हिन्दी शायरी, ग़ज़लें, नज़्में : शौकत थानवी

Hindi Poetry : Shaukat Thanvi


ख़्वाबे-आज़ादी

अपनी आज़ादी का देखा ख़्वाब मैने रात को याद करता हूं मैं अपने ख़्वाब की हर बात को मैने यह देखा कि मैं हर क़ैद से आज़ाद हूं यह हुआ महसूस जैसे ख़ुद मैं ज़िंदाबाद हूं जितनी थी पाबंदियां, वो ख़ुद मेरी पाबंद हैं वह जो माई-बाप थे हाकिम, वो सब फ़र्ज़ंद हैं मुल्क अपना, क़ौम अपनी, और सब अपने ग़ुलाम आज करना है मुझे आज़ादियों का एहतराम जिस जगह लिखा है ”मत थूको”, मैं थूकूंगा ज़रूर अब सज़ावार-ए-सज़ा होगा न कोई क़सूर इक ट्रेफिक के पुलिस वाले की कब है यह मजाल वो मुझे रोके, मैं रुक जाऊं, यही है ख़्वाबो-ख़याल मेरी सड़कें हैं तो मैं जिस तरह से चाहूं, चलूं जिस जगह चाहे रुकूं, और जिस जगह चाहे मरूं साईकल में रात को बती जलाऊं किसलिए ? नाज़ इस क़ानून का आख़िर उठाऊं किसलिए ? रेल अपनी है तो आख़िर क्यों टिकिट लेता फिरूं कोई तो समझाए मुझको यह तकक्लुफ़ उठाऊं किसलिए क्यों न रिश्वत लूं कि जब हाकिम हूं मैं सरकार का थानवी हरगिज़ नहीं हूं, अब मैं थानेदार हूं घी में चर्बी के मिलाने की है आज़ादी मुझे अब डरा सकती नहीं गाहक की बरबादी मुझे (फ़र्ज़ंद-बेटा)

वज़ीर का फ़र्मान

लोगो मुझे सलाम करो, मैं वज़ीर हूँ गर्दन के साथ ख़ुद भी झुको ,मैं वज़ीर हूँ गर्दन में हार डाल दो मैं झुक सकूँ अगर नारे भी कुछ बुलंद करो, मैं वज़ीर हूँ तुम हाथों हाथ लो मुझे दौरे पे आऊं जब मोटार के साथ साथ चलो मैं वज़ीर हूँ लिक्खे हैं शायरों ने क़साइद मिरे लिए एक आध नज़्म तुम भी कहो ,मैं वज़ीर हूँ जो मुझसे कहने आओ ,ख़बरदार मत कहना जो कुछ मैं कह रहा हूँ सुनो,मैं वज़ीर हूँ बेशक है बरहमी सी मिरी गुफ्तगू के बीच लेकिन इसे आदाब से सुनो,मैं वज़ीर हूँ अख़बार वालो सोच समझकर करो सवाल जूं शीशा मेरे मुंह न लगो,मैं वज़ीर हूँ मुझसे क़राबतों को बस अब भूल जाओ तुम ऐ मेरे भाई बंद गधो ,मैं वज़ीर हूँ मुझको तो मिल गई है ,विज़ारत की ज़िन्दगी मरते हो तुम अगर तो मरो, मैं वज़ीर हूँ

अगर ग़म तेरा ग़म है

अगर ग़म तेरा ग़म है तो कोई ग़म से रिहा क्यूँ हो जिसे हासिल हो तेरा क़ुर्ब वो तुझ से जुदा क्यूँ हो ये हस्ती-ओ-अदम क्यूँ हो फ़ना क्यूँ हो बक़ा क्यूँ हो तुम्हीं-तुम हो तो फिर दिल में ख़याल-ए-मा-सिवा क्यूँ हो वफ़ा में बे-वफ़ाई बे-वफ़ाई में वफ़ा कैसी वफ़ा हो तो जफ़ा क्यूँ हो जफ़ा हो तो वफ़ा क्यूँ हो नतीजा कुछ नहीं है शम्अ' के आँसू बहाने से ये सर्फ़-ए-बे-महल आशिक़ का आख़िर ख़ूँ-बहा क्यूँ हो तुम्हारी बेवफ़ाई क्या सनद है सारी दुनिया को हुए तुम बेवफ़ा तो उम्र मेरी बेवफ़ा क्यूँ हो ख़ुदा ना-कर्दा मैं और कामयाबी ग़ैर मुमकिन है जो बर आए किसी सूरत वो मेरा मुद्दआ' क्यूँ हो असर से दिल के बरहम क्यूँ निज़ाम-ए-दहर हो जाए हम इस से बे-वफ़ा क्यूँ हों वो हम से बा-वफ़ा क्यूँ हो सरासर ज़ुल्म है इस बात में तुम से गिला मेरा रिदा रक्खो जिसे तुम फिर वो ज़ुल्म-ए-ना-रवा क्यूँ हो यहीं तय्यार हैं जो कुछ कहो जो हुक्म फ़रमाओ हमारे जुर्म पर पाबंदी-ए-रोज़-ए-जज़ा क्यूँ हो यही काफ़ी है मरने के लिए ये भी बहाना है ज़रूरत क्या है आख़िर दर्द-ए-दिल उस से सिवा क्यूँ हो ज़बाँ ख़ामोश है लब बंद हैं हिम्मत शिकस्ता है दुआ से हाथ उठाए हैं तो अब कोई दुआ क्यूँ हो मैं खोना चाहता हूँ मद्द-ओ-जज़्र-ए-बहर में 'शौकत' वो साहिल-आश्ना कश्ती का मेरी ना-ख़ुदा क्यूँ हो

रुस्वा ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-तमन्ना

रुस्वा ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-तमन्ना नहीं हूँ मैं अपने उरूज पर अभी पहूँचा नहीं हूँ मैं नैरंग-ए-क़ैद-ए-हस्ती-ए-फ़ानी न पूछिए मरता हूँ रोज़ और कभी मरता नहीं हूँ मैं तासीर ही बयाँ में न हो जब तो क्या करूँ क्या अपना हाल उन को सुनाता नहीं हूँ मैं जो मुझ को देखते हैं तुझे देखते हैं वो शायद तिरी निगाह का पर्दा नहीं हूँ मैं काफ़ी है मुझ को इक नज़र इल्तिफ़ात-ए-दिल सरगर्म-ए-आरज़ू-ए-तमाशा नहीं हूँ मैं इतना ख़याल-ए-दोस्त ने बे-ख़ुद बना दिया पहरों अब अपने होश में आता नहीं हूँ मैं क्यूँ हँस रहे हैं मेरी हँसी पर सब ऐ जुनूँ क्या क़ाबिल-ए-मसर्रत-ए-दुनिया नहीं हूँ मैं बे-कार जानता हूँ फ़ुसून-ए-उमीद को ना-वाक़िफ़‌‌‌‌-ए-फ़रेब-ए-तमन्ना नहीं हूँ मैं मायूस हो चले हैं मलामत-गरान-ए-इश्क़ वो वक़्त है कि बात समझता नहीं हूँ मैं जल्वा ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ हो ऐ बर्क़-ए-हुस्न-ए-दोस्त मूसा का हम-ख़याल हूँ मूसा नहीं हूँ मैं 'शौकत' कशिश ज़रूर है इस जल्वा-गाह में मायूस-ए-जज़्ब-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा नहीं हूँ मैं

यहाँ जज़ा-ओ-सज़ा का

यहाँ जज़ा-ओ-सज़ा का कुछ ए'तिबार नहीं फ़रेब-ए-हद्द-ए-नज़र है उरूज-ए-दार नहीं निगाह-ए-लुत्फ़ में ग़म का मिरे शुमार नहीं ये ए'तिबार ब-अंदाज़-ए-ए'तिबार नहीं सुकून मौत ही अंजाम-ए-इज़्तिराब-ए-फ़िराक़ जिसे क़रार न आए वो बे-क़रार नहीं ख़बर नहीं कि खिले कितने फूल गुलशन में कि आज जैब-ओ-गरेबाँ में एक तार नहीं ख़ुदा के नाम पे दिल को सिपुर्द-ए-इश्क़ किया अब इस के बा'द उमीद-ए-मआल-ए-कार नहीं दो आतिशा न सही दर्द ही सही साक़ी जो उन में फ़र्क़ करे कुछ वो बादा-ख़्वार नहीं अब उस को आ के बुझाए कोई तो हम जानें ये दाग़-ए-दिल है चराग़-ए-सर-ए-मज़ार नहीं रहीन-ए-ऐश है ख़ू-कर्दा-ए-तमन्ना है वो बादा-ख़्वार जो सरगश्ता-ए-ख़ुमार नहीं ज़माना घूम रहा है मिरी निगाहों में मुझे क़रार नहीं तो कहीं क़रार नहीं न जा न जा कभी उस गुलशन-ए-तरब में न जा जुनूँ का नाम जहाँ मौसम-ए-बहार नहीं ज़माना मेरी तबाही पे जान दे देता मैं ख़ुद ही अपनी तबाही का सोगवार नहीं करिश्मा-साज़ी-ए-नैरंग-ए-हुस्न क्या कहिए हज़ारों अहद हैं और कोई उस्तुवार नहीं शब-ए-फ़िराक़ में अंदाज़-ए-हश्र है 'शौकत' अब इस के बा'द क़यामत का इंतिज़ार नहीं

ज़िंदा हूँ यूँ कि बस में मिरी

ज़िंदा हूँ यूँ कि बस में मिरी ख़ुद-कुशी नहीं आख़िर ये और क्या है अगर बेबसी नहीं वो दिल दिया नसीब ने जिस में ख़ुशी नहीं इक चीज़ तो मिली है मगर काम की नहीं हाँ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे जानता हूँ मैं तू सुब्ह तक रही तो मिरी ज़िंदगी नहीं हरगिज़ फ़रेब-ए-रंग-ए-मसर्रत न खाइए ये ग़म का नाम है ये हक़ीक़ी ख़ुशी नहीं दुनिया की ज़ीनतों में नहीं कोई भी कमी लेकिन मिरी नज़र में वो दिल-बस्तगी नहीं अरमान भी वहीं हैं तमन्ना भी है वही जिस दिल से थी ये गर्मी-ए-महफ़िल वही नहीं हँसने में भी निहाँ हैं यहाँ नाला-हा-ए-दर्द पामाल रस्म-ए-इज्ज़ मिरी बंदगी नहीं उम्मीद है जवाब-ए-ग़म-ए-आरज़ू मगर वो क्या करे जिसे कोई उम्मीद ही नहीं वा'दे ने तेरे सारे इरादे बदल दिए हालाँकि दर्द-ए-दिल में ज़रा भी कमी नहीं मैं हूँ कि मुझ से सारा ज़माना ख़िलाफ़ है हालाँकि जुर्म-ए-इश्क़ से कोई बरी नहीं इबरत-फ़ज़ा है अहल-ए-ज़माना के वास्ते 'शौकत' वो दास्ताँ जो किसी ने सुनी नहीं

हक़ीक़त सामने थी और हक़ीक़त से

हक़ीक़त सामने थी और हक़ीक़त से मैं ग़ाफ़िल था मिरा दिल तेरा जल्वा था तिरा जल्वा मिरा दिल था हुआ नज़्ज़ारा लेकिन यूँ कि नज़्ज़ारा भी मुश्किल था जहाँ तक काम करती थीं निगाहें तूर हाइल था रहा जान-ए-तमन्ना बन के जब तक जान-ए-मुश्किल था न थी मुश्किल तो उस के बा'द फिर कुछ भी न था दिल था नज़र बहकी हिजाब उट्ठा हुई इक रौशनी पैदा फिर उस के बा'द बचना क्या सँभलना सख़्त मुश्किल था हिजाब-ए-मासियत पर्दा ही किस के नूर-ए-इरफ़ाँ का कि जन्नत से जुदा रह कर भी मैं जन्नत में दाख़िल था बचा कर क्यूँ डुबोया ना-ख़ुदा ने इस सफ़ीने को इन्हीं मौजों में तूफ़ाँ था इन्हीं मौजों में साहिल था सुजूद-ए-बंदगी बे-कार इज्ज़-ए-इश्क़ ला-हासिल ये सच है मैं तिरे क़ाबिल न था तू मेरे क़ाबिल था हिक़ारत से जिसे ठुकरा दिया बरगश्ता शो'लों ने वही परवाना-ए-बे-कस फ़रोग़-ए-शम-ए-महफ़िल था निशान-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद जो आग़ाज़ में पाया वही सहरा-ब-सहरा था वही मंज़िल-ब-मंज़िल था सफ़ीना डूबने के बा'द इन बातों से क्या हासिल जो दरिया था तो दरिया था जो साहिल था तो साहिल था वो मेरे पास था 'शौकत' तो मैं ने क्यूँ नहीं देखा जो वो मेरे मुक़ाबिल था तो मैं किस के मुक़ाबिल था

कौन सा जादू है यारब

कौन सा जादू है यारब उस निगाह-ए-नाज़ में देखता हूँ जब तो पाता हूँ नए अंदाज़ में मौत थी मेरे लिए तेरी निगाह-ए-नाज़ में ज़िंदगी का राज़ था तेरे लब-ए-एजाज़ में साफ़ तस्वीरें नज़र आती हैं हुस्न-ओ-इश्क़ की तुझ को मेरे इज्ज़ में और मुझ को तेरे नाज़ में अपने ज़िंदाँ को उड़ा कर बाग़ में ले जाएँ हम लेकिन अब ताक़त कहाँ इतनी पर-ए-पर्वाज़ में

हो राहज़न की हिदायत

हो राहज़न की हिदायत कि राहबर के फ़रेब मिरी निगाह ने खाए नज़र नज़र के फ़रेब ये बुत-कदे ये कलीसा ये मस्जिदें ये हरम ये सब फ़रेब हैं और एक संग-ए-दर के फ़रेब समझ रहे थे कि अश्कों से होगा दिल हल्का न जानते थे कि हैं ये भी चश्म-ए-तर के फ़रेब पता चला कि हर इक गाम में थी इक मंज़िल खुले हैं मंज़िल-ए-मक़्सूद पर सफ़र के फ़रेब इन्हीं का नाम मोहब्बत इन्हीं का नाम जुनूँ मिरी निगाह के धोके तिरी नज़र के फ़रेब

इसी का नाम है दीवाना बनना

इसी का नाम है दीवाना बनना और बना देना बुतों के सामने जा कर ख़ुदा का वास्ता देना निगाह-ए-शौक़ का बढ़ कर नक़ाब-ए-रुख़ उठा देना तिरे जल्वे का बरहम हो के इक बिजली गिरा देना ख़ुदाई ही ख़ुदा की ख़ाक से इंसाँ बना देना तुम्हारा खेल है इंसाँ को मिट्टी में मिला देना मैं अपनी दास्तान-ए-दर्द-ए-दिल रो रो के कहता हूँ जहाँ से चाहना तुम सुनते सुनते मुस्कुरा देना मज़ाक़-ए-शिकवा अच्छा है मगर इक शर्त ही ऐ दिल यहाँ जो याद कर लेना वहाँ जा कर भुला देना वफ़ा बे-शक जफ़ाओं का बदल है लेकिन ऐ ज़ालिम बहुत मुश्किल है मुझ से रोने वाले को हँसा देना ज़बाँ को शिकवा-संजी का मज़ा ही बात कहने दो मैं तुम से ये नहीं कहता कि तुम दाद-ए-वफ़ा देना यही मा'नी हैं ऐ 'शौकत' बुलंद-ओ-पस्त के शायद निगाहों पर चढ़ाना और नज़रों से गिरा देना

सच है इन को मुझ से क्या

सच है इन को मुझ से क्या और मेरे अफ़्साने से क्या कर दिया दीवाना तो अब काम दीवाने से क्या इश्क़ का आलम जुदा है हुस्न की दुनिया जुदा मुझ को आबादी से क्या और तुम को वीराने से क्या मेरी हैरत इस तरफ़ है तेरी ग़फ़लत उस तरफ़ देखिए दीवाना अब कहता है दीवाने से क्या शम्अ' की लौ है तो उस का रुख़ भी है सू-ए-फ़लक रौशनी उड़ जाएगी मेरे सियह-ख़ाने से क्या फिर हरम में हो रहा है इम्तिहान-ए-अहल-ए-दिल सज्दा-हा-ए-मासियत ले आऊँ बुत-ख़ाने से क्या जिस तरह गुज़री है अब तक अब भी गुज़रेगी यूँही हम नहीं बदले तो दुनिया के बदल जाने से क्या मय-कदा से ख़ुम में आई ख़ुम से शीशे में ढली मय मिरे लब तक न आ जाएगी पैमाने से क्या आलम-ए-हस्ती में क्यूँ लाई है ऐ उम्र-ए-रवाँ ऐसे वीराने की रौनक़ ऐसे दीवाने से क्या दीन इधर दुनिया उधर और बीच में वाइ'ज़ का वा'ज़ फेर लें 'शौकत' नज़र हम अपनी पैमाने से क्या

दैर में है वो न का'बे में

दैर में है वो न का'बे में न बुत-ख़ाने में है ढूँढता हूँ जिस को मैं वो मेरे काशाने में है ये तिरा हुस्न-ए-तसव्वुर तेरे काशाने में है तू न आबादी में है ग़ाफ़िल न वीराने में है है बजा-ए-ख़ुद ज़माना बेकसी में मुब्तला अब मुरव्वत का निशाँ अपने न बेगाने में है उस की हसरत देखिए उस का कलेजा देखिए राज़ जिस की ज़िंदगी का उस के मर जाने में है अस्ल में ऐ शम्अ' तू है मख़ज़न-ए-सोज़-ओ-गुदाज़ तुझ से जो कुछ बच रहा वो सोज़ परवाने में है मुझ को जन्नत से कोई मतलब न कौसर से ग़रज़ मेरे हिस्से की वही मय है जो पैमाने में है रौशनी तारों से होती है न शम्ओं' से ज़िया क्या ज़माने की सियाही मेरे ग़म-ख़ाने में है मैं नहीं कहता मगर मैं ने सुना है बारहा जन्नत-उल-फ़िरदौस की इक राह मयख़ाने में है मैं जो रोता हूँ तो रोता है ज़माना मेरे साथ ग़म ज़माने-भर का 'शौकत' मेरे अफ़्साने में है

फ़रेब-ए-ज़ौक़ को हर रंग में

फ़रेब-ए-ज़ौक़ को हर रंग में अयाँ देखा जहाँ जहाँ तुझे ढूँढा वहाँ वहाँ देखा वही है दश्त-ए-जुनूँ और वही है तन्हाई तिरे फ़रेब को ऐ गर्द-ए-कारवाँ देखा है बर्क़ को भी कोई लाग ना-मुरादों से गिरी तड़प के जहाँ उस ने आशियाँ देखा जुनूँ ने हाफ़िज़ा बर्बाद कर दिया अपना कुछ अब तो याद नहीं है किसे कहाँ देखा अजब ये दिल है जिसे बावजूद तन्हाई घिरा हुआ तिरे जल्वों के दरमियाँ देखा वहीं वहीं तिरे जल्वों ने आग भड़काई जहाँ जहाँ कोई बे-नाम-ओ-बे-निशाँ देखा तिलिस्म-ए-सोज़-ए-मोहब्बत की गर्मियाँ तौबा कि हम ने अश्क के पानी में भी धुआँ देखा गली में उन की क़दम रख के सख़्त हैराँ हूँ यहाँ ज़मीं को भी हम-रंग आसमाँ देखा लगा दी जान की बाज़ी ग़म-ए-मोहब्बत ने जब उन के हुस्न का सौदा बहुत गराँ देखा हज़ार बार सुने हम ने इश्क़ के नाले मगर किसी ने जो देखा तो बे-ज़बाँ देखा

ग़म में हर लब पे वही आह

ग़म में हर लब पे वही आह-ओ-बुका आती है मुख़्तलिफ़ साज़ हैं और एक सदा आती है हो के ज़िंदाँ से जो गुलशन की हवा आती है और दीवानों को दीवाना बना आती है पस्त होती है जहाँ अहल-ए-दिला की हिम्मत उस जगह काम ग़रीबों की दुआ आती है मुझ से हर हाल में अच्छा है तसव्वुर मेरा कम से कम आप की तस्वीर बना आती है जब जफ़ाओं से पड़ा काम तो सब भूल गए नाज़ था हम को कि हम को भी वफ़ा आती है दिल है या साज़-ए-शिकस्ता है न जाने क्या है एक से एक ख़ुश-आइंद सदा आती है फ़ुर्सत इतनी नहीं मिलती कि कभी ग़ौर करें वर्ना हर दर्द की ख़ुद हम को दवा आती है जाम-ए-सरशार इधर है मैं हूँ तौबा है उधर और इधर का'बे से इक मस्त घटा आती है दिन निकलता है तो आती है मुझे रात की याद रात आती है तो इक ताज़ा बला आती है इस तरफ़ पा-ए-शिकस्ता में नहीं ताब-ए-सफ़र उस तरफ़ कान में आवाज़-ए-दरा आती है दिल में जो आग भड़कती है बुझाती है वो आँख ख़ूब दोनों को लगा और बुझा आती है आप गुमराह है 'शौकत' मिरी वहशत लेकिन रास्ता भूलने वालों को बता आती है

अब बा'द-ए-फ़ना किस को बताऊँ

अब बा'द-ए-फ़ना किस को बताऊँ कि मैं क्या था इक ख़्वाब था और ख़्वाब भी ता'बीर-नुमा था अब तक वो समाँ याद है जब होश-ब-जा था हर शय में मुझे लुत्फ़ था हर शय में मज़ा था तुम जौर-ओ-जफ़ा मुझ पे न करते तो बुरा था होते न अगर ज़ुल्म तो क्या लुत्फ़-ए-वफ़ा था कुछ याद हैं आग़ाज़-ए-मोहब्बत की वो बातें और भूलने वाले यही पैमान-ए-वफ़ा था मौक़ूफ़ है दीदार फ़क़त ज़ौक़-ए-नज़र पर अक्सर के लिए तूर के शो'लों में ख़ुदा था यूँ मौत पे मैं जान को क़ुर्बान न करता तू ने मुझे शायद कोई पैग़ाम दिया था हस्ती-ओ-अदम दोनों हम-आग़ोश थे गोया तस्वीर का इक रुख़ था फ़ना एक बक़ा था मतलूब के दिल में भी तलब थी मिरी 'शौकत' देखा उसे मैं ने तो मुझे देख रहा था

जो हम अंजाम पर अपनी नज़र

जो हम अंजाम पर अपनी नज़र ऐ बाग़बाँ करते चमन में आग दे देते क़फ़स को आशियाँ करते अजल कम्बख़्त आती है नहीं दर पर तिरे वर्ना हम ऐसी मौत पर भी ज़िंदगानी का गुमाँ करते सही इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ लेकिन ये मुसीबत है न करते सज्दा तेरे दर पर आख़िर तो कहाँ करते हमें दैर-ओ-हरम में क़ैद रक्खा बद-नसीबी ने जहाँ सज्दे की गुंजाइश न थी सज्दा वहाँ करते उड़ा लाती हवा जो कुछ ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-ज़िंदाँ में उन्हीं तिनकों पे हम अपने नशेमन का गुमाँ करते ये ऐ फ़िक्र-ए-रिहाई किस बला में हम को ला डाला क़फ़स में दहके आज़ादी से ज़िक्र-ए-आशियाँ करते

शेर

धोका था निगाहों का मगर ख़ूब था धोका मुझ को तिरी नज़रों में मोहब्बत नज़र आई हमेशा ग़ैर की इज़्ज़त तिरी महफ़िल में होती है तिरे कूचे में जा कर हम ज़लील-ओ-ख़्वार होते हैं इन ही का नाम मोहब्बत इन ही का नाम जुनूँ मिरी निगाह के धोके तिरी नज़र के फ़रेब हम ने ये माना कि पैदा हो गया खाएगा क्या घर में दाने ही न पाएगा तो भुनवाएगा क्या

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