हिन्दी कविताएँ : वरुण सिंह गौतम

Hindi Poetry : Varun Singh Gautam


फिर रात ?

सत्य एक, बीती दो रात है ये दो चांदनी, फिर कहे कोई बात है रूको नहीं, झुकों नहीं दिन भी है, फिर रात है। दिशा प्रशस्त हो चुकी कदम - कदम पे कलम धार है जो रूके नहीं चलते चले हम फिर वही एक दिन बादशाह है। घिस - घिस के तेग तेज धार है रथ पे बैठा रण समर को तैयार हैं जय हो या दंश फिर भी पुष्प मेघ को हार है तुम दिव्य किरणें हो देखों आक तार - तार है। सत्य कहो तुम दीप हो या तमस ! फिर क्यों देह शृंगार है या संस्कार फूल खिलाओं कंटीली कीचड़ों में अब वर्तमान भी नव्य सृजन को अतीत से खड़ा है। सत्य एक, बीती दो रात है ये दो चांदनी, फिर कहे कोई बात है रूको नहीं, झुकों नहीं दिन भी है, फिर रात है।

पूरी पृथ्वी धुरी का परिमाप

मैं, स्त्री मुझमें कोई अनजान-सी अधर के गहराईयों में उतरती है उत्तरी ध्रुव पर केंद्रित रहती अंतरिक्ष की असीम ऊर्जा जो किसे पुरूष को पुकारते हुए आलिंगन में प्रेम के स्थिति की गहराई भूपटल को चीरते हुए फिर अंतरिक्ष को स्पर्श कर पूरी पृथ्वी पर परिक्रमण किया हो जैसे मानों ये प्रेम के प्रश्न बिन्दु पर स्त्री पुरूष को है, पुरूष स्त्री में अपूर्ण सम्पूर्ण में प्रकृति में हेर रहा जैसे कुरूक्षेत्र के महासमर में रण विकल बिलख कर अर्जुन सुभद्रा के कोख से फिर वही अजय अभिमन्यु को हेर रहा रतिक्रम के आलिंगन चरमस्थितियों के प्रेम ने पूरे ब्रह्मांड के नर-मादा को नवसृजन लिए मानों महोच्चार कर रहा यानि तौल रहा पूरी पृथ्वी धुरी का परिमाप !

मौन

जैसे, तुम्हारा टूटना पतझड़ में सूखी पत्तियों का ढ़ेर पके बाल, सफ़ेद, स्थूलकाय का होना आदमी हैं। यह टूटना याद दिलाता मशक्कत करता किसान मेढ़ पर बैठा उम्मीद। जहाँ-तहाँ आम के डालियों में मंज़री आना शादी का लगन भी है, सुनाई दे रही है निमंत्रण नहीं है इसलिए मैं तुम्हें पढ़ता हूँ कविता { शमशेर बहादुर सिंह की कविता :- शीर्षक 'टूटी हुई, बिखरी हुई' कविता } पर मैं चुप हूँ, चुप रहना ही मेरा परिचय है। टूटना। स्नातक पूर्ण होने को तीन महिने बचे हैं, दस रोज़ के एक दिन बाद भी इम्तिहान है, इसलिए यहाँ हूँ तीन दिवसीय स्पंदन कार्यक्रम यहाँ हो‌ रहें हैं। सभी में वसंत हैं। पर मैं टूट रहा हूँ...। मेरा परिचय टूटना है काशी का होना बिड़ला 'अ' हॉस्टल की 135 रूम नंबर की चारदीवारी मुझे कौंध रही है, डरा रही है खौफनाक है, कल का नोटिफिकेशन देता है पर मैं तटस्थ हूँ देव मिश्रा यहाँ नहीं है सहपाठी प्रकाश मित्र भी यहाँ नहीं है गया है किसी का जन्मदिन मनाने बिड़ला 'अ' चौराहे पर पर मैं यहाँ हूँ अपने रूम के चारदीवारियों में। मुझे किसान होना अधिक प्रिय है आदमी। टूटना। वसंत! दो रोज़ पहले रात्रि चार बजे प्रांगण में पीपल के पास तीन पिल्ले की मौत! छटपटाहट। निस्तब्ध। मौन। जो कि मेरा प्रिय था। (काशी हिंदू विश्वविद्यालय के यादों को संजोते हुये लिखी हुई कविता।)

सात

तुम्हें याद करता हूँ बहुत, तुम्हारी अनुपस्थिति में पर मैं सदा उपस्थित रहता हूँ अपनी यादों में यह प्रक्रिया क्या ? तुमसे प्यार है इस देह को तड़पना। इसके असह्य स्थितियों में अचानक! मेरी यादों में तुम्हारी अनुपस्थिति होना यह क्या! प्रेम कम होना है, तुम यह कहोगे या कहोगे मुझे कर्तव्यों का भान नहीं है जैसे मगसर में उत्तरी गोलार्द्ध के पूर्वी छोर पर सूर्य का उतरना कितना संयोग है ? सतयुग का पुनः आरंभ होना! इसकी कल्पना मात्र मेरे ज़हन में उमंग भर देता है पर मेरे हृदयंगम में अंटार्कटिका रेगिस्तान है अकस्मात्! मेरे जीवन में अफ्रीका सहारा रेगिस्तान धीरे-धीरे उतरना भारत के मेघालय का मौसिनराम होना है कितना सत्य है ? एक परिणय के लिए आध्यात्मिकों में आत्मा को खोजना यह भी संभव है! जन्मों जन्मों तक ब्याहा रहना कितना प्रमाणिक है अग्नि के साथ फेरे लेकर ध्रुव तारे को साक्षी मानकर शरीर, मन, बुद्धि, हृदय, प्राणों से एक सूत्र में बंधकर एक पूर्ण आत्मा होना यानि पृथ्वी में मौजूद संख्या सात होना यह प्रेम है ? संभव है सात होना! इक्कीसवीं शताब्दी!

चुप

बहुत एकाकीपन है जीवन तुम्हारा बहुत इंतजार है, वर्षों का जन्म और मौत के बीच जो भी जीवन है। यह जीवन एकाकी है परिचयहीन, उद्देश्यहीन, कर्तव्यहीन, सड़क है, आदमी नहीं आदमी हैं, सड़‌क नहीं हदय मेरे अस्थिपंजर मरणासन्न, जो भी बचे अं ति म सांस रेगिस्तान ! पर सभ्यता होना, हम समझे एकाकी होना एकदम सन्नाटा, एकांत चुप।

आकृति

मैं आकृति बनाता हूँ पर यह आकार नहीं ले पाती है जिन्होंने मुझे बनाया एक चौबीस वर्ष का इंसान वह मेरी माँ वह जानती है मैं कवि हूँ यह कवि मेरी माँ है मैं उनकी लिखी हुई कविता! कविता में आत्मजा शब्द अपनी देह की ट्रूकॉपी है चौबीस वर्ष बाद वह भी लिखेगी कविता एक माँ होना। मेरी माँ अड़तालीस की हैं पिता पचास।

दुपहरी का चाँद

कई साँझ, कई भोर कई वसंत, रोज़ बितते है मुझमें पर मैं रोज चाँद हो जाता हूँ पूर्णमासी का चाँद नहीं न ही अमावस्या का, पर मैं चाँद हूँ ब्रह्ममुहूर्त में प्रत्यवेक्षण पर उगा हुआ चाँद मेरी टूटी हुई खिड़कियों से समकोण रेखाओं पर प्रतिच्छेद करता दरख़्त के ऊपर रखी मेरी सांसें इसके समानांतर बहती हुई घाटी की नदी कहोगे, मैं पानी हूँ ? मेरे भीतों पर छिपकलियों की गश्ती मेरा मन है रोज़ प्रतिज्ञा करता, संकल्प लेता मेरा वसंत! मैं फिर कहता हूँ, मैं उस मोड़ पे रहता हूँ जहाँ ग्लेशियर है मेरा सिरमौर है, गर्व है वह सींचता भूमि को जहाँ सींचती मईया कोख को जिसे जन्म दी है उसकी किलकारियाँ मेरी साँझ है, भोर है मेरी सांसें पर बीतता भविष्य! दुपहरी का चाँद।

धुअ

यह धुअ उतर रहा वक्षस्थल के किनारे इसका आयतन संक्षिप्त है परिप्लव करता मेरा देह परिदग्ध है, ध्रवीकरण होता मेरा मन घिघियाते चादर, किसी त्रिज्या के परिधि में समेटता मनुस्मृति के दीवार पर बनता एक चाँद पूरनमासी अमावस्या का परिचय देता युगांतक होने की प्रक्रिया में मेरा अन्त होना युक्तिशास्त्र है पर इस वसनार्णवा पर वसंत है जूही की डाली पर खिला यह फूल यह, धुअ है जो उतर रहा पूर्णमासी में मैं मान लूं युगादि है ?

उपमान

तुम्हें किस नाम की उपमा दूँ ? हिन्द महासागर गहराइयों का प्रेम जिसके स्रोतस्विनी पाकर वहीं, प्रशांत महासागर तुम हो बताओं, सिन्धु नदी की लहरियाँ, हिलोरें आदि सब अब किस श्रेणी में बहती हो तुम ? जिन्होंने तुमसे प्रेम किया था वह अरब सागर कहाँ है! वह सागर जिन्होंने मेसोपोटामिया, हड़प्पा सभ्यताओं का एकमात्र साक्षी है हाँ, एकमात्र साक्षी! जिसकी पीठ पर बना वह भारत जहाँ हम रहते हैं वहीं रहती मेरी प्रेमिका वह प्रेमिका जिसके बगिया में रक्तपात है, चीख है जिसके प्रायद्वीपीय में वह अकेली है, निःसहाय है जिसे बदचलन की उपमान इस समाज के द्वारा परिभाषित की जानी है इसलिए डरी हुई है, प्रेम की संज्ञा भी भूल गयी है मैं सर्वनाम कहलाता हूँ इसलिए मैं कहता हूँ कि यह कविता है स्त्री चेतना पर बनी कविता जो प्रकृति को उपमान दे रही है कि तुम कविता में 'क' की मात्रा हो जिसे कहते हैं_ 'क' उपसर्ग पर बनी कविता जैसे क से कलंक, कलुषित आदि सब।

झंझावात

मेरी देह की झंझावातों से ओह! इस ऊहापोह में न जाने क्यों भावनाएँ अशून्य की स्थिति में असह्य, द्रवित, अश्रुभरी। इस देह का मन बार बार कचोटना तुम्हारी याद दिलाती है कि तुम तो मेरी देह हो! "राम राम सत्य है" का उच्चार ठठरी पर पड़ा अपनों के चार कंधों पर श्मशान में पहुंचा मेरी देह का मुरदा होना हो‌ रहा है दाह-संस्कार! { इतना ही लिखते ही कवि का कलम हाथ से गिर गया } क्या तुम वहीं देह थे जो पर देह से न हो सके [ हेट्रोसेक्सुआलिटी! ]

नोटिफिकेशन

तुम्हें नोटिफिकेशन की तहकीकात करना चाहिए कि भाषा का आ-अक्षर साहित्य में ज्ञ से शुरू होता है! यह सोचनीय है। सम्पूर्ण वर्णमालाओं का इतिहास जानते हो तो कहो देवनागरी किसकी लिपि में रचता है, किसलिए आ से आदमी वह आदमी जिसे आदिमानव कहते हैं वे कहाँ हैं! किसी झोपड़ीपट्टी के भीत पर अ-अक्षर का उखेड़ना आखिर क्या बनायेगी ? यह पर्वत, पहाड़, नदियाँ, सागर जो सजाते हैं प्रकृति के उड़न खटोला को वह अभी वर्तमान की आदिवासी हैं! जो गगनचुम्बती है, जिसकी सभ्यता उसके भाग का टेक्नोलॉजी कहाँ सो रही है! जिसका परिभाषा जो आदमी को सभ्य बनाता है जिसका सभ्य होने का परिणाम आदमी होना है क्या वहीं तुम कवि हो ? जिसे इस भाग का नोटिफिकेशन मिले हैं!

नानी और नानी गाँव

नदी बहती है मेरे नानी गाँव की दाहिनी ओर यह नदी गंगा की स्त्रोतवाहिनी है यह सदाबहार है [ बारहमासी ]। मुझे नदी से बहुत प्यार है क्योंकि उम्र तेरह तक नानी गाँव में रहा बचपन इसी किनारे में पला। मेरी नानी पहली माँ है दूसरी मम्मी नानी मुझे सभी से ज्यादा प्यार देती है मैं उनको। मेरी नानी अमरतरंगिनी ( गंगा ) महाकुंभ प्रयाग जैसी मैं नानी गाँव की दाहिनी ओर बहती नदी यह मौसमी है [ प्रायद्वीपीय ]।

प्रश्नचिह्न

बहुत सारी सम्भावनाओं में, मैं खड़ा प्रश्नचिह्न था, एक बड़ा-सा चिह्न, बड़ा आकार लिए कहते हैं लोग उसे उत्तर की तलाश थी सड़क के ऊपर दौड़ती रफ़्तार में गाडियाँ सूर्य पृथ्वी की दूरी तय करती है! इस बारम्बारता की प्रक्रिया में एक प्रकाश वर्ष में तय की गई दूरियाँ साहित्य, सभ्यताओं, आदिमानव से मनुष्य बनने की धीमी-धीमी प्रक्रिया में यह कोई आकस्मिक घटना नहीं साधना है सम्भावनाओं की जो सारे प्रश्नों का जवाब समेटते हुये पूर्णविराम के साथ उत्तर देती है सिर्फ पूर्णविराम... चलती हुई प्रक्रिया।

रिक्तता

यह रिक्तता मुझमें अवसाद भर देता है पर मुझमें कोई सम्भावना नहीं है सामर्थ्य नहीं, शक्ति नहीं है, साहस अब होता नहीं मेरी देह की मांसपेशियाँ जवाब दे गयी है उतनी साँसें भी ऑक्सीजन भर नहीं है इस अनुपस्थिति में दुनिया समेटने की जद्दोजहद में कविता चुनूँ या प्रेम!

प्रेम की संज्ञा तुम थी

मैंने तुमको देखा जब जब अपने संघर्षों के आगे तेरी मान-मर्यादा, सादगी, समर्पण, रूप-गुण में तुमसे कम था किन्तु हाँ , मेरा प्रेम असीम था ब्रह्माण्ड में सबसे सुन्दर की जो प्रतिमान है उसकी संज्ञा तुम थी इसलिए मैं तुमसे दूर था क्योंकि सबकुछ में मैं तुमसे कम था पर आज मैं नहीं हूँ तुम्हारी प्रेम के दो घूंट के लिए सौ वर्षों की प्रतीक्षा में मेरा देह का पंचत्व में मिल जाना भी सुकून देता है, तृप्ति देता है, तुम्हारे लिए मैंने मोक्ष को भी ठुकरा दिया है यदि सच जानोगी प्रिय तो तुम भी रो दोगी आज भी तुम्हारी तस्वीरों के कैनवासों में तुम्हें देखता हूँ तो फिर फिर अपने ख्वाबों के कैमरे में तुम्हें अपनी स्मृतियों में समेटता हूँ जब जब तुम फिर याद आती हो तो मैं अपने हृदय मन को टटोलता हूँ पर मैं क्या बताऊं ? मैं सदा ही रिक्तस्थान पाता हूँ तेरी रिक्तता में मैं सदा हर पल-पल, प्रतिक्षण आंखें अनन्त है। पर मेरी आत्मा आज भी तुम्हारी रूह को हेर रही है कहाँ हो प्रिय ? कहीं भूलोक तो नहीं तो किस लोक में हो‌ ? आखिर ब्रह्माण्ड के किस कोने में हो! आओ न।

सौ

पूरा पा लिया है, यह मत समझों इस धरती पर माँ के गर्भ से उतरना उसके बाद एक शताब्दी होना यह बस संयोग मात्र है। जन्मतिथि के एक शताब्दी बाद भी जीवित रहना जन्मदिन मनाना शुभान्वित होना, मुबारकबाद लेना आशीर्वाद मिलना। बधाई। यह सौभाग्य है वह दिन जीवनकाल का पूर्ण दिन होगा। वह विरले ही है , यह जीवनकाल पाते हैं पूरा सौ! इक्कीसवीं शताब्दी में सौ होना मनुष्य होने का प्रमाण है। उम्र सौ का नहीं ढ़लना अकालमृत है यह कालमृत होना ही सौ है ? जीवन प्रत्याशा तिहत्तर होना इस देह का पुराना होना विश्व प्रमाणिक है। एक शताब्दी पचास वर्ष की आयु! पांचवीं पीढ़ी को देख पाना नामुमकिन है।

यथार्थ से परे

यथार्थ से परे मेरी भाषा की देवनागरी जिस अक्षरों में मेरा नाम है उस पर घिरी हुई है तुम्हारी सभ्यताओं का होना यह बोध हमें बनारस की वरूणा का होना तुम्हारी अभिव्यक्ति है, तुम हो, मेरी भाषा है। मेरी भाषा हिन्दी है हिन्दी मतलब हिंदोस्तान की भाषा सिन्धु की भाषा प्रयाग होना है महाकुम्भ होना है मेरी भाषा! जिसका 'ज्ञ' अक्षर तुम हो काशी होना।

बाईस वर्ष

मेरी हत्या होने के बाद कवि लिखने लगे, उतरते हुये चंद्रमा पर दिन का होना, कितना सार्थक है कि नदियों के किनारे बेलों का फूटना! इसके समानांतर__ मेरे पुराने घर की ओर तुम्हारा लौटना। इस देह का नहीं होना मेरी हत्या का सुखद परिणाम है जैसे माघ का लौटना यह लौटना मतलब मेरा बोझ कम होना मेरा देह का बहत्तर होना। इस अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि पर मेरी लाश पर कविता लिखना उस पर बने शब्द मेरा संघर्ष है, उकेरना { फूलों के गुच्छे मुरझाने के बाद फेंक दिये है } वहीं उतार-चढ़ाव जीवन में जिसका हत्यारा तुम हो। मेरी अनुपस्थिति है में तुम भोर का चांद हो। दुपहरी। दो दशक, दो वर्ष पहले, बाईस वर्ष जिस पर लिखी गयी थी एक मरी हुई कविता! मैं!

अर्धांगिन

गालों पर रंगों का मलना आकाश होना है तेरे होठों से उठ रहे फाग भोर का सूर्योदय होना है गोरे तन से रंगों का छंटना जैसे नूपुर मंगनी में वर-वरण को आई प्राची-प्रतीची के संगम में मेहंदी रंग‌ के इन्द्रधनुष ब्याह-मंडप में पधारी सुंदर सुंदर चित्र दिखे हैं तुम्हारे घेरे में चन्द्रमा होने के जैसा तुम हो सुन्दरियों के गोल-सुडौल बदन में लिपटे साड़ी-ब्लाउज के अंगों में भंग है तुममें थिरकती देह, थिरकता मन में मृदंग पर तालों की नृत्य करती अप्सराएँ रंगों का समुद्र होना मानों तुम हो, देश है, सूर्योस्त होने को है दोनों के बीच खालों का उतरना मधुयामिनी, अंतरिक्ष, अर्धांगिन भव है तुम्हारे जोड़ेमंग में सिन्दूर का ठहरना मेरा होना है, सेज पर दो रूह पर रंग मलना #होली महोत्सव पर विशेष

रेखीयगणित

स्त्री के देह के स्पर्श मात्र से उसके मन को छू पाना! असंभव है यह क्रिया बार-बार पुरुष करता है स्तन और जांघों के मध्य तलाशता रहा अपनी सभ्यता पुरुष होने का प्रमाण देने के लिए उसके चेहरे पर खोजता रहा अपना इतिहास भौंहों, मुंह के दो जीभों के क्रिया के बीच पंचइन्द्रियों पर केशों के गहराईयों के दरमियान उनके रेखागणित पर बनाता रहा अमावस्या का चंद्रमा उनके परस्पर क्रियाओं के गर्माहट से बनता रहा रेखीयकोण के ऊपर नये समकोण की त्रिज्याएँ अनन्त बारम्बारता के बल से फिर बनेंगी नौ महिने बाद सम्पूर्ण टूकॉपी पृथ्वियाँ स्त्री के मन को छू पाना अर्थात् अभिक्रिया की आण्विकता पर खगोलीय चंद्रमा का होना!

औरत

स्त्री देह पर चूल्हे का पकना { एक औरत होना है } ज़िम्मेदारियों के चंद्रमा पर सृजन होना है { उदर का पहाड़ होना है } तेरी गोद में बैठा भविष्य छाती उड़ेल देना { अर्थात देश होना है } पर शब्दों के दीवारों पर बुनी हुई कविताएँ { कन्या भ्रूण की हत्या! } स्त्रियों के इच्छाओं का मरना लाश होना है { मानव विलुप्ती होना है } चूल्हे में जले हुये लकड़ियों का राख होना { जिसे पानी के छीटें मारकर बुझाया गया } एक स्त्री की मौत!

रेखाचित्र पर पूर्णिमा

{ १ } अधमरे लाशों पर बैठा कई सारे हत्याएँ जिसके पेट पर कब्रिस्तान खोदना! तुम समझते हो कि मेरा अन्तिम संस्कार है। { २ } पुस्तकालय में सबसे नीचे तख्त पर रखी हुई मेरी किताब के अंतिम पन्नों के हाशिये पर मेरा किया हुआ अंतिम हस्ताक्षर मेरा नाम होगा जो प्रमाणित करता मेरा होना मेरा वजूद, मेरा परिचय, सबकुछ तुम्हें सहस्त्राब्दियों के अतीतगर्भ में दबी हुई सभ्यताओं के शिलालेख पर मिलेंगे ' आ ' वर्ण की आकृतियों का होना जैसे मिट्टी के चूल्हे के आँच पर रखी हुई गर्म तवा पर मेरी माँ को रोटियाँ सेंकना जिसे सींचने मात्र से सृष्टि बचाना नहीं अपितु आदमी होना है। { ३ } इस पृथ्वी के गर्भगृह में द्वीप पर बैठा खगोलीय चंद्रमाएँ जिस पर लिखी जा रही है कविताएँ रेगिस्तान के ऊपर प्रेम की कविताएँ तुम हो, तुम्हारे होने मात्र से पूरी हो सकेंगी मेरी कविताएँ ? तुम्हारे हाथों पर बनी हुई रेखाचित्र पर तुम्हारे देह के भूगोल पर असंख्य आकृतियों का होना दोनों का प्रतिबिंब बनना मेरे हाथों के रेखाचित्र पर पूर्णिमा होना है। अमावस्या के काली चन्द्रमाओं पर लिखी हुई कविताएँ मेरा लाश होना है।

ओस

हरी-हरी दूब पर भोर की ओस छरहरी जैसी जिसके स्पर्शमात्र से ही सहसा मेरे मन की उत्कंठाएँ आनंदित, उत्सव जैसी त्यौहारों में मेरे देह पर नृत्य करती हुईं नलिकाएँ मुझे रहस्यमयी जादूई अंतरिक्ष बना देती है, मेरे पुराने स्मृतियों के पिरामिडों में जिसके आँसूओं पर बुनी हुईं सभ्यताएँ पर ब्रह्ममुहूर्त के बेला पर खिला हुआ गुलमोहर जैसी चित्रदीर्घा से लौटती ओस पर्ण पर खिलखिलाते हुए माँ की गोद से शिशु का उतरना मानों प्रतीची से लौटता प्राची में सूर्योकार का होना है।

खालीपन

अकेला रहता सूर्य जैसे पृथ्वी की चन्द्रमाएँ कहोगे! मुझे भी उपमान दो अकेलापन की। मेरे मन की कल्पनाओं की। मेरे वजूद की। मेरे अंतर्रात्मा की काली रात! खौफनाक है लौटता मेरा खालीपन जिसमें याद आती हैं मेरी माई जिनके भाषा की खड़ी पाई की परिभाषा की प्रमाणिकता पर बीतता मेरा वसंत का होना पर अब उनके अनुपस्थिति में मेरा अकेला रहना बड़ी त्रासदी है। कुछ वर्षों के अंतराल में... तुम्हारी नदी अब मेरे शहर की ओर नहीं गुजरती है मेरे खिड़कियों के अंदर - प्रकाश भी उतनी नहीं बची है बहुत खाली-खाली है मन की कल्पना वजूद अंतर्रात्मा सबकुछ।

अभिव्यक्ति

मेरी अभिव्यक्ति की चपलता मुझे कभी नहीं समझाया कि तुम चुप रहो। चुप रहना सभ्यताओं के सर्वनाश में बैठा यमराज, जो बुलाता रहा चुनावी प्रक्रिया से पूर्व गठबंधन करने को पर मेरा भूतपूर्व स्वप्न मुझे आमंत्रित करता रहा इस अनिवार्यता की श्रृंखलाओं में मैं रोज़ स्पाइडर'ज़ वेब में धीरे-धीरे फंसता गया फंसता गया दुनिया के भ्रमजालों में, जिस रेत पर धुआं उठाना ही कल्पनामात्र है इस कल्पनाओं के जद्दोजहद की भयावहता में तलाशता रहा अपनी अभिव्यक्ति जिस पर पनपेंगी मेरी भाषा अर्थात् मातृभाषा जिस भूगोल पर मेरा होना था पर मेरी अस्मिता ( पिता ) की अनुपस्थिति में मेरे जीवन के कोहरा का हो गया अकस्मात् विराम! इस विराम के प्रश्न-चिन्ह पर मेरी प्रजाति जो मुझे ढूंढने निकला साहित्य की लौ का सच यानि मेरा सच! कविता! जिसे कल "बेंच और बार" ने प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर फैसला कर दिया है 'सज़ा-ए-कत्ल' मेरी अभिव्यक्ति की मौत! मौन। चुप।

फ़्लैश

संस्कृति, सभ्यता और परंपरा के पुजारी बैठे थे पालथी में मंदिर गर्भगृह के परिक्रमा द्वार पर बस, वह बैठें हैं। देख रहे हैं मानवीय करुणामय को द्रवित करता यह मेरा वंशज। तनया। मानव के आवरण के पिंजरों में बैठा मान-मर्यादाओं के उपनिषद् जिसे धराशायी करता यही श्रृंखलाएँ आदमी होने का, आदमी! यह पत्राचार करता नायक कौन है ? जिसके संज्ञा पर उपारूढ़ होता है यह वृक्षस्तंभ के नीचे लगा सीढ़ियाँ पर से उतरते बहुत से चेहरे उस बाज़ारों के चकाचौंध में अंधा है। मनावता से बना पुंज के खलनायक कौन है ? जिसका यमराज दो बुद्ध बना एक बुद्ध के मांग में सिन्दूर जिसके सात मन, क्रम, वचन से जन्म-जन्मांतर तक शुद्ध होने का अभिप्राय है वह महावीर कौन है ? जिसके देह पर तिहत्तर छुरियाँ चले उस टुकड़ियों के लाशों पर बैठा आख़िर दूसरा बुद्ध कौन है! दूसरे दिन बड़े-बड़े पोस्टरों, विज्ञापनों, न्यूज़ों के हाइलाइट्स पर फ़्लैश होता है " पत्नी ने प्रेमी संग की पति के तिहत्तर टुकड़ियाँ___प्रेमी संग हनीमून''

एक कवि की मौत

कविताओं में जीवन जीना कितना मुश्किल होता है न! कल्पनाओं के सुदूर इलाकों में चिड़ियों के घोंसले में बैठी उपलब्धियाँ उतना सार्थक नहीं है जितनी होती हैं कवि की कविताएँ अपने यथार्थों से परे लिखते हैं वे मनुष्य की सभ्यताएँ इस जद्दोजहद में कवि होना समाज के विपरीत आतंक को जन्म देता है जिस रेगिस्तान के ऊपर पनपता है एक सभ्य देश का होना उस रेगिस्तान का हठीला मैं अकेला कवि हूँ, जिसे सरकार ने फ़रमान जारी कर देश निकाला दे दिया है उस कविता का मुजरिम होना उस कवि के लिए सौभाग्य की बात होती है इस सौभाग्य के कारागार में अकस्मात् एक कवि की मौत ! एक दुःखद घटना है। (विश्व कविता दिवस पर विशेष।)

उतरना

तुम्हारा देह का उतरना तेरह होना है इस तेरह पर बुनी हुई है इस देह पर धीरे-धीरे देह का उतरना वसंत की ओर...। फूलों में खिलते आकर्षण चुंबन में समेट लेता है पूरे पृथ्वियाँ इस देह पर पृथ्वी का उतरना तुम्हारा आना है। आलिंगनबद्ध। मेरी खिड़कियों से भाषा का उतरना खुलते हैं किबाड़ धमनियों में रक्त का होना उतना ही जरूरी है जितना मेरी देह पर तुम्हारा होना। जैसे पृथ्वी पर साँझ का उतरना वैसे ही भोर का उतरना धीरे-धीरे! समेट लेता उन्नीस।

पूंजीपति

पूंजीपतियों के दीप जलता रहे उसके लौ पर पूरे सभ्यताएँ, भावनाएँ, आत्माएँ सब कोई अपने-अपने हिस्से का रक्त-देह-मौत की चन्दाएँ जिसे निरंकुश सरकार के बाजारों में नीलामी की जा रही थी जो इसके साक्ष्यी रहे उसे भी अपने हिस्से का निर्मम हत्याएँ भेंट करने पड़े पर जितने शेष बच गये है वे महंगे-महंगे अस्पतालों में महंगे-महंगे फीस पर रक्त बेचकर पूंजीपतियों के सेज सजाएं हैं जिसके शय्या पर एक सुंदर देह वाली औरत का भोग! आम जन के लिए कल्पना मात्र में सोच पाना भी मृत्यु को प्राप्त करना है।

देह

उस देह पर बैठें कई आँखें हैं बल्कि देह में लगे भूगोल पर पुनरावृति चढ़ने का स्वप्न स्खलन पर मिटता मन यह कुदरती प्रक्रिया है यदि इसमें समेट लेना स ब कु छ । जैसे सम्पूर्ण पृथ्वियाँ, भाषाएँ, रचनाएँ, कविताएँ और स्मृतियाँ देहों पर समुद्र होना तुम हो मैं हूँ जी व न भ र ।

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