हिन्दी कविताएँ : रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

Hindi Poetry : Rameshwar Nath Mishra 'Anurodh'



1. जय जननी जय भारत माता

जय जननी जय भारत माता । हरे-भरे वन-पर्वत शोभित मोहित विश्व -विधाता । कलकल करती बहतीं नदियाँ गुणगण गायन करतीं सदियाँ सर्व सौख्य -संपन्न धन्य यह धरती -शौर्य -प्रदाता । जय जननी, जय भारत माता ।। सत्वशील सत्-तत्पर सब नर व्यवहारी, गुणग्राही, श्रुतिधर नीतिनिष्ठ, बहु शास्त्र -विज्ञ, अति वत्सल, यश-रस -ज्ञाता । जय जननी जय भारत माता ।। युद्ध -दक्ष, ध्रुवबुद्धि, प्रियंवद नृत्य -गीति-प्रिय, प्रीति -वशंवद जनवल्लभ, दुर्वृत्ति-विवर्जित क्रियाकृती, सारज्ञ, प्रदाता । जय जननी, जय भारत माता ।।

2. तुलसी तुमको सौ बार नमन

हे काव्य-सूर्य ! हे कविकुल गुरु ! संस्कृति संरक्षक ! शोक-शमन ! हे संतशिरोमणि ! भक्त प्रवर तुलसी ! तुमको सौ बार नमन ।। तुमने निज मानस मंथन से जो प्राप्त किया मोती महान, वह 'रामचरित' बन चमक रहा, ज्योतित जिससे सारा जहान । हे देवदूत ! हे तपःपूत ! सक्षम सपूत ! तारक तुलसी ! तुमसे भारत-भू धन्य हुई, तुमको पाकर 'हुलसी' हुलसी ।। तेरा विचार आचार बना, आदर्श बना नूतन विधान, हे युगदृष्टा ! हे युग स्रष्टा ! हे युग नायक ! हे युग-निधान ! बहु भेद-भाव की ज्वाला से मानवता को सहसा निकाल, तुमने अमृत का दान किया, हो गया विश्व मानव निहाल । हे भारत माँ के मणिकिरीट ! तुमने, पशुता का किया दमन । हे संतशिरोमणि ! भक्त प्रवर तुलसी ! तुमको सौ बार नमन ।। सम्पूर्ण वेद, उपनिषद, धर्म-शास्त्रों का लेकर सरस सार, मानस का करके महत सृजन निज संस्कृत ली तुमने उबार । दासता - दंश से दीन, देश जड़ता से था प्रस्तरी भूत, उसका तुमने उद्धार किया हे पुण्यात्मा ! हे सुधा- स्यूत ! बरसा कर चिंतन - विमल वारि, हर कर जग का दारुण प्रदाह, हे युग के मनु !तुमने दे दी, जन को दे दी जीने की नयी राह । तव मानस से जन-मानस की, नस - नस में भरकर रस अपार फूटी करुणा की कालिन्दी, टूटीवीणा के जुड़े तार । मिट गए द्वेष, लुट गए पाप, उत्फुल्ल हुए सब जड़-चेतन । हे संतशिरोमणि ! भक्त प्रवर तुलसी ! तुमको सौ बार नमन ।। हे जन के कवि ! जन हेतु रचा जो तुमने यह मानस महान, उसमें संचित है भाव भव्य, रस, रीती, नीति, परमार्थ ज्ञान । उसमें से निकली रामभक्ति की सुर-गंगा की अमियधार, बह गए कलुष-कर्दम के गिरी, जन -जीवन में आया निखार। श्री राम नाम का गूँज उठा, मानव-उद्धारक महामंत्र, हो गए गगन, नक्षत्रपुंज, दिग औ' दिगन्त सहसा स्वतंत्र । चहुँ ओर समन्वय - समता का लहराया तेरा द्वाज सहर्ष, सहसा विशिष्ट हो गया शिष्ट इस धरती पर, अजनाभवर्ष । हे कव्य - कला के कलित कुञ्ज ! विज्ञानं - ज्ञान के चारु चमन । हे संतशिरोमणि ! भक्त प्रवर तुलसी ! तुमको सौ बार नमन ।। तुमने देखा जो रामराज्य का स्वप्न सुखद, आलोक वरण, बन गया वही इस जगती के साधन का पुरश्चरण । उसको पाने के लिए सतत गतिशील यहाँ पर लोकतंत्र, बस 'राम-राज्य' स्थापन ही बन गया विश्व का मूल-मंत्र । अधुनातन सकल समस्या का प्रस्तुत जिसमें समुचित निदान, जो शक्ति, शील, सौन्दर्य, मनुज-मर्यादा का मोहक वितान । जो है जीवन का श्रेय, प्रेय, नव-रस, यति, गति, लय, ताल, छन्द, त्रयताप - शाप से पूर्ण मुक्ति, कल्याण-कलित, अविकल अमन्द । जो है मानवता का गौरव, भू-मण्डल का है शांति - अमन । हे संतशिरोमणि ! भक्त प्रवर तुलसी ! तुमको सौ बार नमन ।।

3. हमें प्रकाश चाहिए

हमें प्रकाश चाहिए, हमें प्रकाश चाहिए, हमें प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए । जो घोर अन्धकार में नयी किरन को घोल दे, जो नींद से मुंदे हुए सहस्त्र नेत्र खोल दे, जो मौन है उन्हें ज्वलन्त दर्पदीप्त बोल दे, जो डग यहाँ रुके हुए उन्हें सहर्ष डोल दे, जो ला सके नया विहान वो उजास चाहिए, हमें नवीन सूर्य का नया उजास चाहिए, हमें उजास चाहिए, नया उजास चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए ।। कि जो विलासपूर्ण जिन्दगी के छोड़ मोह को, स्वदेश के लिए वरे विराट राजद्रोह को, करे न भूल कर जो उफ़, भरे आह-ओह को, कि जो समान मानता हो गेह और खोह को जो दुःख में रहे अडोल वो हुलास चाहिए, हमें असीम आस का नया हुलास चाहिए, हमें हुलास चाहिए, नया हुलास चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए ।। कि जो स्वदेश की गुहार पर तुरन्त आ सके, जो तोड़ व्यूह शत्रु का समुद्र पार जा सके, कि जो अकुंठ कंठ से अमर्त्य गान गा सके, कि लोक में अशोक स्वाभिमान को जगा सके, जो दे सके नया विधान वो सुभाष चाहिए, हमें प्रदीप्त प्राण का नया सुभाष चाहिए, हमें सुभाष चाहिए, नया सुभाष चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए ।। कि जो स्वदेश के लिए स्वदेह को घुला सके, दधीचि-सा स्वमृत्यु को स्वयं यहाँ बुला सके, बना विशाल फ़ौज को जो शत्रु को रुला सके, जिसे कभी नहीं स्वदेश भूलकर भुला सके जो ला सके वसंत मास वो विकास चाहिए, हमें समस्त देश का नया विकास चाहिए, हमें विकास चाहिए, नया विकास चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए ।। हमें जो दे अमेय राम विश्वमित्र ज्ञान से, हमें जो दे अजेय पार्थ द्रोण स्वाभिमान से, हमें जो दे सुचारू चन्द्र विष्णुगुप्त ज्ञान से, हमें जो दे सके प्रताप विप्र प्राण दान से जो दे सके हमें शिवा वो रामदास चाहिए, हमें समर्थ गुरु महान रामदास चाहिए, कि रामदास चाहिए, कि रामदास चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए ।। जिसका है ताप सूर्य में औ शीत सोम-सोम में, जिसके स्वदेश प्रेम का समुद्र रोम - रोम में, जिसकी अडोल आस्था अनन्त ओम-ओम में, जिसकी मशाल प्रज्वलित तमस्त्रि तोम-तोम में, जो व्योम को कंपा सके वो अट्टहास चाहिए . हमें भावेश रूद्रकामहाट्टहासचाहिए महाट्टहास चाहिए, महाट्टहास चाहिए । हमेंप्रकाश चाहिए, नया प्रकाशचाहिए ।। जिनके कुकर्म से स्वदेश आज खंड - खंड है, नीच - चोर बोलता अभीत अंड - बंड है जो राम के नहीं हराम के प्रचण्ड भंड है जो रीति - नीति से सदा अविज्ञ जंड-शंड है उनको करे द्विखंड जो वो सुर्यहास चाहिए विराट देश को, विराट सूर्यहास चाहिए कि सुर्यहास चाहिए, सुर्यहास चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, , नया प्रकाश चाहिए ।। जो आज ढोंग से अरे, बने हुए महान हैं, जो है प्रचण्ड भ्रष्ट, किन्तु देश में प्रधान है, जिनके कठोर हाथ में अपंग संविधान है, जिनसे स्वदेश आज हो रहा लहुलुहान है उनका करे विनाश जो वो सर्वनाश चाहिए, हमें अनीति का तुरंत सर्वनाश चाहिए, कि सर्वनाश चाहिए, कि सर्वनाश चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, नया प्रकाश चाहिए ।। कि चाहिए हमें कराल कलिका दिगम्बरा, शत्रु - मान - मर्दिनी, कपर्दिनी चिदम्बरा, कि चाहिए दुर्गावती, प्रभावती, प्रमद्वरा, महान ज्ञान मंडिता सुपंडिता ऋतंभरा, कि जो बेडौल पत्थरों को देव रूप दे सके, वो सं' तराश चाहिए, वो सं' तराश चाहिए कि सं' तराश चाहिए, कि सं' तराश चाहिए । हमें प्रकाश चाहिए, , नया प्रकाश चाहिए ।।

4. अगर किसी का साथ मिले तो

अगर किसी का साथ मिले तो अपना जीवन भी सरगम हो । दुनिया भर का भी ग़म कम हो ।। जिसके दर्शन से आँखों की हो जाती है दूर पिपासा । उल्टे पाँव भगा करती है चिंताओं से पूर्ण निराशा । सच कहता मैं खोज रहा हूँ बहुत दिनों से ऐसा उपवन; मिले जहाँ वह फूल कि जिसके सौरभ से जीवन गमगम हो । दुनिया भर का भी ग़म कम हो ।। अपनी अभिरुचि संवादों में जो सार्थक उल्लास भरे हों । अपनी पटरी उन लोगों से जो सच्चे संपूर्ण खरे हों । जो खटराग अलापा करते उनसे क्या अपना लेना है; मैं तो उनको चाह रहा हूँ जिनकी बातों में दमखम हो । दुनिया भर का भी ग़म कम हो ।। जब सुनसान अकेलेपन में अंतर में जलती है धूनी । मन में उद्वेलन होता है, तन्हाई खलती है दूनी । जी कहता तब और नहीं कुछ, अपना भी कोई साथी हो ; खुशियों के नूपुर की मीठी कानों में बजती छमछम हो । दुनिया भर का भी ग़म कम हो ।। अपनी तो हर चीज सहज है, सरल सहजता जीवन -निधि है । इसके सिवा नहीं कह सकता जीवन की क्या और प्रविधि है । ग़म खाना औ' कम खाना ही, मैंने तो अब तक सीखा है; चाहा है अपना यह जीवन दुख के तम में भी उत्तम हो । दुनिया भर का भी ग़म कम हो ।। न जाने कब मीत मिलेगा? मन की मंशा होगी पूरी कब उर पुर में शांति बसेगी? पूरी होगी चाह अधूरी । एक वियोगिन आशा लेकर मैं बैठा हूँ आँख बिछाये; जाने कब चाँदनी खिलेगी? पूनम से जीवन चमचम हो । दुनिया भर का भी ग़म कम हो

5. सौंदर्य

रमणी मणी-सी चली अलि की अनी समेत, पाँव में लगे हैं जनु जावक उमंग के । उड़-उड़, मुड़-मुड़ झाँकती-सी जाती खिली, सुख की डली-सी, सुर मदन - मृदंग के । मंजुल उरोज ज्यों सरोज सुषमा के द्वय, अथवा मनोज के सुलेख हैं प्रसंग के । किंवा किलोल करें चपल हरेक पल, कंचुक सुनीड़ में सुशावक विहंग के ।

6. नशा

नशा नाश का प्रतीक, नशा से सुदूर रहें; नशा में जो फँसा उसे मरा हुआ मानिए । तन जाय, धन जाय, सुमन-सा मन जाय; नशा-ग्रस्त को विवस्त्र, साँप डसा जानिए । नशा शान-मान से नशेड़ी को विहीन करे, दीन करे, नशा के विरुद्ध युद्ध ठानिए । नशा कर्कशा-सा कराल काल के समान, नशा पे तुरंत उग्र तीक्ष्ण तीर तानिए ।

7. तन्वी

छमछम छमक, छमक छम पग धरे; हरे उर-शूल को समूल दृग - तीर से । भूषण-वसन मन-प्राण, भूख-प्यास हरें, चीर - चीर देती धीर चीर के समीर से । वचन अशन सम, जीवन पीयूषपूर्ण; अधर मधुर रसपूर जनु खीर से । हेर-हेर हँसती तो ढेर-ढेर फूल झरे, तन्वी सुगंध ढरे सुतनु उसीर से ।

8. आरक्षण

आरक्षण इस देश की सबसे भारी भूल । यह आपस की एकता को काटता समूल ।। आरक्षण अभिशाप है, आरक्षण है आग । दंगों से भी है बुरा, संविधान पर दाग ।। दावानल - जैसी सखे! आरक्षण की आग । आपस के सौहार्द को डसने वाला नाग ।। यह लालच का रास्ता, महाफूट का बीज । यह अक्षमता की सनद, महाअपावन चीज ।। यह अविनय की अकड़ है, अड़ियलपन है, ऐंठ। यह अक्षम की धाँधली, सत्ता में घुसपैठ ।

9. शब्दहीनता को तोड़ने के लिए

पता नहीं क्यों आज फिर सूरज बहुत उदास है ? हवा खामोश, सड़कें सूनी और गलियाँ वीरान हैं ? पता नहीं क्यों फिर नुकीली चोंचों और तेज पंजोंवाले गिद्धों से बदरंग हो गया है नीलम-सा आकाश ? रुक गया है उल्लास मुखर वृक्षों की हरियल पत्तियों का मनोहर संगीत ? बंद हो गया है हीरे-से झिलमिलाते हिमकण के दर्पण में तितलियों का अपना रंग-रूप निहारना ? सिमट गये हैं घोसलों के घेरों में गगन-विहारी पक्षियों के रंग-बिरंगे पंख ? लगता है, फिर किसी निर्दोष का सिर धड़ से अलग कर दिया गया है, या फिर किसी बस को रोक कर भून डाला गया है एक विशेष समुदाय के लोगों को, या फिर रोजी-रोटी की तलाश में निकले कुछ लोग सिरफिरी गोलियों के शिकार हो गये हैं। जानता हूँ आतंकवाद को जिन्दगी से नफरत और मौत से प्यार है। उसे किसी का बोलना पसंद नहीं, उसके राज्य में स्वच्छंदता और अमन - चैन पर पाबंदी है, देशभक्ति और कर्तव्यनिष्ठा जघन्य अपराध हैं, एकता की बात करना सबसे बड़ा पाप है । यह भी जानता हूँ कि आतंकवाद अपने-पराये में फर्क नहीं करता, आतंकवाद का अन्तिम लक्ष्य शाश्वत आतंक है, भय की मानसिकता का निर्माण है, भय - दोहन है, वातावरण की शब्दहीनता का शिलान्यास है । मित्रो ! बड़ा घातक होता है वातावरण का शब्दहीन होना । शब्दहीनता : मानवीय संवेदना की मृत्यु का संसूचक है, मरघट का सन्नाटा है, अन्याय से जूझनेवाले जीवट का गहरे अवचेतन में चला जाना है । शब्दहीनता : वस्तुत :मूल्यहीनता का पर्याय है, समाज के कायर होने की पहचान है, आतंकवाद की मूक स्वीकृति का संधि -पत्र है । इसलिए दोस्तो ! आओ शब्दहीनता को तोड़ने के लिए एक जुट हो संघर्ष करें, जिससे कि सूरज पहले की तरह फिर मुस्काता हुआ निकले, हवा नवेली दुल्हन - सी पैंजनी बजाती आये, कालेज जाती लड़कियों -सी पेड़ों की पत्तियाँ पहले के मानिन्द गुनगुनाएँ, पक्षियों के इंद्रधनुषी पंख पहले के मानिन्द आकाश की ऊँचाई नापें, और कोई निर्दोष व्यक्ति आतंक के हाथों फिर मरने न पाये । हाँ, हाँ मुझे मालूम है आतंकवाद हिरण नहीं भेड़िये पालता है, वह अन्न नहीं नर-माँस खाता है, जल नहीं वह नर-रक्त पीता है, उसका मुस्कान नहीं, रुदन से रिश्ता है, वह लहलहाते मैदान को रेगिस्तान बनाना चाहता है । फिर भी दोस्तो ! आओ इस शब्दहीनता को तोड़ने के लिए आवाज उठायें, एकजुट हो संघर्ष करें, जिससे कि सूरज पहले की तरह फिर मुस्कराता हुआ निकले, हवा नवेली दुल्हन -सी पैंजनी बजाती आये ।

10. मेरी बूढ़ी माँ

मेरे घर की शान है मेरी बूढ़ी माँ । घर भर की पहचान है मेरी बूढ़ी माँ । उसके रहने से हर काम सँवरता है, दुर्लभतम वरदान है मेरी बूढ़ी माँ । घर की इज्जत हरदम ढक कर रखती है, अति उज्जवल परिधान है मेरी बूढ़ी माँ । तोरण जैसी है घर के दरवाजे पर, मंगलमय अभियान है मेरी बूढ़ी माँ । दर्प नहीं, न ढोंग, न व्यर्थ दिखावा है, विनय भरा अभिमान है मेरी बूढ़ी माँ । घर की उन्नति घर का वैभव, घर में स्वर्ग, घर का सब अरमान है मेरी बूढ़ी माँ । शिष्टाचार उसी से हमने सीखा है, श्रुति का सम्यक ज्ञान है मेरी बूढ़ी माँ । वत्सलता की मूर्ति, दया की देवी है, ताल-मेल-लय-तान है मेरी बूढ़ी माँ । जाने क्या-क्या झेल के हमको पाला है, अनजाना अवदान है मेरी बूढ़ी माँ । सबके आंसू अपनी ममता से हारती है, हम सबकी मुस्कान है मेरी बूढ़ी माँ । न जाने वह किस-किस रूप में मुझमे है, मेरा अनुसन्धान है मेरी बूढ़ी माँ । हर उलझन की सुलझन जैसी दिखती है, शास्त्रों का व्याख्यान है मेरी बूढ़ी माँ । मेरा रामेश्वर, काशी, द्वारकापुरी, राम, कृष्ण भगवान है मेरी बूढ़ी माँ । मेरा जीवन सर्जन-अर्जन माँ ही है, मेरा यश-सम्मान है मेरी बूढ़ी माँ ।

11. मैंने भी अब सीख लिया है

हर अवसर से लाभ उठाना, मैंने भी अब सीख लिया है आदर्शों को बिकते देखा खुले आम जब बाजारों में सम्बन्धों के सिक्के चलते देखा जब जग व्यापारों में शुद्ध स्वार्थ के विश्व बैंक में लोगों की लख गहमागहमी सम्बन्धों के चेक भुनाना मैंने भी अब सीख लिया है नेताओं को फिरते लख कर, थोक वोट के गलियारों में नाच दिखाते जाति, धर्म, भाषा के संकरे चौबारों में सच कहता हूँ न्याय-निति तज सत्ता की खातिर जनता को बहकाना या तो भड़काना मैंने भी अब सीख लिया है मान-पत्र जब पाते देखा देश धर्म के गद्दारों को जनता की किस्मत का निर्णय करते देखा मक्कारों को लोकतंत्र की इस मिटटी में अधिकारों की फसल उगी तो अपनी एक पहचान बनाना मैंने भी अब सीख लिया है

12. अवधारणा

फाँसी पर चढ़नेवाला हरएक व्यक्ति शहीद भगत सिंह नहीं होता, गोली खाकर मरनेवाला हरएक मानव महात्मा गांधी नहीं होता, अपने कंधे पर अपना सलीब उठाकर चलनेवाला हरएक मनुष्य ईसा या मसीहा नहीं होता । बिना सोचे - समझे उपाधि देनेवालो! हाथ में सत्तू लगाने मात्र से कोई भंडारी नहीं कहला सकता । इसके लिए करना होगा त्याग रचना होगा शील आचरण में उतारना होगा कोई महान आदर्श महान संकल्प कोई महाकाव्य - सी अवधारणा ।

13. प्रिय तुम

तुम्हारी हर अदा दिल की कशिश को मौन छूती है । यही लगता किसी शुभ सूचना की देवदूती है । कहाँ तक मैं बताऊँ क्या असर इसका जमाने पर; ये गौरी की कृपा जैसी, महाशिव की विभूती है । कभी मत इस तरह बोलो, चहकती सी रहो हरदम। मिटाती तुम रहो अपनी हँसी से विश्व भर का गम । जिधर तुम आँख को फेरो उधर हो फूल की वर्षा; वहाँ त्योहार हो जाये, जहाँ पर हों चरण छमछम । तुम्हारी देह की आभा हमें रस्ता दिखाती है । तुम्हारे नेह की खुश्बू हमें जीना सिखाती है । तुम्हारी तनिक अलसाई सुरति-रंजित सुधा-सिंचित निगाहें ही जिलाती हैं, हमें सब कुछ लिखाती हैं । तुम्हारी माँग में लाली सजनि!ज्यों प्रात की ऊषा । तुम्हारी मुस्कुराहट जिन्दगी की प्राण - मंजूषा । तुम्हारी देह पर हर वस्तु बन जाती स्वयं गहना, हृदय को मोहती सचमुच तुम्हारे वेश की भूषा । तुम्हें देखा लगा ऐसा धरा पर चाँद आया है । गगन से स्वर्ग की खुशियाँ चुराकर साथ लाया है । तुम मानो या नहीं मानो, मगर यह सत्य है प्रियवर; बहुत सौभाग्य से तुमने अनूठा रूप पाया है ।

14. नमन् देश के प्रहरी को

नमन् देश के प्रहरी को । जंगल - झाड़ी, नदियों - नालों खाई - खंदक, घाटी - ढालों कंटक - कुश, पाँवों के छालों से न तनिक जो विचलित होते जिनको देश प्राण से प्यारा । नमन् देश के प्रहरी को ।। शीतलहर मानो है जूती मृत्यु - कहर मानो है लूती व्यथा-वेदना तनिक न छूती जो भय से न विचलित होते जिनमें देश प्रेम की धारा । नमन् देश के प्रहरी को ।। रात - दिवस जो देते पहरा कण - कण से नाता है गहरा दुश्मन जिन्हें देखकर थहरा जो आँधी को आँख दिखाते जिनका कीर्तिमान है न्यारा । नमन् देश के प्रहरी को ।।

15. सावन आया है

बिजली-सी कजली की धुन सुन, विरहन-सी दुलहन तज ठनगन, निकली आँगन में बनठन कर, जाना जब ननदी का वीरन- परदेसी पाहुन आया है; अभी अभी सावन आया है।

16. शाप पतित गद्दारों को

शाप पतित गद्दारों को । जो निज को सम्मान्य बताते आदर दुश्मन के घर पाते खुदको सहनशील ठहराते छद्मपूर्ण जिनकी कुलकरणी जिनको पर-घर लगता प्यारा थू थू थू मक्करों को । शाप पतित गद्दारों को ।। जिनकी प्रायोजित सब बातें रंग - रँगीली काली रातें दुश्मन से हैं गहरे नाते षडयंत्रों में लिप्त हमेशा जिनको अपना देश नकरा छिः छिः छिः बटमारों को । शाप पतित गद्दारों को ।। जो प्रशस्ति नित रिपु से पाते रिपु के अवगुण गुण बतलाते प्रिय स्वदेश को तुच्छ जताते ब्रह्मानंद जिन्हें मिलता है अगर देश हो अपना हारा धिक् धिक् धिक् लब्बारों को । शाप पतित गद्दारों को ।।

17. मुक्तक

मान-सम्मान-यश-कीर्ति मिलती है नहीं, ज्ञान के घमंड या प्रचण्ड अभिमान से । गीत-संगीत-गुण-ललित कला-प्रवीण रीझते नहीं हैं नौसिखिए के गान से । मोती न मिलेगा 'अनुरोध' मोथा-मोथी में कि कोयलें मिलेंगी नहीं कोयले की खान से । होड़ क्या करेगा जो चला है भला पाँव-पाँव उससे जो जा रहा है व्योम में विमान से ।

18. भारत के चप्पे-चप्पे पर

भारत के चप्पे - चप्पे पर सबल सजग सरदार खड़ा है । सब चीजों से देश बड़ा है ।। माता - पिता, बंधु या बांधव, जाति-पाँति, भाषा, मत, धर्म सभी महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन, सबसे बड़ा देश का कर्म; देश-कर्म का पालन करना हर हालत में नियम कड़ा है । सब चीजों से देश बड़ा है ।। धन-दौलत, जीवन या तन-मन, स्वाभिमान, सम्मान धरोहर; सभी हमें प्रिय, किंतु सभी से प्रियतर अपना देश मनोहर; निखिल विश्व के सीस-मुकुट में हीरे जैसा स्वयं जड़ा है । सब चीजों से देश बड़ा है ।।

19. हम तो सागर की

हम तो सागर की लहर नहीं गिनते यारो! भवसागर की छाती पर यान चलाते हैं । जो बुझ न सके सदियों-शताब्दियों तक ऐसी हम स्वाभिमान की शाश्वत आग जलाते हैं ।। जिनको सुनकर संसार मुग्ध हो जाता है हम ऐसा राग सुनाते, मीड़ लगाते हैं । निष्प्राण देह में जो भर देते प्राण नये हम क्रांति - शौर्य के ऐसे भाव जगाते हैं ।। सर्वदा नग्न तलवार लिए हम चलते हैं, मणि - स्वर्ण - रजत - रंजित हम म्यान गलाते हैं । सर्वोच्च त्याग करने में हमे मजा मिलता, हम छलते नहीं, छले जाने से पर, कतराते हैं ।। हाँ, बार - बार जो हमें चुनौती देता है, उसका जवाब हम देते उसकी भा षा में । हम शस्त्र उठाते विश्व - शांति के लिए सखे ! नूतन विकास की आशा में, अभिलाषा में ।। जो शौर्य - दीप्त वह ही सहिष्णुता हमको प्रिय, जो शक्ति - शून्य उसको अभिशाप समझते हैं । जो दंडनीय उस पर हम दया नहीं करते, सत्वर निर्णय लेने में नहीं झिझकते हैं ।।

20. ऐ मेरे देश के वीर बाँके सुअन

ऐ मेरे देश के वीर बाँके सुअन ! है नमन्, है नमन्, है नमन्, है नमन् । बाढ़ आयी तो तुम भिड़ गये बाढ़ से, अंधड़ों में तुम्हीं ने सम्भाला हमें । भूमि काँपी या ज्वालामुखी जब फटे आग से भी तुम्हीं ने निकाला हमें ।। लौहमय हे पुरुष ! तुम विहँसते चले, हर घड़ी सीस पर बाँध अपना कफन । गिरि हिमालय की हिम से ढँकी चोटियाँ मुस्कुरातीं तुम्हारे चरण चूमकर । घाटियों, मरुथलों, बीहड़ों, बंजरों, सागरों ने बुलाया तुम्हें झूमकर ।। जान अपनी हथेली पर रखकर सदा तुम लुटाते रहे हर घड़ी नौरतन । शत्रु जब भी चढ़ा तुमने तोड़ी कमर, जीत करती रही बस तुम्हारा वरण । आत्मरक्षा में आयुध तुम्हारे उठे रण का तुमने बताया नया व्याकरण ।। स्वर्ग - सा है सुरक्षित हमारा वतन । है नमन्, है नमन्, है नमन्, है नमन् ।

21. मैं तुम्हें सोने न दूँगा

मैं तुम्हें सोने न दूँगा । मैं जागाऊँगा तुम्हें निश्श्वास लेकर, आह भरकर नित नया विश्वास देकर, देश की ओ सृजनधर्मी आत्माओ! व्यर्थ सपनों में तुम्हें खोने न दूँगा । सूर्य बनकर मैं तुम्हें प्रतिदिन छुऊँगा, प्रबल झंझा बन तुम्हें झकझोर दूँगा, नेह बरसाकर नयन से रात - दिन त्याग की गहरी नदी में बोर दूँगा ; मैं सजग आश्वस्ति देता हूँ अहर्निश जो नहीं करणीय वह होने न दूँगा । जब तलक दुश्वारियाँ हैं देश की जनता दुखी है, जब तलक जननायकों की वृत्तियाँ स्वार्थोन्मुखी हैं ; मैं न हूँगा शांत, अनहद नाद बन बजता रहूँगा देशध्वंसी शक्तियों को चैन - सुख लेने न दूँगा । जबतलक परिवारवादी शक्तियाँ सत्ता सँभाले चाहती हैं देश के विक्रांत पौरुष को दबा लें मैं उन्हें देता रहूँगा एक अनचाही चुनौती फूट का फिर बीज घातक देश में बोने न दूँगा । मैं तुम्हें सोने न दूँगा ।।

22. देशद्रोही चैनलों से

देशद्रोही चैनलों से देश को जल्दी बचाओ । बेतुकी ये बहस टीवी पर हमेशा छेड़ते हैं, सोच की जो राह सच्ची उसे अक्सर भेड़ते हैं, गरजते हैं, तरजते हैं, झमझमाकर बरसते हैं, देश के विपरीत बातें श्रवणकर ये हरसते हैं; काम इनका एक ही है खूब अफवाहें उड़ाओ । देश की खिल्ली उड़ाकर ये विदेशी गीत गाते, मर चुके मुद्दे उठाकर आमजन को बरगलाते, 'सर्वविद ये तार्किक हैं ' हर समय ऐसा दिखाते, बात इनकी मान लो सब महाज्ञानी ज्यों सिखाते; ये असल में अधपके हैं आग में इनको पकाओ । साम्प्रदायिक प्रीति या सौहार्द सुनकर ये तड़पते, राष्ट्रवादी चिन्तना से बैल के माफिक भड़कते, बात छोटी या बड़ी हो हर समय झगड़ा लगाते, ये विकट घड़ियाल जैसे झूठ के आँसू बहाते; छद्मभेंसी ये विदेशी, देश से इनको भगाओ । काठ की ज्यों पुतलियाँ हैं ये अमीरों के खिलौने, अन्य देशों की हैं जूठन मखमली अथवा बिछौने, यदि कहूँ -"मैं देशप्रेमी - सही पथ का एक राही"; ये कहेंगे -"अन्य जन क्या देशद्रोही या कुराही ?" ये विनाशक सड़े नारे दौड़कर इनको मिटाओ । चल रहे सब कार्यक्रम इनके विदेशों के सहारे छोड़ कर अच्छाइयाँ बस व्यर्थता निशि-दिन उघारें ये विघाती देश को फिर तोड़ने की ताक में हैं आँख में इनकी घृणा है द्वेष - ईर्ष्या नाक में है आँख इनकी फोड़ डालो नाक सूर्पणखा बनाओ । ये हैं बन्तू, पीटते हैं झूठ का हरदम ढिढोरा दीखता है हर कहीं पर रूप इनका अति छिछोरा है नहीं गांभीर्य इनमें पारखी अनुदृष्टि अंधी नकलची बंदर सरीखे नीति गंदी, रीति गंदी देश का हित चाहते यदि, पीटकर इनको पढ़ाओ ।

23. भीष्मों को ललकार रहें हैं

भीष्मों को ललकार रहे हैं देखो आज शिखंडी । मक्कारों के क्रय - विक्रय की सजी हुई है मंडी ।। उछल रहे हैं बहस के लिए जिनने हँसकर पाया - पुरस्कार, सम्मान-समादर, धन दौलत, पद, माया । लोकतंत्र तो आज बन रहा शरणस्थल चोरों का, गद्दारों की कुलकरनी का, झूठे, मुँहजोरों का । जो गुलाम के हैं गुलाम वे लामबंद हो कहते - "हमें लाज लगती है अब तो इस भारत में रहते ।" उनका कहना -"देश नहीं है रहने लायक यारो ! चारों ओर अराजकता है, केवल काटो - मारो ।। हिटलरशाही आज देश में, घोर कष्ट है फैला । शाम-दाम से शत्रु को नहीं सकोगे जीत । अगर जीतना शत्रु को अपनाओ विपरीत ।। शाम नीति से शत्रु कब होता है भयभीत? चिकनाई हटती नहीं पानी से हे मीत! दंड-भेद की नीति भी बड़ी जरूरी तात! रुद्ध हुआ करता सदा इससे ही उत्पात ।

24. दृष्टि-भेद

एक मेरे मित्र कहते ---जिंदगी से थक चुका हूँ, अनुभवों की चचटचटाती आग में भी पक चुका हूँ, लभ्य सारे खाद्य खाकर, पेय पीकर छक चुका हूँ, आ रही है रात काली घन-घटा निर्द्वन्द्व छाई। काम से विश्राम लेने की है मन में बात आई।। एक मैं हूँ सोचता हूँ --- देह में भरपूर बल है, आँख में है ज्योति, मन उत्साह से अब भी चपल है, बुद्धि में अब भी समस्या का सफल अति सरल हल है, मिट रही है भूख, चाहे मिल न पाती है मलाई। काम से विश्राम लेने की न मन में बात आई ।।

25. पिता कहलाना

बड़ा कष्ट देता है पिता कहलाना खासकर तब जब संतान उसे पिता कहने या मानने से इन्कार कर देती है । पिता होने के नाते मन ममता से उमड़ता है सर्वस्व समर्पण करता है फिर भी निष्ठुर तथाकित आधुनिक संतान बाप को पापी या आपराधी कहने में नहीं हिचकती उसे छोटा सा प्रणाम करने या अपेक्षित सम्मान देने तक से बिचकती है उस पर हँसती है और मकड़ी की तरह अपने द्वारा बनाये हुए जाल में फंसती है सच कहता हूँ अब पिता कहलाने में सुख नहीं मिलता मन नहीं खिलता अपितु शर्म आती है जो हमारी आत्मा को रोज-रोज खाती है । पिता कहलाने में अब ग्लानि होती है अंतरात्मा रोती है खासकर तब जब संतानें तलवार ताने ताने मारती हैं अपनी नाकामियों का ठीकरा निरंतर कमजोर होते पिता के सिर फोड़ती हैं अपनी असफलताओं का दायी बूढ़े होते पिता को ठहराती हैं भौंहें तानती हैं और अपनी प्रगति में उसे बाधक या अपरिहार्य बुराई मानती हैं । गृहस्थी की भारी गाड़ी खींचते कमजोर कंधोंवाले पिता के दुख से दो-चार नहीं होतीं अपितु नये-नये आरोप मढ़ती हैं बूढ़ी छाती पर चढ़ती हैं उसे बात-बात में नीचा दिखाती हैं किस्से गढ़ती हैं ।

26. अगर साथ दोगे......!

अगर साथ दोगे तुम्हारी खुशी है, नहीं साथ दोगे अकेले चलूँगा । जानता, अर्थ-युग है, चुकाना यहाँ चंद सिक्कों में होता है हर पावना तुम न कोशिस करो मापने की मगर तुच्छ सिक्कों से मेरी विमल भावना मैं छलाता रहा हूँ, छलाता रहूँगा, मगर आत्मजन को कभी न छलूँगा । जानता, विश्व में कब हुई पूर्ण है मर्त्य मानव की सोची हुई कामना चूर होता सपन-सौख्य का दोस्तों ! वास्तविकता से होता है जब सामना लालसा थी यही संग रहूँ उम्र भर, चाह पूरी किये बिन मगर अब टलूंगा । सोचता था रहोगे मेरे साथ तुम हर खुशी में मेरी और हर क्लेश में किन्तु क्या जानता था मेरा शत्रु ही आ मिला है मुझे मित्र के वेश में तोम तम में यथा दीप जलता सदा त्यों तुम्हारे लिए मैं हमेशा जलूँगा ।

27. भीतर-भीतर मन रोता है

फीकी-सी मुस्कान अधर पर आती जब दुख घन होता है । बाहर से हँसता हूँ लेकिन, भीतर - भीतर मन रोता है ।। लता-पता का जैसे हिमकण ढुलक धूल में मिल जाता है, सुषमा का आगार कुसुम ज्यों मात्र एक दिन खिल पाता है; वैसे क्षणभंगुर जीवन को बिना बात के तन ढोता है । बाहर से हँसता हूँ लेकिन, भीतर-भीतर मन रोता है ।। आज सत्य को झुठलाकर नर घूम रहा है हारा हारा, पढ़े - लिखे को देख रहा हूँ दर -दर फिरते मारा-मारा; अपनी हँसी उड़ाता कोई जब जीवन का धन खोता है । हर मानव को देख रहा हूँ मुँह पर दो - दो रूप सजाये, कागज के नोटों पर लट्टू सोच रहा कैसे क्या पाये; घबराये बेसुध मानव का एक बरस एक दिन होता है । बाहर से हँसता हूँ लेकिन भीतर-भीतर मन रोता है ।।

28. मेरे प्रवीर प्यारे प्रहरी !

हे सीमाओं के चिर रक्षक ! हे भारत के लाडले सुअन ! हे अग्नि पुत्र ! हे वीर व्रती ! हे शंकर के तीसरे नयन ! हो अग्निवृष्टि या शीत-सृष्टि अथवा बम गोलों का वर्षण, तुम हर क्षण हो कटिबद्ध प्राण-तन-मन-धन करने को अर्पण तेरे चरणों में शंकर का है प्रलयनृत्य ओ विष पायी, सांसों में लहर सुनामी है यदि आता यहाँ आततायी उत्तुंग हिमालय की चोटी, उच्छल समुद्र की गहराई, तेरे पौरुष से रक्षित है भारत का हर कोना भाई आकाश सुरक्षित है अपना, तेरी तीखी ललकारों से, वातास सुरक्षित है अपना तेरे ब ल की बौछारों से पावन स्वतंत्रता का दुश्मन कांपता तुम्हारी बोली से, आतंकवाद थर्राता है तेरी प्रचंडतम गोली से आतंवादियों के हंता ! तुम न्याय नीति के रखवाले, तुम त्याग-राग बलिदानी के, तू असीम साहसवाले तुम हो भूकम्पी लहर कि जिससे तहस-नहस खल होते हैं, तुम ज्वालामुख-विस्फोट कि जिसमे शत्रु स-दल जल खोते हैं नभ-नदी तुम्हारे हाथों में, पाताल तुम्हारे पावों में, सुख-नींद शांति से सोता है प्रिय देश तुम्हारी छावों में तेरे कारन सब गाँव-नगर, अनुदिन विकास से झूम रहे, निश्चिन्त दवश की सीमा में सब भारतवासी घूम रहे तुम नहीं अकेले सीमा पर मेरे प्रवीर प्यारे प्रहरी, तुममें समस्त भारत-भू की जीवित-जाग्रत निष्ठा गहरी हर एक व्यक्ति इस भारत का तेरे संग खड़ा हमेशा है, तू एक मात्र भारत-भू की जनता का बड़ा भरोसा है तू एक-एक शिशु की थिरकन आशा-आकांक्षा-अभिलाषा, भास्वर भविष्य, मानवता के उच्चादर्शों की परिभाषा तू है जन-आस्था का प्रतीक, तूशौर्य-धैर्य का दीप्त अनल, तू मातृभूमि का गुण-गौरव, तू अमर कीर्ति अतिशय उज्ज्वल ओ वीर शिवा के स्वाभिमान ! राणा प्रताप के तेज प्रबल ! ओ अमर सहादत 'विस्मिल' की ! ओ गंगोत्री के गंगाजल !! आजाद के वीर प्रतिनिधि ! श्रीरामचन्द्र के अग्निबाण ! ओ विष्णुदेव के महाचक्र ! श्रीकृष्ण चन्द्र के ओ कृपाण !! आबाल-वृद्ध इस भारत के करते तेरा शास्वत वन्दन, ओ मातृभूमि के स्वर्णमुकुट ! तेरा हर पल है अभिनंदन तुम डेट रहो सीमओं पर, हो नित्य पुष्ट तेरा भुजबल, तुम ही स्वदेश की आशा हो, तुम ही स्वदेश के हो संबल बलिपथी ! देश के निर्माता ! तुमको करता सौ बार नमन, हे सीमाओं के संरक्षक ! हे माता के लाडले सुअन !

29. मेरे जीवन तिनके को धर तुम सागर तर लेना

असमंजस के महा सिंधु में जब मन डूब रहा हो, मेरे जीवन तिनके को धर तुम सागर तर लेना, अपनों के छल की बातें जब होंठ नहीं कह पायें दिल का दर्द उमडकर जब – जब आँखों से बह जाये अँगुली में आँचल लपेटती प्रीत स्वयम को भूली – गीत अमरता का गाने से जब थोडा सकुचाये आहत पंछी से उस छण में याद मुझे कर लेना, मेरे जीवन तिनके को धर तुम सागर तर लेना, असरहीन जब हो जायें यौवन के जादू टोने, कर में नहीं तुम्हारे हों जब – जब खुशियों के दोने इन्तजार करते करते जब किसी अतिथि के कारण लगो अचानक अश्रुकणों से मंगल कलश भिगोने शुद्ध समर्पण का नीराजन मेरे घर धर देना, मेरे जीवन तिनके को धर तुम सागर तर लेना,

30. समाधान

क्या कारण है कि तुम्हे अपना गाँव याद नहीं आता या तुम्हारा गाँव तुम्हे याद नहीं करता या कि वह मौसम जो तुम दोनों को एक दूसरे कि याद दिलाता था उकसाता था एक दूसरे से मिलने के लिए आजकल नहीं आता ? पता नहीं दोष किसका है दोष तुम्हारा, तुम्हारे गाँव और मौसम तीनो का हो सकता है त्रिभुज एक भुज से नहीं बनता सोचो, क्या तुम्हारा ही दोष कम है कि पद, प्रतिष्ठा और पैसे कि गारुड़ी बुभुक्षा ने तुम्हारी आत्मा कि उत्कृष्ट संवेदना को बदल दल है आज पण्य संबंधो में और आज तुम ऐसे तिलस्मी महल में कैद हो जहाँ बदचलन आधुनिकता अपनी साड़ी निर्लज्जता के साथ तुम्हारे पलंग पर बिछी है और तुम ययाति कि तरह किसी ऋषि का शाप ढोते भयानक, वृध्त्व कि दहसत झेल रहे हो, सारे संबंधो कि स्वीकृत पवित्रता से दूर सुरा में डूबे हुए अगणित सुन्दार्यों से खेल रहे हो, भीत हो शुक्राचार्य कि बेपनाह उपलब्धियों से अकाल वृद्ध बने प्रतिबद्ध हो भोगवादी दर्शन की बदहवास शर्तों से शीशे की तरह चटख गए हो बाहर और भीतर से और एक अभिशप्त जीवन जीने के लिए स्यात मजबूर हो चिकनाई शीतल जल से नहीं घुलती सोचो तुम्हारा गाँव तुम्हे याद क्यों नहीं आता ? वह गाँव जिसके तीन तरफ से गंगा बहती थी जहाँ उच्छल उद्दाम प्रेम खेतों में पसरा पड़ा था जहाँ उत्कट जिजीविषा प्रत्येक पौधे से फूटती थी जहाँ तुम्हारे बचपन के दुधमुँहे शब्द गीत बन गूंजते थे जहाँ पंचफोरन की छौंक-सी महकती भाभी की ठिठोलियाँ थी प्रणय - भंग - पीड़ा - मर्मज्ञों की बोलियाँ थी प्रियतमा की पवित्र मुस्कान सी मादक कजली और सोहर थे लचारी और गारी थी जहाँ की दुनिया तुम्हारी इस दुनिया से न्यारी थी जहाँ समवेत रमणीय की आकुल स्वर लहरी थी जहाँ दिलों में आत्मीयता अति गहरी थी जहाँ प्रत्येक घर की देहरी पर दुआएं थी, गहरी ममता की शाल भंजिकाएं थी कच्चे पक्के मकानों में, मडई में, झुग्गी झोपड़ियों में जहाँ कई जातियां एक परिवार की तरह रहती हुई, सहती हुई बहती हुई जीवन नदी थी दोष तुम्हारा ही नहीं तुम्हारे गाँव का भी है आंधी से साठ-गाँठ करती आमों की बौराई छाँव का भी है जानते हो आजकल गाँव, गाँव नहीं रहा शहर बन गया है चम्बल की घटी सा हर घर तन गया है और अब खेतों में फसलें नहीं बंदूकें उगती है सत्ता की चिड़ियाएँ अस्मत चुग रही हैं हरियाली तटों पर दम तोड़ती है महंगाई कृषक की किस्मत फोड़ती है बेशर्म दुश्मनी, स्वजनों का लहू पी रही है मानवता अहिल्या बनकर जी रही है प्रेम के दरवाजे पर 'प्रवेश निषेध ' की तख्ती है परस्पर मिलकर रहने की सख्ती है तीज -त्यौहार मनाने के लिए अब कोई इकट्ठा नहीं होता . अलावों के पास न तो चौपाल जमती है और न ही हंसी - ठट्ठा होता भाई - चारे का नाम मिट गया है युधिष्ठिर, दुर्योधन के हाथों पिट गया है सह-अनुभूति की सूखी नदी है आजकल हर एक नेकी, बदी है मिथ्याभिमान गरजता चालीसा है प्रत्येक धूर्त आज गाँधी है, ईसा है अपनत्व का अषाढ़ सूखा पड़ा है अशिक्षा -अज्ञान का बिजूका खड़ा है सिक्षा अनुभवों में नही, स्कूलों में मिलती है जूही की कलि श्मशानों में खिलती है चतुर्दिक अंधविश्वासों की कई जमी है खुशहाली का नाम नहीं, केवल कमी है प्रतिहिंसा की आग में सम्बन्ध जल रहे हैं विश्वासघात के सांप आस्तीनों में पल रहे हैं पनघट रुनझुन बिन सूना पड़ा है न जाने किस संस्कृत का नमूना खड़ा है तंगदिली की दुकानें चल रही हैं भाई की उन्नति भाई को खल रही है जातिवाद के लाक्षागृह में विवेक जल रहा है अब तो गाँव भारतीय संस्कृति का मसखरा बन गया है बुराई के तराजू का सर्वमान्य बटखरा बन गया है दोष तुम्हारा और तुम्हारे लापता गाँव का ही नहीं उस मौसम का भी है जो अपने समय पर नहीं आता या आजकल जो मर-सा गया है लेकिन मौसम ...... मौसम तो हमारे मनोभावों का परिणाम है स्वतंत्र इकाई नहीं, वृत्ति सापेक्ष है एक मनः स्थिति विशेष है, जो हमारे मनोभावों-मनोविकारों के साथ आता है, जाता है, बनता है, बिगड़ता है तभी तो एक ही वस्तु संयोग से सुखद और वियोग में दुखद प्रतीत होती है यानि मौसम मनुष्य के अधीन है जो हमें प्रिय है वह स्वर्ग है जो अप्रिय है, नरक है यदि मनुष्य के संकेतों पर निर्भर है मौसम का आना जाना तो मेरे दोस्त ! वह मौसम तुम क्यों नहीं बुलाते जो पहले ठीक समय पर आता था तुम्हे 'भूत' बनने से बचाता था तुम्हे तुम्हारी मिटटी से जोड़ता था संवेदना की परती को गोड़ता था सच कहता हूँ मित्र ! वह तुम्हारे लापता गाँव को खोजेगा तुम्हारे अमूल्य संवेदनों को सहेजेगा आओ कोशिस करो फिर वही सावनी हरियाली लाने की कोशिश से सबकुछ संभव है आओ एक बार फिर कोशिश करो तुम्हारा, तुम्हारे गाँव और तुम्हारे गाँव का समीकरण स्वयं हल हो जायेगा और तब तुम्हारे बीच का हिमालय स्वयम गल जायेगा आओ कोशिश करो ..... कोशिश करो....कोशिश करो

31. यह स्वदेश की राम कहानी

शहर शहर में आग – आग है, गांव गांव में पानी – पानी, यह स्वदेश की राम कहानी लैंप पोस्ट से खड़े हादसे, गली –गली में द्वारे – द्वारे, विज्ञापन बन गयी जिंदगी, दीवारों पर खुनी नारे ; देश – द्रौपदी की दु:शासन, खींच रहा है चूनर धानी यह स्वदेश की राम कहानी गरज रही आर्थिक दरिद्रता, आग बबूला है मंहगाई, भार बन गया नैतिक जीवन, न्याय ढोंग का अंधा भाई, मरणासन्न समाजवाद तो, छोड चुका है दाना पानी, यह स्वदेश की राम कहानी खोजे नहीं कहीं पर मिलते, भाई – चारे के प्रिय खंजन, सब आँखों में अन्जा हुआ है, तुक्छ स्वार्थ का मारक अंजन : वृक्ष – वृक्ष में उत्सृन्ख्लता, लता – लता में है मन मानी यह स्वदेश की राम कहानी कामशास्त्र में लिखी हुई है, सदाचार की परिभाषाएँ लावारिश बच्चों सी फेंकी, हुई मनोहर अभिलाषाएं ; डाल – डाल पर देशी चिड़िया, किन्तु विदेशी बोली बानी यह स्वदेश की राम कहानी परंपरा के नाग दंश से, आज विकल इंसानी काया, क्रूर सिंहिका – सी जकड़े है, कट्टरता करूणा की छाया, भोली शहनशीलता करती याद, यहाँ पर अपनी नानी यह स्वदेश की राम कहानी कोम्प्युट्री आंकणों में है, बंद जवानी की अंगडाई देश – भक्ति का “चेक” भुनाता, गद्दारी का औरस भाई नित्य विकास योजनाओं पर, होता रहता खर्च जबानी यह स्वदेश की राम कहानी त्राहि – त्राहि का शोर मचा है, मरे जा रहे सीधे – सादे, कल किरीट बेहूदे शिर पर, बेईमान होंठों पर वादे, गुनाहगार चेहरों पर रौनक, बेक़सूर आँखों में पानी, यह स्वदेश की राम कहानी जिनके हाथ देश की “पत” है, वे हि करते “वार “ अनोखे, जिन पर है विश्वास सुजन का, वे जन – जन को देते धोखे, बिन पतवार जा रही बहती, प्रलय सिंधु में नाव पुरानी यह स्वदेश की राम कहानी यह भारत की राम कहानी

32. सावधान

सावधान ! जो जन्मभूमि पर टेढ़ी नज़र उठाएगा । शपथ राम की धरा-धाम पर कहीं न रहने पायेगा ॥ ऋषि-मुनियों की तपोभूमि यह, जन्मभूमि भगवानों की, कर्मभूमि यह कल्याणों की, धर्मभूमि श्रीमानों की, आदिभूमि यह आदर्शों की, विमल भूमि वरदानों की, दिव्यभूमि यह इंसानों की, भव्यभूमि बलिदानों की, यहाँ धधकता सूर्य शौर्य का बोलो कौन बुझायेगा । शपथ राम की धरा-धाम पर कहीं न रहने पायेगा ॥ यहाँ हुए भूपाल भगीरथ गंगा-जय करनेवाले, यहाँ हुए श्री हरिश्चन्द्र सच्चाई पर मरनेवाले, यहाँ हुए श्रीरामचन्द्र दुःख दुनिया का हरनेवाले, यहाँ हुए श्रीऋषभदेव आलोक नया भरनेवाले, यहाँ विराजे बुद्ध और गुरुनानक कौन भुलायेगा । शपथ राम की धरा-धाम पर कहीं न रहने पायेगा ॥ यहाँ सनातन संस्कृति जन्मी, और सभ्यता कनक-जड़ी, यहाँ मनुजता-मर्यादा की विश्वविजयिनी कीर्ति खड़ी, यहाँ न झुकनेवाले पौरुष की है ध्वजा अजेय गड़ी, यहाँ क्रांति के संग विलसती विश्व-शांति भी घड़ी-घड़ी, यह है भारत यहाँ तिरंगा ध्वज केवल लहरायेगा । शपथ राम की धरा-धाम पर कहीं न रहने पायेगा ॥ भेज रहा हूँ सीमा से शोणित से लिखी हुई पाती, कभी न हम लुटने देंगे वीर पूर्वजों की थाती, चाहे चले आँधियाँ अगणित, शोर मचाये उत्पाती, किन्तु नहीं है बुझनेवाली देशभक्ति की यह बाती, अपने लोहू से हर भारतवासी इसे जलायेगा । शपथ राम की धरा-धाम पर कहीं न रहने पायेगा ॥

33. श्रमिक दिवस पर

इनको साधन होता कोई तो ये भी मंत्री बन जाते जिनकी फुट पर ठठरी सोई । यदि गला काट की क्रूर कला आती इनको भी कहीं भला तो इन अलमस्त कबीरों की रानी बनती धनिया-लोई । इनको साधन होता कोई ।। चोरी का सुधरा दाँव-पेंच आता यदि करते खूब ब्लेक तो तुंदियल लखपति बन जाते संग में रहती सुन्दरि कोई । इनको साधन होता कोई ।। यदि भवन कोई इनका होता तो 'झाँखे' में क्या नर सोता? शिक्षा की सुविधा होती यदि मिलती इनकी इज्जत खोई । इनको साधन होता कोई ।। पार्कों से ले फुटपाथों पर नदियों के औघट घाटों पर मुर्दों - से क्यों सोते रहते? रहती कैसे किस्मत सोई? इनको साधन होता कोई ।। सरकार ध्यान दे यदि इन पर तो दूब जमेगी पत्थर पर अंबर भी चकित निहारेगा जब तिरे शिला इनकी छूई । इनको साधन होता कोई ।। इनमें जब ज्ञान-प्रभा फूटे देवता तुष्ट हों सब रूठे आकाश चढ़ेंगे ये निश्चय जैसे उड़कर चढ़ती रूई । इनको साधन होता कोई ।। जो कुछ जीवन में गला-सड़ा उसके प्रति सब में जगे घृणा निश्चय मानवता प्रगटेगी चंदन-चर्चित, उज्ज्वल धोई। इनको साधन होता कोई ।।

34. दागी दुपट्टे

हाथ में लोगों के कट्टे हैं । खा रहे सब कमलगट्टे हैं । हैं नहीं जिनको सुलभ ये कुर्सियाँ कह रहे अंगूर खट्टे हैं । देश के अब डूबने में क्या कसर? लग रहे हर रोज सट्टे हैं । लोक की खुशियाँ उन्हीं के हाथ में तंत्र जिनके नाम पट्टे हैं । सह रही जनता भयंकर यातना मंत्रियों के हँसी -ठट्टे हैं । कौर मुख का छीन लेने के लिए मारते कौए झपट्टे हैं । दूध का धोया यहाँ पर कौन है? सब के सब दागी दुपट्टे हैं ।

35. तन्वी

छमछम छमक, छमक छम पग धरे; हरे उर-शूल को समूल दृग - तीर से । भूषण-वसन मन-प्राण, भूख-प्यास हरें, चीर-चीर देती धीर चीर के समीर से । वचन अशन सम, जीवन पीयूषपूर्ण; अधर मधुर रसपूर जनु खीर से । हेर-हेर हँसती तो ढेर-ढेर फूल झरे, तन्वी सुगंध ढरे सुतनु उसीर से । भले तुम में प्रखर पावक मगर शीतल छुवन तेरी । मगन मन आरती करता भुवनमोहन सुमन तेरी । तूँ भय है तो अभय भी है, तूँ पावक है तो पानीभी विरोधी में समन्वय साधने की है लगन तेरी । चंद्रवदन में चपल दृग, दृग में ललित विलास । पुहुप - बीच मकरंद ज्यों उसमें तीव्र सुवास।।

36. हरदम सावधान रहना है

हरदम सावधान रहना है। जो स्वदेश करते बदनाम, लेकर आजादी का नाम; देश -विरोधी करते काम । हरदम सावधान रहना है । कट्टरपंथ नया धर बाना, देशद्रोह का गाता गाना, इसका सुर जाना-पहचाना । हरदम सावधान रहना है । इनके पास बहुत -से साधन, धन-दौलत, सुविधा, आराधना, दाँव-पेंच, छल-कपट प्रसाधन । हरदम सावधान रहना है । समाचार-सूचना प्रसारण, इनके हाथों है निर्धारण, जिसमें मंत्र छिपा है मारण । हरदम सावधान रहना है । इनकी राजनीति है गंदी, इनके हाथों प्रतिभा बंदी, ये पथभ्रष्ट, क्षुद्र, छलछंदी । हरदम सावधान रहना है । ये प्रचार मिडिया के स्वामी, मानो सबके अंतर्यामी, सारा चिन्तन है प्रतिगामी ।

37. हरी घास चरनेवाले फिर गाँव में आये हैं

कुछ मोटे हैं खिले-खिले-से, कुछ मुर्झाये हैं । हरी घास चरनेवाले फिर गाँव में आये हैं। सावधान, मतदेनेवालो! भोले मत बनना, खतरनाक ये सब चौपाये सींग उठाये हैं । भूख-गरीबी का जुमला इनके ओठों पर है, ये अनशन करने के पहले जमकर खाये हैं । महलों के ये मस्त परिन्दे चतुर अहेरी हैं, गाँव-किसानों की पीड़ा मुँह पर लटकाये हैं । इनका स्वार्थ अगर संकट में देश है संकट में, समीकरण इस तरह सोचकर ये बैठाये हैं । राजघाट पर सीस झुकाते गाँधी के आगे, ये हिंसक नख-दंत फरगकर अपने आये हैं । 'लोकतंत्र खतरे में ' इनका है प्यारा नारा, लाज-शरम को बीच सड़क पर बेंच के आये हैं । संविधान की खाल खींचकर छतरी बना लिये, बार - बार जिसकी खिल्ली बेखौफ उड़ाये हैं ।

38. किसान

चौकिए मत वह जो आ रहा है मरियल-सा हड्डियों का ढाँचा मात्र अर्ध नग्न, अर्धक्षुधित चिर उपेक्षित काँटों का ताज पहने अपनों से छला गया क्राँस की तरह हल को अपने कंधों पर उठाए ईसा नहीं एक किसान है (साकार हिंदुस्तान है) कर्ज में जनम लेना कर्ज में बड़ा होना और कर्ज में ही मर जाना जिसकी नियति है, अपनी पहचान है रोज मर-मर कर जीना जिसका विधान है जिसका खून-पसीना दुनिया की गति है, बड़ों की शान है और जो हमारे देश में आजकल चक्र में फँसा हुआ सिर्फ राजनीति का निशान है।

39. मूर्ति-भंजकों से

सम्हल जाओ मूर्ति-भंजक! तोड़ जिसको थीं न पायी जेल की वे यातनाएँ, जिन्दगी की रौनकें-रंगीनियाँ, अगणित प्रलोभन तुम उसे क्या तोड़ पाओगे हाँ, केवल जोड़ जाओगे उसे फिर लोक-मन से । सम्हल जाओ, मोम की यह मूर्ति तो लगती नहीं है चोट खाकर हो न हो यह आग उगले औ' तुम्हारे दोस्त, संरक्षक, नियामक जल मरें तो क्या गजब है! भ्रांति-भक्तो! अब न कड़को विगत की समृद्धि से इतना न भड़को छोड़कर करतूत काली जीवनेच्छा को जगाओ जो गिरे उनको उठाओ, भ्रम भगाओ, तम मिटाओ राष्ट्र-माता के लिए सोल्लास निज तन-मन लुटाओ विश्व के कल्याण खातिर जहर पीओ, मुस्कराओ। पूर्वजों से द्रोह, ईर्ष्या, घृणाकर तुम टूट जाओगे कि पीछे छूट जाओगे समय के साथ कुछ चलना भी सीखो जलो पर गलना भी सीखो । हम समय के साथ चलते, चल रहे, चलते रहेंगे तुम मरोगे, तुम मिटोगे, हम रहेंगे, हम रहेंगे ।

40. हिन्दी

हिन्दी आत्मा देश की, संस्कृति की पहचान । राष्ट्र धर्म की चेतना, विश्वप्रेम विज्ञान ।। हिन्दी गौरव-बोध है, अपनापन अरु नेह । भारत माँ की आत्मा, भारत माँ की देह ।। संस्कृत की बेटी भली, संस्कृति का अनुराग । स्वाभिमान, सच्चेतना, मानवता, शुचि त्याग ।। यह मैत्री की महक है, यह सुहाग-सिन्दूर । यह मणिमाला ज्ञान की, यौवन-रस से पूर ।। माँ की इसमें माधुरी, भार्या का सा प्यार । गुरु जैसा उपदेश है, शिक्षा का भण्डार।। घर, वन, सभा, समाज में हिन्दी को सप्रेम । बोलें, हस्ताक्षर करें, इसमें है सुख - क्षेम ।। बातचीत, घरबार हो, प्यार हो कि व्यापार । सभी जगह पर कीजिये हिन्दी का वयवहार ।।

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