बांग्ला कविता हिंदी में : तसलीमा नसरीन

Bangla Poetry in Hindi : Taslima Nasreen


मैं हूँ अनश्वर

बुरका न पहनने पर त्रिपोली में जिस लड़की को सरे- राह मारा गया- वह मैं हूँ। जर्सी पहन फ़ुटबाल खेलने पर ढाका में जिस लड़की को सताया गया- वह मैं हूँ। अकेले देश बाहर जाने के जुर्म में जो लड़की रियाद की जेल में गयी- वह मैं हूँ। प्रेम करने के अपराध में जिस लड़की को काबुल में संगसार किया गया- वह मैं हूँ। पति ने पीटकर जिस लड़की की दमिश्क में हत्या कर दी- वह मैं हूँ। शादी के लिए राज़ी न होने पर जिस लड़की की काइरो में हत्या कर दी गयी- वह मैं हूँ। शांति स्थापना के प्रयास में मगाधीसू में रास्ते पर उतरी लड़की जो मारी गयी- वह मैं हूँ। नहीं देखने दिया जाता मुझे प्रकाश की ओर नहीं खड़ा होने दिया जाता मुझे अपने पैरों पर ज्यों हूँ मैं पक्षाघात की शिकार जन्मजात। दबा दिया जाता है मेरा गला अधिकार चाहते ही पीस दिया जाता है मुझे धर्म की चक्की में अधिकार की बात करते ही गाली दी जाती है वेश्या कह कर अधिकार मांगते ही। जकड़ दिया जाता है मुझे जंजीरों में अधिकार चाहते ही कर दी जाती है हत्या अधिकार चाहते ही, जला दिया जाता मुझे आग में अधिकार चाहते ही। हो गयी हूँ इस्पात जल -जलकर अंगारा नहीं मत आना मुझे लतियाने, तुम चूर चूर हो जाओगे मत आना चाबुक चलाने, दाग भी न पड़ेंगे मेरी देह पर मत आना धर्षित करने, लहुलुहान भी न होऊँगी मैं मत चलाना छुरी होगी नहीं मेरी मृत्यु।

तुम्हारे न रहने पर

जाती हूँ जब भी बाहर टहलने तुम नहीं होते हो मेरे पास रेस्तरां, सिनेमा, थियेटर, कंसर्ट, दुकान-बाज़ार तुम नहीं होते मेरे पास घर लौट आती हूँ थकी हुई तुम नहीं होते मेरे पास लेट जाती हूँ बिछौने पर मैं एकाकी तुम नहीं होते मेरे पास अब तुम हो कहीं और शायद मिल गया है तुम्हें नूतन संग या कर रहे होगे हंसी-ठट्ठा पुराने संगी के साथ अब तो यह जानने को भी इच्छुक नहीं मैं कि तुम हो कहाँ ,किसके साथ और कर रहे हो क्या ? जहाँ भी हो रहो वहीँ ,चाहती हूँ यही हाथ भी न बढ़ाओ मेरे जीवन की ओर यही चाहती हूँ पाँव भी न धरो मेरे रास्ते पर यही चाहती हूँ। आश्वस्त हूँ यह जान कि तुम नहीं हो अपने संसार में हूँ सिर्फ मैं मेरा संसार अब सिर्फ मेरा है जबकि इतने दिनों तक तुम्हारा संसार तो था ही तुम्हारा मेरा संसार भी तो तुम्हारा ही था जिसे छीन लिया था तुमने । इस छीनने को ही नाम दिया तुमने प्यार का . मेरे केश पकड़ जब तुम खींचते लगाते मेरे गाल पर चांटा समझती मैं यह तुम्हारे प्यार का अधिकार है प्यार के अधिकार से तुम घुमाते मेरे जीवन को तलहथी पर लट्टू-सा खेला करते बच्चों की तरह मनमाफ़िक। जिस दिन मारी लात तुमने मेरी पीठ पर समझा मैंने तुम्हारे क्रोध का कारण खुद को प्यार नहीं कर पाती तुम्हें ठीक-ठीक हो गए हो तुम इसलिए पागल प्यार करते हुए तुमको खुद को ही खोखला किया है बारम्बार । तुम नहीं हो अब मैं गुड़िया नहीं तुम्हारे खेल की लट्टू नहीं संगमरमरी पतंग भी नहीं लटाई वाली रेत -धूल भी नहीं खरपतवार भी नहीं मेरुदंड सीधा कर खड़ी आपादमस्तक मनुष्य हूँ मैं तुम्हारे न रहने ने मिलाया है मुझको मुझसे तुम्हारे न रहने ने सिखाया है मुझको खुद से प्यार करना तुम्हारे न रहने ने सिखाया है ताकतवर बनना तुमने रहकर भी इतना कल्याण नहीं किया जितना तुम्हारे न रहने ने तुम इतने अर्थमय नहीं थे जितनी तुम्हारी अनुपस्थिति इतने तो तुम उत्सव नहीं थे जितनी तुम्हारी अनुपस्थिति चाहती हूँ प्राणपण से तुम्हारे न रहने को प्यार में अगर मुझे कुछ देना चाहो मणि-माणिक्य नहीं, लाल गुलाब भी नहीं तुम्हारा स्पर्श नहीं, आलिंगन भी नहीं चुम्बन नहीं, प्रेमिल शब्दों का उच्चारण भी नहीं नैकट्य नहीं, दो क्षण भी नहीं देना चाहो तो दो मुझे अपना न रहना।

प्रेम

यदि आंजना पड़े काजल मुझे तुम्हारे लिए यदि रंगने पड़ें केश मुझे तुम्हारे लिए देह पर लगाना पड़े इत्र यदि पहननी पड़े सबसे सुन्दर साड़ी तुम देखोगे, सिर्फ इसलिए माला-चूड़ी पहन सजना पड़े यदि थुलथुले पेट, गले और आँख के नीचे की झुर्रियों को ढंकना पड़े कायदे से तब तुम्हारे साथ और कुछ हो तो हो प्रेम नहीं है। प्रेम होने पर मेरा जो कुछ भी है उल्टा-सीधा, सुन्दर-असुंदर, कमी-बेशी थोड़ी बहुत भूल, थोड़े असौंदर्य के साथ जब खड़ी होऊँगी सामने तुम्हारे तुम मुझे करोगे प्यार।

एक दिन आएगा

मैं तुम्हारे घर लौटने की प्रतीक्षा करुँगी कि तुम्हारे लिए चाय बना दूँ रख दूँ स्नानघर में तौलिया स्नान के बाद पहनने के कपड़े भी रख दूँ टॉयलेट सीट जो तुमने उठा छोड़ दी होगी उसे नीचे गिरा दूंगी भूल जाओ यदि फ्लश करना मैं फ्लश कर दूंगी। मेज सजा रखूंगी तुम्हारे पसंदीदा व्यंजनों से तुम खाओगे, परोस दूंगी तुम्हारी थाल में दोहरावन खाओगे तुम जितना, ख़ुशी होगी मुझे उतनी खाते -खाते ही तुम बताओगे कि आज क्या-क्या हुआ, तुम गए कहाँ -कहाँ धन्य होती रहूंगी मैं सुन-सुनकर तुम अपना तो समझ रहे हो मुझे कर रहे हो प्यार प्यार कर रहे हो इसीलिए तो अपना समझ रहे हो धन्य होती रहूंगी जब तुम मुझे छुओगे क्योंकि किसी और शरीर को नहीं बल्कि प्यार कर रहे हो मेरे शरीर को प्रेम कर रहे हो इसीलिए तो मुझे छू रहे हो तुम्हें ज्वर होने पर हो उठूंगी मैं पृथ्वी की श्रेष्ठ परिचारिका बुला लाऊंगी डाक्टर, जागती रहूंगी सारी रात माथे पर पानी की पट्टी दूंगी, शरीर पोंछ दूंगी घड़ी देखकर खिलाऊँगी दवा-पथ्य मुझे बुखार होने पर तुम कहोगे मौसम बदल रहा है खांसी होने पर कहोगे -‘यह एलर्जी है ‘ पेट-दर्द होने पर कहोगे- क्या अंट-शंट खा लेती हो तुम? पीठ-दर्द होने पर कहोगे- इसी उम्र में यह सब ? घुटने में दर्द होने पर कहोगे रोग का अखाड़ा बन गयी हूँ मैं सिर-दर्द होने पर कह उठोगे- अरे वो कुछ नहीं है चला जाएगा अपने-आप दो-एक बाल पकने पर कहोगे- तुम्हारी असल उम्र क्या है- बताओ तो ज़रा! मुझे श्वास कष्ट होने पर बोलोगे -‘तुम्हारी अपनी लापरवाही से ही हो रहा है श्वास कष्ट’ एक दिन मुझे पहाड़ घूमने की इच्छा होगी तुम बोलोगे-मुझे समय नहीं है मैं कहूँगी-मेरे पास है जाऊं ? तुम अकेली जाना चाहती हो ? हँस कर बोल उठूंगी- हाँ अकेली ही जाऊँगी तुम अट्टहास कर उठोगे सुनते ही बोलोगे ‘पागल हुई हो तुम!मेरी देखभाल कौन करेगा ? मेरा खाना कौन बनाएगा खाना परोस खिलायेगा कौन ? मेरे कपड़े कौन धोएगा कपड़े तह कर रखेगा कौन ? मेरा घर -द्वार ,बिस्तर सामान साफ़ करेगा कौन ? घर की रखवाली करेगा कौन ? पानी देगा कौन बगीचे में कह उठूँगी मैं ‘तुम’ चढ़ जायेंगी तुम्हारी त्योरियां संभल कर कह उठूँगी मैं ‘तुम्हारी नौकरानी करेगी’ तुम कहोगे नौकरानी का बनाया खाना पसंद नहीं आता मुझे तुम जिस अपनापे से करती हो सब कुछ वैसा नौकरानी तो नहीं करती न। मैं हँस पडूँगी फव्वारा फूट पड़ेगा आतंरिक सुख का क्योंकि नौकरानी के बनाये खाने से मेरे भोजन को अच्छा बताया है तुमने . मैं जो दासी नहीं, दासी से अलग हूँ ये गृहस्थी जो दासी की नहीं, मेरी है मन-मयूर नाच उठेगा मेरा इस स्वीकृति से तुम्हारी एक दिन समंदर देखने जाने की इच्छा से मैं सजाऊँगी अपना सूटकेस देखते ही हरिण पर अचानक झपटते लकड़बग्घे की तरह मुझपर झपट पड़ोगे मुझको चींथते रहोगे कर दोगे लहूलुहान रक्त देख कर आत्मीय -मित्र कहेंगे ये रक्त नहीं, प्रेम का प्रतीक है। बोलेंगे प्यार करता है तभी तो तुम्हें अपने पास चाहता है। दूर होकर मुझसे दो घड़ी भी जी नहीं पाओगे, इसलिए मुझे चाहते हो मैं आँख का पानी पोंछकर हँस दूंगी। तुम्हारी पसंद की रसमलाई बनाने को रसोई में घुसूंगी एक दिन मैं तुम्हें चाय बनाकर नहीं दूंगी चप्पल का जोड़ा पैर के आगे नहीं रखूंगी तुम्हारा टायलेट फ्लश नहीं करुँगी तुम्हारी पसंद का भोजन नहीं बनाऊँगी एक दिन तुम्हारी बीमारी में जागी नहीं रहूंगी खुद अस्वस्थ होने पर डाक्टर बुलाऊंगी घड़ी देखकर दवा -पथ्य खाऊँगी एक दिन अपने दोस्तों के साथ ढेर -सा समय बिताऊंगी एक दिन ऐसा होगा कि पहाड़ देखने की चाहत होने पर पहाड़ घूम आऊँगी, समंदर में नहाने की चाहत होने पर नहा आऊँगी समंदर में एक दिन!

बेड़ी

समूची देह को मुझे ढंके हुए लेटी है मृत्यु ले रही है सांस मृत्यु सुन पा रही हूँ मैं सो रही है मृत्यु नींद से उठ जा रही है कर रही है तहस -नहस बागीचे को सुन पा रही हूँ थे जितने गुलाब तोड़े डाल रही है सुन पा रही हूँ हठात बीच दोपहर या मध्य रात्रि में गहरे उनींदेपन के बीच सुन पा रही हूँ दु:स्वप्न के पैरों की थाप देखती हूँ उठ हड़बड़ा कर सांस नहीं ले रही हूँ फेफड़े में कोई कम्पन नहीं निस्पंद हैं हाथ-पैर रुक गया है ह्रदय आँखों की पुतली भाषा हीन सांस मैं नहीं मृत्यु ले रही है मेरी ही सुदीर्घ काया में रह रही है मृत्यु काया के भीतर मृत्यु बड़ी होती है तेज़ी से बढ़ते-बढ़ते उसने मेरी लम्बाई छू ली है एक दिन देखती हूँ मैं अवाक मृत्यु मेरे शरीर से भी दीर्घ हो चली है मृत्यु ने ढँक लिया है मुझे समूचा मेरे जीवन का विनिमय हो जाएगा मृत्यु के साथ मृत्यु प्रबल हो उठेगी और उसके शरीर के भीतर कहीं एक कोने में गुड़ीमुड़ी होकर बैठी रहूंगी मैं जीवन -केंचुल हाथ में लिए ग़लतफ़हमी में मुझे मृत्यु जीवन ! जीवन कह कर बुलाएगी .

समंदर

कितना कुछ देखा था मां ने जीवन में कितना कलह -लड़ाई कितनी घृणा दैनंदिन स्वार्थपरता देखना पड़ा था उसे कितना कुछ कितनी गाली-गलौच, कितने अपशब्द कितना लात-झाड़ू बस देख नहीं पाई तो समंदर कोई ऐसा-वैसा, छोटा- मोटा समंदर तक नहीं कितना कुछ सुनना पड़ता था मां को कितनी तुच्छता और कितना कष्ट-दुःख कितनी तो लज्जा से मर जाने वाली बातें बस सुन नहीं पाई तो सिर्फ समंदर का एक शब्द यदि देख पाती मां सिर्फ एक बार समंदर कभी देख पाती जी भर कर समंदर देख पाती आँख भर समंदर काश मां सुना है उदात्त के समक्ष वेदना उड़ जाती है हवा में डूब जाती है सोते में आंसू बनकर ढुलक जाती है अनेक वर्ष मां बची रही मां बची रही अनेक वर्ष समीप ही था समंदर .

यौवन

समूचा यौवन काट दिया मैंने एकाकी अकस्मात् मुझे अकेलापन लगेगा क्यों ? यदि लगे ऐसा तो यह मेरे मन की भूल है संभव है शरीर की भूल हो स्पर्श नहीं किया जिसको-तिसको समूचे यौवन में कछुए-सा खुद में सिकुड़ रहना कछुआ भी मुझ-से बेहतर तो नहीं जानता राह में आये पुरुष तो उन्हें टापते घुस रहती घर की चौहद्दी में पड़ी रहती खुद से तय की हुई दूरी पर लगता है हूँ- अकेली बिलकुल अकेली हज़ार-हज़ार वर्षों से कभी-कभी कौंधती है इच्छा निकलूँ बाहर, देखूं कुछ गड़बड़झाला इस भीड़ की ठेलमठाल धक्कमपेल में कोई हाथ पकड़ ले तो पकड़े देह से देह सटाकर कोई बैठ जाए तो बैठे अचम्भा क्या कि जी में आता है कि कोई ले ले चुम्बन तो ले असावधानीवश ही सही, लग जाए वक्ष पर किसी का हाथ तो लग जाए यह सब भासता है मुझे जबकि सच तो ये है अभी भी चौंक पड़ती हूँ किसी के नज़दीक आते ही चौंक चौंक ठिठकती हूँ किसी के करीब आते ही . समूचा यौवन पार कर अकेली ही पड़ी हुई हूँ आदतन एकाकी बिलकुल एकाकी न रहती ऐसे तो सोचती हूँ कि हो सकता था कि चींथ देते मुझे एक सौ बलात्कारी भूल ही जाना होता कि किस चिड़िया का नाम है स्वाधीनता नहीं तो जीना होता वह जीवन जो नहीं होता मेरा अपना, बिलकुल अपना जीवन काट दिया समूचा यौवन अकेले ही यह गलती मेरी नहीं है दोष नहीं है मेरा ये दोष मेरा नहीं है स्वप्न मेरा था नहीं यह कभी भी, किसी रोज़ ! खड़े रहना पड़ा है मुझे धारा के विरुद्ध न हो तो आज ही कह दूँ यह बात पुरुष ही पुरुष थे चारों ओर मानुष न था कोई मानुष- मानुष कहकर अब भी अमावस की घनी रातों में पुरुषों से भरे इस वन में मानुष मानुष पुकारता भागता फिरता है मेरा अशरीर शरीर! मिलता है बहुत कुछ बस मिलता नहीं मानुष

इस बार का कोलकाता

इस बार कोलकाता ने मुझे बहुत कुछ दिया दुत्कार, छिः छिः निषेधाज्ञा, कलंक और जूते। लेकिन कोलकाता ने चुपके-चुपके मुझे कुछ और भी दिया है जयिता की आँसू भरी दो आँखें ऋता पारमिता की मुग्धता बिराटी का एक विराट आकाश दिया है 2 रवीन्द्र पथ वाले मकान का खुला बरामदा वह आकाश नहीं तो और क्या है! कोलकाता ने मेरी सुबहों को लाल गुलाबों से भर दिया है मेरी तमाम शामों की वेणियाँ खोल कर बिखरा दी है हवा में आलता ने मेरी शामों की ठुड्डी को छुआ है इस बार के कोलकाता ने मुझे बहुत प्यार किया सबको दिखा-दिखा कर चार दिन में चार करोड़ बार चूमा है उसने! बीच-बीच में कोलकाता बिलकुल माँ की तरह होता है प्यार करता है लेकिन कहता नहीं कि ‘करता है’, ... बस करता रहता है। प्यार करता है शायद इसीलिए मैं कोलकाता-कोलकाता करती रहती हूँ! यदि न भी करे, दुर्-दुर् करके अगर दुत्कार भी दे कोलकाता का आँचल थामे मैं बेअदबों की मानिन्द खड़ी ही रहूँगी यदि धकेल कर वह हटाना भी चाहे चाहे जो हो जाए एक क़दम भी नहीं हटूँगी मैं प्यार करना क्या सिर्फ़ उसे ही आता है, मुझे नहीं?

कोलकाता का प्रेम

तुम तीसेक के लगते हो, हालाँकि हो तिरेसठ के तिरेसठ के हो कि तीस के... इससे किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है तुम, तुम ही हो, वैसे ही, जैसा होना तुम्हें फबता है। तुम्हारी दोनों आँखों में जब भी देखती हूँ लगता है उन्हें शायद दो हज़ार सालों से जानती हूँ होंठों की ओर, ठुड्डी की ओर, हाथ या हाथ उँगलियों की ओर निगाह करते ही देखती हूँ कि मैं तो पहचानती हूँ उन्हें दो हज़ार क्यों, उससे भी पहले से जानती हूँ। इतना पहचानती हूँ कि लगता है अगर चाहूँ तो उन्हें छू सकती हूँ, किसी भी वक़्त दोपहर को, रात में, यहाँ तक कि आधी रात को भी। लगता है उनके साथ जो चाहूँ, जब चाहूँ कर सकती हूँ उन्हें सारी रात जगाए रख सकती हूँ .... चिकोटी काट सकती हूँ, चूम सकती हूँ मानो वे मेरे कुछ हैं। मेरे इस लगने की ओर तीसेक के तुमने कई बार तो देखा था, लेकिन कहा कुछ भी नहीं। जब मैं बिलकुल हवा होने को थी तब सिर्फ़ दोनों हाथ भर कर लाल गुलाब दिए थे तुमने तो किस तरह गुलाब का कोई और तर्जुमा करूँ! आजकल तो कोई भी किसी को भी हमेशा गुलाब ही देता है क्योंकि देना होता है .... सिर्फ़ इसलिए। मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि तुम कुछ कहते हो कि नहीं लेकिन तुमने कुछ नहीं कहा मैं देख रही थी कि मन ही मन कुछ कहते हो कि नहीं तुमने फिर भी कुछ नहीं कहा। क्यों? उमर होने पर क्या प्यार नहीं करना चाहिए?

मन

पेड़-पौधों को मार-काट कर चूर-चूर कर नक़्क़ाशीदार घरों को माचिस की डिबियों-जैसे बदरंग मकान क्यों बना रहा है रे? तुझे हुआ क्या है? तुझे क्या स्थापत्य, स्मृति और सुन्दरता पर पहले-जैसा भरोसा नहीं रहा तुझे क्या पैसों की बहुत दरकार है कोलकाता, तू इतने पैसों का करेगा क्या न्यूयॉर्क बनेगा? तेरी माँगने की आदत बहुत बढ़ने लगी है किसको धोखा देकर नाम कमाएगा क्या तुड़वा कर, क्या बनेगा .... तू इन्हीं सब में व्यस्त है! तेरे शाम के तमाम अड्डे मरे हुए लोगों की मानिन्द हँसने लगते हैं जब बोतल से बाहर आ गए जिन्न को पकड़ने में तू मुँह के बल गिर पड़ता है और आधी रात को इसको-उसको गालियाँ बकता जैसे भी हो सके दो बोतल खींचकर औंधे मुँह बिस्तर पर धँसने के लिए लड़खड़ाता हुआ चला जाता है। तू कैसा है रे कोलकाता! जा, बकवास मत कर, स्वस्थ हो तो कोई इतना रुपया-रुपया करता है क्या! गढ़वाता है इतने सारे गहने? तुझे क्या अब ओस को छूने का समय मिलता है? इन्द्रधनुष दिखाई देने पर सबकुछ छोड़ तू ठिठकता नहीं? अगर दुःख दिखाई देता है तो कहीं, किसी के पास जाकर बैठता है? तेरा वह मन क्या अब ज़रा-सा भी नहीं बचा? जेब में पैसे नहीं हैं, फिर भी ख़ुद को राजा-जैसा महसूस करने का मन करता है?

लड़की

लड़की अकेली है लड़की बुरी तरह से अकेली है ... बहुत अकेली इस तरह निर्लिप्त और संसार के सभी कुछ में अपनी उदासीनता के साथ अकेली इसी तरह निर्वासन झेलती वह बहुत समय से जी रही है लड़की के ठहरे हुए जल में सिर्फ़ कोलकाता ही लहरें उठाता है सिर्फ़ कोलकाता ही उसे बार-बार बना देता है नदी कोलकाता ही कानों में मंत्र देता है कि ख़ुश रहो... सिर्फ़ कोलकाता ही। कोलकाता की धूल से उस लड़की की देह काली हो गई है और उस पार उसके मन की आँखों के नीचे जो कालिख जम गई थी उसे सोख कर इस कोलकाता ने ही सब कुछ को कैसा गोरा-उजला बना रखा है दोनों मिल कर अब संसार के अदेखे रूपों को देख रहे हैं जो नहीं पा सके उन सुखों को भोग रहे हैं। कोलकाता को कितनी ही बीमारियों ने घेर रखा है अभाव हैं कितने ही फिर भी जादू की तरह जाने कहाँ से वह हीरे-जवाहरात निकाल लाता है! वह लड़की कितने ही साल बिना प्रेम के रही उसे, बिना माँगे ही कोलकाता ने ढेर-सारा प्यार दे दिया है!

आई हूँ अस्त होने

पूरब में तो मैं जन्मी ही हूँ पूरब में ही नाची हूँ मैं, अपना यौवन दिया है पूरब में तो जो ढालना था मैंने ढाला ही है अब जब कुछ भी नहीं बचा जब कच्चे बाल पक गए अब जबकि आँखों में मोतियाबिन्द है, धूसर-धूसर जब ख़ाली-ख़ाली है सब कुछ सब कुछ वीरान ... अस्त होने पश्चिम में आई हूँ। अस्त होने दो, अस्त होने दो यदि अस्त नहीं होने देते तो मुझे छुओ थोड़ा-सा छुओ, बहुत ज़रा-सा छुओ रोमों और सीने को त्वचा की ज़ंग हटाकर छुओ त्वचा को, चुम्बन दो गले को धर दबोचो मौत की इच्छा को मार दो सातवीं मंज़िल से फेंक दो! स्वप्न दो, बचा लो। पूरब की साड़ी के आँचल को बाँध कर पश्चिम की धोती की पटलियों से रंग लाने के लिए मैं जाऊँगी आसमान के पार जहाँ ढेर सारे रंगों के बर्तन रखे हुए हैं कोई साथ चलेगा? पश्चिम से पूरब की ओर दक्षिण से उत्तर में घूम-घूम कर अब मैं उत्सव का रंग लाने जा रही हूँ किसी और की इच्छा हो तो चले किसी की भी इच्छा हो तो दोनों आसमानों को ज़िन्दगी-भर के लिए मिला देने के लिए, चले। यदि ये मिल जाएँ तो अस्त नहीं होऊँगी मैं उस अखण्ड आकाश में मैं नहीं होऊँगी अस्त काँटेदार तार की बागड़ बनाकर गुलाब का बग़ीचा लगाऊँगी मैं अस्त नहीं होऊँगी, इस पार से उस पार तक प्यार की खेती होगी दिगन्त के पार तक तैरते-तैरते मैं गंगा पद्मा और ब्रह्मपुत्र को एकाकार कर दूँगी अस्त नहीं होऊँगी मैं...।

प्रिय चेहरा

आपका चेहरा देखने पर आप कोलकाता के लगते हैं आपको पता है कि ऐसा लगता है? क्या आपको मालूम है कि आप लगभग असम्भव और लगभग सम्पूर्ण-से कोलकाता हैं? आपको नहीं मालूम न! यदि मालूम होता तो आप बार-बार अपना मुँह नहीं फेर लेते। एक बात सुनिए — आपके चेहरे की ओर नज़र करने पर मैं आपको नहीं कोलकाता को देखती हूँ, धूप की वजह से जिसके माथे पर सिकुड़न है आँखों की कोरों पर दुश्चिन्ता की सलवटें, गालों पर कालिख़ रेत होंठों पर आप दौड़ रहे हैं और आपको बुरी तरह से पसीना आ रहा है बहुत दिनों से खाने में कुछ अच्छा नहीं मिला बहुत दिनों से ठीक से नहाना नहीं हो सका सो नहीं सके! आप क्या यह सोचे बैठे हैं कि मुझे आपसे प्यार हो गया है और इसीलिए मैं आपको अपने पास खींच रही हूँ सामने बिठा रही हूँ ठुड्डी पकड़ उठा रही हूँ आपका चेहरा तन्मय होकर निहार रही हूँ आपको, और मेरी आँखें के कोनों में बून्द-बून्द स्वप्न जमा हो रहे हैं! आपके होंठों की ओर जब मैं अपने भीगे होंठ बढ़ाती हूँ तो आप सुख से सिहर उठते हैं! आपको तो मालूम ही नहीं कि मेरे होंठ क्यों बार-बार जाना चाहते हैं आपके होंठों की ओर गालों पर आपके माथे और आँखों की कोरों पर। मेरी उँगलियाँ क्यों आपके चेहरे को छू रही हैं हौले-हौले सँवार रही हैं आपके बालों को सिकुड़े हुओं को मिला रही हैं सलवटों को मुक्त कर रही हैं पसीना पोंछ रही हैं हटा रही हैं कालिख और रेत! मैं क्यों इतना चूम रही हूँ इस चेहरे को... आपको नहीं मालूम! आपको तो पता ही नहीं कि जब मैं आपसे कहती हूँ कि मैं आपसे प्यार करती हूँ तो मैं असल में किससे प्यार करती हूँ, और चूँकि आपको पता नहीं इसलिए अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं। आह, तुम किसी उम्मीद में मत रहना! किसी को ऐसे कंगाल की तरह देखते हुए देखना मुझे अच्छा नहीं लगता, इतना बुद्धू क्यों है रे तू? तू क्यों नहीं देख पाता कि तेरे हाथ को जितनी बार तू कहीं और रखने की कोशिश करता है मैं नहीं रखती, मेरी नज़रों को जो तू हटाने की कोशिश करता है मैं फिर भी थिर रहती हूँ चेहरे पर, सिर्फ़ चेहरे पर मैं तो पूरी रात जागकर बिता देती हूँ पूरा जीवन काट सकती हूँ सिर्फ़ तेरी सूरत देखते हुए सिर्फ़ तेरी सूरत देखते हुए!!

कोलकाता-कल्चर

रवीन्द्र सदन में आज गायन हो रहा है नन्दन में अमजद का वादन है शिशिर मंच पर हो रहा है नाटक और अकादमी में भी हो रहा है कुछ। कोलकाता के गरम-गरम कल्चर-मोहल्ले में खड़े होकर अब गरम-गरम चाय पियो। यहाँ-वहाँ देखो, परिचित चेहरे ढूँढ़ो, मिल जाएँ तो सिर हिलाओ हाय, क्या हाल हैं, कहो सीढ़ी पर या पेड़ के नीचे इस तरह खड़े होओ ताकि सभी तुम्हें देख सकें देख सकें कि कल्चर-मोहल्ले में तुम नियमित आते हो देख सकें कि उलटे-सीधे काम करके भी तुम कल्चर में व्यस्त हो देख सकें कि गृहस्थी की तमाम झंझटों को सहकर भी तुमने कल्चर को बचाए रखा है वे देख सकें तुम्हारा ज़रीदार कुर्ता कन्धे पर लटका झोला देख सकें तुम लोगों की साड़ी देख सकें तुम्हारी गीत-गीत कविता-कविता वाली सूरत वे देख सकें तुम्हारे थियेटरी बाल, फ़िल्मी हाव-भाव वे देख सकें कि तुम कल्चर-साले के बाप के बाप हो तुम इस तरह चलो, बातें करो कि दर्शक-श्रोता जान जाएँ कि तुम्हारे पास कम-अज़-कम एक एम्बेसेडर या मारुति भी हो सकती है इस तरह हँसो कि लोग समझें कि मन में तुम्हारे कोई दुःख नहीं है वे समझें कि तुम पॉश एरिये में रहते हो उन तमाम गन्दी बस्तियों में तुम नहीं रहते जहाँ शहर के दस लाख लोग रहा करते हैं थोड़ा और आगे बढ़ो किसी के बिलकुल पास जाकर खड़े होओ मन ही मन उसे चूमो चूमकर खु़शी से तनकर समझाओ कि तुम उन अभागे दस लाख लोगों में से नहीं हो!

बर्फ़ीला तूफ़ान

जाने किसने अचानक मुझे फेंक दिया यहाँ बर्फ़ीले तूफ़ान में... जितनी दूर निगाहें जाती हैं और जहाँ नहीं जा पातीं आँखों को चौंधियाती सफ़ेदी है, सिर्फ़ सफ़ेदी, साँय-साँय सिर्फ़ .... बाँहें उठाए नाच रही है बर्फ़ की बेटी सूखे पत्तों की मानिन्द उड़ा रही है मुझे चक्रवात में फँसाकर उतारवा रही है बदन ढँकने के सारे कपड़े। मेरे बाल मेरी आँखें मेरा सब कुछ, मेरा सारा बदन बर्फ़ से ढँक गया है। बिलकुल पास में उतर आया है आसमान छूने गई तो ज़िन्दा एक टहनी टूट कर गिर पड़ी, आसमान अब आसमान-जैसा नहीं है, तूफ़ान में वह भी औंधे मुँह आ गिरा है। दो-एक पेड़ कहीं पर थे शायद वे भी टूट-टूट कर बर्फ़ के ढेर में बिलाने लगे हैं। प्रकृति का कफ़न मुझे अपने में लपेट कर कहीं घुसा जा रहा है, किसी गर्त में। मेरे होंठ काँप रहे हैं, कान लाल हो उठे हैं, नाक और गालों पर जम गया है ख़ून, सफ़ेद हो गई हैं हाथ की उँगलियाँ, बर्फ़ की तरह सफ़ेद, उँगलियाँ उँगलियों-जैसी नहीं लग रही हैं लगता है कई लाख सुइयाँ बिंधी हुई हैं उँगलियों में। मुझे अब कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा, दिखाई नहीं दे रहा कुछ भी, सब कुछ सफ़ेद है अब मृत्यु की तरह, ख़ामोशी की तरह, चन्द्रमल्लिका की तरह धीरे-धीरे रक्तहीन हो रही है त्वचा, धीरे-धीरे तेज़ और धारदार ठण्डे दाँत मुझे खाते-खाते-खाते-खाते मेरे पैरों से हाथ और हाथ से जाँघ की ओर बाँह और हृदय की ओर बढ़ रहे हैं। मैं जमी हुई हूँ मैं जमी जा रही हूँ समूची मैं बर्फ़ का एक पिण्ड बनती जा रही हूँ ... ओ देश, ओ कोलकाता, मुझे ज़रा-सी आग दोगे?

अन्ततः

नहीं, कोलकाता अन्ततः तुम भी मेरा कोई समाधान नहीं हो मेरे सवालों का तुम कोई भी जवाब नहीं हो। क्या भरोसा, तुम भी किसी पल किसी भी शहर की मानिन्द लम्पट और कपटी बन सकते हो। किसी भी पल तुम हार्दिक चारों दिशाओं को छोड़कर चुन सकते हो अमानवीय आणविक-दिशा। क्या भरोसा, तमाम मंचों पर तुम्हारे नाटक शायद नाटक ही हैं तुम्हारी स्वार्थी क़वायदों की ओर ध्यान से देखने पर दिखता है कि सभी कुछ नक़ली है, ठगी है सबकुछ। क्या भरोसा! ज़िन्दा बचे रहने के लिए मैं तुम्हारे पास आऊँ और अगर तुम भी ऊष्मा खो बैठो, और दूसरे शहरों की तरह ही मुँह फेरकर निष्ठुरता दिखाने लगो! कहो कि प्यार करता हूँ, करता हूँ प्यार, और असल में प्यार न करो! तुम्हारे ख़ूबसूरती के पिछले दरवाज़ों में झाँककर जिस दिन देख लूँगी कुरूपता का ढेर! यदि मैं जान जाऊँ कि तुम मुँह से भले ही कुछ भी कहो असल में तुम उसे ही दे रहे हो जिसके पास सब कुछ है, और जिसके पास कुछ भी नहीं उसे धोखा दे रहे हो! यदि देखूँ कि भीतर ही भीतर तुम आतंक फैलाने में जुटे हुए हो मन ही मन में एक हत्यारे हो तुम! और यदि मन उठ जाए! तुमसे मन का उठ जाना यानी ब्रह्मान्ड से उठ जाना है, तुम नहीं हो मतलब फिर कुछ भी नहीं है, अन्तिम घास-फूस भी नहीं। तुम तो स्वप्न हो, स्वप्न हो तुम तुम स्वप्न बनकर ही रहो मैं पृथ्वी के रास्तों पर तुम्हें साथ लेकर घूमूँगी-फिरूँगी एक शहर से दूसरे शहर, मैं मान लूँगी कि कोई भी शहर अपना नहीं है मान लूँगी कि दूर कहीं पर एक कोलकाता नाम का एक शहर है, दूर कहीं पर एक शहर है, मेरा शहर, संसार का सबसे उजला शहर, अनिंद्य सुन्दर शहर, एक शहर है जिसका नाम कोलकाता है एक शहर है, मेरा शहर, मेरे प्यार का शहर। मैं जानती हूँ कि अन्ततः तुम मेरा कोई भी सुख नहीं हो, ओम शान्ति नहीं हो। फिर भी सपने हैं, प्राणों में सपने हैं, बिना सपनों के मनुष्य जी सकता है भला? सपने हैं, रहें, कोलकाता को दूर ही रहने दो।

कोलकाता तू अपना हृदय

सभी जगह पूँजीवाद के हाथी चल रहे हैं सभी जगह सिर पर पगड़ी पहने बैठा हुआ है साम्राज्यवाद और तुम मामूली-सी चींटी .... काटने पर किसी को पता भी नहीं चले कुछ ख़ास कर नहीं पाती सिर्फ़ लालसा की जीभ देख पाती हो दिन-दोपहर जीभ की सैकड़ों मरी मधुमक्खियाँ देख पाती हो देख पाती हो तमाम चेहरों पर नक़ली हँसी हँसी की ओर थोड़ी देर देखते रहने पर ही साबुत कंकाल की खोपड़ी देख डर के मारे चीख़ सकती हो तुम अब इन्सानों के शरीर नहीं देख पा रही हो वे शरीर अब काग़ज़ में तब्दील हो गए हैं वे अब डॉलर हैं, यूरो हैं, पॉण्ड स्टरलिंग हैं, वे अब लिमोज़िन की सवारी कर रहे हैं, कॉन्कर्ड में उड़ रहे हैं सजधज कर ब्रॉडवे म्यूज़िकल में जा रहे हैं हर माह अरमानी ख़रीद रहे हैं गर्मी में समुद्र की सैर निपटा रहे हैं, इनके सीनों को खोल-खोलकर देख आई हो तुम .... इनके दिल नहीं हैं सिर खोल कर देख आई हो .... इनके मस्तिष्क नहीं हैं आँखें खोलकर देख है तुमने ... अन्धे हैं ये हाथ रखते ही उसमें सड़ा माँस और मवाद उभर आता है ये बहुत दिनों पहले मर चुके हैं बहुत दिनों से ये लोग साँस नहीं लेते तुम इन लोगों को छोड़कर जब उलटी दिशा में भाग रही थी भीड़ देखो, देखो कई करोड़ ज़िन्दा लोग इनका अनुसरण कर रहे थे भीड़ के लोग अपने पथरीले हाथों से तुम्हें भीड़ में खींचने की कोशिश कर रहे थे और तुम अपने आप को पूरी ताक़त से छुड़ा रही थीं पथरीली जीभें चक-चक आवाज़ कर रही हैं पथरीली आँखों में करुणा है और तुम भाग रही हो — जी-जान से दौड़कर अब तुम शहर को छोड़ रही हो तुम इन्सानों की तलाश कर रही हो तुम व्याकुल होकर उस इन्सान को ढूँढ़ रही हो जो गीत गाता है जो इन्सान सपने देखता है, प्यार करता है तुम पागलों की तरह इन्सानों की तलाश कर रही हो तलाश कर रही हो एक शहर ढूँढ़ रही हो मेरे लिए जिस शहर के पास हृदय नाम का कुछ है अब भी कुछ बचा रह गया है भले बिल के बराबर हो, फिर भी है तो तुम भाग रही हो मानो सौ सालों से, शताब्दियों से भाग रही हो साँस खींचकर भाग रही हो तुम्हारे बाल लहरा रहे हैं, बाल जटाओं में तब्दील हो रहे हैं, बाल पक रहे हैं त्वचा पर लग रही है धूल, तहें बन रही हैं कालिख़ जम रही है आँखों के नीचे पैरों में जूते नहीं, कीचड़ सने हैं पैर, काँटे चुभे पैर हैं लहूलुहान तुमने आख़िर ढूँढ़ ही लिया हाँफते-हाँफते तुम रुकीं, तुमने साँस ली लड़की, तुम कोलकाता में रुकी हो।

आँख

सिर्फ़ चुम्बन चुम्बन चुम्बन इतना चूमना क्यों चाहते हो ? क्या प्रेम में पड़ते ही चूमना होता है ! बिना चुम्बन के प्रेम नहीं होता ? शरीर स्पर्श किए बिना प्रेम नहीं होता ? सामने बैठो, चुपचाप बैठते हैं चलो, बिना कुछ भी कहे चलो, बेआवाज़ चलो, सिर्फ़ आँखों की ओर देखकर चलो, देखो प्रेम होता है कि नहीं ! आँखें जितना बोल सकती हैं, मुँह क्या उसका तनिक भी बोल सकता है ! आँखें जितना प्रेम समझती हैं, उतना क्या शरीर का अन्य कोई भी अंग समझता है !

व्यस्तता

मैंने तुम्हारा विश्वास किया था, जो कुछ भी था मेरा सब दिया था, जो कुछ भी अर्जन-उपार्जन ! अब देखो ना भिखारी की तरह कैसे बैठी रहती हूँ ! कोई पीछे मुड़कर नहीं देखता । तुम्हारे पास देखने का समय क्यों होगा ! कितने तरह के काम हैं तुम्हारे पास ! आजकल तो व्यस्तता भी बढ़ गई है बहुत । उस दिन मैंने देखा वह प्यार न जाने किसे देने में बहुत व्यस्त थे तुम, जो तुम्हें मैंने दिया था ।

प्रेम

यदि मुझे काजल लगाना पड़े तुम्हारे लिए, बालों और चेहरे पर लगाना पड़े रंग, तन पर छिड़कनी पड़े सुगन्ध, सबसे सुन्दर साड़ी यदि पहननी पड़े, सिर्फ़ तुम देखोगे इसलिए माला चूड़ी पहनकर सजना पड़े, यदि पेट के निचले हिस्से के मेद, यदि गले या आँखों के किनारे की झुर्रियों को कायदे से छुपाना पड़े, तो तुम्हारे साथ है और कुछ, प्रेम नहीं है मेरा । प्रेम है अगर तो जो कुछ है बेतरतीब मेरा या कुछ कमी, या कुछ भूल ही, रहे असुन्दर, सामने खड़ी हो जाऊँगी, तुम प्यार करोगे । किसने कहा कि प्रेम ख़ूब सहज है, चाहने मात्र से हो जाता है ! इतने जो पुरुष देखती हूँ चारों ओर, कहाँ, प्रेमी तो नहीं देख पाती !!

प्रलाप

कभी किसी दिन समुद्र के पास जा कर एक घर बनाऊँगी और कभी जी में आता है कि पहाड़ के पास ऐसे एकाकी निर्वासन के आकाश से टपकती है शून्यता कुहासे के उतरने पर अथाह जल में भीग-भीगकर मैं ले आऊँगी कँपकँपी वाला बुखार। मुझे न सही, तुम देखने आना मेरा बुखार लोग बीमार को देखने भी तो आते हैं।

नीलकण्ठ नारी

पीने के लिए मैं जो भी पात्र चुनती हूँ उसमें होता है ज़हर, लेकिन पास ही नासपाती का मधुर रस, अनार और अंगूर का बादामी शरबत। हमेशा मैं रंग देखकर ग़लती कर बैठती हूँ जो रंग ज़्यादा चमकीला होता है उसके मोह में तुरन्त झुक जाती हूँ मैं और पाती हूँ, कण्ठ से होकर उतरता है गरल। यह मेरी व्यर्थता है कि सौ गुलाबों के बीच से भी मैं हाथ मे उठा लेती हूँ कनेर के पीले फूल।

अवगाहन

मुझे भला क्या ज़रूरत किसी चीज़ की अगर तुम्हें पा लूँ जी करता है पैरों के पास आकर ठहर जाए शीतल नदी और मैं खो जाऊँ

विषधर

दोमुँहे साँप से ज़्यादा ज़हरीला होता है दोमुँहा आदमी। अगर साँप काटे तो उसका कोई भी ज़हर समय से उतारा जा सकता है, लेकिन आदमी के काटने पर किसी भी तरह ज़हर उतारा नहीं जा सकता।

आधी रात की रोशनी

पीछे कुछ नहीं, पीछे है ख़ाली घर और खुला मैदान पीछे है शून्यता, यादों के अँधेरे में तीन सौ तिलचट्टे पीछे है, भूलचूक, पीछे है नाला-नहर, जिनमें तय है-- गिरना पीछे है क्रंदन, पीछे कोई नहीं, पीछे है अंधे की तरह टोहना-टटोलना सामने पा सकती हूँ, अगर सामने कुछ हो अगर सामने रहे, सामने थोड़ा बहुत अगर सामने एक-दो पत्थर मिलें तो मैं पत्थर में पत्थर से ही जला दूंगी आग। आग भगाएगी साँप-बिच्छू मैं पहचान लूँगी पेड़, पहचान लूँगी लता-पत लेकिन सबसे अच्छा होगा अगर मैं इन्सान को पहचान सकूँ।

अकेलापन

जिधर दोनों आँखें जाती हैं, जाती हूँ कौन है सामने, आकर स्थिर खड़ा हो जाए, और अपने दोनों हाथ बढ़ाए! इतनी जो बीमारी है सीने में कौन है, जो दूर करे?

जीवन

जीवन ठहरा हुआ कोई तालाब नहीं। लहरें तो रहेंगी ही जीवन कभी नहीं होता सड़ा हुआ बदबूदार अँधकार- बेरोक-टोक रोशनी में एकाकार, इस रोशनी के जंगल में बढ़ाएगा कोई न कोई हाथ। किसी के हाथ में प्यार किसी के हाथ में घिनौना घात थोड़ी-बहुत प्रताड़ना- अजीब रात। जीवन ठहरा हुआ कोई तालाब नहीं, उत्ताल लहरों की चपेट में खो जाते हैं यादों के तिनके और निहायत थोड़े से सुख की चाह में बीत जाते हैं जीवन के आधे दिन।

अदायगी

ब्रह्मपुत्र मुझे पहले की तरह बार-बार पास नहीं बुलाता मुझे भूल गया है जितना मैं भी भूल गई हूँ उतना। तुम एक बार प्यार न करके ही देखो एक बार पास न बुलाकर भूलोगे जितना उससे ज़्यादा भूलूँगी मैं। अगर रह सको तो बदन छिपाकर रहो सौ नाखूनों से नोंचकर उघाड़ दूंगी तुम्हारा चैन।

शर्त

सिर्फ़ हृदय को लेकर बैठे रहना यह तो मुझसे नहीं चलेगा मैं तुम्हें निचोड़ कर सारांश चाहती हूँ तमाम स्वाद लेना चाहती हूँ चुका दे, जो कुछ जमा है देह की देनदारी दे जा!

सीधा रास्ता

अगर इच्छा है प्रेम में पड़ने की तो पड़ो देखो मैंने बढ़ा दिए हैं दोनों हाथ अगर इच्छा हो इन्हें थाम लो। वक़्त नहीं है खड़ी रहूँ मैं राह में समेट लेने ही हों हाथ और अगर नहीं मिले मन की बात; तो सामने से हट जाओ।

कंपन

कहते हैं- तीस बरस में घटने लगता है मुहब्बत का शीत। लेकिन मैं देख रही हूँ तीस के ऊपर देह विपरीत।

चरित्र

तुम लड़की हो, यह अच्छी तरह याद रखना तुम जब घर की चौखट लाँघोगी लोग तुम्हें टेढ़ी नज़रों से देखेंगे। तुम जब गली से होकर चलती रहोगी लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, सीटी बजाएंगे। तुम जब गली पार कर मुख्य सड़क पर पहुँचोगी लोग तुम्हें बदचलन कहकर गालियाँ देंगे। तुम हो जाओगी बेमानी अगर पीछे लौटोगी वरना जैसे जा रही हो जाओ।

बचो-बचो!

तुम्हारे पीछे कुत्तों का झुण्ड लगा है ध्यान रखना, कुत्तों की देह में होता है रैबिस। तुम्हारे पीछे मरदों का झुण्ड लगा है याद रहे, सिफ़लिस।

पहचान

उसे मैं जितना पुरुष समझती थी उतना वह है नहीं, आधा नपुंसक है वह आधा पुरुष। जीवन बीत जाता है आदमी के साथ सोते-बैठते कितना जान पाते हैं आदमी की असलियत? इतने दिनों से जैसा सोचा था ठीक-ठीक जितना समझा था वैसा वह कुछ भी नहीं, दर‍असल जिसे पहचानती हूँ सबसे ज़्यादा उसे ही बिल्कुल नहीं जानती। जितना मैं उसे समझती थी इन्सान उतना नहीं है वह आधा जानवर है वह आहा आदमी।

पिता, पति, पुत्र

अगर तुम्हारा जन्म नारी के रूप मे हुआ है तो बचपन में तुम पर शासन करेंगे पिता अगर तुम अपना बचपन बिता चुकी हो नारी के रूप में तो जवानी में तुम पर राज करेगा पति अगर जवानी की दहलीज़ पार कर चुकी होगी तो बुढ़ापे में रहोगी पुत्र के अधीन जीवन-भर तुम पर राज कर रहे हैं ये पुरुष अब तुम बनो मनुष्य क्योंकि वह किसी की नहीं मानता अधीनता - वह अपने जन्म से ही करता है अर्जित स्वाधीनता

सतीत्व

काया कोई छुए तो हो जाऊंगी नष्ट हृदय छूने पर नहीं ? हृदय देह में बसा रहता है निरंतर काया के सोपान को पार किए बिना जो अंतर गेह में करता है प्रवेश वह कोई और ही होगा पर जानती हूँ वो मनुष्य नहीं होगा

लेन-देन

तुमने मुझको ज़हर दिया है और मैंने तुमको? प्यार की गागर उँड़ेल-उँड़ेल दी है तुम पर।

तोप दागना

मेरे घर के सामने स्पेशल ब्रांच के लोग चौबीसों घंटे खड़े रहते हैं कौन आता है कौन जाता है कब निकलती हूँ, कब वापस आती हूँ सब कापी में लिखकर रखते हैं किसके साथ दोस्ती है किसकी कमर से लिपटकर हँसती हूँ किसके साथ फुसफुसाकर बातें करती हूँ... सब कुछ लेकिन एक चीज़ जिस वे दर्ज़ नहीं कर पाते वह है - मेरे दिमाग़ में कौन-सी भावनाएँ उमड़-घुमड़ रही है मैं अपनी चेतना मे क्या कुछ सँजो रही हूँ सरकार के पास तोप और कमान हैं और मुझ जैसी मामूली मच्छर के पास है डंक

भारतवर्ष

भारतवर्ष सिर्फ भारतवर्ष नहीं है। मेरे जन्म के पहले से ही, भारतवर्ष मेरा इतिहास। बगावत और विद्वेष की छुरी से द्विखंडित, भयावह टूट-फूट अन्तस में संजोये, दमफूली साँसों की दौड़, अनिश्चित संभावनाओं की ओर, मेरा इतिहास। रक्ताक्त इतिहास। मौत का इतिहास। इस भारतवर्ष ने मुझे दी है, भाषा, समृद्ध किया है संस्कृति से, शक्तिमान सपनों में। इन दिनों यही भारतवर्ष अगर चाहे, तो छीन सकता है, मेरे जीवन से, मेरा इतिहास। मेरे सपनों का स्वदेश। लेकिन नि:स्व कर देने की चाह पर, भला मैं क्यों होने लगी नि:स्व? भारतवर्ष ने जो जन्म दिया है महात्माओं को। उन विराट आत्माओं के हाथ आज, मेरे थके-हारे कन्धे पर, इस असहाय, अनाथ और अवांछित कन्धे पर। देश से भी ज्यादा विराट हैं ये हाथ, देश-काल के पार ये हाथ, दुनिया भर की निर्ममता से, मुझे बड़ी ममता से सुरक्षा देते हैं- मदनजित, महाश्वेता, मुचकुन्द- इन दिनों मैं उन्हें ही पुकारती हूँ- देश। आज उनका ही, हृदय-प्रदेश, मेरा सच्चा स्वदेश।

कलकता इस बार

इस बार कलकता ने मुझे काफ़ी कुछ दिया, लानत-मलामत; ताने-फिकरे, छि: छि:, धिक्कार, निषेधाज्ञा चूना-कालिख, जूतम्-पैजार लेकिन कलकत्ते ने दिया है मुझे गुपचुप और भी बहुत कुछ, जयिता की छलछलायी-पनीली आँखें रीता-पारमीता की मुग्धता विराट एक आसमान, सौंपा विराटी ने 2 नम्बर, रवीन्द्र-पथ के घर का खुला बरामदा, आसमान नहीं तो और क्या है? कलकत्ते ने भर दी हैं मेरी सुबहें, लाल-सुर्ख गुलाबों से, मेरी शामों की उन्मुक्त वेणी, छितरा दी हवा में. हौले से छू लिया मेरी शामों का चिबुक, इस बार कलकत्ते ने मुझे प्यार किया खूब-खूब. सबको दिखा-दिखाकर, चार ही दिनों में चुम्बन लिए चार करोड्. कभी-कभी कलकत्ता बन जाता है, बिल्कुल सगी माँ जैसा, प्यार करता है, लेकिन नहीं कहता, एक भी बार, कि वह प्यार करता है. चूँकि करता है प्यार, शायद इसीलिये रटती रहती हूँ-कलकत्ता! कलकत्ता! अब अगर न भी करे प्यार, भले दुरदुराकर भगा दे तब भी कलकत्ता का आँचल थामे, खडी रहूँगी, बेअदब लड्की की तरह! अगर धकियाकर हटा भी दे, तो भी मेरे कदम नहीं होंगे टस से मस! क्यों? प्यार करना क्या अकेले वही जानता है, मैं नही?

प्रेरित नारी

हम हैं- प्रकृति की भेजी हुई स्त्रियाँ प्रकृति स्त्री को पुरुष की पसलियों से नहीं गढ़ती हम हैं, प्रकृति की प्रेरित नारियाँ प्रकृति नारी को पुरुष के अधीन नहीं रखती हम हैं, प्रकृति की भेजी हुई स्त्रियाँ प्रकृति स्त्री को स्वर्ग में पुरुषों के पैरों तले नहीं रखती। प्रकृति ने स्त्री को मनुष्य बनाया है पुरुष द्वारा निर्मित धर्म इसमें बाधा डालता है प्रकृति ने स्त्री को मनुष्य बताया है- समाज अंगूठा दिखाकर ठहाके लगाता है प्रकृति ने स्त्री को मनुष्य कहा है- पुरुषों ने एकजुट होकर कहा है - 'नहीं'।

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