से झुग्गी-झोपड़ी गटर नाली से, दया और माँगे हुए वक़्त से बाहर कूदकर छीन लें अपना वक़्त अपने कारख़ाने बग़ीचे अपने घर अपनी घास तिनके तक निकल पड़ें शामिल होने उनमें जो इकट्ठे हैं नदी को साथ लाने चटियल मुरमी मैदान पर।'' जल्दी ऐसी कि— ख़ुशबू बौर की पहले आई अमराई बाद में होने के लिए साथियों की ख़बर पहले आई बाद में साथी पहुँचने के लिए, अच्छे भविष्य का विश्वास पहले अच्छा भविष्य बाद में होने के लिए काम करने की शुरुआत पहले काम ख़त्म करने के लिए। बुलबुल तो गाने वाला भूरे रंग का फूल खंजन मैना भी— इस पेड़ उस पेड़।

लगभग जयहिंद

रोबदार आदमी ने दो सोने के दाँतों की जँभाई ली। मुझे भी जँभाई आने लगी। एक आलीशान आश्चर्य की चर्चा हुई उसमें भी विस्थापित टिपरिया होटल में मेरा छोटा भाई तश्तरी-प्याले धो रहा था। मैंने उसे दो लात लगाई और ठीक बाएँ मुड़कर ब्राह्मण पारा की एक गंभीर मोटी दीवाल से सटकर चलता गया— रिश्तेदार मुझे दबाकर चलाता था। खड़े-खड़े मैं घसीटा गया। थककर नीचे बैठते ही दीवाल और ऊँची हो जाती थी। छलाँग लगाने की मेहनत की तरह। फिर जीवित दिखने के लिए इधर-उधर हिलते हुए थोड़ी-बहुत कोशिश छलाँग लगाने की जिसमें ख़ास-ख़ास लोगों के लिए दीवाल के बीच चार क़ीलों से ठुका अपना ही इकतीस साल पुराना कपड़े पहने हुए मात्र छलाँग लगाता हुआ एक फ़ोटो ही। फ़ोटो में बाएँ हाथ से क़मीज़ की जेब दबाए हुए। जेब में अठन्नी थी या फ़ोटो में बचत की आठ आने की स्थिरता! और सामने चहल-पहल करती आबादी आठ बजे रात को चली गई मैं वहीं रहा वाला मज़ाक़ करता हुआ हँसोड़ दोस्त, ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटी दीवाल से पलस्तर उखाड़ता, भागता हुआ चौखड़िया पारा जाएगा या मसान गंज। पलस्तर के उखड़ने से मुझे गुदगुदी होती थी। ईंटें उखाड़ेगा तो हँस दूँगा जैसे हँसना एक गोरिल्ला उदासी होकर एक ज़बर्दस्त तोड़फ़ोड़ की कार्रवाई की तरह ठहाका मारना जिसमें ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटी दीवाल की जगह समतल मैदान वाला खेलकूद वाला मज़ाक़ करता हुआ हँसोड़ दोस्त— चर्चा ने मुझे इस तरह उखाड़ा कि मेरी पूरी बाँह की क़मीज़ उस दीवाल पर फैली थी क़मीज़ की दोनों कलाई पर कीलें ठुकी थीं आराम करने के पहले जिस कील में मैं कपड़े टाँगता था। वह भविष्य नहीं था। निश्चय ही हमारा भविष्य नमस्कार हो गया। जाते वक़्त जयहिंद था लगभग जयहिंद सरासर जयहिंद एक राजनीतिक नमस्कार भाई साहब! ख़ुदा हाफ़िज़ सैयद ग़ुफ़रान अहमद!! हर बार धक्का-मुक्की में अदब के साथ मुस्कुराकर पट्टे वाली चड्डी पहने हुए मैं अलग हुआ। कंधे पर तौलिया हो गई। जँभाई हो गई। सुबह-सुबह नहाना हो गया साबुन की एक बट्टी हो गई। बाएँ नहानी घर हो गया दाहिने पेशाबघर होगा। चड्डी में पत्नी की फटी-पुरानी साड़ी की मज़बूत किनार के नाड़े में गठान लगाता हुआ परिवार हो गया। या एक लंबी क़ीमत दिमाग़ में नाड़े की तरह पड़ी हुई जिसकी गठान खोलने या तोड़ने की कोशिश में मेरी हर चाल क़ानून के गिरफ़्त में थी, सोचते ही विचार क़मीज़ और पतलून पहनकर खड़ा हो गया हाय! मैं चड्डी पहनकर अलग हुआ? क्या! सौम्य भुखमरी थी कि ख़ानसामा अच्छा खाना बनाता था। मैं नागरिक हो गया। या अनिमंत्रित रह गया। दिमाग़ के पिछवाड़े की दीवाल फाँदकर कचहरी के पिछवाड़े के घूरे में उतर ज़िंदगी दफ़्तरी उपस्थिति हो गई। हाय! हाय! आँखों को बाँधी गई पट्टियों की बनी हुई पट्टे वाली चड्डी में कचहरी का न्यायाधीश नाड़े डालता हुआ बैठा था। और ऊपर की खिड़की से चमकीला बिल्ला लगाए अर्दली मुझको घूरता था, क्या मैं दुमंज़िला से नंगा दिखता था! अर्दली मुझको कचहरी के घूरे से पुराने कार्बन काग़ज़, शासन सेवार्थ लिफ़ाफ़े पुरानी सरकारी टिकटें ढूँढ़ते देख लिया था। इसी कार्बन काग़ज़ से मेरे छोटे भाई की शक्ल मुझसे मिलती-जुलती थी। कार्बन काग़ज़ से रोबदार आदमी का लड़का हूबहू रोबदार आदमी हो गया। लेकिन मैं अपने बाप की तरह नहीं था मैं अपने दोस्त की तरह नहीं था। मैं अपने दुश्मन की तरह नहीं था। मैं संविधान भूल गया था। न्यायाधीश की नाक बहुत लंबी थी। मेरी नाक बेढंगी थी, क्या शक्ल थी, खाना खाने के बाद पान के ठेले वाली दृष्टि नुकीली तेज़ अपने को ही आँखों की जगह चुभ रही थी। दौड़-धूप हुई तो ब्राह्मण पारा से भागता-भागता हँसोड़ दोस्त ईदगाह-भाटा तक चला गया। मैं नौकरी की तरह सड़क में बाएँ चलते हुए नौकरी की तरह बाएँ चलता रहा। नौकरी की तरह पाँच घंटे सो लिए। नौकरी की तरह चार अख़बार पढ़ लिए। राम टॉकीज़ या सोचकर कृष्णा टॉकीज़ हो लिए। फ़ुरसत के समय सड़क के बीच आकर टेनिस के खेल के मैदान से दो मील दूर आने-जाने वाली मोटरगाड़ियों और भीड़ से होने वाली दुर्घटनाओं से बचने का अभ्यास करता हुआ पाया गया। न टाँग टूटी, न हाथ टूटा, न विश्वविद्यालय, न कृष्णा टॉकीज़ न डाक बंगला, न दिल्ली, न बनिया पारा। सही सलामत होता हुआ, इतना ठहरा हुआ भागा कि एक पूरी की पूरी चहल-पहल आबादी मेरे पैरों से विस्थापित हो गई। मैं पिछड़ गया। या एक तीन मंज़िला मकान ही मेरे पैरों से चल रहा होगा। बोझ लादने में बेईमानी की हद है जबकि तीन मंज़िला मकान के केवल दो कमरों में रहता था जिसका एक पूरा का पूरा कमरा पाख़ाना था— जब लौटता था मेरा हँसोड़ दोस्त मेरे पेट की ख़राबी का मज़ाक़ उड़ाता था। या शक्ल पर ज़रूरत से ज़्यादा कटे हुए बाल का। सोनारपारा से आते-आते रोबदार आदमी के बाप के बाल चाँदी की तरह सफ़ेद थे। चाँदी और सोने की दुकान में शायद बाल कटवाने घुसा होगा। मेरा बाप ख़िज़ाब लगाकर मुझे सब्ज़ी बाज़ार में ढूँढ़ता रहा। लेकिन उसे मेरा छोटा भाई मिल गया, ईंटे पर बैठकर नउवे से सिर घुटाता होगा।

शहर से सोचता हूँ

शहर से सोचता हूँ कि जंगल क्या मेरी सोच से भी कट रहा है जंगल में जंगल नहीं होंगे तो कहाँ होंगे ? शहर की सड़कों के किनारे के पेड़ों में होंगे । रात को सड़क के पेड़ों के नीचे सोते हुए आदिवासी परिवार के सपने में एक सल्फी का पेड़ और बस्तर की मैना आती है पर नींद में स्वप्न देखते उनकी आँखें फूट गई हैं । परिवार का एक बूढ़ा है और वह अभी भी देख सुन लेता है पर स्वप्न देखते हुए आज स्वप्न की एक सूखी टहनी से उसकी आँख फूट गई ।

सबसे ग़रीब आदमी की

सबसे ग़रीब आदमी की सबसे कठिन बीमारी के लिए सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर आए जिसकी सबसे ज़्यादा फ़ीस हो सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर उस ग़रीब की झोंपड़ी में आकर झाड़ू लगा दे जिससे कुछ गंदगी दूर हो। सामने की बदबूदार नाली को साफ़ कर दे जिससे बदबू कुछ कम हो। उस ग़रीब बीमार के घड़े में शुद्ध जल दूर म्युनिसिपल की नल से भरकर लाए। बीमार के चीथड़ों को पास के हरे गंदे पानी के डबरे से न धोए। कहीं और धोए। बीमार को सरकारी अस्पताल जाने की सलाह न दे। कृतज्ञ होकर सबसे बड़ा डॉक्टर सबसे ग़रीब आदमी का इलाज करे और फ़ीस माँगने से डरे। सबसे ग़रीब बीमार आदमी के लिए सबसे सस्ता डॉक्टर भी बहुत महँगा है।

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था व्यक्ति को मैं नहीं जानता था हताशा को जानता था इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया मैंने हाथ बढ़ाया मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ मुझे वह नहीं जानता था मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था हम दोनों साथ चले दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे साथ चलने को जानते थे।

हम अब कुछ देर चुप रहें

हम अब कुछ देर चुप रहें और सुने हम क्या नहीं कहते आँखें भी बंद कर लें और देखें हम क्या नहीं देखते क्या हम कुछ देख और सुन सकेंगे!

सब संख्यक

लोगों और जगहों में मैं छूटता रहा कभी थोड़ा कभी बहुत और छूटा रहकर रहा आता रहा. मैं हृदय में जैसे अपनी ही जेब में एक इकाई सा मनुष्य झुकने से जैसे जब से सिक्का गिर जाता है हृदय से मनुष्यता गिर जाती है सिर उठाकर मैं बहुजातीय नहीं सब जातीय बहुसंख्यक नहीं सब संख्यक होकर एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूँ एक मुश्त.

  • मुख्य पृष्ठ : विनोद कुमार शुक्ल - हिंदी कविताएँ
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)