हिन्दी कविताएँ : मुकेश गर्ग ‘असीमित’

Hindi Poetry : Mukesh Garg Aseemit


पर्यावरण दिवस

जंगल के दरख्तों को उतार कर आँगन में, हमने एक दिन का मेला सजाया है। 'पर्यावरण दिवस' के नाम पर, बाज़ार ने फिर से नाटक रचाया है। धरती माँ की छीन हरी चादर के आँचल को , आलीशान शामियाने और टेंट लगवाये है । मेहमानों की चहल कदमी को दिया रेड कारपेट वेलकम , काट के पेड़ सामने के अहाते में पार्किंग शेड बनाये है । गला तरकरने के लिए प्लास्टिक बोतल बंद ठंडा पानी , दीवारों पर’ पानी बचाओ’ के नारे चिपकाये हैं । आसमान से उगलती तेज गर्मी खातिर , हाल में एयर कंडीशनर भी लगाए हैं । धुआं उगलते कारखाने की चिमनियों को, आज एक दिन के लिए बंद कर दिया है । प्रदुषण फैलाने का ठेका आज , ‘पर्यावरण विद’ नेता ने अपने जिम्मे लिया है । भाषण होंगे , संकल्प लिखेंगे ,बड़े बड़े आयोग बनेंगे, पर्यावरण की चिंता में आज नेताओ के आंसू बहेंगे । दूर सूखे कुँए के किनारे पे खड़े सूखे दरख्त, अपनी बदहाली अपने आंसुओं से कहेंगे । ओ प्रकृति! तेरी करुणा के आगे नतमस्तक हैं हम, क्यों अपनी ज़िम्मेदारी से मुख मोड़ चले। पाल पोश कर बड़ा किया तूने , तेरे ही आँचल में विष छोड़ चले ।

यहाँ सब गोलमाल है

दिल के जज़्बातों का यहाँ चला है कारोबार , इश्क का सजा बाजार ,यहाँ सब गोलमाल है। मक्कारों की महफ़िल में हर लफ़्ज़ है फ़साना, इज्जत का लुटा खजाना , यहाँ सब गोलमाल है। स्वार्थ की गलियों में भटक गया इंसानियत का दीया, ईमान का नहीं ठीया , यहाँ सब गोलमाल है। भ्रष्टाचार की इस दुनिया में, हर शख़्स परेशान, सरकारी दफ़्तरों की सजी दूकान ,यहाँ सब गोलमाल है। वोटों की खातिर गिरगिट की तरह रँग बदलते चेहरे, लोकतंत्र की आड़ में गुंडों के पहरे , यहाँ सब गोलमाल है। हर शब्द में दर्द छुपा, हर आह में एक दास्ताँ, 'असीमित दर्द इस दिल में , यहाँ सब गोलमाल है।

कोई गिला नहीं

ज़िंदगी के सफर में हैं ,मंजिल का पता नहीं, हर मोड़ दे रहा सबक , हमें कोई गिला नहीं। किसी ने फूल से नवाजा ,किसी ने बिछाए कांटे , खाए धोखे फकत यारी में , हमें कोई गिला नहीं। ख्वाब टूटे कई , उम्मीदें बिखर सी गयी , मिले तीरे खंजर निशां , हमें कोई गिला नहीं। धुप छाँव की राह गुजर से गुजर रही जिंदगी , अकेले ही चल पड़े डगर , हमें कोई गिला नहीं। जिदगी के हर रंग, ढंग, संग, और फलसफे को , लगाया गले से मिलकर , हमें कोई गिला नहीं। यादों के साए को लिपटाए जब चलें हम अकेले, तुम्हारी यादों का साथ, हमें कोई गिला नहीं। नहीं मिली मंजिल तो क्या करें शिकवा ‘असीमित’, हर कदम पर शुक्रगुज़ार, हमें कोई गिला नहीं।

वाह भाई वाह

सड़कों पर गड्ढे ,दारु के अड्डे , बैठे निठल्ले ,सन्डे हो या मंडे जेबें खाली, सपने खयाली , खर्चे बबाली छटा निराली , गली के छोरे ,निरे छिछोरे , मारें सीटी निकले आह फिर भी दिल बोले , 'वाह भाई वाह'। ट्रैफिक जाम में फंसा आवाम , महंगाई की मार ,बहरी सरकार , चाय भी भी नसीब नहीं, कोई तो करीब नहीं , ऑफिस की रेलमपेल ,घर बनी जेल, जीने की नहीं रही चाह, फिर भी दिल बोले , 'वाह भाई वाह'। स्कूल की महंगी फीस ,पेरेंट्स की निकली टीस , पढ़ाई का बोझ,होमवर्क रोज , खेलों में नबाब इनके रिजल्ट खराब बच्चों पर संकट अथाह फिर भी दिल बोले , 'वाह भाई वाह'। खोखली बातें , बेचैनी में कटी रातें , फूटी नहीं कोडी,भूख निगोड़ी , उजड़ते गाँव,उजड़ी पीपल की छाँव , कठिन पनघट की राह । फिर भी दिल बोले , 'वाह भाई वाह'। रिश्ते हुए दूर,सब अपने में मगरूर सीमित राहें , 'असीमित' चाहें , रोटी के जुगाड़ में,रिश्तों की आड़ में सब कुछ हुआ तबाह फिर भी दिल बोले , 'वाह भाई वाह'।

लिखना चाहता हूँ

लिखना चाहता हूँ, अनाथ आश्रम के उन बच्चों की कहानी, बचपन से पहले ही जहां आ गई जवानी ! जिनकी आँखों में सपना है, जिनका खो गया कोई अपना है ! करून क्रंदनमय पुकार उस अनाथ की , जो हर आवाज़ में तलाशते साथ की ! लिखना चाहता हूँ, टूटते परिवारों की बेबस पुकार , जहां संबंधों को कर दिया दरकिनार , हर दीवार पर लिखा मिलता हैं। टूटे परिवार का बंधन कहाँ सिलता है ! जहाँ सपनों के महल ढह जाते हैं, आँखों के सपने सपने ही रह जाते हैं । लिखना चाहता हूँ, सूने घर की कहानी जहाँ खुशी पराई हुई है , जहाँ अभी अभी बेटी की विदाई हुई है । नहीं सूखी मेहंदी की उजडा मांग का सिन्दूर, कोई अपना ही रूठ के चला गया कहीं दूर। जहाँ दीवारें भी सिसकियाँ भरती हैं, और छत के नीचे ख्वाहिशे मरती हैं। लिखना चाहता हूँ, जो शर्मसार कर खुद मानवता के ठेकेदार बन बैठे , खुद ही लूटें इज्जत और खुद पहरेदार बन बैठे । संवेदनहीनता की काली स्याही से,हर कोना धुंधला हो गया, आम आदमी नेताओं की मुट्ठी का पुतला हो गया । लिखना चाहता हूँ, उन दोहरे मापदंडों की कड़वी सच्चाई को , रिश्तों को रखता ताक पर ,घर निकाला भाई को । सच को दबाने की पल पल साजिश गड़ता है , जहां न्याय की तुला पर,हमेशा झूठ ही भारी पड़ता है। लिखना चाहता हूँ, सपनों की चकाचोंद में पिस रहा इंसान है, जिम्मेदारियों की भीड़ भड़क्का में खो रहा पहचान है । जो हर सुबह खुद के साथ उम्मीदों को भी जगाते हैं , रात होते-होते निराशा के अंधेरे में खो जाते हैं। लिखना चाहता हूँ, उन आडंबर की चमचमाती परतों के बारे में , अनचाही थोपी हुई समाज की शर्तों के बारे में , और दिखावे की दुनिया जो हमें भुला रही है । मुंगेरी लाल के हसीन सपनों में हमें सुला रही है । लिखना चाहता हूँ, ‘असीमित’ एक प्रयास कुछ कर जाने का , सोये हुए समाज को फिर से जगाने का । सूरज बनकर नहीं ,बनूँ एक दीप उजियारा , मिटा सकूँ मेरे हिस्से के कोने का अंधियारा ।

एक डॉक्टर की अंतर्वेदना

हर दिन होता है सामना, अस्पताल की गलियों में गूंजती चीखों से , बेजान बिस्तरों पर पड़े जिन्दा मुरझाए चेहरों से , समय की परछाइयों में गुम खुद के स्वप्न धवल , वेदना की धारा में बहते वे चक्षु अविरल । मेरे अंतःस्थल के कोने में अभी भी स्थिर अपलक , समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का संकल्प , कहलाऊ मैं जीवन रक्षक ! तभी तो सुननी है मुझे हर प्रार्थना हर उदगार , हर एक सिसकती उठती हुई पुकार, में दिखता हूँ कभी कातर, कभी निस्तेज सा , कभी निराशा का समंदर लिए , कभी आशा की बूँदें पिए । श्वास-प्रश्वास के संघर्ष में उलझी हुई जिन्दगी, मैं एक चिकित्सक, कोई है क्या मेरी भी वेदना का संहारक, कोई तो हो मेरे भी दुखों का निवारक ! पर पीड़ा की करुना से मेरा दिल द्रवित और अशांत , पर स्वयं अपने ही ह्रदय की धड़कनों को, शांत करने की कला से अज्ञात । ये सुई की नोक पर झूलती जिन्दगी , कभी रक्त, कभी आँसू, कभी हँसी,कभी मौत की खामोशी ! कभी असीम हर्ष , कभी असीम संताप , कभी खिलखिलाती हंसी , कभी विकट प्रलाप । कोई नहीं देखता मेरे हाथों में कांपती सर्जरी की छुरी, हर कट में, हर टांके में, जीवन का नया अध्याय ढूंढती , पर कहीं गहरे में ,मानो जिंदगी अपनी राह ढूंढती । क्या कभी मेरे आशियाने में भी खुशी का दीप जलेगा ? क्या कभी इन आँखों में भी सुकून सपन सजेगा ? कभी इस दिल की थरथराहट थमेगी? या हमेशा इसी युद्धभूमि में, पीड़ा की छाया में ही जिंदगी कटेगी? ‘असीमित’ , अथाह अंतर्वेदना की ख़ामोशी लिए , समाज की थोपी आशाओं की गर्मजोशी लिए | जीवन और मृत्यु की अनंत लड़ाई में नहीं जाना है मुझे हार , बस कोई हो जो सुन ले मेरी अनसुनी पुकार।

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