हिन्दी कविता : मंगतराम शास्त्री “खड़तल”

Hindi Poetry : Mangatram Shastri Khadtal



वाहवाही में दबी वो आह तू सुन ले-ग़ज़ल

वाहवाही में दबी वो आह तू सुन ले। ओ फ़रेबी उनके दिल की दाह तू सुन ले। खोजता है क्यों ख़ुदा को मंदिरो-मस्जिद क़ैद में रहता नहीं अल्लाह तू सुन ले। मान या मत मान ये तो है तेरी मर्ज़ी मैं तुझे करता रहूँ आगाह तू सुन ले। चार जानिब भीड़ हो जब दुश्मनों की तो बिन लड़े होगा नहीं निर्वाह तू सुन ले। ऐ परिंदे पिंजरा तेरे लिए टांगा है शिकारी को तेरी परवाह तू सुन ले। आज मज़हब बन गया ज़रिया सियासत का फिर बता कैसी इबादतगाह तू सुन ले। चापलूसी हाकिमों की छोड़ ऐ दानिश है भली दरबार से दरगाह तू सुन ले। क्या पड़ी तुझको सियासतगाह जाने की ये शहर ही है सियासतगाह तू सुन ले। सावधानी ही सफ़र में काम आएगी न्याय की कांटों भरी है राह तू सुन ले। रोशनी रखना जहाँ में देख सुबहो तक डूबता सूरज कहे ऐ माह तू सुन ले। नेक बातों पर अमल कर छोड़ लफ़्फ़ाज़ी दे रहा हूँ मैं खरी इस्लाह तू सुन ले। खुदकशी करके गया हिटलर जमाने से है यही सच बात तानाशाह तू सुन ले। साथ चलना सीख ले मिलकर कहे 'खड़तल' इसमें है तेरा भला वल्लाह तू सुन ले।

बीस-बीस की बुद्ध पूर्णिमा

बुद्ध पूर्णिमा की रात चीथड़े और लोथड़ों के बीच पूरे चाँद-सी गोल रोटियों की फुलकारियाँ उन मज़दूरों के हाथों का हुनर पेश कर रही थीं जो अब रेलवे ट्रैक पर बिखरे पड़े थे ये रोटियाँ ही तो थीं उनका सपना जिसे पूरा करने वे घर से दूर आए थे अब ये रोटियाँ ही उनकी कुल जमा-पूँजी थीं और पैरों के छाले जिन्हें सम्भाल वे अपने घर की ओर चले थे पैदल ही किसी बस्ती या गली में उनको घुसने नहीं दिया सड़क से पुलिस ने खदेड़ दिया रेलवे ट्रैक ही था उनके लिए अब सीधा रास्ता वे मीलों चले, थके, रुके कुछ खाया और कुछ बचाया उन्हें यह तो मालूम था कि रेलें बन्द हैं और यह भी कि जो चली हैं उन तक पहुँचना मरने से कम नहीं सो वहीं सो गए लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं था कि मालदारों के माल से लदी मालगाड़ियाँ महामारियों में भी नहीं रुकती एक दनदनाती आयी और उन्हें कुचलकर चली गई बची तो सिर्फ़ वे चाँद-सी गोल रोटियाँ और बिखरे हुए चप्पल, सिर-धड़, हाथ-पैर और कपड़ों की गिनती तथा बची मीडिया की ग़लीज़ सुर्ख़ियाँ और शासन की जुगुप्सित सम्वेदनाएँ!

युद्ध के मैदान से परे

युद्ध में केवल सैनिक ही नहीं मरते युद्ध मारक होता है कई अर्थों में युद्ध के मैदान से परे युद्ध मार करता है आत्मा के अंतिम छोर तक कई परतों में पायी जाती हैं लाशें मैदान के अलावा भी जिनमें मरा हुआ मिलता है शिशु माँ की लाश के सूखे स्तनों में दूध तलाशता और एक कोख का शव भी जो अपने अजन्मे जीवन के साथ ही फ़ना हो गई। जिनमें मर जाता है वह पेड़ भी जो जीवन झुलाता था और लहुलुहान आंगन भी जिसमें लहू की सूखी पपड़ी से झांकती बिलौरी आंखें और कंचे खेलने निकले कोमल हाथ जो साथी मिलने से पहले ही उड़ गए थे कन्धों से। वहीं दिख जाते हैं राख के रंग में छिपे हुए दाढ़ी के सफेद बाल उस बूढ़े बाबा के जो निकला था बिखरी बटियां बटोरने बीमार नातिन के लिए। वहीं पर पायी जाती है गूंगे दरवाजे तले दबी मृत युवती प्रेम किया था जिसने हम उम्र से उसकी रक्त सनी उंगलियाँ ऐसी लगें मानो लिख रही थीं प्रेमी का नाम। वहाँ मिल जाता है एक मरा हुआ मकान भी जहां खून सने चीथड़ों में लिपटी किताब और विक्षिप्त कवि के हाथ से छूटी कलम और दम तोड़ चुकी टूटी ऐनक भी मिल जाती है। उन्ही परतों में मिल जाती है एक मुर्दा गली भी जहां बिखरे पड़े जर्द पत्ते और जहाँ नहीं चलती कोई ज़िन्दा हवा। वहीं मिलता है मलबा जीवन का और मलबे में पड़ा एक कैनवास जिस पर बना अधूरा चित्र एक बच्ची का जिसके हाथ से उड़ता शांति दूत बनाते मलबे में ही दफन हुआ चित्रकार भी दिख जाता है। कैमरे में कैद स्कूल के खण्डहर और भग्नावशेष हुए हस्पताल भी मिल जाते हैं पत्रकार के हाथों में। बस जिंदा रहते हैं जनसंहार के आंकड़े और घृणा में डूबा अहम जो तैयार करते हैं सत्ता की उपजाऊ जमीन और बताते हैं काला इतिहास।

डरे हुए समय का कवि

तब डरे हुए समय का कवि वहाँ पर विराजमान था जब बिना शहीद का दर्जा पाए लौट रहा था अर्धसैनिक शहीद और स्वागत में लीपा जा रहा था आँगन गाय के गोबर से पवित्र किया जा रहा था गंगा जल से। जब समय की दुहत्थड़ खायी विधवा नागाओं की पेंशन घोषणा सुन कुढ़ रही थी और बच्चे लिपटे हुए थे ताबूत से वह पेंशन की बात टालता कुर्बानी के मन्त्र जुगाल रहा था और सारे घर को देख रहा था बिलखते हुए। जब राष्ट्रीय गर्व से लिपटा वीर कोरी दो गज सरकारी ज़मीन के लिए जातीय गौरव से पराजित आंगन में शहादत और सियासत की जंग लड़ रहा था और भीड़ फुंकार रही थी देश भक्ति का उन्माद तब वह भी फुंकार रहा था गलियों में। जब आसमानी बिजली की कड़क-सा बदले की हवस का शोर धरती कंपा रहा था और भीड़ सामुहिक शोक का जश्न मना रही थी, तब भी वह भीड़ में शामिल था। वह तब भी वहीं था जब पहाड़ में चाक चौबंद प्रबंधन हुंकार रहा था और सेंध लग रही थी पहाड़ सी। जब सत्ता लोलूप मंच दनदना रहा था घृणा की दुर्गंध भरी दम्भ ध्वनि गोली की तरह तब भी वह सबसे बाखबर बेखबरी ओढ़े हुए भीड़ से भयभीत खड़ा शुतुरमुर्ग-सा खुद में ही सिमटता जा रहा था।

मनीषा वाल्मीकि का पिता बोला

मनीषा वाल्मीकि का पिता बोला वो रास्ता खेतों का था खेत बाजरे के थे बाजरा ठाकुरों का था ठाकुर गाँव के थे गाँव हाथरस का था हाथरस यूपी का था यूपी योगी की थी और योगी मोदी का मेरा कुछ नहीं था सिवाय बेटी और जाति के बेटी को भेड़िये खा गए बचीखुची लाश को जला दिया आधी रात अब मेरे पास बची है सिर्फ जात जो सदियों से है मेरे साथ जिसे हिन्दू कुजात कहते हैं और मुसलमान बदजात.

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