हिन्दी कविताएँ : प्रांशु वर्मा

Hindi Poetry : Pranshu Verma


मंदा, मेरी आत्मा की साथी

वो मेरी बहन थी, मुंह बोली बहन, जो चुपके से मेरे ह्रदय के भीतर समा गई थी, जैसे कोई ठंडी रात्रि की धुंध, जिसमें हर छाया सुकून पाती है, और हर दर्द की धड़कन धीमी हो जाती है। उसकी हंसी में वह मीठापन था, जो बिना कहे ही सब कुछ बयान कर जाता, वह मेरी आत्मा का हिस्सा बन गई थी, जैसे आकाश में तारे, हमेशा चमकते रहे हैं, यहां तक कि समय की धारा ने उन्हें धुंधला किया हो। कांगो के युद्ध में, जहां मानवता ने अपना चेहरा खो दिया था, मैंने अपना शरीर गंवाया था। घायल, लहूलुहान, अपनी देह में बर्फ़ की तरह चुप, घर की ओर लौटते हुए, प्लेटफार्म पर जब भीड़ में मैं खो गया, एक आवाज ने मुझे अपने पास खींच लिया, "भईया मेरे..." यह शब्द नहीं थे, यह जैसे मेरे ह्रदय का आकाश था, जिसे मंदा ने खोला था। उस आवाज में एक जादू था, जो मुझसे ज्यादा पुराना, ज्यादा वास्तविक था। उसकी पुकार ने मुझे जगाया, उसकी बिना शर्त की हंसी ने मेरे सारे दर्द को काफ़ूर कर दिया। अब वह मेरी आत्मा थी, और मैं उसकी कहानी में समा गया। कितनी बार उस दिन को मैंने अपनी आँखों में देखा, जब मैं विदेश की भूमि पर किसी वीर का रक्त बहाता था, वो उभरती हुई आवाज़ मेरी आत्मा की भूमि पर धड़कन की तरह बस जाती। अब, न कोई युद्ध, न कोई विषाद, बस वह आवाज़ जो मेरे ह्रदय की एकल रचना थी, "भईया मेरे..." वह बर्मी लड़की, मंदा, जो नन्ही सी थी, जब उसकी दुनिया जल कर राख हुई थी, जिसकी आँखों में विस्थापन का दर्द था, जिसकी बाहों में टूटे हुए सपनों की छाँव थी, भारत की शरण में आई थी, अपने प्यारे घर, अपनी मातृभूमि को खोकर। तीन साल की अवस्था में, वो अपने बचपन को छोड़ आई थी, जिसे युद्ध ने छीन लिया था। और तब, जब हमारी मुलाकात हुई, वो एक युवती बन चुकी थी, लेकिन उसकी मासूमियत और वीरता अब भी उसके भीतर बाकी थी। वह मेरी बहन बन गई, मेरे जीवन की एक नई धारा, जिसमें प्रेम की जगह, कर्तव्य ने ली थी। हमारे बीच कुछ बिछड़ा हुआ था, जैसे एक जड़ से निकलता नया पौधा, जो पुराने वृक्ष की छांव में पलता है। मैंने उसे भारतीय नागरिकता दिलाई, जैसे एक देश ने दूसरे को अपनाया, जैसे एक भाई ने अपनी बहन को अपने परिवार का हिस्सा माना। अब वह मेरी दुनिया थी, मेरी छाया, मेरी राह, मेरी आत्मा की साथी। हम दो थे, एक देह, एक जीवन, वो मंदा, मेरा भविष्य, मेरा अतीत, मेरा हर दर्द और मेरी हर हंसी। लेकिन समय, समय बेशक निर्दयी था। वह समय, जब मेरी पहचान के साथ जुड़ा हुआ, वह प्रेम, वह शुद्ध आत्मीयता, समझ की गलियों में खो गई। वो जो मेरा मित्र था, एक जासूस, जो मुझे अपने प्रगाढ़ स्नेह में बाँधने की कोशिश करता था, उसने इसे कुछ और समझा। वह समझ बैठा कि हम भाई बहन नहीं, बल्कि प्रेमी प्रेमिका हैं। उसे यह भ्रम था कि हमारा प्रेम कभी न देखा गया, कभी न समझा गया, और उसने अपनी क्रूरता से मुझे और मेरी बहन को छीन लिया। उसने मंदा को मार डाला। उसका विश्वास था कि एक प्रेम की हत्या ही समाधान हो सकता है। मंदा, मंदा, मेरी बहन, तुम्हारी मौत ने मुझे झकझोर दिया। तुम्हारे जाने ने मुझे पागल कर दिया, तुम मेरे भीतर की उस आग की तरह जल गई हो, जो अब कभी बुझ नहीं सकती। हम दो जिस्म, एक जान थे, हमारे बीच केवल एक अदृश्य धागा था, जो अब टूट चुका है। अब तुम मेरे दिल की धड़कन में नहीं हो, तुम मेरा दर्द, मेरी तड़प बन गई हो। तुम्हारी यादें, तुम्हारी मुस्कान, अब मेरी आत्मा की बेचैनी हैं। किंतु तुम्हारी यादें, मंदा, तुम्हारी मुस्कान अब भी मेरे भीतर गूंज रही है। तुम्हारी वो आवाज, जो कभी मुझे पुकारती थी, अब भी मेरे दिल के अंधेरे कोनों में बसी है। तुम चली गई, लेकिन मैं जानता हूँ तुम अभी भी कहीं हो, मेरे भीतर, मेरी आत्मा में, जैसे एक बर्फीले तट पर सर्दी की हवा अपने पंख फैलाती है। तुम्हारे जाने के बाद भी मैं खुद को अधूरा समझता हूँ, क्योंकि तुम्हारी यादें, तुम्हारा स्पर्श, अब भी मेरे जीवन की धारा हैं। मंदा, तुम्हारे बिना मैं साया हूँ, जैसे रात का अंधेरा दिन के उजाले के बिना। तुम्हारी आवाज़ की हँसी, अब भी मेरे भीतर गूंज रही है, "भईया मेरे..." जैसे जीवन के हर मोड़ पर तुम्हारा प्यार मुझे अपने पास बुलाता है। मुझे तुम से कभी विदा नहीं मिल सकती, तुम मेरे भीतर हो, मंदा, मेरी आत्मा की अडिग साथी।

बचपन की खोई धुन

धूल में लिथड़ी, लपटों में घिरी भूमि, शौर्य की गवाही देने वाला एक मासूम, जिसके सिरे चुपके से टूटते हैं, सभी सपने, अब केवल सन्नाटा और भय की आवाजें। उसकी आँखों में अब कोई आकाश नहीं, बस एक लम्बी, निराशा की धुंध जगह-जगह बिखरी। संगीनों की चुप्प, बमों का तेज़ कर्कश, वह हर आहट में बसा अकेलापन महसूस करता। हमें याद है, वह कभी हंसता था, संसार के अनगिनत अंधकार से अज्ञात, अब वह बस एक टूटे हुए खिलौने सा पथराया, सर्दियों में ठंडी रातों में, असंख्य ख्वाबों के शोक में डूबा। “कहाँ खो गया बचपन?” कहाँ गये वे मासूम सवाल, जिनके जवाब नहीं थे? अब उसकी आँखों में बर्फीली चुप्प है जहाँ कभी गर्मी थी, जहाँ कभी प्यार था। रात के अंधकार में टूटते सपने, दिन के उजाले में संजीवित भय। अब बचपन नहीं बस एक आहत आत्मा की कहानी, जहाँ मिट्टी की धूल और आसमान की सर्दियाँ, मिलकर उसे एक धुंधली पहचान दे चुकीं हैं। कैसे कह सकते हैं नेता, कि इन्हें कभी महसूस होता है? क्या वे देखते हैं ये छोटी सी जानें, जो अब युद्ध की आग में जलती हैं? इनकी आँखों में दहशत, दिल में खामोशी, राष्ट्रवाद के शोर में खो गई मासूमों की चीखें। कैसे कह सकते हो, कि ये बच्चे कभी बड़े होंगे ? इनकी जिंदगी की रेखाएं तो खून के दरिया में बह गईं, इनके हाथों में अब किताब नहीं, बल्कि वो दर्द है जिसे वे सर्दी की रात में गुनगुनाते हैं। नफरत के भंवर में फेंकते हैं इन्हें, राष्ट्र के ध्वज तले लहराने वाले झूठे ख्वाब, पर वे भूल जाते हैं, इन नन्हे दिलों का दर्द जो अनसुना है, क्योंकि इनके आँसू राष्ट्रवाद के लिए अनुपयोगी हैं। कभी सवाल किया, "क्या तेरा नाम है?" वह कहता—"नाम क्या? मैं तो भविष्य के धुंधले कालेपन में हूँ, हर युद्ध के बाद बचे हैं मैं और खंडहर।" न कोई बचपन, न कोई स्वप्न बस एक मृत प्यास, जिसे कोई नहीं बुझा सकता। अब हमें देखना चाहिए इन बच्चों के आंसुओं की सच्चाई, हमें इनकी आवाज़ को सुनना है, इनके लिए एक नई राह ढूंढ़नी है, जहाँ युद्ध नहीं, सिर्फ प्रेम और शांति का शासन हो। अगर बमों के स्थान पर फूल फेंक पाते, तो शायद ये ज़मीन फिर से हरी हो जाती। अगर हम सब मिलकर कदम बढ़ाते, तो एक नई सुबह का जन्म हो सकता, जहाँ मासूमों का भविष्य सुरक्षित होता, जहाँ बचपन फिर से खिल सकते, भय और आंसू से दूर।

क्रंदन अंतिम क्षण में

क्या करेंगे जब जीवन हाथ से छूट जाएगा, और मृत्यु की परछाई सिरहाने बैठी होगी? दो घंटे शेष, समय की बिसात पर मोहरे गिरे पड़े, हम निहार रहे होंगे, वो बीता हुआ जीवन जो आंसुओं में डूबा था। प्रसिद्धि के लिए, पैसे के लिए, प्रेम के लिए तरसती आँखें, छोटी-छोटी बातों पर बिखरी हुई हंसी, सब कुछ हमारे सामने फैला होगा— लेकिन अब कोई राह नहीं बची। धरा का सोना, जो मेरे पांव तले चमकता था, शायद फिर कभी महसूस न कर पाऊं। या ये मेरी अंतिम विदा हो— जहां चेतना सदा के लिए मिट जाएगी। ये अंधकार, ये भयावह अनंत, मुझे भीतर से खा रहा होगा। हम रो रहे होंगे, और जीवन से कुछ घड़ियाँ और माँग रहे होंगे, क्योंकि अब, आखिरी क्षणों में, हमें अहसास हुआ है— कि वो जीवन, मेरा था। वो रिश्तों का नहीं, पैसे और प्रसिद्धि का नहीं, उन चेहरों का नहीं जिनके लिए मैं सिसका। मैं खुश हो सकता था— लेकिन मैंने हर लम्हा खो दिया। अब, जब मृत्यु की छाया साथ बैठी है, मैं बस थोड़ा और जीना चाहता हूँ, खुश होकर, जैसे वो जीवन मेरा ही था।

क्या हम सच में श्रेष्ठ हैं

क्या हम लोकतांत्रिक हैं? जब लाखों प्रजातियाँ हमारे कारण धरती से लुप्त हो गईं, जब हमने अरबों जीवन छीने, और स्वयं को उच्च समझा। शेर शेर का न्याय नहीं करता, न है बंदर अपने साथी का न्यायधीश, फिर हम क्यों ठहराते हैं न्याय? क्या हम सच में बुद्धिमान हैं, या हमारी समझ सीमाओं में बंधी है? हम युद्ध के खेल खेलते हैं, अपनी ही प्रजाति को मिटाते हैं, क्या हम सबसे उदार हैं? हमने धरती का बंटवारा किया, क्या यह पूरी धरती हमारी है? हमारी दुनिया में युद्ध है, अकाल की पीड़ा है, भ्रष्टाचार और बलात्कार की छाया है, क्या हम नैतिकता के मानक हैं? फिर भी, हम दावा करते हैं श्रेष्ठता का, कहते हैं, यह संसार हमारे लिए बना है, परंतु क्या हम भूलते हैं, कि हम मात्र एक जीव हैं, अनगिनत प्रजातियों के बीच, और यह धरती केवल हमारी नहीं।

गंगा विलाप

गंगा की धारा, जो कभी जीवन का गीत थी, अब चुप है, जैसे कोई टूटी चूड़ियों वाली बेवा। उसकी गोद में मरी मछलियां पसरी हैं, सन्नाटा है, हलचल नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। सुबह की किरण जब पड़ी धरती पर, लोग देखे, दिल कांपे, किस्मत का कैसा कहर। सदमे से कुछ के प्राण गए उड़, बिना किसी शोर के, मौत का दरवाजा खुला। सरकार आई, झंडे लहराए, कागज़ों में योजनाएं बनाई गईं, पर जिनके घर उजड़ गए, क्या उनका दर्द किसी ने सुलझाया? नेता आए, फूल चढ़ाए गए, नदी किनारे शोक मनाया, मरी मछलियां फिर गंगा में फेंक दीं, जैसे मरण-कथा को फिर से जी लिया। कहानी सुनो कानपुर की, जहां से जहर का नाला बहा, वो विष, जो गंगा की सांसें ले गया। मछलियां तड़पीं, मरीं, पर सवाल कौन पूछे? धरती भी चुप, और हम भी देख रहे अनसुने। चेतावनी आई, हवा में उड़ गई, सीवेज बहता रहा, गंगा में घुला। नेताओं ने कहा, "सब ठीक है, चिंता मत करो," पर ज़हर अब भी गंगा के दिल में बसा है। फिर बाढ़ आई अगले साल, सैकड़ों लोग गंगा में समा गए, चीख-पुकार मची, पर पानी नहीं रुका, हजारों सपने टूटे, बिखरे। बांध बने, पैसा बहा, नदियां रोकी गईं, लेकिन क्या जीवन बहा? गंगा की धारा अब धीरे-धीरे सिकुड़ती जा रही है, उसके पानी में अब केवल दर्द बहता है। गंगा सूखने लगी है, उसकी धाराएं खो गई हैं, उसकी साँसें धीमीं पड़ी हैं। किसने सुनी उसकी पुकार? बाढ़ और ज़हर में हमने ही उसे बर्बाद किया। यह नदी, जो कभी अमर थी, हमारी नादानियों ने उसे लूटा, सूखाया। अब वो केवल एक दास्तान है, एक अधूरा गीत, जिसे गुनगुनाने वाला कोई नहीं बचा।

प्रेम की अन्नत यात्रा

अंतहीन द्वार खोलता है प्रेम, शब्दों की आँच में निखरता, भीतर-भीतर कहीं ढलता है प्रेम, जैसे कोई अनजान लहर— सागर की चुप के भीतर खोता हुआ। उसके भीने स्पर्श में सोई कहानी की परतें हैं, और वो नींद में बहती हुई यादें भी— जिन्हें छूना चाहा है हर बार मगर पकड़ी नहीं जातीं। नर के कदमों में बंधी वो राहें, वो हसरतें— जो युद्ध से लौटकर शांति की ओर चलती हैं। सपनों में कुछ देर ठहरती हैं फिर एक चाह बनकर नदी के किनारे सो जाती हैं। मादा की आँखों में तैरता कोई बेनाम एहसास जो मौन से झाँकता है, बिना कहे कह देता है कि प्रेम में सिर्फ़ देह नहीं, सिर्फ़ मिलन नहीं, कुछ फासले भी हैं जो पूरी तरह मिटते नहीं। अक्सर उस क्षण में— जब शब्द खामोश होते हैं और सांसें किसी अज्ञात में डूबती हैं— दोनों के बीच कोई अनकही बात रह जाती है, जो प्रेम को अधूरा नहीं, मगर पूर्णता की ओर खींचती है। प्रेम तो किसी गहरे पानी की तरह है, कभी सागर की तरह शांत, तो कभी तूफान की तरह उद्दंड, नर की वहशी चाल हो या मादा की भीनी मुस्कान— दोनों कहीं बहते हैं, दूर से आते हैं और मिलते हैं फिर बिछड़ते हैं, फिर मिलते हैं— अनवरत, अनंत। यह प्रेम नहीं तो क्या है जो हर पल नई राह चुनता है, कभी घृणा के मलबे के नीचे तो कभी स्नेह की झुरमुट में खिलता है और मुरझाता है। किसी अनाम से जंगल में शिकारी और साध्वी दोनों साथ चलते हैं, जहाँ सभ्यता की रौशनी नहीं पहुँचती वहाँ प्रेम ही बसता है, अनबुझा, अनदेखा जैसे कोई बिछड़ी हुई रात, जो सुबह को देखने का स्वप्न बुनती है।

एक अधूरा साया

हथेलियों में बंद थी रात की नमी, आँखों में लरज़ते कुछ टूटे हुए ख़्वाब, वो शख्स जिसे दुनियाँ की हर दौलत मयस्सर थी, फिर भी रूह की तन्हाई में कहीं खोया जा रहा था। शहर की हर सड़क पर जैसे बेचैनी बसी थी, वो भीड़ में गुम मगर अपने ही अंदर मुख़्तलिफ़, अपनी ख़्वाहिशों की ख़ाक छूता, एक नयी राह पर फिर से अपने आप को आज़मा रहा था। हर रात गहराती थी और वो चुपचाप बुझता, सुबह की पहली किरण में उम्मीद सा जलता, हर रोज़ एक नयी शक्ल ओढ़ता, जैसे धूप में अपनी परछाईं का साया खुद से बुन रहा था। तन्हाई की हर शाम में उसके अश्क थे जैसे सूखी मिट्टी पर बारिश, और सुबह का सन्नाटा, एक रेत-सा वादा, जिसे वक़्त की आँधी हर रोज़ बहा ले जाती थी। अंधेरे की गुफाओं में वो अपनी मंज़िल को खोजता रहा, रास्ते बदलते रहे, पर उस सफ़र की सरहद खो गई, जैसे समंदर के साहिल पे कोई निशां, जो हर लहर के साथ अपने अक्स को बहा गया। हर ख़्वाब के सौदे में उसने कुछ न कुछ खो दिया, जीने का हिसाब बेबसियों में उलझता रहा, और आख़िर में, बस एक साया रह गया, एक अधूरा अहसास बन के, जो रूहों में गूंजता तो है, पर किसी को सुनाई नहीं देता।

अग्निपथ की प्रार्थना

हे मेरे भाग्य, तुम मत देना मुझे आसान राहों का रास्ता, तुम देना कांटों से भरी संकरी पगडंडियाँ, ताकि मैं चलने का हुनर सीख सकूं, हर कांटे को पार कर, अपने पैरों में अटल धैर्य के जूते पहन सकूं। तुम देना चट्टानों का कठोर सहारा, न कि समतल, रेशमी घास का बिछौना, क्योंकि मुझे सीखना है उस जगह खड़ा होना, जहाँ धरती फिसलती है, और पांव टिकते नहीं। ताकि हर कदम पर मैं स्फूर्ति से जाग सकूं, अपने भीतर साहस की मशाल जला सकूं। मत देना मुझको उजाले का स्पर्श, तुम देना घने कोहरे और स्याह अंधकार की धुंध, ताकि मैं अपनी रोशनी खुद खोज सकूं, तारों को अपने दिल में समेट सकूं। तुम देना तपते रेगिस्तान की जलती रेत, ताकि मैं ओस की बूंदों के लिए तरसूं, और हर बूंद की कीमत समझ सकूं। तुम देना वो पहाड़ जिनकी चोटी देखी न जा सके, ताकि मैं अनंत की ओर चढ़ाई कर सकूं। हर मोड़ पर, हर मुश्किल पर, मैं अपने पुरुषार्थ की अचूक तलवार चला सकूं। तुम मत देना कोई ऐसा सहारा जो मुझे निर्भर बना दे। तुम देना वो खालीपन, जिसमें मैं खुद का सहारा बन सकूं। हे भाग्य, तुम मुझ पर दुखों के बादल लाकर बरसाओ, ताकि मैं अपने भीतर के सूखे खेतों में संघर्ष का अंकुर बो सकूं। तुम मत देना किसी देवता का वरदान, तुम देना संघर्ष का घनघोर अभियान, ताकि मैं अपने कर्मों की पूजा कर सकूं। न देना मुझे भीड़ का समर्थन, तुम देना अकेलेपन की गहरी खाई, ताकि मैं अपने साथ चलना सीख सकूं। तुम देना मुझे वो रातें जिनमें चाँद न हो, ताकि मैं अपने भीतर का चिराग जला सकूं। मत देना तुम मुझको फूलों की महकती बगिया, तुम देना वीरान बीहड़ों की मिट्टी, ताकि मैं वहाँ मेहनत से हरियाली ला सकूं। क्योंकि मैंने सुना है, जो खुद बीज बोता है, वही सच्चा बागवान बनता है। हे मेरे भाग्य, तुम मत देना मुझे सहज, सरल बहते झरने, तुम देना सूखी हुई, पथरीली नदी, ताकि मैं अपने पसीने से उसको भर सकूं, अपने हौसले से उसमें लहरें ला सकूं। तुम मत देना कोई मंजिल की सीधी राह, तुम देना अनगिनत रास्ते, ताकि मैं अपनी मंजिल खुद चुन सकूं, और हर राह को अपने कदमों से माप सकूं। तुम देना वो विपदाएँ, जो मेरे होंसले की परीक्षा लें, ताकि हर असफलता में मैं सफलता की ज्योति देख सकूं। क्योंकि मेरा सफर वही सही मायने में सफर होगा, जो मेरे कदमों के निशान छोड़ जाए। तुमसे बस इतनी विनती है, कि तुम मुझे कमजोर न बनाओ, ताकि मैं अपने अस्तित्व का असली अर्थ जान सकूं। तुम मुझे देना तपता हुआ रेगिस्तान, ताकि मैं उसमें अपने संघर्ष के सागर बहा सकूं। तुम मत देना आसान जीवन, तुम देना जटिल पहेलियाँ, ताकि मैं खुद को हर जवाब में पा सकूं। हे मेरे भाग्य, तुमसे ये ही प्रार्थना है कि तुम मुझे मेरे हिस्से का संघर्ष देना, ताकि मैं अपने पुरुषार्थ से, अपना जीवन खुद लिख सकूं। क्योंकि मैं चाहता हूँ, हर दर्द के साथ बढ़ता रहूँ, हर कांटे के संग निखरता रहूँ।

लिखता हूं प्रेम

मैं कल्पना नहीं लिख सकता मैं नहीं राजनेता दार्शनिक भी नहीं इतिहास बीत चुका था मैं बाद में जन्मा सबसे बाद में किंतु जन्मा मेरे बाद मेरा प्रेम मैं लिख सकता हूं तो केवल प्रेम

तकदीर की ताली

कहां से शुरू करूं, किससे कहूं? गांव के गली-कूचे, गलियारों में जो नेता जी आए थे, उनके ढोल की आवाज़ में, जैसे सपना कोई बस पलकों में समा जाए। कहते थे, “हमारा गांव चमकेगा!” ऐसा बोले जैसे हाथ में जादू की छड़ी हो उनकी, हम सबको ‘बाहुबली’ बना जाएंगे। अब क्या कहें! बैठे हैं कुर्सी की पुश्त पर, ऐसे जैसे राणा हो गांव के, राजा हो सारे हालात के। पर हकीकत तो ये है कि रोटी के टुकड़े, अब उनके थालियों की शोभा हैं, हमारी थाली में तो केवल ‘वादों का नमक’ है। सालों से जो तालाब खुदवाना था, उसकी फाइलें धूल की चादर ओढ़े पड़ी हैं, कहते हैं, “फंड में कमी है!” पर उनके घर के बाहर की दीवारें ऐसी चमचमाती हैं, जैसे हरियाली का सपना, हमारे गांव का खजाना वहीं लगा हो। पानी की बूंद-बूंद तरसते खेत हमारे, नहरें चुप हैं, जैसे जुबान पर किसी ने ताला लगा दिया हो। सरकारी राशन का क्या पूछते हो भाई? खाली बोरी, तोड़कर बोरा, उनके अपने बर्तनों में जाता है। चावल का दाना हमारे हांथ से छूटकर उनके चमचों की थाली में जाकर मिल जाता है। पुलिस भी बड़ी चतुर! कहने को हमारे रक्षक, पर रिश्वत का पहरा लगा बैठी है। गांव की बेटी की चीख, उनके कानों से गुजर जाती है जैसे सूखी घास में से हवा निकल जाए बिना किसी हलचल के। नेता जी का हाल बताएं? हर पांच साल बाद ऐसे आते हैं जैसे लड्डू का थाल भरकर लाए हों, मिठास में डूबा झूठ हमारे गले उतरता है और हम, हम फिर से गुमराह। अपनी तकदीर की कश्ती उनकी बातों के दरिया में डुबा देते हैं। अब सपनों की ये इमारत जो खड़ी की थी हमने, उसकी हर ईंट पर लिख गया कोई कलम “धोखा”। प्रधान, नेता, अफसर—इनका जाल ऐसा कि हम सब उस मकड़जाल में फंसे हुए हैं, जैसे कोई पिंजरे का पंछी चुपचाप देखे बाहर का आसमान। पर ये भी सच है—ये जंजीरें कब तक बंधेंगी? कब तक ये रिश्वत, ये कुर्सी, ये धोखा हमारा हक खाएगा? एक दिन जरूर वो गूंजेगी आवाज हमारी खेतों की पगडंडियों में, नहरों के किनारे, हमारे खून-पसीने से सिंचाई होगी और तब गांव में सचमुच की रोशनी आएगी, कागजी वादों का नहीं, असली सूरज का उजाला। तब देखेंगे ये प्रधान और उनके चमचे, इनकी कुर्सी की पॉलिश उतर जाएगी, क्योंकि अब, हमारे गांव की तकदीर हम खुद बनाएंगे।

अश्रु अग्नि

जब भी आँखों से आँसू बहे, उन्हें यूँ ही बिखरने मत दो, हर एक बूँद में छिपा है एक तूफ़ान, इसे पहचानने दो, महसूसने दो। ये आँसू कमजोरी नहीं हैं, ये हमारी आत्मा की जड़ें हैं, जो संघर्ष की जमीन में धँसी हुई, गहराई से धड़क रही हैं। इनमें छुपी है वो आग, जो कभी बुझाई नहीं जा सकती। जब आँसू गिरते हैं, तो वो सिर्फ ज़मीन गीली नहीं करते, बल्कि उस मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं, जहाँ एक नई उम्मीद का पौधा उग सके। वो सड़कों की बंजर जमीन पर, नई हरियाली लाने की काबिलियत रखते हैं। सत्ता के महल हिल सकते हैं, क्योंकि आँसुओं में वो शक्ति है, जो किसी चट्टान को भी पिघला सकती है। रो लो जितना चाहो, मगर रोने के बाद उठो, और अपना रास्ता तय करो। तुम्हारे आँसुओं में छिपी है वो चिंगारी, जो इंकलाब को सुलगा सकती है। सुनो, आँसू सिर्फ दर्द नहीं हैं, ये एक ऐसी चिंगारी हैं, जो धरती के सीने में गहरी उतरी है, जो हर अन्याय और हर जुल्म को जला सकती है। तुम अकेले नहीं हो, हर आँसू यहाँ एक आवाज़ है, एक कहानी है, जो सदियों से सुनाई नहीं गई। हम सबके आँसू मिलकर, बेड़ियों को पिघला सकते हैं, जंजीरों को तोड़ सकते हैं। आज अगर तुम्हारे दिल ने तुम्हें रोने दिया, तो कल तुम्हारी आवाज़ गूँजेगी, तुम्हारे आँसू हथियार बनेंगे, और कोई भी अन्याय तुमसे छुप नहीं पाएगा। आँसू अमृत हैं, जागृति का प्रतीक, वो जो सिर्फ हमारे नहीं, हम सबके संघर्ष का ऐलान हैं। हर एक आँसू को सहेज कर रखो, क्योंकि एक दिन ये सब मिलकर, सत्ताधीशों की दीवारों को गिरा देंगे, और एक नई, सशक्त दुनिया बनाएंगे।

प्रेम की गांठ

मुझे तुमसे नफरत नहीं, बस प्रेम की एक जटिल गाँठ है, खुलती नहीं है, कसती जाती है, तुम्हारे हर छूने से — कभी मुलायम, कभी कठोर। तुम्हारी उँगलियों की छुअन में करुणा है, मैं देखता हूँ। एक दृष्टि फेंकती हो, और दूर किसी और की बाहों में अपनी साँसें छोड़ देती हो। मेरा प्रेम कोई कुचला हुआ फूल है, तुम्हारे कदमों के नीचे, और तुम उसे उठा नहीं पातीं, सिर्फ़ देखती हो दया से, जैसे एक बेजान चीज़ को देखा जाता है। मैं सोचता हूँ — शायद एक दिन तुम्हारा दिल अपने ही बीहड़ में मेरे लिए किसी छाँव की तलाश में निकलेगा, जहाँ यह नफरत और प्यार की जंग किसी शांत अंत की ओर बढ़ सकेगी।

सत्य की खोज

सत्य, कहाँ है तू? क्या वह बसा है हिमालय की निस्तब्ध बर्फ़ीली चोटियों में? जहां चट्टानों पर बर्फ़ की चादर ओढ़े, हवा की हर साँस से गूँजता है मौन का नाद, या गंगा की पवित्र लहरों में बहता, जो हिम से पिघली अश्रुधार के समान, हर पाप को समेटती, शुद्ध करती अनवरत? शायद वह गौतम की आँखों में सिमटता, जो बोधगया की मिट्टी में एक दीप की लौ बनकर जला था, या झूमते खेतों की हरियाली में छिपा है, जहां किसान के खुरदरे हाथों की छाप है, जिस मिट्टी में मिला है पसीना, सपनों का सौदा जो कभी पूरा न हो सका। सत्य है, एक कपोल कल्पना की ओढ़नी, जैसे चंद्रमा की चाँदनी हो धुंध में खोई, वह झिलमिलाती ओस की बूंद, जो पत्तों के पीछे से सूरज की पहली किरण में अचानक गायब हो जाती है। शायद सत्य बैठा हो, एकांत के उस संत की आँखों में, जिसके मौन में जीवन की तपस्या की राख है, धुएं की लहरों में तैरता, जहां इच्छा की कोई लपट बाकी न रही। या वह सजीव हो गृहिणी की नन्हीं मुस्कान में, जिसने दर्द की धूप में तपकर परिवार के लिए ठंडक का आंचल बिछाया है। सत्य, वह बांसुरी की धुन है, जो चरवाहे के थके पैरों के संग साँझ की उदासी में गूँजती है, उसके अल्हड़ प्रेम की अनकही सिसकी, जो हवा के संग बहती— कानों में मिठास घोलती, पर पकड़ी न जा सके, मृगतृष्णा की तरह। सत्य, वह है बच्चे की भोली हंसी, जो संसार के छलावे से अनजान, बेसुध होकर खिलखिलाता है, या रात के सन्नाटे में, आकाशगंगा के तले सोया तारा, जो तमस में भी एक उम्मीद की किरण बनता है। सत्य है, उस बूढ़े की आँखों में, जो जीवन की स्मृतियों को समेटे, धुंधली दृष्टि से देखता है अतीत के छिपे साये, जिनके जवाब न अब कोई जानता है। सत्य, वह रक्त की हर बूंद में, जो कर्मवीर की धमनियों में दौड़ती, इतिहास के धुंधलके में गूंजती— उस अनकही चीख में, जिसने आँसुओं की धार बनाई, जिसे किसी ने न सुना, पर जिसकी गूँज आज भी हवा में तैर रही है। सत्य, हल से जुड़ा वह स्वेद है, जो धरती का सीना चीरता, जो हल्दी की पीली फसल में खिलता, वह हथियार न उठाता, पर ममता से सीने पर हाथ रखता, मानवता के नये अंकुर को जन्म देता। सत्य, वह सपना है, जो आँखों में नमी बनकर छलकता, कभी दुःख की काली रात में बूँद बनकर गिरता, कभी उम्मीद की सुनहरी किरण में चकमक करता। वह शून्य है, गहनतम शून्यता, जिसमें प्रश्न डूबते हैं, मौन की लहरों में खो जाते हैं। सत्य, वह है हर एक स्वर में, धर्म की ओट में छिपा, गीत की गूंज में बसा, जो बहता है अनवरत— अंतर्मन के अंधेरों से उजालों तक, जो स्थिर नहीं, सदा गतिशील, सदा प्रवाहमान। वह सत्य, जो युगों से अनकहा, अनसुना, फिर भी प्रत्येक ह्रदय में बसा हुआ, जो मानवता का मूल आधार है, जो हमारी अंतरात्मा का अंतिम प्रकाश है।

अधूरी दीवारें

कभी सुना है तुमने, कि किसी का प्यार ऐसे चुपचाप, एक दोस्ती की खामोशी में दफन हो जाए, जैसे कोई नदी प्यास से सूख जाए, और उसके किनारे बस एक काग़ज़ी कश्ती रह जाए, जो कभी किसी ने चलाने की कोशिश भी ना की हो। वो हंसती है, मेरी बातों पर ऐसे जैसे मैं मज़ाक कर रहा हूं, जैसे दिल की ये धड़कनें कोई बेवकूफी भरी कहानी हों, वो किसी और से प्यार करती थी, और मैं उसकी हर मुस्कान को सजाता, एक सफ़ेद चादर पर गुलाब की पंखुड़ियों सा। कहती थी, "तुम अच्छे हो," अरे! कोई पूछे उससे, क्या उसे मालूम है कि अच्छे होने का इनाम कभी इश्क़ नहीं होता। अच्छे लोग अक्सर अधूरे रह जाते हैं, अधूरे लोग अक्सर सच्चे रह जाते हैं। वो मेरे घर नहीं आती, मैं भी उसके घर के पास से नहीं गुज़रता, मगर इस शहर की सड़कों पर हमारी यादें अक्सर टकरा जाती हैं। उसकी हंसी की आवाज़, अब भी मेरे कानों में घुली रहती है, जैसे कोई पुराने रेकॉर्ड पर बजता हुआ गाना, जो कभी खत्म नहीं होता। मैंने सोचा था, मौत शायद उसे यकीन दिला दे, मगर मेरी कब्र पर फूल रखते हुए भी उसकी आंखों में वही पुरानी दोस्ती थी। मुझे देख कर भी ना देख पाने का हुनर, शायद उसने किसी और से सीखा था। वो चली गई, मेरे नाम पर एक कांटा छोड़कर, जैसे ये उसकी आखिरी सजा हो मुझे, या शायद आखिरी तोहफा। उसकी दोस्ती का कर्ज़ अदा करने की कोशिश में, मैंने अपना सब कुछ खो दिया, और उसने कह दिया, "तुम अच्छे हो, पर ये प्यार नहीं है।" कहानी खत्म नहीं होती, कहानी कभी खत्म नहीं होती, वो जीती रही, मैं मरता रहा, और इस तन्हाई के शहर में मेरे और उसके नाम की इमारतें बनती रहीं, ढहती रहीं, क्योंकि इश्क़ के शहर में, अक्सर ये दोस्ती की दीवारें खड़ी रह जाती हैं, मगर छत कभी नहीं बनती।

कुछ हाइकु

साँस का बिम्ब छाँव की चाहत, बिना जड़ें भी फलें, सूखे रिश्ते। वक्त की देह गमले में बंद, जड़ें खोजें आकाश, ख्वाहिशें मौन। तजुर्बे का स्वाद मिट्टी की प्यास, इंसान भी पत्तों-सा, रोशनी में मौन। अंतिम क्षण बिना पानी, मुरझाए सब ख्वाब, गमला सूना।

छाया की मुस्कान

वो लड़की, जो दरवाज़े से बाहर जाते वक्त सूरज की किरणों में मुस्कुरा दी थी, मैंने उसे देखा, और फिर दिन ढलने तक, उसकी छाया मेरे भीतर की दीवारों पर नाचती रही। कभी कभी, किसी अनजानी रेखा को हाथ से छूकर, मन की दहलीज तक लाने की कोशिश करते हैं हम। पर फिर, उस छावं में छिपे जो मौसम होते हैं, वे खुद को याद दिलाने आते हैं, कि कुछ बातें हमसे पहले कहीं और कही जा चुकी थीं। वो लड़की, जो चुपचाप चली गई, जैसे हल्की बारिश में खो जाता है कोई गीत, और फिर उसकी जगह, सिर्फ हवा के किनारे पर छोटे-छोटे आंसू रह जाते हैं। नदी का सवाल चुपचाप बहती है नदी, जंगलों से निकलकर शहर की भीड़ में खो जाती है। कोई नहीं पूछता— क्यों बहना जरूरी है? क्यों पत्थरों से टकराकर भी मुस्कान लाती है? हर किनारे का सपना— अपनी धारा में बसा ले, लेकिन धार का सपना किसी किनारे पर ठहरता नहीं। नदी जानती है उसकी गति ही उसकी पहचान है, पर सवाल उसके भीतर का है— क्या बिना किनारों के पानी पानी रह पाएगा?

मौन की आवाज

कमरे में रखा वो फूलदान, फूलों का इंतज़ार करता है... जैसे मैं करता हूँ तुम्हारा। खिड़की से झाँकती स्मृतियाँ, बादलों की तरह आती हैं, छूती हैं तुम्हारे आँगन को, और मेरी छत से रूठ जाती हैं। तुमने कहा था, "जो टूट गया, उसे जोड़ा नहीं जा सकता," मैंने टूटने को अपना हुनर बना लिया। तुम्हारे खंडित सपनों को हथेलियों पर रखता रहा, जैसे कोई मोती संभालता है समंदर के खारेपन में। तुम हँसी थीं, किसी और की बात पर, और मैं उस हँसी को अपने सीने में भरता गया। तुम्हारे आँसू, जो मेरे नहीं थे, उनका खारापन अब मेरी सांसों का हिस्सा है। यह कम तो नहीं, कि तुम्हारे हर "कुछ मत सोचो" पर, मैंने अपने मौन को तुम्हारी आवाज़ बना लिया। अब जब रातें लंबी हो जाएँ, और ख़ुशबू भी ख़ामोश लगे, तो मेरे मौन में झाँक लेना... वहाँ तुम हो, बस तुम।

बोलती चुप्पी

गली के मोड़ पर खुलते हैं कुछ दरवाज़े, जहां रात की थकान पिघलती है शीशे के प्यालों में। अंधेरा यहाँ चुपचाप सांसें लेता है। सूरज उगते ही, दूध की धाराओं संग चूल्हों में उम्मीदें उबाल खाती हैं। चरणों से भरे मिट्टी के आंगन प्यास बुझाने को दौड़ते हैं, पर प्यास कौन सी? दूध की, या समय के? हवा से पूछो— क्यों कुछ खिड़कियाँ खुली हैं, और कुछ दीवारों में छिपी? उसके उत्तर में छिपी है एक आदिम व्यथा। यहां गाने गाए जाते हैं, पर सुर नहीं मिलते। यहां कहानियाँ बताई जाती हैं, पर अंत गायब है। जीवन की गाड़ी दो पहियों पर टिकी है— एक में घाव, दूसरे में मरहम। इस चुप्पी में कुछ चीखें पनपती हैं, कुछ मुस्कानें, और दोनों का भार समय से भारी है।

इस माटी का स्वर्ग

तुम कहते हो— स्वर्ग सफेद धुएं में उड़ता है, जहां दूध की नदियां बहती हैं। हम कहते हैं— हमारे खेतों की नदी, बूंद-बूंद तरसती है। हमारे पास दूध नहीं, महुआ का रस है, जो हमारे दुखों को सहलाता है। तुम्हारी घंटियां सोने की हैं, जो बड़े मंदिरों में गूंजती हैं। हमारे लिए तो सूखे पत्ते हैं, जो हमारे पैरों के नीचे जीवन का संगीत रचते हैं। तुम्हारे मंत्र त्याग के हैं, हमारे मंत्र जीवन के। तुम्हारे लिए स्वर्ग वहां है, जहां बलिदान का ढोल बजता है। हमारे लिए— हर बीज, हर फसल बलिदान है। तुम्हारे ठेकेदार कहते हैं, धरती छोड़ो, आसमान देखो। हम कहते हैं— धरती को छोड़कर कौन आसमान छू पाया? हमारे झोपड़े टपकते हैं, पर इन्हीं के नीचे हमने पुरखों की कहानियां सुनी हैं। तुम्हारी किताबों में स्वर्ग चमकता है, हमारी कहानियां मिट्टी से सनी हैं। हमारी थाली में सुख नहीं, बस कड़ी धूप की रोटी है। तुम्हारे लिए स्वर्ग एक व्यापार है, हमारे लिए जंगल की सांझ एक देवता की तरह है। तुम कहते हो, स्वर्ग कहीं और है। हम कहते हैं, यह माटी ही हमारा स्वर्ग है। तुम्हारे वादे— झूठे, धुएं की तरह उड़ते। हमारी मेहनत— नदियों की तरह बहती। तुम्हारा स्वर्ग सोने की दीवारों में है, हमारा स्वर्ग इस जंगल की गहराई में। तुम जाओ, अपने स्वर्ग को खोजो। हम यहीं रहेंगे, इस धरती की गोद में, इस माटी को जीवन बनाते हुए। यही जंगल, यही नदियां, यही मिट्टी— हमारा स्वर्ग है। यहीं हम जिएंगे, यहीं मरेंगे, यहीं अमर हो जाएंगे।

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