कन्नड़ कविता हिंदी में : विनायक कृष्ण गोकाक

Kannada Poetry in Hindi : Vinayaka Krishna Gokak



मुक्त-जीवी

ये हैं मुक्त-जीवी, घन पर विचर कर— जो करते हैं पालन त्रिजग का रात-दिन, इनकी प्रीति, इनकी करुणा वह ज्योति है जिसका करती है धरा सदा अनुकरण। विश्व-हृदय में चमकते ये ही ज्योति-देही हैं छूने पर जिनके स्नायु सब भर आते हैं। सर्व कुल लोक की शांति कांति के स्वरूप आज्ञा के बिना जिनकी वरुण-वायु नहीं चल पाते सब तेज़ के आगार, सब ओज के पारावार, सब तप और पुण्य की हैं खान, सृष्टि स्थिति लय के ये ही हैं ताल-लय, तीन लोक के मानी हैं अति महान्। इनकी वाणी जो न पावे वह रसना बोल न पाएगी, देखेंगी नहीं जो आँखें इन्हें वे मुक्ति न पाएँगी। वे भुजाएँ नहीं बने बलवान किया नहीं जिन्होंने इनका आलिंगन, उनको मुक्ति कहाँ जिन पर होते ये न प्रसन्न। जीवन-मंदिर में हैं ये चिर सनातन, जीवन के प्रथम ज्ञानी और अति पुरातन। युग-युग के बाद हुआ इनका अवतार संक्रांति-पुरुष हैं नित्य विनूतन। पवन पर चलते हैं, सागर पर थिरकते हैं, आग पर खड़े हो जलते हैं, मोक्ष-सुखदायिनी को जीवन-नारायणी को शेष-शग्या ये ही बिछाते हैं मानव के हित के लिए जग में विचरते हैं, फैलाते तथा मोड़ते हैं माया को। फूल जो खिले हैं फिर करते उन्हें मुकुलित, खिलाते हैं खिलने वाली कलियों को। जीवन मेरा बन जाए इनके ज्ञान से और प्रेम से अर्पित हो जीवन पर बन अरविंद, मेरा यह काव्य बने मंदिर के भक्त-मधुओं को अर्पित अति मधुर मकरंद यह जग रहे इनके ज्ञान से और प्रकाश से मुक्ति-मंदिर के पथ पर हो धर्मशाला भावी मनु-कुल को मुनि-कुल बनाने वाली हो जाए यह अति मानव कर्मशाला। अनुवाद : हिरण्मय

नवोदय

उठ रे तरुण! विश्वास की कांति तेरे मुख पर; नयनों में असाधारण तेज। ललाट पर भव्यता; चिबुक पर दिव्यता। अधरों में आवेश; शक्ति है इन दीर्घ भुजाओं में जो तोल ले नवखंड। उन्मुक्त हैं तेरे चरण : उठ रे तरुण! अपना राज्य कर! सर्वमय है संपत्ति तेरी सेवक है तू सबका। सबका नव स्वप्न तू बीज है तू सभी स्वर्णिम स्वप्नों का! मन्वन्तर है आने वाला : वन इस युग का धन्वन्तरि तू। सत्ययुग अवतीर्ण हो रहा वन उसका संचालक तू धनुर्वर पार्थ वन! योगेश्वर कृष्ण बन! उठ! उठ! उठ! फूँक शृंग। कर युद्ध घोषणा सभी अन्यायों के विरुद्ध। मूलोच्छेद कर दे सभी जाति-भेद। सनातन संकट, विनूतन प्रवंचना परंपरा की असंख्य यातनाएँ फेंक दे उखाड़ ये समस्त! हो प्रेम का विजय शत्रुता का ध्वंस। झाड़-झंखाड़ का कर विनाश बना दे राज मार्ग, गगन में कर महलों का निर्माण, छू ले आकाश, कर दे धराशायी ये झोपड़ियाँ। उतार भू पर ही आकाश! वन नूतन जग का नव निर्माता! नव राष्ट्र का बन हर्षवर्द्धक तू! तेरी वाणी में हो गर्जन हो विद्युत् हाथों में, उठ! उठ! उठ! उठा, उठा अपने अभय कर। चक्रपाणि बन : पृथ्वी में, जल में, वायु में, आकाश में, जलधि के गर्भ में, धरती के भीतर नक्षत्र मंडल की सहस्त्रों वीथियों में चले सभी ओर तुम्हारा यंत्र! गूँजे तेरा ही मंत्र! पूर्ण जीवन के पथ पर हुआ है अग्रसर मानव। अग्नि! गृह के भीतर आ वरुण कृषक बन! कुबेर! देश का कोष बन! इंद्र! कला केंद्र बन! सरस्वति! स्वयं विद्यागुरु बन! बृहस्पति! महा प्रधान बन! चल! चल! चल! उठ, सजा अपना धनुष! एक बाण हो अज्ञान के लिए, दूसरा हो दुरभिमान के लिए; एक टंकार हो अहंकार के लिए, दूसरी द्वेष के लिए; एक झंकार हो अंधविश्वास के लिए, दूसरी जड़ता के लिए; इन सबका विध्वंस हो मानव का चित्त परिशुद्ध व्योम प्रज्वलित परंधाम बन— ज्यों राम चाप से आई सीता गांडीव से प्राप्त हुई द्रौपदी पूर्ण जीवन की सुंदरी डाल अजय माल गौरवांवित करेगी स्वयं वरेगी। उठ सजा अपना धनुष। नूतन युग के त्रिविक्रम! मर्त्य व्योम पाताल में व्याप्त हो। मनु-कुल के महेंद्र। इंद्र-चापों से बाँध भू-व्योम का सेतु। पंचप्राण के प्राण देव। अशोक वन की माता को देश ले आ! संजीवनी को बीन ला। ओ मेरे देश के पुतले! मेरी माँ की आँखो के तारे! मानव जाति के लिए विकसित देव फूल! तू ही युग पुरुष, तू ही आगामी अवतार, तू ही अपौरुषेय पौरुष : तेरे अतिरिक्त चेतना सुंदरी अन्य को बरेगी? उठ! उठ! उठ! अनुवाद : बी. आर नारायण

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