हिन्दी कविताएँ : पद्मा सचदेव

Hindi Poetry : Padma Sachdev

1. सांझ जब घिरती है

सांझ जब घिरती है, कहीं कहीं रुकती है
कहीं ये ठहरती है- सांझ जब घिरती है
कमर से लगाकर सूरज की रश्मियों को
कंधे से लगाकर रोशनी की किरणों को
मलती है सिर के बिखरे हुए बालों पर
घुंघराली लटों को मलती है हाथों से
फिर सुला देती है, कहानियों में लोरी बुनकर
अंधेरों को सुलाती है, रोशनी बुलाती है
मिलाती है कहीं जाकर आकाश को धरती से
सांझ इसे कहते हैं

सांझ जब घिरती है
सांझ में मिलने वाले जागते हैं सायों के परदे में
आती-जाती खलकत के जाने के समय सांस रोक लेते हैं
पीठ कर लेते हैं लोग न पहचान लें

सांझ जब घिरती है
चांद से निकालती है दोहरा घूंघट यह
चांद न पहचान ले, अंधेरा न जान ले
दीवार से चिपककर सांझ सोयी रहती है
करीब से एकदम अंधेरा निकल जाता है
गलियों के भ्रम में निकलता है गलियों में
घुस जाता है रास्तों में
गलती से घुस जाता है बच्चों के स्कूल बैग में
होमवर्क बाकी है
सांझ मिटती जाती है अंधेरे के अंतरतम में,
वहां जा के रहती है सांझ जब घिरती है.

2. सच्च बताना साईं

सच्चो सच्च बताना साईं
आगे-आगे क्या होना है

खेत को बीजूँ न बीजूँ
पालूँ या न पालूँ रीझें
धनिया-पुदीना बोऊँ या न बोऊँ
अफ़ीम ज़रा-सी खाऊँ या न खाऊँ
बेटियों को ससुराल से बुलाऊँ
कब ठाकुर सीमाएँ पूरे
तुम पर मैं क़ुरबान जाऊँ
आगे-आगे क्या होना है।

दरिया खड़े न हों परमेश्वर
बच्चे कहीं बेकार न बैठें
ये तेरा ये मेरा बच्चा
दोनों आँखों के ये तारे
अपने ही हैं बच्चे सारे
भरे रहें सब जग के द्वारे
भरा हुआ कोना-कोना है
आगे-आगे क्या होना है।

बहे बाज़ार बहे ये गलियाँ
घर-बाहर में महकें कलियाँ
तेरे-मेरे आंगन महकें
बेटे धीया घर में चहकें
बम-गोली-बन्दूक उतारो
इन की आँखों में न मारो
ख़ुशबुओं में राख उड़े न
आगे आगे क्या होना है

जम्मू आँखों में है रहता
यहाँ जाग कर यहीं है सोता
मैं सौदाई गली गली में
मन की तरह घिरी रहती हूँ
क्या कुछ होगा शहर मेरे का
क्या मंशा है क़हर तेरे का
अब न खेलो आँख मिचौली
आगे आगे क्या होना है

दरगाह खुली, खुले हैं मन्दिर
ह्रदय खुले हैं बाहर भीतर
शिवालिक पर पुखराज है बैठा
माथे पर इक ताज है बैठा
सब को आश्रय दिया है इसने
ईर्ष्या कभी न की है इसने
प्यार बीज कर समता बोई
आगे आगे क्या होना है

3. जाल

सुनो
सुनो तो सही
मेरे आसपास बँधा हुआ ये जाल मत तोड़ो
मैंने सारी उम्र इसमें से निकलने का यत्न किया है
इससे बँधा हुआ काँटा-काँटा मेरा परिचित है
पर ये सारे हीं काँटे मरते देखते-देखते उगे हैं
रात को सोने से पहले
मैं इनके बालों को हाथो से सहलाकर सोयी थी
और सुबह उठते हीं
इनके वो मुँह तीखे हो गये हैं
तो दोष किसका है दोस्त!

सुनो,
मिन्नत करती हूँ सुनो तो सही
मुझे फूलों की ज़रूरत नहीं है
उनके रंगों को देखकर जो ख़ुश होती
वो नज़र नहीं रही
इस जाल की ख़ुशबू मेरी साँसों में बंध गयी है
मैं फूलों को लेकर क्या करूँगी

सुनो,
मैं तुम्हारी मिन्नत करती हूँ
सुनो, मेरा जाल मत काटो
मुझे परबस रहने दो
मुझे इस जाल के भीतर
बड़ा चैन मिलता है मित्तर!

इसमें से निकलने के जितने हीले
मुझे इसके बीच रहकर सूझते हैं
इसके बाहर वो कहाँ
उम्र की यह कठिन बेला
मुझे काटने दो इस जाल के भीतर दबकर
चलो, अब दूर हो जाओ
जाल के काँटों के बहुत-से मुँह
मेरे कलेजे में खुभे हुए हैं
जाल काटते हीं अगर ये मुझमें टूट गये
तो मत पूछो क्या होगा
बुजुर्ग कहते हैं-
टूटे हुए काँटों का बड़ा दर्द होता है.

4. गूजरी

मन की निर्मल तन की उजरी
ये मेरे शहर की गूजरी
धूप की तरह ये ढल आती
साँसों की तरह ये चढ़ आती
ऊँचे-ऊँचे कठिन ये पर्वत
गूजरी के बर्तनों में भरा है
विधना द्वारा निकाला हुआ शर्बत
इसके क़दम-क़दम के बोझ से
ऊँचे पर्वत को सुख लगता
पैरों से ये दबा देती है
उसका कसा हुआ स्वस्थ बदन सा
कहीं-कहीं छलक जाते हैं दूध के बर्तन
घूँघरू इसके बटनों के छिड़ जाते तो लौ होती है
थककर इसका इसका मुँह कहता तो दिन चढ़ जाता
इस गूजरी ने कसे-कसाये तन के साथ
बर्तन यूँ सिर पर रखे हैं
जैसे नाग उठाए सिर पर धरती सारी
गेंद की तरह पहाड़ों से उतरती है गूजरी
घी में बसी हुई बालों की मींडीयाँ
हिल-हिलकर चौक रही हैं
तवी दरिया में पहुँच मुँह को मारे छट्टे
उपर उठाती मगजी वाली काली सुत्थन
तवी से बचती जाती है
दूध बेचकर भाव कर रही घुँघरुओं का
काले हरे कुंडलुओं का.

5. काला मुंह

मुझे तो किसी ने भी नहीं बताया कि
जीने की राह
गेहूं के खेत में से होकर जाती है
पर जैसे मां का दूध पीना मैंने
अपने आप सीख लिया
वैसे ही एक दिन
मैं घुटनियों चलती
गेहूं के खेत में जा पहुंची
गेहूं के साथ-साथ चने भी उगे हुए थे
मेरी मां ने
हरे-हरे चने गर्म राख में भूनकर
मुझे खाने को दिए
मैंने मुंह में चुभला कर
हंसते-हंसते फेंक दिए
अभी मेरे दांत भी नहीं आए थे
भुने हुए चनों से मेरा सारा मुंह
काला हो गया
काली लार टपकने लगी
मां ने तो मुझे यह नहीं बताया था
कि जब भी दो रोटियों की आशा में
कोई आगे बढ़ता है
उसका मुंह ज़रूर काला होता है!

6. शिलुका

देह जलाकर मैं अपनी
लौ दूं अंधेरे को
जलती-जलती हंस पडूं
जलती ही जीती हूं मैं
जैसे बटोत के जंगल में
जल रही शिलुका कोई
देवदारों की धिया (बेटी)
चीड़ों की मुझे आशीष
अंधेरे की मैं रोशनी...
जंगल का हूं मोह मैं
जो तू है वही हूं मैं
अपनी मृत्यु पर रोई
यह बस्ती टोह ली
चक्की में डालकर
बांह पीसती हूं मैं
लोक पागल हो गया
तुझे कहां ढूंढता रहा
तू तो मेरे पास था
तभी तो जीती हूं मैं
मैं एक किताब हूं
लिखा हुआ हिसाब हूं
मैं पर्णकुटिया तेरी
लाज
तुम रखना मेरी
रमिया रहीमन हूं मैं
कुछ तो यक़ीनन हूं मैं!

(शिलुका=चीड़ की लकड़ी, जो मोमबत्ती की
तरह पहाड़ों में लोग घरों में जलाते हैं।)

7. ये रास्ता

तुम्हें मालूम था
यह राह वहां नहीं निकलती
जहां पहुंचना है मैंने
तुम उस तरफ जा भी नहीं रहे थे
फिर भी तुम चलते रहे
मेरे साथ-साथ
ये राह तो समाप्त नहीं हो रही
हम दोनों प्रतीक्षा में हैं
मैं अपनी मंज़िल की
तुम मेरी राह की
जाओ तुम वापिस चले जाओ
मैं अपनी राह खुद ही ढूंढ़ लूंगी
राह न मिली तो बना लूंगी
मुझे राह बनानी आती है!

8. पहला पहर

सुबह का पहर सुबह का आसमान
उठते ही कहता है
मैं आ गया मेरी जान
थोड़ी देर में खिल जाएगा सूरज
सामने वाली पहाड़ियों के सिरों पर
बिछ जाएगा सोना
चीड़ के दरख्तों की पत्तियां
लद जाएंगी सोेने के साथ
चीड़ों के दरख्तों के पत्ते लद जाएंगे
गहनों के साथ, सौदाई हो जाएंगे
बिस्तर त्याग कर लोग
तभी नहाने के लिए चल देंगे
बज उठेंगी घंटियां, शंख और खरताल
मंदिर की सीढ़ियां चढ़ कर
नदी के सिर पर लटकता घंटा बजा कर
डरा देंगे कबूतरों को
तोते और चिड़ियों से
भर जाएगा आसमान
पंखों की उडारी के साथ
पक्षियों को गोद में लेकर
आसमान कहता है
मैं नहीं खाली
मेरी गोद बाल बच्चों से भरी हुई है
मैं भारत का आसमान हूं।

9. गरमी

ठंड गई और गरमी आई
पहले आया फागुन
चिड़ियों ने चढ़ा लिए बंगले
उठ बैठी है रोगिन
खोद रही है मिट्टी कुम्हारिन
जगह बनाए बैठने की
सुंदर सुराही, प्याले और घड़े
घड़ेयाली पर शोभें
ठंडा पानी कुएं में, छेड़खानी करती गरमी
ठंडा पानी पीकर काम पर घर से जाता करमी
शाम को अनारदाने की खुशबू कई घरों से आती
पानी पिलाती सुराहियां बाहर भी भीगी रहतीं
बूंद-बूंद इक-इक पानी की देखो सृष्टि सारी
ओक लगा कर एक सांस में पीते सब संसारी
दिन बढ़ता जैसे बढ़ता कुएं का ठंडा पानी
गरमी में यह बात भला किसे है तुम्हें सुनानी।

10. इंतजार

फागुन की ड्यौढ़ी के आगे
लग गया है पहाड़ सूखे पत्तों का
कोई तो सीधा पड़ा है
कोई गेंद-सा सिकुड़ा हुआ
कोई ले रहा है सांस धीरे-धीरे
कोई लगता बिल्कुल ही मरा हुआ
टहनियों पर नए अंकुर आने को आतुर बड़े
टहनियों पर जैसे हैं मोती जड़े
मोती उभरेंगे तभी तो इसमें आएगा निखार
हाथों की मुट्ठी है बंद
आंख बंद, मुंह मंद, कान बंद
निकलेंगे फिर धीरे-धीरे
हाथ, बाहें और इक छोटा-सा पेट
खिल गई पूरी बहार
फागुन को भी रहता है भई इंतजार
इसके आने का।

11. ये नीर कहाँ से बरसे है

ये नीर कहाँ से बरसे है
ये बदरी कहाँ से आई है

गहरे गहरे नाले गहरा गहरा पानी रे
गहरे गहरे नाले, गहरा पानी रे
गहरे मन की चाह अनजानी रे
जग की भूल-भुलैयाँ में -२
कूँज कोई बौराई है

ये बदरी कहाँ से आई है

चीड़ों के संग आहें भर लीं
चीड़ों के संग आहें भर लीं
आग चनार की माँग में धर ली
बुझ ना पाये रे, बुझ ना पाये रे
बुझ ना पाये रे राख में भी जो
ऐसी अगन लगाई है

ये नीर कहाँ से बरसे है ...

पंछी पगले कहाँ घर तेरा रे
पंछी पगले कहाँ घर तेरा रे
भूल न जइयो अपना बसेरा रे
कोयल भूल गई जो घर -२
वो लौटके फिर कब आई है -२

ये नीर कहाँ से बरसे है
ये बदरी कहाँ से आई है

(चित्रपट/फ़िल्म–प्रेम पर्वत)

बाल-कविताएँ पद्मा सचदेव

1. सो जा बिटिया, सो जा रानी

सो जा बिटिया, सो जा रानी,
निंदिया तेरे द्वार खड़ी।

निंदिया का गोरा है मुखड़ा
चांद से टूटा है इक टुकड़ा,
नींद की बांहों में झूलोगी
गोद में हो जाओगी बड़ी।
निंदिया तेरे द्वार खड़ी!

सपनों में बहलाएगी वो
परीलोक ले जाएगी वो,
बांहों में लेकर उड़ जाए
तुम्हें बनाकर एक परी।
निंदिया तेरे द्वार खड़ी!

निंदिया तुझे झुलाए झूला
तुझे दिखाए तेरा दूल्हा,
घोड़े पर ले जाएगा वो
अपनी दुलहिन उसी घड़ी।
निंदिया तेरे द्वार खड़ी!

2. जो कली सो गई रात को

जो कली सो गई रात को
फूल बन गई सुबह,
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

पत्तियों पै झुकी चांदनी
डालियों पै रुकी चांदनी,
नींद में चल रही है हवा।
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

बादलों में हवा सो गई
रोशनी भी कहीं खो गई,
नींद से बुझता जाए दिया।
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

रात बीतेगी, होगी सहर
फूल खिलके तू महकेगी फिर,
रंग लाएगा हर दिन नया।
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

  • मुख्य पृष्ठ : डोगरी तथा हिंदी काव्य रचनाएँ : पद्मा सचदेव
  • मुख्य पृष्ठ : हिंदी कहानियाँ : पद्मा सचदेव
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)