हिंदी में कविताएँ : ममंग दई

Poetry in Hindi: Mamang Dai


अनुवादक : रेखा सेठी लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक। दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में प्रोफेसर।

नदी

बहुत देर तक नदी किनारे मत रहो भटकी हुईं देवी है नदी वह एक हाथी है, एक शेर है कभी-कभी उसे घोड़ा भी कहते हैं वे एक गर्म मौसम में हमने सोचा कि पीली धूप में लोटता मोर है वह भर देता है जो हमारी आंखों को सुनहलेपन से लिली के ताल में तिर आई एक औरत को देखा कोहरे के पहाड़ में बादल में लिपटी पत्तों के घूंघर और छिटके पराग के साथ बहती मैंने सोचा, नदी एक औरत है एक देश, एक नाम श्वेत तीव्र बहाव में अटका संगीत का एक सुर गुप्त किसी मानचित्र को समेटे कागज का एक पन्ना वहीं है आकाश की सीमा-रेखा अंधेरे और शिखर के बीच प्यास की जन्मभूमि पर! बहुत देर तक नदी किनारे मत रहो डूबती आत्मा है वह सशक्त सशस्त्र देवी बनाता-मिटाता ऐसे मौसम कभी नदी बहती, कभी ठहरी हुई कभी सागर, कभी महासागर हमारे गर्म मौसम की नदी हमारी जिंदगियों का नमक समेटती!

इन गर्मियों

इन गर्मियों, गाऊंगी बंदी योद्धा के गीत गाती हुई पेड़ों की खुरदरी गुमनामी के लिए : इन टहनियों पर छोड़ जाऊंगी अपना खाली जिरहबख्तर भूले हुए शब्दों के खोखल याद करते हुए वह सब जो कभी जानते थे हम समय – क्या है? प्रतीक है वह उस आदमी का बादलों और कोहरे से प्यार करते हुए जो गीत बांटता फिरता है समय – क्या फर्क पड़ता है उससे? हमने बनाए फूल और धूप और बारिश के हथफूल गीत बांटते हुए अब गाऊंगी चमकीले-चटकते शब्द गीतों की याद में माफी मांगती तितलियों से और उस सौंदर्य से जिसे नष्ट किया हमने जीवन की तृष्णा में इन गर्मियों समय ही बताएगा तिरछे झुकता हमारी जमीन पर क्या अर्थ है दूर से किसी को चाहने का।

प्रार्थना पताकाएं

भीगी पहाड़ी सड़क यही है जहां गुजारा हमने अपना सारा वक्त यह सोचते हुए कि पार उतरेंगे कभी? किसी ने मेरे दिल में रख दी एक प्रार्थना की पताका जीवन का प्रतीक हरा धरती का पीला सफेद बादल का और जूनिपर की गंध घुली-मिली सागर की उस छोड़ी हुई नीलाई में जो कभी इस धरा का स्वामी रहा शायद कोई तूफान इसे झुका देगा किसी दिन, जबकि इसने रोका हवाओं को हजारों बार हमने पाया एक दूसरे को कल ही जब उन्होंने हमें बताया कि अतीत गुजर चुका है अब हम तैरते हुए रंगों के पुंज हैं पर्वत के अवरोध के बहुत ऊंचे उड़ते हुए।

तैरता टापू

झुका हुआ पहाड़ मुझ तक पहुंचने की कोशिश में है खींच लाया है खुद को पानी तक ओ प्रिय, चले मत जाना रुको, ठहरो मेरे कंधे पर गहरे मेरे भीतर एक स्त्री सोई है मेरे तकिए पर रखे अपने गाल चमकीले सपनों से भरी गर्मियों के पक्षी बना रहे घरौंदा उसके वक्ष में कौन जानता है यह चक्रवाती बहाव किस ओर मुड़ेगा अलविदा, आसमान पर टिके अदेखे पर्वत जब दिन सिमट जाता है मेरा हृदय जुड़ जाता है पानी में जीवन से बहुत गहरे समुद्र की हरियाई में दिल की धड़कन पर मचलते उठती है कुमुदिनी चुभाती हुई सी तीखी मछलियों की तरह और वह स्त्री हँसती है हँसती चली जाती है।

मृत्यु

सर्दियां लंबी थीं हमने कई बलिदान दिए आज बहुत सवेरे एक युवा लड़का चल बसा क्या वह बीमार था? उसके दिल को कुछ हुआ? कहीं कोई नशा (ड्रग्स) तो नहीं उसकी मां ने कहा वह मेरी मदद करता था अब सुधर गया था वह इंतजार करती रही उसके जगने का ‘मृत्यु’ वह बोली चोर की तरह आई और उसे मुझसे चुरा ले गई और अब वह जा चुका था क्या अर्थ है किन्हीं भी शब्दों का उनके लिए जो जीवित रह गए? ऊंचे पहाड़ पर प्रार्थना पताकाएं लहरा रही हैं खामोश प्रार्थना करो, मृत्यु इस घर न विराजे! अनुवादक : आयुषि नारायण एवं डॉ. भीम सिंह अनुवादक आयुषि नारायण छात्रा हैं, साहित्य में गहरी रुचि है। डॉ. भीम सिंह वर्तमान में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोशिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।)

कोई सपने नहीं

कुछ भी नहीं है दिन चुपचाप बढ़ते हैं पौधे और पत्ते नीचे गिरता है रात को एक सितारा छोड़ जाता पगचिह्न एक तेंदुआ पर, मेरा कोई सपना नहीं है। कभी-कभी बहती है हवा मेरी आँखों में, हिला देती है मेरे दिल को भूमि को शांत और सुंदर देखने के लिए पर, मेरा कोई सपना नहीं है। अगर, मैं निश्चल बैठती हूँ तो विशाल पहाड़ों से जुड़ती हूँ, उनके अवाक अखाड़े में। रहता है सूरज अदृश्य जहाँ रोशनी में नहाती हैं पहाड़ियाँ वहाँ गाती है नदी जहाँ तैरता है प्रेम वहाँ प्रेम तैरता है । लेकिन, मेरा कोई सपना नहीं है।

कभी-कभी

कभी-कभी मैं सिर झुका कर सिसकती हूँ। कभी-कभी मैं चेहरा छुपा कर सिसकती हूँ। कभी-कभी मैं मुस्कुराती हूँ, फिर भी सिसकती हूँ । पर, आपको यह कला नहीं आती!

जन्म-भूमि

हम बच्चे हैं बारिश के, माँ है हमारी मेघ-महिला । हम बंधु हैं शिला और चमगादड़ के, पालने हैं हमारे बाँस और बेल के, सोते थे हम, लंबे घरों में, जब होती थी सुबह हम तरोताजा थे। नहीं थे कोई अजनबी हमारी घाटी में । मान्यता तत्काल थी, कबीले के रूप में हम बढ़े, यह एक शुभ संकेत था कि नियति सरल थी। यह अनुपालन था सूरज और चाँद की गति के मानिंद । पानी की पहली बूंद ने मनुष्य को जन्म दिया। लाल कोश से लेकर हरे तने तक, वह विस्तारित हवा : आते हैं हम वंश-क्रम से एकांत और चमत्कार की तरह।

वन्य पक्षी का क्रंदन

मुझे लगा कि, तुम मुझे चाहते हो बसंती-आकाश के दुलार में धुंध और वाष्प के बीच वन्य पक्षी का क्रंदन ! यह कितना दु:खद है ?

महिलाओं का दुःख

वे कर रहे हैं, भूख से संवाद। वे कह रहे हैं- वहाँ एक निर्विवाद आग है, हमारे दिल में भी जल रही एक आग है। मैं क्या करूंगा ? ओ, मेरे प्यार ! मैं सोच रहा हूँ कि तुम्हें खो न दूँ ? युद्ध और बड़े मुद्दों के लिए, मुझसे ज्यादा जरूरी है ‘मिशन’। जिंदगी इतनी कठिन है, इसकी ख़बर किसी को क्यों नहीं ? यह आग की तरह है या वर्षा के पानी, रेत, कांच के मानिंद । मैं क्या करूंगा ? ओ, मेरे प्यार ! अगर मेरा प्रतिबिम्ब गायब हो जाता है ? वे कर रहे हैं एक जगह की बात जहाँ चावल सड़कों पर बहता है, उपजता है सोना अफीम की खेती से । वे कर रहे हैं विस्थापन की बात !, वे दे रहे हैं तरजीह, मुक्तिगामी संगठनों को ! उनकी दुनिया में है आज़ादी, पुरुषों और बंदूकों के नारे के साथ ! आह ! उनके जीने की तत्काल चाहत क्या उन्हें नसीब होगी ? कितने बदनसीब हैं वे, जिन्हें महिलाओं के दुःखों का भान नहीं !

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