हिन्दी कविताएँ : सुरजीत मान जलईया सिंह

Hindi Poetry : Surjit Man Jalaeeya Singh


मां तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं

फिर  वही  किस्सा सुनाना  चाहता हूँ माँ  तुझे  मैं  गुन - गुनाना  चाहता  हूँ कल सिरहाने  जो   तुम्हारा  हाथ  था उसको फिर तकिया बनाना चाहता हूँ फिर  उठा  ले   गोद  में  अपनी  मुझे दुनिया - दारी  भूल  जाना  चाहता  हूँ इस   शहर   ने   छीन  ली  बरकत मेरी मैं   सभी   को   ये  बताना   चाहता  हूँ सर  छुपाने  को  जगह  तक  ना  मिली आँख   के   आँसू   छुपाना   चाहता  हूँ छोड  कर   जन्नत   कहाँ  हम  आ  गये फिर उसी  मन्दिर में  सजदा चाहता  हूँ जिन्दगी   थकने  लगी  है  अब   मेरी फिर  तुम्हारे  पास  आना  चाहता  हूँ पाँव   में   छाले  दिये  इस   उम्र  ने  फिर  वही बचपन  सुहाना चाहता हूँ ……

कपड़े बुनना बंद हो गया

बचपन के उन यारों से अब मिलना जुलना बंद हो गया पीतल वाली थाली में वो गुड़ भी घुलना बंद हो गया कितने तन्हा रहते हैं हम बैठक वाले कमरे में जब से घर में परियों वाले किस्से सुनना बंद हो गया सिलवर का वो घी का डिब्बा अब भी अलमारी में है बिन गया के उस डिब्बे का घर में खुलना बंद हो गया गर्म कहां रखते हैं तन को अब तो ये बाजारू कपड़े जब से मां के नर्म हाथ का कपड़े बुनना बंद हो गया लहराते उन कमर बलों पर हर दिन सजते थे पनघट अब तो उन कुओं में भी कलशे डुबना बंद हो गया

पोखर तक में मां बसती है

मेरे तो इस रक्त पुंज में माँ बसती है घर आंगन पनघट तक में माँ बसती है जिनको प्यारा शहर लगा वो शहर गये गाँव की सौंधी खुशबू में माँ बसती है खोलोगे जब नयन क्षितिज ने नीचे तुम खेतों से खलियानों तक में माँ बसती है टीका टीक दुपहरी में जब थक जाओगे फैली दूर तलक छायां में माँ बसती है शहरों की तो नदियों से भी अच्छी है ये गाँव की तो पोखर तक में माँ बसती है

बेटी है अनमोल नगीना

बेटी जन्नत का दरवाजा कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें बेटी है अनमोल नगीना कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें बेटी घर की धूप छाँव है बेटी पूनम का चंदा बेटी उगता सूरज है कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें बेटी गंगा यमुना है बेटी दरिया सागर है बेटी झरने के जैसी है कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें बेटी पर्वत माला सी बेटी से कैलाश बना बेटी शिखर हिमालय का कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें बेटी शबनम सी शीतल बेटी जेठ दुपहरी सी बेटी सावन भादों है कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें बेटी दुआ अमीना है बेटी सज़दे बर्षो के बेटी हज़ के जैसी है कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें बेटी गोकुल बरसाना बेटी वृन्दावन जैसी बेटी मथुरा काशी है कैसे मैं बतलाऊं तुम्हें….

रोज ठगा है मन बेचारा

हमने  लाखों  सपने  खोये हैं    उनको   समझाने   में…. पागल दिल  की बात  सुनी फिर  अपनों  से ही हार गये रहे भीड में दिन भर लेकिन सपनों   से   ही   हार   गये हम हर बार  झुलसते आये  उनकी   आग   बुझाने   में हमने  लाखों  सपने  खोये हैं    उनको   समझाने   में आंगन में ही भटक गये हम लडे   बहुत     दीवारों   से कैसे  झगड़ें  कोई  बता  दे हम  घर   की   मीनारों  से रोज  ठगा  है  मन  बेचारा रिस्तों   को   बहलाने   में हमने  लाखों  सपने  खोये हैं    उनको   समझाने   में पीर  पुरानी  भीतर  भीतर विचलित  करती रहती  है  सांसो के आरोह अवरोह को खण्डित  करती  रहती है कब तक और जीऊंगा ऐसे गज भर  के  तयखाने  में हमने  लाखों  सपने  खोये हैं    उनको   समझाने   में

खड़े अकेले पापा जी

सब कुछ अपना हमें सौंपकर खड़े    अकेले    पापा     जी थके   हुये   चेहरे   से   हमने   नूर     झलकता    देखा    है  खामोशी   में इन   आँखों  से  नीर    छलकता     देखा    है ख्वाहिश   मेरी   पूरी    करने  चले     अकेले    पापा    जी  कदम   कदम  पर  साथ चले फिर कदम कदम पर हार गये मुझको खुश रखने की जिद में अपनी    खुशियाँ    मार   गये  पीडाओं  की ज्वाला   धधकी जले    अकेले    पापा    जी  टूट   गये   हैं   वो   अन्दर से  लेकिन   हैं   खामोश   बहुत मुझे  भरम में   रखते हैं   वो  दिखलाते   हैं   जोश   बहुत अपने   गम  से तन्हाँ   तन्हाँ  लड़े    अकेले    पापा    जी सब कुछ अपना हमें सौंपकर खड़े    अकेले    पापा     जी….

शोर मचाती रहती हो

याद तुम्हारी अक्सर  आती जाती है  पलकों पर धुन्धक सी खुद छा जाती है शोर मचाती रहती हो मेरे मन में अंगडाई सी क्यूं लेती हो इस तन में पागल करके ही क्या  अब छोडोगी तुम महक तुम्हारी मेरे तन  से आती है  याद तुम्हारी अक्सर  आती जाती है  पलकों पर धुन्धक सी खुद छा जाती है घर में अब भी मेरा कमरा खाली है जहां तुम्हारी करता दिल रखवाली है  कागज की किरचों पर  फैली रहती हो मेरे गीतों पर धुन तेरी  आती है  याद तुम्हारी अक्सर  आती जाती है  पलकों पर धुन्धक सी खुद छा जाती है जिन रस्तों पर आती थीं तुम छुप छुप कर एक मिलन की अभिलाषा  थी रुक रुक कर खेतों की पगडण्डी पर  अब भी तेरे पद चिन्हों की छाप  नजर आ जाती है  याद तुम्हारी अक्सर  आती जाती है  पलकों पर धुन्धक सी खुद छा जाती है

खुद को हार बैठा हूं

जीत कर तुम्हें तुम से खुद को हार बैठा हूं साथ भी तुम्हारा था  हाथ भी तुम्हारा था इस नदी की लहरों पर प्रेम जल तुम्हारा था आज इस अहम से सब तट बंध टूटे हैं तुम नदी के उस पार इस पार बैठा हूं  जीत कर तुम्हें तुम से खुद को हार बैठा हूं पांव भी नहीं चलते  बस वहीं पे ठहरे हैं आज भी मेरे घर में बस तुम्हारे पहरे हैं कैसी तुम उधर होगीं सोचकर गुजरता दिन रात को अंधेरों में बार - बार बैठा हूं  जीत कर तुम्हें तुम से खुद को हार बैठा हूं मूक हूं कई दिन से हूक है रुदन की बस आग लग गयी मन में राख है बदन की बस भस्म हो गयीं खुशियां प्यार के समन्दर में तुम से दूर होकर मैं खुद को मार बैठा हूं जीत कर तुम्हें तुम से खुद को हार बैठा हूं

मन घबरा कर टूट गया

स्वप्न झरे मेरी आंखों से मन घबरा कर टूट गया  रात रात भर चन्दा मेरे  इर्द - गिर्द ही चलता है  मावस की काली रातों में अक्सर मुझको छलता है उसे देखने की जिद में हर एक सितारा छूट गया स्वप्न झरे मेरी आंखों से मन घबरा कर टूट गया  रोती है तन्हाई मुझ पर चीख दफन हो जाती है लिपट लिपट तेरी यादों से बात कफन हो जाती है तेरा हर इक वादा अब तो लगता है कि झूठ गया स्वप्न झरे मेरी आंखों से मन घबरा कर टूट गया  तेरी मेरी एक कहानी लिखता हूँ पढ लेता हूं अपने मन की पीडाओं को कागज पर गढ लेता हूं मरहम जितने लगा रहा हूं घाव भी उतना फूट गया स्वप्न झरे मेरी आंखों से मन घबरा कर टूट गया ..

हुई तुम्हारी जीत प्रिये

तेरी    याद   बसा    रखी   है अब    भी   हमने    गांव   में एक छुअन पर सब कुछ हारा हुई    तुम्हारी    जीत     प्रिये  इन    होठों   पर   उन   होठों बहता      है    संगीत     प्रिये  तेरे  पद्   चिन्हों  पर  अब भी  खनके    पायल      पांव    में सारे   बन्धन   तोड के   तुमने    जकड़   लिया   था   बाहों  में सरगम   के सातों   स्वर उठते  हम    दोंनों    की    आहों  में कितना मधुर मिलन था अपना उस    पीपल    की   छांव   में अपनी    अपनी    अभिलाषायें और     खेत    अभिसार    हुये  मौन    रहे   हम   दोनों  लेकिन फिर    भी    लाखों   वार   हुये  उसी  गन्ध  से   महक   रही  है  अब    भी     मिट्टी     गांव    में  तेरी    याद    बसा      रखी   है अब    भी     हमने     गांव   में…

कह रहा हूं हाल दिल का

कह रहा हूं  हाल दिल का  अब जरा स्वीकार कर लो एक पल के ही लिये कर लो  मगर  तुम  प्यार  कर  लो सांसों में तुम बस गयी हो  वक्त  में  ठहराव  सा  है भोर की पहली किरण हो   रात  से  टकराव  सा है स्वप्न  में कर लो  भले  ही   पर जरा इकरार कर लो एक पल के ही लिये कर लो  मगर  तुम  प्यार  कर  लो कल   गुलाबी   खत   हमारा तुमने खोला भी नहीं है क्या समझ लूं अब इसे मैं तुमने कुछ बोला नहीं है टूट  कर  चाहा  है  तुम  को मुझ सा तुम किरदार कर लो एक पल के ही लिये कर लो मगर  तुम  प्यार  कर  लो मैं   तुम्हीं   पर   गीत   लिखूं    तुम पढ़ो हर बार मुझको तुम   भले  ही   जीत   जाओ   हार  है   स्वीकार  मुझको प्रेम   का   गहरा   समन्दर    साथ आओ पार कर लो एक पल के ही लिये कर लो  मगर  तुम  प्यार  कर  लो

मैंने कुछ पाया नहीं है

ऋतु बदलती जा रहीं हैं मैंने कुछ पाया नहीं है मेरी नजरों में तुम्हारी  याद का मौसम वही है  गढ  रहा  हूं  कल्पनाएं  और पढता हूं तुम्हीं को अपने नयनों के पटल पर रोज जड़ता हूं तुम्हीं को पा नहीं सकता हूं जिसको  उसको पाने की ललक में शब्दों के आवागमन का आज भी मौसम वही है ऋतु बदलती जा रहीं हैं मैंने कुछ पाया नहीं है मेरी नजरों में तुम्हारी  याद का मौसम वही है  संग  मेरे  चल  रही हैं मेरी  ये तन्हाईयां  भी दर्द  के  अब  दायरे में आ गयीं पुरवाईयां भी मुझ को मेरे हाल पर क्यों छोड देती तुम नहीं हो दर्द की दहलीज पर भी  आस का मौसम वही है   ऋतु बदलती जा रहीं हैं मैंने कुछ पाया नहीं है मेरी नजरों में तुम्हारी  याद का मौसम वही है  खो गया हूं मैं तुम्हीं में तुम समन्दर मैं नदी हूं तुम नया नूतन वर्ष हो और मैं गुजरी सदी हूं लिख दिया है आज हमने कल का वो इतिहास होगा मेरे  पन्नों  पर  तुम्हारी  जंग का मौसम वही है  ऋतु बदलती जा रहीं हैं मैंने कुछ पाया नहीं है मेरी नजरों में तुम्हारी  याद का मौसम वही है

प्यार तुमसे कर लिया है

वक्त से आगे निकलकर प्यार तुमसे कर लिया है मूक  हैं  सब  भावनायें पर  तुम्हारा  हो गया हूं  तुम  मुझे  ढूढोगी कैसी मैं  तुम्हीं  में खो गया हूं  मैंने खुद को अब तुम्हारा  आईना सा कर लिया है  वक्त से आगे निकलकर प्यार तुमसे कर लिया है रूंठ  कर  के क्यों  हमारी जान  लेने  पर  तुली  हो  कैसे ये बतलाऊं तुम को मेरा सब कुछ बस तुम्ही हो मन की इस दहलीज पर  अधिकार तुमने कर लिया है वक्त  से  आगे  निकलकर प्यार  तुमसे  कर  लिया है कैसे कह दूं कि जो तुमने समझा  है  वैसा  नहीं  हूं परखो पहले तुम मुझे फिर कहना  कि  ऐसा  नहीं हूं जैसा तुमने चाह मुझको वैसा खुद को कर लिया है  वक्त से आगे निकलकर प्यार तुमसे कर लिया है….

जीवन जी कर देख लिया है

कहना  चाह  बहुत  मगर  मैं कुछ भी तुम से कह पाया ना मेरे  मन  के  भित्त  द्वार  पर सपनों  का  दरबार  सजा  है जहां   तुम्हारी   दिव्य   मूर्ति  के दर्शन का  अजब मजा है अपनी  नीदों  के  आंगन  में  तुम बिन पल भर रह पाया ना कहना  चाह  बहुत  मगर  मैं कुछ भी तुम से कह पाया ना कहां - कहां हम  दर्द सम्हालें कहां - कहां  मरहम  रख  लें जीवन जी कर देख लिया है मौत  से  भी  रिस्ता  रख  लें लडी  बहुत  है  जंग खुदी से हार भी  अपनी सह पाया ना  कहना  चाह  बहुत  मगर  मैं कुछ भी तुम से कह पाया ना किस्मत की बलि वेदी मुझसे सब कुछ लेकर चली गयी है शब्द रहे सब बिखरे - बिखरे मूक  भावना  छली  गयी  है सागर से क्या मिलता जाकर जब मैं नदी सा बह पाया ना कहना  चाह  बहुत  मगर  मैं कुछ भी तुम से कह पाया ना….

प्रिये तुम्हारा आना जाना

प्रिये तुम्हारा आना जाना  क्यों नहीं होता गांव में रात रातभर छत पर बैठा स्वपन उधेडा करता हूँ चाँद बुलाकर अपने आंगन रोज बखेडा करता हूँ मुझसे मिलने कब आओगी तुम चन्दां की छांव में प्रिये तुम्हारा आना जाना  क्यों नहीं होता गांव में लिखकर कितनी रोज चिठ्ठियाँ तेरी सखियों से भेजीं हमने कितनी बार अर्जियाँ तुझको परियों से भेजी तू ने कोई खत भेजा ना आज तलक क्यों गांव में प्रिये तुम्हारा आना जाना  क्यों नहीं होता गांव में खेतों पर मुझसे मिलने की चाहत लेकर आ जाना अपने कदमों तले जरा सी  राहत ले कर आ जाना पहरों साथ रहे हम दोनों जिस पीपल की छांव में प्रिये तुम्हारा आना जाना  क्यों नहीं होता गांव में

जाने कैसी किस्मत पाई

जाने कैसी किस्मत पाई रोज दुलारी रोती है! आंगन से उठ गई पालकी अपनों ने ही मुंह मोडा! आठ वर्ष की थी जब उसने मां बाबा का घर छोडा! साठ वर्ष के रामू के संग अपना बचपन खोती है! दिन भर करती चौका बर्तन  घर घर में झाडू पोंछा! भरी जवानी में न जाने  कितनों ने उसको नोंचा! उन्हीं दर्द व पीडाओं को आज तलक वह ढोती है! बीस वर्ष में रामू काका संग छोडकर चला गया! भैमाता के आंगन में बस रोज उसी को छला गया! घुटनों बीच छुपाकर सर को वह दुखियारी सोती है!

चलन चला ये गांव में

कोई किसी के घर न जाये चलन  चला   ये  गांव   में रिश्तों की  पगडण्डी  टूटी चाचा  ने मुंह  मोड  लिया  छोड ताऊ ने भी अपनो को गैरों   से  घर  जोड  लिया  अम्मा  रो - रो ढेर  हो  रही  देख   बेढियां    पांव    में  कोई किसी के घर न जाये चलन  चला   ये  गांव   में सबने अपना अपना रोया सम्पत्ति    बटबारे     पर भाभी का हथ फूल को गया बहिना   के   रखवारे   पर   बुआ  के  सम्बादों  से  फिर  आग   लगी   है   छांव   में कोई किसी के घर न जाये चलन  चला   ये  गांव   में फूफा ने भी नमक डालकर चौखट  घर  के  गला  दिये कुछ तरकस  से तीर पुराने नाना   ने   भी   चला  दिये हमने अपना  घर  खोया है अपनों    के   ही   दांव   में कोई किसी के घर न जाये चलन  चला   ये  गांव   में….

संवादों में रहे रातभर

कैसे  कहता  पीडाओं  में  गुजरा हुआ अतीत सखी  तुमसे किये हुये सब वादे ज्यों के ज्यों मन में ठहरे घुट घुट कर रह गयी जिन्दगी  सांसों    पर    तेरे    पहरे कैसे कह दूं तुम्ही बताओ तुमको मैं मन मीत सखी कैसे  कहता  पीडाओं  में  गुजरा हुआ अतीत सखी  संवादों   में  रहे  रात  भर सुबह  हुई  तुम  चले  गये दिन जितना गतिमान हुआ है उतने   ही   हम   छले  गये कागज की किरचों पर कैसे  लिखता   कोई   गीत  सखी कैसे  कहता  पीडाओं  में  गुजरा हुआ अतीत सखी  प्यार किया फिर शर्तें रख दीं क्या  व्यापार  किया  तुमने दिल की बलि वेदी पर मुझको मार   दिया   है  क्यों  तुमने तुमसे मैं  हर मोड़ पे  हारा कैसे  लिख  दूं  जीत सखी

हो जाने दो प्यार प्रिये

मत रोको खुद को तुम इतना हो जाने दो प्यार प्रिये सारे बन्धन तोडुंगा मैं आगे बढ तुम हाथ थमाना दुनियां चाहे जितना रोके तुम अपना अधिकार जताना फिर अपने इस प्रेम के आगे हारेगा संसार प्रिये मत रोको खुद को तुम इतना हो जाने दो प्यार प्रिये हर दिन लिख कर कर डालुंगा  चाहत का इतिहास तुझे अपनी सासों से भी ज्यादा रख लेना तुम पास मुझे भव सागर से हो जायेगें हम दोनों फिर पार प्रिये मत रोको खुद को तुम इतना हो जाने दो प्यार प्रिये मेरी खातिर इक दिन ठहरो मुझको गंगाजल कर दो सारी तपिश मिटा दो मन की सागर सा शीतल कर दो होठों से छूकर के मुझको कर दो गीता सार प्रिये  मत रोको खुद को तुम इतना हो जाने दो प्यार प्रिये

अन्तस मन में शोर हुआ

तुम ही मेरे गीत गज़ल हो तुम हो मेरी जान प्रिये  सर्व प्रथम जब तुम देखीं थी अन्तस मन में शोर हुआ अहसासो से छुआ तुम्हें तब सागर जैसा जोर हुआ आखों में हरदम रहता है  अब तेरा प्रतिमान प्रिये  तुम ही मेरे गीत गज़ल हो तुम हो मेरी जान प्रिये  ऐसे लगते होंठ तुम्हारे  जैसे गंगा की धारा मस्तिष्क तुम्हारा ऐसा चमके जैसे तुम हो ध्रुव तारा तुम जीवन के सरल शब्द हो तुम ही हो अभिमान प्रिये  तुम ही मेरे गीत गज़ल हो तुम हो मेरी जान प्रिये  रजत चांदनी जैसा तन है मन है वृन्दावन जैसा केश तुम्हारे बादल जैसे पोर पोर उपवन जैसा क्यों न खुद पर इठलाऊं मैं मेरी तुम हो आन प्रिये  तुम ही मेरे गीत गज़ल हो तुम हो मेरी जान प्रिये….!

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