हिन्दी कविताएँ : कुमार कृष्ण

Hindi Poetry : Kumar Krishna


कोदे की रोटी

ओ साँवली रोटी ! कहाँ खो गई तुम ? अकाल के खिलाफ जंग लड़ने वाली नाजुकमिजाज तुम्हें ही तो मिला है सैकडों वर्ष ज़िन्दा रहने का वरदान, तुम्हारे बारे में जानना चाहते हैं मेरे बच्चे देखना चाहते हैं तुम्हें बार-बार लौट आओ, तुम लौट आओ खेत और आग दोनों तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं।

कविता की कोख

कविता के घर में रहने वाला मनुष्य लौट जाना चाहता है बार-बार कविता के पास उसे पूरा यकीन है- नहीं घिसते शब्द, नहीं टूटते शब्द मरते नहीं शब्द, शब्द नहीं होते क्षीण कविता की कोख से बार-बार जन्म लेने पर हृष्ट-पुष्ट होते हैं शब्द ।

गाँव किधर है

पहली बार बच्चे ने शहर आकर पूछा- 'गाँव किधर है बापू!' मैंने सामने उड़ते पक्षी की ओर इशारा किया- 'वह देखो, पक्षी की चोंच के दाने में उड़ रहा है गाँव' बच्चा बड़ा होता गया बड़े होते गए उसके सवाल वह भूलता चला गया गाय और माँ के दूध का अंतर वह भूल गया- जूता खोलने और पहनने का फर्क अठारह साल बीत जाने पर मैंने एक दिन बच्चे से पूछा- 'क्या तुम आज भी बोल सकते हो दादी की भाषा?' बच्चे ने एक दुकान की ओर इशारा किया- 'पापा, उधर देखो शायद उस सब्जी बेचने वाली औरत के पास बची हो थोड़ी-बहुत क्या करेंगे आप उस भाषा का?' बेटा, वह मेरे हँसने की, रोने की भाषा है जागने की, सोने की भाषा मैंने तुम्हारी जेबों में बिजूका के पैरों वाली जो भाषा भर दी है वह डराने-धमकाने की चीज है तुम्हारे सपनों की भाषा नहीं उधर देखो, उधर उस खिड़की की ओर तुम्हारी माँ ने- जिसे सौंप दी हैं अपनी दोनों आँखें उस खिड़की के सरियों पर झूल रहा है उसका छोटा-सा गाँव वह हम सब के इन्तजार में पका चुकी है- अनगिनत सूरज फिर भी नहीं भूली सरसों का साग खिलाना ऐसे समय में जब तमाम स्कूल पढ़ा रहे हैं तराजू की वर्णमाला फिर कौन याद करेगा नीम का पेड़ कौन पूछेगा- 'गाँव किधर है बापू!'

उम्मीद की फाँक

बह रही थी नदी की बाढ़ में- एक हिम्मत डूब रहा था उसमें- एक हौसला डूब रही थीं आस्थाएँ डूब रही थी विश्वास की एक पुरानी इमारत देख रहे थे पूरा मंज़र अनगिनत लोग किनारे पर खड़े होकर मेरे दायीं ओर खड़े आदमी ने कहा- 'बहुत बूढ़ा है डूब भी जाए तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा थोड़ा कम ही होगा धरती पर बोझ' जान पर खेलते हुए बायीं ओर खड़े एक नौजवान लड़के ने लगा दी नदी में छलाँग वह ले आया अपने कन्धों पर उठाकर एक बूढ़ा आदमी डूब रहा था जो- मनुष्यों की भीड़ के सामने।

आँगन का पेड़

अपनी जड़ों पर ठीक उसी तरह खड़ा है आँगन का पेड़ जैसे चालीस साल पहले था झुकी है बैल की गर्दन पूरी तरह उसकी जड़ों के पास रस्सी की रगड़ झेलता है लगातार आँगन का पेड़ आँगन का पेड़ सुखाता लेवे के कपड़े पक्षियों को पानी पिलाता आँगन का पेड़ कभी परिहत, कभी पालकी कभी हेंगा, कभी हरकनी गुल्ली-डण्डा खेलता आँगन का पेड़ आँगन का पेड़ है परिवार की मिठास वसन्त की महक जेठ का सकून भौरे की रोटी सावन का झूला है आँगन का पेड़ दिन-ब-दिन झरने लगा आँगन का पेड़ दिन-ब-दिन डरने लगा आँगन का पेड़ बनने लगा आग आँगन का पेड़।

यात्रा

जब आता है इस धरती पर मनुष्य वह होता है निडर नहीं जानता डर नाम की किसी चीज़ को धीरे-धीरे लगता है डरने धरती की हर चीज़ से उसे डराते हैं उसके तमाम विश्वास उसके सपने, रिश्ते, उसके अपने टूट जाती है उसकी- हिम्मत और हौसलों की लाठी डरने लगता है वह अपनी ही परछाईं से डरता हुआ मनुष्य कहीं से भी नहीं लगता मनुष्य ।

चाँद

चाँद तुम बहुत बड़े ठग हो मेरे माँ-बाप को ठगते आये बरसों से पूर्णिमा के दिन पत्नी को ठगते रहे करवा चौथ के दिन अपनी इच्छानुसार नाम तक चुनने की आज्ञा नहीं दी तुमने किसी को सुकान्त भट्टाचार्य और मुक्तिबोध जैसे सिपाहियों ने जितनी बार तुम्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की तुम कालिदास और पन्त की वर्दी पहनकर आए और चकमा देकर चले गए तुम दो बूँद पानी तो पिला नहीं सकते दे नहीं सकते मुट्ठी भर गेहूँ या चावल तुम्हारे पास क्या है एक ऐसा खेत जहाँ मैं चला सकूँ अपने एक जोड़ी बैल? क्या है तुम्हारे पास एक ऐसा छप्पर जहाँ मैं कर सकूँ प्यार जला सकूँ थोड़ी-सी आग गुनगुना सकूँ इस सदी की भाषा का अन्तिम गीत ?

खूबसूरत लड़की

मैंने तो उगाई थी बेशुमार ककड़ियाँ फिर भी नहीं आई वह खूबसूरत लड़की उसे चुराने मेरी कविता का खेत आखिर पक गया वह नहीं आई मैं ढूँढ़ता रहा उसे बहुत से घरों में ढूँढ़ता रहा अपने बच्चों की किताबों में कहीं नहीं मिली मुझे वह खूबसूरत लड़की एक दिन शहर की सड़क पार करते हुए मैंने उसे अचानक देखा- वह एक खूबसूरत तस्वीर से चुपचाप खड़ी पता नहीं क्यों हँस रही थी।

पत्नी का मन्दिर

दो कमरों के घर में ढूँढ़ ली है पत्नी ने अपने लिए थोड़ी-सी पूजा की जगह जहाँ कभी नहीं भूलती वह दीप जलाना उसने बचाकर रखे हैं अपने पास पिता के बेशुमार मन्त्र छोटी-छोटी यादों के साथ वह उनको भी छुपाकर ले आई थी अपने साथ उसने गुजारे हैं इन्हीं मन्त्रों की उम्मीद पर बेशुमार तकलीफ भरे क्षण किया है मुकाबला बच्चों की बीमारी में पाला है इन्हीं मन्त्रों के विश्वास पर पूरा परिवार उसका छोटा-सा मन्दिर बड़े-बड़े मन्दिरों से भी बहुत बड़ा है!

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