हिन्दी कविता : राजगोपाल
Hindi Poetry : Rajagopal



अर्थ

एकाकीपन से थक कर प्रणय ढूंढते खो जाना और छल को ही यथार्थ समझ सुख के पीछे भागने का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं कहीं मिली प्रेयसी तो बुद्धि पर आवरण डाले अंधेरे मे आँखें खोले प्रणय जताने का कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं मन मे बात छिपाये उर की पीड़ा सहते हुये झूठे दर्पण मे मुस्कुरा कर जड़ तकिये पर रोने का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं स्मृतियों की सुरा पी कर वर्तमान को लतियाना फिर सुबह मुँह बना कर सम्बन्धों को सहलाने का कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं आश्रांत कामनाएँ साथ लिये प्रेयसी के मुख पर मौन प्रणय -प्रश्नों का भार डाले उत्तर जोहते रहने का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं सब कुछ समर्पित कर प्रणय को अभयदान देकर केवल मुट्ठी भर अपेक्षाएँ लेकर घुट-घुट कर जीने का कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं स्मृतियों मे खोयी कामायनी नित देखती जो बन मृगनयनी आज घर मे ही मरीचिका बनी फिर तृष्णा मे मरने का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं सहलाता था जब उसके कुंतल बिखरती थी कस्तूरी सुधा सकल जब मरी संवेदना, सिमट गये सारे पल अब प्रणय पुकारने का कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं अधरों की मृदुता सूखी शब्दों की कामुकता रूखी न जाने कितनी रातें बीती भूखी अब मधु भरे स्वप्नों का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं घर मे रहते बरस भी खूब चढ़े लगता पहले यह समय न कभी बढ़े उम्र ढली, हम ‘अब नहीं’ पर रहे अड़े इस मोड पर और मांगने का कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं तुम्हारे कितने पर्याय हुये नंदिनी, चित्रा, जया, स्वधा, और सुरवामिनी गिरी प्रणय पर जब तिरस्कार की दामिनी उन मधु-शब्दों का रह गया कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं मुट्ठी भर स्नेह है जीवन की विधा इस युगबोध पर ही टिकी है त्रिधा प्राण कहाँ जब सूख गयी प्रणय की सुधा ऐसे मे संसर्ग का रह जाता कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं जिसने न समझी प्रणय की भाषा रौंद गयी उर मे ही जीवन की आशा जब अपनी कही तो लगा किया तमाशा यहाँ मौन जग क्रंदन का अब कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं नित आशाओं पर फिरता पानी ढलते अश्रु वही, सिसकती आह पुरानी हुये अपरिचित हम, रातें भी हुयी अनजानी मृत्यु लिए दोष ढूँढने का अब कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं कहने-सुनने की भी सीमा होती है मौन पड़े शव की भी गरिमा रोती है कौन समझता मन, मति चादर ओढ़े सोती है अब घाट पर नीड़ बनाने का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं अब क्या शेष रह गया मेरे वश मे प्राण-प्रणय दोनों ही डूबे विष मे मन कहता न झोंको मुझे फिर इस अमिष मे जीवन मे फिर हठ का रह जाता कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं कल अधरों ने रजनी का अभिवादन किया फिर बरसों मधुर स्वप्नों का वक्षस्थल दिया आज भोर गए ‘अब नहीं’ का आव्हान किया यही काल है तो रण छेड़ने का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं शलभ सा क्षणभंगुर यह जीवन पल भर का है सुख, फिर विरह-रोदन जल गया आज दीप शिखा पर यह मन प्राण फूँक कर यत्न करने का कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं इतिहास दिखा आज पर वार करना नित रुला कर सुखमय आडंबर रचना प्रणय-स्पर्श देहरी पर फेंक, हृदय दलना आह भर कर अब वामा कहने का कोई अर्थ नहीं कहते-सुनते बीत गया यह जीवन व्यर्थ यहीं आँखों मे प्रणय लिए अकेले ही रोता हूँ छल को ही सत्य समझ उर पर लिये सोता हूँ अंधेरे मे निस्तब्ध अपनी ही चिता सँजोता हूँ फिर छूटी माया से घिरने का कोई अर्थ नहीं सृष्टि से लड़ने अब यह जीवन समर्थ नहीं

लौटा दो मेरा इतिहास

उर पर पत्थर रख कर दृगों मे विश्लेषित करता पतझर कराह कर कह रहा है द्रवित स्वर जीवन में अब और न करो मेरा उपहास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास बरसों पहले जैसा था वसंत स्मृतियों मे छाया है वही प्रणय अनंत अंधेरे मे ढूँढता हूँ फिर भी अनछुआ दिगंत टूटे संबंध लिए, आज मौन है कोई उर के पास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास अब शब्द भी मरे, तुमसे क्या पूछें यदि पूछें तो अपना ही विरह उलीचें तिरस्कृत जीवन दबा है यहाँ पाँव के नीचे दिलाता है वह नित प्रणय का मरता आभास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास दिन मे अँधियारे से हुई पहचान रात तोड़ गयी बिसुरते प्रणय का मान विकृत सा बंद कमरे मे पड़ा है प्राण बरसों का अनुराग संसृति को अब न आया रास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास कल तक मैं था, पास ही मधुबाला थी तन-मन की मिली-जुली कैसी हाला थी टूटा जब स्वप्न, धरा पर बिखरी जयमाला थी गिरते-उठते जीवन मे अब हारा मैं सभी प्रयास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास कितना बोझ ढोता है पत्थर सा यह मन इस पर चढ़ बैठा है एक निष्प्राण बंधन किसे कहूँ तुमसे दूर पीड़ा कितनी है गहन अब तुम तक न रुकेगी यह उतरती श्वास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास मुझे निर्वासित सा मौन ही रहने दो अंधेरे मे ही गीली स्मृतियाँ कुरेदने दो मुट्ठी भर प्रणय लिए आज मन को तड़पने दो कुछ और नहीं, कोई विष से ही मिटा जाता प्यास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास न सुनता है, न समझता है यह मन अपनी ही धुरी पर घूमता रहता है मगन यह निर्लज्ज, प्रायः क्यों खरोंच जाता है तन स्वयं का भार लिए न जाने कब होगा प्रवास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास झांक जाती है वह सुबह, देखने क्या प्राण शेष है अपंग सम्बन्धों का यह कैसा छ्द्म वेष है परछाइयों मे भी छिपा कहीं प्रणय का क्लेश है बुझे दिये सारे, आँखों मे अब न होगा प्रकाश अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास बीते सुख को भूलना कितना विकल है वह स्पर्श आज भी अनछुआ ही अटल है कंठ सूखा फिर भी आंसुओं के लिए तरल है कर गयी निर्वासित आज जो कल तक थी पास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास छोड़ आया दूर मैं उस प्रणय का रण जिसमे था समर्पण उसके लिए क्षण-क्षण हाथ झटक कर फेंक दिया बरसों का मन स्वप्न मे भी अब न होगा उस जैसा मधुमास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास आज खंडहर हुआ प्रणय का रंगमहल रात भी ढूंढती है वहाँ यौवन का कोलाहल ‘अब नहीं’ की गूँजती है ध्वनियाँ, पल-पल अंधेरे बंद कमरे मे अब बढ़ाने लगा है संत्रास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास उर छलनी कर कहते हो जीवन मे रस भर लो तिरस्कृत है यह, यम आज इसे भी तुम हर लो भुला कर बीती बातें, तुम वर्तमान मे घर कर लो पागल क्यों तुम पर इतना था, न होता है अब विश्वास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास पहले मैं कभी न हुआ इतना विह्वल न पाया मन को कभी तिनके सा निर्बल भटकता तुमसे अछूता, यह गिरा क्यों इस दलदल पुकार लो एक बार तो लौट आयेगी आस अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास किसे कहूँ तुमसे अलग शून्यता मन की किसे दिखाऊँ झरते आँसू सघन घन की नहीं कोई मोह तुमसे अधिक यश-धन की यह कोई घर नहीं, है मौन प्रेतों का वास अंत से पहले तुम लौटा दो मेरा इतिहास

चक्रव्यूह

रतजगे मैं टूटे हिस्से जोड़ता हूँ स्मृतियों से वर्तमान तोड़ता हूँ जड़ भावनाओं पर हृदय फोड़ता हूँ इस निर्लज्ज मन को कब तक पालें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले फिसली काया, उमंग पर गिरा पानी एकाकी मन की पीड़ा किसने जानी जान कर भी उसे न सुलझाने की ठानी बहुत खड़े हैं यहाँ सांत्वना बांटने वाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले बहिष्कृत हुआ सम्बन्धों का सम्मान आँखों मे अब नहीं है कोई पहचान अनजाने अलग-थलग आहत हैं प्राण चाँद को लगा ग्रहण, चाँदनी क्यों डोरे डाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले कल तक था जीवित उसका स्पर्श चढ़ती रात मृतप्राय हुआ उत्कर्ष स्मृतियाँ लांघ नित सिसकता है हर्ष उर मे धंसा है बाण, किस हाथ उसे निकाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले पशुओं सा लगता है यह जीवन मूक विचरते हम, टटोलते नहीं है मन न बातों मे, न मुख मे रह गया आकर्षण अंधे बन मन को कैसे हम कैसे समझा लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले अपनी छोड़ हम जग की क्यों सुने मन थपकने कितनी कहानियाँ बुने कानों मे बजती हैं नित उलूक धुने शव हुआ है जीवन उसे ही गले लगा लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले मरी काया सपनों मे कितनी बार किन्तु जिजीविषा मानती नहीं है हार चक्रव्यूह मे फंसी नित ढूंढती है पार मन करता है कल स्वयं की चिता जला लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले अपार हुयी हाथ भर की दूरी बात आज भी रह गयी अधूरी गिरते-उठते सांस थम गयी पूरी झरते भस्म लिये हम कैसे संगम नहा लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले मुंह ढंके सुख अनछुये ही जग सिधारा जलाअंबर तक उसे उर पर लिये प्यारा धुआँ उठा, घुट गया शेष भी सारा खुली आँखों मे अब परदे गिरा लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले जहां मिला था जीने का संबल आज कहाँ है वह प्यारा वक्षस्थल गुम हुये हैं सारे प्रणय के शिशु-पल ढूंढते रंगमहल अब पाँव पड़े हैं छाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले ढह गया आज मिट्टी का घर रात रोया मन खड़ा देहरी पर ढेर हुये सपने, जीवन गिरा अधर कंठ मरा, अधरों पर पड़े सैकड़ों ताले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले आँधी के बाद जब छाया सूनापन टूट-फूट गया युग बाहों का अपनापन पलट गया आज इतिहास का भी दर्पण फिर भी छंटते नहीं है मन के अंधेरे-उजाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले टेढ़ा है जीवन का यह रंगमंच आशा-प्रत्याशा और प्रणय-प्रपंच कितना खेलें सर पर उठा कर मंच कहते-सुनते आज अभिनय से गये निकाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले जग-क्रंदन मे दबा आज प्रणय का स्वर खेला था बहुत उसके आँचल मे घर-घर आज फटा मन, बहते हैं आँसू निर्झर इस जगती के भंवर मे बहुत हैं डूबने वाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले आज बादलों मे जल्दी ही दिन ढला था निर्लज्ज फिर अधरों की ओर चला था ‘अब नहीं’ सुन कर उर का रक्त जला था लौट अंधेरे मे, फिर से नये अश्रु बहा लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले दुख सघन उठा, सुख बीता क्षण मे प्रणय तड़पता है जायें किसके शरण मे मेरे हित अब क्या शेष रहा उसके नयन मे चल कर इस तम मे, यम तक शीश झुका लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले मैं तुच्छ द्रवित होता दुख से स्त्रावित होता क्षणिक सुख से प्रबल होता प्रणय उसके मुख से बता दे कोई कैसे थोड़ा सा प्यार चुरा लें जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले कितने क्षीण होते हैं कथा के शब्द उसे समझने नहीं है कोई प्रतिबद्ध चिल्ला कर कंठ भी हो जाता है स्तब्ध फिर भी कहा दोहराते हैं विकृत मन वाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले मैं स्वयं से पूछा करता हूँ क्यों सीधे शब्दों से डरता हूँ दूसरों की अपेक्षा मे जीता-मरता हूँ सोचता हूँ इस संसार मे हैं कितने मतवाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले अब निकट दिख रहा है पटाक्षेप यत्न कर रहा हूँ बताने कथा-संक्षेप तन-मन वही, जीवन मे फिर कैसे आक्षेप यहाँ नित नये प्रसंग बुन जाते हैं जाले जीवन टूटा, अब बहते अश्रु कैसे संभाले

मौन-युद्ध

प्रणय के इस रण मे मन जलता है उर बंद पड़ा पीड़ा मे बुझता है कटा शीश दूर अंगार उगलता है यह देख कर मन मौन ही मरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है इस युद्धभूमि मे कितनी बार मरेंगे भरे कंठ से कैसे अपनी बात कहेंगे शीश नवाये और कितने आघात सहेंगे यह दिन भी कैसे अपाहिज सा ढलता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है प्रणय पुचकारने रात भर घुटने टेका, श्रांत हुई काया को सपनों से सेंका, फिर भी लांघ न सका मैं उसकी सीमा-रेखा दूर खड़ी माया, उसे देख कर मन जलता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है आभास हुआ मेरे लिये वह रोती होगी, कुंतल से कटि तक अलसायी भीगी होगी, मिथ्या के जगती मे यह मन हुआ वियोगी सुख तो सिधार गया, झूठी यह चंचलता है, नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है बरसों का अनुराग टूटा जैसे हो कोई तारा लौट चला हूँ मै, रण मे दोबारा जीवन से हारा न रही अब कोई संवेदना, न मन का अभिसार, यह शिथिल प्रश्न अब उत्तर से डरता है, नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है दिखती नहीं है उठती पीड़ा ह्रदय में, स्तब्ध है मन वाद-संवाद के भय से, प्रणय लिए सिर पीटता हूँ रुदाली के लय मे अब उसकी प्रतिकृति से भी मन दरकता है, नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है परस्पर दिये हुये वचनों पर मिट्टी पड़े विकट प्रसंग निरुत्तर चुल्लू मे सड़े प्रश्न समाधान ढूँढने जगती से लड़े बंट गये तन-मन, किन्तु मन नहीं भरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है खेला था जिन अधरों से कुंतल तले आज दूर खड़े उसकी ही आंच से जले शून्य में हम हल खोजते दिशाहीन हो चले अपना भार लिये जीवन यहाँ नीरव विचरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है कल तक थे हमने कितने रंग सजाये, आज क्यों ‘अब नहीं’ की रणभेरी बजाए हार गया युद्ध मैं, अब मन किस से लजाये धड़ कटा जीवन गर्म राख़ सा बिखरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है हमने उर मे सुषमा भर कर प्रणय रचा था उसमे कल तक कितना उन्माद मचा था स्मृतियों के तलछट मे अब क्या शेष बचा था टूटा उत्कर्ष जीवन मे मृत्यु तक नहीं सँवरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है किया था कल तक हमने नीड़ का निर्माण उस प्रणय-प्रतिमा मे अंत तक बसा है प्राण पर कंठ घुटा है आज, हृदय हुआ है पाषाण इस मिट्टी के घर मे अब स्वर्ग नहीं उतरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है लालिमा बुझी, धूमिल हुआ उजियाला इस युद्धभूमि मे मौन खड़ी है मधुबाला मरी जिजीविषा, विश्व मगन है पी कर हाला शूल चुभेंगे अंतिम पग तक, जीवन नहीं ठहरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है रण के इस तम मे छोटा सा दिया जलाया ढूँढने वक्ष चीर क्या खोया और क्या पाया प्रणय तो उड़ा हवा सा हाथ केवल शून्य आया उसे देख कर आँखों से नित सावन बरसता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है कल तक सूख जायेगा यह उर का छाला प्रणय परम है यह भ्रम जीवन भर पाला, थका दिन डूबा,अब अंत हुआ उजियाला ग्लानित है मन, वह नित मुख पर निखरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है मैंने बरसों से उसे उर में सजाया मन की मृदा पर प्रणय रचाया उसे आज इन आंसुओं ने बहाया क्षुब्ध रात मे आकाशदीप नहीं चमकता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है जीवन की थाह मिल गयी चलते-चलते, कभी जिया, मूर्छित हुआ, प्रणय मे जलते धूमकेतु सा लुप्त हुआ वह जगती मे पलते अँधियारे मे अब अकेले दुर्बल मन डरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है आज स्मरण नहीं है बुलबुल की बोली, वाद-प्रतिवादों मे शब्दों की जल गई होली, बिखरा है पल-पल, फटी है स्मृतियों की झोली प्यार का महा-प्रयाण नित सपनों मे उतरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है रात गहराई , यहाँ अँधेरा नहीं जाता है मृतकों से कौन अपना दुःख बतलाता है क्या शव भी कभी संवेदना जतलाता है भोर होते ही निष्ठुर रण फिर ललकारता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है पहले न जानी कभी ऐसी युद्ध-नीति जीत कर भी हारना है सम्बन्धों की रीति इस रण मे दिखती नहीं है अंदर की भीति इसलिए प्रणय, नित पारिजात सा बिखरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है चला था कल तक जिसका हाथ पकड़ कर उसने ही कुचला है प्रणय, जीवन मे घुस कर है कौन विकल यहाँ झाँकने उर के भीतर, कल सिधार भी गये तो नहीं कोई बिसुरता है नियति का यह रूप निशब्द क्यों उभरता है

माया

बीती यादों पर से इतना पानी बह गया जैसे सावन की मनमानी फिर ऋतुओं पर मायावी रंग चढ़ा जब आँखों पर कल श्रृंगार मढ़ा तुम दिखी दूर तो लगा वही है प्रणय, लगा साथ नहीं, फिर भी एक है ह्रदय मन तो स्वछन्द हुआ घूमता है निर्भय अधर जुड़े सपनों में तो छल मे हुये तन्मय प्यार छिपा है किस वक्ष-स्थल में छू गया कुछ मखमली इस कोलाहल में आ जाओ साथ मेरे इस क्रीडा-स्थल में कुछ आँखों से अनकही कह लें इस पल में कैसे आँखों में अब आस संभालें कहता है मन किनारे से, बाँध बनाले आओ तुम्हे फिर वैसे ही गले लगा लें प्रणय को दोबारा अपना भाग्य बना लें इन मरी सीपों में कब तक नीर भरे मोतियों पर बरसों से नहीं कालिख ठहरे मन आज भी है इतिहास पर मुस्कुराता सुबह उठ कर फिर वर्तमान से जा टकराता कितना जीवंत था वह इतिहास प्यार का स्पर्श, स्वर्ग का आभास आज ढूढता हूँ दूर कहीं वही पल पर मुट्ठियों से नित फिसल जाता है कल देख लो दोबारा उन आँखों से थाम लो ह्रदय को गिरती शाखों से खोल दो अपने जीवन का शुभ-सुन्दर जो छिपा तुम्हारे वक्ष के अन्दर मै प्रायः अपने से पूछा करता निर्मोही संग सांस कैसे है भरता इतिहास लिये यह जीवन क्यों है मरता स्वप्न मे भी मन क्यों है मुरझाया रहता सुन्दर, सागर सी विस्तृत मनवाली अन्तरंग में कहीं छिपी है भोली-भाली वह एक-अकेली बनी आँखों की प्यारी फिर जीवन भर छाई वसंत सी सारी उसे देख उमड़ती हैं आशाएं तन-सघन मन खो जाता कहीं सपनों में दिन-गहन पहले समय से परे अमरबेल सी लहराती आज देख मुझे वह विमुख क्यों हो जाती स्पर्श का संघर्ष है पुरुष की विधा यही है आदि से अंत तक फैली त्रिधा जब शरीर नहीं तो मन है कहाँ छिपा दुःख में भी हँसना तो है राम की कृपा   मत पूछो सुख इतना क्यों सोता है दुःख रतजगा चाँद तले रोता है आज पल भर लेटूं आह थामे किस गोद में झरते हैं आंसू अविरल कल के बचे आमोद से कितनी हाला थी उस चुम्बन में कहाँ लुक-छिप गया वह खुमार मन में कितनी है उथली आशाओं की मनमानी अब न ढूंढ सकूँगा मैं वह चाह पुरानी कितनी बार लहरों को लौटाया फिर भी किनारों पर थपेड़ें खाया निर्लज्ज लहरों सा है यह मन ढूंढ़ता है बंद कमरों में अपनापन तुम्हे कल कितने रतजगों बाद पाया पाँव पड़े छालों पर घिरी तुम्हारी छाया तुम जीवन बनी, हर सुबह हुयी सुनहरी पर कल की हंसी बनी है आज की ढ़ेरी वह तो चुपचाप खड़ा था कोने में उलझा था मन की बात लिए रोने में उस पर एक बार फेर लेती अपना हाथ मन मूक क्या कहता व्यथा की बात मन की कहूँ तो लगता है ताड़ बना शब्द भी थके चढ़ते-उतरते मन का तना कौन बताये तिल में किसने है ताड़ छिपाया टपकी कहाँ है उल्का, आंखों में तो है गगन समाया पहले धीमे-धीमे उडती थी कस्तूरी अब मधु-घट भी फूटा, बात रह गयी अधूरी कुछ और जी लेते जब अपनी बीती बतियाते अपनी ही यादों को जीने की फिर कथा सुनाते सपने फिसले जैसे पत्तों से झरता पानी दुबका था वह, कहता आह भरी कहानी करवट लिये आँखों में छाया था यह खेल लौट गया इतिहास, अब शेष व्यथा तू ही झेल क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया तुम भूली, पर मन तुम्हारे ही आँखों समाया आज स्पर्श भी उड़ा, जीवन मे दुख घना छाया अब व्यर्थ है अश्रु पोछना उर में तो है सिन्धु समाया निर्लज्ज मन अब तक नहीं समझ सका उसे देखते-मरते एक पग भी नहीं थका नित सुबह उसे घूरते मन की कितने खाये पूछ लो माया से अब तक कितने दुःख पाये उस सूखे वसंत की व्यथा कभी न कहना मन टूटा, यह जान कर भी अनजान रहना आँखें मूँदे दूर से ही स्पर्श की तपन है सहना अश्रु अमूल्य नहीं, उनका तो तय है बहना भागते हुये भी ठहरा सा लगता है जीवन इस तृषा मे स्वप्नों से ही भर जाता है मन रस-रूप आज है इतिहास बना हाथों मे बैठा छल गया जीवन, शून्य में यह मन भारी ऐंठा जब तक कमर मटके नाच सबके मन भाये अब हाथ न डोले, रस न घोले,देह रहे पथराये मधु के लिए तरसता, पग भर मे छाले आये कुछ मांगे भूल से तो कंठ फिर बिसुरा दुख गाये

मंथन

मौन रिसती आंसुओं से गहराया अंतर प्रणय मरा चढ़ गयी तम की चादर उस पर निशांत तक, बंधे बरस सारे स्वर्ग सिधारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे दूर दिखता है कभी फिर सम्बन्धों का मग पर अवज्ञा मे दबा उठता नहीं है कोई पग न जी पायेंगे फिर इतिहास हम समय के मारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे गीली आँखों मे चिपके स्मृतियों के रजकण मसोसते हैं मन चीर कर हृदय क्षण-क्षण दिन मे भी अब सिसकते हैं प्रणय के तारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे उसे देख मन फिर जलता है बिछुड़े आलिंगन मे गिरा है शलभ सा पर कटा अनछुये ही चुंबन से निर्लज्ज अधजला ही पड़ा रहा ढूँढता उसे अँधियारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे आशाएँ भी रतजगी रही तड़पती जलती-बुझती नींद मे भी चिकनी काया उस करवट ही झुकती कैसी है माया, तिरस्कृत हो कर भी उसे ही निहारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे वर्तमान जान कर भी छेड़ जाता है इतिहास कल का प्रणय कुरेद जाता है वही आभास आलिंगन की देहरी पर बहुत खड़े हैं दुखियारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे यह लहर भी लौट जाएगी दूर से ही छल कर हृदय छल गयी मिथ्या यथार्थ को मसल कर जीवन लंगड़ाता है आज थाम कर उथले सहारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे जगती मे मौन पड़ा हूँ आज बन कर शव गल रही है काया समेटती पुराने अनुभव तिनके सा गिरते-उठते डूब रहा है मन मझधारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे ढूँढता हुआ नीड़, क्या तुम्हारे उर मे छिप जाऊं लगी नींद गहरी आँचल मे, दोबारा न जाग पाऊँ यह स्पर्श आज मुझे दे दो, मरता फिर किसे पुकारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे आकुल होगा तुम्हारे लिये सदियों तक मेरा उर पर कौन है विकल यहाँ, किस के लिये है कोई आतुर देखो प्राण तज आया है तुम तक, प्रेत यहाँ पाँव पसारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे गाल पर एक ही, लगे जैसे हो सहस्त्र चुंबन पोंछ दे वह स्पर्श, हिम से जमे अश्रु के कण यह आभास तो भूत बना, अब किसे पुकारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे आज भी उसकी आँखों मे विश्व दिखाई दे ऐसा सुमन और भ्रमर के प्रणय प्रबल सम्बन्धों जैसा मूक बने, अब झुठलाती खुशियों को कैसे ललकारें मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे आज रेत पर तिनके से भाग्य रेखाएँ खींचे पल मे मिटा गयी लहरें इन्हे पाँव के नीचे मरे सीपों में अब ढूंढ रहा हूँ अवशेष हमारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे उड़ रही है सूखे पत्तों सी अर्थहीन आशा शब्द भी थके कहते-सुनते, मूक हुयी भाषा अँधियारे अतीत समेटते, अब टूट गए बल सारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे शब्दों मे रो कर मैं दुख का क्या भेद बताऊँ उस पाषाण को छल कर कैसे मर्म जताऊँ नित पूछता हूँ जड़ से कहाँ गये वे दिन प्यारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे प्रयाण मे केवल स्वप्न बचे हैं कुछ साँसों तक उन्हे झेलने भी, आज भारी हो रहे हैं पलक सूखे नयनों मे अब शेष स्मृतियों को कैसे संवारें मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे कल तक मेरी भी एक मधुबाला थी अधरों से आकांक्षा तक बहती हाला थी आज फूट गये रस के सारे फूले गुब्बारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे कहूँ तो लंबी है इस जीवन की गाथा मौन हूँ क्यों कि पत्थर पर दिया है माथा हाथ जोड़े, दीप, धूप, पुष्प सभी प्रभु से हारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे न कर पाऊँगा पूरी, आधी-अधूरी यह कहानी जिसे अकेले ही मैंने शुरू की थी सुनानी अंत की थाह नहीं, कब तक नीर बहेंगे बेचारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे अब कैसी है प्रतीक्षा, पी लूँ इस मंथन का विष यथार्थ यही है, सुख तो जिया केवल एक निमिष इस महाप्रयाण से पहले चुका दूंगा सारे ऋण तुम्हारे मैं निस्तब्ध सोचता रहा उद्वेलित लहरों के किनारे

विपरीत कथा

उसे देख तन मे रुधिर नहीं, बहती थी हाला पहले छोटी सी आशा मे ही भरता था प्याला आज धन-वैभव के बीच गुम हो गयी है माया ढूँढता हूँ, यहीं कहीं थी मेरी भी एक मधुबाला छू कर उसे, जलती थी शरद की सुखमयी ज्वाला अँधियारे यौवन लिये शलभ होता था मतवाला रात बुझा दीपक, बुझ गयी सुबह तक आंच भी ढूँढता हूँ कहाँ छिप गयी है आज मेरी मधुबाला मैं रतजगा खड़ा यहीं, पर बंद पड़ी है मधुशाला सूख रहा है कंठ, अधरों पर उधर लगा है ताला रात गए भी भूलता नहीं है कल का आलिंगन छोड़ गयी मुझे देहरी पर, मेरी बरसों की मधुबाला हर रात के श्रृंगार को अपना कहता है मतवाला जगती मे प्रणय थामे नहीं खड़ा है कोई आँखों वाला छिप कर यह रात भी गयी अनछुए ही प्रणय के अधर उल्का सी टूट गयी आज, जीवन से मेरी मधुबाला सब कुछ भाया जगती में जब चढ़ी प्रणय की हाला छोड़ गयी वह भी, उतरता नहीं है गले से कोई निवाला केवल दीवारों को सुनता हूँ बरसों से गूँथी वही कहानी मूक-बधिर हुआ जीवन, पाषाण हुयी मेरी मधुबाला उसके ध्यान मे नित लुढ़क जाता है रीता प्याला प्रेत हुआ है मन, उजियाला भी दिखता है काला मिट गयी आज मेरी पृथा की सारी पुरानी लकीरें यथार्थ छोड़ स्वप्नों मे खो गयी है आज मेरी मधुबाला उसे देखते हुये कल तक कितने बरस बिता डाला आज अँधियारे, नहीं है कोई पथ दिखलाने वाला भूख-प्यास सब तज कर खड़ा हूँ देहरी पर निर्निमेष अब न लौटेगी फिर मुस्कान लिये मेरी मधुबाला उन कत्थई अधरों को छू कर जलता था मधु का प्याला पलाश सी कपोलों पर फिर धीरे-धीरे दहकती थी ज्वाला शलभ भी वहाँ गिरता-उठता चख लेता उसका आलिंगन ठंडी पड़ी है आज काया, कभी संजीवनी थी मेरी मधुबाला बहती थी जहां निर्झरणी, सूखी है आज हांडी की हाला रसिक बन ढूँढता हूँ कहाँ छिपा है वह यौवन भोला-भाला बरसों तक अर्ध्य चढ़े तृण-पुष्पों का आज हुआ है तर्पण शत-शत नमन ठुकरा कर, देखो सिधार गयी मेरी मधुबाला चरणों पर गिर कर रोया तो तम ने उसे उर से निकाला निर्लज्ज सा पड़ा रहा वहाँ, तो निगल गया उसे यम काला अब जगती से क्या बोलूँ , झुठलाता घूमता हूँ विरह मे भी आह वही, अश्रु वही, पर अब पहचानती नहीं है मेरी मधुबाला उठा प्रणय जीवन से, किसी ने न उसे संभाला कुंतल सहलाते उसे, बहुत यत्न से था मैंने पाला सोचा था अवसान तक अधरों से मधु रिसता होगा कौन सुने यह जग-क्रंदन, अब न रही मेरी मधुबाला अकेला तारों मे ढूँढता हूँ वह मधु का प्याला लेकिन आज आँखों मे धूमिल हुआ है उजियाला मौन झरती आंसुओं से बुझती नहीं है मन की तृषा न जाने क्यों ऐसी तृष्णा छेड़ गयी मेरी मधुबाला भूलती नहीं है गले मे पड़ी वह पुष्प-मंजरी माला जो उड़ा गयी कस्तूरी खोल कर बंधन का ताला फिर न जाने इस उपवन मे नित कितने सुमन खिले आज बटोर गयी सूखी पंखुड़ियाँ भी मेरी मधुबाला अँधियारे हर करवट दिखती है वह रतिबाला हाथ पकड़ कर चली थी कल साथ मेरे सुरबाला अब कैसे घर लौटूँ, यह हाथ तो उस तक ही छूटा पल भर भी न झिझकी हाथ छुड़ाते मेरी मधुबाला झरती थी बरसों जिन काले अंगूरों से निरंतर हाला आज स्पर्श से भी मिचलती है वह रसीली बाला चिता की परिक्रमा करते फूट गयी है मधु की हांडी चादर ओढ़े शव सी लेटी है, हाय आज मेरी मधुबाला

निर्वाण

उजियाले ने मुझे छल कर बहुत सताया अँधियारे ने भी करवट लिये तुम्हें छिपाया आहत हुआ है तन-मन लुकने-छिपने के इस रण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे टूटती साँसों से रतजगे सुनाता रहा उसकी कहानी न घन फूटे, न ही दामिनी कड़की, सुन कर आह पुरानी ईश्वर भी मूक हुआ, अब जाता किस ओर शरण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे इस छोटे प्रयाण मे कुछ और ध्यान नहीं है आता वही रस-रंग आँखों से सावन सा है बह जाता स्मृतियों मे दिखती थी वह लहराती उसी आवरण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे नहीं रहा प्रणय की शक्ति मे अब अडिग विश्वास रुद्ध हुआ कंठ, छल गया सावन भी तृष्णा की प्यास स्वप्न भी सिधारे, फिर क्यों ढूँढता हूँ उसे जागरण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे न बूढ़ा हुआ है इतिहास, न ही यथार्थ हूँ भूला नित प्रणय के कंधे चढ़ कर भी, मन फिर वेताल सा झूला हार गया विक्रम, घिरा है केवल सन्नाटा अन्तःकरण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे कभी कसता था अप्रतिबंधित गोद मे आमोद आज मिटी संवेदना, होता नहीं है अपनों का प्रतिबोध मन के अँधियारे मे अब दिखता नहीं है कोई दर्पण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे न कोई रात मेरी, न ही रह गया रात का श्रृंगार मेरा अनुभूति ही नहीं, तो प्रतिकृति से कैसा अभिसार तेरा छिन गया अधिकार मुझसे, न जाने किस काले क्षण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे मौन हुआ कंठ, मधु भरे शब्द शलभ से जल गये प्रेत हुआ मन जगती मे, आज स्वप्न भी छल गये टूटा उर, कदाचित कुछ छूट गया बरसों के समर्पण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे लंगड़ाते जीवन को किस दिशा चलाऊँ आँखों से रिसते दुख को किस ताल बहाऊँ सावन रीता, आज ज्येष्ठ भी बिसुरता है घन-सघन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे मूल्य दे चुका हूँ जीवन में सुख के क्षणों का जो शेष रहा, वह बना पहाड़ रजकणों का क्या यही न्याय था जीवन के चिर-बंधन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे नियति ने क्यों दिया मधु-घट मे खारा जल पृथा की लकीरें भी सुनाती हैं जीवन का हालाहल झाँकती है तृष्णा निर्निमेष युग-नयनों के अंजन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे जब युग-बंधन मे छिपा है अविरल आलिंगन उल्का सा क्यों छलनी हो जाता है तन-मन हाथ भर की दूरी भी लगती है क्षितिज विजन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे लाचार हुआ याचक बन बैठा हूँ सृष्टा की अटारी मे गवां कर प्रणय, क्या शेष रहा अब मेरी बारी मे बिखर कर स्मृतियाँ छिप गयी धूल के कण-कण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे जीवन के मंथन मे, लगा प्रणय संग अमृत भी जीता छल गयी तृष्णा, कौन नहीं इस जगती मे है विष पीता रोते हैं सभी, कौन सुना है किस की इस जग-क्रंदन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे बहुत अहम है मन, अपने हठ से ही यह संसार चढ़ा कभी हँसा, कभी रोया, ऐसे ही मरते-कटते जीवन बढ़ा गिरता-उठता बिखर जायेगा यह जीवन भी कण-कण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे उर पर पत्थर धर कर आज आँसू भी छोड़ गए लोचन कोई सहलाता, कह जाता पीड़ा से ढूंढ ले कोई नया गगन अधमरे शलभ सा जल रहा है, देखो आज तन अपने ही तपन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे बुझ गये सारे दिये, अँधियारे आज कोई समीप नहीं विकृत सा मन इतिहास की पोटली बांधे बैठा है यहीं ग्रहण लगा है जीवन मे, कभी तो उतरेगी चाँदनी आँगन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे अँधियारे टूटे नीड़ तले, अब नित रोना ही भाता है गयी गगन प्रेयसी, लौट कर कौन वहाँ से आता है कैसी है स्नेह-सगाई, जब भावना ही मरी अन्तर्मन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे सोचता हूँ , अतीत लिये जलती ढेरी पर सो जाऊँ फिर धुएँ मे लहराता सूखे पत्ते सा कहीं खो जाऊँ जला सब कुछ, अब जगती भी छूटा इस जीवन मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे कभी प्रेयसी को गोद मे लेटाकर भविष्य बाँचता था आज वह उन्माद कहाँ जो आँखों मे नित झाँकता था यह वर्तमान क्यों रौंद गया खेलता हुआ इतिहास क्षण मे आज मर कर भी जी रहा हूँ प्रणय के इस ऋण मे

कालबोध

अकेले ही कहता-सुनता हूँ गाथा जीवन की कौन विकल यहाँ पूछने यव्था रजकण की बंधन सारे टूटे अब प्रतीक्षा है किस क्षण की प्रणय भी पड़ा है विक्षिप्त सा सूखे तरु के नीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे जीवन की पूर्णाहुति मे स्मृतियों का अर्ध्य लिये पाषाण से टिका अँधियारे ही बुझ गये आरती के दिये नंदिनी उठी नहीं, व्यर्थ ही क्यों शब्दों से संघर्ष किये मन बावला फिर भी नित जड़ तकियों को सींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे अब मन के भाव शब्दों पर नहीं हैं छाते गहराई पीड़ा, आँसू भी उस तक नहीं पहुँच पाते देख कर रोता, हैं अपने भी उस से विमुख हो जाते अकेले तिनके से रेत मे कितने अर्थहीन रेखाएँ खींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे इस पंक से उठ कर तुमसे दोबारा आँख मिलाऊं बिछुड़े प्रणय को लिये एक बार उर मे छिप जाऊं जलने से पहले छू कर तुम्हें, फिर न जाग पाऊँ पग बढ़ते हैं, पर मन बेचारा झाँकता रहता है पीछे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे बरसों बाद, जीवन पटल से टूटा है एक तारा दुलारा लगता है जड़ तकिये पर झरते आंसुओं सा है अंत हमारा किसे सुनाऊँ कल की बात, यहाँ वर्तमान है दलदल सारा गागर भर अपना ही दुख क्यों उर मे बार-बार उलीचें मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे लौट गया कल दिखा कर सुख का मेला स्मृतियों मे क्यों ढूँढता हूँ मैं वर्तमान अकेला चिकुर जाल मे गुंथा मैंने बरसों आशाओं से है खेला किसे सुनाऊँ मन की, आज नहीं है कोई इस गगन के नीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे कंकड़ से गिरे धरा पर, आँसू जलते नयन से बह गये, थामा था जिन्हे उर फटते तक लगन से चल बसा आज प्रणय भी इस छोटे से गगन से अब अर्ध्य क्या चढ़ाऊँ सूख गये मन के सारे बगीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे तोड़ कर सम्बन्धों को, आज तम ने है जीवन को घेरा हाथ भर की दूरी मे ही मर गया उन्मत्त उजियाला मेरा अँधियारे खोयी स्नेह-सगाई, न हुआ फिर कभी सवेरा रतजगा रहता हूँ , प्रेयसी को अंजन सा आँखों मे खींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे जग सोया है रतिमय, पलक नहीं है मेरी लग पायी पड़ा है प्रणय यहीं शव सा, यह रात भी अब पथरायी डरा जाती है अंधेरे मे भी, आती इस ओर वह परछाई आज जड़ हुआ है जीवन, उस पर क्यों झूठी पुनर्नवा सींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे टूटा नीड़ मेरा, उर मे घाव लिये ही सो जाऊँ-मर जाऊँ निर्वासित हूँ, उसी पथ से दोबारा मैं घर कैसे जाऊँ निर्लज्ज, क्यों न किसी पत्ते से जल-कण सा झर जाऊँ शेष हैं कुछ आशाएँ, मृत्यु तक लेटा हूँ उन्हे मुट्ठी मे हूँ भींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे शून्य देखती आँखों मे समा गया एक उल्कापात मुट्ठी भर आकाश टूटा, बीत गयी क्षीण सी यह रात यह अपनी-अपनी व्यथा है, कौन विकल यहाँ देने साथ हवा भी है स्तब्ध, क्षितिज मे अब कौन किसे खींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे सारा विश्व सो गया है, प्रेतों से ही कर लूँ अब कुछ बात कंठ मरा, उर बुझा, पोंछते आँसू बीत गयी अधूरी रात कल सुबह ढँक देगा चादर कोई, समझ कर मुझे शव अज्ञात यही है कालबोध, जीवन मे जब अपने ही रहते हैं आँखें मीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे कल प्रबल है, देखो सूरज भी नित ढहा करता है सृष्टा भी मौन है, फिर व्यर्थ क्यों अश्रु बहा करता है दुख मे चिल्ला कर भी मन मूढ़ बना सहा करता है क्यों सजाता है महलों के सपने,ओ निर्बल इस नभ के नीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे देखो इस शून्यता मे अपना ही कोई पास सो रहा है शव सा लिपटा देख कर उसे, मन निशब्द रो रहा है निहंग हृदय मौन अपने घाव आंसुओं से धो रहा है फिर मन बावला क्यों हवा मे निरर्थक भाग्य रेखाएँ खींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे एक बार तो दिखा देती प्रेयसी प्रणय अवगुंठन वाली भय काल का नहीं, और नहीं सहती है रात काली संबंध तो मिट्टी सिधारे, मन प्रेत बना करता है उसकी रखवाली जल रही है जब अंतर्ज्वाला, उस पर क्यों झूठी गंगा सींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे स्मरण नहीं है कब प्रणय पुचकारे हम यौवन वय से छू नहीं सकते हैं आज उसे, निष्ठुर सम्बन्धों के भय से आह निकलती है निरंतर, छू कर साँसों को क्षुब्ध हृदय से स्वर्ग बिसुरा, आज पग भर भी मिट्टी नहीं है धरा के नीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे प्रणय के युगबंधन मे यह कैसा गहराया है दुराव निर्वासित हुआ जीवन, मर गए हृदय से उभरते भाव कब से सह रहा है जीवन, पाषाण से हुये अगणित घाव न जाने और कितने खड़े हैं मुझ जैसे इस नभ के नीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे इस जीवन मे मैंने एक ऐसा भी क्षण देखा है सिंधु के घटने और मरु के बढ़ने का परिवर्तन देखा है पत्थर को छू कर रोती लहरों का सूनापन देखा है फटे हृदय मे कौन यहाँ मुट्ठी भर संजीवनी उलीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे महाप्रयाण मे मिलने बीते दिन नहीं है आने वाले उनींदे जग मे नहीं हैं कोई व्यथा सहलाने वाले स्नेह गिरा धरा पर, नहीं यहाँ कोई उसे उठानेवाले बची जिजीविषा, झाँकती है अवशेष पत्थरों के नीचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे अब नहीं ढूँढता हूँ सुख जिसे जीवन मे बोया था नहीं बाँचता हूँ इतिहास जिसके अंक मे सोया था प्रणय-प्रेयसी सारे छूटे जिन्हे पलकों पर ढ़ोया था यही है कालबोध जिसे पृथा पर हम भाग्य समझ खींचे मैं बैठा हूँ मौन आज दिशाहीन इस जगती मे आँखें मीचे

आधा-अधूरा

सभी ठहरे अधूरे, है कौन यहाँ सम्पूर्ण हो पाया युग बीते, वेताल बनी आशाओं से है मन घबराया शत यत्नों के बाद भी काल न दोबारा लौट कर आया हो गया है तन-मन जर्जर अब न करो मेरा फिर निर्माण जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान हाथ फैला कर मांगने की कोई सीमा होती है मन मे उठते प्रणय की नहीं कोई परिसीमा होती है निर्लज्ज हो कर जीवन मे सहने की भी सीमा होती है सर्वस्व दिया है मैंने अब न करो फिर मेरा अपमान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान समझा था मैंने तुम्हे ही जीवन का कंचन निर्वासित कर जीवन से लूट लिया मेरा ही प्रिय-धन बिसुरते मन की व्यथा पर हँसते हैं तुम संग सभी स्वजन गहराये बहुत संबंध, अब और न करो उनका सम्मान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान क्या यही था उपहार प्रणय के चिरबंधनों का विलुप्त हुआ उन्मत्त स्पर्श दे कर पीड़ा शत-क्रंदनों का मूल तो इतिहास बना, वर्तमान पर चढ़ा सूद मधु-कणों का इस पथ क्यों भेज दिया मुझे दे कर प्रणय का वरदान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान नीड़ बना कर सोचा था मन का शून्य भर दूँगा बढ़ते बच्चों की प्रत्याशा मे अपना दुख हर लूँगा क्षीण होगा जब जीवन उनके परों तले ठहर जाऊंगा उड़े सभी अपनी दिशा, मैं ढूंढ रहा हूँ फिर नया स्थान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान कहाँ है वह अंक प्रिये, जिस पर मैं निस्तब्ध सो जाता जीवन के इस हलाहल मे हाथ पकड़ कहीं खो जाता उर भेद कर संग तुम्हारे मेघों सा फट कर रो पाता तुम छूटी, नीड़ भी छूटा, आज हुआ मुझसे जग अनजान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान छिप गयी मधुबाला बरसों दिखा कर प्रेम का दर्शन छल गयी आशाएँ, बची नहीं प्रणय की भी उतरन वह सुंदर मुख आज क्यों छोड़ गये यह लोचन जीवित हूँ, पर उसे नहीं है मेरे आर्त का अनुमान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान बहुत हैं ढूंढते इस जग मे युगों से यौवन भूखा कुछ को यह भाग्य से मिला, शेष का तन-मन सूखा तृष्णा की अमिट विभुक्षा मे, हुआ निर्लज्ज जीवन रूखा कौन विकल यहाँ सुनने क्रंदन, है समय बहुत बलवान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान स्वर्ग मिला फिर भी अतृप्त आँखों मे फैलाये हैं बाहें नहीं टूटा कोई तारा, गगन भर बिखरी हैं अगणित चाहें एक ही नीड़, एक ही है निवाला, दिखती नहीं है सहस्त्र राहें मुट्ठी भर आशाएँ मेरी, पर प्रणय का नहीं है कोई परिमाण जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान आशाओं के आकाश तले दिनों से जड़ पड़ा हुआ हूँ मृत प्रणय के तम-समाधि पर धड़ तक गड़ा हुआ हूँ बहते रुधिर को रोक, जगती के आँखों मे अड़ा हुआ हूँ बरसों का अनुराग तोड़ कर गयी माया तन निष्प्राण जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान अचेत हुआ जीवन पर भी निस्संकोच अकड़ती है छाती अंग-प्रत्यंग विव्हल है, अब नहीं प्रेयसी मधु छलकाती इन सम्बन्धों मे संवेदना कहाँ जो ढूंढ मधुबाला ले आती नहीं कर पाये तुम भी कोई चमत्कार, तब कैसे हुये महान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान समस्याएँ भी बंटी, जो अपने हिस्से मिले, सिर चढ़ाये आँख भी आप ही रोये उस से कौन यहाँ अश्रु मिलाये सहधर्मिता मरी, बिसुरते भाग्य को अब कौन गले लगाये अपनों मे ऐसा अपरिचय देख आज इतिहास भी हुआ हैरान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान क्यों छल गया जीवन, मैंने तो नहीं चाहा था प्रणय-प्रतिकार स्वप्न तोड़ कर उन बड़ी आँखों मे देखो चीर गया संसार धीरे-धीरे संबंध कुचल कर रख गया उर पर पर्वत सा भार जीवन के इस हालाहल मे भीग गया आंसुओं से यह परिधान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान रुद्ध हुआ चहकता कंठ, और मौन मे फंसा गला बरसों का अपनापन टूटा, जीवन शेष सिसकता ढला बंटा अंश-अंश, मैं अवशेष लिये आधा-अधूरा ही चला रात चाँद का टुकड़ा लिये, बस सुनता हूँ झींगुरों का गान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान यौवन के पीछे मृगतृष्णा सा गिरता-उठता पछताया जब वह मधुमय क्षण बीता आँखों मे घन-सघन छाया कहते-सुनते निर्लज्ज आज समझा होती है मिट्टी की काया जो छूटा वह क्षितिज समाया, अब किस पर है अभिमान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान अब न मरना कायर, संघर्ष उठा है जीवन मे प्रणय छीन लेना, ऐसी पशुता भरी है मन मे क्यों तोड़ते हो फिर नीरवता इस बलशाली तन मे छोड़ो, आज भी तोड़ न सका मैं उसके उर का पाषाण जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान स्नेह-सगाई का इतिहास बाँचते, दिन-रात गला है वह ऐसी मधुर संध्या थी जिसमे यह प्रणय पला है हिमपात से ढँकी चाँदनी के तले प्राण अनंत जला है कर लूँ प्रायश्चित तुमसे, नहीं होना है मुझे आयुष्मान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान हे आराध्य अब तक पृथा पर आरती की लौ से जला बीते दिनों ऋचा सुनाते उसके ही आँचल मे पला अपनी व्यथाएं ढोता आज इस महाप्रयाण पर चला तुम हँस लो जितना भी, मेरे तो मरे सारे यजमान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान आज दुख से मैंने पूछा अब मुझको तू क्यों है डराता प्राण को बिखरते देखा हूँ, अब और नहीं है मन घबराता शापित प्रणय को देख-देख उसे छूने से है मन कतराता पाषाण सी पड़ी है अहिल्या उसे चरणों से छू लो भगवान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान छीन का दृष्टि मेरी, आज हृदय पर पत्थर धर दो अधरों की तृषा मिटा कर आँखों मे सागर भर दो मन-माया के बंधन से तोड़ कर स्वतंत्र मुझे कर दो क्षमा कर यहाँ छूटा आधा-अधूरा, कर दो मेरा अवसान जगती के इस भीड़ मे प्रभु अब न धरो मेरा ध्यान

लेखा-जोखा

हमने मिल कर जीवन रचाया पीड़ा की खायी पर न मन घबराया टूट गया बरगद सा प्रणय का आधार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार आज आँखों से रिसता लहू चख लो निशब्द अपने उर पर पत्थर रख लो उठा लो चिता पर चालीस मन का भार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार नहीं गूंजता है यहाँ चिरबंधनों का गान है किसे यहाँ शत क्रंदनों का अनुमान टूट गये हैं सारे प्रणय के सुरीले तार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार निशा की वह धूमिल कामुक छाया गुम हुयी जैसे हो कोई छलती माया उठ गयी देखते ही देखते बीच मे दीवार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार न भूल पाऊँगा कभी उन मधुर क्षणों को विक्षिप्त सा बटोरता हूँ आज रजकणों को हार गया जीवन मे यह तन-मन का व्यापार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार कर लें आज अपने दोषों का लेखा-जोखा मृत्यु से पहले उठा लें बीच से झरोखा मर जाएँगे ऐसे ही ढूंढते जीवन का सार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार प्रणय के इन बिखरे दलों पर अपने ही कुंठित हृदय के अंदर इस जगती मे किस का है अधिकार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार चढ़ गया आँखों से ऊपर खारा जल हँसता हूँ देख कर अपने जीवन का हलाहल अब रण कैसा, सामने डटी है यहाँ हार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार छल है जीवन मे सारे धर्म-कर्म जोड़ नहीं पाते हैं बिसुरे आर्त-मर्म हाथ रहा न प्रणय न ही नीड़-परिवार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार फैली बाहों मे बीत गया जीवन भूखा जड़ तकिये की तपन से कंठ भी सूखा निर्लज्ज जीवन पर अब किस का है अधिकार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार अवसान तक आशाओं का अंबार लगा है आज किस सपने का फिर भाग्य जगा है अपने ही छोड़ गये जब, फिर किस से है मनुहार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार उसे समर्पित कर जीवन के सत्व सारे जलता हूँ अपने ही उर पर रख कर अंगारे है जीवन यही, इसे आडंबर कहें या व्यवहार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार नित तिमिर से यह मन घिर जाता अब दीवार पर सिर देना ही भाता कभी सपनों मे सोचता निशा के उस पार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार हिसाब कर लगता है आज सब कुछ लुटा प्रणय की ओखली मे उर बहुत है कुटा खिंच रहा था जीवन कहीं दूर यम के द्वार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार बिसुरा सुख ढूँढता बहुत रोया मन मेरा पर कौन विकल यहाँ सुनने क्रंदन मेरा प्रणय तो हुआ प्रेत अब कुछ न रहा साकार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार रहता है प्राण घाट पर मन मारे नित कफ़न ओढ़े सोते हैं बिसुरे प्यारे किसे कहूँ मन की, यहाँ सभी ठहरे लाचार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार कभी लगा बाँट ले दोष आधा-आधा सत्य भी छल गया, न छूटी तन-मन की बाधा बिखरी स्नेह-सगाई, अब न किसी से है प्रतिकार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार निर्वासित सा जलते पाषाण पर पड़ा हूँ अपनी ही समाधि मे गले तक गड़ा हूँ आकाश मे उल्का सा विलुप्त हुआ वह प्यार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार कितनी रातों को कह गया मन मेरा चीख कर तोड़ दो शवों का यह डेरा पर धर्म-कर्म के जोड़ मे मुझ पर ही रहा उधार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार आज गोद मे इतिहास को छू कर कंठ मे आर्त स्वर भर कर गा लेता हूँ महाप्रयाण का मल्हार हुये असहाय अब संबंध भी गए सिधार

विसर्ग

जगती मे प्रणय पुराना आज ठिठुरता हेमंत है इन आँखों से अब दिखता नहीं कहाँ वसंत है निस्तब्ध हुआ उन्माद, यही उल्का सा अंत है मुट्ठी भर स्नेह-सगाई नहीं क्षितिज सा अनंत है बरसों की प्रणय-सरिता लगती आज दाह घाट है कुछ मांगो सहज भी तो वह समझती कोई हाट है इस जीवन का रंगमंच दिखता मरुथल का पाट है इस नाट्य मे छिपा दुख अनदेखा सत्य सा विराट है प्रणय की विकलता है रिसते आंसुओं की धार उर उलीच कर किसे दिया है जीने का अधिकार आह को दबा कर, स्वयं पर कैसा है यह अत्याचार हाय! मेरी बरसों की स्नेह निधि का यही है प्रतिकार तोड़ कर कण-कण मेरा मुस्कुराती है सुख की घड़ियाँ हृदय की आग से जलती हैं नित स्वप्निल फुलझड़ियाँ देख कर उसे आज बुझती हैं आमोदित प्रणय की लड़ियाँ हे प्रभु ! डाल दो आज इस निर्लज्ज तृष्णा पर हथकड़ियाँ इस आरव मे कभी लगता है उसे सुने बरसों हो गये यथार्थ से अलग उन स्मृतियों मे हम युगों तक सो गये मन से कर्म से आज जाग कर भी जगती मे खो गये युगबाहों मे बंध कर भी हम परस्पर कितने दूर हो गये कुचला है मन तुमसे, कैसे यह उठता दर्द संभालें बिसुरी छोड़, दुखते रग पर कैसे नया बांध बना लें बात अपनी है, गिरते को नहीं यहाँ कोई उठानेवाला जगती मे सभी संबंधी, पर नहीं है कोई समझनेवाला भूल जा विसर्ग, जान कर भी तू अनजान बन जा प्रणय की वंचना को रौंद कर आज पाषाण बन जा प्रसंग सारे मिट्टी सिधारे, तू भी अब निष्प्राण बन जा छोड़ कर सारी माया आज निर्वाण का प्रतिमान बन जा अपनापन कैसा, अब अनुराग नहीं है इस बंधन मे युगबाहों की चाह छिपी है बरसों के पहले चुंबन मे नहीं मिली वह मृदुता, अनगिनत बार झाँका है मन मे अब केवल अनर्गल प्रलाप ही करता हूँ मैं जन-जन मे ढह गया वह प्रेम-प्रसंग बूढ़े मिट्टी के घर सा ले गया पाँव तले धरती सागर के क्रूर लहर सा भीग गया मन नंगा सावन के झंझा मे झर-झर सा अब अवसान मे क्यों ढूँढता है मन बीता स्पर्श अधर सा अस्पृश्य प्रणय का मुझे ऐसा ही संसार मिला है एक संवेदनहीन जड़ जीवन का उपहार मिला है पर उसे फेंकने देहरी पर ईश्वर से किसे अधिकार मिला है हाय! ऐसे विसर्ग मे भी कहीं सिसकता हुआ प्यार मिला है स्वप्न नहीं यथार्थ है यह, आज भाग्य ठगा है मेरा स्नेहिल सम्बन्धों को चीर कर एकांत जगा है मेरा अब कौन विकल यहाँ, स्वयं पर ही दांव लगा है मेरा विस्मृत विष पी कर आज जीवन से भय भी भगा है मेरा देखो लौट आया है विहग प्रणय-वाटिका से पिंजर मे परित्यक्त हृदय लिये क्यों देखूँ मैं फिर उस कोटर मे उठती है वेदना, झरते हैं अश्रु पल-पल के अंतर मे निस्तब्ध मूक बना, क्या कहूँ आज मैं उधार के स्वर मे देख निस्सारता मन की, प्रायः सोचूँ जीवन से हट जाऊं निर्वासित सा कहीं दूर ठहरूँ जहां न उसकी आहट पाऊं लगता है भीष्म सा कभी जगती के झंझावत मे डट जाऊं या मांग लूँ क्षमा पर्यूषण मे, चाहे मैं फिर मुंह के पट खाऊँ रोको मत, छोड़ दो इस विक्षिप्त को किसी राह मे आह पुरानी लिये रोता है वह प्रणयिनी के चाह मे न डालो उर पर पत्थर, बह जाने दो उसे इस प्रवाह मे सुख की आकांक्षा लिये जी लेगा वह पीड़ा की थाह मे या मिटा दो गहराती कालनिशा की छाया इस बार कर दो जीवन मे दोबारा प्रिय वचनों का संचार जागो झूठी अस्मिता से, खोल दो अब अपना द्वार यह संसार है छोटा सा, न करो जीवन का व्यापार

आवृत्ति

चुपके से यह मन भीगी रात निकलता है दूर आँखों मे झांक कर भी निशब्द रहता है तिरस्कृत हो कर क्यों फिर देहरी पर फिसलता है प्रणय तो सिधार गया अब क्यों स्वयं को छलता है यह प्रणय मिलन नहीं, अहम का व्यापार हुआ है जगती के लिए झूठे प्रियतम का अभिसार हुआ है जीवन क्रम कब पृथा की लकीरों के अनुसार हुआ है उर थामे, जड़ क्रंदन से कौन सा सपना साकार हुआ है यह संबंध कैसे बने और कब चुपके से गये सिधार स्नेह-सगाई छम-छम करती सरक गयी उरों के पार जब भी एक बूंद झरा कपोल पर पाया उसने मन भर दुलार पर बिखर गया ओस सा वह, कितना क्षीण था मन का आधार अकेला क्यों हुआ मैं आज, कहाँ गये वह सारे मादक पल सुख भरे आँचल मे कितने श्रम से सजाया था क्रीड़ास्थल चूर हुआ हृदय, तुमसे दूर वहाँ नहीं होती है कोई हलचल चढ़ कर कहती थी हाला, संग उसके यही है मेरा रंगमहल पहले जब छू कर मधुघट फूटा, लगा वही प्रणय है समझा संतों की कथनी जैसा प्रेम का एक हृदय है पर यह विकृत सा कैसा दो देहों मे गुंथा एक समय है पहचान सका हूँ आज, जगती मे यह केवल अभिनय है देख कर उसे आँखों मे दोबारा भर गये स्वप्न गहन कनखियों से झाँकता रहा नित तन का सत्य सघन कुछ दिनों उन्माद नाचा, फिर बदला तन-मन जीवन ठग गया निर्लज्ज प्रणय, हे माया तुम्हें शत-शत नमन मौन थी प्रेयसी, मौन था प्रणय जीवन से हुआ अलग नहीं थी अब कोई बात, रात ओढ़े सो रहा था सारा जग आभास हुआ कुछ टूटा पर उधर उठे नहीं नंगे थके पग पिंजरे के अंदर अपनी कह रहे थे हम जैसे पर कटे विहग प्रणय का वह रूप मैंने भी देखा था शुभ-सुंदर आशाओं की बुनियाद पर बसाया था यह घर रवि-रजनी से छिप कर तब गूँजता था एक ही स्वर किसे पता था वहाँ होगा शत क्रंदन, बहेंगे अश्रु निर्झर अब संग नहीं उसका मैं अंधा किस पथ पर जाता हूँ खोल नयन जगती मे स्वयं की दशा देख नहीं पाता हूँ दोपहरी मे अपनी छाया को ही प्रेयसी समझ रुक जाता हूँ अपने ही अंदर मैं प्रति दिन इस द्वंद-दहन मे मर जाता हूँ इस मन की निर्लज्जता अब कोई नयी बात नहीं इसी आवृत्ति मे मैंने निस्तब्ध नयी दानवी रात सही समय ने आज मुझसे प्रणय के अवसान की बात कही मधुबाला इस जीवन मे अब केवल एक पहेली रही मुझे चाक पर घूमता कच्चे मिट्टी का संसार मिला है प्रणय मे नित टूटता-बनता यह कैसा प्यार मिला है यहाँ जगती के नवरसों मे गुंथा प्राण निराकार मिला है कभी अधरों पर, कभी मन-हृदय से तिरस्कार मिला है रति की कामना मे कितने छाले पड़े यह पग भूल न पाये बिसुरे सुख की स्मृतियों मे धड़कती छाती पत्थर हो जाये ढूंढ ले मन इस जगती मे मुझसे कम दुख कितने हैं पाये अब कौन विकल यहाँ प्रणय पुचकारने, सभी हैं गिरे पथराये जगती की मिथ्या मे कहीं प्रणय दिखता नहीं था रस-रजनी ने मे डूबा हाय! प्रभु क्या जीवन यही था उर मे सांस नहीं, बजते कंकड़ों के सिवाय कुछ नहीं था इस निर्लिप्त जीवन मे अब कहीं कुछ और शेष नहीं था अमृत सा आभास दिला कर छल गया यह जीवन मुझे बिखरा मधु मिट्टी मे, टूट गयी मधुशाला कर के नग्न मुझे उस घाट पर सिधारी स्नेह-सगाई दे कर चिर क्रंदन मुझे अब लौटा दूंगा मधुबाला, इन आंसुओं के कण-कण तुझे यदि ऐसा होता तो क्या से क्या हो जाता सामने तुम्हारे अपनी गाथा क्षण मे कह जाता तुम्हारे आँचल मे शेष बांध कर जीवन से न पछताता टूटा इतिहास जोड़ कर यह जीवन पुनः बना पाता सुख की कल्पना कर फिर घूमता है दुख की आवृत्ति मे दौड़ता है बावला सा उसी मरीचिका के पुनरावृत्ति मे जोड़ता है फिर भाग्य रेखाओं को जगती के टूटे भित्ति मे यही है पुरुष के स्वर्णिम प्रणय की गाथा मेरी अभिव्यक्ति मे कल तक प्रणय प्रेयसी परिणय सभी मिल कर बल खाते उषा मे आनन बाँचते, कभी रजनी मे छिप कर सुख जतलाते अब स्मृतियों मे गिरते-उठते अनायास स्वयं को रहते हैं बहलाते हाय! जीवन तुम निर्लज्ज तो मर कर भी क्यों खड़े हो इठलाते मन की प्रेयसी तो मिट्टी हुई, अब प्रणय से व्यर्थ लड़ाई है अब शून्य ही शेष है, यही सत्य जीवन से शपथ कर आई है उस पार देखो, वामा की अस्मिता काले बादलों सी छाई है स्नेह-सगाई को भी वह वासना समझ प्रणय को रौंद आई है सादर मैं नहीं कभी जगती पर विकृत सा हंसा था न ही कभी किसी रस रमणी रंभा के आँगन मे फंसा था लेकिन छूट गयी मेरी मधुशाला जहां धड़ तक धंसा था निर्वासित हो गया मैं फिर भी मन वहीं मधुबाला मे बसा था आज मैं था, मेरी मधुबाला थी, पर कहाँ वह उन्माद था सूखे बेलों पर निष्प्राण लटके अंगूरों मे न ही वह स्वाद था मन के हाहाकार मे अवगुंठित कहीं स्तब्ध वह आर्तनाद था अगणित देवों के पुष्प-प्रणति का यही अभिशप्त प्रसाद था हट कर जगती से मैं अकेला तपता मर्म कैसे जांच लेता समय होता यदि तो माया से भी बिखरता प्रणय बाँच लेता कहती मधुबाला आज भी तो काँच पर हंस कर नाच लेता पर खड़ा हूँ आज स्तब्ध घाट, उड़ती चिनगरियों से आँखें सेता फिर वही आवृत्ति, प्रणय से छूटा दोबारा प्रणय की ओर तिरस्कृत मन दिशाहीन विहग सा ढूँढता है क्षितिज का छोर कितने अटल बंधन टूटे इस जगती मे पर खुलती नहीं है डोर निशा बीती, तिमिर जीता, पर लगता है होगी कभी तो भोर जब भी मन मे सुख जागा प्रणय मुंह ढ़क कर सोया है जब भी अधर जले यह जीवन कितना विवश रोया है रिक्त हृदय सूखे पत्ते सा उड़ता इस सृष्टि मे कहीं खोया है किस पर किस का है दोष, हमने ही यह प्रणय बीज बोया है मूढ़ मन ही व्यथा यही, वह जगती से है अज्ञात छोड़ गयी मधुबाला भोर ही, न मिलेगी फिर इस रात जाना है निहंग ही, व्यर्थ है अब ढूँढना किसी का साथ निगल जाओ विष सा, आज सारे प्रणय-मंथन की बात नहीं कोई मधुबाला यहाँ, अब तो यह बात समझ जा मन इस कथा का अंत यही है, चाहे झूठा ही हंस ले प्रति क्षण नहीं अब शेष प्रणय-प्रसंग यहाँ, जा कर ले मन परिवर्तन लौट कर जगती मे नहीं मिलेगा दोबारा जीने का आकर्षण

भाव-भंगिमा

बतलाओ क्या सत्य यही है पुराने प्रणय की भावना नहीं है पूछता हूँ क्यों यह जगती सही है क्या दृगों मे जीवन का अर्थ यही है आस-पास कब किसने कहा है जगती मे स्वर्ग का सुख यहाँ है मिलता है सब कुछ अश्रु जहां है आज तक यह निर्झर वहीं बहा है संसृति मे प्रणय छिपता है बावला मन उसे ढूँढता है और बार-बार मात खाता है फिर यह जीवन खुलकर हँसता है वेद कहते हैं यही विधा है सच मानो तो विष ही सुधा है यही मायावी जगती त्रिधा है न गूंथना इसे सारे संबंध मृदा हैं सब कहते हैं छोटा सा जीवन है सदियों से माया का दर्पण छलता है झूठा प्रेम का समर्पण जो नित टूटता रहता है क्षण-क्षण वह दौड़ता रहा बरसते घन मे पुरानी प्रेयसी को लिए मन मे कब तक भागता टूटते तन से वह जा गिरा कहीं जगती के विजन मे इस जीवन की भंगिमा लगती है जैसे खंडित प्रतिमा जिसकी खोई है बची हुई गरिमा हाय! कहीं भटक गयी है मधुरिमा प्रभु! प्रणय हुआ है आज निश्वास इधर उसका टूट गया है उच्छास कभी होता है प्रेत सा आभास बतलाओ तुम ही यह कैसा है उपहास किसी का आज हृदय टूटा देखो दोबारा मधु घट फूटा जगती मे यह निर्लज्ज फिर लुटा अब वही दिशाहीन सा नग्न छूटा जब किया उसने प्रचंड क्रंदन चारों ओर निशब्द हुआ गुंजन उसने नव कर किया स्वयं का मर्दन कहो! अब कैसा है देवों का अभिनंदन लगा जो अब तक कंचन था जग का एक मायावी मंचन दृगों से बह गया सारा खारा अंजन यही था प्रणय का प्रखर प्रभंजन अब वह पुराना स्पर्श भूला उसने उम्र का उत्कर्ष भूला अब शेष रहा हर्ष भी भूला अंत मे जीवन का निष्कर्ष भी भूला निश्चित इसे ही कहते हैं अवसान देखो मिट्टी हुयी सारी मुस्कान जगती से अब तक रहा अनजान बिसुरता रहा है खोया प्रणय-प्राण शापित है आज युगों का भुज-बंधन बहुत निर्लज्ज है अभिसार का चुंबन अब अर्थहीन है दृगों का अंजन मत रो यहाँ, व्यर्थ है शत क्रंदन हुआ वह पाषाणों का अधिकारी अपने ही जीवन पर छाया है भारी देख ली हँसते-रोते सृष्टि भी सारी किन्तु नहीं मिली कहीं वही दुलारी

निर्झर

कभी मन डूबा सोच कर कैसा है जीवन का यह डेरा अंधेरे ही नहीं, उजाले मे भी लगता जैसे प्रेतों ने है घेरा उठ कर बैठा रातों मे, कितनी बार बिसुरा यह मन मेरा चाहा कई बार मन बांधे चीखकर कर दूँ अभी सवेरा कब तक भागूँ, किसी नीड़ से मन भर सुख न मिला कौन है जगती मे जिसे किंचित भी दुख न मिला उन स्मृतियों से दूर दोबारा कहीं वह मुख न मिला विकृत सा भटकता हूँ किन्तु दृगों का रुख न मिला क्यों तुमने उस चाँदनी मे बावले को उर से लगाया मरती आशाओं को किस बात का विश्वास दिलाया दृगों मे भर कर उसे जगती मे क्यों असीमित रुलाया हाय! तुम से आती हवा छू कर भी उसे न पल भर सुलाया वह तो तुम थी जो हँस गयी सोयी तृष्णा जगाकर रात सोयी तुम्हारे आँचल मे सुबह ले गयी उसे भगाकर अब पागल कहती हो मुझे तन-मन से मद्यप बनाकर हुआ मैं विक्षिप्त गिरता-उठता, अब क्या होगा उसे मनाकर याद है तुम्हें गोद मे लिटा कर, बिखरे कुंतल संवार कर प्रेयसी कहा था तुम्हें, कंठ मे उन्मत्त स्वर भर कर आज रोता है वही छोटा सा आकाश बादल से घिर कर देखो गिरा चाँद हमारा भी, पीठ किये बिलखता धरा पर तुम्हें जब देखा था, लगा जैसे मैं पूरा चाँद निगल गया कहीं था जीवन, दौड़ता हुआ तुम तक ही बिछल गया हाय! प्रणय का मारा शलभ, जलता मोम सा यहाँ पिघल गया भीतर-भीतर आग लगी, वह समय सेंक लगा कर निकल गया सागर के ज्वार सा उस उर मे छलकता प्यार था युगों तक बांटने उन दृगों मे अंबर सा उपहार था छोटी-छोटी आशाओं से बना एक ही अनार था कुछ खट्टे कुछ मीठे दानों का तुम सा ही आकार था एक प्रणय ही था मेरा, वह भी गया मुझे छोड़ कर कुछ मांगा जीवन मे तो फिर न देखा मुख मोड कर पड़ा हूँ कब से सुबह की प्रतीक्षा मे, रात की चादर ओढ़ कर ‘अब नहीं’ कहने से भी मन तो उड़ता ही है गगन तोड़ कर तुम चुप थी, रात रुकी थी, मौन सरकता आंसुओं मे गला स्तब्ध जगती मे देहरी पर प्रणय मूक श्वासों मे ढला जब ढंके द्वार, आह लिये वह पाँव-पाँव अधिवास चला अकेले ही जगती मे वह चाँद लिये फिर दिन-रात जला उस पार प्रणय का दुख न मैंने कभी जाना था अपनी ही आंसुओं मे डुबकी ले थाह लगाना था सुख-दुख के इस लुका-छिपी मे अब हाथ नहीं कुछ आना था कंधों पर उठने से पहले तुमसे केवल एक बार फिर मिलना था

गहरायी

प्रिये जब बंद किये तुमने द्वार, छूट गयी वह भवशाला तुम्हें देखता चित्रों मे अब बना रहा हूँ स्मृतियों की हाला उसे अधरों से लगा कर छू लेता हूँ कभी शून्य की गहरायी तुम दूर बहुत हो लेकिन यह दूरी दूर नहीं है मेरी मधुबाला पहली दृष्टि से अब तक तुम्हें मैंने दृगों मे है पाला जब मन रोता है, रिसती आँखों से भरता है यह प्याला पहले मैं तुझ मे छलकता था, आज बूंद-बूंद अस्पृश्य है अब कहाँ मिलेंगे, तुम क्षितिज हो मैं धरा हूँ मेरी मधुबाला नित निचोड़ कर इतिहास, बनाता हूँ अपनी हाला पीता-फेंकता सोचता हूँ यह दिन भी हुआ कल सा ही काला तुम्हें चाँद सा निहारता समय पर हँसता चिल्लाता रोता हूँ वह उन्माद मिटा, पर हमारे आसमान से न टूटना मेरी मधुबाला मूक हुआ यह जीवन मुझे कितना पागल कर डाला विक्षिप्त सा बंद कमरे मे निगला भी नहीं जाता है निवाला कभी हम साथ खाते, सोते, उठते, रहते थे मधुभरे मलंग आज क्यों अस्पृश्य हुआ यह जीवन मेरी मधुबाला प्रणय-प्रसंग की परछाई है यह अंतर्ज्वाला साथ चलती है मेरे तुम्हें लिये हृदय मे रसबाला सिकुड़ गया है आज पल-पल यह जीवन असमंजस मे लगता है खोल भुजायें चला चलूँ बांध जायेगी मेरी मधुबाला कभी तुम्हें छूने की अभिलाषा सिर चढ़ती है जैसे हाला तृष्णा मे जलते हैं अधर, चटक जाता है प्रणय का प्याला किन्तु तुम तक भी पहुँच कर गूँजती है ‘अब नहीं की’ ध्वनियाँ न रहूँगा मैं न होगी आसक्ति, फिर भी होगा यह जीवन मेरी मधुबाला ढूँढता हूँ जिसे कभी तुम्हारे आँचल मे था डाला लौटा दो मुझे अधरों से छू कर वह जीवन का आला न फेंकना उसे, मिट्टी नहीं है वह, मन से बना है तुम्हारे लिये या उसका कसी संगम मे तर्पण कर देना मेरी मधुबाला आज दिखता कितना गहरा है यह जीवन का प्याला कभी तुमने भी स्पर्श किया था इसमे मधु का हाला अब इतिहास ही बचा है सूख गयी है नमी मरुथल मे क्यों खेलती हो तुम तृष्णा से, मरीचिका बनी मेरी मधुबाला कल धुआँ उठेगा, आज यहाँ उतर आया है यम काला जलेगा प्रणय अकेला न होगा घाट पर कोई रोने वाला बाँट लेंगे शून्य मे कौव्वे, कुछ रोता-कुछ हँसता अपना इतिहास किन्तु तुम्हारी आँखों मे होगी, अंजन सी मेरी आशा मधुबाला बार-बार विकृत सा न मांगूंगा वही तुमसे सुरबाला टूटी है मेरी भी अस्मिता, उसे बटोर कर कसा है ताला तुम संग कैसा प्रपंच रचा, जीवन के इस रंगमहल मे छूटी नहीं है धरा अभी भी, लौट आओ यहाँ मेरी मधुबाला छोड़ो अंतर गहरायी-ऊंचाई का,खोल दो अब भवशाला जीवंत कर लो सम्बन्धों को, डाल दो गले मे दोबारा जयमाला ओढ़े गगन धरा पर सो जायेंगे कल हम चिरनिद्रा मे इस मोड पर ही बैठा हूँ मैं, बिछाये आशाएँ मेरी मधुबाला एक यही साथ था अंधेरे का , तुमने जो दीप बुझा डाला शलभ ढूँढता रहा, रात ही ठंडी हुयी वह प्रणय की ज्वाला इतिहास कुरेदता दिन-रात उन्माद खोजता रहा जाल बिछाये ‘मैं नहीं चाहती’ यह कह देना कोई धर्म नहीं है मेरी मधुबाला आज कंठ फूटा, हृदय टूटा, कल न होगा तुम्हारा बोल-बाला न गंध आएगी सुमन की, न होगी मधुलिप्त वह मधुशाला तुम अपनी अस्मिता बांधे, प्रणय को रौंद कर किस दिशा चलोगी एक ही गति है जगती में, साथ जिये हैं साथ मरेंगे मेरी मधुबाला रस-रंग जब अंग नहीं जीवन मे, तब प्राण नहीं बसने वाला न बांधों अपनी सीमायें, दीप शिखा पर नहीं अब कोई आने वाला तज देगा वह प्राण अकेले ही इस निशब्द निशा में जल जाए यह देह कहीं, किन्तु मन तुम तक ही तरसेगा मेरी मधुबाला आज सपने भी छोड़ गये नयन, यह तुमने क्या कर डाला, अश्रु वही, आज भी आह वही, जिस से निर्झर भरता है प्याला यह कोई तन्मय योग नहीं है, सत्य है शिव है, मन से मन का क्रंदन है यह चीख है हृदय की, आभास करो तो, पग परसना मेरी मधुबाला

स्तब्धता

मैं और इन कमरों का सन्नाटा प्रायः बातें करते हैं स्मृतियों पर जमी धूल पोंछ कर अपना कंठ कुरेदते हैं रोते-हँसते अपने हिस्से का थोड़ा आसमान जी लेते हैं वह लौट गयी फिर भी दिन बीते हम उसी राह ठहरते हैं आप ही गुनगुनाता मैं अंधेरे अपने ही घाव धो रहा हूँ आँखें फाड़े रात की गोद मे अपनी बीती रो रहा हूँ इस शून्यता मे कोई नहीं है, जाने किसे ढूँढता जी रहा हूँ सारी जगती सो रही है मैं यहाँ घूंट-घूंट सन्नाटा पी रहा हूँ गिरता-उठता यह मौन भी इतना कुछ सह लेता है न चाहते हुये भी अपने से अपनी बात कह लेता है यह निष्प्राण कागज के नाव सा मुक्त बह लेता है कहीं दूर लहरों पर डोलता, मिट्टी की थाह छू लेता है विष चखा है मैंने आज कल्प-वृक्ष से फिसल कर स्वप्न मे भी गिरता हूँ बार-बार तुम तक ही बिछल कर सोचा था किसी कोटर मे रह लूँगा जगती से निकल कर कठोर कर लूँगा मक्खन सा मन बहते आंसुओं को विफल कर किन्तु इस कोलाहल मे अजेय है शून्यता मेरे मन की मौन है प्रणय, मौन है प्रेयसी, किसे सुनाएँ क्षण-क्षण की कोई सुनता भी क्यों मेरी, यह आह नहीं किसी अभिजन की सब छूटा, यह सच भी झूठा, हाय! गति मेरे तन-मन की यह भ्रमर का भाग्य है, व्यर्थ है उसे पाठ सिखाना जो जान कर नेत्रहीन बने, उसे क्या मधुमास दिखाना जब मति पर मिट्टी पड़े तब उसे क्या तर्क-वितर्क समझाना जो न साथ चले, न साथ रुके, कैसा है उस से प्रणय जतलाना जिसके पीछे विक्षिप्त सा दौड़ा यह मन जीवन भर कर्म-धर्म की पोटली रह गयी धरी उसी देहरी पर छिप कर अस्मिता भी हँसी, कैसे यह हृदय हुआ जर्जर रोक न पाया आँसू, टूट गई मिट्टी की हांडी उसी चाक पर आज पढ़ रहा हूँ दोबारा जीवन का जटिल इतिहास कभी मधुमास, कभी तृषित आशाएँ तोड़ गयी सांस जब आह निकली, उसका भी हुआ विक्षिप्त सा उपहास कौन विकल यहाँ, जो सहलाता मन को दे कर निज आभास टूट गया हृदय लड़ते हवा से इस प्रणय प्रतिकार मे जितना चाहा तुमको वह क्षितिज न समाया संसार मे किन्तु रोता-हँसता फिर लौट आया उसके दुलार मे स्नेह-सगाई सिधार गयी, केवल मिथ्या है व्यवहार मे कौन देखता रहेगा तुम्हें इतने ललकते लोचन से कभी झांक लेती उर मे, प्रणय भरे उत्सुक मन से जब हार गया जीवन, कोई भाव जतलाती आनन से आज बदल गयी ऋतुएँ , पर छूटी नहीं प्रेयसी भुज-बंधन से

अर्ध-सत्य

वह जीवन का अनुपम स्नेह-श्रृंगार रात गये कहीं खो गया है निराकार उसे ढूंढते घर-बाहर पाँव पड़े अंगार कौन जाने है राह थके इस उर का भार नहीं सुनता है कोई इस मन की पुकार कौन विकल यहाँ जतलाने मधु-मनुहार दुर्दशा होती है ऐसे, मन की बार-बार प्रणय भी खड़ा है देहरी पर होकर लाचार किसने कहा सोने का है यह संसार नित होता है यहाँ अस्मिता का प्रतिकार अकेला है प्राण, यहाँ नहीं किसी का दरबार थोड़ी भूख, थोड़ी आशा, है यही मनु का सार दिन डूबा तो खिलता है निशा का निखार सोती जगती मे छिप कर झाँकता है प्यार कुछ रोते हैं भाग्य पर, कुछ सहते हैं प्रहार प्रणय निर्लज्ज सा खड़ा रहता है देहरी के पार किस की प्रतीक्षा, अब किस का है अभिसार अंधों की राह चला चल, बंद हुये सारे द्वार प्रणय ईश्वर नहीं, है यह जगती का व्यवहार रात गयी- बात गयी, यही है जीने का व्यापार मिट्टी है सारे तन-मन के आकार-प्रकार क्षण भर की सांत्वना है यह दरका आधार धर्म-कर्म के हिसाब मे जीवन रहा सदा उधार कितने नीड़ों मे कितनी बार, बाँट लें यह क्षितिज अपार दुख चाहे जितना हो, उर है बड़ा आगार जब फिसले सुख पर तब दिखता है संसार अमरबेल है तृष्णा, चढ़ती है जीवन को मार फिर भी मन लज्जित सा मानता नहीं है हार प्रणय-परिणय संबंध सभी के दिन हैं चार समझते सभी जगती मे यही है जीवन का भवसार मिली तो कस्तूरी, या सह ले मृगतृष्णा सा हाहाकार बात यह पल की, नहीं गाता है कोई जीवन भर मल्हार भूल जाना ही अच्छा है प्रेयसी का वह प्यार जो बह गया है तिनके सा दृगों से दूर मझधार अब किस की है प्रतीक्षा, हाय! छूट गया कगार इस मौन मे तुम ही हो शेष मेरे निर्गुण निराकार क्यों रोये यह मन, जब स्वर्ग है उस पार किसे सींचती है यह बहते आंसुओं की धार कोई नहीं करेगा यहाँ इन शत-क्रंदनों का दुलार लौट चलो मधुशाला, कल तक खुल जाएगा द्वार

अस्तित्व

उन दिनो चुपके से तुम्हारा खिड़की पर आना आहिस्ता गर्म हवा सी टूटी देहरी को छू जाना फिर धीरे-धीरे कंधे से टिके बिखरे कुंतल संवारना भूला नहीं है आज भी उस पल का आँखों मे बस जाना समय थका, फिर भी रात-दिन इन आँखों तले बादलों से उड़ते आज भी तुम्हारे ही स्वप्न चले चाँद लिए हाथ मे, पग भरते कितनी बार फिसले किसे कहें, तुम तक इस चाँदनी मे हम कितने जले तुम जहाँ भी हो यह प्रणय तुमसे ही पला है तुम्हारी आँखों मे वह सूरज अब तक नहीं ढला है तुम्हें साथ लिये यह जीवन भी दूर अथक चला है तुमसे अलग यह मन आंसुओं मे दिन-रात गला है तुम जीवन मे बहती रुधिर की अविरल धार हो, आषाढ़ की दामिनी हो,घन की कामुक बौछार हो अस्तित्व हो, तुम हर एक बीते पल का भार हो दुख हो या सुख हो, तुम ही इस जीवन का सार हो कभी आशाएँ, कभी शून्यता, यही जीवन की कला है थोड़ी हँसी, थोड़े आँसू लिये कोई आरती करने चला है किन्तु पृथा पर दीप लिये उसका भी भाग्य कभी जला है फिर भी बीती बिसार कर आज वह तुम तक ही निकला है यह हठी प्रणय है जो सावन के घन-सघन सा बरसा है पीठ पर धूप लिये तनिक छांव के लिये बहुत तरसा है उन ठंडे पलों को दोबारा गूँथने बीता एक लंबा अरसा है मिटा नहीं, पिछली रात का काजल इन आँखों मे बसा है इसलिये इन आँखों को प्रणय से सेंकता रहता हूँ अकेले मे ठहरी हवा से भी लंबी बातें करता हूँ मेरी गति जैसी भी हो, तुम्हारी साँसों के लिये डरता हूँ दिन-रात जगती को देखता मैं ऐसे ही जीता-मरता हूँ अनायास ही आँखें अंधेरे मे तुम्हें झांक आती हैं छलती उँगलियाँ रात की चादर चुपके से सहलाती हैं थकी आँखों मे अविरल स्मृतियाँ दौड़ती जाती हैं यही संबल है जो मुझे उजाले तक जीवित रखती है तुम जगती के तन्मय मे जीवन का आधार हो मेरा तुम ही आद्या हो, तुमसे ही विश्व मे है अभिसार मेरा तुम ही सृजन हो, तुमसे ही बसा है यह संसार मेरा अब न निराकार होना उर मे भर कर वही प्यार मेरा लौट कर तुम यह बुझा दीपक फिर से जलाओ स्तब्ध है मधुशाला, अधरों से थोड़ा मधु बरसाओ खोखला है जीवन, तुम अकेली अंतर मे बस जाओ सिलवटें सहलाती तुम दूसरी सुबह तक रुक जाओ

विकल्प

मैं भी था भीड़ मे कोई एक पाँव जैसा देखता रहा जीवन का यह रूप भी ऐसा कभी सांसें बांध कर जिया था सपना वैसा अपना पाँव अपनी पीड़ा, यहाँ अब साथ कैसा गिरता-उठता मस्तक पर गगन उठाये मन की दिशा मे भीड़ रौंदते पग बढ़ाये कभी निगला निवाला, कभी श्रम-संताप सताये कभी दिन जले कभी पलकों पर बादल छाये मैं सँजोता रहा आशाएँ अपनी धरा के टुकड़े पर कुछ हँस लेता, कुछ रो लेता पत्थर पर उर दे कर करकरती रेत आँखों मे क्षितिज की ओर देख कर इसे ही जीवन समझा, अपनी ही जगती को परख कर मौन चला हूँ पथ पर उर ज्वाला की ज्योति जलाते घुप्प अँधियारे, अपनी ही आँखों को राह दिखलाते जब मिली कहीं मधुबाला जीवन का लक्ष्य बतलाते दिखने लगे तब थके नयनों को सारे तारे टिमटिमाते चन्दन सी थी सुरभि उस मे और कुन्दन जैसी काया उस मे रातों की स्तब्धता और धूप मे थी घनी छाया वह नयनों की नंदिनी थी और जगती की कामुक माया लगा उस दिन जैसे किसी आराध्य का है वरदान पाया बीते बरस, करवट पड़ा रहा तन भूखा-मन भूखा फूटे लोचन भी देखते युग-बाहों का यौवन सूखा कल छूटी वह मधुशाला, न मिला निवाला रूखा प्रणय विभुक्षा मे जिया अधिवास लिए तन-मन भूखा नित प्रश्न उठा, तुम बिन क्या कर गया यह जीवन मेरा तुम्हारे चित्र ताकता रहा पाषाण बना यह तन-मन मेरा किसी की प्रणति देख कर बिलखता था यह मन मेरा कहीं बजता जब विरह-गान न रोक सका मैं क्रंदन मेरा निस्तब्ध हर रात आँखों मे उतर आते गगन से तारे सिमट जाते सारे सपने निर्वासित से अपना मन मारे मन मूक बाँचता रहता प्रणय के पुराने हिसाब सारे रख लेता सुबह उर पर अपने ही कर्म के जलते अंगारे निर्लज्ज प्रणय की छाया नित पास चली आती है अधिकार से जड़-चेतन मे बार-बार मन मसल जाती है फिर अनायास स्वयं पर चिल्ला कर फटती मेरी छाती है रुक-रुक कर स्नेह-सगाई फिर वही अनुबंध समेट कर लाती है इन जड़ चित्रों को देख कर, सुनो यह नग्न मन फिर बोला मिट्टी छान कर क्यों मेज़ पर दोबारा प्रणय-पुराण खोला जब अंत पता है क्यों बदलता है यह मन लगातार चोला संभल जा मन, न भूलना उसे जिसने मधु मे है विष घोला नहीं भूलती बीती, यह मन फिर कैसे प्यार कर सकता है निर्वासित, अपमानित मन कैसे सुखी प्राण धर सकता है अब दूरियाँ ही भाती हैं, अब शेष समय यहीं मर सकता है दोबारा मिल कर भी यह मूक मन क्या बातें कर सकता है मैंने मूल्य चुकाया है सुख के उन क्षणों का टूटते हुये भी देखा है प्रणय के चिरबंधनों का उधार मांगता रहा साँसों के लिए मधु-कणों का तुम ही बताओ क्या हुआ मेरे इन शत-क्रंदनों का पुनर्मिलन की बात तुमने कुछ पहले ही कह दिया होता मन धर कर कल विष पीने का संकल्प नहीं लिया होता तुमसे अलग उस विकल्प पर तन-मन प्राण न दिया होता तुम संग जगती मे हँस कर फिर तन्मय वही सोम पिया होता आज तुम्हारे बिना यह देह भी लगे जैसे मिट्टी की ढ़ेरी जब भी न अश्रु बहे लगता जैसे सूख गयी हो आँखें मेरी ले जाती है साँझ ढले उर से चाँद निकाल कर रात लुटेरी फिर तड़पता, गिरता-उठता, फूंकता रहता हूँ मैं रणभेरी अकेले मन की छलती हंसी भी अब रास न आयी लगता है धो लें आँखें जब तक तुम मन मे हो छायी अब न सपने समेटती सुबह, न ही सिसकती रात भायी पग-पग चलते-ठहरते हर पल केवल तुम्हारी याद आयी

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