हिन्दी कविताएँ : वरुण सिंह गौतम

Hindi Poetry : Varun Singh Gautam


फिर रात ?

सत्य एक, बीती दो रात है ये दो चांदनी, फिर कहे कोई बात है रूको नहीं, झुकों नहीं दिन भी है, फिर रात है। दिशा प्रशस्त हो चुकी कदम - कदम पे कलम धार है जो रूके नहीं चलते चले हम फिर वही एक दिन बादशाह है। घिस - घिस के तेग तेज धार है रथ पे बैठा रण समर को तैयार हैं जय हो या दंश फिर भी पुष्प मेघ को हार है तुम दिव्य किरणें हो देखों आक तार - तार है। सत्य कहो तुम दीप हो या तमस ! फिर क्यों देह शृंगार है या संस्कार फूल खिलाओं कंटीली कीचड़ों में अब वर्तमान भी नव्य सृजन को अतीत से खड़ा है। सत्य एक, बीती दो रात है ये दो चांदनी, फिर कहे कोई बात है रूको नहीं, झुकों नहीं दिन भी है, फिर रात है।

पूरी पृथ्वी धुरी का परिमाप

मैं, स्त्री मुझमें कोई अनजान-सी अधर के गहराईयों में उतरती है उत्तरी ध्रुव पर केंद्रित रहती अंतरिक्ष की असीम ऊर्जा जो किसे पुरूष को पुकारते हुए आलिंगन में प्रेम के स्थिति की गहराई भूपटल को चीरते हुए फिर अंतरिक्ष को स्पर्श कर पूरी पृथ्वी पर परिक्रमण किया हो जैसे मानों ये प्रेम के प्रश्न बिन्दु पर स्त्री पुरूष को है, पुरूष स्त्री में अपूर्ण सम्पूर्ण में प्रकृति में हेर रहा जैसे कुरूक्षेत्र के महासमर में रण विकल बिलख कर अर्जुन सुभद्रा के कोख से फिर वही अजय अभिमन्यु को हेर रहा रतिक्रम के आलिंगन चरमस्थितियों के प्रेम ने पूरे ब्रह्मांड के नर-मादा को नवसृजन लिए मानों महोच्चार कर रहा यानि तौल रहा पूरी पृथ्वी धुरी का परिमाप !

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