हिंदी ग़ज़लें, गीत और नज़्में : सुदर्शन फ़ाकिर

Ghazal, Geet, Nazmein in Hindi : Sudarshan Faakir



अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें

अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें हम उन के लिए ज़िंदगानी लुटा दें हर इक मोड़ पर हम ग़मों को सज़ा दें चलो ज़िंदगी को मोहब्बत बना दें अगर ख़ुद को भूले तो कुछ भी न भूले कि चाहत में उन की ख़ुदा को भुला दें कभी ग़म की आँधी जिन्हें छू न पाए वफ़ाओं के हम वो नशेमन बना दें क़यामत के दीवाने कहते हैं हम से चलो उन के चेहरे से पर्दा हटा दें सज़ा दें सिला दें बना दें मिटा दें मगर वो कोई फ़ैसला तो सुना दें

अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है

अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है लैला मजनूँ की मिसालों पे हँसी आती है जब भी तकमील-ए-मोहब्बत का ख़याल आता है मुझ को अपने ही ख़यालों पे हँसी आती है लोग अपने लिए औरों में वफ़ा ढूँडते हैं उन वफ़ा ढूँडने वालों पे हँसी आती है देखने वालो तबस्सुम को करम मत समझो उन्हें तो देखने वालों पे हँसी आती है चाँदनी रात मोहब्बत में हसीं थी 'फ़ाकिर' अब तो बीमार उजालों पे हँसी आती है

आज के दौर में ऐ दोस्त

आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब "फ़ाकिर" वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है

आज तुम से बिछड़ रहा हूँ

आज तुम से बिछड़ रहा हूँ आज कहता हूँ फिर मिलूँगा तुम से तुम मेरा इंतज़ार करती रहो आज का ऐतबार करती रहो लोग कहते हैं वक़्त चलता है और इंसान भी बदलता है काश रुक जाये वक़्त आज की रात और बदले न कोई आज के बाद वक़्त बदले ये दिल न बदलेगा तुम से रिश्ता कभी न टूटेगा तुम ही ख़ुश्बू हो मेरी साँसों की तुम ही मंज़िल हो मेरे सपनों की लोग बोते हैं प्यार के सपने और सपने बिखर भी जाते हैं एक एहसास ही तो है ये वफ़ा और एहसास मर भी जाते हैं

आदमी आदमी को क्या देगा

आदमी आदमी को क्या देगा जो भी देगा वही ख़ुदा देगा मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा ज़िन्दगी को क़रीब से देखो इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा हमसे पूछो दोस्ती का सिला दुश्मनों का भी दिल हिला देगा इश्क़ का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर" अब मसीहा भी क्या दवा देगा

इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया

इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दिया आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब उम्र भर आप की इस बात ने रोने न दिया रोने वालों से कहो उन का भी रोना रो लें जिन को मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया तुझ से मिल कर हमें रोना था बहुत रोना था तंगी-ए-वक़्त-ए-मुलाक़ात ने रोने न दिया एक दो रोज़ का सदमा हो तो रो लें 'फ़ाकिर' हम को हर रोज़ के सदमात ने रोने न दिया

उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े

उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े अपनी वफ़ा का सोच के अंजाम रो पड़े हर शाम ये सवाल मोहब्बत से क्या मिला हर शाम ये जवाब कि हर शाम रो पड़े राह-ए-वफ़ा में हम को ख़ुशी की तलाश थी दो गाम ही चले थे कि हर गाम रो पड़े रोना नसीब में है तो औरों से क्या गिला अपने ही सर लिया कोई इल्ज़ाम रो पड़े

किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी मेरे रुकते ही मिरी साँसें भी रुक जाएँगी फ़ासले और बढ़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी ज़हर पीने की तो आदत थी ज़माने वालो अब कोई और दवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी चलती राहों में यूँही आँख लगी है 'फ़ाकिर' भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया

कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया और कुछ तल्ख़ी-ए-हालात ने दिल तोड़ दिया हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया दिल तो रोता रहे ओर आँख से आँसू न बहे इश्क़ की ऐसी रिवायात ने दिल तोड़ दिया वो मिरे हैं मुझे मिल जाएँगे आ जाएँगे ऐसे बेकार ख़यालात ने दिल तोड़ दिया आप को प्यार है मुझ से कि नहीं है मुझ से जाने क्यूँ ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया

ग़म बढ़े आते हैं

ग़म बढे़ आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह तुम छिपा लो मुझे, ऐ दोस्त, गुनाहों की तरह अपनी नज़रों में गुनाहगार न होते, क्यों कर दिल ही दुश्मन हैं मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह हर तरफ़ ज़ीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त बस तेरी याद के साये हैं पनाहों की तरह जिनके ख़ातिर कभी इल्ज़ाम उठाये, "फ़ाकिर" वो भी पेश आये हैं इंसाफ़ के शाहों की तरह

चराग़-ओ-आफ़ताब ग़ुम

चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गई गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी लिखा हुआ था जिस किताब में, कि इश्क़ तो हराम है हुई वही किताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी लबों से लब जो मिल गए, लबों से लब जो सिल गए सवाल ग़ुम जवाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

ज़ख़्म जो आप की इनायत है

ज़ख़्म जो आप की इनायत है इस निशानी को नाम क्या दे हम प्यार दीवार बन के रह गया है इस कहानी को नाम क्या दे हम आप इल्ज़ाम धर गये हम पर एक एहसान कर गये हम पर आप की ये मेहरबानी है मेहरबानी को नाम क्या दे हम आपको यूँ ही ज़िन्दगी समझा धूप को हमने चाँदनी समझा भूल ही भूल जिस की आदत है इस जवानी को नाम क्या दे हम रात सपना बहार का देखा दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला बेज़ुबानी को नाम क्या दे हम

जब भी तन्हाई से घबरा के

जब भी तन्हाई से घबरा के सिमट जाते हैं हम तेरी याद के दामन से लिपट जाते हैं उन पे तूफ़ाँ को भी अफ़सोस हुआ करता है वो सफ़ीने जो किनारों पे उलट जाते हैं हम तो आये थे रहें शाख़ में फूलों की तरह तुम अगर ख़ार समझते हो तो हट जाते हैं

ज़िंदगी तुझ को जिया है कोई अफ़्सोस नहीं

ज़िंदगी तुझ को जिया है कोई अफ़्सोस नहीं ज़हर ख़ुद मैं ने पिया है कोई अफ़्सोस नहीं मैं ने मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में बस यही जुर्म किया है कोई अफ़्सोस नहीं मेरी क़िस्मत में लिखे थे ये उन्हीं के आँसू दिल के ज़ख़्मों को सिया है कोई अफ़्सोस नहीं अब गिरे संग कि शीशों की हो बारिश 'फ़ाकिर' अब कफ़न ओढ़ लिया है कोई अफ़्सोस नहीं

जिस मोड़ पर किये थे

जिस मोड़ पर किये थे हम इंतज़ार बरसों उससे लिपट के रोए दीवानावार बरसों तुम गुलसिताँ से आये ज़िक्र-ए-ख़िज़ाँ ही लाये हमने कफ़स में देखी फ़स्ल-ए-बहार बरसों होती रही है यूँ तो बरसात आँसूओं की उठते रहे हैं फिर भी दिल से ग़ुबार बरसों वो संग-ए-दिल था कोई बेगाना-ए-वफ़ा था करते रहें हैं जिसका हम इंतज़ार बरसों

ढल गया आफ़ताब ऐ साक़ी

ढल गया आफ़ताब ऐ साक़ी ला पिला दे शराब ऐ साक़ी या सुराही लगा मेरे मुँह से या उलट दे नक़ाब ऐ साक़ी मैकदा छोड़ कर कहाँ जाऊँ है ज़माना ख़राब ऐ साक़ी जाम भर दे गुनाहगारों के ये भी है इक सवाब ऐ साक़ी आज पीने दे और पीने दे कल करेंगे हिसाब ऐ साक़ी

तुम न घबराओ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देख कर

तुम न घबराओ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देख कर मैं न मर जाऊँ तुम्हारी चश्म-ए-तर को देख कर ज़ख़्म ताज़ा कर रहा हूँ चारागर को देख कर रास्ता मैं ने बदल डाला ख़िज़र को देख कर ज़िंदगानी इक फ़रेब-ए-दाइमी है सर-ब-सर मुझ पे ये ज़ाहिर हुआ शाम-ओ-सहर को देख कर गरचे उन से कोई उम्मीद-ए-वफ़ा मुझ को नहीं जी बहल जाता है फिर भी नामा-बर को देख कर आज इंसाँ से है इंसाँ बरसर-ए-पैकार यूँ अल-अमाँ शैताँ पढ़े ख़ू-ए-बशर को देख कर आदमी में आदमियत का निशाँ बाक़ी नहीं बेच डाला इस ने ईमाँ सीम-ओ-ज़र को देख कर आसमाँ तक तो हम ऐ 'रिफ़अत' रहे गर्म-ए-ख़िराम उस से आगे चल न पाए राहबर को देख कर

दिल के दीवार-ओ-दर पे क्या देखा

दिल के दीवार-ओ-दर पे क्या देखा बस तिरा नाम ही लिखा देखा तेरी आँखों में हम ने क्या देखा कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा अपनी सूरत लगी पराई सी जब कभी हम ने आईना देखा हाए अंदाज़ तेरे रुकने का वक़्त को भी रुका रुका देखा तेरे जाने में और आने में हम ने सदियों का फ़ासला देखा फिर न आया ख़याल जन्नत का जब तिरे घर का रास्ता देखा

दुनिया से वफ़ा कर के सिला ढूँढ रहे हैं

दुनिया से वफ़ा कर के सिला ढूँढ रहे हैं हम लोग भी नादाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं कुछ देर ठहर जाइए ऐ बंदा-ए-इंसाफ़ हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर' अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं

पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं

पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं तुम शहर-ए-मोहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं बुत-ख़ाना समझते हो जिस को पूछो न वहाँ क्या हालत है हम लोग वहीं से लौटे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहाँ सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साए हैं होंटों पे तबस्सुम हल्का सा आँखों में नमी सी है 'फ़ाकिर' हम अहल-ए-मोहब्बत पर अक्सर ऐसे भी ज़माने आए हैं

फ़लसफ़े इश्क़ में पेश आए सवालों की तरह

फ़लसफ़े इश्क़ में पेश आए सवालों की तरह हम परेशाँ ही रहे अपने ख़यालों की तरह शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-मसीहा ले कर और हम टूट गए काँच के प्यालों की तरह जब भी अंजाम-ए-मोहब्बत ने पुकारा ख़ुद को वक़्त ने पेश किया हम को मिसालों की तरह ज़िक्र जब होगा मोहब्बत में तबाही का कहीं याद हम आएँगे दुनिया को हवालों की तरह

फिर आज मुझे तुम को

शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया क़ातिल को आज अपने ही घर ले के आ गया ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र ले के आ गया नश्तर है मेरे हाथ में काँधों पे मय-कदा लो मैं इलाज-ए-दर्द-ए-जिगर ले के आ गया 'फ़ाकिर' सनम-कदे में न आता मैं लौट कर इक ज़ख़्म भर गया था इधर ले के आ गया

मिरी ज़बाँ से मिरी दास्ताँ सुनो तो सही

मिरी ज़बाँ से मिरी दास्ताँ सुनो तो सही यक़ीं करो न करो मेहरबाँ सुनो तो सही चलो ये मान लिया मुजरिम-ए-मोहब्बत हैं हमारे जुर्म का हम से बयाँ सुनो तो सही बनोगे दोस्त मिरे तुम भी दुश्मनो इक दिन मिरी हयात की आह-ओ-फ़ुग़ाँ सुनो तो सही लबों को सी के जो बैठे हैं बज़्म-ए-दुनिया में कभी तो उन की भी ख़ामोशियाँ सुनो तो सही

मेरे दुख की कोई दवा न करो

मेरे दुख की कोई दवा न करो मुझ को मुझ से अभी जुदा न करो नाख़ुदा को ख़ुदा कहा है तो फिर डूब जाओ ख़ुदा ख़ुदा न करो ये सिखाया है दोस्ती ने हमें दोस्त बन कर कभी वफ़ा न करो इश्क़ है इश्क़ ये मज़ाक़ नहीं चंद लम्हों में फ़ैसला न करो आशिक़ी हो कि बंदगी 'फ़ाकिर' बे-दिली से तो इब्तिदा न करो

शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया

शायद मैं ज़िन्दगी की सहर लेके आ गया क़ातिल को आज अपने ही घर लेके आ गया ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया नश्तर है मेरे हाथ में, कांधों पे मैक़दा लो मैं इलाज-ए-दर्द-ए-जिगर लेके आ गया "फ़ाकिर" सनमकदे में न आता मैं लौटकर इक ज़ख़्म भर गया था इधर लेके आ गया

शैख़ जी थोड़ी सी पीकर आइये

शैख़ जी थोड़ी सी पीकर आइये मय है क्या शय फिर हमें बतलाइये आप क्यों हैं सारी दुनिया से ख़फ़ा आप भी दुश्मन मेरे बन जाइये क्या है अच्छा क्या बुरा बंदा-नवाज़ आप समझें तो हमें समझाइये जाने दिजे अक़्ल की बातें जनाब दिल की सुनिये और पीते जाइये

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं ज़िंदगी को भी सिला कहते हैं कहने वाले जीने वाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं फ़ासले उम्र के कुछ और बढ़ा देती है जाने क्यूँ लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं चंद मासूम से पत्तों का लहू है 'फ़ाकिर' जिस को महबूब की हाथों की हिना कहते हैं

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले अजनबी जैसे अजनबी से मिले हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले फूल ही फूल हम ने माँगे थे दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले जिस तरह आप हम से मिलते हैं आदमी यूँ न आदमी से मिले

नज़्में और गीत
एक प्यारा-सा गाँव

एक प्यारा-सा गाँव, जिसमें पीपल की छाँव... छाँव में आशियाँ था, एक छोटा मकां था छोड़ कर गाँव को, उस घनी छाँव को शहर के हो गये हैं, भीड़ में खो गये हैं वो नदी का किनारा, जिसपे बचपन गुज़ारा वो लड़कपन दीवाना, रोज़ पनघट पे जाना फिर जब आयी जवानी, बन गये हम कहानी छोड़ कर गाँव को, उस उस घनी छाँव को शहर के हो गये हैं, भीड़ में खो गये हैं एक प्यारा-सा गाँव, जिसमें पीपल की छाँव... कितने गहरे थे रिश्ते, लोग थे या फ़रिश्ते एक टुकड़ा ज़मी थी, अपनी जन्नत वहीं थी हाय ये बदनसीबी, नाम जिसका गरीबी छोड़ कर गाँव को, उस घनी छाँव को शहर के हो गये, भीड़ में खो गये हैं एक प्यारा-सा गाँव, जिसमें पीपल की छाँव... ये तो परदेश ठहरा, देश फिर देश ठहरा हादसों की ये बस्ती, कोई मेला न मस्ती क्या यहाँ ज़िंदगी है, हर कोई अजनबी है छोड़ कर गाँव को, उस घनी छाँव को शहर के हो गये हैं, भीड़ में खो गये हैं एक प्यारा-सा गाँव, जिसमें पीपल की छाँव...

ये दौलत भी ले लो

ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझ से से मेरी जवानी मगर मुझ को लौटा दो वो बचपन का सावन वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी मोहल्ले की सब से निशानी पुरानी वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी वो नानी की बातों में परियों का ढेरा वो चेहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा भुलाए नहीं भूल सकता है कोई वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी खड़ी धूप में अपने घर से निकलना वो चिड़ियाँ वो बुलबुल वो तितली पकड़ना वो गुड़ियों की शादी पे लड़ना झगड़ना वो झूलों से गिरना वो गिरते सँभलना वो पीतल के छाँव के प्यारे से तोहफ़े वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना घरौंदे बनाना बना के मिटाना वो मा'सूम चाहत की तस्वीर अपनी वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन बड़ी ख़ूबसूरत थी वो ज़िंदगानी ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी

ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे

ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से रवायत है शायद ये सदियों पुरानी शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से

उस मोड़ से शुरू करें

उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी हर शय जहाँ हसीन थी, हम तुम थे अजनबी लेकर चले थे हम जिन्हें जन्नत के ख़्वाब थे फूलों के ख़्वाब थे वो मुहब्बत के ख़्वाब थे लेकिन कहाँ है उन में वो पहली सी दिलकशी रहते थे हम हसीन ख़यालों की भीड़ में उलझे हुए हैं आज सवालों की भीड़ में आने लगी है याद वो फ़ुर्सत की हर घड़ी शायद ये वक़्त हमसे कोई चाल चल गया रिश्ता वफ़ा का और ही रंगो में ढल गया अश्कों की चाँदनी से थी बेहतर वो धूप ही

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