हिन्दी कविताएँ : वंशीधर शुक्ल
Hindi Poetry : Vanshidhar Shukla


क़दम क़दम बढ़ाये जा

(क़दम क़दम बढ़ाए जा सुभाष चन्द्र बोस द्वारा संगठित आज़ाद हिन्द फ़ौज का तेज़ क़दम ताल गीत था) क़दम क़दम बढ़ाये जा ख़ुशी के गीत गाये जा ये ज़िंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा तू शेर-ए-हिन्द आगे बढ़ मरने से तू कभी न डर उड़ा के दुश्मनों का सर जोश-ए-वतन बढ़ाये जा क़दम क़दम बढ़ाये जा ख़ुशी के गीत गाये जा ये ज़िंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा हिम्मत तेरी बढ़ती रहे ख़ुदा तेरी सुनता रहे जो सामने तेरे खड़े तू ख़ाक़ में मिलाये जा क़दम क़दम बढ़ाये जा ख़ुशी के गीत गाये जा ये ज़िंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा चलो दिल्ली पुकार के क़ौमी-निशाँ संभाल के लाल क़िले पे गाड़ के लहराये जा लहराये जा क़दम क़दम बढ़ाये जा ख़ुशी के गीत गाये जा ये ज़िंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा

उठो सोने वालो

उठो सोने वालो सबेरा हुआ है। वतन के फ़क़ीरों का फेरा हुआ है।। उठो अब निराशा निशा खो रही है सुनहली-सी पूरब दिशा हो रही है उषा की किरण जगमगी हो रही है विहंगों की ध्वनि नींद तम धो रही है तुम्हें किसलिए मोह घेरा हुआ है उठो सोने वालो सबेरा हुआ है।। उठो बूढ़ों बच्चों वतन दान माँगो जवानों नई ज़िंदगी ज्ञान माँगो पड़े किसलिए देश उत्थान माँगो शहीदों से भारत का अभिमान माँगो घरों में दिलों में उजाला हुआ है। उठो सोने वालो सबेरा हुआ है। उठो देवियों वक्त खोने न दो तुम जगे तो उन्हें फिर से सोने न दो तुम कोई फूट के बीज बोने न दो तुम कहीं देश अपमान होने न दो तुम घडी शुभ महूरत का फेरा हुआ है। उठो सोने वालो सबेरा हुआ है। हवा क्रांति की आ रही ले उजाली बदल जाने वाली है शासन प्रणाली जगो देख लो मस्त फूलों की डाली सितारे भगे आ रहा अंशुमाली दरख़्तों पे चिड़ियों का फेरा हुआ है। उठो सोने वालो सबेरा हुआ है।

उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई

उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई अब रैन कहा जो सोवत है जो सोवत है सो खोवत है जो जागत है सो पावत है उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई अब रैन कहा जो सोवत है टुक नींद से अंखियां खोल जरा पल अपने प्रभु से ध्यान लगा यह प्रीति करन की रीति नही जग जागत है तू सोवत है तू जाग जगत की देख उडन, जग जागा तेरे बंद नयन यह जन जाग्रति की बेला है तू नींद की गठरी ढोवत है लडना वीरों का पेशा है इसमे कुछ भी न अंदेशा है तू किस गफ़लत में पडा पडा आलस में जीवन खोवत है है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा उसमें अब देर लगा न जरा जब सारी दुनियां जाग उठी तू सिर खुजलावत रोवत है

खूनी पर्चा

अमर भूमि से प्रकट हुआ हूं, मर-मर अमर कहाऊंगा, जब तक तुझको मिटा न लूंगा, चैन न किंचित पाऊंगा। तुम हो जालिम दगाबाज, मक्कार, सितमगर, अय्यारे, डाकू, चोर, गिरहकट, रहजन, जाहिल, कौमी गद्दारे, खूंगर तोते चश्म, हरामी, नाबकार और बदकारे, दोजख के कुत्ते खुदगर्जी, नीच जालिमों हत्यारे, अब तेरी फरेबबाजी से रंच न दहशत खाऊंगा, जब तक तुझको...। तुम्हीं हिंद में बन सौदागर आए थे टुकड़े खाने, मेरी दौलत देख देख के, लगे दिलों में ललचाने, लगा फूट का पेड़ हिंद में अग्नी ईर्ष्या बरसाने, राजाओं के मंत्री फोड़े, लगे फौज को भड़काने, तेरी काली करतूतों का भंडा फोड़ कराऊंगा, जब तक तुझको...। हमें फरेबो जाल सिखा कर, भाई भाई लड़वाया, सकल वस्तु पर कब्जा करके हमको ठेंगा दिखलाया, चर्सा भर ले भूमि, भूमि भारत का चर्सा खिंचवाया, बिन अपराध हमारे भाई को शूली पर चढ़वाया, एक एक बलिवेदी पर अब लाखों शीश चढ़ाऊंगा, जब तक तुझको....। बंग-भंग कर, नन्द कुमार को किसने फांसी चढ़वाई, किसने मारा खुदी राम और झांसी की लक्ष्मीबाई, नाना जी की बेटी मैना किसने जिंदा जलवाई, किसने मारा टिकेन्द्र जीत सिंह, पद्मनी, दुर्गाबाई, अरे अधर्मी इन पापों का बदला अभी चखाऊंगा, जब तक तुझको....। किसने श्री रणजीत सिंह के बच्चों को कटवाया था, शाह जफर के बेटों के सर काट उन्हें दिखलाया था, अजनाले के कुएं में किसने भोले भाई तुपाया था, अच्छन खां और शम्भु शुक्ल के सर रेती रेतवाया था, इन करतूतों के बदले लंदन पर बम बरसाऊंगा, जब तक तुझको....। पेड़ इलाहाबाद चौक में अभी गवाही देते हैं, खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू पी लेते हैं, नवाबों के ढहे दुर्ग, जो मन मसोस रो देते हैं, गांव जलाये ये जितने लख आफताब रो लेते हैं, उबल पड़ा है खून आज एक दम शासन पलटाऊंगा, जब तक तुझको...। अवध नवाबों के घर किसने रात में डाका डाला था, वाजिद अली शाह के घर का किसने तोड़ा ताला था, लोने सिंह रुहिया नरेश को किसने देश निकाला था, कुंवर सिंह बरबेनी माधव राना का घर घाला था, गाजी मौलाना के बदले तुझ पर गाज गिराऊंगा, जब तक तुझको...। किसने बाजी राव पेशवा गायब कहां कराया था, बिन अपराध किसानों पर कस के गोले बरसाया था, किला ढहाया चहलारी का राज पाल कटवाया था, धुंध पंत तातिया हरी सिंह नलवा गर्द कराया था, इन नर सिंहों के बदले पर नर सिंह रूप प्रगटाऊंगा, जब तक तुझको...। डाक्टरों से चिरंजन को जहर दिलाने वाला कौन ? पंजाब केसरी के सर ऊपर लट्ठ चलाने वाला कौन ? पितु के सम्मुख पुत्र रत्न की खाल खिंचाने वाला कौन ? थूक थूक कर जमीं के ऊपर हमें चटाने वाला कौन ? एक बूंद के बदले तेरा घट पर खून बहाऊंगा ? जब तक तुझको...। किसने हर दयाल, सावरकर अमरीका में घेरवाया है, वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र से प्रिय भारत छोड़वाया है, रास बिहारी, मानवेन्द्र और महेन्द्र सिंह को बंधवाया है, अंडमान टापू में बंदी देशभक्त सब भेजवाया है, अरे क्रूर ढोंगी के बच्चे तेरा वंश मिटाऊंगा, जब तक तुझको....। अमृतसर जलियाँ बाग का घाव भभकता सीने पर, देशभक्त बलिदानों का अनुराग धधकता सीने पर, गली नालियों का वह जिंदा रक्त उबलता सीने पर, आंखों देखा जुल्म नक्श है क्रोध उछलता सीने पर, दस हजार के बदले तेरे तीन करोड़ बहाऊंगा, जब तक तुझको....।

उठो स्वदेश के लिए

उठो स्वदेश के लिए, बने कराल काल तुम, उठो स्वदेश के लिए, बने विशाल ढाल तुम! उठो हिमाद्रि शृंग से, तुम्हें प्रजा पुकारती, उठो प्रशस्त पन्थ पर, बढ़ो सुबुद्ध भारती! जगो विराट देश के, तरुण तुम्हें निहारते, जगो अचल, मचल, विकल, करुण तुम्हें दुलारते । बढ़ो नयी जवानियाँ, सर्जी कि शीश झुक गए, बढ़ो मिली कहानियाँ, कि प्रेम-गीत रुक गए। चलो कि आज स्वत्व का, समर तुम्हें पुकारता, चलो कि देश का, सुमन-सुमन निहारता। जगो, उठो, चलो, बढ़ो, लिये कलम कराल-सी, डसे जो शत्रु-सैन्य को, उसे तुरन्त व्याल सी! उठो स्वदेश के लिए, बने कराल काल तुम उठो स्वदेश के लिए, बने विशाल ढाल तुम।

कहाँ तक सहन करें मजदूर

कहाँ तक सहन करें मजदूर ? कब तक सुख दें मक्कारों को, रहें सुखों से दूर । कहाँ तक सहन करें मजदूर । आखिर सहने की कुछ हद है, अत्याचारों की कुछ हद है, अधिकारों भोगों की हद है, कुढ़-कुढ़ मरने की कुछ हद है। हद बाहर अति इति कर देती, यही प्रकृति दस्तूर । कहाँ तक सहन करें मजदूर ? कब तक ये जग की रँगरलियाँ, ताके इनकी दीन पुतलियाँ, कब तक इस सौंदर्य राशि को पालें इनकी शुष्क पसलियाँ । कब तक ईश्वर धर्म भाग्यवश बने रहें मजबूर। कहाँ तक सहन करें मजदूर ? यही जगत है, यह अनुगामी, जग निर्माणक सेवक स्वामी, निज में विफल सफल उपकारी, उद्योगी तापस निष्कामी । महल रचायें धूर्त ठगों हित, स्वयं मार्ग की धूर । कहाँ तक सहन करें मजदूर ? किसकी धूल धूम्र बन धायें, किसकी भेंट करें इच्छायें, निज नन्हा संसार दबाकर किस प्रभु पर सर्वस्व लुटायें। किन मगरूरों को हुजूर कह ढोया करें गरूर । कहाँ तक सहन करे मजदूर ? धातु, काष्ठ, मृण, अग्नि, नीर से, रचें सृष्टि भौतिक शरीर से, सरकारें संचालित करते श्रमोन्नियम से क्षमा धीर से। क्रांति दबाना, शासन करना शासक मद में चूर । कहाँ तक सहन करें मजदूर ? अन्न इन्हीं के, वस्त्र इन्हीं के, सब व्यापारिक यंत्र इन्ही के, रेल, तार, जलयान बसें सब शासन के सब तंत्र इन्हीं के । फिर भी इनमें बैठ जमाना रहा इन्हीं को घूर । कहाँ तक सहन करें मजदूर ? आज विश्व में उलट-पुलट हैं, भर आया पापों का घट है, ब्रह्माण्डों में भी हलचल है, राजतंत्र का अंत निकट है। सँभल-सँभल ओ जुल्मी शासक ! होना है काफूर । कहाँ तक सहन करें मजदूर ? अभी समय है चेतें शासक, सोचें शोषक जुल्मी शासक, न्याय करें, निज आँखें खोले मानव समझें मानवनाशक । वरना इनके ही हाथों से होंगे चकनाचूर । कहाँ तक सहन करें मजदूर ? ( 1936 ई०)

ओ भारत के भोले किसान

तू अखिल विश्व की प्रबल शक्ति, तेरी मुट्ठी में छिपी भुक्ति, तेरी रग रग में ईश भक्ति तू परिवर्तन की अटल युक्ति । तू वीर साहसी शक्तिमान । ओ भारत के भोले किसान। तू निशि निराश में उदित आस, तू प्रबल वेदना में हुलास, तू रज में करता रजत भास, तेरे कर में उत्थान- ह्रास । फिर भी क्यों डरता रे महान ! ओ भारत के भोले किसान। यद्यपि तूहै निर्धन महान, तन जीर्ण वस्त्र, पद में न त्रान, फिर भी तू दानी बेनिशान, करता अरि को सर्वस्व दान । दाता होकर भी बेजुबान । ओ भारत के भोले किसान। तूने जीता कौंसिल दंगल, शासन पलटा निज ताकत बल, तेरे श्रमबल जलथल उज्जवल, फिर भी तू कहता 'मैं निर्बल' । तू भीष्म कर्ण अर्जुन समान । ओ भारत के भोले किसान। तू है स्वदेश का कर्णधार, उठ कार्यभार शासन सँभार, तुझको करना देशोद्धार ये मिटे मिटाये जमींदार । उठ घुमड़ तोड़ जुल्मी विधान । ओ भारत के भोले किसान। सब देश हो रहे बाग-बाग उड़ रहे गगन में श्वेत काग, सरकार कह रही जाग जाग' खूसट कहते 'जल रही आग' ।

नया आदमी बनाओ !

ओ भारत के रहने वालो ! दुनिया वश में करने वालो ! प्रेमहीन पार्टी गुट बाजो, विश्व बंधुता चहने वालो ! नये जगत में जग से न्यारा, एक नया आदमी बनाओ। इन सब पिछड़े इन्सानों से, मानव रूपी हैवानों से, कोई काम न चल सकता है कायर हबसी शैतानों से । ये सब पीछे टाँग घसीटें; बीते युग की ढफली पीटें; कुछ भी करें न करने देंगे, मरे हुवों को रोवें पीटें । इनको नजरबंद कर चुपके किसी म्यूजियम में रखवाओ। एक नया आदमी बनाओ। अब अतीत की बात न भाती, नर नारी में भेद बताती; दाढ़ी मूँछ बाल का झगड़ा, मजहब धर्म जाति फैलाती । जब तक अगला पिछला झगड़ा; देशोन्नति में बाधक तगड़ा; कलह द्वेष विद्रोह विरोधी हर समाज के सर पर रसड़ा, इनको छोड़ो सकल देश मिल एक नया रंगरूट सजाओ । एक नया आदमी बनाओ । जिसके पाँव चीनियों जैसे; नर्स अरब शुतुर के जैसे; नर्तकियों सी गाँठें जाँघे, औ नितम्ब अमरीका जैसे । कमर फ्रांस सी, नाभि ब्रिटिश सी; छाती हो पेशावर मिस-सी आँख जर्मनी, मुख कश्मीरी, मादक चितवन घींच परी सी । ढाँचा सब बाहर से असली पर भीतर नकली लगवाओ । एक नया आदमी बनाओ ।

मंहगाई

हमका चूसि रही मंहगाई। रुपया रोजु मजूरी पाई, प्रानी पाँच जियाई, पाँच सेर का खरचु ठौर पर, सेर भरे माँ खाई। सरकारी कंट्रोलित गल्ला हम ना ढूँढे पाई, छा दुपहरी खराबु करी तब कहूँ किलो भर पाई। हमका चूसि रही मंहगाई। जिनकी करी नउकरी उनते नाजउ मोल न पाई, खीसइ बावति फिरी गाँव माँ हारि बजारइ जाई। लोनु तेलु कपड़न की दुरगति दारि न देखइ पाई लरिका घूमइं बांधि लंगोटा जाडु रहा डिड़ियाई। हमका चूसि रही मंहगाई। खेती वाले गल्ला धरि धरि रहे मुनाफा खाई, हमरे लरिका भूखे तरसइं उइ देखइं अठिलाई। खेती छीने फारम वाले ट्रेक्टर रहे चलाई, गन्ना गोहूँ बेंचि बेंचि के बैंकइ रहे भराई। हमका चूसि रही मंहगाई। सबते ज़्यादा अफसर डाहइं औ डाहइं लिडराई, पार्टी बंदा अउरउ डाहइं जेलि देइं पहुंचाई। बड़ी हउस ते ओटइ दइ दइ राजि पलटि मिलि जाई अब खपड़ी पर बइठि कांग्रेस हड्डी रही चबाई। हमका चूसि रही मंहगाई। ओट देइ के समय पारटी लालच देंय बिछाई बादि ओट के अइसा काटइं, जस लौकी चउराई। खेती वालन का सरकारउ कर्जु देइ अधिकाई हमइं कहूँ ते मिलइ न कर्जा हाय हाय हउहाई। हमका चूसि रही मंहगाई। बढ़िया भुईं माँ जंगल रोपइं ताल झील अपनाई गाँव की परती दिहिसि हुकूमत दस फीसदी छोड़ाई। देखि न परइ भुम्मि अलबेली खेती करइ न पाई ऊसर बंजर जोता चाही चट्ट लेइं छिनवाई। हमका चूसि रही मंहगाई। जो कछु हमरी सुनइ हुकूमत तौ हम बिनय सुनाई सबकी खेती नीकि हमइं जंगलइ देत जुतवाई। चउगिरदा सब राहइं रूँधी, भागि कहाँ का जाई कइसे प्राण बचइं बिन खाए खाना कहाँ ते लाई। हमका चूसि रही मंहगाई। सुनित रहइ जिमिदार न रहिहइं तब जमीन मिलि जाई अब उनके दादा बनि बइठे सभापती दुखदाई। खुद सब जोतइं धरती बेंचइं महल रहे उठवाई हम भुइंहीन सदा से, खेती हमइ न कोउ दइ पाई। हमका चूसि रही मंहगाई। हमते कहइं की की भुइं पर कब्जा लेहु जमाई फिरी थोरे दिन माँ पटवारी अधिवासी लिखि जाई। जिनकी भुइं नीके कस छोड़िहइं कबजा जउ करि पाई उनके लरिका हमका कोसिहइं हम बेइमान कहाई। हमका चूसि रही मंहगाई। हम होई बीमार डरन माँ अस्पताल ना जाई हुंवउ लगि रही संतति निग्रह इंद्री लेइ कटाई। सुवरी कसि छाबरि अफसर की बंसु बढ़इ अधिकाई हमरे तीनि जनेन का देखे उनकी फटइं बेवाई। हमका चूसि रही मंहगाई। नफाखोर मेढुका अस फूलइं हमरा सबु डकराई थानेदार जवानी देखे पिस्टल देंइ धराई। जो जेत्ता मेहनती वहे के घर वत्ती कंगलाई जो जेत्ता बेइमान वत्तिहे तोंदन पर चिकनाई। हमका चूसि रही मंहगाई। पार्टीबिंदी न्याय नीति अउ राजनीति ठगहाई कोऊ नहीं सुनइ कोऊ की मउत रही डिड़ियाई। हे ईसुर यहु सिस्टम बदलउ देउ सयान बनाई चाटि जाउ सरकारु आजु की या चाटउ लिडराई। हमका चूसि रही मंहगाई।

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