हिन्दी कविताएँ : जयचन्द प्रजापति 'जय'

Hindi Poetry : Jaychand Prajapati Jay


एक नाबालिक लड़की

एक नाबालिक लड़की अपनी मां से निवेदन करती है, मां, मेरा ब्याह कर दो अब बड़ी हो गयी हूं खाना बना लूंगी सास ससुर की खूब देखभाल करूंगी कोई शिकायत नहीं आयेगी। अब तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता अब तुम्हे अपनी चिंता से मुक्त करना चाहती हूं तुम फटी साड़ी में जब बाहर जाती हो तुम्हारे चेहरे की झांइयां आंखों का पीलापन बिल्कुल दुबली सी दिखती हो जब कोई काम नहीं मिलता सड़कों पर हाथ फैलाते देखती हूं तुम्हारे होंठों की पपड़ी मेरे लिये दो रोटी की जुगाड़ करती हो मेरे लिए तुम डांट सहती हो कोई गड़बड़ी होती है जब मालिक तुम्हारे उपर गंदी नजर फेरता है जल्दी से ब्याह कर दो कोई गहने नहीं मांगूगी चिंता मत करना मां पापा होते तो ब्याह के लिये नहीं कहती तुमसे पढने के लिये दूर शहर जाने को कहती अभी दो साल और रुक जा तभी ब्याहना जब अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊं पर मां तुमको हंसते हुये देखना चाहती हूं इसलिए ब्याह करना चाहती हूं।

हम फुटपाथ के आदमी हैं

हमारी जिंदगी फुटपाथों से होकर गलियों मे ठोकरें खाते हुए आज यहां, कल वहां रोकर गुजर जाती है अगले दिन चालू होता है फिर ये लिपटी सी जिंदगी फटी चादर में लाचारी का चादर ओढ़े कई दिन बीत जाते हैं बिन नहाए धोए ये लम्बे लम्बे बाल कई साल गुजर जाते हैं नाई के पास गए पढ़ना चाहता था पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा हूं बेच रहा हूं ये मासूम जिंदगी टुकड़ों-टुकड़ों में न मिलती रोटी ठीक से आधे पेट में आधी रात तक जागता हूं रोटी की तलाश में इसी तरह से गुजर जाती है हम जैसे लोगों की हम फुटपाथ के आदमी हैं हम लोगों की जिंदगी लतियाई हुई है

बचपन

बचपन कितना मजेदार था एक नई दुनिया थी एक नया रंग था घूमती एक दुनिया थी हंसता बचपन था इस मिट्टी में रोशनी थी फुदक फुदककर कुदते थे इस गली में, उस गली में तितलियों की उड़ान की तरह इन हथेलियों में घी चुपड़ी रोटी होती थी दरवाजे पर बैठ कर पिल्ले को पुचकारते थे उन बकरी के बच्चे साथ कूदते थे बछड़े कूदती थी गौरैया आंगन मे दादी के साथ पकौड़ी खाते थे वे दिन याद हैं जब खेतों से मटर की फलियां तोड़ लाते थे बेर के पेड़ो पर डंडियो से तोड़ते थे मजे थे बचपन मे नही चिंता थी दो जून की रोटी की खिलौने के साथ दिन गुजर जाता था

एक उदास जज

एक उदास जज को मैं देखा सब सुविधाएं हैं अच्छी सी तनख्वाह है। नौकर चाकर एक खूबसूरत पत्नी एक शानदार बंगला है। मैंने पूछा, आप फिर भी चिंतित हैं चेहरे की लालिमा फीकी है इस तरह व्यथा से युक्त जीवन देखकर मैं हैरान हो गया। जज बोला, जिस न्याय करने का इतना तनख्वाह लेता हूं। इस अन्याय के बाजार में मेरा न्याय दब गया है। मेरा न्याय अपंग सा हो गया है यही सोंचकर मैं उदास हूं।

वे दौर थे पहली कक्षा का

वे दौर थे पहली कक्षा का तख्तियां लेकर सरकारी स्कूल में बोरी का झोला लिए जाते थे पढ़ने टाटपट्टी पर बैठते थे कालिख से पोतकर तख्तियां ले जाते थे पूरे चेहरे पर कालिख लग जाती थी मुंशी जी हम लोगो को पढा़ते थे रटवाया जाता था वर्णमाला गिनती, पहाड़ा तख्तियों पर दूधिया से नरकट की कलम से लिखते थे मुंशी जी बहुत मारते थे गलत लिखने पर रामू को मारे थे एक डंडा पेशाब कर दिया था बिना चप्पल के फटा शर्ट पहनकर फटी चड्डी में नाक बहती रहती थी हाथ से पोंछ लेते थे लंच के लिए अचार रोटी ले जाते थे टोंटी से हथेलियों से पी जाते थे आधा लीटर पानी जब किसी की चाक चुरा लेते थे किसी की कलम मारामारी हो जाती थी डर के मारे पेट में दर्द का बहाना बनाकर कई दिन स्कूल नहीं जाते थे वे दौर थे पहली कक्षा का

हँसने दो

माँ मैं माँ नहीं बनना चाहती अभी खेलना चाहती हूँ लुकाछिपी का खेल करना चाहती हूँ ठिठोली उड़ना चाहती हूँ सपनों का पंख लगाकर यह लिपस्टिक ये चूड़िया ये बालियाँ घूँघरू पायल क्यों खरीद रही हो? नहीं चाहिये नथुनी और झुमका क्या तुम मेरा हँसना नहीं देखना चाहती हो? नहीं कैद होना चाहती पति के जेल में माँ लौटा दे इन श्रृंगारों को अभी हँसना चाहती हूँ खूब उड़ना चाहती हूँ हँसने दो अभी माँ

पीढ़ियाँ

वे बच्चे इंतजार करते हैं जिनके पापा शहरों में रहते हैं बड़ी आशा लिये खड़े होकर टीले पर से ताकते रहते हैं पैसा आयेगा नया कपड़ा लूँगा मेला देखने जाऊँगा प्रबल भावनाएं लिये बड़ी तीव्रता से इंतजार में रहते हैं गाँव के कोने में डरे हुये किसी की जमीन पर टूटी झोपड़ी में रहते हैं उन्हें पापा का सहारा नजर आता है माँ बच्चों के सहारे जीती है पापा दोनों के लिये जीता है इसी तरह से वहाँ कई पीढ़ियाँ गुजर रहीं हैं

वह मजदूर

वह मजदूर कठिन परिश्रम से बना रहा है देश को नव पथ को नये रूप में ढाल रहा है फिर भी जीता है फटी जिन्दगी हर साल मनाया जाता है मजदूर दिवस नये नये वादे वोट के लिये गढ़ दिये जाते हैं लालच का पुलिंदा झुनझुने की तरह थमा दिये जाते हैं कब बदलेगी तस्वीर उनके जीवन की कब तक वोट के लिये घिनौना राजनीति होगी या उसकी विवशता पर चाबुक गिरता रहेगा

हम वेश्या हैं

हम वेश्या हैं हमें ले चलो जैसा चाहे वैसा नोचों लील लो चाहे मुझे बिकती हूँ रोज होती हूँ शिकार शोषण का जी रही हूँ जिल्लत भरी जिन्दगी हमारा कोई समाज नहीं कोई अस्तित्व नहीं कोई परिवार नहीं ढकेली जाती हूँ इस गंदे धंधे में पुरूष मानसिकता ने जन्म दिया इस धन्धे को बहुत ढूँढा नहीं मिला कहीं भी पुरूष वेश्यालय बार बार सोचती हूँ चिंतित हो जाती हूँ

छेड़छाड़ का दंश

जब घर से निकलती है एक औरत घूरना शुरू हो जाता है पुरूषों द्वारा नियत पुरूषों की ताकती है उसके गदराये बदन को नजरों से पी जाने की हौंसले उड़ान भरने लगती है बाजार पहुंचते ही कई पुरूषों द्वारा छू ली जाती हैं भीड़ में कोई कमर छू लेता है कोई सट कर खड़ा मिलता है बसों में जाती औरत भीड़ में कई मर्दो द्वारा कई बार छेड़ी जाती है मजबूर औरत सिर्फ सहकर रह जाती है कोई स्थान नहीं है औरत मर्दों की शिकार न हुई हो कमोबेश हर औरत इसी तरह शिकार होती है कभी- कभी मार्केट जाती माँ और बेटी एक साथ छेड़छाड़ हो जाता है घर में कई दिन माँ बेटी की नहीं मिल पाती है नजरें कभी-कभी छेड़छाड़ की शिकार लड़की आत्महत्या कर लेती है विरोध करने पर मौत के मुंह में डाल दी जाती हैं

मुझे अनाथालय नहीं जाना है

कई सालों से मेरा एक सपना था मैं एक अच्छा सा बाप बनूँगा जब सुना पूरी जिंदगी की कमाई बेटे को बनाने में लगा दिया वह मुरारीलाल बुढ़ापे में अनाथालय में है बाप बनने का सपना छोड़ दिया मुझे अनाथालय नहीं जाना है

नारी की वेदना

नारी की वेदना सहनशीलता से भरी होती है। वह सह लेती हर दु:ख की घड़ी। बड़ी साहसी होती है उदारता की मूर्ति होती है हौंसलों की उड़ान भुजाओं में समेटे हुए रात दिन दु:ख सहकर अपने बच्चों को रोने नहीं देती है। माँ की ममता लिए हर वेदना को वह जहर का घूंट समझ कर पी लेती है। वह हर धूप को छांव में बदल देती है।

क्या मेरी कीमत नही है?

रामू की पत्नी हर बार लेती है पैसा रामू से हर बार प्यार के लिए पत्नी को बेवफा कहता है रामू वेवजह उसे पत्नी ने दबी जुबां से बोली कोठे पर हर बार के लिए हर बार कीमत लगाते हो मैं मांगती हूँ पैसा तो बेवफा कहते हो क्या मेरी कीमत नहीं है इस घर में जो कीमत नहीं लगाते हो

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