हिन्दी कविताएँ : कुनाल बाईन

Hindi Poetry : Kunal Bain


अंडमान

रात्रि पड़ी ओस दिवस पड़ी धूप शाम आई तो बारिश हुई खूब । ऋतुएं यहां की मत पूछ स्थाई नहीं है कुछ फिर भी द्वीप है निराली हमारी तुम्हारी सबकी प्यारी। अकेला खड़ा सीपियों के जोर मातृभूमि से कोसों दूर भारत नाम पर ये धरा द्वीप सबसे हरा भरा। भाषाएं सब अलग-थलग पहनना खाना सब अलग थलग रहन-सहन सब अलग-थलग संस्कृति भी है सबसे अलग। पर एक से हैं रहते कभी भी न लड़ते प्यार हैं सब करते इसलिए यह भी है भारत मां की धरती। पुराण में भी नाम अंडमान था हंदुमान अहम नहीं, है मान यही मेरा प्यारा अंडमान। देखे हैं रक्त सीपियों ने भी यहां की समुद्र भी लड़ा वीर जैसी यहां की प्रथम आजादी परचम यहां की फहराया झंडा बोस ने, वह माटी यहां की। यह सुनहरा नीलांबर आज कभी हुई थी काली काज हां काला था यहां का राजा तभी नाम पड़ा काला पानी की सजा। विश्व पर्यटन में अग्रणी कई द्वीप यहां की नामी शिक्षा भी है खूब भाई भारत ही है हमारी माई। प्रकृति ऐसी मानो स्वर्ग कोई दूजी पांच सौ से अधिक द्वीप विचित्र पर लागे छोटी मानचित्र। आज से हम करते प्रण बचाएंगे इसे सब जन प्रदूषण का न कोई मान प्यार था प्यार है और प्यार रहेगा अंडमान।

समाज दर्पण

उसके जन्म से ही मिलता पिता को नया जन्म अरे! लक्ष्मी आई कह उठता उसका मन हंसी किलकारी से चमक उठता हर आलम नीरवता भरी जिंदगी भी खिल जाती हर कण नाम भी रखते उसका किसी परी या देवी सा जैसे आखिर मिल ही जाती मृग को कस्तूरी सा न न अभी से नहीं पाई जोड़ रख विवाह से पूर्व कह देता अर्धांगिनी को इसे ना छू यह मेरी बेटी के लिए है कुछ बेटी बड़ी होती तो बाप की चिंता बढ़ता अरे कहां मिलेगा मुझे उसके लायक लड़का पच्चीस्वां जन्मदिन आया निकट पिता के समक्ष समस्या आई विकट बेटी जिद्द पर अड़ी जाऊंगी दोस्तों के साथ जन्मदिन मनाऊंगी और आ जाऊंगी कल रात बताया अपने सभी दोस्तों के बारे में फिर दिया अनुमति मां के मानने पे बेटी तो गई पर पिता को चिंता बहुत सताई पता नहीं उस रात पिता को नींद कैसे आई लड़की की सहेलियों ने उसे अपने घर बुलाया वही सारी तैयारियां की, पावक वही जलाया भाग्य भी आज खेल रचाकर सोने चला गया तभी लड़की पर तीन लड़कों ने नजर दौड़ाया तीनों मदिरा पीकर नशे में धुत चूर हो गए उनके शब्द मेरे कानों पर अभी भी गूंज रहे लिखूं कैसे उनके शब्द, है नीचता से भरा पूरा ऐसा पाप अश्रु पाकर भी धूल ना पाए पूरा लड़की का भाग्य अहो! उसकी सहेलियां सुध में नहीं धर दबोचा तीनों ने ले गए अरण्य में कहीं वह चीखती रही चिल्लाती रही पर सुनने वाला कोई नहीं लगता मानो उस पल भगवान भी छुट्टी पर चले गए अब तुझे कौन बचाए, हाय काल के राजा भी कहीं चले गए काश तू द्रौपदी होती तो तेरा सखा कृष्णा होता तुझे छूने वाला दुशासन और उसका लहू भीम पीता जितने भी देवता को वह जानती उनसे दया की भीख मांगती पर आज ना तेरा दिन है विधि के हाथों लिखा तेरा काल है नारी से ब्रह्मांड बना जीवन उससे मिला सृजन करती नारी पूजते वारी-वारी नारी नहीं तो जन्म नहीं पर आज उसी नारी का सम्मान नहीं "देख रहा हूं उस दुपट्टे को जो तन की रक्षा करने, धूप छांव में अड़ा रहा आज स्वयं को अकेला पाकर चुपचाप अरण्य में पड़ा रहा " मार डाला उन शैतानों ने उस बाप की बेटी को किसी की सहेली और किसी की बहन को जब पिता को यह बात पता चली तो पैरों तले भूमि निकली मां रो रो कर बेहाल पर पिता ने अश्रु ना बहाया था टूट गया ढांचा अंदर से जिसका जीवन का एक ही सहारा था जिसके लिए आगे की जीवन सजाई आज चिता पर लिटा उसको जलाई बरसों की जमा पूंजी निरर्थक गई सब जहां से जानी डोली थी अर्थी गई अब टूटे सारे सपने और टूटा जीवन सारा जैसे मेहनत के बाद उगा नहीं कोई चारा यह वृत्तांत नहीं यही यथार्थ है यह अति है समाज की यही दुर्गति है।

दीपक प्रेम

(यहां पर दीपक का अर्थ बेटा से है और पावक का अर्थ मां से है। इस कविता को मैं सभी माओं के लिए समर्पित करता हूं।) हूं मैं दीप कहीं का पर मुझमें तू पावक सारा न तू तपे तो मैं दीप कहां का मारा है सूर्य जलता मुझसे कहता दीपक मैं बड़ा तुझसे पर क्या तमस जाने ना कि कौन बड़ा है किस से तू न होती पावक तो मेरा क्या तेज रह जाता बिना मेरे तेज का यह संसार तमस रह जाता सुनकर तेरी रव यह तमस दूर हो जाता आज यह दीप अकेला तेरी कोई रव ना पाता मुझमें पावक देकर तू मुझसे रौशन जग करवाती सजाकर मेरे घर को फिर कहां चली को जाती है प्रेम तुझी से करता हूं मैं है प्रीत तुझी को मानता हूं तू ही है पावक इस जग में जिसे मैं साई जानता हूं।

आषाढ़ आगमन

प्रकृति करती वर्षागमन सूखे वसुधा में गीलापन वन प्रतीक्षा अब टूट गई बांधों में जल भी छूट गई गिरी में मयूर डोल रहे रिमझिम-रिमझिम सब बोल रहे गरजते बादल बरस पड़े नदी-नाले सब भरे पड़े वर्षा रव गूंजती छप्पर में आया आषाढ़ घर-घर में!

अभिमान!

अभिमान! अभिशप्त सा शब्द रव गुंजित जब मन में तब हुआ विनाश जो तय था कोई बचा सके न रण में सत्य से कली काल तक देख लो उन शूर समर में वसुधा पर पड़े उनके शीश जो खड़े थे अभिमान में धन धरा धर्म तीन भ्राता यदि करो मान तो सब जाता न मिलती यश लाभ कीर्ति संसार करे तुम्हारी दुर्गति सहस्त्र वर्ष तप करते साधना करते अति दुर्लभ लाभ न मिलती मस्तिष्क को मांगते जब कोई वस्तु दुर्लभ नहीं जानते फल मान का क्या हुआ कश्यप रावण का मिला यश वैभव दोनों को संभाल न पाए अपने उर को ब्रह्मा के वर विफल गए दोनो अंत में मारे गए यही होता परिणाम मान का होती दुर्गति अभिमानी की सहस्त्र उदाहरण पड़े हुए कोई पूछता न आज उन्हें तुम पढ़ो पढ़ कर बढ़ो पर अभिमान न कभी करो है पतन हुआ उन सभी का जिसका मान प्रभु से बड़ा न कोई अमर यहां पर खड़ा कोई धरा, तो कोई पंचतत्व पर पड़ा।

सुबह

मोती से भरे नभ दीख रहे अभी कुछ देर ही बाकी अर्णोदय होगा तभी पाला पयोनिधि समान सुंदर दूर क्षितिज दिखती धरा के अंदर लगता मानो ओढ़ पाला हरियाली निशा कटती ताला आगोचर पूर्ण कुछ नहीं दिखते टपकता हिमकण जैसे पर्यावरण रोते अनिल शांत, शांत वातावरण जैसे पहना कोई आवरण वृक्ष के पत्ते पड़े सड़क किनारे ठंड से कांपी सभी मिनारें तभी अरुण के रथ आए सूर्य देव भागा पाला स्वच्छ हुआ हर पथ। और सुबह हो गई।

सागर तट

दूर क्षितिज पर से लहर मेरे पद चिन्हों को लेती हर स्वछंद नभ सूर्य ताप अति स्वास वायु छोड़ पवन मंद गति जलनिधि आज लगती कूप मध्यान के बाद बड़ गई धूप तट पर कोलाहल अधिक आज कोई बैठा एकांत तो कोई नाचा आज घूम रहे सब जंतु निज धुन कोई खेले खेल तो कोई गाए रामधुन निजचिंता निर्भय निडर सब घूम रहे छोड़ कक्षा कारण कोई अंजान पर जान करता रक्षा पर आज वो रक्षक तट झूम रहे परचिंता परभ्या परडर सब छोड़ वे भी घूम रहे कोई खर्च करता अर्थ आजीविका की तो कोई ढूंढे अर्थ अपनी जीविका की कुछ तरु हैं बड़े बड़े तो कुछ तरु हैं भरे भरे कुछ तरु हैं मोटे मोटे तो कुछ तरु हैं छोटे छोटे हरियाली हरे हर काला रूप जैसे छाया हरती धूप

यादें

सहज उठे झूमने दृग पलके, उर बीती हुई उन यादों की कोई धुन पूर्व मिथक सा लगता था अब यथार्थ यह उसकी बातें श्रुत पर जब पड़ी न कोई थाह! कोई नदी उफान सी उठती, समुद्र में गोते लगाते हुए कोई अज्ञात किरण बुलाती उसे छूने का भरसक प्रयास मैं करता पर विफल मेरे बाह! पूछूं परमात्मा से क्यों बनाए मोह? मोह सरल कर दिए करे कठिन मोक्ष! ध्वनि से बनी वाणी जब छलकती छल-छल हृदय के हर राह तभी बनी स्मृति और यादों की छांह!

परीक्षा

आषाढ़ की वर्षा समान परीक्षा आई प्रत्येक स्थान पर तनाव तनाव सा गंध छाई हैं सब चंचल पर आज सब विराण संकट में सब चुप सिद्ध हुआ पर पुराण पिपीली समान साधन संजोए जिसने वर्षभर पाया उसने छाह आषाढ़ की परीक्षा पर पतंगे समान जो वर्षभर झूम रहा वह इस मुश्किल घड़ी यहां वहां घूम रहा एक दृश्य ओझल सा मेरे आंखों में आते ही याद बन जाता मेरे बातों में सुनसान सी हो जाती हर कक्ष आत भाग्य करती किसी की पक्ष पात आंखों में दिखता कौन कितना है तैयार इस वर्षा में भूल जाते सब यारी यार वसंत शीत ग्रीष्म सब आनंद की लड़ी वर्षा ही है केवल परीक्षा की झड़ी।

ऋतुराज

माह मिलन की आई रे! उपवन में सुगंध छाई रे! प्रातः पुष्प वर्षा करती मधुप स्वतः आकर्षित होती सुगंध वातावरण सुगंधित मन मंजरी भी दिखती हर कण कण वृद्ध जीर्ण पुरातन सब झड़ते हैं नए पुष्प से नया जीवन भरते हैं उपवन में रंगों की प्राकृतिक होली खुशियां भरती घर घर, हर खोली पवन की एक लकीर ठंड से कांपा 'वह' फकीर कवि मन मोहित माह कड़ी धूप! मिलती न छाह माह कहलाए ऋतुराज उमंग से होता हर कामकाज ऊपर पढ़ी यह प्रवृत्ति पोथी में आज दिखाई न देती दृष्टि थोथी में 'मैं' निज स्वार्थ में डूबा रहा 'मैं' मशीनीकरण में खोया रहा 'मैं' समूल विनाश का कारण अहो! क्षमा करना हे प्रकृति! 'मैं' अज्ञानी 'तुम' ही जगत के पालनहार हो।

बैठा रहा

घंटो यूँ बैठा रहा किसी मैदान के किनारे में दुनिया के किसी कोने के अनजान से मीनारों में एक पल घड़ी को देख कि पल क्या है? घड़ी ने कहा बैठ यहां रखा कल क्या है? देखता रहा इन सड़कों में चलते हुए इन पुर्जों को, इन लोगो, इन अट्टालिकाओं को कुछ भी लगा नहीं विशेष देखकर इन मोह बंधनों को सोचा एक पल की क्या ज्ञान इतना ही है जरूरी बिन ज्ञान क्या जरूरत होगी ना पूरी? इतने में उत्तर स्व चल मेरे पास आया तीव्र वर्षा हुई और छोटे जलजात का जन्म हो आया।

कलम किताबों की बाते

क्या अब भी शेष महत्व मेरा? मुझको मेरा अंत दिखता है आज पड़ा मैं भू पर जिंदा पर मुझे कोई न दिखता है क्या "विज्ञ" ने मुझे परास्त कर दिया? क्या कवि ने भी सब हाल छोड़ दिया? तुम तो फिर भी लिखते हो बाज़ार में अब भी बिकते हो पर मेरा तो अब अस्तित्व नहीं जो आए केवल दरकार वही लगता मानो महत्व मेरा भूल गए सब आधुनिकता के होड़ में धुल गए सब "विज्ञ" से तुमसे क्या होड़ उससे तो मैं हारा मुझको पढ़कर आगे बढ़कर भूल गया मुझको जग सारा।

होलिका दहन

तिथि चैत्र की पूर्णिमा आज दिखती चांद कोई रमणीय ताज सुनो होलिका की कहानी गपशप एक था राजा नाम हिरण्यकश्यप राजा था वह दुराचारी स्वयं को मानता देवता, था अहंकारी त्रिभुवन को उसने सता रखा था तभी उसके पत्नी के गर्भ से एक बालक जन्मा था नारायण भी थे चालाक चतुर भक्त बनाया प्रह्लाद को जन्म से पूर्व पिता ने बालक को आश्रम भिजवाया उसपर गुप्तचर से नजर रखवाया गुप्तचर ने देख कहा यह क्या बवाल प्रह्लाद स्वयं तो बोलता और शेष से भी बुलवाया "नारायण नारायण" पुत्र को शत्रु का नाम लेते देख पिता क्रोधित हो गए पिता ने पुत्र को मृत्युदंड का आदेश दे दिए गिरी से फेक भी प्रह्लाद बच गया हिरण्यकश्यप ने तब होलिका को बुलवाया पापिनी होलिका को था एक वरदान पावक से मिला उसको अक्षय दान भ्राता की आदेश में मातृत्व का बलिदान बैठ चिता पर प्रह्लाद संग बोली कर दो दहन कृपा नारायण की प्रहलाद बच गया बुरा बुराई दुष्ट पाप पापिनी सब जल गया तब से लेकर आज तक होली पूर्व होलिका जला रहे दहन सब कर बुराई मिटा रहे आओ हम तुम मिलकर होलिका जलाएँ विश्व के सभी दुष्टों को दूर भगाएँ।

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