हिमायत अली शाएर की ग़ज़लें
Himayat Ali Shair : Ghazals in Hindi


अपना अंदाज़-ए-जुनूँ सब से जुदा रखता हूँ मैं

अपना अंदाज़-ए-जुनूँ सब से जुदा रखता हूँ मैं चाक-ए-दिल चाक-ए-गरेबाँ से सिवा रखता हूँ मैं ग़ज़नवी हूँ और गिरफ़्तार-ए-ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ बुत-शिकन हूँ और दिल में बुत-कदा रखता हूँ मैं है ख़ुद अपनी आग से हर पैकर-ए-गुल ताबनाक ले हवा की ज़द पे मिट्टी का दिया रखता हूँ मैं मैं कि अपनी क़ब्र में भी ज़िंदा हूँ घर की तरह हर कफ़न को अपने गिर्द एहराम सा रखता हूँ मैं दश्त-ए-ग़ुर्बत में हूँ आवारा मिसाल-ए-गर्द-बाद कोई मंज़िल है न कोई नक़्श-ए-पा रखता हूँ मैं मेरा साया भी नहीं मेरा उजाले के बग़ैर और उजाले का तसव्वुर ख़्वाब सा रखता हूँ मैं

अब बताओ जाएगी ज़िंदगी कहाँ यारो

अब बताओ जाएगी ज़िंदगी कहाँ यारो फिर हैं बर्क़ की नज़रें सू-ए-आशियाँ यारो अब न कोई मंज़िल है और न रहगुज़र कोई जाने क़ाफ़िला भटके अब कहाँ कहाँ यारो फूल हैं कि लाशें हैं बाग़ है कि मक़्तल है शाख़ शाख़ होता है दार का गुमाँ यारो मौत से गुज़र कर ये कैसी ज़िंदगी पाई फ़िक्र पा-ब-जौलाँ है गुंग है ज़बाँ यारो तुर्बतों की शमएँ हैं और गहरी ख़ामोशी जा रहे थे किस जानिब आ गए कहाँ यारो राहज़न के बारे में और क्या कहूँ खुल कर मीर-ए-कारवाँ यारो मीर-ए-कारवाँ यारो सिर्फ़ ज़िंदा रहने को ज़िंदगी नहीं कहते कुछ ग़म-ए-मोहब्बत हो कुछ ग़म-ए-जहाँ यारो वक़्त का तक़ाज़ा तो और भी है कुछ लेकिन कुछ नहीं तो हो जाओ मेरे हम-ज़बाँ यारो एक मैं हूँ जिस को तुम मानते नहीं 'शाइर' और एक मैं ही हूँ तुम में नुक्ता-दाँ यारो

आए थे तेरे शहर में कितनी लगन से हम

आए थे तेरे शहर में कितनी लगन से हम मंसूब हो सके न तिरी अंजुमन से हम बेज़ार आ न जाएँ ग़म-ए-जान-ओ-तन से हम अपने वतन में रह के भी हैं बे-वतन से हम यूँ बे-रुख़ी से पेश न आ अहल-ए-दिल के साथ उठ कर चले न जाएँ तिरी अंजुमन से हम ये सर-कशी जुनूँ नहीं पिंदार-ए-इश्क़ है गुज़रे हैं दार से भी उसी बाँकपन से हम मेहर-ओ-मह-ओ-नुजूम की मानिंद रोज़-ओ-शब हर जौर-ए-आसमाँ पे रहे ख़ंदा-ज़न से हम मिलते हैं रोज़ दस्त-ए-सबा से पयाम-ए-गुल ज़िंदाँ में भी क़रीब हैं अहल-ए-चमन से हम 'शाइर' अदब के मोहतसिबों को ख़बर नहीं क्या काम ले रहे हैं तग़ज़्ज़ुल के फ़न से हम

आज की शब जैसे भी हो मुमकिन जागते रहना

आज की शब जैसे भी हो मुमकिन जागते रहना कोई नहीं है जान का ज़ामिन जागते रहना क़ज़्ज़ाक़ों के दश्त में जब तक क़ाफ़िला ठहरे क़ाफ़िले वालो रात हो या दिन जागते रहना तारीकी में लिपटी हुई पुर-हौल ख़मोशी इस आलम में क्या नहीं मुमकिन जागते रहना आहट आहट पर जाने क्यूँ दिल धड़के है कोई नहीं अतराफ़ में लेकिन जागते रहना ठंडी हवाओं का ऐ दिल एहसाँ न उठाना कोई यहाँ हमदर्द न मोहसिन जागते रहना राह-नुमा सब दोस्त हैं लेकिन ऐ हम-सफ़रो दोस्त का क्या ज़ाहिर क्या बातिन जागते रहना तारों की आँखें भी बोझल बोझल सी हैं कोई नहीं अब 'शाइर' तुझ-बिन जागते रहना

आँख की क़िस्मत है अब बहता समुंदर देखना

आँख की क़िस्मत है अब बहता समुंदर देखना और फिर इक डूबते सूरज का मंज़र देखना शाम हो जाए तो दिन का ग़म मनाने के लिए एक शोला सा मुनव्वर अपने अंदर देखना रौशनी में अपनी शख़्सियत पे जब भी सोचना अपने क़द को अपने साए से भी कम-तर देखना संग-ए-मंज़िल इस्तिआरा संग-ए-मर्क़द का न हो अपने ज़िंदा जिस्म को पत्थर बना कर देखना कैसी आहट है पस-ए-दीवार आख़िर कौन है आँख बनता जा रहा है रौज़न-ए-दर देखना ऐसा लगता है कि दीवारों में दर खुल जाएँगे साया-ए-दीवार के ख़ामोश तेवर देखना इक तरफ़ उड़ते अबाबील इक तरफ़ असहाब-ए-फ़ील अब के अपने काबा-ए-जाँ का मुक़द्दर देखना सफ़्हा-ए-क़िर्तास है या ज़ंग-ख़ुर्दा आईना लिख रहे हैं आज क्या अपने सुख़न-वर देखना

इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए

इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए चमकी जो ज़रा धूप तो जलने लगे साए सूरज के उजाले में चराग़ाँ नहीं मुमकिन सूरज को बुझा दो कि ज़मीं जश्न मनाए महताब का परतव भी सितारों पे गिराँ है बैठे हैं शब-ए-तार से उम्मीद लगाए हर मौज-ए-हवा शम्अ के दर पै है अज़ल से दिल से कहो लौ अपनी ज़रा और बढ़ाए किस कूचा-ए-तिफ़्लाँ में चले आए हो 'शाइर' आवाज़ा कसे है तो कोई संग उठाए

इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और

इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और जब आग हो नम-ख़ुर्दा तो उठता है धुआँ और वो क़हत-ए-जुनूँ है कि कोई चाक गरेबाँ आता है नज़र भी तो गुज़रता है गुमाँ और ये संग-ज़नी मेरे लिए बारिश-ए-गुल है थक जाओ तो कुछ संग ब-दस्त-ए-दिगराँ और सूरज को ये ग़म है कि समुंदर भी है पायाब या रब मिरे क़ुल्ज़ुम में कोई सैल-ए-रवाँ और 'शाइर' ये ज़मीं हज़रत-ए-ग़ालिब की ज़मीं है हर शेर तलब करता है ख़ून-ए-रग-ए-जाँ और

इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे

इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे ऐसा न हो ज़मीं का जवाब आसमान दे पढ़ना है तो नविश्ता-ए-बैनस्सुतूर पढ़ तहरीर-ए-बे-हुरूफ़ के मअनी पे ध्यान दे सूरज तो क्या बुझेगा मगर ऐ हवा-ए-महर तपती ज़मीं पे अब्र की चादर ही तान दे अब धूप से गुरेज़ करोगे तो एक दिन मुमकिन है साया भी न कोई साएबान दे मैं सोचता हूँ इस लिए शायद मैं ज़िंदा हूँ मुमकिन है ये गुमान हक़ीक़त का ज्ञान दे मैं सच तो बोलता हूँ मगर ऐ ख़ुदा-ए-हर्फ़ तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे सूरज के गिर्द घूम रहा हूँ ज़मीं के साथ इस गर्दिश-ए-मुदाम से मुझ को अमान दे मैं तंगी-ए-मकाँ से न हो जाऊँ तंग-दिल अपनी तरह मुझे भी कोई ला-मकान दे मेरी गवाही देने लगी मेरी शाएरी यारब मिरे सुख़न को वो हुस्न-ए-बयान दे

उस के ग़म को ग़म-ए-हस्ती तू मिरे दिल न बना

उस के ग़म को ग़म-ए-हस्ती तू मिरे दिल न बना ज़ीस्त मुश्किल है उसे और भी मुश्किल न बना तू भी महदूद न हो मुझ को भी महदूद न कर अपने नक़्श-ए-कफ़-ए-पा को मिरी मंज़िल न बना और बढ़ जाएगी वीरानी-ए-दिल जान-ए-जहाँ मेरी ख़ल्वत-गह-ए-ख़ामोश को महफ़िल न बना दिल के हर खेल में होता है बहुत जाँ का ज़ियाँ इश्क़ को इश्क़ समझ मश्ग़िला-ए-दिल न बना फिर मिरी आस बँधा कर मुझे मायूस न कर हासिल-ए-ग़म को ख़ुदारा ग़म-ए-हासिल न बना

कब तक रहूँ मैं ख़ौफ़-ज़दा अपने आप से

कब तक रहूँ मैं ख़ौफ़-ज़दा अपने आप से इक दिन निकल न जाऊँ ज़रा अपने आप से जिस की मुझे तलाश थी वो तो मुझी में था क्यूँ आज तक मैं दूर रहा अपने आप से दुनिया ने तुझ को मेरा मुख़ातब समझ लिया महव-ए-सुख़न था मैं तो सदा अपने आप से तुझ से वफ़ा न की तो किसी से वफ़ा न की किस तरह इंतिक़ाम लिया अपने आप से लौट आ दरून-ए-दिल से पुकारे कोई मुझे दुनिया की आरज़ू में न जा अपने आप से

क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए

क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए लेकिन जो हासिल-ए-ग़म-ए-दिल थे वो कम हुए ऐ तिश्नगी-ए-दर्द कोई ग़म कोई करम मुद्दत गुज़र गई है इन आँखों को नम हुए मिलने को एक इज़्न-ए-तबस्सुम तो मिल गया कुछ दिल ही जानता है जो दिल पर सितम हुए दामन का चाक चाक-ए-जिगर से न मिल सका कितनी ही बार दस्त-ओ-गरेबाँ बहम हुए किस को है ये ख़बर कि ब-उनवान-ए-ज़िंदगी किस हुस्न-ए-एहतिमाम से मस्लूब हम हुए अर्बाब-ए-इश्क़-ओ-अहल-ए-हवस में है फ़र्क़ क्या सब ही तिरी निगाह में जब मोहतरम हुए 'शाइर' तुम्हीं पे तंग नहीं अरसा-ए-हयात हर अहल-ए-फ़न पे दहर में ऐसे करम हुए

चाँद ने आज जब इक नाम लिया आख़िर-ए-शब

चाँद ने आज जब इक नाम लिया आख़िर-ए-शब दिल ने ख़्वाबों से बहुत काम लिया आख़िर-ए-शब हाए वो ख़्वाब कि ता'बीर से सरशार भी था उस की आँखों से जो इनआ'म लिया आख़िर-ए-शब हाए क्या प्यास थी जब उस के लबों से मैं ने मुस्कुराता हुआ इक जाम लिया आख़िर-ए-शब मैं जो गिरता भी तो क़दमों में उसी के गिरता उस ने ख़ुद बढ़ के मुझे थाम लिया आख़िर-ए-शब ज़िंदगी भर की मसाफ़त का मुदावा कहिए उस की बाहोँ में जो आराम लिया आख़िर-ए-शब

जब तक ज़मीं पे रेंगते साए रहेंगे हम

जब तक ज़मीं पे रेंगते साए रहेंगे हम सूरज का बोझ सर पे उठाए रहेंगे हम खुल कर बरस ही जाएँ कि ठंडी हो दिल की आग कब तक ख़ला में पाँव जमाए रहेंगे हम झाँकेगा आईनों से कोई और जब तलक हाथों में संग-ओ-ख़िश्त उठाए रहेंगे हम इक नक़्श-ए-पा की तरह सही इस ज़मीन पर अपनी भी एक राह बनाए रहेंगे हम जब तक न शाख़ शाख़ के सर पर हो ताज-ए-गुल काँटों का ताज सर पे सजाए रहेंगे हम

जो कुछ भी गुज़रता है मिरे दिल पे गुज़र जाए

जो कुछ भी गुज़रता है मिरे दिल पे गुज़र जाए उतरा हुआ चेहरा मिरी धरती का निखर जाए इक शहर-ए-सदा सीने में आबाद है लेकिन इक आलम-ए-ख़ामोश है जिस सम्त नज़र जाए हम भी हैं किसी कहफ़ के असहाब की मानिंद ऐसा न हो जब आँख खुले वक़्त गुज़र जाए जब साँप ही डसवाने की आदत है तो यारो जो ज़हर ज़बाँ पर है वो दिल में भी उतर जाए कश्ती है मगर हम में कोई नूह नहीं है आया हुआ तूफ़ान ख़ुदा जाने किधर जाए मैं साया किए अब्र के मानिंद चलूँगा ऐ दोस्त जहाँ तक भी तिरी राहगुज़र जाए मैं कुछ न कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात ख़ुशबू की तरह उड़ के तिरे दिल में उतर जाए

तख़ातुब है तुझ से ख़याल और का है

तख़ातुब है तुझ से ख़याल और का है ये नुक्ता वफ़ा में बड़े ग़ौर का है वो ख़ल्वत में कुछ और जल्वत में कुछ है करम उस का मुझ पर अजब तौर का है मिरा चेहरा भी मेरा चेहरा नहीं है ये एहसान मुझ पर मिरे दौर का है ये नफ़रत मोहब्बत का रद्द-ए-अमल है कि मुझ से तक़ाज़ा तिरे जौर का है नए दौर की इब्तिदा का है ज़ामिन कि दिल आइना गोशा-ए-सौर का है कराची में भी मो'तबर हो रहा है सुख़न में जो अंदाज़ लाहौर का है

दस्तक हवा ने दी है ज़रा ग़ौर से सुनो

दस्तक हवा ने दी है ज़रा ग़ौर से सुनो तूफ़ाँ की आ रही है सदा ग़ौर से सुनो शाख़ें उठा के हाथ दुआ माँगने लगीं सरगोशियाँ चमन में हैं क्या ग़ौर से सुनो महसूस कर रहा हूँ मैं कर्ब-ए-शिकस्तगी तुम भी शगुफ़्त-ए-गुल की सदा ग़ौर से सुनो गुलचें को देख लेती है जब कोई शाख़-ए-गुल देती है बद-दुआ कि दुआ ग़ौर से सुनो ये और बात ख़ुश्क हैं आँखें मगर कहीं खुल कर बरस रही है घटा ग़ौर से सुनो शाख़ों से टूटते हुए पत्तों को देख कर रोती है मुँह छुपा के हवा ग़ौर से सुनो ये दश्त-ए-बे-कराँ ये पुर-असरार ख़ामुशी और दूर इक सदाए ज़रा ग़ौर से सुनो ये बाज़-गश्त मेरी सदा की है या मुझे आवाज़ दे रहा है ख़ुदा ग़ौर से सुनो बढ़ती चली है अर्ज़-ओ-समा में कशीदगी कौनैन में है हश्र बपा ग़ौर से सुनो कब तक ज़मीं उठाए रहे आसमाँ का बोझ अब टूटती है रस्म-ए-वफ़ा ग़ौर से सुनो मैं टूटता हूँ ख़ैर मुझे टूटना ही है धरती चटख़ रही है ज़रा ग़ौर से सुनो सहरा में चीख़ते हैं बगूले तो शहर शहर इक शोर है सुकूत-फ़ज़ा ग़ौर से सुनो 'शाइर' तराशते तो हो दिल में ख़ुदा का बुत आवाज़ा-ए-शिकस्त-ए-अना ग़ौर से सुनो

नाला-ए-ग़म शो'ला-असर चाहिए

नाला-ए-ग़म शो'ला-असर चाहिए चाक-ए-दिल अब ता-ब-जिगर चाहिए कितने मह-ओ-नज्म हुए नज़्र-ए-शब ऐ ग़म-ए-दिल अब तो सहर चाहिए मंज़िलें हैं ज़ेर-ए-कफ़-ए-पा मगर इक ज़रा अज़्म-ए-सफ़र चाहिए आइना-ख़ाने में है दरकार क्या चाहिए इक संग अगर चाहिए दूर है दिल मंज़िल-ए-ग़म से हनूज़ इक ग़लत अंदाज़-ए-नज़र चाहिए तिश्नगी-ए-लब का तक़ाज़ा है अब बादा हो या ज़हर मगर चाहिए

पिंदार-ए-ज़ोहद हो कि ग़ुरूर-ए-बरहमनी

पिंदार-ए-ज़ोहद हो कि ग़ुरूर-ए-बरहमनी इस दौर-ए-बुतशिकन में है हर बुत शिकस्तनी सरसर चले कि तुंद बगूलों का रक़्स हो मौज-ए-नुमू रवाँ है तो हर गुल शगुफ़्तनी गुल-चीन-ओ-गुल-फ़रोश की ख़ातिर है फ़स्ल-ए-गुल और क़िस्मत-ए-जुनूँ है फ़क़त चाक-दामनी दीवार-ए-अब्र खींचिए किरनों की राह में ज़र्रों में क़ैद कीजिए सूरज की रौशनी मौज-ए-नफ़स से लरज़े है तार-ए-रग-ए-हयात फैली है शहर-ए-दिल में वो पुर-हौल सनसनी

बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है

बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है मिरे अलाव में अब राख के सिवा क्या है ये शहर-ए-सज्दा-गुज़ाराँ दयार-ए-कम-नज़राँ यतीम-ख़ाना-ए-इदराक के सिवा क्या है तमाम गुम्बद-ओ-मीनार-ओ-मिम्बर-ओ-मेहराब फ़क़ीह-ए-शहर की इम्लाक के सिवा क्या है खुले सरों का मुक़द्दर ब-ए-फ़ैज़-ए-जहल-ए-ख़िरद फ़रेब-ए-साया-ए-अफ़्लाक के सिवा क्या है तमाम उम्र का हासिल ब-फ़ज़्ल-ए-रब्ब-ए-करीम मता-ए-दीदा-ए-नमनाक के सिवा क्या है ये मेरा दावा-ए-ख़ुद-बीनी-ओ-जहाँ-बीनी मिरी जिहालत-ए-सफ़्फ़ाक के सिवा क्या है जहाँ-ए-फ़िक्र-ओ-अमल में ये मेरा ज़ोम-ए-वजूद फ़क़त नुमाइश-ए-पोशाक के सिवा क्या है

मंज़िल के ख़्वाब देखते हैं पाँव काट के

मंज़िल के ख़्वाब देखते हैं पाँव काट के क्या सादा-दिल ये लोग हैं घर के न घाट के अब अपने आँसुओं में हैं डूबे हुए तमाम आए थे अपने ख़ून का दरिया जो पाट के शहर-ए-वफ़ा में हक़्क़-ए-नमक यूँ अदा हुआ महफ़िल में हैं लगे हुए पैवंद टाट के खिंचती थी जिन के ख़ौफ़ से सद्द-ए-सिकंदरी सोए नहीं हैं आज वो दीवार चाट के अब तो दरिंदगी की नाश भी हुस्न है दीवार पर सजाते हैं सर काट काट के

मेरा शुऊ'र मुझ को ये आज़ार दे गया

मेरा शुऊ'र मुझ को ये आज़ार दे गया सूरज की तरह दीदा-ए-बेदार दे गया हर फूल इक शरर है तो हर शाख़ एक बर्क़ जन्नत का ख़्वाब दोज़ख़-ए-गुलज़ार दे गया लब-बस्तगी में हसरत-ए-गुफ़्तार जाग उठी ख़ौफ़-ए-सुकूत जुरअत-ए-इज़हार दे गया जलता हूँ अपनी आग में ख़ुर्शीद की तरह कैसी सज़ा ये शो'ला-ए-पिंदार दे गया महव-ए-सुख़न था मैं कि मिरा अक्स हँस पड़ा आईने से निकल के ये अशआ'र दे गया

मैं जो कुछ सोचता हूँ अब तुम्हें भी सोचना होगा

मैं जो कुछ सोचता हूँ अब तुम्हें भी सोचना होगा जो होगा ज़िंदगी का ढब तुम्हें भी सोचना होगा अभी तो आँख ओझल है मगर ख़ुर्शीद के हाथों खींचेगी जब रिदा-ए-शब तुम्हें भी सोचना होगा मुक़द्दर में तुम्हारे क्यूँ नहीं लिख्खा ब-जुज़ मेरे सलीब-ओ-दार का मंसब तुम्हें भी सोचना होगा ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं ये किस बर्ज़ख़ में हैं हम सब तुम्हें भी सोचना होगा ख़ुदा और आदमी दोनों अगर ऐन-ए-हक़ीक़त हैं हक़ीक़त में है क्या मज़हब तुम्हें भी सोचना होगा

मैं सो रहा था और कोई बेदार मुझ में था

मैं सो रहा था और कोई बेदार मुझ में था शायद अभी तलक मिरा पिंदार मुझ में था वो कज-अदा सही मिरी पहचान भी था वो अपने नशे में मस्त जो फ़नकार मुझ में था मैं ख़ुद को भूलता भी तो किस तरह भूलता इक शख़्स था कि आइना-बरदार मुझ में था शायद इसी सबब से तवाज़ुन सा मुझ में है इक मोहतसिब लिए हुए तलवार मुझ में था अपने किसी अमल पे नदामत नहीं मुझे था नेक-दिल बहुत जो गुनहगार मुझ में था

यम-ब-यम फैला हुआ है प्यास का सहरा यहाँ

यम-ब-यम फैला हुआ है प्यास का सहरा यहाँ इक सराब-ए-तिश्नगी है मौजा-ए-सहबा यहाँ रौशनी के ज़ावियों पर मुनहसिर है ज़िंदगी आप के बस में नहीं है आप का साया यहाँ आते आते आँख तक दिल का लहू पानी हुआ किस क़दर अर्ज़ां है अपने ख़ून का सौदा यहाँ तेरे मेरे दरमियाँ हाइल रही दीवार-ए-हर्फ़ रख लिया इक बात ने हर बात का पर्दा यहाँ देखिए तो ये जहाँ है इक जहान-ए-आब-ओ-गिल सोचिए तो ज़र्रे ज़र्रे में है इक दुनिया यहाँ

ये बात तो नहीं है कि मैं कम स्वाद था

ये बात तो नहीं है कि मैं कम स्वाद था टूटा हूँ इस बिना पे कि मैं कज-निहाद था इल्ज़ाम अपनी मौत का मौसम पे क्यूँ धरूँ मेरे बदन में मेरे लहू का फ़साद था अब मैं भी जल के राख हूँ मेरे जहाज़ भी कल मेरा नाम तारिक़-ए-इब्न-ए-ज़ियाद था ईमाँ भी लाज रख न सका मेरे झूट की अपने ख़ुदा पे कितना मुझे ए'तिमाद था गहरे समुंदरों में भी पत्थर मिले मुझे था मैं गुहर-शनास मगर संग-ज़ाद था तू बादबाँ दरीदा सफ़ीने का नाख़ुदा और क़ुल्ज़ुम-ए-सरब का मैं सिंदबाद था अब हूँ ज़बाँ बुरीदा तो ये सोच कर हूँ चुप ये भी सुख़न-शनास का अंदाज़-दाद था

ये शहर-ए-रफ़ीक़ाँ है दिल-ए-ज़ार सँभल के

ये शहर-ए-रफ़ीक़ाँ है दिल-ए-ज़ार सँभल के मिलते हैं यहाँ लोग बहुत रूप बदल के आरिज़ हैं कि मुरझाए हुए फूल कँवल के आँखें हैं कि झुलसे हुए ख़्वाबों के महल के चेहरा है कि है आईना-ए-गर्दिश-ए-दौराँ शहकार हैं क्या क्या मिरे नक़्काश-ए-अज़ल के फ़रहाद सर-ए-दार है शीरीं सर-ए-बाज़ार बदले नहीं अब तक मगर अंदाज़ ग़ज़ल के आए हैं ग़म-ए-इश्क़ में ऐसे भी मक़ामात दिल ख़ून हुआ आँख से आँसू भी न ढलके दुनिया भी इक आमाज-गह-ए-हुस्न है 'शाइर' देखो तो ज़रा हज्ला-ए-जानाँ से निकल के

रात सुनसान दश्त ओ दर ख़ामोश

रात सुनसान दश्त ओ दर ख़ामोश चाँद तारे शजर हजर ख़ामोश कोई आवाज़-ए-पा न बाँग-ए-जरस कारवाँ और इस क़दर ख़ामोश हर तरफ़ इक मुहीब सन्नाटा दिल धड़कता तो है मगर ख़ामोश हुए जाते हैं किस लिए आख़िर हम-सफ़र बात बात पर ख़ामोश हैं ये आदाब-ए-रहगुज़र कि ख़ौफ़ राह-रौ चुप हैं राहबर ख़ामोश मुख़्तसर हो न हो शब-ए-तारीक हम को जलना है ता सहर ख़ामोश ढल चुकी रात बुझ गईं शमएँ राह तकती है चश्म-ए-तर ख़ामोश जाने क्या बात कर रहे थे कि हम हो गए एक नाम पर ख़ामोश हम से 'शाइर' भी हो गए आख़िर रंग-ए-हालात देख कर ख़ामोश

शाएर साहब इस बस्ती में किसको गीत सुनाते हो

शाएर साहब इस बस्ती में किसको गीत सुनाते हो, सायों के सुनसान शहर में किसका दिल गरमाते हो। सोने चाँदी की दुनिया में प्यार की क़ीमत क्या होगी, दिल का खोटा सिक्का लेकर किस बाज़ार में जाते हो। जलता सूरज तपती धरती ऊँची - नीची राहगुज़र, अपने साए-साए चलकर पग-पग ठोकर खाते हो। उड़ते बगुलो के पीछे क्यों दौड़ रहे हो रुक जाओ, इस आबाद -ख़राबे में क्यों अपनी जान गँवाते हो। तनहा- तन्हा, खोए- खोए, चुप-चुप रहने से हासिल, कोने -कोने रो लेते हो दिल की आग बुझाते हो। जिनपर तुमको नाज़ था वो भी बिक ग्ए दो कौड़ी के मोल, अब भी वक़्त का रुख पहचानों वक़्त से क्यों टकराते हो। ऐसे रौशन सूरज से तो रात के तारे ही अच्छे, साथ न दे जो अँधियारे में क्यों उनके गुन गाते हो।

साए चमक रहे थे सियासत की बात थी

साए चमक रहे थे सियासत की बात थी आँखें खुलीं तो सुब्ह के पर्दे में रात थी मैं तो समझ रहा था कि मुझ पर है मेहरबाँ दीवार की ये छाँव तो सूरज के साथ थी किस दर्जा हौल-नाक है यारो शुऊर-ए-ज़ात कितनी हसीन पहले यही काएनात थी तेरी जफ़ा तो मोरिद-ए-इल्ज़ाम थी न है मेरी वफ़ा भी कोशिश-ए-तकमील-ए-ज़ात थी

हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग

हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग किस लिए कीजे किसी गुम-गश्ता जन्नत की तलाश जब कि मिट्टी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग कितने सादा दिल हैं अब भी सुन के आवाज़-ए-जरस पेश ओ पस से बे-ख़बर घर से निकल जाते हैं लोग अपने साए साए सर-नहुड़ाए आहिस्ता ख़िराम जाने किस मंज़िल की जानिब आज कल जाते हैं लोग शम्अ के मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-नियाज़ अक्सर अपनी आग में चुप चाप जल जाते हैं लोग 'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप ठोकरें खा कर तो सुनते हैं सँभल जाते हैं लोग (गुम-गश्ता=खोई हुई, आवाजे-ज़रस=काफिला के आगे-आगे बजने वाली घंटी की आवाज़, आहिस्ता ख़िराम=आहिस्ता चलते हुए, अहले-अंजुमन=दुनिया वाले, बेनियाज़=बेपरवाह)

हो चुकी अब शाइ'री लफ़्ज़ों का दफ़्तर बाँध लो

हो चुकी अब शाइ'री लफ़्ज़ों का दफ़्तर बाँध लो तंग हो जाए ज़मीं तो अपना बिस्तर बाँध लो दोश पर ईमान की गठरी हो सर हो या न हो पेट ख़ाली हैं तो क्या पेटों पे पत्थर बाँध लो आफ़ियत चाहो तो झुक जाओ सर-ए-पा-पोश-ए-वक़्त फिर ये दस्तार-ए-फ़ज़ीलत अपने सर पर बाँध लो क़ाज़ी-उल-हाजात से इक अहद बाँधा था तो क्या अब फ़क़ीह-ए-शहर से अहद-ए-मुकर्रर बाँध लो आशियानों में छुपे बैठे हैं सब शाहीन-ओ-ज़ाग़ तुम भी 'शाइर' ताइर-ए-तख़्ईल के पर बाँध लो

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