हिंदी कविताएँ : राजेश सिंह

Hindi Poetry : Rajesh Singh


अब कुंदन हूँ

मैं चट्टानों से भिड़ रहा हूँ, हौसला दशरथ-सा लिए, पहाड़ों के बीच राह बना रहा हूँ। बहुत दर्द सहे हैं मैंने, मलाल फिर भी नहीं है, हारकर एक पल भी नहीं जिया है। बहुत मुमकिन है सपुर्द-ए-ख़ाक हो जाऊँ, फ़िक्र नहीं—मुस्कुराऊँगा। ग़मों का शुक्रिया, ये जो दरिया तूने दिया, तैरना मुझको सिखा दिया। भागता रहा बहुत, अब ठहर गया हूँ, नियत आईने-सी समझ गया हूँ। उम्मीद पर आज भी जुनून सवार है, मुझे क़िस्मत पर नहीं, ख़ुद पर ऐतबार है। शायद यही गीता का सार है, जो है, वही अपरंपार है, शेष सब मिथ्या संसार है। टूटा नहीं हूँ, चकनाचूर हुआ, वक़्त के हाथों मजबूर हुआ हूँ, अब कुंदन हूँ, तपकर ही मशहूर हुआ हूँ!

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