हिन्दी ग़ज़लें : संदीप ठाकुर

Ghazals in Hindi : Sandeep Thakur



ज़िंदगी का भरोसा क्या कब ख़त्म है

ज़िंदगी का भरोसा क्या कब ख़त्म है आँख झपकी ज़रा और सब ख़त्म है छोड़ आदत सफ़र की चलेगा कहां आ गईं मंज़िलें राह अब ख़त्म है फिल्मी किरदार हूं जानता हूँ मिरा रोल कब से शुरू और कब ख़त्म है आख़िरी काँल भी काट दी कह के ये अब मिरे आप के बीच सब ख़त्म है मैंने नोटिस किया है कई शाम से जाम सिगरेट कश की तलब ख़त्म है

ग़ज़ल कह गई सब इशारे में देखो

ग़ज़ल कह गई सब इशारे में देखो सभी शेर थे उनके बारे में देखो परत दर परत खुल रही है कहानी नज़ारे कई हर नज़ारे में देखो चिराग़ों सा रोशन है रेशम का कुर्ता ग़ज़ब ढा रही हो शरारे में देखो मुझे कितने समझौते करने पड़े हैं बड़ी मुश्किलें हैं गुज़ारे में देखो बनावट अदाकारी से ऊबते हैं यही इक कमी है हमारे में देखो ख़ुशी ग़म वफा दुश्मनी बेवफ़ाई है सब ज़िंदगी के पिटारे में देखो ज़रा लंबी है रात पर रात ही है झलक धूप की हर सितारे में देखो

पूछता है दिल मोहब्बत के जहां का क्या हुआ

पूछता है दिल मोहब्बत के जहां का क्या हुआ उस शहर का उस गली का उस मकां का क्या हुआ लहलहाते शोख पेड़ों वाली धरती क्या हुई टिमटिमाते तारों वाले आस्मां का क्या हुआ मर चुका किरदार अपना मै निभा के दोस्तों क्या पता अंजाम मुझ को दास्तां का क्या हुआ गुम मुसाफ़िर गुम हैं रहबर गुम निशां क़दमों के सब राह ही बस जानती है कारवां का क्या हुआ फ़ैसले पर अपने पछताओगे है मुझ को यक़ीं जब वहां जा कर सुनोगे तुम यहां का क्या हुआ

रात-दिन रोने से भी कुछ बात बन पाई कहाँ

रात-दिन रोने से भी कुछ बात बन पाई कहाँ ख़ूब बरसीं आंख पर पर बरसात बन पाई कहाँ चांद तारे पेड़ दरिया सब बनाने ही पड़े कैनवस पे सिर्फ काली रात बन पाई कहाँ ढल न पाई सोच जब तक मिट्टी में कुम्हार की चाक तो घूमा बहुत पर बात बन पाई कहाँ देख कर मैं भी तुझे अन-देखा कर देता मगर फिर मिलन की सूरते हालात बन पाई कहाँ इक दिखावा थी मुहब्बत बस दिखावा ही रही झूठी हमदर्दी कभी जज़्बात बन पाई कहाँ पड़ गईं सब चाल उल्टी प्यार की शतरंज में मेरे दिल की कोई भी शह मात बन पाई कहाँ

दो दिलों में तनातनी क्यों है

दो दिलों में तनातनी क्यों है प्यार के बीच दुश्मनी क्यों है बंद है बातचीत तक सोचो सूरते हाल ये बनी क्यों है मेरा हर दिन उदास सा क्यों है तेरी हर रात अनमनी क्यों है मुंतज़िर मंज़िलों ने पूछ लिया पांव की राह से ठनी क्यों है गर इसे सांवला नहीं होना धूप बदली से फिर छनी क्यों है रात भर गूंजता है सन्नाटा हर तरफ एक सनसनी क्यों है गिर गई सारी पत्तियां फिर भी छांव इस पेड़ की घनी क्यों है ढल गया चांद रात बीत गई पर मेरी छत पे चांदनी क्यों है

कह न पाया आदतन तो और कुछ

कह न पाया आदतन तो और कुछ चाहता था पर ये मन तो और कुछ उसकी अंगूठी उसे लौटा मगर अपनी उंगली में पहन तो और कुछ बस गले लग कर अलग हो ही गये चाहते थे तन-बदन तो और कुछ छोड़ते हैं पेड़ कब अपनी ज़मीं है परिंदों का चलन तो और कुछ शायरी से कुछ न होगा याद कर बोली थी वो पहले बन तो और कुछ कस दिया तुम ने इन्हें धागे से पर चाहते थे ये बटन तो और कुछ

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