हिन्दी कविताएँ : महेश कुमार केशरी

Hindi Poetry : Mahesh Kumar Keshri


जीवित पिता का दु:ख

पिता ने अपने बेटों को पढ़ाया- लिखाया उन्हें इस काबिल बनाया कि वो दुनियाँ के एक सभ्य इंसान बन पाए धीरे - धीरे बच्चे बडे़ हो गये पहली से लेकर दसवीं तक के दस साल फुर्र से उड़ गये ये वो समय था, जब पिता अपने बच्चों की हर जरुरतों को पूरा करते रहे बच्चे भी बडे़ होनहार निकले दोनों इंजीनियर बन गए पिता अपनी खुशी रोक नहीं पा रहे थे उन्हें लगा वो दुनियाँ के सबसे खुशनसीब इंसान हैं उन्होंने पा लिया हो जैसे स्वर्ग की सारी खुशियाँ कि उनसे ज्यादा संपन्न व्यक्ति अब कोई इस दुनिया में नहीं है बेटे अब विदेश चले गए वहीं जाकर धीरे- धीरे सेटल हो गये शुरू- शुरू में बच्चे पर्व- त्योहारों में घर आते तो पिता खुश हो जाते उन्हें लगता कि जैसे फिर से आबाद हो गया हो घर कुछ दिनों बाद बच्चे चले जाते फिर पिता मायूस हो जाते धीरे-धीरे बच्चों ने पर्व- त्योहारों में भी घर आना बंद कर दिया अब उनके पास वक्त नहीं था पिता के लिए! वो धीरे - धीरे घर को भी भूलते जा रहे थे पिता जब भी फोन करते बच्चे अपनी व्यस्तता गिनवाते समय के अभाव होने की बातें - दोहराते किसी ऐसे समय ही पिता ने अपने जीवित होने के बावजूद करवा लिया था अपना श्राद्ध! अखबार में ये घटना बड़ी प्रमुखता से छपी थी कि एक व्यक्ति ने जीते-जी करवा लिया है अपना श्राद्ध..! सोचो क्या बीती होगी उनको अपने जीते- जी करवाते हुए अपना श्राद्ध!

पिता दु:ख को समझते थे

पिता गाँव जाते तो पुराने समय में घोड़ेगाड़ी का चलन था l स्टेशन के बाहर प्राय: मैं इक्के वाले और उसके साथ खड़े घोड़े को देखता लोग इक्के से स्टेशन से अपने गाँव तक आते -जाते थे इन घोड़ों की आँखें किचियाई होतीं घोड़वान के चेहरे पर हवाईयाँ उड़तीं पिताजी के अलावे अन्य सवारियों को देखकर ही इक्के वाले की आँखें खुशी से चमकने लगती l घोड़े को लगता कि आज उसे खूब हरी घास खाने को मिलेगी l इक्के वाला हफ्तों से उपवास चूल्हे में आग जलती देखता उसकी आँखों में नूमायाँ हो जाती रोटी और तरकारी जरूर उसने आज किसी भले आदमी का चेहरा देखा होगा तभी तो दिख रहीं हैं सवारियाँ पिता साधारण इंसान थे मरियल घोड़े पर सवार होना उन्हें , यातना सा लगता लगता उन्हें सश्रम कारावास की सजा मिल रही है वो , परिवार के सारे लोगों को इक्के पर बैठने को कहते लेकिन , वो खुद घोड़े के बगल से पैदल - पैदल ही चलते माँ , बार -बार खिजती कि कैसा भोंभड़ है मेरा बाप लेकिन , पिता घोड़े के दु:ख को समझते थे तभी तो समझते थे , वो रिक्शेवाले के दु:ख को भी परिवार के सारे लोग रिक्शे पर चढ़ते लेकिन पिता पैदल ही रिक्शे के साथ चलते .. चाहे दूरी जितनी लंबी हो कभी - कभी दु:ख को समझने के लिये घोड़ा या इक्के वाला नहीं होना पड़ता बस हमें नजरों को थोड़ा सीधा करने की जरूरत होती है l लोगों का दु:ख हमारे साथ - साथ चल रहा होता है l ठीक हमारी परछाई की तरह ही लोगों का भोंभड़ या मूर्ख संबोधन पिता को कभी विचलित नहीं कर सका था l वो जानते थे कि मूर्ख होने का अर्थ अगर संवेदन हीन होना नहीं है तो , वो मूर्ख ही ठीक हैं मूर्ख आदमी कहाँ जानता है दुनिया के दाँव पेंच ! इससे पिता को कोई फर्क नहीं पड़ता था लोग पिता के बारे में तरह - तरह की बातें करते कहतें पिता सनकी हैं लेकिन , मैं हमेशा यही सोचता हूँ कि पिता , घोड़े और रिक्शेवाले का दु:ख समझते थे l मुझे ये भी लगता है कि हर आदमी को जानवर और आदमी के दु:खों को पढ़ लेना चाहिये या कि समझ लेना चाहिये जो इस दुनिया में सबसे ज्यादा दु:खी हैं l पिता समझते थे या सोचते थे घोड़े की हरी घास की उपलब्धता के बारे में इक्के वाले के बिना धु़ँआये चूल्हे के बारे में हमें भी समझना चाहिये सबके दु:खों को ताकि हम बेहतर इंसान बन सकें l

पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं

आज आँगन से काट दिया गया एक पुराना दरख़्त मेरे बहुत मना करने के बाद भी लगा जैसे भीड़ में छूट गया हो मुझसे मेरे पिता का हाथ आज,बहुत समय के बाद, पिता याद आए वही पिता जिन्होनें उठा रखा था पूरे घर को अपने कंधों पर उस दरख़्त की तरह पिता बरसात में उस छत की तरह थे जो, पूरे परिवार को भींगने से बचाते जाड़े में पिता कंबल की तरह हो जाते पिता ओढ़ लेते थे सबके दु:खों को कभी पिता को अपने लिए , कुछ खरीदते हुए नहीं देखा वो सबकी जरूरतों को समझते थे. लेकिन, उनकी अपनी कोई व्यक्तिगत जरूरतें नहीं थीं दरख़्त की भी कोई व्यक्तिगत जरूरत नहीं होती कटा हुआ पेड़ भी आज सालों बाद पिता की याद दिला रहा था बहुत सालों पहले पिता ने एक छोटा सा पौधा लगाया था घर के आँगन में पिता उसमें खाद डालते और पानी भी रोज ध्यान से याद करके पिता बतातें पेड़ का होना बहुत जरूरी है आदमी के जीवण में पिता बताते ये हमें फल, फूल, और साफ हवा भी देतें हैं! कि पेड़ ने ही थामा हुआ है पृथ्वी के ओर - छोर को कि तुम अपने खराब से खराब वक्त में भी पेड़ मत काटना कि जिस दिन हम काटेंगे पेड़ तो हम भी कट जाएँगें अपनी जड़ों से फिर, अगले दिन सोकर उठा तो मेरा बेटा एक पौधा लगा रहा था उसी पुराने दरख़्त के पास, वो डाल रहा था पौधे में खाद और पानी लगा जैसे, पिता लौट आए! और वो दरख़्त भी !

माँ का कमरा

आज बहुत दिनों के बाद मैं, माँ के कमरे में गया था .. खिड़की से जाड़े की गुनगुनी धूप वैसे ही तैरकर आ रही थी.. जैसे..जब माँ बीमार थी तब, आया करती थी.... लगा, माँ फिर से कराहने लगी है.. और, माँ की तकलीफ फिर से बढ गई है... लेकिन, अब वो कमरा खाली है अब मेरी माँ वहाँ नहीं है.! ना कमरे में, ना जाड़े की उस गुनगुनी धूप में... आज अलमारी को साफ करते हुए मिले कुछ पुराने पीले पर्चे.. जब माँ बीमार रहतीं थीं वो, उस समय के डाक्टरों के लिखे दवाई के पर्चे थे कुछ पुरानी पीली यादें स्मृतियों में तैर गईं हैं सामने के खुले बिस्तर पर मैंने हाथ फिराई तो लगा ये माँ का सिर है.. लगा मैं सालों पीछे चला गया हूं और माँ के सिर को दबा रहा हूँ .... और, माँ मेरे बालों में हाथ, फिरा रही है.. माँ को साँस लेने में तकलीफ होती थी सामने ही पडा़ हुआ है आक्सीजन का खाली पडा़ सिलेंडर......... अब सिलेंडर की जरूरत नहीं है..माँ को.. ना ही... कभी.. पड़ने वाली है .. माँ के लिए.. माँ की साँसें कब की थम चुकीं हैं इसलिए, सिलेंडर भी अब खाली खाली रहता है उस पर जम गई है गर्द की एक मोटी परत ना अब माँ के लिए दवाईयों की जरूरत है ना ही दवाईयों के पर्चे की लेकिन, मेरे पास बची है माँ की वो यादें जो जाड़े की उदास गुनगुनी धूप में आज भी उस कमरे में तैरती रहती है..!

परिणत होते पिता

जीवण की तरूणाई वाली सुबह पिता हट्टे- कठ्ठे थेl गबरू और जवान उनकी एक डाँट पर हम कोनों में दुबक जाते उनका रौब कुछ ऐसा होता जैसे तूफान के बाद का सन्नाटा दादा जी और पिताजी की शक्ल आपस में बहुत मिलती थी l जहाँ दादाजी , सौम्य , मृदु भाषी थे वहीं..पिता , कठोर .. कुछ , समय बाद दादाजी नहीं रहे .. अब , पिता संभालने लगे घर जो , पिता बहुत धीरे से हँसते देखकर भी हमें डपट देते थे वही पिता , अब हमारी , हँसी और शैतानियों को नजर अंदाज करने लगे धीरे - धीरे पिता कृशकाय होने लगे वो ,नाना प्रकार के व्याधियों से ग्रसित हो गये... बहुत , दुबले -पतले और कमजोर पिता कुछ- ज्यादा ही खाँसनें लगे बहुत- बाद में हमेशा हँसते- मुस्कुराते रहनेवाले पिता और घर के सारे फैसले अकेले लेने वाले पिता अब खामोश रहने लगे वे अलग -थलग से अपने कमरे में पड़े रहते उन्होंने अब निर्णय लेने बंद कर दिये थे... अपनी अंतिम अवस्था से कुछ पहले जैसे दादा जी को देखता था ठीक , वैसे ही एक दिन पिताजी को मोटर साइकिल पर कहीं बाहर जाते हुए पीछे से देखा हड्डियों का ढ़ाँचा निकला हुआ आँखों पर मोटे लेंस का चश्मा मुझे पता नहीं क्यों ऐसा ..लगा दादाजी के फ्रेम में जड़ी तस्वीर में धीरे - धीरे परिणत होने लगें हैं..पिता

इंतज़ार में है गली..

ये अजीब इतेफाक है,उस लड़की के साथ कि एक ही राह से गुजरते हुए एक ही रास्ते में पड़ता है उसका घर और, ससुराल सड़क से गुजरते वक्त मुड़ती है एक गली जो जाती है उसके पीहर तक, पीहर, कि गली से लौटते समय बहुत मन होता कि वो घूम आये अम्मा - बाबू के घर कि देख आये अपने हाथ से लगया पेड़ पर का झूला.. दे, आये फिर, तुलसी - पिंड़ा को पानी.. दिखा दे एक बार फिर, घर - आँगन में बाती या कि घर के आँगन के काई लगे हिस्से को रगड़- रगड़ कर कर दे साफ जहाँ, सीढ़ियाँ उतरते वक्त गिर गई थीं माई दे, आये एक कप चाय और, दवाई अपने बाबू को जिनको चाय की बहुत तलब लगती है जमा कर दे फिर से अलमारी में घर के बिखरे कपड़े सीलन लगी किताबों को दिखा आये, धूप दुख रहे सिर, पर रखवा, आये अम्मा से तेल करवा आये एक लंबी मालिश खाने, चले चूरण वाले स्कूल के चाचा की चाट.. कर, ले थोड़ा ठहरकर अपने भाई - बहनों और पड़ौस की सहेलियों से हँसी और ठिठोली दौड़कर, चढ़ जाये वो, छत की सीढ़ियाँ.. बाँध, आये भाई कि कलाई पर राखी एक बार फिर से भर ले अपनी आँखों में ढ़ेर सारी नींद.. लेकिन, नहीं कदम अब उधर नहीं जाते, नहीं थमते उस दरवाजे तक जहाँ सालों रही... एक अजनबी पन उतर आया है, उसके व्यवहार में नहीं ठहरते उसके कदम पीहर तक आकर.. ! वो, जानबूझकर, बढ़ जाती है आगे.. जहाँ पहुँचकर उसका एक आँगन और उसके बच्चे इंतज़ार कर रहें हैं उसका.. बाट, जोहती और ताकती हुई गली हैरत में है, लड़की को देखकर.. !

पच्छिम दिशा का लंबा इंतजार.

मँझली काकी और सब कामों के तरह ही करतीं हैं, नहाने का काम और बैठ जातीं हैं, शीशे के सामने चीरने अपनी माँग.. और अपनी माँग को भर लेतीं हैं, भखरा सेंदुर से, .. भक..भक... और फिर, बड़े ही गमक के साथ लगाती हैं, लिलार पर बड़ी सी टिकुली..... एक, बार अम्मा नहाने के बाद, बैठ गईं थीं तुंरत खाने पर, लेकिन, तभी डाँटा था मंझली काकी ने अम्मा को.... छोटकी , तुम तो बड़ी, ढीठ हो, जब, तक पति जिंदा है तो बिना सेंदुर लगाये, नहीं खाना चाहिए कभी..खाना... बड़ा ही अशगुन होता है, तब, से अम्मा फिर, कभी बिना सेंदुर लगाये नहीं खाती थीं, खाना... मँझले काका, काकी से लड़कर सालों पहले काकी, को छोड़कर कहीं दूर निकल गये.. पच्छिम... बिना..काकी को कुछ बताये.. गाँव, वाले कहतें हैं, कि काकी करिया भूत हैं,...इसलिए भी अब कभी नहीं लौटेंगे काका... और कि काका ने पच्छिम में रख रखा है एक रखनी और... और, बना लिया है, उन्होंने वहीं अपना घर... काकी पच्छिम दिशा में देखकर करतीं हैं कंघी और चोटी और भरतीं हैं, अपनी माँग में सेंदुर.. इस विश्वास के साथ कि काका एक दिन.. जरूर... लौटकर आयेंगे....

तहरीर में पिता

ये कैसे लोग हैं ..? जो एक दूधमुँही नवजात बच्ची के मौत को नाटक कह रहें हैं... वो, तहरीर में ये लिखने को कह रहे हैं कि मौत की तफसील बयानी क्या थी...? पिता, तहरीर में क्या लिखतें... ? अपनी अबोध बच्ची की , किलकारियों की आवाजें... या... नवजात बच्ची... ने जब पहली बार... अपने पिता को देखा होगा मुस्कुराकर... या, जन्म के बाद जब, अस्पताल से बेटी को लाकर उन्होंने बहुत संभालकर रखा होगा... पालने.. में... और झूलाते... हुए... पालना... उन्होंने बुन रखा होगा... उस नवजात को लेकर कोई.... सपना.. वो तहरीर में उन खिलौनों के बाबत क्या लिखते..? जिसे उन्होंने.. बड़े ही शौक से खरीदकर लाया था.. वो तहरीर में क्या लिखतें.... ? कि जब, उस नवजात ने दम तोड़ दिया था बावजूद... इसके वो अपनी नवजात बेटी में भरते रहे थे , साँसें... ! मैं, सोचकर भी काँप जाता हूँ कि कैसे, अपने को भ्रम में रखकर एक बाप लगातार मुँह से भरता रहा होगा अपनी बेटी में साँसें...! किसी नवजात बेटी का मरना अगर नाटक है... तो, फिर, आखिर एक बाप अपनी तहरीर में बेटी की मौत के बाद क्या लिखता...?

हवा की तरह जरूरी है प्रेम

एक आदमी का घर था लेकिन , ईंट , गारों का बना था l पत्नी थी , पति था .. लेकिन , उनमें प्रेम नहीं था पति एक कमाऊ मशीन था .. वो खर्चे और बच्चों के परवरिश के लिए जिंदा था .. एक आदमी को इस धरती पर क्या जिंदा रखता है .. प्रेम .. वो ..प्रेम होता है .. प्रेम में आकर्षण होता है ... जीवण का सारा सार , सारा सौंदर्य बोध प्रेम में होता है .. आदमी प्रेम में या प्रेम के इंतजार में सालों जीता है .. ये कहना बहुत जरूरी है यहाँ.. कि आदमी को जैसे हवा , धूप , दरख़्त और मौसम की जरूरत होती है .. जैसे त्योहारों की जरूरत होती है .. वैसे ही प्रेम जरूरी होता है , आदमी के लिए. . प्रेम शब्द भर नहीं है .. या केवल एहसास भर नहीं है .. प्रेम तो पूरा का पूरा एक युग है .. सहस्राब्दियों तक की आयु है प्रेम की ... तभी तो प्रेम में पड़े आदमी की आयु , स्मृतियों में बहुत बड़ी होती है .. और आज सालों बाद भी लोग उन जोड़ों को याद करतें हैं .. किस्से कहानियों में जिनका बखान होता है .. यहाँ ये बताना भी जरूरी हो जाता है कि , कि प्रेम का रंग , रूप , गंध नहीं होता .. वह अमूर्त होता है .. ईश्वर की तरह ... मैं , एक लड़की को जानता हूँ जो , प्रेम में होने के कारण ही असमय सूखकर मर गई थी ..! एक आदमी था जिसका घर परिवार था . लेकिन, वहाँ प्रेम नहीं था ! वो , आदमी भी पीला होकर , और सूखकर असमय ही मर गया था ..! सूख गई वो लड़की और मर गया वो , पीला पड़ा आदमी ठूँठें पेड़ की तरह ! ये भी झूठ है कि आदमी बीमारियों से मरता है .. आदमी के अंदर जब प्रेम की ग्रँथियाँ सूख जातीं हैं .. तब आदमी मर जाता है !

एक दिन ऐसा भी आयेगा

एक दिन शाँति के ऊपर जो बहुत गहरे बर्फ जमी है .. वो जमी बर्फ पिघल जायेगी ! युद्ध घुटनों के बल मुड़ा होगा ..! युद्ध से पुते सारे ..चेहरों पर दु:ख की जमी गर्द झड़ चुकी होगी ..! एक दिन गैर-बराबरी खत्म हो जायेगी .. और सारे आण्विक हथियारों पर बर्फ जम जायेगी .. या वो किसी खोह में बिला जायेंगें तब उन्हीं हथियारों को पिघलाकर हल बनाई जायेगी .. फिर से हँसुआ बनेगा.. और उससे काटी जायेंगीं .. फसलें .. तब किसान युद्ध के बारे में नहीं सोचेंगे. . माएँ , नहीं सोचेंगीं बेटे के सही सलामती के साथ युद्ध से लौटने की बात तब एक आश्वसति होगी .. लोगों के दिलों में तब युद्ध के बाद बच्चे बाहें फैलाये अपने पिता को अपनी बाजूओं में समेट लेंगें एक दिन बारूद वाली जमीन पर फसलें लहलहायेंगी... तब बहुत शाँति होगी ...! देख , लेना वो समय एक दिन जरूर आयेगा ..!

युद्धविराम

बात ज्यादा पुरानी नहीं है .. अभी कल ही की बात है । जहाँ फिजा में बारूद की गँध पसरी हुई थी जिसमें , साँसें धुँआ रही थीं .. जहाँ , बच्चे हो रहें थे अनाथ , छिन रहा था जिनका बचपन जहाँ औरतें हो रहीं थीं बेवा ..उदास बेवा औरतों का चेहरा उदासी से निचुड़ गया था .. स्कूल की छत जमींदोज हो चुकी थी .. बूढ़ों ने जहाँ अपनी औलादों को मरते देखा .. जहाँ खाने के निवाले का कोई ठिकाना ना था । जहाँ हर तरफ घुँए और अँधेरे का साम्राज्य...था जहाँ सबके चेहरे पर उदासी पुती थी.. जहाँ ..बस्तियाँ सूनी थीं और , चारों तरफ एक बारूदी गंध पसरी हुई थी.. जहाँ मौत कदम- कदम पर कर रही थी ताँडव .. सुना है वहाँ पर युद्ध विराम की घोषणा हुई है .. बारूद वाली मिट्टी पर फिर से पनपने लगा है , उम्मीद का एक नाजुक पौधा .. किधर से भी तेज हवा चलती है .. तो उसको सिहरन पैदा हो जाती है ..! डर जाता है , किसी आहट से उसके सपने भी धु़ँआए हुए हैं .. उसके आसपास श्मशान सा सन्नाटा पसरा हुआ है.. लेकिन ; अँधेरा खत्म हो गया है और बाहर खिली हुई धूप छिटक रही है ..!

इतनी फिक्र अब कौन करता है !

बहुत समय हुआ लोग हाल नहीं पूछते .. सब जैसे अपने आप में मगन हैं जब मौसम का जिक्र आता तो लोग यही कहते .. इस साल बहुत गर्मी पड़ी या इस बार बहुत ठंड पड़ी .. लोगों ने ये भी पूछा कि तुमने देखी थी कभी ऐसी बारिश ... लेकिन.... बहुत पहले के गये बीते दिनों में से ही बहुत सारे दिन ऐसे थे जब आँगन बुहारती माँ ने अक्सर नियम से टोका ये कहकर कि नहीं अभी बहुत धूप है ... बाहर मत जाओ ... लू लग जायेगी ...बीमार पड़ जाओगे...! कोठे से कपड़े उतारती माँ ,आँखें दिखाते हुए ये कहती बाहर बारिश में क्यों भींगनें जा रहे हो ? बुखार हो जायेगा...! चलो भीतर चलो .. घर से बाहर बारिश खत्म होने पर ही जाना .. अचानक एक दिन घुलते हुए दिनों में माँ कहीं बिला गई .. अब बहुत धूप वाले गर्मियों के दिनों में जब बाहर निकलता हूँ तो कोई रोकने - टोकने वाला कोई नहीं है .. लेकिन ; इस आजादी पर भी दिल में कोई खुशी नहीं होती ..! घर की दहलीज से पैर निकालते समय मैं उस आवाज को सुनना चाहता हूँ ! कि रूको बाहर अभी बहुत तेज धूप है , मत जाओ .. क्या इतना जरूरी काम है ..? कल चले जाना ... रूको दो मिनट तुम्हें बहुत जल्दी रहती है .. मैं , छाता लेकर आती हूँ ..! वापस , लौटता तो माँ हाथों में गुड़ का शरबत लिये खड़ी रहती .. अब उसी तरह तपती हुई दोपहर में जब घर से निकलता हूँ तो सोचता हूँ कि कोई पीछे से आवाज दे और रोक ले मुझे ये कहकर कि नहीं अभी बहुत तेज धूप है .. बाहर मत जाओ ... रूको कि तुम्हें बहुत जल्दी रहती है .. साथ में छाता लेकर जाओ .. पसीने से लथपथ काम को निपटाकर जब मैं चिलचिलाती हुई धूप से होकर घर लौटता हूँ तो ओसारा बिल्कुल खाली दिखाई देता है...! मैं गुड़ वाली शरबत लिये हाथों के बारे में सोचता हूँ .. लेकिन , अब वहाँ कोई नहीं है..! जैसे ही इस बात को सोचता हूँ.. दिमाग फटने लगा है ... इस कविता को लिखते हुए हाथ काँपने लगें हैं ..! बाद के दिनों में जब पिता घर की जर्जर छत की तरह हो चले थे.. सर्दियों के दिनों में जब मैं सुबह- सुबह काम पर निकलता तो पिता तकीद करते .. बाहर बहुत ठंड है .. तुम रात को शायद देर से लौटते हो .. स्वेटर पहनकर जाया करो .. या कि , तुम्हारी सेहत बहुत गिरती जा रही है .. सब कुछ धरा का धरा रह जायेगा .. तुम खाने - पीने में बहुत लापरवाह हो .. अपनी सेहत पर बहुत ध्यान नहीं देते .. थोड़ा दूध रात को लिया करो .. च्यवनप्राश और दूध एक साथ लेने से सर्दियों में सेहत ठीक रहती है .. मेरे बाद तुम्हें और तुम्हारे बाल- बच्चों को अब तुम्हें ही देखना है .. तुम समझ रहे हो ना मैं जो कह रहा हूँ... पिता शायद साफ - साफ अलविदा नहीं कहना चाहते थे .. अंतिम दिनों में पिता इसी तरह घूमा - फिरा कर बातें करते थे जैसे एक कुशल नाविक सौंप रहा हो कोई कमान ..अपने अधीनस्थ को..! अब कोई हाल चाल नहीं लेता .. कोई नहीं रोकता -टोकता कोई नहीं डाँटता डपटता..!

नहीं लौटना चाहता

इस बार नहीं लौटना चाहता घर की ओर .. नहीं लौटना चाहता उसी काम वाली जगह पर इस बार निकलना चाहता हूँ नदी की ओर .. नापना चाहता हूँ उसकी गहराई .. गिनना चाहता हूँ , रेत के ऊपर के पत्थर. . नापना चाहता हूँ नदी का वेग .. नदी की तरह मेरी एक प्रेमिका भी थी... नदी जिस वेग से बहती है .. प्रेम करते समय उसकी छातियाँ भी उसी वेग से धौंकतीं हैं.. जैसे इस अषाढ़ सावन में पूरे वेग से उफान मार रही है.. नदी .. मैं , गिनना चाहता हूँ .. नदी पर पसरे रेत के असंख्य कणों को मेरे दोस्त मुझे पागल कहते हैं .. मैं , लौटना चाहता हूँ पहाड़ों की तरफ .. गिनना चाहता हूँ. . पहाड़ और पत्थरों के ऊपर उग आये पेड़ों को ... तनिक नहीं बहुत देर तक मैं सुस्ताना चाहता हूँ .. सुस्ताना नहीं सोना चाहता हूँ ... पहाड़ के नीचे पेड़ों की ओट में .. गिनना चाहता हूँ , एक एक कर पहाड़ पर उग आये पेड़ों और और पूरे पहाड़ी श्रृंखला को .. नापना चाहता हूँ जँगल और उसके ओर छोर को सुनना चाहता हूँ. . प्रकृति का संगीत .. अब दुनायावी चीजें नहीं बाँध पातीं मुझे.. अब नहीं लौटना चाहता कभी घर की ओर ..

तुम हर्फ़ नहीं थे

तुम हर्फ़ नहीं थे जो तुमको मिटा देते तुमको मिटाते हुए हम खुद भी मिट गये ..! रात आँखों में कटी और और दिल बुनता रहा कई ख्वाब... जब आँख खुली तो तुम अफसान सा बन गये .. ये कैसी बेकसी है .. मेरे तकदीर की मेरे दोस्त जिसे हम अपना समझते रहे वो एक फसाने की तरह थे... हमारा बचपना भी देखिए कि हम गाफिल की तरह थे तुम कहानी की तरह थे .... और‌ तुम्हें हम हकीकत समझ बैठे !

भूख

दुनिया के सबसे खतरनाक हथियार ग्रेनेड , मिसाईल, बँदूक , या जैविक हथियार नहीं हैं ... इनसे आदमी एक बार मरता है .. दुनिया की सबसे खतरनाक हथियार है , भूख .. आदमी किस्तों में मरता है ...!

युद्ध पर बात नहीं होनी चाहिए, भूख पर बात होनी चाहिए!

फिर , अब कभी युद्ध पर बात नहीं होनी चाहिए! बल्कि बात भूख पर होनी चाहिए क्योंकि फँदा लगाता किसान भूख से परेशान था.. जो छात्र बाहर कमाने गया था और जो गिरकर मरा किसी टावर से या किसी बिल्ड़िग से जो किसान का लड़का मारा गया युद्ध में उन सबके केंद्र में भूख थी ! युद्ध के लिए कोई बजट नहीं होना चाहिए. . हथियारों का निर्माण बँद होना चाहिए... हमेशा के लिये .. बँदूकें , कटार , मिसाईलों , तलवारों का लोहा पिघलाकर तवा बनाना चाहिए. . जिस पर थके - हारे आदमी और भूखे पेट को आराम मिल सके .. गोलियों का बारूद निकालकर फेंक देना चाहिए किसी दुर्गम इलाके में गोलियों को पिघलाकर चूल्हा बनाना चाहिए... दरांतियाँ और हँसुआ बननी चाहिए जिससे काटी जा सके भूख की फसल ..!

चार लोग थे

एक बुढ़िया थी ... बहुत जर्जर अब मरी कि तब मरी वाली हालत थी उसकी .. उसका घर भी उसकी तरह ही था ... जीर्ण - शीर्ण .. अब ढहा की तब ढहा वाली हालत में पूस धधक तरहा था जेठ की ताव लिये .. हड्डियाँ जमा देने वाली ठंड पड़ रही थी .. उन दिनों.. बुढ़िया का घर टूट गया था .. चार लोग ..उसको बनाने में जुटे थे.. ये चार लोग उसके गाँव के थे उन्होंने अयोध्या नहीं देखी थी कभी मथुरा - काशी नहीं गये थे l अजान , इबादत से इनको कोई मतलब नहीं था .. गाँव के लोग इनको नास्तिक कहते थे .. एक को दाढ़ी थी .. लेकिन वो तिलक नहीं लगाता था.. दूसरा आदमी टोपी पहनता था.. लेकिन कभी इबादत गाह नहीं गया .. एक ने पगड़ी बाँध रखी थी.. एक आदमी उजबक की तरह दीखता था.. मैं ठीक - ठीक बता नहीं सकता लेकिन चारों ने बहुत मेहनत करके बुढ़िया का घर बनाया था l बुढ़िया का एक ही दु:ख था उससे कोई बात करने वाला नहीं था l बुढ़िया इन चारों में से जिनको भी पकड़ती .. घँटो बातें करती.. दु:ख की सुख की राग की विराग की .. जब पूस गुजर रहा था .. और माघ बीच - बीच में था.. उसी समय बुढ़िया गुजर ग ई .. इन चार लोगों ने उनका अंतिम संस्कार किया .. चूँकि , ये चारों लोग नास्तिक थे.. इसलिये ही गाँव वाले इनकी बात भी नहीं पूछते थे.. लेकिन ; आज गाँव वाले उनकी प्रशंसा कर रहें थे !

इसी देश में कहीं

कल रात तीन जवान शहीद हो गये बस्तर , या दंतेवाडा में शहीद होने वाले वाले जवान का नाम नहीं था l जवान मुझे वस्तु की तरह लगते हैं .. जैसे काॅपी , पेंसिल , पेड, पहाड़ नदी और चिडियाँ की तरह ... या कोई नंबर जैसे बारह नंबर की बस .. सोलह नंबर की जर्सी.. मरने वाले जवान का नाम नहीं होता है... " जवान " बस इसी नाम से जाने जाते हैं .. जन-प्रतिनिधियों के लिये " जवान " सेम , आलू , बैंगन की तरह होते हैं.. लिहाजा वो , भी .. उनको संज्ञा ही मानते हैं.. इस तरह कभी कश्मीर तो कभी छत्तीसगढ़ ... में शहीद होते रहें हैं जवान .. ये जवान जो थे वो कौन थे ..? उसमें संत राम किसान का एक लड़का था .. गाँव घर में जब सूखा पड़ा और घर में खाने की तँगी आ ग ई तो किसान ने अपने बेटे को सीमा पर लड़ने के लिये भेज दिया.. अरे..कम से कम वो लड़का भूखों तो नहीं मरेगा .. इसी तरह जो दूसरा जवान था वो हलवाई बैजू राम का बेटा था... हलवाई बहुत गरीब आदमी था .. पेट काट-काट कर वो बेटे को पढ़ाता रहा था .. लेकिन, आज उसका बेटा भी मारा गया था l तीसरा जवान एक मजदूर का लड़का था मजदूर दिन भर रिक्शा खींचता था . और बेटे को किसी तरह पढ़ा लिखा पाया था .. आज जब तीनों बाप अंत्येष्टी के बाद एक जगह जुटे ... तो तीनों ठगे ठगे से थे ... जन-प्रतिनिधियों ना आकर घड़ियाली आँसू बहा दिये थे ... फिर ..शहीदों के नाम से एक स्मारक बनवाने की घोषणा हुई थी l देश नम आँखों से शहीदों को विदाई दे रहा था l उसी राज्य में कहीं विधायकों को होटल में बँद किया जा रहा था l विपक्ष विधायकों के दाम लगा रहा था l किसी थाने की खबर थी कि एक थाने के सब इंस्पेक्टर ने थाने में चार साल की बच्ची से बलात्कार किया था ..! और फिर , देश के किसी हिस्से में चुनाव होना था.. और जवान फिर ड्यूटी पर जाने को तैयार हो रहें थे !

दु:ख बुनना चाहिए....

सोचता हूँ क्या बुनना चाहिए. .? फिर , ख्याल आता है कि दु:ख बुनना चाहिए. . तकलीफ बुनना चाहिए. . दु:ख - तकलीफ में आदमी एक हो जाता है.. सुख में लोग बात नहीं करते .. सुख अकेले का होता है .. पट्टीदारों से सुख नहीं बाँटते..हैं , लोग इस तरह पट्टीदारों से एक लँबे समय तक मौन रहता है .. एक लँबा मौन ..जिसमें सालों बात नहीं होती.. लेकिन, दु:ख में लोग एक हो जाते हैं दर असल दु:ख पुल की तरह होता है.. जो दुर्गम दु:खों के माध्यम से आदमी को जोड़ता है ..!

बेहतर बहुत बेहतर

आदमी शुरू से हँसता आया है इंसान के काम पे उसकी तरक्की पे ..सालों पहले की तरह उसका आज भी आदमी पर हँसना जारी है .. एक ने कहा समुद्र देवता हैं इसको लाँघा तो जात बाहर कर दिये जाओगे.. लेकिन; आदमी ने लाँघा समुद्र और पा लिया शिक्षा , तकनीक और ज्ञान को .. शिक्षा पाकर आदमी का ज्ञान समृद्ध हुआ ... इस तरह एक बार एक नाविक देश खोजने निकला .. उसको भी लोगों ने उलझाया यह कहकर कि उस देश के लोग राक्षस होते हैं .. तुम्हें खा जायेंगें लेकिन , आदमी ने खोज निकाले कई - कई देश .. आदमी ने कढ़ाई को देखा और बनायी नाव .. दूसरे आदमी ने कहा नाव लकड़ी की है.. और बहुत भारी ..है.. पानी पर कैसे तैरेगी ..? देख लेना तुम्हारी नाव डूब जायेगी .. ! खैर एक बार आदमी ने पंक्षी को देखकर बनाया हवाई जहाज आदमी के ऊपर आदमी ने हँसा .. लोहे का जहाज भला कभी उड़ा है ...? बेवकूफ़..... इस आदमी ने बनाये कई - कई बड़ी ऊँची अट्टालिकाएँ , बड़े - बड़े गगन चुँबी महल , बड़ी - बड़ी इमारतें आदमी फिर हँसा आदमी पर बोला देखना तुम्हारा ये महल ताश के पत्तों की तरह ढह जायेगा ! बौना आदमी जब पहुँचा चाँद की सतह पर खोजने निकला मँगल पर जीवण तब भी आदमी .. ने आदमी के ढिगने और उसके बौने पन पर हँसा .. इस तरह आदमी पाताल भी नाप आया ... और जब चक्कर लगाकर लौट आया पूरी दुनिया का तो ये किंवदंती भी झूठी निकली कि धरती शेषनाग के पीठ पर टिकी है..! इस तरह आदमी ने जब - जब आविष्कार या क्राँति करने की सोची या कुछ नया करने की उम्मीद पाली आदमी ने आदमी को हिकारत और उपेक्षा से देखा.. उस पर हँसा बहुत देर तक.. लेकिन; बदलाव या क्राँति ने आदमी के हँसी की कभी परवाह नहीं की वो लगातार करता रहा उपेक्षा आदमी की उस हँसी का.... और ,बनाया अपने आत्मविश्वास के सहारे दुनिया को पहले से बेहतर बहुत बेहतर ..

पहाड़ और दु:ख

दु:ख पहाड़ सा बड़ा होता है ..! इतिहास की बात है .. पहाड़ पर एक आदमी चढ़ रहा था .. चलते हुए उसके घुटने फूल गये .. पाँव सूज गये.. आदमी को तब लगा कि दु:ख पहाड जितना बड़ा होता है ... लेकिन .. जब आदमी पहाड़ पर चढ़ गया और उसका नाम पहाड़ पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति के तौर पर दर्ज किया इतिहास ने... तब आदमी को लगा कि हौसलों के आगे .. दु:ख बित्ते भर का था ..

पिता और पेड़

सड़क के किनारे कुछ औरतें बीन रहीं थीं .. पेड़ की सूखी हुई टहनियाँ .. पेंड को देखकर पिता याद आये.. पेड़ को कोई लड़का नहीं था.. उसके लड़के या कह लें बच्चे ये पूरी दुनिया थी .. मैंने गौर से देखा पेड़ को .. पेट की टहनियाँ घिसकर काली हो गईं थीं l जैसे मेरे पिता के हाथ काम करते करते कठोर हो गयें थे.. पेड़ और पिता में और भी समानतायें थीं .. पेड़ भी कमर से झुक गया था .. पिता की तरह अपने अंतिम दिनों में .. पिता भी कमर से झुक गये थे.. मेरे स्कूल के रास्ते में पड़ता था वो पेड़. . पिता मुझे स्कूल छोड़ने जब जाते तो मैं रोज पेड़ को बहुत गौर से देखता .. उस समय पेड़ बहुत हरा था पिता की तरह .. अलमस्त सा...अपनी हरियाली से हरहराता... पिता भी उस समय युवा थे पेड़ की तरह ... हरहराते. . पिता को पाँच लड़के थे.. पिता भी पेड़ की तरह थे.. केवल देना जानते थे .. बड़े भैया..कभी पिताजी की कमीज लेकर पहन लेते .. मँझले , भैया कभी पायजामा माँगकर पहन लेते.. तीसरे नंबर के भाई और पिताजी के पैर का साईज एक जैसा था वो , पिताजी के जूते लेकर पहनता. . पिता सबकी जरूरतें पूरी करते रहें पेड़ की तरह .. चारों भाईं जोंक की तरह थे पिता को अपने खर्चे मुसीबतें सुनाकर उनका खून चूसते रहते.. आजीवण.. पिता उदार रहे पेंड. की तरह .. पेड़ भी मुझे पिता की तरह लगता है .. आदमी अक्सर काटते दिखता है .. पेड़ को.. जो हवा और फल , फूल उपलब्ध करवातें है...! लेकिन..पिता के अंतिम समय में जब वे बहुत बीमार थे उनके आसपास माँ के सिवा और कोई नहीं था ..! उस समय पिता को मैंने सिसकते हुए देखा था... बहुत धीमें - धीमें ..! कि कोई आवाज ना सुन ले उनकी .. पेड़ भी बहुत सिसकता है.. बहुत धीमें - धीमें जब उसको लोग काटते हैं ! मैं सोचता हूँ.. पिता और एक पेड़ एक जैसे होते हैं.. केवल देना जानतें हैं...

सेब के बारे में कौन सोचता है

सेब के बारे में कौन सोचता है ..? अँगूर , अनार और संतरे के बारे में ... काजू , अंजीर , बादाम तो बहुत दूर की कौड़ी हैं .. बस्ती में , कुकरा एक दिन , प्लास्टिक में काजू - बादाम और अंजीर लेकर आया था ... तो , लोग उससे कहने लगे , भाई कुकरा , तू तो बड़ा आदमी बन गया है ..! तब , कुकरा की किचियाई और गढ्ढों में धँसी आँखों में एक मुर्दायी हँसी कौंध गई थी ....! बखिया , बीमार है डाक्दर ने फल और मेवे खाने को कहा है फल , बहुत मँहगा है... और ... मेवे तो उनसे भी ज्यादा. .. खासकर , सेव , काजू , अंजीर और बादाम.. सचमुच, कुकरा के लिए काजू , बादाम, सेव , अनार अंजीर खरीदना बड़ी बात है l वो , पालकी ढोने वाला कहार है....! वो मीलों सड़क जितने लंबे कर्ज में ढँका जा रहा है ! अलकतरा की तरह की काली सड़क... और ... सड़क में डूबता जा रहा है उसके बच्चों का भविष्य. ..! हाट से गुजरते समय उसने , कभी गौर नहीं किया सेव , बेदाना और अँगूर पर वो , गुजारा करता रहा .. गेंहूँ , धान और बाजरे पर फिर , एक दिन डाक्दर ने बताया बखिया , बीमार है , इसको कोई बड़ी बीमारी है .. नाम नहीं बताया उसने बीमारी का ... बीमारी का नाम बड़ा टेढ़ा है.. इसको फल खिलाओ... सेव , बेदाना ..अँगूर और अंजीर .. काजू - किशमिश और बादाम .. फिर , एक दिन , पूरे चालीस साल की अपनी जिंदगी में उसने हाथ में लेकर उठाया था .. सेब.. एक सौ साठ रूपये किलो था सेव ... काजू हजार का , अंजीर और बादाम आसमान छू रहें थे .. पहले दिन उसने छूकर ही रख दिया था सेब ... डाक्दर से पूछने गया था ... और कोई उपाय .....नहीं है डाक्दर साब..l लेकिन, झिड़क दिया ...डाक्दर ने ये कहकर की नहीं यही खिलाना होगा... और , बीमारी का इलाज भी बहुत लँबा चलेगा.. इसलिये कुकरा को बहुत धैर्य रखना होगा..! काजू - किशमिश से भी मँहगी थीं दवायें .. तीन - सौ की दस गोली .. दो हजार की दवाई एक छोटी सी - पन्नी में आ जाती थी ..! गाँव से शहर का दवाखाना पैंतीस किलोमीटर दूर है और किराया है... सत्तर रूपया...एक तरफ का .. इसलिये ... वो , पैदल ही चल देता है.. दवाई लेने शहर... कुछ .. पैसे तो बच जायेंगे. ..l मेडिकल वाली दुकान पर एक आदमी कह रहा था .. डाक्दर भी आजकल चोर हो गयें हैं वो , कमीशन खा जाते हैं , दवाईयों में दस रूपये का पत्ता तीन सौ में बिकता है..l उसने गाँव में सुना था कि , मुखिया , अलकतरा खा गया है साहब से साँठ गाँठ करके... ये बात तो समझ में आती है कुकरा को... लेकिन...डाक्दर बाबू तो उसके करीबी हैं... मीठा - मीठा बतियाने वाले... उनको नहीं पता है कि काली सड़क की मीलों लँबाई जितने कर्जे में डूबता जा रहा है ... कुकरा...! और डाक्दर बाबू कमीशन खा जा रहें हैं ...! कभी - कभी सोचता है , कुकरा.. कि बखिया को विष लाकर दे दे... खत्म हो जाये... बखिया .. लेकिन, जब ताकता है .. दूधमुँहें बच्चे की तरफ तो... लाचार हो जाता है...!

हिमालय का ये कैसा प्रलाप

है , नीच और अधम मनुज तेरे सिर पर बहुत दिनों से नाच रहा था काल ..! कि पृथ्वी पर कहीं अगर स्वर्ग था तो यहीं कहीं हिमालय की गोद में था कितना सुंदर हिम से ढँका लकदक करता था ... हमारा...हिमालय ... लेकिन , मनुज तुमने कलुष हृदय से कब्जा करना चाहा हिमालय के पेड़ों पहाड़ों और नदियों पर अपनी डिग्री और ज्ञान- विज्ञान के गौरव पर मनुज बहुत इतराया सोचा साध लूँगा , पहाड़ों को बँद कर लूँगा मुठ्ठी में नदियों को ... काट डालूँगा पेड़ों को समस्त धरा पर होगा मेरा राज्य.... क्यों कि ..मनुज था नीच , अधम उसको चाहिए था एक थोथा विकास .. विकास के नाम पर वो , जुगाड़ता रहा अपने विनाश के साधन .. हिमालय के जर्रे- जर्रे को करता रहा अतिक्रमण कहीं नदियों पर बना दिया पुल बाँधकर पुल किंचित मनुष्य मन - ही - मन इतराया ... कहीं लालच में होटल .... बनवाया ... कहीं... बनवाया फाॅर्म हाउस करता रहा वो जीवण भर प्रकृति का शिकार ... जब इतने से भी मन ना भरा तो पहाड़ों के तराई हिस्सों पर भी बना लिया घर- बार .. कभी बातें करने वाले पहाड़ को काटकर बना दिया टनल नदियों को छेड़ा और घृष्टता की .. बाँध दिया उस पर पुल पहाड़ो को काट - काट कर दिया जख्म हिमालय की छाती पर सोचा हिमालय है सोने की अँड़े देने वाली चिडियाँ .. अपने कचरे और कूड़ों को फेंककर किया हिमालय की नदियों को दूषित ... वनों से आच्छादित हिमालय के पेड़ों को दुष्ट मनुज ने काटा .... आज हिमालय रो रहा और दे रहा मानव को अभिशाप कि उसने अतिक्रमण किया है हिमालय के सुंदर भूमि पर और नाश दिया है , हिमालय के सौंदर्य को... नदियों , में बहाया , मान - मलमूत्र और सडाँध नदियाँ भी व्यथित हैं देखकर मनुष्य के ये घोर अनाचार आज प्रकृति ने ठान लिया है .. कर .. देगी मनुज का विनाश बहुत हिमालय ने भार सहा ... अब अपने दोनों हाथ खड़े कर लिये पहाड़ ने ... नदियों ने किया रूदन और प्रलाप ... ये जो नदियों का तेवर तुम देख रहो हो .. नदियाँ कर रहीं मानव का संहार ... प्रकृति के सामने सदा से बौना रहा है ये इंसान ... इसलिए मानव मत करो कोई प्रलाप .... सुनो दहाड़ना...पेड़ों , पहाड़ों और नदियों का तुमने प्रकृति पर किया है बहुत अत्याचार. ..! चेत जाओ.. मनुज ये तुम पर प्रकृति का है .. एक .. छोटा सा संहार.... नहीं चेते अब भी तुम तो ,प्रकृति कर देगी पूरी मानव जाति का संहार !!

लड़कियों की हँसी

लड़की ने जब किलकारी भरी बागों में फूल खिलने शुरू हुए .... तभी शायद किरणों ने पहाड़ों के बीच से पहली बार झाँका ...! चिड़ियों की चहचहाहट पहली बार इस धरा पर सुनी गई ..! लड़कियाें ने जब मुस्कुराया और जब उनके चमकीले दाँत मोतियों की तरह चमके तो पहली बार इँद्र धनुष खिले ..! लड़कियाँ जब खिलखिलाईं तो सातों सुर बने.. संगीत की लय से नहा उठी हमारी दुनिया.. लड़कियाँ जब हँसी .. तो नदियों , ने गति पाई ... सागर.. ने हिलोंरें भरना सीखा .. पहाड़ों ने ली अंगड़ाई ...! और , जब लड़कियों ने पहली बार गर्भ धारण किया और माँ बनीं... तब पृथ्वी को लोगों ने धरती माँ कहा ..!

कूड़ेदान पर नौकरी की बात लिखी थी...!

शहर में बेकारी बहुत तेजी से बढ़ रही थी ऐसे समय में जब बच्चों का सिलेबस बार - बार बदला जा रहा था .. सत्ता को सावरकर की जरूरत थी .... या ये वो मानती थी कि आजादी के योगदान में सावरकर का योगदान था इसलिये स्कूलों में केवल सावरकर को पढ़ाया जाये.... बाद में चुनाव के बाद वहाँ सरकार बदल ग ई और ये तय हुआ कि कोर्स में पहले जैसे मुगलों का इतिहास पढ़ाया जा रहा था और टीपू सुल्तान ने कैसे अंग्रेजों के दाँत खट्टे किये थे.. उनके शौर्य की गाथायें पढ़ायी जायें.. दिलचस्प बात ये है कि हमारे राष्ट्रीय चैनल पर बहस भी इसी बात पर हो रही थी ... कि बच्चे पाँच साल सावरकर को पढ़ेंगें और पाँच साल टीपू सुल्तान को पढ़ेंगें तो भला क्या सीखेंगें ? ठीक उसी समय की बात है जब मेरी नजर मुहल्ले के एक कूड़ेदान पर पड़ी... वहाँ एक विज्ञापन चिपका था जिसपर अप्रोच के लिये संपर्क का एक नंबर लिखा था जहाँ आई. ए. , बी.ए. और बी. एस. सी. जैसी भारी - भरकम डिग्रियों की शर्त पर नौकरी की बात लिखी थी l शायद ये पहली बार मैनें अपने जीवण में देखा था कि नौकरी की बात कूड़े दान पर लिखी थीं...! सत्ता का ये एक नया शिगूफा था कि , पुराने गड़े मुर्दों के बहाने ही राजनीति चमकाई जाये दिलचस्प बात ये कि इससे ना सावरकर को कोई मतलब था ना ही टीपू सुल्तान को..! और , आवाम को बरगलाने का सत्ता ने ये नायब तरीका खोज निकाल था !

अब लगता है , कि ये पूरी दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी ...!

सुना है , धरती पर तीन चौथाई खारा पानी है..और समुंदर का जलस्तर भी लगातार बढ़ रहा है.. धीरे - धीरे हमारे तटीय क्षेत्र गायब होते जा रहें हैं .. एक समय के बाद बंबई बिला जायेगा... आदमी ने कभी नहीं सोचा कि इस धरती पर जो तीन चौथाई खारा पानी...है .. वो आखिरकार क्यों है ..? क्यों , मीठे पानी के सोते सूखते जा रहें हैं ...? क्यों... सूखती जा रही है बूढ़ी ..गंडक और यमुना.. क्यों सूखती जा रही है .. हमारी संवेदनाएँ ... स्त्रियों को लेकर ...! सभ्यता के शुरूआती दिनों से ही स्त्रियाँ लगातार रोए जा रही है .. ! इनके रोने से ही ये समुंदर बने हैं...! उनके रोने से ही मीठे जल के सोते सूखते जा रहें हैं.. और इन स्त्रियों के लगातार रोने से ही हमारे समुद्र लगातार बढ़ रहे हैं.... सुना है , ये जो खारा पानी है ..वो स्त्रियों का दु:ख है .... जो .. पृथ्वी पर तीन चौथाई समुंदर के तौर पर पड़ा है... स्त्री दु:खों को पी जाती है .. बहुत बुरे वक्त में जो कि बहुत जल्द ही आदमी का आयेगा तब , शायद खारे पानी की तरह ये तीन चौथाई दु:ख भी पी जाती हमारी स्त्री ...! लेकिन , अब लगता है , कि ये पूरी दुनिया एक दिन साबुत खारे पानी में डूब जायेगी क्योंकि आजकल एक नयी कवायद चल पड़ी है ... स्त्री को हिस्सों में काटकर फ्रिज में रखने की कवायद.... फिर ... दु:खों को पीने वाली स्त्री इस धरती पर कहाँ बचेगी ? जो , सोचेगी .. हमारे संकट या अस्तित्व के बारे में...! उस समय ये जो धरती का तीन चौथाई दु:ख है उसको कौन पियेगा ? नीलकंठ की तरह ...!

धरती पर के मौसम

मौसम और ऋतुओं के चक्र को मैं नहीं मानता... ये सब बेमानी बातें हैं मैं , नहीं मानता किसी आवृत्ति को समय के चक्र या दुहराव को मैं नहीं मानता .. और , ना ही मैं मानता हूँ मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ ... मुझे ये सब बेकार की की बातें लगतीं हैं ..! मेरा मानना है कि धरती पर के सारे मौसम स्त्री से जुड़े हैं... जब वो हँसती है , तो वसंत आता है .. वातावरण में एक मादकता सी छा जाती है .. फूलने लगते हैं, फूल गालों पर छाने लगती है मुस्कन... और हर तरफ केवल खुशियाँ ... ही खुशियाँ दिखाई देने लगतीं हैं सचमुच जब स्त्री हँसती है तो वसंत आ जाता है .! स्त्री जब उदास और बहुत दु:खी होती है तो पतझड़ आ जाता है ...! पेड़ भी स्त्री के दु:ख से उदास हो जाता है ! तो , गलने लगता है स्त्री के दु:ख में.. और उसकी शाखों से पत्ते गायब हो जाते हैं .. मानों कि वे स्त्री के उदासी से दु:खी हों .. स्त्री ... जब ठठाकर हँसती है तो तो , वैसाखी आती है.... घर - आँगन अन्न से भर जाता है ... चारों ओर मँगल गान बजने लगते हैं ... और लोग मनाने लगते हैं लोहड़ी का त्योहार. .. स्त्री जब रोती है.. तो सैलाब आ जाता है ... बाढ़ .. बीमारी.. प्राकृतिक आपदायें ... स्त्री के रोने से ही आती हैं ... इसलिये दुनिया को अगर बचाना है , आपदाओं-विपदाओं से तो स्त्री को हमेशा खुश रखो...!

दु:ख -1

ईश्वर ने पृथ्वी बनाने से पहले दु:ख बनाया था ! और उसके बाद बनाया स्त्री को ! ताकि, स्त्री पृथ्वी के दु:ख को समझ सके !

दु:ख -2

ईश्वर ने जब पृथ्वी बनाई और दु:ख भी तब उसको सहने की ताकत केवल स्त्री को दिया l तभी तो दुनिया भर के दु:ख उठाती है , स्त्री! मीलों पैदल चलकर , पहाड़ फलांगती कुँओं और तालाब से भरकर लाती है पानी , तब जब आसमान आग उगल रहा होता है l धरती की कोख उगल रही होती है लावा !

लौट आओ भाई ... कि तुम मेरी कहानी के किरदार नहीं हो ..!

तब हम बहुत छोटे थे ! और , प्यार से हम तुम्हें छोटू ही बुलाते थे l तब हम फूस की झोपड़ी में रहते थे l हमारे घर में बहुत आभाव था , विपन्नता थी l फिर भी हम खुश रहा करते थे l एक , छोटा सा घर था हमारा l बाबूजी , माँ , तुम और चिंटीं-मिंटी कुल छ: जनों का परिवार था हमारा l इन छह जनों के साथ हम उस घर में रहा करते थे l होली , के रंग में हम चारों भाई बहन सराबोर हो जाया करतें l दीपावली के पटाखों के लिये खूब लड़ाई होती ! रेत के घरौंदे , कागज की नाव , गिल्ली-डंडा ही मन को भाता था l तब तुम मेरे भाई छोटू हुआ करते थे l मुझे याद है , मैनें तुम्हें अपनी गोद में अपने बच्चे की तरह खेलाया था l बड़े हुए तो अभिभावक की तरह तुम्हारा ख्याल , रखा l पढ़ाई , नहीं करने पर पीटा भी l सही - गलत में फर्क करना सिखाया तुम्हारी गलत हरकतों पर टोका भी l फिर , तुम धीरे- धीरे बड़े हो गये अब , तुम छोटू नहीं रहे l अब माँ- बाबूजी और मेरी टोका-टोकी तुम्हें पसंद नहीं आती थी l बावजूद हम तुम्हें बात - बेबात टोकते l क्योंकि थे तो तुम अब भी मेरे लिये छोटू ही ! एक पिता की तरह मेरा तुम्हारे ऊपर अधिकार रहा l इसलिये , बड़े होने पर भी तुमको डाँट -डपट देता था l लेकिन , अब तुम्हें हमारा डाँटना-डपटना तो क्या टोका - टोकी भी पसंद नहीं आने लगा था l माँ का टोकना भी अब तुम्हें नागवार लगने लगा था अब तुम पलटकर हमें आँखें दिखाने लगे थे चिंटी - मिंटी भी अब शादी करके दूसरे घर में ब्याह- दी गईं थीं ! उनका आना भी पर्व - त्योहारों पर होता था l तुम्हारी भी अब शादी हो गई थी l अब , तुम बड़े हो गये थे l नई जिम्मेदारियों से लैस तुम बूढ़े - माँ बाप को मेरे भरोसे छोड़ शहर कूच कर गये थे ! जब , अम्मा जब बीमार पड़ीं तो तुम्हें कई बार फोन किया तुम आज करके टालते रहे l अम्मा जब मरीं तो उनकी आँखें शहर जाने वाले रास्ते की ओर टकटकी लगाये ताकती रहीं थीं l बाबूजी , जी भी अम्मा के बाद बहुत जल्दी चले गये ! उनकी आँखें भी तुम्हारा बहुत देर तक आसरा देखतीं रहीं ! और , एक दिन वो , भी चल बसे ! मैं उन्हें दिलासा देता रह गया कि बस अब छोटू आयेगा , अब छोटू आयेगा l अब , कोई काम नहीं बचा जीवन की इस संध्या बेला में बेटी मैनें ब्याह दी है l बेटा कहीं परदेश में रहता है .. उनका इंतजार भी नहीं है मुझे .. मैं अब अधेड़ से बूढ़ा होने लगा हूँ... बाल झड़ने लगी है l मेरी खोपड़ी में खाली खलवट बची है l मुड़ेर पर जब कौआ बोलता है , तो मैं भी गाँव जाने लाली खाली सड़क की तरफ ताकता हूँ .. कि , किसी बस से उतरकर तुम घर की तरफ लौट रहे हो l अब , नहीं होता है , बहुत काम धाम मुझसे मैं , दुनियावी , चीजों में अब नहीं पड़ना चाहता l आओ तुम अपना घर- द्वार सँभालो मुझसे अब कुछ नहीं हो पाता है l सच कहता हूँ , मैं तुमसे , तुम मेरी कहानी के किरदार नहीं हो हाँड- माँस के बने इंसान हो .. लौट आओ मेरे भाई ...!

पिता की तरह

धीरे- धीरे , जैसे -जैसे वक्त गुजरता जाता है मेरे पिता मेरे दादा बनते जा रहें हैं ..! सिर्फ बनते ही नहीं जा रहें हैं l दादाजी की तरह ही धीरे - धीरे उनके बाल भी रूई की तरह सफेद पड़ने लगे हैं l अब थोड़ा सा चलकर भी हाँफने लगते हैं , पिता बिल्कुल दादाजी की तरह ..! अब दादाजी की तरह ही गोलियों पर बीतने लगा है मेरे पिता का जीवण ..! अब पिता मेरे दादाजी की तरह की सोचने लगें हैं ..! या शायद पिता , दादाजी होने लगें हैं l गाल जो पहले भरे - भरे थे l वो गड्ढों में ढँकनें लगे हैं l आँखें कोटरों में धँसने लगी हैं l पुट्ठों में अब वैसा जोर नहीं बचा है l कँधे भी कमजोर पड़ने लगे हैं l अब पिताजी के , दादाजी की तरह..! बिना चश्में के अब पिता नहीं पढ़ पाते अखबार ... कि कम-से-कम खर्च करके कैसे अधिक से अधिक खरीदा जा सकता है ... सौदा - सुलफ ... पिताजी बिल्कुल दादाजी की तरह ही सोचने लगें हैं....! अब सब्जियों को हाथ में लेकर टटोलने लगें हैं , पिता l सब्जियाँ खिच्चा हैं या नहीं दादाजी की तरह ही वे नाखून गड़ाकर देखने लगें हैं , सब्जियों को ! अब , खैनी भी कम खाने लगें हैं , पिता l दिन भर में दसियों बेर पान खाने वाले पिता अब बस दो पान से ही काम चल लते हैं .! धीरे - धीरे उनकी खुराक भी अब घटने लगी है दादाजी की तरह.. एक समय के बाद जैसे दादाजी की घटने लगी थी .. दादाजी की तरह ही अब उन्हें नींद भी कम आने लगी है ! अब , धीरे- धीरे चाय भी कम पीने लगें हैं , पिता l दादाजी की तरह ही एक अकेले कमरे में सिमटने लगें हैं , पिता ..! जितनी कमाई है , उसमें से कुछ ज्यादा ही बचाने की सोचने लगें हैं , पिता... पैसे तो पहले भी बचाते थे , पिता लेकिन , अब तो जोग-जोगकर रखने लगें हैं.. पिता....! तरकारी में हरी सब्जियाँ मँहगी होने पर आलू की रसदार सब्जी ही बनेगी ऐसा घरवालों को समझाने लगे हैं , पिता ..! जो पिता कभी सस्ते- मँहगे की परवाह नहीं करते थे .. और , खुदरा ही खरीद लेतें थे ढ़ेरों चीजें ..! अब मोल- भाव करने लगें हैं , पिता l हाथों से निरखरने - परखने लगें हैं चीजों को , एक तरह से .पिता..! अब स्वाद और सीजनल चीजों को प्राथमिकता नहीं देते पिता.. ! एक दुकान से नहीं कई-कई दुकानों पर जाकर मोल-तोल करके दाम पता लगाने लगें हैं पिता.. पहले आलू खुदरा खरीदतें थे किलो - दो - किलो अब पसेरी खरीदने लगें हैं , पिता l सौ रूपये की एक पसेरी नहीं लूँगा l पिचानवें या नब्बे लगाओ तभी लूँगा ऐसा कहने लगें हैं ,पिता.. l माँ को अबेर - कुबेर देर- सबेर और बारिश वाले दिनों में जब कमाई अक्सर कम होती है .. बरी - अदौरी नहीं बनाने पर अम्मा को डपटने लगे हैं पिता...! दिन चढ़ जाने पर भी घंटो सोने वाले पिता अब अलस्सुबह निकल जाते हैं... काम पर.. जैसे .. पहले दादाजी निकल जाते थे ..अलस्सुबह .!

तो , चलो फिर , विदा लेते हैं

उस वक्त , उस दिन उस पल जब हवा के किसी एक झोंके ने छूआ मुझे तो पता नहीं ऐसा क्यों लगा कि ये हवा और ये छूअन तुम थीं पता नहीं क्यों हवा की वो मस्ती वो सरगोशी ये कह रही थी l कि उसने अभी तुम्हें और तुम्हारे गालों को छूआ है ! जैसे वो छूकर अभी- अभी हौले से सड़क पार करते हुए मुझे छूकर निकली है तो मेरे शरीर के रोयें वैसे ही खड़े हो गये हैं l जैसे पहली बार तुमसे मिलते वक्त खड़े हो गये थे ! अब जबकि मैं कहीं और हूँ; किसी अनचीन्हें शहर में तुम्हारे शहर से बहुत दूर.... जहाँ , सालों मैनें खुद को साबित करने में लगा दिया सच कहता हूँ.. तुमसे अलग होने के बाद सही में इधर सालों कभी तुम्हारी याद नहीं आई लेकिन , पता नहीं क्यों आज ये हवा के झोंकें जो मुझे विश्वास है कि तुम्हारे , गालों और होठों को छूकर अभी-अभी गुजरे हैं कसम से मुझे ये महसूस हुआ है कि हवा की इन जुँबिशों में मैंनें तुम्हारे होंठों को चूमा है l तुम्हारे गुलाबी गाल और हवा के छूअन ने मुझे पागल सा कर दिया है l लेकिन , सच कहता हूँ l ये जो छूअन थी l सचमुच में इसको सालों पहले तुम्हारे साथ जिया है l अब इस अनचीन्हे शहर से ये हवा और उसकी जुँबिश में तुम्हारी साँसों की महक है l ठीक , इस तरह भी संबंधों का हवा में फैलकर रह जाना या याद दिलाना शेष रह गया है l तुम्हें , भी अपने छत पर कभी अचार बनाते हुए या कभी बड़ी बनाते हुए , उस हवा ने छूआ होगा l पता नहीं उस समय तुम्हें मेरी याद आयी होगी या नहीं l तुम्हारी अपनी व्यस्तताएँ , रहीं होंगीं l पति के लिये , कभी तौलिया तो कभी शैम्पू जुगाड़ते l तो , कभी नाश्ते और खाना बनाने के लिये भागते l या , कभी कपड़ों को धोने के लिये वक्त निकालने या बच्चों को स्कूल पहुँचाते या उनका टिफिन बनाते या उन्हें स्कूल छोड़ने या स्कूल से लेकर आने के बाद तुममें ऊर्जा बचती भी कहाँ होगी ? इस उपभोक्ता वादी युग में किसी के पास समय नहीं है , किसी के बारे में सोचने के लिये ! फिर , तुम कैसे सोचती मेरे लिये ? तो चलो , ठीक है l अब विदा लेते हैं l और ये कविता जो कविता से ज्यादा कहीं चिठ्ठी हो गई है l लेकिन , सालों बाद जब हवा के उस छूअन ने तुम्हारी याद दिलाई , मैनें हवा के जरिये ही तुम्हारे होठों को चूमा ... सोचता हू़ँ , आज जब मिलने का कोई जरिया नहीं बचा l और, चिठ्ठियाँ लिखने का रिवाज जब खत्म होने लगा है l लेकिन , तब भी मैनें बड़े जतन से आज भी संभालकर रखे हैं तुम्हारे प्रेम-पत्र ! सोचता हूँ , सालों बाद भी अब जब तुमसे मिलने की कोई गु़ँजाइश नहीं बची l तब भी हवा की वो छूअन वाला पुल और कुछ चिठ्ठियों में तुम्हारी स्मृतियों के अवशेष बचे हैं !

उस दिन "दशरथ केदारी" भी मरा था !

उस दिन बहुत गहमागहमी थी जब एक हास्य कलाकार मरा था हमारे देश में l संवेदना व्यक्त करने वालों का जैसे ताँता सा लग गया था ! आदमी राष्ट्रीय स्तर का था ! लेकिन , एक और आदमी मरा था , उस दिन हमारे देश में उसकी खबर कहीं नहीं थी ना किसी , अखबार में ना ही किसी टी. वी. चैनल पर पेशे से वो एक किसान था नाम था उसका " दशरथ केदारी " उम्र थी कोई चालीस एक साल मरने वाले हास्य अभिनेता से कुछ - एक बीस साल छोटा रहा होगा ! कहते हैं , उसने देश के प्रधान को एक पत्र लिखा था , जिसमें देश के प्रधान को उसके जन्मदिन पर बधाई भी दी थी और , अपने आत्महत्या की बाबत उसने अपने " सुसाइड़ " नोट में लिखा था कि वो , देश में बनने वाली कृषि नीतियों से कतई खुश नहीं है ! उस दिन वो , शायद पहली बार नहीं मरा था .. वो तो बहुत पहले मर गया था जब बीज और खाद के लिये उसने कर्ज लिया था ! जिसको चुकाने के लिये वो तरह- तरह के रास्ते ढूँढ़ता रहा था लेकिन , वो फँस चुका था खेती-किसानी के चक्र-व्यूह में .. ! सहकारी - समितियों से लिये कर्ज के चक्कर में ..! वो , किस्तों में मरा होगा जब पत्नी ने अपने लिये कुछ कपड़े खरीदने को कहा होगा ..! कर्ज जब चढ़ जाता है तब मजबूर आदमी कपड़ा भी कहाँ खरीद पाता है .. ! फिर , किसी दिन अपने बूढ़े बाप की दवाई के लिये मरा होगा ! फिर .. बच्चों की फीस के लिये कई- कई बार मरा होगा ! एक आहत बाप जो समय से अपने बच्चों की फीस भी नहीं भर पाता है ! अगर , वो किसान नहीं होता तो कहीं मजदूर होता.. लेकिन , ये तय है कि , वो तब भी मारा जाता ..! कभी , सूखे- बुड़े से ! कभी ओले - पाले से ! कभी किसी , टावर से गिर कर मर जाता या किसी कारखाने में कटकर मर जाता ! अगर , ऐसे नहीं मरता तो किसी पुरानी इमारत के मलबे के नीचे दबकर मर जाता ..! मरने से पहले " दशरथ केदारी " कुछ , इस तरह इत्मीनान हुआ , पहले उसने कीटनाशक पीया फिर , अपने ही तालाब में कूदकर छलाँग लगा दी ताकि बचने , की कोई गुँजाइश शेष बची ना रह जाये ..! आखिर , क्या मुँह दिखाता वो जिंदा रहकर ! ऐसा उसने इसलिये किया होगा ताकि , वो अपने बीबी - बच्चों से कभी आँख ना मिला पाये ! कीटनाशक से बच भी जाये तो कम- से - कम डूबने से ना बचे ! वो , अपने ही लोगों की नजरों में पहले ही इतना गिर गया था कि एक बार सामने से मरकर फिर उसे जीना गवारा नहीं था ! मरना जैसे उसकी नियति हो वो किसान होता तब भी मरता मजदूर होता तब भी मरता ! दिलचस्प बात ये है कि इनके मरने जीने का कहीं लेखा-जोखा नहीं होता ना ही होती है कभी " दशरथ केदारी " के मर जाने पर उसके " मन की बात " !

तबसे आदमी भी पेड़ होना चाहता है ..!

मैं उस हरकारे के बच्चों को भी उसी समय से देख रहा था जिस समय से मैं उस बरगद के पेड़ को देखा करता था पेड़ के आसपास और भी लत्तरें थीं l पेड़ की फुनगियों के बीच से कई कोंपलें फूटीं और पेड़ की कोपलों ने धीरे - धीरे धीरे बड़ा होना शुरू किया l हरकारे के चार बच्चे थे l हरकारे के बच्चे जमींदारों के यहाँ काम करते थे मैं देख रहा था पेड़ को और उसके साथ खिले कोंपलों को बढ़ते l हरकारे के बच्चों और पेड़ को मैनें इंच-इंच बढ़ते देखा .. इस बीच पेड़ के आसपास का समय भी बीतता रहा l कोंपलें भी धीरे-धीरे लत्तरों में बदलीं फिर लतरें तना बन गईं..! और , पेड़ के आस-पास खड़े हो गये वो पेड़ के रक्षार्थ..! साथ- साथ जन्मी और भी कोंपलें पहले लत्तर बनीं फिर तना और फिर हरकारे के बच्चों की तरह वो भी फैल गईं अनंत दिशाओं में ..! लत्तरों , ने बारिश झेला , धूप भी लत्तरें , ठिठुरती रहीं ठंड में तब भी साथ - साथ थीं l सुख - दु:ख साथ - साथ महसूसा ! लत्तरों ने वसंत देखा पतझड़ भी ! बड़े होने के बाद हरकारे के बच्चों ने कभी नहीं पूछा अपने सगे भाइयों से उनका हाल ! भाईयों ने फिर कभी आँगन में साथ बैठकर घूप या गर्मी पर बात नहीं की .. समय बीतता रहा ऋतुएँ , बदलती रहीं लेकिन , हरकारे के लड़के दु:ख भी अकेले पी गये ..दु:ख भी नहीं बाँटा किसी से ..! सालों से कभी साथ बैठकर किसी समस्या का सामाधान वो खोज नहीं पाये l फिर , साथ बैठकर कभी नहीं देख पाये भोर होने के बाद ओस में नहाई हुई फसल ! या सुबह की कोई उजास .. पता नहीं कितने साल बीत गये l जब गाँव में काम मिलना बँद हो गया फिर , वो कहीं कमाने चले गये दिल्ली या पँजाब .. बूढ़ा हरकारा जब मरा तो दाह संस्कार भी गाँव के लोगों ने किया ! हरकारे के लड़कों ने फिर कभी पलटकर नहीं देखा गाँव ! हरकारे की मौत से दु:खी होकर बूढ़ा होता मकान भी एक दिन ढह कर गिर गया l लेकिन , तब भी हरकारे के लड़के नहीं लौटे .. ! लेकिन , बूढ़े पेड़ की हिफाजत में आज भी खड़े थे युवा पेड़..! पेड़ अब अपनी दहलीज की झिलंगी खाट पर पड़ा रहता l बूढ़ा , पेंड चिलम भरकर पीता .. और , शेखी बघारता गाँव में कि उसकी डयोढ़ी ..बहुत मजबूत हैं ..! और कि , वो युवा पेड़ों की हिफाजत में है ..! तब से आदमी भी पेड़ होना चाहता है !

आओ मिलकर दीप जलायें

आओ मिलकर दीप जलायें मन के अंधियारे को मिटायें l रगड़-रगड़ कर मन के मैल को आओ, इस दीवाली चमकाएँ l शत्रुता को भुल कर आओ उनको मित्र बनायें l विपन्नता, को दूर भगायें आओ, मिलकर दीप जलायें l इस धरा पर सब - सुखी संपन्न हों l आओ , चलो कुछ ऐसा कर जायें l पोंछ आयें, उन चेहरों से मलिनता जो वर्षों से हैं कुम्लायें l बाँट आयें उन घरों में दीये, व मिठाईयाँ वो भी पुलकित हो दीप जलायें l सोये ना कोई इस धरा पर भूखा उनको भरपेट भोजन करवाएँ l प्रभु से करतें हैं वंदन हम ना कोई हो दु:खी सब हों खुशहाल l विपन्नता से मुक्त करो हे प्रभु इस धरा पर ज्ञान का दीप जलें l संसार से नाश हो दुर्दिन का ऐसी खुशियों के दीप जले l नाश हो मानवता के अहितकारों का ऐसी कुछ ईश्वर से विनती करें l पोंछ आयें हम उनके आँसू जो, अब तक रोते आए हैं l आओ, मिलकर दीप जलाएँ इस धरा पर खुशियाँ फैलाएँ l

कील -1

कीलों को बनाने वाली सोच ने हमेशा चाहा की कीलों से जोड़ी जाएँ चीजें और कीलें भी साबुत ठुकतीं रहीं हमेशा अपने को समा दिया किसी गुमनाम अंधेरे में.. जिस पर टँगें थे गाँधी, टैगोर, और नेहरू की तस्वीरें.. तस्वीरों के पीछे के घुप्प अंधेरे में भी खुश रहीं थीं कीलें कि, इन महान आत्माओं का वो, आजीवन उठातें रहें थे बोझ कीलें ईमारत की नींव की तरह थीं जिन्होनें अपने होने के वजूद को हमेशा नकारा.. और, साबुत दफ्न कर दिया अपने को दीवारों के पीछे किसी, ने नहीं चाहा ना कील बनाने वाले ने ना खुद कील ने की वो दूसरों के रास्ते को रोकें लेकिन, हमारे समय के एक तानशाह ने ठोंक दीं हमारे किसानों के रास्ते में कीलें कीलें हैरान थीं कि ये आखिर कौन सा समय आ गया है जब किसी चीज को जोड़ने के लिए नहीं बल्कि किसानों का रास्ता रोकने के लिए आज सड़कों पर ठोंकीं जा रहीं थीं कीलें कीलों तब बहुत शर्मशार हुईं कि, उसका इससे बदतर इस्तेमाल इतिहास में कभी नहीं हुआ होगा कि उन्हें किसी का रास्ता रोकने के लिए सड़क के ठीक बीचों बीच ठोंका गया हो ! तब, कीलों ने सवाल पूछा कील ठोंकने वाले हाथों से की क्या खाएँगे तुम्हारे बच्चे..? अगर, अनाज होगा कारपोरेट के हवाले और कारपोरेट, ठोंक रहा होगा तुम्हारी ताबूत में आखिरी कील..!

कील - 2

कीलों ने हमेशा चाहा की वें हमेशा पुल बनें और हमेशा जोड़ती जायें आने - जाने का रास्ता.. उन्होंने सीढ़ी बनना गवारा किया ताकि लोग आगे बढ़ सकें और छू सकें आसमान.. कील बनाने वाली सोच ने कभी ये नहीं सोचा की उससे बनाई जाये कोई बँदूक... या कि लैंड़माइंस जिससे लोग लहूलुहान हो जायें और, मर जायें जिबह किये हुए बकरे की तरह फड़फड़ाकर.. उन्होंने साबुत ठुकना मँजूर किया ताकि और लोगों का वजूद बचा रहे... फिर, किसने सोचा बँदूक बनाने के लिए या फिर, लैंड़माइंस में किसने किया कीलों का इस्तेमाल..? कीलों ने आदमी के लिए कभी ऐसा नहीं सोचा.. फिर, कौन हैं वो, हाथ जो बनाते हैं बँदूक, और बिछातें हैं, लैंड़माइंस..?

इंतज़ार में है गली..!

ये अजीब इतेफाक है,उस लड़की के साथ कि एक ही राह से गुजरते हुए एक ही रास्ते में पड़ता है उसका घर और, ससुराल सड़क से गुजरते वक्त मुड़ती है एक गली जो जाती है उसके पीहर तक, पीहर, कि गली से लौटते समय बहुत मन होता कि वो घूम आये अम्मा - बाबू के घर कि देख आये अपने हाथ से लगया पेड़ पर का झूला.. दे, आये फिर, तुलसी - पिंड़ा को पानी.. दिखा दे एक बार फिर, घर - आँगन में बाती या कि घर के आँगन के काई लगे हिस्से को रगड़- रगड़ कर कर दे साफ जहाँ, सीढ़ियाँ उतरते वक्त गिर गई थीं माई दे, आये एक कप चाय और, दवाई अपने बाबू को जिनको चाय की बहुत तलब लगती है जमा कर दे फिर से अलमारी में घर के बिखरे कपड़े सीलन लगी किताबों को दिखा आये, धूप दुख रहे सिर, पर रखवा, आये अम्मा से तेल करवा आये एक लंबी मालिश खाने, चले चूरण वाले स्कूल के चाचा की चाट.. कर, ले थोड़ा ठहरकर अपने भाई - बहनों और पड़ौस की सहेलियों से हँसी और ठिठोली दौड़कर, चढ़ जाये वो, छत की सीढ़ियाँ.. बाँध, आये भाई कि कलाई पर राखी एक बार फिर से भर ले अपनी आँखों में ढ़ेर सारी नींद.. लेकिन, नहीं कदम अब उधर नहीं जाते, नहीं थमते उस दरवाजे तक जहाँ सालों रही... एक अजनबी पन उतर आया है, उसके व्यवहार में नहीं ठहरते उसके कदम पीहर तक आकर.. ! वो, जानबूझकर, बढ़ जाती है आगे.. जहाँ पहुँचकर उसका एक आँगन और उसके बच्चे इंतज़ार कर रहें हैं उसका.. बाट, जोहती और ताकती हुई गली हैरत में है, लड़की को देखकर.. !

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