हिन्दी कविताएँ : निहाल सिंह

Hindi Poetry : Nihal Singh


आषाढ़ का महीना

आ गया आषाढ़ का महीना चल दिया किसान लेकर के हल अपने खेत जोतने को नयनों में अनगिनत स्वप्न लिए खेत की माटी को अपने माथे पर लगाकर के नववर्ष के आगमन पर अपने खेत को जोतता है और सोचता है फसल अच्छी होगी इब के बरस तो अपने बैलों के पाँवो के वास्ते नये घुँघरू बनवाऊँगा जब वो घुँघरू पहनकर के आहिस्ता- आहिस्ता चलेंगे तो एक मधुर संगीत घुल जायेगा बयार में

सरसों के फूल

सरसों के फूलों पर बिखरी नन्ही- नन्ही शबनब की बूँदें अनगिनत बातें करती हैं सूरज की तपती हुई किरणों से पेड़ों पर ठहरे हुए परिन्दे भोर के आगमन पर उड़ गए सभी नीले गगन में दाना- तिनका चुगने को लहराती हुई पवनें नित्य- दिन गुजरती रहती हैं दक्षिण दिशा में शोर करती हुई सर्द प्रभा को धोरो से बहते हुए गुनगुने जल में फसलें सेकती हैं अपने नर्म पाँवों को

परिन्दा

सर्द प्रभा के आलम में लता पर बैठा हुआ परिन्दा पल- पल निहारता रहता है अम्बर की ओर कोई सूरज का टुकड़ा तुरंत निकल आए बदली से तो सेक लूँ अपनी पल्कों पर बैठी हुई शब की नन्ही- नन्ही बूँदों की टुकड़ियों को जिस्म को थोड़ी उष्ण मिल जाए तो उड़ जाऊँ नीले गगन में फिर चला जाऊँ उड़कर के दूर कहीं ऐसे देश में जहाँ न तेज धूप हो न घनहरी छाँव हो

मजदूर

पहाड़ को तोड़ता है वो जेष्ठ की तपती हुई दोपहरी में नंगे पाँव एक धोती मैली सी और बनियान फट्टी हुई पहने हुए जो उसके निर्धन होने का सबूत देती है उसने ठान लिया है हिय में की वो बीच पहाड़ के रास्ता बनाकर ही साँस लेगा ये सोचकर के वो एक कुदाली लेकर निकल पड़ता है तड़के ही पहाड़ का सीना चीरने को माथे से टपकता हुआ पसीना नीर के ज्यूँ गिरकर पत्थर पर घुल जाता है महीन कणों में सरसराती हवाएँ कान से टकरा के निकल जाती है पहाड़ की ऊॅंची चोटी की ओर दिवाकर से गिरती हुई किरणें बैठ जाती है बुड्ढी पल्को के ऊपरी हिस्सों पर खोद देता है एक लम्बी सुरंग बीच पर्वत के आर-पार पश्चात उसके बन जाता है रास्ता शहर की ओर जाने के लिए

नींद

बुलाता हूँ ऑंखों के इशारों से उसे लेकिन वो है की बैठी है चाॅंद की पल्को पर सुकून से उसके इंतिज़ार में खोलकर रखी है कमरें की सारी खिड़कियाँ ताकि कही आने में कोई बाॅंधा न पहुंचे उसके बगैर गुजारता हूँ समय को कभी तकिये से तो कभी दीवारों से बातें कर के व्याकुलता बढ़ने लगती है तो करवटें बदल लेता हूँ कुछ पल के वास्ते किंतु आती नही है नींद ऑंखों में भोर होने तक ही

दहेज़

एक- एक रूपया जोड़कर के कुछ पूँजी इकट्ठी की है बिटिया के पिता ने उसके हाथ पीले करने के वास्ते किंतु लड़के वालों की ख्वाहिशें बढ़ती जाती है दहेज़ में गाड़ी, जेवर और नकदी की मांग रखते है लड़की के पिता के सम्मुख वो ग़रीब बेटी का पिता कैसे भला उनकी उच्च- कोटि की फ़रमाइशें पूर्ण करें ऊपर से बिटिया की उम्र ब्याह की हो गई है पड़ोसी भी ताना कसने लगे है किंतु वो ग़रीब पिता लड़के वालों की मांगे पूरी करने में असमर्थ है इतनी आमदनी नही है उसकी जो उनकी फ़रमाइशें पूरी कर सके

गडरिया

टेड्ढी- मेड्ढी पथरीली राहों से नंगे पाँव प्रतिदिन लेकर कई बकरियों को चराता फिरता है वो धूप लगने पर तनिक सुस्ता लेता है घने वृक्ष की छांव तले कुछ समय पश्चात घेर देता है बकरियों को जंगल की की ओर एक टूटी से लाठी और एक पानी की केतली लिए प्यास लगने पर थोड़ा पानी पी लेता है जेष्ठ की चिलचिलाती गर्मी में दिन ढ़ले तक फिरता रहता है विराने में लेकर अपने रेवड़ को दिन जब होले- होले छिपने लगता है तो लोट आता है लेकर के बकरियों को बाड़े की दिशा में एक- एक करके फिर गुस्स जाती है समस्त बकरियाँ बाड़े में

मुंगफली वाला

कड़ाके की ठण्ड में लेकर टूटे- फूटे काले से ठेले को गुड़ाता हुआ पहुँच जाता है सुबहा के समय रेलवे स्टेशन पर ताजा मुंगफली से भरे ठेले मे लोहे की सिगड़ी पर सेकता है पक्की हुई मुंगफलियों को और फिर रेल आते है जोरों से चिलाता है गर्मा- गर्म मुंगफली ले लो सस्ते दाम में ले लो बाबूजी ले लो एकदम बढ़िया मुंगफली है उसकी आवाज़ सुनकर के बच्चों का मन फिसल जाता है और वो ले लेते दस रूपये की मुंगफली सांझ तक उसकी अच्छी दिहाड़ी बन जाती है पश्चात वो लोट आता है अपने घर को

नन्ही परी

कोख़ में पल रही नन्ही परी आना चाहती है संसार में उसकी भी ख़्वाहिश है कलियों के मुलायम गालो को छूने की परिन्दो की मानिंद उड़ने की सरसराती हवा के संग बह ने की चिड़िया से बातें करने की मोरनी की ज्यों नाचने की टिपटिपाती बारिश में भीगनें की पिता की अंगुली पकड़कर के चलने की मां के ऑंचल तले छुपने की उसे भय है की कही पुत्र की चाह में कोख़ में ही उसकी हत्या न कर दे कोई कही उसका जीवन कोख़ से प्रारंभ होकर कोख़ में ही समाप्त न हो जाए

बाल विवाह

नन्हें बच्चों को गुड्ढा- गुड्ढी के ज्यों बिठा दिया जाता है बलपूर्वक उनको न विवाह का अर्थ मालूम है न सात फेरों के बारे में जानकारी न सात वचनों को समझते है न दाम्पत्य जीवन को वो देखते है पंडित जी के हिलते हुए मुख की तरफ तो कभी विवाह में शामिल हुई महिलाओं के मनोहर परिधानों की ओर वो रोने लगते है तो उनके नन्हें हाथों में बूंदी के दो पीले लड्डू थमा दिये जाते है और किसी को खिलौने देकर के चुप करा दिया जाता है अल्प धन बचाने के वास्ते इस तरह से उनके जीवन के साथ खिलवाड़ किया जाता है

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