हिन्दी कविताएँ : केदारनाथ सिंह

Hindi Poetry : Kedarnath Singh


अनागत

इस अनागत को करें क्या जो कि अक्सर बिना सोचे, बिना जाने सड़क पर चलते अचानक दीख जाता है किताबों में घूमता है रात की वीरान गलियों बीच गाता है। राह के हर मोड़ से होकर गुज़र जाता दिन ढले— सूने घरों में लौट आता है, बाँसुरी को छेड़ता है खिड़कियों के बंद शीशे तोड़ जाता है किवाड़ों पर लिखे नामों को मिटा देता बिस्तरों पर छाप अपनी छोड़ जाता है। इस अनागत को करें क्या जो न आता है, न जाता है! आजकल ठहरा नहीं जाता कहीं भी, हर घड़ी, हर वक़्त खटका लगा रहता है कौन जाने कब, कहाँ वह दीख जाए हर नवागंतुक उसी की तरह लगता है! फूल जैसे अँधेरे में दूर से ही चीख़ता हो इस तरह वह दरपनों में कौंध जाता है हाथ उसके हाथ में आकर बिछल जाते स्पर्श उसका धमनियों को रौंद जाता है। पंख उसकी सुनहली परछाइयों में खो गए हैं पाँव उसके कुहासे में छटपटाते हैं। इस अनागत को करें क्या हम कि जिसकी सीटियों की ओर बरबस खिंचे जाते हैं।

अंधेरे पाख का चांद

जैसे जेल में लालटेन चाँद उसी तरह एक पेड़ की नंगी डाल से झूलता हुआ और हम यानी पृथ्वी के सारे के सारे क़ैदी खुश कि चलो कुछ तो है जिसमें हम देख सकते हैं एक-दूसरे का चेहरा! (1969)

एक नये दिन के साथ

नये दिन के साथ एक पन्ना खुल गया कोरा हमारे प्यार का सुबह, इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो! बहुत से मनहूस पन्नों में इसे भी कहीँ रख दूंगा और जब-जब हवा आकर उड़ा जायेगी अचानक बन्द पन्नों को कहीं भीतर मोरपंखी का तरह रक्खे हुए उस नाम को हर बार पढ़ लूंगा। (1958)

एक पारिवारिक प्रश्न

छोटे से आंगन में माँ ने लगाए हैं तुलसी के बिरवे दो पिता ने उगाया है बरगद छतनार मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दूँ! मुट्ठी में प्रश्न लिए दौड़ रहा हूं वन-वन, पर्वत-पर्वत, रेती-रेती... बेकार (1957)

एक मुकुट की तरह

पृथ्वी के ललाट पर एक मुकुट की तरह उड़े जा रहे थे पक्षी मैंने दूर से देखा और मैं वहीं से चिल्लाया बधाई हो पृथ्वी, बधाई हो!

काली मिट्टी

काली मिट्टी काले घर दिनभर बैठे-ठाले घर काली नदिया काला धन सूख रहे हैं सारे बन काला सूरज काले हाथ झुके हुए हैं सारे माथ काली बहसें काला न्याय खाली मेज पी रही चाय काले अक्षर काली रात कौन करे अब किससे बात काली जनता काला क्रोध काला-काला है युगबोध

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए

मेरे बेटे कुँए में कभी मत झाँकना जाना पर उस ओर कभी मत जाना जिधर उड़े जा रहे हों काले-काले कौए हरा पत्ता कभी मत तोड़ना और अगर तोड़ना तो ऐसे कि पेड़ को ज़रा भी न हो पीड़ा रात को रोटी जब भी तोड़ना तो पहले सिर झुकाकर गेहूँ के पौधे को याद कर लेना अगर कभी लाल चींटियाँ दिखाई पड़ें तो समझना आँधी आने वाली है अगर कई-कई रातों तक कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज़ तो जान लेना बुरे दिन आने वाले हैं मेरे बेटे बिजली की तरह कभी मत गिरना और कभी गिर भी पड़ो तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना कभी अँधेरे में अगर भूल जाना रास्ता तो ध्रुवतारे पर नहीं सिर्फ़ दूर से आनेवाली कुत्तों के भूँकने की आवाज़ पर भरोसा करना मेरे बेटे बुध को उत्तर कभी मत जाना न इतवार को पच्छिम और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे कि लिख चुकने के बाद इन शब्दों को पोंछकर साफ़ कर देना ताकि कल जब सूर्योदय हो तो तुम्हारी पटिया रोज़ की तरह धुली हुई स्वच्छ चमकती रहे

खोल दूं यह आज का दिन

खोल दूं यह आज का दिन जिसे- मेरी देहरी के पास कोई रख गया है, एक हल्दी-रंगे ताजे दूर देशी पत्र-सा। थरथराती रोशनी में, हर संदेशे की तरह यह एक भटका संदेश भी अनपढा ही रह न जाए- सोचता हूँ खोल दूं। इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र-को जो द्वार पर गुमसुम पडा है, खोल दूं। पर, एक नन्हा-सा किलकता प्रश्न आकर हाथ मेरा थाम लेता है, कौन जाने क्या लिखा हो? (कौन जाने अंधेरे में- दूसरे का पत्र मेरे द्वारा कोई रख गया हो) कहीं तो लिखा नहीं है नाम मेरा, पता मेरा, आह! कैसे खोल दूं। हाथ, जिसने द्वार खोला, क्षितिज खोले दिशाएं खोलीं, न जाने क्यों इस महकते मूक, हल्दी-रंगे, ताजे, किरण-मुद्रित संदेशे को खोलने में कांपता है।

गर्मी में सूखते हुए कपड़े

कपड़े सूख रहे हैं हज़ारों-हज़ार मेरे या न जाने किस के कपड़े रस्सियों पर टँगे हैं और सूख रहे हैं मैं पिछले कई दिनों से शहर में कपड़ों का सूखना देख रहा हूँ मैं देख रहा हूँ हवा को वह पिछले कई दिनों से कपड़े सुखा रही है उन्हें फिर से धागों और कपास में बदलती हुई कपड़ों को धुन रही है हवा कपड़े फिर से बुने जा रहे हैं फिर से काटे और सिले जा रहे हैं कपड़े आदमी के हाथ और घुटनों के बराबर मैं देख रहा हूँ धूप देर से लोहा गरमा रही है हाथ और घुटनों को बराबर करने के लिए कपड़े सूख रहे हैं और सुबह से धीरे-धीरे गर्म हो रहा है लोहा। (1976)

घड़ी

दुख देती है घड़ी बैठा था मोढ़े पर लेता हुआ जाड़े की धूप का रस कि वहाँ मेज पर नगी चीखने लगी 'जल्दी करो, जल्दी करो छूट जायेगी बस' गिरने लगी पीठ पर समय की छड़ी दुख देती है घड़ी। जानती हूँ एक दिन यदि डाल भी आऊँ उसे कुएँ में ऊबकर लौटकर पाऊँगा उसी तरह दुर्दम कठोर एक टिक् टिक् टिक् टिक् से भरा है सारा घर छोड़ेगी नहीं अब कभी यह पीछा ऐसी मुँहलगी है इतनी सिर चढ़ी है दुख देती है घड़ी। छूने में डर है उठाने में डर है बाँधने में डर है खोलने में डर है पड़ी है कलाई में अजब हथकड़ी दुख देती है घड़ी। (1983)

चट्टान को तोड़ो वह सुन्दर हो जायेगी

चट्टान को तोड़ो वह सुन्दर हो जायेगी उसे तोड़ो वह और, और सुन्दर होती जायेगी अब उसे उठालो रख लो कन्धे पर ले जाओ शहर या कस्बे में डाल दो किसी चौराहे पर तेज़ धूप में तपने दो उसे जब बच्चे हो जायेंगे उसमें अपने चेहरे तलाश करेंगे अब उसे फिर से उठाओ अबकी ले जाओ उसे किसी नदी या समुद्र के किनारे छोड़ दो पानी में उस पर लिख दो वह नाम जो तुम्हारे अन्दर गूँज रहा है वह नाव बन जायेगी अब उसे फिर से तोड़ो फिर से उसी जगह खड़ा करो चट्टान को उसे फिर से उठाओ डाल दो किसी नींव में किसी टूटी हुई पुलिया के नीचे टिको दो उसे उसे रख दो किसी थके हुए आदमी के सिरहाने अब लौट आओ तुमने अपना काम पूरा कर लिया है अगर कन्धे दुख रहे हों कोई बात नहीं यक़ीन करो कन्धों पर कन्धों के दुखने पर यक़ीन करो यकीन करो और खोज लाओ कोई नई चट्टान! (1977)

छोटे शहर की एक दोपहर

हजारों घर, हजारों चेहरों-भरा सुनसान बोलता है, बोलती है जिस तरह चट्टान सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप धूप में रखा हुआ है एक काला सूप तमतमाए हुए चेहरे, खुले खाली हाथ देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग पियाली टूटी पड़ी है, गिर पड़ी है चाय साइकिल की छाँह में सिमटी खड़ी है गाय पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन बचा हो साबूत-ऐसा कहाँ है वह - कौन? सिर्फ कौआ एक मँडराता हुआ-सा व्यर्थ समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ

जनहित का काम

वह एक अद्भुत दृश्य था मेह बरसकर खुल चुका था खेत जुतने को तैयार थे एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था और एक चिड़िया बार-बार बार-बार उसे अपनी चोंच से उठाने की कोशिश कर रही थी मैंने देखा और मैं लौट आया क्योंकि मुझे लगा मेरा वहाँ होना जनहित के उस काम में दखल देना होगा। (1981)

जब वर्षा शुरू होती है

जब वर्षा शुरू होती है कबूतर उड़ना बन्द कर देते हैं गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है और फिर लौट आती है मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की जो पत्तियों से गिरती है सिप् सिप् सिप् सिप् जब वर्षा शुरू होती है एक बहुत पुरानी सी खनिज गन्ध सार्वजनिक भवनों से निकलती है और सारे शहर में छा जाती है जब वर्षा शुरू होती है तब कहीं कुछ नहीं होता सिवा वर्षा के आदमी और पेड़ जहाँ पर खड़े थे वहीं खड़े रहते हैं सिर्फ पृथ्वी घूम जाती है उस आशय की ओर जिधर पानी के गिरने की क्रिया का रुख होता है ।

जाना

मैं जा रही हूँ – उसने कहा जाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.

जाड़ों के शुरू में आलू

वह ज़मीन से निकलता है और सीधे बाज़ार में चला आता है यह उसकी एक ऐसी क्षमता है जो मुझे अक्सर दहशत से भर देती है वह आता है और बाज़ार में भरने लगती है एक अजीब सी धूम अजीब सी अफ़वाहें मैं देर तक उसके चारों ओर घूमता हूँ और अन्त में उसके सामने खड़ा हो जाता हूँ मैं छूता हूँ किले की तरह ठोस उसकी दीवारें मैं उसका छिलका उठाता हूँ और झाँककर पूछता हूँ — मेरा घर मेरा घर कहाँ है ! वह बाज़ार में ले आता है आग और बाज़ार जब सुलगने लगता है वह बोरों के अन्दर उछलना शुरू करता है हर चाकू पर गिरने के लिए तत्पर हर नमक में घुलने के लिए तैयार जहाँ बहुत सी चीज़ें लगातार टूट रही हैं वह हर बार आता है और पिछले मौसम के स्वाद से जुड़ जाता है ।

जूते

सभा उठ गई रह गए जूते सूने हाल में दो चकित उदास धूल भरे जूते मुँहबाए जूते जिनका वारिस कोई नहीं था चौकीदार आया उसने देखा जूतों को फिर वह देर तक खड़ा रहा मुँहबाए जूतों के सामने सोचता रहा - कितना अजीब है कि वक्ता चले गए और सारी बहस के अंत में रह गए जूते उस सूने हाल में जहाँ कहने को अब कुछ नहीं था कितना कुछ कितना कुछ कह गए जूते

जे.एन.यू. में हिंदी

जी, यही मेरा घर है और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी वह पहली कुल्हाड़ी जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था इस पत्थर से आज भी एक पसीने की गंध आती है जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की गंध है-- जिससे खुराक मिलती है मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को इस घर से सटे हुए बहुत-से घर हैं जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह कि हर घर अपने में बंद अपने में खुला पर बगल के घर में अगर पकता है भात तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है मेरे किचन में मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक साफ़ सुनाई पड़ती है और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी कि यहाँ किसी का नम्बर किसी को याद नहीं ! विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है और बिच्छू भी एक सवाल मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी जिसके कंधे पर अंगौछा था और हाथ में एक गठरी ‘अंगौछा’- इस शब्द से लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ और वह भी जे. एन. यू. में ! वह परेशान-सा आदमी शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद वह हो गया था निराश और लौट रहा था धीरे-धीरे ज्ञान की इस नगरी में उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप् कुछ देर मैंने उसका सामना किया और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर-- ‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो वह जा रहा है कुछ पूछना चाहता था कुछ जानना चाहता था वह रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको... और यह तो बाद में मैंने जाना उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था असल में मैं चुप था जैसे सब चुप थे और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी ।

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की, उड़ने लगी बुझे खेतों से झुर-झुर सरसों की रंगीनी, धूसर धूप हुई मन पर ज्यों — सुधियों की चादर अनबीनी, दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की । साँस रोक कर खड़े हो गए लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन, चिलबिल की नंगी बाँहों में — भरने लगा एक खोयापन, बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की । थक कर ठहर गई दुपहरिया, रुक कर सहम गई चौबाई, आँखों के इस वीराने में — और चमकने लगी रुखाई, प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।

टूटा हुआ ट्रक

मैं पिछली बरसात से उसे देख रहा हूँ वह वहाँ उसी तरह खड़ा है टूटा हुआ और हैरान और अब उससे अँखुए फूट रहे हैं मैं देख रहा हूँ एक छोटी-सी लतर स्टीयरिंग की ओर बढ़ी जा रही है एक ज़रा-सी पत्ती भोंपू के पास झुकी है जैसे उसे बजाना चाहती हो एक बहुत महीन और बेआवाज़-सी ठोंक-पीट लगातार जारी है समूचे ट्रक में कोई नट खोला जा रहा है कोई तार कसा जा रहा है टूटा हुआ ट्रक पूरी तरह सौंप दिया गया है घास के हाथों में और घास परेशान है पहिये बदलने के लिए मेरे लिए यह सोचना कितना सुखद है कि कल सुबह तक सब ठीक हो जाएगा मैं उठूँगा और अचानक सुनूँगा भोंपू की आवाज़ और घरघराता हुआ ट्रक चल देगा तिनसुकिया या बोकाजान... शाम हो रही है टूटा हुआ ट्रक उसी तरह खड़ा है और मुझे घूर रहा है मैं सोचता हूँ अगर इस समय वो वहाँ न होता तो मेरे लिए कितना मुश्किल था पहचानना कि यह मेरा शहर है और ये मेरे लोग और वो वो मेरा घर!

तलस्तोय और साइकिल

आपने कभी सोचा है महान ताज़ में क्यों नहीं रही वह पहली सी चमक ? वह पहली सी गूँज रोम के घण्टे में ? वह आश्चर्य पहला-सा दीवार में चीन की ? पर क्यों-क्यों आपकी गली से गुज़रती हुई एक जर्जर साइकिल की छोटी-सी घण्टी में वही जादू है जो उस दिन था जब तलस्तोय ने पहले-पहल देखी थी साइकिल और तलस्तोय चूँकि तलस्तोय थे इसलिए वे एक उदास घोड़े से कर सकते थे बातें कर सकते थे कोशिश एक रंगीन चित्र को काग़ज़ से उठाकर जेब में रखने की दे सकते थे आदेश समुद्र की लहरों को एक अभय मुद्रा में हाथ उठाकर पर तलस्तोय गिर सकते थे साइकिल से साइकिल सीखते हुए यासनया पल्याना की उस कच्ची सड़क पर उस दिन जो साइकिल ने धूल झाड़कर इतिहास में प्रवेश किया तो जैसे आजतक हर आदमी के पीछे-पीछे घण्टी बजाती हुई उससे बाहर निकलने का रास्ता खोज रही है...

तुम आयीं

तुम आयीं जैसे छीमियों में धीरे- धीरे आता है रस जैसे चलते - चलते एड़ी में काँटा जाए धँस तुम दिखीं जैसे कोई बच्चा सुन रहा हो कहानी तुम हँसी जैसे तट पर बजता हो पानी तुम हिलीं जैसे हिलती है पत्ती जैसे लालटेन के शीशे में काँपती हो बत्ती ! तुमने छुआ जैसे धूप में धीरे- धीरे उड़ता है भुआ और अन्त में जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को तुमने मुझे पकाया और इस तरह जैसे दाने अलगाये जाते है भूसे से तुमने मुझे खुद से अलगाया।

दाने

नहीं हम मण्डी नहीं जाएंगे खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने॔ जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे जाते- जाते कहते जाते हैं दाने अगर लौट कर आये भी तो तुम हमे पहचान नहीं पाओगे अपनी अन्तिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने इसके बाद महीनों तक बस्ती में कोई चिट्ठी नहीं आती। रचनाकाल : 1984

दिशा

हिमालय किधर है? मैंने उस बच्‍चे से पूछा जो स्‍कूल के बाहर पतंग उड़ा रहा था उधर-उधर-उसने कहाँ जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी मैं स्‍वीकार करूँ मैंने पहली बार जाना हिमालय किधर है?

दीपदान

जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दिया जला आना, पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है, उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल बार-बार उलझ जाती हैं, एक दिया वहाँ भी जलाना; जाना, फिर जाना, एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं, एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है, एक दिया उस लौकी के नीचे जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है, एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से गड्ढा-सा दिखता है, एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले नये चावल का गंधभरा पानी फैला है, एक दिया उस घर में - जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं, एक दिया उस जंगले पर जिससे दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है, एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है, एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा दिन-दिन भर सोता है, एक दिया उस पगडंडी पर जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है, एक दिया उस चौराहे पर जो मन की सारी राहें विवश छीन लेता है, एक दिया इस चौखट, एक दिया उस ताखे, एक दिया उस बरगद के तले जलाना, जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दिया जला आना, पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है, जाना, फिर जाना!

दुपहरिया

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की, उड़ने लगी बुझे खेतों से झुर-झुर सरसों की रंगीनी, धूसर धूप हुई मन पर ज्यों — सुधियों की चादर अनबीनी, दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की । साँस रोक कर खड़े हो गए लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन, चिलबिल की नंगी बाँहों में भरने लगा एक खोयापन, बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की । थक कर ठहर गई दुपहरिया, रुक कर सहम गई चौबाई, आँखों के इस वीराने में — और चमकने लगी रुखाई, प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।

दुश्मन

इक्कीसवें दिन जबकि मौसम साफ़ था और मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई मैंने सूरज की ओर देखा और सिर हिलाया क्योंकि यही एक काम था जो उस समय किया जा सकता था एक आदमी शहर के दूसरे छोर पर मेरा इंतज़ार कर रहा था एक साइकिल धूप में खड़ी थी जो साइकिल से ज़्यादा एक चुनौती थी मेरे फेफड़ों के लिए और मेरी भाषा के पूरे वाक्य-विन्यास के लिए मुझे आदमी का चीख़ना चमत्कार की तरह लगता है मैंने अपने समय के सबसे मजबूत आदमी को अँधेरे से कूदकर एक माचिस के अंदर जाते हुए देखा है मेरी मुश्किल यह है मैं चीज़ों को जानता हूँ जानना चीज़ों के ख़िलाफ़ आदमी की मांसपेशियों का लगातार हमला है जिसके लिए हर बार एक नए मोर्चे की तलाश करनी पड़ती है दुश्मन कहीं दिखाई नहीं पड़ता रेडियो उसके नाम का ज़िक्र कभी नहीं करता नमक और पानी सिर्फ़ दो शब्द मेरे पास है तीसरा हमेशा उसके पास रहता है पर कितना अजीब है कि सारी सुविधाओं के बावजूद इस समय टेलीफ़ोन के किसी भी नंबर पर उससे संपर्क नहीं किया जा सकता!

नए कवि का दुख

दुख हूँ मैं एक नए हिन्दी कवि का बाँधो मुझे बाँधो पर कहाँ बाँधोगे किस लय, किस छन्द में ? ये छोटे छोटे घर ये बौने दरवाज़े ताले ये इतने पुराने और साँकल इतनी जर्जर आसमान इतना ज़रा-सा और हवा इतनी कम-कम नफरत यह इतनी गुमसुम सी और प्यार यह इतना अकेला और गोल-मोल बाँधो मुझे बाँधो पर कहाँ बाँधोगे किस लय, किस छन्द में ? क्या जीवन इसी तरह बीतेगा शब्दों से शब्दों तक जीने और जीने और जीने ‌‌और जीने के लगातार द्वन्द में ? 1965

नदी

अगर धीरे चलो वह तुम्हे छू लेगी दौड़ो तो छूट जाएगी नदी अगर ले लो साथ वह चलती चली जाएगी कहीं भी यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी छोड़ दो तो वही अंधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर वह चुपके से रच लेगी एक समूची दुनिया एक छोटे से घोंघे में सच्चाई यह है कि तुम कहीं भी रहो तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी प्यार करती है एक नदी नदी जो इस समय नहीं है इस घर में पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं किसी चटाई या फूलदान के नीचे चुपचाप बहती हुई कभी सुनना जब सारा शहर सो जाए तो किवाड़ों पर कान लगा धीरे-धीरे सुनना कहीं आसपास एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह सुनाई देगी नदी! रचनाकाल : 1983

निराला को याद करते हुए

उठता हाहाकार जिधर है उसी तरफ अपना भी घर है खुश हूँ - आती है रह-रहकर जीने की सुगंध बह-बहकर उसी ओर कुछ झुका-झुका-सा सोच रहा हूँ रुका-रुका-सा गोली दगे न हाथापाई अपनी है यह अजब लड़ाई रोज उसी दर्जी के घर तक एक प्रश्न से सौ उत्तर तक रोज कहीं टाँके पड़ते हैं रोज उधड़ जाती है सीवन 'दुखता रहता है अब जीवन'

नीम

खेत जग पड़े थे पत्तों से फूट रही थी चैत के शुरू की हल्की-हल्की लाली सोचा, मौसम बढ़िया है चलो तोड़ लाएँ नीम के दो-चार हरे-हरे छरके मैं तो उन्हें भूल चुका था पर मेरे दाँतों को वे अब भी बहुत याद आते थे फिर चल दिया अकेला सुपरिचित मेड़ों और पगडंडियों को लाँघता-फलाँगता हुआ पहुँचा गाँव के उस ऊँचे सिवान पर जहाँ खड़ा था न जाने कितने बरसों से वह घना-पुराना नीम का पेड़ रुका, कुछ देर उसे ध्यान से देखा फिर झुकाई एक डाल खींच ली एक छोटी-सी हरी छरहरी काँपती हुई टहनी बस तोड़ने को ही था कि अचानक दृष्टि पड़ी नीचे— अरे, यह कौन? नीमतले बैठा है आँख मूँदे मौन! पड़ गया सोच में दतुअन तोड़ूँ कि न तोड़ूँ पकड़े रहूँ कि छोड़ दूँ वह टहनी जो मेरे हाथ में थी! अंत में न जाने क्या आया जी में कि मैंने एक अजब-सी पीड़ा से उस तरफ़ देखा जिधर बैठा था वह आदमी और छोड़ दी नीम की झुकी हुई टहनी फिर लौट आया रास्ते भर ख़ुद से लड़ता और ख़ुद को समझता हुआ कि यदि कहीं तोड़ ही लेता कुछ हरी कच्ची उमगती हुई शाखें तो उसका क्या होता जो उन्हीं के नीचे बैठा था उन्हीं के जादू में बंद किए आँखें!

पक्षी की वापसी

आज उस पक्षी को फिर देखा जिसे पिछले साल देखा था लगभग इन्हीं दिनों इसी शहर में क्या नाम है उसका खंजन टिटिहिरी नीलकंठ मुझे कुछ भी याद नहीं मैं कितनी आसानी से भूलता जा रहा हूँ पक्षियों के नाम मुझे सोचकर डर लगा आख़िर क्या नाम है उसका मैं खड़ा-खड़ा सोचता रहा और सिर खुजलाता रहा और यह मेरे शहर में एक छोटे-से पक्षी के लौट आने का विस्फोट था जो भरी सड़क पर मुझे देर तक हिलाता रहा।

पानी में घिरे हुए लोग

पानी में घिरे हुए लोग प्रार्थना नहीं करते वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को और एक दिन बिना किसी सूचना के खच्चर बैल या भैंस की पीठ पर घर-असबाब लादकर चल देते हैं कहीं और यह कितना अद्भुत है कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह ज़रूर मिल जाती है थोड़ी-सी धूप थोड़ा-सा आसमान फिर वे गाड़ देते हैं खम्भे तान देते हैं बोरे उलझा देते हैं मूंज की रस्सियां और टाट पानी में घिरे हुए लोग अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध वे ले आते हैं आम की गुठलियां खाली टिन भुने हुए चने वे ले आते हैं चिलम और आग फिर बह जाते हैं उनके मवेशी उनकी पूजा की घंटी बह जाती है बह जाती है महावीर जी की आदमकद मूर्ति घरों की कच्ची दीवारें दीवारों पर बने हुए हाथी-घोड़े फूल-पत्ते पाट-पटोरे सब बह जाते हैं मगर पानी में घिरे हुए लोग शिकायत नहीं करते वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में कहीं न कहीं बचा रखते हैं थोड़ी-सी आग फिर डूब जाता है सूरज कहीं से आती हैं पानी पर तैरती हुई लोगों के बोलने की तेज आवाजें कहीं से उठता है धुआं पेड़ों पर मंडराता हुआ और पानी में घिरे हुए लोग हो जाते हैं बेचैन वे जला देते हैं एक टुटही लालटेन टांग देते हैं किसी ऊंचे बांस पर ताकि उनके होने की खबर पानी के पार तक पहुंचती रहे फिर उस मद्धिम रोशनी में पानी की आंखों में आंखें डाले हुए वे रात-भर खड़े रहते हैं पानी के सामने पानी की तरफ पानी के खिलाफ सिर्फ उनके अंदर अरार की तरह हर बार कुछ टूटता है हर बार पानी में कुछ गिरता है छपाक........छपाक.......

पूँजी

सारा शहर छान डालने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि इस इतने बड़े शहर में मेरी सबसे बड़ी पूँजी है मेरी चलती हुई साँस मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूँजी जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा खर्च कर देता हूँ क्यों न ऐसा हो कि एक दिन उठूँ और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है- इस शहर के आखिरी छोर पर- वहाँ जमा कर आऊँ सोचता हूँ वहाँ से जो मिलेगा ब्याज उस पर जी लूँगा ठाट से कई-कई जीवन

पत्नी की अट्ठाइसवीं पुण्यतिथि पर

पहले वह गई फिर बारी-बारी चले गए बहुत से दिन और ढेर सारे पक्षी और जाने कितनी भाषाएँ कितने जलस्रोत चले गए दुनिया से जब वह गई और जो बच गया शून्य उसमें रहने आ गए झुण्ड के झुण्ड शब्द और किताबों के रेवड़ और बर्र की तरह लिखी-अनलिखी कविताओं के छत्ते और इस तरह शामें होती रहीं सुबहें सुबहें धीरे-धीरे होती रहीं शाम एक दिन यह सोचकर कि जो ख़ाली है शायद कुछ भर जाए वाया कविता हो आया क्रेमलिन देख आया — लंदन पेरिस और सात समुन्दर पार का लिबर्टी स्टेच्यू — यानी एक बूढ़ी चिड़िया की चूँ… चूँ… चूँ… चूँ… और जो ख़ाली था होता रहा ख़ाली और ख़ाली और एक दिन देखता हूँ कि नाम पुकारते हुए सामने से आ रहे हैं मंच और माइक पुष्प-गुच्छ और पुरस्कार और जब अलंकृत हो कर उतर रहा था नीचे तो लगा कोई कान में बुदबुदा रहा है — कवि जी, यह कैसा मंच है शब्दों का यह कैसा उत्सव जहाँ प्यार की एक ही तुक है पुरस्कार ! 28 अक्तूबर 2005

प्रो० वरयाम सिंह

ताज़ा-ताज़ा सेब की गन्ध लिए वे लौटे थे बंजार से कि मैंने धीरे से पूछा — अबकी सेब की फ़सल कैसी, वरयाम जी ! 'ख़राब' — उन्होंने कहा फिर जोड़ा — जो बची है उसे भी पक्षियों से डर है । — पक्षियों से डर ! — 'हाँ-हाँ, पक्षियों से डर ! वे झुण्ड के झुण्ड इस तरह आते हैं जैसे वह उन्हीं का बाग़ हो और मुश्किल यह कि पक्षी का जुठाया सेब कोई पूछता तक नहीं बाज़ार में’ कहकर वे हो गए चुप पर मैंने सुना उनके होंठ स्वगत बुदबुदा रहे थे — बाग़ चाहे मेरा हो पर सेब तो उन्हीं के हैं मैंने देखा उस समय उनका पहाड़ी चेहरा लग रहा था पूश्किन के किसी छन्द की तरह ।

प्रक्रिया

मैं जब हवा की तरह दृश्यों के बीच से गुजरता हुआ अकेला होता हूँ तो क्षण भर के लिए मुझे कहीं भी देखा जा सकता है किसी भी दिशा में किसी भी मोड़ पर किसी भी भाषा के अज्ञात शब्द-कोश में पर मैं जब कहीं नहीं होता सिर्फ़ कहीं होने की लगातार कोशिश में सामने की भीड़ को दूर से पहचानता हुआ हवा के आर-पार एक प्रश्न उछालता हूँ और हँसता हूँ तो न जाने क्यों मुझे लगता है कि गूंजहीन शब्दों के इस घने अंधकार में मैं — अर्थ परिवर्तन की एक अबूझ प्रक्रिया हूँ जिसके भीतर ये लोग झाड़ियाँ बत्तखें और भविष्य हर चीज़ एक-दूसरे में घुली-मिली है जड़ें रोशनी में हैं रोशनी गंध में, गन्ध विचारों में विचार स्मृतियों में, स्मृतियाँ रंगों में... और मैं चुपचाप इस संपूर्ण व्यतिक्रम को भीतर संभाले हुए चलते-चलते झुककर रास्ते की धूल से एक शब्द उठाता हूँ और पाता हूँ कि अरे गुलाब! (1960)

फ़र्क़ नहीं पड़ता

हर बार लौटकर जब अंदर प्रवेश करता हूँ मेरा घर चौंककर कहता है ‘बधाई’ ईश्वर यह कैसा चमत्कार है मैं कहीं भी जाऊँ फिर लौट आता हूँ सड़कों पर परिचय-पत्र माँगा नहीं जाता न शीशे में सबूत की ज़रूरत होती है और कितनी सुविधा है कि हम घर में हों या ट्रेन में हर जिज्ञासा एक रेलवे टाइम टेबुल से शांत हो जाती है आसमान मुझे हर मोड़ पर थोड़ा-सा लपेटकर बाक़ी छोड़ देता है अगला क़दम उठाने या बैठ जाने के लिए और यह जगह है जहाँ पहुँचकर पत्थरों की चीख़ साफ़ सुनी जा सकती है पर सच तो यह है कि यहाँ या कहीं भी फ़र्क़ नहीं पड़ता तुमने जहाँ लिखा है ‘प्यार’ वहाँ लिख दो ‘सड़क’ फ़र्क़ नहीं पड़ता मेरे युग का मुहाविरा है फ़र्क़ नहीं पड़ता अक्सर महूसूस होता है कि बग़ल में बैठे हुए दोस्तों के चेहरे और अफ़्रीका की धुँधली नदियों के छोर एक हो गए हैं और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ मेरी जिह्वा पर नहीं बल्कि दाँतों के बीच की जगहों में सटी है मैं बहस शुरू तो करूँ पर चीज़ें एक ऐसे दौर से गुज़र रही हैं कि सामने की मेज़ को सीधे मेज़ कहना उसे वहाँ से उठाकर अज्ञात अपराधियों के बीच में रख देना है और यह समय है जब रक्त की शिराएँ शरीर से कटकर अलग हो जाती हैं और यह समय है जब मेरे जूते के अंदर की एक नन्हीं-सी कील तारों को गड़ने लगती है।

फसल

मैं उसे बरसों से जानता था-- एक अधेड़ किसान थोड़ा थका थोड़ा झुका हुआ किसी बोझ से नहीं सिर्फ़ धरती के उस सहज गुरुत्वाकर्षं से जिसे वह इतना प्यार करता था वह मानता था-- दुनिया में कुत्ते बिल्लियाँ सूअर सबकी जगह है इसलिए नफ़रत नहीं करता था वह कीचड़ काई या मल से भेड़ें उसे अच्छी लगती थीं ऊन ज़रूरी है--वह मानता था पर कहता था--उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है उनके थनों की गरमाहट जिससे खेतों में ढेले ज़िन्दा हो जाते हैं उसकी एक छोटी-सी दुनिया थी छोटे-छोटे सपनों और ठीकरों से भरी हुई उस दुनिया में पुरखे भी रहते थे और वे भी जो अभी पैदा नहीं हुए महुआ उसका मित्र था आम उसका देवता बाँस-बबूल थे स्वजन-परिजन और हाँ, एक छोटी-सी सूखी नदी भी थी उस दुनिया में- जिसे देखकर-- कभी-कभी उसका मन होता था उसे उठाकर रख ले कंधे पर और ले जाए गंगा तक-- ताकि दोनों को फिर से जोड़ दे पर गंगा के बारे में सोचकर हो जाता था निहत्था! इधर पिछले कुछ सालों से जब गोल-गोल आलू मिट्टी फ़ोड़कर झाँकने लगते थे जड़ों से या फसल पककर हो जाती थी तैयार तो न जाने क्यों वह-- हो जाता था चुप कई-कई दिनों तक बस यहीं पहुँचकर अटक जाती थी उसकी गाड़ी सूर्योदय और सूर्यास्त के विशाल पहियोंवाली पर कहते हैं-- उस दिन इतवार था और उस दिन वह ख़ुश था एक पड़ोसी के पास गया और पूछ आया आलू का भाव-ताव पत्नी से हँसते हुए पूछा-- पूजा में कैसा रहेगा सेंहुड़ का फूल? गली में भूँकते हुए कुत्ते से कहा-- 'ख़ुश रह चितकबरा, ख़ुश रह!' और निकल गया बाहर किधर? क्यों? कहाँ जा रहा था वह-- अब मीडिया में इसी पर बहस है उधर हुआ क्या कि ज्यों ही वह पहुँचा मरखहिया मोड़ कहीं पीछे से एक भोंपू की आवाज़ आई और कहते हैं-- क्योंकि देखा किसी ने नहीं-- उसे कुचलती चली गई अब यह हत्या थी या आत्महत्या--इसे आप पर छोड़ता हूँ वह तो अब सड़क के किनारे चकवड़ घास की पत्तियों के बीच पड़ा था और उसके होंठों में दबी थी एक हल्की-सी मुस्कान! उस दिन वह ख़ुश था।

बंगाली बाबू

बीस बरस बाद छाता लगाए हुए पडरौना बाजार में मुझे दिख गए बंगाली बाबू बीस बरस बाद मैं चिल्लाया 'बंगाली बाबू, बंगाली बाबू कैसे है बंगाली बाबू ?' वे मुड़े मुझे देखा, मुस्कराये और 'ठीक हूँ' कहते हुए बढ़ गए आगे मैं समझ न सका बीस बरस बाद छाता लगाए हुए कितने सुखी या दुखी है बंगाली बाबू । देखा, बस, इतना कि मेरी आँखों के आगे चला जा रहा है एक छाता सोचता हुआ, मुस्कराता हुआ ढाढ़स बँधाता हुआ बोलता बतियाता हुआ छाता ।

बढ़ई और चिड़िया

वह लकड़ी चीर रहा था कई रातों तक जंगल की नमी में रहने के बाद उसने फैसला किया था और वह चीर रहा था उसकी आरी कई बार लकड़ी की नींद और जड़ों में भटक जाती थी कई बार एक चिड़िया के खोंते से टकरा जाती थी उसकी आरी उसे लकड़ी में गिलहरी के पूँछ की हरकत महसूस हो रही थी एक गुर्राहट थी एक बाघिन के बच्चे सो रहे थे लकड़ी के अंदर एक चिड़िया का दाना गायब हो गया था उसकी आरी हर बार चिड़िया के दाने को लकड़ी के कटते हुए रेशों से खींच कर बाहर लाती थी और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर गायब हो जाता था वह चीर रहा था और दुनियाँ दोनों तरफ़ चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी दाना बाहर नहीं था इस लिये लकड़ी के अंदर ज़रूर कहीं होगा यह चिड़िया का ख़्याल था वह चीर रहा था और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर कहीं थी और चीख रही थी।

बनारस

इस शहर में वसंत अचानक आता है और जब आता है तो मैंने देखा है लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से उठता है धूल का एक बवंडर और इस महान पुराने शहर की जीभ किरकिराने लगती है जो है वह सुगबुगाता है जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर कुछ और मुलायम हो गया है सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में एक अजीब सी नमी है और एक अजीब सी चमक से भर उठा है भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन तुमने कभी देखा है खाली कटोरों में वसंत का उतरना! यह शहर इसी तरह खुलता है इसी तरह भरता और खाली होता है यह शहर इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव ले जाते हैं कंधे अँधेरी गली से चमकती हुई गंगा की तरफ़ इस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है धीरे-धीरे चलते हैं लोग धीरे-धीरे बजते हैं घनटे शाम धीरे-धीरे होती है यह धीरे-धीरे होना धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है कि हिलता नहीं है कुछ भी कि जो चीज़ जहाँ थी वहीं पर रखी है कि गंगा वहीं है कि वहीं पर बँधी है नाँव कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ सैकड़ों बरस से कभी सई-साँझ बिना किसी सूचना के घुस जाओ इस शहर में कभी आरती के आलोक में इसे अचानक देखो अद्भुत है इसकी बनावट यह आधा जल में है आधा मंत्र में आधा फूल में है आधा शव में आधा नींद में है आधा शंख में अगर ध्‍यान से देखो तो यह आधा है और आधा नहीं भी है जो है वह खड़ा है बिना किसी स्‍थंभ के जो नहीं है उसे थामें है राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ आग के स्‍थंभ और पानी के स्‍थंभ धुऍं के खुशबू के आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ किसी अलक्षित सूर्य को देता हुआ अर्घ्‍य शताब्दियों से इसी तरह गंगा के जल में अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर अपनी दूसरी टाँग से बिलकुल बेखबर!

बसन्त

और बसन्त फिर आ रहा है शाकुन्तल का एक पन्ना मेरी अलमारी से निकलकर हवा में फरफरा रहा है फरफरा रहा है कि मैं उठूँ और आस-पास फैली हुई चीज़ों के कानों में कह दूँ 'ना' एक दृढ़ और छोटी-सी 'ना' जो सारी आवाज़ों के विरुद्ध मेरी छाती में सुरक्षित है मैं उठता हूँ दरवाज़े तक जाता हूँ शहर को देखता हूँ हिलाता हूँ हाथ और ज़ोर से चिल्लाता हूँ – ना...ना...ना मैं हैरान हूँ मैंने कितने बरस गँवा दिये पटरी से चलते हुए और दुनिया से कहते हुए हाँ हाँ हाँ... (1964)

बादल ओ!

हम नए-नए धानों के बच्चे तुम्हें पुकार रहे हैं- बादल ओ! बादल ओ! बादल ओ! हम बच्चे हैं, (चिड़ियों की परछाई पकड़ रहे हैं उड़-उड़) हम बच्चे हैं, हमें याद आई है जाने किन जन्मों की- आज हो गया है जी उन्मन! तुम कि पिता हो- इन्द्रधनुष बरसो! कि फूल बरसो, कि नींद बरसो- बादल ओ! हम कि नदी को नहीं जानते, हम कि दूर सागर की लहरें नहीं माँगते। हमने सिर्फ तुम्हें जाना है, तम्हें माँगते हैं। आर्द्रा के पहले झोंके में तुम को सूँघा है- पहला पत्ता बढ़ा दिया है। लिए हाथ में हाथ हवा का- खेतों की मेड़ो पर घिरते तुम को देखा है, ओठों से विवश छू लिया है। ओ सुनो, अन्न-वर्षी बादल ओ सुनो, बीज-वर्षी बादल हम पंख माँगते हैं, हम नए फेन के उजले-उजले शंख माँगते हैं, हम बस कि माँगते हैं बादल! बादल! घर बादल, आँगन बादल, सारे दरवाज़े बादल! तन बादल, मन बादल, ये नन्हें हाथ-पाँव बादल- हम बस कि माँगते हैं बादल, बादल। तुम गरजो- पेड़ चुरा लेंगे गर्जन, तुम कड़को- चट्टानों में बिखर जाएगी वह कड़कन। तुम बरसो- फूट पड़ेगी प्राणों की उमड़न-कसकन! फिर हम अबाध भीजेंगे, झूमेंगे- ये हरी भुजाएं नील दिशाओं को छू आएँगी- फिर तुम्हें वनों में पाखी गाएंगे, फिर नए जुते खेतों से हवा-हवा बस जाएगी! फिर नयन तुम्हें जोहेंगे जूही के जादू-वन में, आमों के पार साँझ के सूने टीलों पर! फिर पवन उँगलियाँ तुम्हें चीन्ह लेंगी- पौधों में, पत्तों में, कत्थई कोंपलों में! तुम कि पिता हो- कहीं तुम्हारे संवेदन में भी तो वही कंप होगा- जो हमें हिलाता है! ओ सुनो रंग-वर्षी बादल, ओ सुनो गंध-वर्षी बादल, हम अधजनमे धानों के बच्चे तुम्हें माँगते हैं।

बुनाई का गीत

उठो सोये हुए धागों उठो उठो कि दर्जी की मशीन चलने लगी है उठो कि धोबी पहुँच गया घाट पर उठो कि नंगधड़ंग बच्चे जा रहे हैं स्कूल उठो मेरी सुबह के धागो और मेरी शाम के धागों उठो उठो कि ताना कहीं फँस रहा है उठो कि भरनी में पड़ गई गाँठ उठो कि नाव के पाल में कुछ सूत कम पड़ रहे हैं उठो झाड़न में मोजो में टाट में दरियों में दबे हुए धागो उठो उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा फिर से बुनना होगा उठो मेरे टूटे हुए धागो और मेरे उलझे हुए धागो उठो उठो कि बुनने का समय हो रहा है 1982

बारिश

वह अचानक शुरू हुई बकरियाँ उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थीं वे देर तक—चीखती-चिल्लाती रहीं मगर पानी पूरी ताक़त के साथ गटर और उसके गोश्त में उतरता जा रहा था उनके थन भींगकर भारी हो गए थे यह सींझने की तैयारी थी एक तेज़ और लंबी जिरह की शुरुआत जिसमें खजूर के पत्ते तक हिस्सा ले रहे थे जिरह के बीचोंबीच एक गधा खड़ा था खड़ा था और भीग रहा था पानी उसकी पीठ और गर्दन की तलाशी ले रहा था उसके पास छाता नहीं था सिर्फ़ जबड़े थे जो पूरी ताक़त के साथ बारिश और सारी दुनिया के ख़िलाफ़ बंद कर लिए गए थे यह सामना करने का एक ठोस और कारगर तरीक़ा था जो मुझे अच्छा लगा बौछारें तेज़ होती जा रही थीं पहली बार लगा कोई किसी को पीट रहा है जैसे अँधेरे में दरवाज़े पीटे जाते हैं जो पिट रहा था उसे देखना मुश्किल था सिर्फ़ उसकी पीठ से ख़ून गिर रहा था सिर्फ़ उसके जूते सड़क पर पड़े थे और बारिश पूरी मुस्तैदी के साथ उनकी निगरानी कर रही थी जूते बारिश में भीगकर एक अजब ढंग से ख़ूबसूरत लग रहे थे गधा अब भी उसी तरह खड़ा था सिर्फ़ उसके जबड़े कुछ और सख़्त हो गए थे कुछ और मोटे कुछ और बेडौल गधा इतना भीग चुका था कि अब वह उस पूरे दृश्य के नायक की तरह लग रहा था।

महानगर में कवि

इस इतने बड़े शहर में कहीं रहता है एक कवि वह रहता है जैसे कुएँ में रहती है चुप्पी जैसे चुप्पी में रहते हैं शब्द जैसे शब्द में रहती है डैनों की फड़फड़ाहट वह रहता है इस इतने बड़े शहर में और कभी कुछ नहीं कहता सिर्फ़ कभी-कभी अकारण वह हो जाता है बेचैन फिर उठता है निकलता है बाहर कहीं से ढूँढ़कर ले आता है एक खड़िया और सामने की साफ़ चमकती दीवार पर लिखता है ‘क’ एक छोटा-सा सादा-सा ‘क’ देर तक गूँजता है समूचे शहर में ‘क’ माने क्या एक बुढ़िया पूछती है सिपाही से सिपाही पूछता है अध्यापक से अध्यापक पूछता है क्लास के सबसे ख़ामोश विद्यार्थी से ‘क’ माने क्या सारा शहर पूछता है और इस इतने बड़े शहर में कोई नहीं जानता कि वह जो कवि है हर बार ज्यों ही उठाता है हाथ ज्यों ही उस साफ़ चमकती दीवार पर लिखता है ‘क’ कर दिया जाता है क़त्ल! बस इतना ही सच है बाक़ी सब ध्वनि है अलंकार है रस-भेद है मैं इससे अधिक उसके बारे में कुछ नहीं जानता मुझे खेद है।

मंच और मचान (लम्बी कविता)

(उदय प्रकाश के लिए) पत्तों की तरह बोलते तने की तरह चुप एक ठिगने से चीनी भिक्खु थे वे जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे चीना बाबा कब आए थे रामाभार स्तूप पर यह कोई नहीं जानता था पर जानना ज़रूरी भी नहीं था उनके लिए तो, बस, इतना ही बहुत था कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है चिड़ियों से जगर-मगर एक युवा बरगद बरगद पर मचान है और मचान पर रहते हैं वे जाने कितने समय से अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के पाँचवें दशक का कोई एक दिन था जब सड़क की ओर से भोंपू की आवाज़ आई "भाइयो और बहनो, प्रधानमन्त्री आ रहे हैं स्तूप को देखने..." प्रधानमन्त्री ! खिल गए लोग जैसे कुछ मिल गया हो सुबह-सुबह पर कैसी विडम्बना कि वे जो लोग थे सिर्फ़ नेहरू को जानते थे प्रधानमन्त्री को नहीं ! सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में उन्हें काफ़ी दिक़्क़त हुई फिर भी सुर्ती मलते और बोलते-बतियाते पहुँच ही गए वे वहाँ तक कहाँ तक ? यह कहना मुश्किल है कहते हैं — प्रधानमन्त्री आए उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को फिर देखा बरगद को जो खड़ा था स्तूप पर पर, न जाने क्यों वे हो गए उदास (और कहते हैं — नेहरू अक्सर उदास हो जाते थे) फिर जाते जाते एक अधिकारी को पास बुलाया कहा — देखो, उस बरगद को गौर से देखो उसके बोझ से टूटकर गिर सकता है स्तूप इसलिए हुक़्म है कि देशहित में काट डालो बरगद और बचा लो स्तूप को यह राष्ट्र के भव्यतम मँच का आदेश था जाने-अनजाने एक मचान के विरुद्ध इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी भारत के इतिहास में कि मँच और मचान यानी एक ही शब्द के लम्बे इतिहास के दोनों ओर-छोर अचानक आ गए आमने सामने अगले दिन सूर्य के घण्टे की पहली चोट के साथ स्तूप पर आ गए — बढ़ई मजूर इंजीनियर कारीगर आ गए लोग दूर-दूर से इधर अधिकारी परेशान क्योंकि उन्हें पता था ख़ाली नहीं है बरगद कि उस पर एक मचान है और मचान भी ख़ाली नहीं क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी और ख़ाली नहीं आदमी भी क्योंकि वह ज़िन्दा है और बोल सकता है क्या किया जाय ? हुक़्म दिल्ली का और समस्या जटिल देर तक खड़े-खड़े सोचते रहे वे कि सहसा किसी एक ने हाथ उठा प्रार्थना की — "चीना बाबा, ओ ओ चीना बाबा ! नीचे उतर आओ बरगद काटा जाएगा" "काटा जाएगा ? क्यों ? लेकिन क्यों ?" जैसे पत्तों से फूट कर जड़ों की आवाज़ आई "ऊपर का आदेश है — " नीचे से उतर गया "तो शुनो," — भिक्खु अपनी चीनी गमक वाली हिन्दी में बोला, 'चाये काट डालो मुझी को उतरूँगा नईं ये मेरा घर है !" भिक्खु की आवाज़ में बरगद के पत्तों के दूध का बल था अब अधिकारियों के सामने एक विकट सवाल था — एकदम अभूतपूर्व पेड़ है कि घर ... यह एक ऐसा सवाल था जिस पर कानून चुप था इस पर तो कविताएँ भी चुप हैं एक कविता प्रेमी अधिकारी ने धीरे से टिप्पणी की देर तक दूर तक जब कुछ नहीं सूझा तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम अधिकारी से सम्पर्क किया और गहन छानबीन के बाद पाया गया — मामला भिक्खु के चीवर-सा बरगद की लम्बी बरोहों से उलझ गया है हारकर पाछकर अन्ततः तय हुआ दिल्ली से पूछा जाए और कहते हैं — दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था न हुक़्म न बरगद न दिन न तारीख़ कुछ भी — कुछ भी याद ही नहीं था पर जब परत-दर-परत इधर से बताई गई स्थिति की गम्भीरता और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर यानी वह युवा बरगद कुल्हाड़े की धार से, बस, कुछ मिनट दूर है तो ख़याल है कि दिल्ली ने जल्दी-जल्दी दूत के जरिए बीजिंग से बात की इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद कोई रास्ता निकल आए एक कयास यह भी कि बात शायद माओ की मेज तक गई अब यह कितना सही है कितना ग़लत साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे पर मेरा मन कहता है — काश ! यह सच हो कि उस दिन विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने एक पेड़ के बारे में बातचीत की — तो पाठकगण यह रहा एक धुन्धला सा प्रिण्ट आउट उन लोगों की स्मृति का जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले और छपते-छपते इतना और कि हुक़्म की तामील तो होनी ही थी सो जैसे-तैसे पुलिस के द्वारा बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को और हाथ उठाए — मानो पूरे ब्रह्माण्ड में चिल्लाता रहा वह — "घर है...ये...ये....मेरा घर है' पर जो भी हो अब मौके पर मौजूद टाँगों-कुल्हाड़ों का रास्ता साफ़ था एक हल्का सा इशारा और ठक्‌ ...ठक्‌ गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर पहली चोट के बाद ऐसा लगा जैसे लोहे ने झुककर पेड़ से कहा हो — "माफ़ करना, भाई, कुछ हुक़्म ही ऐसा है" और ठक्‌ ठक्‌ गिरने लगा उसी तरह उधर फैलती जा रही थी हवा में युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गन्ध और "नहीं...नहीं..." कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाज़ और अगली ठक्‌ के नीचे दब जाती थी जाने कितनी चहचह कितने पर कितनी गाथाएँ कितने जातक दब जाते थे हर ठक्‌ के नीचे चलता रहा वह विकट संगीत जाने कितनी देर तक — कि अचानक जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई और लोगों ने देखा कि चीख़ न पुकार बस, झूमता-झामता एक शाहाना अन्दाज़ में अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद सिर्फ 'घर' — वह शब्द देर तक उसी तरह टँगा रहा हवा में तब से कितना समय बीता मैंने कितने शहर नापे कितने घर बदले और हैरान हूँ मुझे लग गया इतना समय इस सच तक पहुँचने में कि उस तरह देखो तो हुक़्म कोई नहीं पर घर जहाँ भी है उसी तरह टँगा है ।

मार्च की सुबह

झर झर झर ... झरती हैं पत्तियाँ सवेरे से आज हवा पागल है ! कौन उसे समझाए, कौन उसे मना करे दूर-दूर कूलों की ढेरों ख़बरें लेकर कमरे में आती है, कंकड़, खर-पात और बन सुग्गों की पाँखें चुपके से जेबों के अन्दर धर जाती है अनजाने द्वीपों के नम उदास फूलों की आकृतियाँ लाती है; देहरी पर आँगन में जी भर बिखराती है एक नहीं सुनती है गलियों में सड़कों पर चिड़ियों के कच्चे घोंसले गिरा देती है अधभूले ख़यालों से लहराते वस्त्रों के छोर फँसा देती है पागल है ! पागल है ! मैंने जब मना किया, पीले पत्ते बटोर उठकर चुप चली गई खण्डहर की ओर उधर झाड़ों-झँखाड़ों में और अकारण पगली मुँह पर पत्ते रखकर हँसती ही जाती थी हँसती ही जाती थी ओझल हो जाने तक ।

माँझी का पुल

मैंने पहली बार स्कूल से लौटते हुए उसकी लाल-लाल ऊँची मेहराबें देखी थीं यह सर्दियों के शुरू के दिन थे जब पूरब के आसमान में सारसों के झुंड की तरह डैने पसारे हुए धीरे-धीरे उड़ता है माँझी का पुल वह कब बना था कोई नहीं जानता किसने बनाया था माँझी का पुल यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को अब भी परेशान करता है ‘तुम्हारे जन्म से पहले’ — कहती थीं दादी ‘जब दिन में रात हुई थी उससे भी पहले’— कहता है गाँव का बूढ़ा चौकीदार क्या यह सच नहीं है कि एक सुबह इसी तरह किनारे की रेती पर पड़ा हुआ मिला था माँझी का पुल बंसी मल्लाह की आँखें पूछती हैं! लाल मोहर हल चलाता है और ऐन उसी वक़्त जब उसे खैनी का ज़रूरत महसूस होती है बैलों के सींगों के बीच से दिख जाता है माँझी का पुल झपसी की मेड़ें— उसने बारहा देखा है— जब चरते-चरते थक जाती हैं तो मुँह उठाकर उस तरफ़ देखने लगती हैं जिधर माँझी का पुल है माँझी के पुल में कितने पाए हैं? उन्नीस—कहता है जगदीश बीस—रतन हज्जाम का ख़याल है कई बार यह संख्या तेईस या चौबीस तक चली जाती है क्या दिन के पाये रात में कम हो जाते है? क्या, सुबह-सुबह बढ़ जाते हैं माँझी के पुल के पाए? माँझी के पुल में कितनी ईंटें है? कितने अरब बालू के कण? कितने खच्चर कितनी बैलगाड़ियाँ कितनी आँखें कितने हाथ चुन दिए गए हैं माँझी के पुल में मेरी बस्ती के लोगों के पास कोई हिसाब नहीं है सचाई यह है मेरी बस्ती के लोग सिर्फ़ इतना जानते हैं दुपहर की धूप में जब किसी के पास कोई काम नहीं होता तो पके हुए ज्वार के खेत की तरह लगता है माँझी का पुल मगर पुल क्या होता है? आदमी को अपनी तरफ़ क्यों खींचता है पुल? ऐसा क्यों होता है कि रात की आख़िरी गाड़ी जब माँझी के पुल की पटरियों पर चढ़ती है तो अपनी गहरी नींद में भी मेरी बस्ती का हर आदमी हिलने लगता है? एक गहरी बेचैनी के बाद मैंने कई बार सोचा है माँझी के पुल में कहाँ है माँझी? कहाँ है उसकी नाव? क्या तुम ठीक उसी जगह उँगली रख सकते हो जहाँ हर पुल में छिपी रहती है एक नाव? मछलियाँ अपनी भाषा में क्या कहती हैं पुल को? सूंस और घड़ियाल क्या सोचते हैं? कछुओं को कैसा लगता है पुल जब वे दुपहर बाद की रेती पर अपनी पीठ फैलाकर उसकी मेहराबें सेंकते हैं? मैं जानता हूँ मेरी बस्ती के लोगों के लिए यह कितना बड़ा आश्वासन है कि वहाँ पूरब के आसमान में हर आदमी के बचपन के बहुत पहले से चुपचाप टँगा है माँझी का पुल मैं सोचता हूँ और सोचकर काँपने लगता हूँ उन्हें कैसा लगेगा अगर एक दिन अचानक पता चले वहाँ नहीं है माँझी का पुल! मैं ख़ुद से पूछता हूँ कौन बड़ा है वह जो नदी पर खड़ा है माँझी का पुल या वह जो टँगा है लोगों के अंदर? माँझी : उतर प्रदेश और बिहार की सीमा पर स्थित एक गाँव, जहाँ घाघरा नदी पर रेलवे का पुराना पुल है।

मुक्ति

मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला मैं लिखने बैठ गया हूँ मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़' यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी' 'आदमी' 'आदमी' – मैं लिखना चाहता हूँ एक बच्चे का हाथ एक स्त्री का चेहरा मैं पूरी ताकत के साथ शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा मैं लिखना चाहता हूँ। (1978)

मेरी भाषा के लोग

मेरी भाषा के लोग मेरी सड़क के लोग हैं सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग पिछली रात मैंने एक सपना देखा कि दुनिया के सारे लोग एक बस में बैठे हैं और हिन्दी बोल रहे हैं फिर वह पीली-सी बस हवा में गायब हो गई और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दी जो अन्तिम सिक्के की तरह हमेशा बच जाती है मेरे पास हर मुश्किल में कहती वह कुछ नहीं पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ कि उसकी खाल पर चोटों के कितने निशान हैं कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को दुखते हैं अक्सर कई विशेषण पर इन सबके बीच असंख्य होठों पर एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह ! तुम झाँक आओ सारे सरकारी कार्यालय पूछ लो मेज़ से दीवारों से पूछ लो छान डालो फ़ाइलों के ऊँचे-ऊँचे मनहूस पहाड़ कहीं मिलेगा ही नहीं इसका एक भी अक्षर और यह नहीं जानती इसके लिए अगर ईश्वर को नहीं तो फिर किसे धन्यवाद दे ! मेरा अनुरोध है — भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध — कि राज नहीं — भाषा भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो मेरी भाषा को । इसमें भरा है पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की इतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्क कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ तो कहीं गहरे अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु यहाँ तक कि एक पत्ती के हिलने की आवाज़ भी सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा जब बोलता हूँ हिंदी पर जब भी बोलता हूं यह लगता है — पूरे व्याकरण में एक कारक की बेचैनी हूँ एक तद्भव का दुख तत्सम के पड़ोस में ।

मैंने गंगा को देखा

मैंने गंगा को देखा एक लंबे सफ़र के बाद जब मेरी आँखें कुछ भी देखने को तरस रही थीं जब मेरे पास कोई काम नहीं था मैंने गंगा को देखा प्रचंड लू के थपेड़ों के बाद जब एक शाम मुझे साहस और ताज़गी की बेहद ज़रूरत थी मैंने गंगा को देखा एक रोहू मछली थी डब-डब आँख में जहाँ जीने की अपार तरलता थी मैंने गंगा को देखा जहाँ एक बूढ़ा मल्लाह रेती पर खड़ा था घर जाने को तैयार और मैंने देखा— बूढ़ा ख़ुश था वर्ष के उन सबसे उदास दिनों में भी मैं हैरान रह गया यह देखकर कि गंगा के जल में कितनी लंबी और शानदार लगती है एक बूढ़े आदमी के ख़ुश होने की परछाईं! जब बूढ़ा ज़रा हिला उसने अपना जाल उठाया कंधे पर रखा चलने से पहले एक बार फिर गंगा की ओर देखा और मुस्कुराया यह एक थके हुए बूढ़े मल्लाह की मुस्कान थी जिसमें कोई पछतावा नहीं था यदि थी तो एक सच्ची और गहरी कृतज्ञता बहते हुए चंचल जल के प्रति मानो उसकी आँखें कहती हों— ‘अब हो गई शाम अच्छा भाई पानी राम! राम!’

यह अग्निकिरीटी मस्तक

सब चेहरों पर सन्नाटा हर दिल में पड़ता काँटा हर घर में गीला आँटा वह क्यों होता है ? जीने की जो कोशिश है जीने में यह जो विष है साँसों में भरी कशिश है इसका क्या करिए ? कुछ लोग खेत बोते हैं कुछ चट्टानें ढोते हैं कुछ लोग सिर्फ़ होते हैं इसका क्या मतलब ? मेरा पथराया कन्धा जो है सदियों से अन्धा जो खोज चुका हर धन्धा क्यों चुप रहता है ? यह अग्निकिरीटी मस्तक जो है मेरे कन्धों पर यह ज़िन्दा भारी पत्थर इसका क्या होगा ?

यह पृथ्वी रहेगी

मुझे विश्वास है यह पृथ्वी रहेगी यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में रहते हैं दीमक जैसे दाने में रह लेता है घुन यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान और मेरी नश्वरता में यह रहेगी और एक सुबह मैं उठूंगा मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने जिससे वादा है कि मिलूंगा। (1983)

रक्त में खिला हुआ कमल

मेरी हड्डियाँ मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं मेरी देह मेरे रक्त में खिला हुआ कमल क्या आप विश्वास करेंगे यह एक दिन अचानक मुझे पता चला जब मैं तुलसीदास को पढ़ रहा था

रात पिया पिछवारे

रात पिया, पिछवारे पहरू ठनका किया । कँप-कँप कर जला दिया बुझ -बुझ कर यह जिया मेरा अंग-अंग जैसे पछुए ने छू दिया बड़ी रात गए कहीं पण्डुक पिहका किया । आँखड़ियाँ पगली की नींद हुई चोर की पलकों तक आ-आकर बाढ़ रुकी लोर की रह-रहकर खिड़की का पल्ला उढ़का किया । पथराए तारों की जोत डबडबा गई मन की अनकही सभी आँखों में छा गई सुना क्या न तुमने, यह दिल जो धड़का किया ।

रास्ता

बगुले उड़े जा रहे थे नीचे चल रहे थे हम तीन जन तीन जन शहर से आए हुए क्वार की तँबियाई धूप में नहाए हुए तीन जन चले जा रहे थे फैले कछार में डूबते हुए दिन की पगडंडी पकड़कर तीन जन ख़ुश एक अजब विश्वास से भरे हुए तीन जन कि हम जा रहे हैं ठीक कि ज़रूर-ज़रूर हम पहुँच ही जाएँगे बगुलों की तरह अपने ठीक मुक़ाम पर दिन डूबने से पहले हम चले जा रहे थे चुप किन्हीं बातों में खोए हुए चले जा रहे थे हम कि अचानक हमारे पाँव ज़रा ठिठके कि अचानक हमने पाया रास्ता ख़त्म! अब हमारे सामने दूर तक फैले पके हुए ज्वार के सिर्फ़ खेत ही खेत थे और रास्ता नहीं था क्या हुआ किधर गया रास्ता? हम तीन जन सोचते रहे खड़े परेशान कि हमें दूर दिखाई पड़ा डूबते हुए सूरज के आस-पास एक बूढ़ा किसान हम तीन जन उसके पास गए पूछा—‘दादा, रास्ता किधर है?’ बूढ़ा कुछ नहीं बोला वह कुछ देर हमें यों ही देखता रहा फिर नीचे से उसने एक ढेला उठाया और उस तरफ़ फेंका जिधर झुकी हुई चर रही थी एक काली गाय अब गाय चलने लगी पत्ते बजने लगे और हमने देखा जिधर खेत के बीचोंबीच ज्वार की लटकी हुई थैलियों को चीरती चली जा रही थी गाय उधर रास्ता था उधर घास में धँसे हुए खुर-सा चमक रहा था रास्ता अब दृश्य बिल्कुल साफ़ था अब हमारे सामने गाय थी किसान था रास्ता था सिर्फ़ हमीं भूल गए थे जाना किधर है! बगुले अब दूर बहुत दूर निकल गए थे!

रोटी

उसके बारे में कविता करना हिमाक़त की बात होगी और वह मैं नहीं करूँगा मैं सिर्फ़ आपको आमंत्रित करूँगा कि आप आएँ और मेरे साथ सीधे उस आग तक चलें उस चूल्हे तक—जहाँ वह पक रही है एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ समूची आग को गंध में बदलती हुई दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़ वह पक रही है और पकना लौटना नहीं है जड़ों की ओर वह आगे बढ़ रही है धीरे-धीरे झपट्टा मारने को तैयार वह आगे बढ़ रही है उसकी गरमाहट पहुँच रही है आदमी की नींद और विचारों तक मुझे विश्वास है आप उसका सामना कर रहे हैं मैंने उसका शिकार किया है मुझे हर बार ऐसा ही लगता है जब मैं उसे आग से निकलते हुए देखता हूँ मेरे हाथ खोजने लगते हैं अपने तीर और धनुष मेरे हाथ मुझी को खोजने लगते हैं जब मैं उसे खाना शुरू करता हूँ मैंने जब भी उसे तोड़ा है मुझे हर बार वह पहले से ज़्यादा स्वादिष्ट लगी है पहले से ज़्यादा गोल और ख़ूबसूरत पहले से ज़्यादा सुर्ख़ और पकी हुई आप विश्वास करें मैं कविता नहीं कर रहा सिर्फ़ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ वह पक रही है और आप देखेंगे—यह भूख के बारे में आग का बयान है जो दीवारों पर लिखा जा रहा है आप देखेंगे दीवारें धीरे-धीरे स्वाद में बदल रही हैं।

विद्रोह

आज घर में घुसा तो वहाँ अजब दृश्य था सुनिए — मेरे बिस्तर ने कहा — यह रहा मेरा इस्तीफ़ा मैं अपने कपास के भीतर वापस जाना चाहता हूँ उधर कुर्सी और मेज़ का एक सँयुक्त मोर्चा था दोनों तड़पकर बोले — जी, अब बहुत हो चुका आपको सहते-सहते हमें बेतरह याद आ रहे हैं हमारे पेड़ और उनके भीतर का वह ज़िन्दा द्रव जिसकी हत्या कर दी है आपने उधर आलमारी में बन्द क़िताबें चिल्ला रही थीं खोल दो, हमें खोल दो हम जाना चाहती हैं अपने बाँस के जंगल और मिलना चाहती हैं अपने बिच्छुओं के डंक और साँपों के चुम्बन से पर सबसे अधिक नाराज़ थी वह शॉल जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था बोली — साहब! आप तो बड़े साहब निकले मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से पुकार रहा है और आप हैं कि अपनी देह की क़ैद में लपेटे हुए हैं मुझे उधर टी० वी० और फ़ोन का बुरा हाल था ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे वे पर उनकी भाषा मेरी समझ से परे थी कि तभी नल से टपकता पानी तड़पा — अब तो हद हो गई साहब! अगर सुन सकें तो सुन लीजिए इन बूँदों की आवाज़ — कि अब हम यानी आपके सारे के सारे क़ैदी आदमी की जेल से मुक्त होना चाहते हैं अब जा कहाँ रहे हैं — मेरा दरवाज़ा कड़का जब मैं बाहर निकल रहा था।

शब्द

ठंड से नहीं मरते शब्द वे मर जाते हैं साहस की कमी से कई बार मौसम की नमी से मर जाते हैं शब्द मुझे एक बार एक ख़ूब लाल पक्षी जैसा शब्द मिल गया था गाँव के कछार में मैं उसे ले आया घर पर ज्यों ही वह पहुँचा चौखट के पास उसने मुझे एक बार एक अजब-सी कातर दृष्टि से देखा और तोड़ दिया दम तब मैं डरने लगा शब्दों से मिलने पर अक्सर काट लेता था कन्नी कई बार मैं मूँद लेता था आँख जब देखता था कोई चटक रंगों वाला रोंएदार शब्द बढ़ा आ रहा है मेरी तरफ़ फिर धीरे-धीरे इस खेल में मुझे आने लगा मज़ा एक दिन मैंने बिल्कुल अकारण एक ख़ूबसूरत शब्द को दे मारा पत्थर जब वह धान के पुआल में साँप की तरह दुबका था उसकी सुंदर चमकती हुई आँखें मुझे अब तक याद हैं अब इतने दिनों बाद मेरा डर कम हो गया है अब शब्दों से मिलने पर हो ही जाती है पूछापेखी अब में जान गया हूँ उनके छिपने की बहुत-सी जगहें उनके बहुत-से रंग मैं जान गया हूँ मसलन में जान गया हूँ कि सबसे सरल शब्द वे होते हैं जो होते हैं सबसे काले और कत्थई सबसे जोखिम भरे वे जो हल्के पीले और गुलाबी होते हैं जिन्हें हम बचाकर रखते हैं अपने सबसे भारी और दुखद क्षणों के लिए अक्सर वही ठीक मौक़े पर लगने लगते हैं अश्लील अब इसका क्या करूँ कि जो किसी काम के नहीं होते ऐसे बदरंग और कूड़े पर फेंके हुए शब्द अपनी संकट की घड़ियों में मुझे लगे हैं सबसे भरोसे के क़ाबिल अभी कल ही की बात है अँधेरी सड़क पर मुझे अचानक घेर लिया पाँच-सात स्वस्थ और सुंदर शब्दों ने उनके चेहरे ढँके हुए थे पर उनके हाथों में कोई तेज़ और धारदार-सी चीज़ थी जो चमक रही थी बुरी तरह अपनी तो भूल गई सिट्टी-पिट्टी पसीने से तर मैं कुछ देर खड़ा रहा उनके सामने अवाक् फिर मैं भागा अभी मेरा एक पाँव हवा में उठा ही था कि न जाने कहाँ से एक कुबड़ा-सा हाँफता हुआ आया और बोला—‘चलो, पहुँचा दूँ घर!’

शहर में रात

बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे हैं उलझ गए जीने के सारे धागे यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें (1982)

शहरबदल

वह एक छोटा-सा शहर था जिसे शायद आप नहीं जानते पर मैं ही कहाँ जानता था वहाँ जाने से पहले कि दुनिया के नक्शे में कहाँ है वह। लेकिन दुनिया शायद उन्हीं छोटे-छोटे शहरों के ताप से चलती है जिन्हें हम-आप नहीं जानते। जाने को तो मैं जा सकता था कहीं भी क्या बुरा था भैंसालोटन ? हर्ज़ क्या था गया या गुंटूर जाने में पर गया मैं गया नहीं ( वैसे भी संन्यास मैंने नहीं लिया था ) कलकत्ते से मिला नहीं छंद जयपुर जा सकता था पर गालता के पत्थरों ने खींचा नहीं मुझे शहर अनेक थे जिनके नामों का ज़ादू उन युवा दिनों में प्याज़ की छौंक की तरह खींचता था मुझे पर हुआ यों कि उन नामों के बारे में सोचते-सोचते जब एक दिन थक गया तो अटैची उठाई और चप्पल फटकारते हुए चल दिया पडरौना -- उसी शहर में जिसके नाम का उच्चारण एक लड़की को लगता था ऊँट के कोहान की तरह अब इतने दिनों बाद कभी-कभार सोचता हूँ मैं क्यों गया पडरौना ? कोई क्यों जाता है कहीं भी अपने शहर को छोड़कर -- यह एक ऐसा रहस्य है जिसके सामने एक शाम ठिठक गए थे ग़ालिब लखनऊ पहुँचकर। पर जो सच है वह सीधा-सा सादा-सा सच है कि एक सुबह मैं उठा बनारस को कहा राम-राम और चल दिया उधर जिधर हो सकता था पडरौना -- वह गुमनाम-सा शहर जहाँ एक दर्ज़ी कि मशीन भी इस तरह चलती थी जैसे सृष्टि के शुरू से चल रही हो उसी तरह और एक ही घड़ी थी जिससे चिड़ियों का भी काम चलता था और आदमी का भी और समय था कि आराम से पड़ा रहता था लोगों के कन्धों पर एक गमछे की तरह। पर शहर की तरह उस छोटे-से शहर का भी अपना एक संगीत था जो अक्सर एक पिपिहिरी से शुरू होता था और ट्रकों के ताल पर चलता रहता था दिन भर जिसमें हवा की मुर्कियाँ थीं और बैलगाड़ियों की मूर्च्छना और धूल के उठते हुए लंबे आलाप और एक विलम्बित-सी तान दोपहरी-पसिंजर की जो अक्सर सूर्यास्त के देर बाद आती थी इस तरह एक दुर्लभ वाद्यवृन्द-सा बजता ही रहता था महाजीवन उस छोटे-से शहर का जिसकी लय पर चलते हुए कभी-कभी बेहद झुंझला उठता था मैं कि वे जो लोग थे उनके घुटनों में एक ऐसा विकट और अथाह धीरज था कि शाम के नमक के लिए सुबह तक खड़े-खड़े कर सकते थे इंतज़ार नमस्कार ! नमस्कार ! मैं कहता था उनसे उत्तर में सिर्फ़ हँसते थे वे जिसमें गूँजता था सदियों का संचित हाहाकार...

शाम बेच दी है

शाम बेच दी है भाई, शाम बेच दी है मैंने शाम बेच दी है! वो मिट्टी के दिन, वो धरौंदों की शाम, वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम, मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम, वो घर भर में गोरस की गंधों की शाम वो दिनभर का पढना, वो भूलों की शाम, वो वन-वन के बांसों-बबूलों की शाम, झिडकियां पिता की, वो डांटों की शाम, वो बंसी, वो डोंगी, वो घाटों की शाम, वो बांहों में नील आसमानों की शाम, वो वक्ष तोड-तोड उठे गानों की शाम, वो लुकना, वो छिपना, वो चोरी की शाम, वो ढेरों दुआएं, वो लोरी की शाम, वो बरगद पे बादल की पांतों की शाम वो चौखट, वो चूल्हे से बातों की शाम, वो पहलू में किस्सों की थापों की शाम, वो सपनों के घोडे, वो टापों की शाम, वो नए-नए सपनों की शाम बेच दी है, भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है। वो सडकों की शाम, बयाबानों की शाम, वो टूटे रहे जीवन के मानों की शाम, वो गुम्बद की ओट हुई झेपों की शाम, हाट-बाटों की शाम, थकी खेपों की शाम, तपी सांसों की तेज रक्तवाहों की शाम, वो दुराहों-तिराहों-चौराहों की शाम, भूख प्यासों की शाम, रुंधे कंठों की शाम, लाख झंझट की शाम, लाख टंटों की शाम, याद आने की शाम, भूल जाने की शाम, वो जा-जा कर लौट-लौट आने की शाम, वो चेहरे पर उडते से भावों की शाम, वो नस-नस में बढते तनावों की शाम, वो कैफे के टेबल, वो प्यालों की शाम, वो जेबों पर सिकुडन के तालों की शाम, वो माथे पर सदियों के बोझों की शाम वो भीडों में धडकन की खोजों की शाम, वो तेज-तेज कदमों की शाम बेच दी है, भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है।

शारद प्रात

सुबह उठा तो ऐसा लगा कि शरद आ गया, आँखों को नीला-नीला आकाश भा गया, धूप गिरी ऐसे गवाक्ष से जैसे काँप गया हो शीशा मेरे रोम-रोम ने तुम को पता नहीं क्यों बहुत असीसा, शरद तुम्हारे खेतों में सोना बरसाए, छज्जों पर लौकियाँ चढ़ाए, टहनी-टहनी फूल लगाए, पत्ती-पत्ती ओस चुआए, मेड़ों-मेड़ों दूब उगाए शरद तुम्हारे बालों में गुलाब उलझाए, छिन पल्ले का छोर ताल की ओर उड़ाए; दूर-दूर से — हल्के-हल्के धानों के रुमाल हिलाए बाँसों में सीटियाँ बजाए, गलियारों में हाँक लगाए, मन पर, बाँहों पर, कन्धों पर हरसिंगार की डाल झुकाए, पास कुएँ के खड़े आँवले की शाखों को ख़ूब कँपाए, नदी तीर की नयी रेतियों से — दिन की सलवटें मिटाए, लहरों में काँपता भोर का दिया सिराए, तुलसी के तल धूप दिखाए, चूल्हे पर उफने गरमाए, सँग-सँग बैठा आँच लगाए, साथ-साथ रोटियाँ सिंकाए, शरद तुम्हारे तन पर छाए, मन पर छाए, नये धान की गन्ध सरीखा — घर आँगन, जँगल-दरवाज़ों में बस जाए शरद कि जो मेरी खिड़की से भी — भिनसारे दिख जाता है, खिंची धूप की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से मेरे इस सागौन वृक्ष के पात-पात पर नाम तुम्हारा लिख जाता है ।

सन् ४७ को याद करते हुए

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह? गेहुँए नूर मियाँ ठिगने नूर मियाँ रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह? तुम्हें याद है मदरसा इमली का पेड़ इमामबाड़ा तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक उन्नीस का पहाड़ा क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर जोड़ घटा कर यह निकाल सकते हो कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर क्यों चले गए थे नूर मियाँ? क्या तुम्हें पता है इस समय वे कहाँ हैं ढाका या मुल्तान में? क्या तुम बता सकते हो? हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में? तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह? क्या तुम्हारा गणित कमजोर है? 1982

सार्त्र की क़ब्र पर

सैकड़ों सोई हुई क़ब्रों के बीच वह अकेली क़ब्र थी जो ज़िन्दा थी कोई अभी-अभी गया था एक ताज़ा फूलों का गुच्छा रखकर कल के मुरझाए हुए फूलों की बगल में एक लाल फूल के नीचे मैट्रो का एक पीला-सा टिकट भी पड़ा था उतना ही ताज़ा मेरी गाइड ने हँसते हुए कहा-- वापसी का टिकट है कोई पुरानी मित्र रख गई होगी कि नींद से उठो तो आ जाना! मुझे लगा अस्तित्व का यह भी एक रंग है न होने के बाद! होते यदि सार्त्र क्या कहते इस पर-- सोचता हुआ होटल लौट रहा था मैं

सुई और तागे के बीच में

माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है पानी गिर नहीं रहा पर गिर सकता है किसी भी समय मुझे बाहर जाना है और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय है कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी उसका गिलास वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है मैं एकदम भूल जाऊँगा जिसे इस समूची दुनिया में माँ और सिर्फ मेरी माँ पहनती है उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं तो माँ थोड़ा और झुक जाती है अपनी परछाई की तरफ उन के बारे में उसके विचार बहुत सख़्त है मृत्यु के बारे में बेहद कोमल पक्षियों के बारे में वह कभी कुछ नहीं कहती हालाँकि नींद में वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है तो उठा लेती है सुई और तागा मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं तो सुई चलाने वाले उसके हाथ देर रात तक समय को धीरे-धीरे सिलते हैं जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो पिछले साठ बरसों से एक सुई और तागे के बीच दबी हुई है माँ हालाँकि वह खुद एक करघा है जिस पर साठ बरस बुने गये हैं धीरे-धीरे तह पर तह खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे साठ बरस

सूर्य

वह रोटी में नमक की तरह प्रवेश करता है ताखे पर रखी हुई रात की रोटी उसके आने की ख़ुशी में ज़रा-सा उछलती है और एक भूखे आदमी की नींद में गिर पड़ती है एक बच्चा जगता है और घने कोहरे में पिता की चाय के लिए दूध ख़रीदने नुक्कड़ की दुकान तक अकेला चला जाता है एक पतीली गर्म होने लगती है एक चेहरा लाल होना शुरू होता है एक ख़ूँख़ार चमक तंबाकू के खेतों से उठती है और आदमी के ख़ून में टहलने लगती है मेरा ख़याल है वह आसमान से नहीं किसी जानवर की माँद से निकलता है और एक लंबी छलाँग के बाद किसी गंजे तथा मुस्टंड आदमी के भविष्य में ग़ायब हो जाता है अकेला और शानदार वह आदमी के सिर उठाने की यातना है आदमी का बुख़ार आदमी की कुल्हाड़ी जिसे वह कंधे पर रखता है और जंगल की ओर चल देता है मेरी बस्ती के लोगों की दुनिया में वह अकेली चीज़ है जिस पर भरोसा किया जा सकता है सिर्फ़ उस पर रोटी नहीं सेंकी जा सकती!

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए

भर लो दूध की धार की धीमी-धीमी चोटें दिये की लौ की पहली कँपकँपी आत्मा में भर लो भर लो एक झुकी हुई बूढ़ी निगाह के सामने मानस की पहली चौपाई का खुलना और अंतिम दोहे का सुलगना भर लो भर लो ताकती हुई आँखों का अथाह सन्नाटा सिवानों पर स्यारों के फेंकरने की आवाजें बिच्छुओं के उठे हुए डंकों की सारी बेचैनी आत्मा में भर लो और कवि जी सुनो इससे पहले कि भूख का हाँका पड़े और अँधेरा तुम्हें चींथ डाले भर लो इस पूरे ब्रह्मांड को एक छोटी-सी साँस की डिबिया में भर लो

सृष्टि पर पहरा (कविता)

जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने वह सामने खड़ा था सिवान का प्रहरी जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस- एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष जिसके शीर्ष पर हिल रहे तीन-चार पत्ते कितना भव्य था एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर महज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ में सृष्टि पर पहरा दे रहे थे तीन-चार पत्ते

हक दो

फूल को हक दो, वह हवा को प्यार करे, ओस, धूप, रंगों से जितना भर सके, भरे, सिहरे, कांपे, उभरे, और कभी किसी एक अंखुए की आहट पर पंखुडी-पंखुडी सारी आयु नाप कर दे दे- किसी एक अनदेखे-अनजाने क्षण को नए फूलों के लिए! गंध को हक दो वह उडे, बहे, घिरे, झरे, मिट जाए, नई गंध के लिए! बादल को हक दो- वह हर नन्हे पौधे को छांह दे, दुलारे, फिर रेशे-रेशे में हल्की सुरधनु की पत्तियां लगा दे, फिर कहीं भी, कहीं भी, गिरे, बरसे, घहरे, टूटे- चुक जाए- नए बादल के लिए! डगर को हक दो- वह, कहीं भी, कहीं भी, किसी वन, पर्वत, खेत, गली-गांव-चौहटे जाकर- सौंप दे थकन अपनी, बांहे अपनी- नई डगर के लिए! लहर को हक दो- वह कभी संग पुरवा के, कभी साथ पछुवा के- इस तट पर भी आए- उस तट पर भी जाए, और किसी रेती पर सिर रख सो जाए नई लहर के लिए! व्यथा को हक दो- वह भी अपने दो नन्हे कटे हुए डैनों पर, आने वाले पावन भोर की किरन पहली झेल कर बिखर जाए, झर जाए- नई व्यथा के लिए! माटी को हक दो- वह भीजे, सरसे, फूटे, अंखुआए, इन मेडों से लेकर उन मेडों तक छाए, और कभी न हारे, (यदि हारे) तब भी उसके माथे पर हिले, और हिले, और उठती ही जाए- यह दूब की पताका- नए मानव के लिए!

हाथ

उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए

अकाल में सारस

तीन बजे दिन में आ गए वे जब वे आए किसी ने सोचा तक नहीं था कि ऐसे भी आ सकते हैं सारस एक के बाद एक वे झुंड के झुंड धीरे-धीरे आए धीरे-धीरे वे छा गए सारे आसमान में धीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गया सारा का सारा शहर वे देर तक करते रहे शहर की परिक्रमा देर तक छतों और बारजों पर उनके डैनों से झरती रही धान की सूखी पत्तियों की गंध अचानक एक बुढ़िया ने उन्हें देखा जरूर-जरूर वे पानी की तलाश में आए हैं उसने सोचा वह रसोई में गई और आँगन के बीचोबीच लाकर रख दिया एक जल-भरा कटोरा लेकिन सारस उसी तरह करते रहे शहर की परिक्रमा न तो उन्होंने बुढ़िया को देखा न जल भर कटोरे को सारसों को तो पता तक नहीं था कि नीचे रहते हैं लोग जो उन्हें कहते हैं सारस पानी को खोजते दूर-देसावर से आए थे वे सो, उन्होंने गर्दन उठाई एक बार पीछे की ओर देखा न जाने क्या था उस निगाह में दया कि घृणा पर एक बार जाते-जाते उन्होंने शहर की ओर मुड़कर देखा जरूर फिर हवा में अपने डैने पीटते हुए दूरियों में धीरे-धीरे खो गए सारस

अँगूठे का निशान

किसने बनाए वर्णमाला के अक्षर ये काले-काले अक्षर भूरे-भूरे अक्षर किसने बनाए खड़िया ने चिड़िया के पंख ने दीमकों ने ब्लैकबोर्ड ने किसने आखिर किसने बनाए वर्णमाला के अक्षर 'मैंने... मैंने'- सारे हस्ताक्षरों को अँगूठा दिखाते हुए धीरे से बोला एक अँगूठे का निशान और एक सोख्ते में गायब हो गया

अड़ियल साँस

पृथ्वी बुखार में जल रही थी और इस महान पृथ्वी के एक छोटे-से सिरे पर एक छोटी-सी कोठरी में लेटी थी वह और उसकी साँस अब भी चल रही थी और साँस जब तक चलती है झूठ सच पृथ्वी तारे - सब चलते रहते हैं डाक्टर वापस जा चुका था और हालाँकि वह वापस जा चुका था पर अभी सब को उम्मीद थी कि कहीं कुछ है जो बचा रह गया है नष्ट होने से जो बचा रह जाता है लोग उसी को कहते हैं जीवन कई बार उसी को काई घास या पत्थर भी कह देते हैं लोग लोग जो भी कहते हैं उसमें कुछ न कुछ जीवन हमेशा होता है तो यह वही चीज थी यानी कि जीवन जिसे तड़पता हुआ छोड़कर चला गया था डाक्टर और वह अब भी थी और साँस ले रही थी उसी तरह उसकी हर साँस हथौड़े की तरह गिर रही थी सारे सन्नाटे पर ठक-ठक बज रहा था सन्नाटा जिससे हिल उठता था दिया जो रखा था उसके सिरहाने किसी ने उसकी देह छुई कहा - 'अभी गर्म है' लेकिन असल में देह याकि दिया कहाँ से आ रही थी जीने की आँच यह जाँचने का कोई उपाय नहीं था क्योंकि डाक्टर जा चुका था और अब खाली चारपाई पर सिर्फ एक लंबी और अकेली साँस थी जो उठ रही थी गिर रही थी गिर रही थी उठ रही थी... इस तरह अड़ियल साँस को मैंने पहली बार देखा मृत्यु से खेलते और पंजा लड़ाते हुए तुच्छ असह्य गरिमामय साँस को मैंने पहली बार देखा इतने पास से

आँकुसपुर

आँकुसपुर रुकी नहीं ट्रेन हमेशा की तरह धड़धड़ाती हुई आई और चली गई छोड़कर आँकुसपुर सिर्फ दसबजिया यहाँ रुकती है कहा एक यात्री ने दूसरे यात्री से। क्यों ? आखिर क्यों ? फिर पृथ्वी पर क्यों है आँकुसपुर - जब रहा नहीं गया तो तार पर बैठी एक चिड़िया ने पूछा दूसरी चिड़िया से

आना

आना जब समय मिले जब समय न मिले तब भी आना आना जैसे हाथों में आता है जाँगर जैसे धमनियों में आता है रक्त जैसे चूल्हों में धीरे-धीरे आती है आँच आना आना जैसे बारिश के बाद बबूल में आ जाते हैं नए-नए काँटे दिनों को चीरते-फाड़ते और वादों की धज्जियाँ उड़ाते हुए आना आना जैसे मंगल के बाद चला आता है बुध आना

अकाल में दूब

भयानक सूखा है पक्षी छोड़कर चले गए हैं पेड़ों को बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे चींटियाँ देहरी और चौखट पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं घरों को छोड़कर भयानक सूखा है मवेशी खड़े हैं एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए कहते हैं पिता ऐसा अकाल कभी नहीं देखा ऐसा अकाल कि बस्ती में दूब तक झुलस जाए सुना नहीं कभी दूब मगर मरती नहीं - कहते हैं वे और हो जाते हैं चुप निकलता हूँ मैं दूब की तलाश में खोजता हूँ परती-पराठ झाँकता हूँ कुँओं में छान डालता हूँ गली-चौराहे मिलती नहीं दूब मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े बाल्टियाँ लोटे परात झाँकता हूँ घड़ों में लोगों की आँखों की कटोरियों में झाँकता हूँ मैं मिलती नहीं मिलती नहीं दूब अंत में सारी बस्ती छानकर लौटता हूँ निराश लाँघता हूँ कुएँ के पास की सूखी नाली कि अचानक मुझे दिख जाती है शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच एक हरी पत्ती दूब है हाँ-हाँ दूब है - पहचानता हूँ मैं लौटकर यह खबर देता हूँ पिता को अँधेरे में भी दमक उठता है उनका चेहरा 'है - अभी बहुत कुछ है अगर बची है दूब...' बुदबुदाते हैं वे फिर गहरे विचार में खो जाते हैं पिता

एक छोटा सा अनुरोध

आज की शाम जो बाजार जा रहे हैं उनसे मेरा अनुरोध है एक छोटा-सा अनुरोध क्यों न ऐसा हो कि आज शाम हम अपने थैले और डोलचियाँ रख दें एक तरफ और सीधे धान की मंजरियों तक चलें चावल जरूरी है जरूरी है आटा दाल नमक पुदीना पर क्यों न ऐसा हो कि आज शाम हम सीधे वहीं पहुँचें एकदम वहीं जहाँ चावल दाना बनने से पहले सुगंध की पीड़ा से छटपटा रहा हो उचित यही होगा कि हम शुरू में ही आमने-सामने बिना दुभाषिए के सीधे उस सुगंध से बातचीत करें यह रक्त के लिए अच्छा है अच्छा है भूख के लिए नींद के लिए कैसा रहे बाजार न आए बीच में और हम एक बार चुपके से मिल आएँ चावल से मिल आएँ नमक से पुदीने से कैसा रहे एक बार... सिर्फ एक बार

एक दिन हँसी-हँसी में

एक दिन हँसी-हँसी में उसने पृथ्वी पर खींच दी एक गोल-सी लकीर और कहा - 'यह तुम्हारा घर है' मैंने कहा - 'ठीक, अब मैं यहीं रहूँगा' वर्षा शीत और घाम से बचकर कुछ दिन मैं रहा उसी घर में इस बात को बहुत दिन हुए लेकिन तब से वह घर मेरे साथ-साथ है मैंने आनेवाली ठंड के विरुद्ध उसे एक हल्के रंगीन स्वेटर की तरह पहन रखा है

ओ मेरी उदास पृथ्वी

घोड़े को चाहिए जई फुलसुँघनी को फूल टिटिहिरी को चमकता हुआ पानी बिच्छू को विष और मुझे ? गाय को चाहिए बछड़ा बछड़े को दूध दूध को कटोरा कटोरे को चाँद और मुझे ? मुखौटे को चेहरा चेहरे को छिपने की जगह आँखों को आँखें हाथों को हाथ और मुझे ? ओ मेरी घूमती हुई उदास पृथ्वी मुझे सिर्फ तुम... तुम... तुम...

कुछ और टुकड़े

1. अकेली चुप्पी भयानक चीज है जैसे हवा में गैंडे का अकेला सींग पर यदि दो लोग चुप हों पास-पास बैठे हुए तो उतनी देर भाषा के गर्भ में चुपचाप बनती रहती है एक और भाषा। 2. बरसों तक साथ-साथ रहने के बाद जब वे विधिवत अलग हुए तो सारे फैसले में यह छोटी-सी बात कहीं नहीं थी कि जहाँ वे लौटकर जाना चाहते हैं वह अपना अकेलापन वे परस्पर गँवा चुके हैं बरसों पहले। 3. जन्म-मृत्यु सूचना के उस नए दफ्तर में पहले तय हुआ जन्म का रजिस्टर अलग हो मृत्यु का अलग फिर पाया गया यह अलगाव बिल्कुल बेमानी है।

कुछ टुकड़े

1. जिससे मिलने गया था उससे मिलकर जब बाहर आया सोचा, ये जो विराट इमारत है ब्रह्मांड की क्यों न हिला दूँ इसकी कोई ईंट इस अद्भुत विचार से रोमांचित अभी मैं खड़ा ही था कि ठीक मेरे सामने एक छोटा पत्ता टूटकर गिरा और मैंने देखा ब्रह्मांड हिल रहा है। 2. उस बूढ़े भिखारी को आज भी देखा पर आज उस पर दया नहीं आई दया आई तो खुद पर कि देखो न इस गावदी को कि बीसवीं शताब्दी के इस अंतिम दशक में भी एक भिखारी पर दया करने की हिमाकत करता है। 3. और यह तो आप जानते ही होंगे पर मेरा दुर्भाग्य कि मैंने इतनी देर से और बस अभी-अभी जाना कि मेरे समय के सबसे महान चित्र पिकासो ने नहीं मेरी गली के एक बूढ़े रँगरेज ने बनाए थे।

खर्राटे

मेरी आत्मा एक घर है जहाँ अपने लंबे उदास खर्राटों के साथ यह दुनिया सोती है और मैं सोता हूँ उसके बाहर| मैदान में और मैदान चूँकि मैदान के बाहर कहीं जा नहीं सकता इसलिए कँटीली झाड़ियों पर टिका देता है सिर और एक पत्थर जैसी गरिमा और धैर्य के साथ सहता है मेरे खर्राटों को जिन्हें गिरगिट-झींगुर सब सुनते हैं एक मुझे छोड़कर।

घुलते हुए गलते हुए

देखता हूँ बूँदें टप‍-टप गिरती हुई भैंस की पीठ पर भैंस मगर पानी में खड़ी संतुष्ट। उसके थन दूध से भारी। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण पूरी ताकत से थनों को खींचता हुआ अपनी ओर। बूढ़े दालान में बैठे हुक्का पीते - बारिश देखते हुए। हुक्के के धुँए को बाहर निकलते और बारिश से हाथ मिलाते हुए। सहसा बौछारों की ओट में दिख जाती है एक स्त्री उपले बटोरती हुई। बूँदों की मार से जल्दी-जल्दी उपलों को बचाने की कोशिश में भीगती है वह बचाती है उपले। कहीं से आती है उपलों से छनती हुई फूल की खुशबू। उपलों की गंध मगर फूल की गंध से अधिक भारी अधिक उदार स्त्री को बौछारों में धीरे-धीरे घुलते हुए गलते हुए देखता हूँ मैं।

जड़ें

जड़ें चमक रही हैं ढेले खुश घास को पता है चींटियों के प्रजनन का समय करीब आ रहा है दिन भर की तपिश के बाद ताजा पिसा हुआ गरम-गरम आटा एक बूढ़े आदमी के कंधे पर बैठकर लौट रहा है घर मटमैलापन अब भी जूझ रहा है कि पृथ्वी के विनाश की खबरों के खिलाफ अपने होने की सारी ताकत के साथ सटा रहे पृथ्वी से।

झरबेर

प्रचंड धूप में इतने दिनों बाद (कितने दिनों बाद ?) मैंने ट्रेन की खिड़की से देखे कँटीली झाड़ियों पर पीले-पीले फल 'झरबेर हैं' - मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा और कहीं गहरे एक बहुत पुराने काँटे ने फिर मुझे छेदा

दृश्ययुग-1

मन हुआ चुप रहूँ फिर कुछ मिनट बाद चुप्पी खलने लगी फिर किसी ने मेरे अंदर जैसे गाने की जिद की यह कोई अन्य था जिसे मैं जानता नहीं था पर छू सकता था फिर यह सच कि छूना हाथ का अपना एकाधिकार है जीभ के प्रतिवाद से निरस्त हो गया फिर एक विवाद शुरू हुआ समूचे शहर में स्वाद और ध्वनि और दृश्य और स्पर्श के बीच और इस पूरी युद्ध-भूमि में स्पर्श का भयानक अकेलापन मैंने देखा और जब देखा न गया तो एक कवच की तरह उसी को पहनकर चला गया दफ्तर।

दृश्ययुग-2

उसे देखकर कहना भूल गया एक बात थी जो तभी भूल गई थी जब चला था घर से और फिर कई दिनों तक याद रहा वही एक भूलना जो बाद में पता चला एक चेहरा था जो न जाने कब देखने के जल में चुपचाप घुल गया और बचा रहा देखना जिसमें मिलना छूना सूँघना चाहना सब घुलते गए धीरे-धीरे।

दूसरे शहर में

यही हुआ था पिछ्ली बार यही होगा अगली बार भी हम फिर मिलेंगे किसी दूसरे शहर में और ताकते रह जाएँगे एक-दूसरे का मुँह

धीरे-धीरे हम

धीरे-धीरे पत्ती धीरे-धीरे फूल धीरे-धीरे ईश्वर धीरे-धीरे धूल धीरे-धीरे लोग धीरे-धीरे बाग धीरे-धीरे भूसी धीरे-धीरे आग धीरे-धीरे मैं धीरे-धीरे तुम धीरे-धीरे वे धीरे-धीरे हम

न होने की गंध

अब कुछ नहीं था सिर्फ हम लौट रहे थे इतने सारे लोग सिर झुकाए हुए चुपचाप लौट रहे थे उसे नदी को सौंपकर और नदी अँधेरे में भी लग रही थी पहले से ज्यादा उदार और अपरंपार उसके लिए बहना उतना ही सरल था उतना ही साँवला और परेशान था उसका पानी और अब हम लौट रहे थे क्योंकि अब हम खाली थे सबसे अधिक खाली थे हमारे कंधे क्योंकि अब हमने नदी का कर्ज उतार दिया था न जाने किसके हाथ में एक लालटेन थी धुँधली-सी जो चल रही थी आगे-आगे यों हमें दिख गई बस्ती यों हम दाखिल हुए फिर से बस्ती में हमारे आने पर भूँका नहीं एक भी कुत्ता क्योंकि कुत्तों को सब मालूम था उस घर के किवाड़ अब भी खुले थे कुछ नहीं था सिर्फ रस्म के मुताबिक चौखट के पास धीमे-धीमे जल रही थी थोड़ी-सी आग और उससे कुछ हटकर रखा था लोहा हम बारी-बारी आग के पास गए और लोहे के पास गए हमने बारी-बारी झुककर दोनों को छुआ यों हम हो गए शुद्ध यों हम लौट आए जीवितों की लंबी उदास बिरादरी में कुछ नहीं था सिर्फ कच्ची दीवारों और भीगी खपरैलों से किसी एक के न होने की गंध आ रही थी

नए शहर में बरगद

जैसे मुझे जानता हो बरसों से देखो, उस दढ़ियल बरगद को देखो मुझे देखा तो कैसे लपका चला आ रहा है मेरी तरफ पर अफसोस कि चाय के लिए मैं उसे घर नहीं ले जा सकता

फलों में स्वाद की तरह

जैसे आकाश में तारे जल में जलकुंभी हवा में आक्सीजन पृथ्वी पर उसी तरह मैं तुम हवा मृत्यु सरसों के फूल जैसे दियासलाई में काठी घर में दरवाजे पीठ में फोड़ा फलों में स्वाद उसी तरह... उसी तरह...

मातृभाषा

जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में कठफोड़वा लौटता है काठ के पास वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक लाल आसमान में डैने पसारे हुए हवाई-अड्डे की ओर ओ मेरी भाषा मैं लौटता हूँ तुम में जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ दुखने लगती है मेरी आत्मा

लयभंग

जब सुबह-सुबह सूरज जलाता है अपना स्टोव और आदमी अपनी बीड़ी तो कितना अजब है कि दोनों को यह पता नहीं होता कि असल में यह एक बेचैन-सी कोशिश है उस संवाद को फिर से शुरू करने की जो एक शाम चलते-चलते सदियों पहले कहीं बीच रस्ते में टूट गया था।

लोककथा

जब राजा मरास सोने की एक बहुत बड़ी अर्थी बनाई गई जिस पर रखा गया उस का शव शानदार शव जिसे देखकर कोई कह नहीं सकता कि वह राजा नहीं है सबसे पहले मंत्री आया और शव के सामने झुककर खड़ा हो गया फिर पुरोहित आया और न जाने क्या कुछ देर तक होठों में बुदबुदाता रहा फिर हाथी आया और उसने सूँड़ उठाकर शव के प्रति सम्मान प्रकट किया फिर घोड़े आए नीले-पीले जो माहौल की गंभीरता को देखकर तय नहीं कर पाए कि उन्हें हिनहिनाना चाहिए या नहीं फिर धीरे-धीरे बढ़ई धोबी नाई कुम्हार - सब आए और सब खड़े हो गए विशाल चमचमाती हुई अर्थी को घेरकर अर्थी के आसपास एक अजब-सा दुख था जिसमें सब दुखी थे मंत्री दुखी था क्योंकि हाथी दुखी था हाथी दुखी था क्योंकि घोड़े दुखी थे घोड़े दुखी थे क्योंकि घास दुखी थी घास दुखी थी क्योंकि बढ़ई दुखी था...

वह

इतने दिनों के बाद वह इस समय ठीक मेरे सामने है न कुछ कहना न सुनना न पाना न खोना सिर्फ आँखों के आगे एक परिचित चेहरे का होना होना - इतना ही काफी है बस इतने से हल हो जाते हैं बहुत-से सवाल बहुत-से शब्दों में बस इसी से भर आया है लबालब अर्थ कि वह है वह है है और चकित हूँ मैं कि इतने बरस बाद और इस कठिन समय में भी वह बिल्कुल उसी तरह हँस रही है और बस इतना ही काफी है

होंठ

हर सुबह होंठों को चाहिए कोई एक नाम यानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहद जो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बार देह से अलग जीना चाहते हैं होंठ वे थरथराना-छटपटाना चाहते हैं देह से अलग फिर यह जानकर कि यह संभव नहीं वे पी लेते हैं अपना सारा गुस्सा और गुनगुनाने लगते हैं अपनी जगह कई बार सलाखों के पीछे एक आवाज एक हथेली या सिर्फ एक देहरी के लिए तरसते हुए होंठ धीरे-धीरे हो जाते हैं पत्थर की तरह सख्त और पत्थर के भी होंठ होते हैं बालू के भी राख के भी पृथ्वी तो यहाँ से वहाँ तक होंठ ही होंठ है चाहे जैसे भी हो होंठों को हर शाम चाहिए ही चाहिए एक जलता हुआ सच जिसमें हजारों-हजार झूठ जगमगा रहे हों होंठों को बहुत कुछ चाहिए उन्हें चाहिए 'हाँ' का नमक और 'ना' का लोहा और कई बार दोनों एक ही समय पर असल में अपना हर बयान दे चुकने के बाद होंठों को चाहिए सिर्फ दो होंठ जलते हुए खुलते हुए बोलते हुए होंठ

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