बांग्ला कविता हिंदी में : सुभाष मुखोपाध्याय

Bangla Poetry in Hindi : Subhash Mukhopadhyay



अद्भुत समय

यह एक बड़ा अद्भुत समय है पुरानी बुनियादें जब रेत की तरह ढह रही हैं हम भाई-बंधु ठीक तभी टुकड़ों-टुकड़ों में बँटे जा रहे हैं! किसने अपनी आस्तीन के नीचे जाने किसके लिए कौन-सी हिंस्रता छुपा रखी है हमें नहीं पता, कंधे पर हाथ रखते हुए भी अब डर लगता है। अंधेरे में चिरी हुई जीभें जब फुसफुसाती हैं तो लगता है कोई हमें अदृश्य आरी से बहुत महीन टुकड़ों में काट रहा है। जब एक साथ मुट्ठी भींचकर खड़ें हो सकने से ही हम सब कुछ पा सकते थे - तब विभेद का एक टुकड़ा माँस मुँह में खोंसकर चोरों के झुण्ड हमारा सर्वस्व लिए जा रहे हैं!! मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

जननी जन्मभूमि

मैं माँ को बहुत प्यार करता था कभी अपने मुँह से नहीं कहा मैंने। टिफ़िन के पैसे बचाकर कभी-कभी ख़रीद लाता था सन्तरे लेटे-लेटे माँ की आँखें डबडबा जाती थीं अपने प्यार की बात कभी भी मुँह खोलकर मैं माँ से नहीं कह सका। हे देश, हे मेरी जननी मैं तुमसे कैसे कहूँ! जिस धरती पर पैरों के बल खड़ा हुआ हूँ - मेरे दोनों हाथों की दसों उँगलियों में उसकी स्मृति है। मैं जिन चीज़ों को छूता हूँ वहाँ पर हे जननी तुम्हीं हो मेरी हृदयवीणा तुम्हारे ही हाथों बजती है। हे जननी! हम डरे नहीं जिन लोगों ने तुम्हारी ज़मीन पर अपने क्रूर पंजे पसारे हैं हम उनकी गर्दन पकड़कर सरहद के पार खदेड़ देंगे। हम जीवन को अपनी तरह से सजा रहे थे -- सजाते रहेंगे। हे जननी! हम डरे नहीं यज्ञ में बाधा पड़ी थी इसलिए नाराज़ हैं हम हे जननी मुँह से बिना कुछ कहे हम अनथके हाथों से प्यार की बातें कह जाएंगे। मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

आग के फूल

सिर पर तूफ़ान उठाए हम लोग आ रहे हैं मैदान के कीचड़ से सने फटे पैर लिए धारदार पत्थरों पर आग के फूल लेकर आ रहे हैं हम। हमारी आँखों में पानी था आग है अब। उभरी हड्डियों वाले पंजर अब वज्र बनाने के कारख़ाने हैं। जिनकी संगीनों में चमक रही है बिजली वे हट जाएँ सामने से हमारे चौड़े कंधों से टकराकर दीवारें गिर रही हैं -- हट जाओ। गाँव ख़ाली करके हम आ रहे हैं हम ख़ाली हाथ नहीं लौटेंगे। मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

जुलूस का चेहरा

जुलूस में देखा था एक चेहरा मुट्ठी भींचे एक धारदार हाथ आकाश की ओर उठा हुआ, आग की लपटों-से बिखरे हुए बाल हवा में लहराते हुए। झंझा-क्षुब्ध जनसमुद्र के फेनिल शिखर पर फ़ॉस्फ़ोरस-सा जगमगाता रहा जुलूस का वही चेहरा। भंग हो गई सभा चक्राकार बिखर गई भीड़ धरती की ओर झुके हाथों की भीड़ में क़दमों के बीच खो गया जुलूस का वही चेहरा। आज भी सुबह-शाम रास्तों पर घूमता हूँ भीड़ दिखते ही ठिठक जाता हूँ कि कहीं मिल जाए जुलूस का वहीं चेहरा। अच्छी लगती है किसी की बाँसुरी-जैसी नाक किसी की हिरणी-जैसी आँखों से छाता है नशा लेकिन उनके हाथ झुके हुए हैं ज़मीन की ओर झंझा-क्षुब्ध समुद्र में नहीं जल उठतीं उनकी चमकती आँखें फ़ॉस्फ़ोरस की तरह। मुझे नई ज़िन्दगी देता है -- समुद्र का एक चेहरा। दूसरे सब चेहरे जब बेशक़ीमती प्रसाधनों की प्रतियोगिताओं में कुत्सित विकृति को छुपाने की कोशिश करते हों सड़ी लाशों की दुर्गन्ध दबाने के लिए बदन पर छिड़कते हों इत्र तब वही अप्रतिद्वन्द्व चेहरा म्यान से निकली तलवार की तरह जागकर मुझे जगाता है। अंधेरे में इसीलिए हरेक हाथों में थमा देता हूँ एक निषिद्ध इश्तहार, जर्जर इमारत की नींव ध्वस्त करने के लिए पुकारता हूँ ताकि उद्वेलित जुलूस में देह पा सके एक चेहरा और सारी धरती का शृंखल-मुक्त प्यार दो हृदयों के सेतु-पथ से आ-जा सके। मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

मेरा काम

मैं चाहता हूँ अपने पैरों खड़े हो सकें शब्द अपनी निगाहें हो हर परछाई की हर ठहरा हुआ चित्र अपने पैरों चल सके, एक कवि की तरह याद किया जाऊँ मैं नहीं चाहता, चाहता हूँ -- कंधे से कंधा मिलाकर जीवन के अंतिम दिन तक साथ चल सकूँ, चाहता हूँ -- ट्रैक्टर के पास अपनी क़लम रख कर कह सकूँ कि अब छुट्टी हुई! भाई, मुझे थोड़ी-सी आग दो। मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

दिन के अंत में

पश्चिम आकाश में रक्त की गंगा बहाकर किसी दुर्धर्ष दस्यु-सा रास्ते के लोगों को आँखें दिखाता अपने डेरे पर लौट गया है सूर्य। इसके बहुत देर बाद मौक़ा-ए-वारदात पर दिन को रात में बदलने मानो पुलिस की काली गाड़ी में आई है साँझ। लाइट जलाते ही खिड़की से बाहर कूद पड़ा है अंधेरा। पर्दे को हटाते ही भयाक्रान्त हिरणी-सी मुझसे लिपट गई है हवा। मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

नहीं जाऊंगा सभा में

जो मुझे चाहता है मैं उसके पास जाऊंगा। गले में नहीं खिलते सुर फिर भी मैं गाऊंगा गीत मृदंग बजाऊंगा बारिश आने पर बाहर निकलूंगा भीगने यदि डुबा सके तो नदी डुबाए मुझे। तीर्थ करने मैं नहीं जाना चाहता शून्य में नहीं है कोई फ़ायदा! क्यों पुकारते हो मन नहीं है, नहीं जाऊंगा सभा में। मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

पैर-पैर

सब समय वह मेरे पैर-पैर में सब समय वह मेरे पैर-पैर में घूमता-फिरता रहता है। उसे कहता हूँ, तुम्हें लेकर रहने का समय नहीं हे विषाद, तुम जाओ अभी मेरे पास समय नहीं तुम जाओ! एक पेड़ के तने पर हृदय-पीठ पर एक करके यौवन में पैर धर दिया है। एक नंगी मृत्यु अभी-अभी देखकर आया हूँ। धरती पर प्रचंड चीत्कार करके घूम रहा है वह दाँत निचोड़ भय मैं उसके शरीर के चमड़े को खोल लेना चाहता हूँ। माँगकर देखो, हे विषाद! एक सुख का मुख देखूँगा बोलकर हम लोगों के मुख की ओर देख रही है बाल सादा करके अहमद की माँ। हे विषाद! तू मेरे हाथों के सामने से हट जा, पानी और कादा से धान रोकना होगा। हे विषाद! हाथों के सामने से हट जा, मातम को दूर करने की ज़रूरत है जाता नहीं, विषाद! फिर भी नहीं जाता। सब समय वह मेरे पैरों में घूमता-फिरता रहता है। मैं क्रोध से अंधा हो जाता हूँ अपनी असीम वेदनाओं को उसकी तरफ़ फेंककर मारता हूँ। बोलता हूँ, शैतान तुझे नर्क भेजने पर मैं बचूँगा। इसके बाद, कब काम के बीच डूब गया पता नहीं चाहता हूँ दूर बैठकर वही मेरा विषाद मुझे एक बार में भूलकर मेरी अपूर्ण वासनाओं को लेकर खेल रहा है हँसते-हँसते मैं उसे अशांत बच्चे की तरह गोद में उठा लेता हूँ। मूल बंगला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

दिन का अवसान

पश्चिम में आकाश रक्त-गंगा बहाकर जैसे कोई साहसी डकैत की तरह रास्ते के मनुष्यों की आँखों में रँगते-रँगते अपने डेरे में वापस लौट गया …सूर्य। इसके बहुत देर के बाद मौक़े पर जाँच करने के लिए दिन को रात करने जैसे पुलिस के काले गाड़ी में आई हो …संध्या। प्रकश होने पर ही खिड़की से बाहर उछलकर भागा …अँधेरा। परदा हटाने पर भयभीत हिरणी की तरह मुझे ज़ोर से जकड़े …हवा। मूल बंगला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

जलते हुए शहर में

तेल से चिपचिपी हरी घास एक साथ पंक्ति में होकर गर्दन ऊँचा करके देख रही है किस तरह इस जले हुए शहर में हृदय का आँचल हटाकर कैसे आग्रह से सोया हुआ है। अश्विन का आश्चर्य सुबह रंग जिसका ठीक हिलते चंपा फूल की तरह। खड़े मनुष्यों को बग़ल में दबाकर समय दस बजे ट्राम गाड़ी में लटकते-लटकते चले गए। काले-काले माथे अदृश्य पैरों के ऊपर खड़े हैं, जैसे आत्म-समर्पण की भंगिमा में हाथ ऊपर करके काले-काले माथों पर आँखों ने जन्म लिया। बाहर साड़ी से ढके हैं दो सभ्य पैर हम लोगों के दूरवर्ती भविष्य की तरह उसकी मुख छवि कैसी है कभी भी नहीं जान पाऊँगा। हठात् मेरी इच्छाएँ— दौड़ती-भागती-सी। मेरी इच्छा हुई जाने की जहाँ उसकी आँखों में उज्ज्वल नीलमणि की तरह आकाश हो। जहाँ पर लहरें उठकर ढक लेंगी नदी जहाँ पर जाऊँगा और कभी नहीं लौटूँगा इसके बाद ट्राम से उतरकर अर्द्ध श्वास लेकर भागने लगा। भागते-भागते भागते-भागते ईंट-लकड़ी से निर्मित एक मूर्ति ने मुझे ढक लिया। मूल बंगला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

जितना भी दूर जाता हूँ

मैं जितना भी दूर जाता हूँ मेरे साथ जाता है समुद्र की लहरों की तरह माला-गाथा एक नदी का नाम मैं जितना भी दूर जाता हूँ। मेरी आँखों की पलकों में लगा रहता है गोबर से आँगन को लीपकर पंक्ति से अंकन करते हैं लक्ष्मी के पैरों को। मैं जितना भी दूर जाता हूँ। मूल बंगला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

लौट-लौटकर

सीढ़ी पर घूम-घूमकर मैं नीचे उतर रहा हूँ उतर रहा हूँ, उतर रहा हूँ। तुम बोले थे—आइएगा? देखूँगा, आइएगा अच्छा, आइएगा देखूँगा। बोले थे। सीढ़ी पर घूम-घूमकर मैं नीचे उतर रहा हूँ उतर रहा हूँ, उतर रहा हूँ। बोला था; माँ मेरी, खिलौने लाऊँगा— माँ मेरी आज ज़रूर लाऊँगा। बोला था। सीढ़ी पर घूम-घूमकर मैं नीचे उतर रहा हूँ उतर रहा हूँ, उतर रहा हूँ। मूल बंगला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

सुंदर

जब हवा के झोंके से तुम्हारा आँचल एकाकी उड रहा था तब भी नहीं अपराह्न की ढलती हुई धूप में तुम्हारे मुख पर पसीने की बूँदे मोती के समान चमक रही थीं तब भी नहीं जाने किस बात पर आकाश को उद्भासित करते हुए जब तुम हँस पड़ी तब भी नहीं जब भोपू बजते ही सिर पर सन के रेशे लिपटाए हुए एक समुद्र ने एक-एक कर इश्तिहार पाने के लिए उठे हुए हाथों की तरंग में तुम्हें ढँक दिया जब तुम और दिखाई न दी तभी तुम अद्भुत सुंदर दिखाई पड़ी। मूल बंगला से अनुवाद : हरिशंकर शर्मा

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